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Conman Natwarlal: नटवरलाल, जिसने राष्ट्रपति भवन, संसद और लाल क़िले तक को बेच दिया था


नोट करें कि नटवरलाल की इस कहानी में कुछ अपुष्ट बातें भी आ सकती हैं। क्योंकि उपलब्ध कुछ जानकारी पुष्ट नहीं है। हालाँकि इसका पूरा ध्यान दिया गया है कि पुष्ट बातें ज़्यादा दर्ज हो पाए और तथ्यों के आसपास ही ठहर कर बात की जाए।
 
एक बार भरी अदालत में उसने कहा था, ''सर, अपने बात करने का स्टाइल ही कुछ ऐसा है कि अगर 10 मिनट आप बात करने दें, तो आप वही फ़ैसला देंगे, जो मैं कहूँगा।'' भेष बदलने में वो माहिर था। उसने एक बार राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का फ़र्ज़ी हस्ताक्षर कर ठगी की थी! राजीव गांधी का नाम इस्तेमाल कर वो ठगी कर चुका था। कहते हैं कि धीरूभाई अंबानी, टाटा या बिरला, या फिर बड़े से बड़ा सरकारी अधिकारी, वो सबको अपना हुनर दिखा चुका था!
 
उसके एक नहीं, दो नहीं, पूरे 52 नाम थे! उसका असली नाम लिया जाए तो उसे कोई नहीं पहचानता, लेकिन 'नटवरलाल' बोला जाए, तब वह एक दंतकथा समान नाम है! उसने भारत की कई ऐतिहासिक धरोहरों को बेच दिया था! जी हां, यह सच है। नटवरलाल ने 3 बार ताजमहल, 2 बार लाल क़िला और 1 बार राष्ट्रपति भवन का सौदा कर डाला था! यही नहीं, एक बार तो उसने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के फ़र्ज़ी साइन करके भारत के संसद भवन को भी बेच दिया था! ग़ज़ब यह कि उसने जब संसद को बेचा था, तब उसके भीतर सांसद थे और कार्रवाई जारी थी!
 
नटवरलाल, जिसकी गिनती भारत के प्रमुख ठगों में होती है, बिहार के सीवान ज़िले के जीरादेई से दो किलोमीटर दूरी पर स्थित बंगरा गाँव से था। उसका असली नाम मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव था। उसके जन्म का साल 1912 बताया जाता है।
 
हालाँकि मिथिलेश नाम से किसीको शायद ही कोई चेहरा याद आए, लेकिन नटवरलाल नाम लिया जाए तो लगभग मुहावरा बन चुके इस नाम से हर कोई वाक़िफ़ है! उसने ठगी की अनेक घटनाओं से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को सालों तक परेशान रखा। चालाकी और ठगी को ललित कला बना देने वाला यह शख़्स अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उस पर बहुत सारी किताबें लिखी गईं और एक फ़िल्म बनी- मिस्टर नटवरलाल, जिसमें अमिताभ बच्चन हीरो थे। 
नटवरलाल मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव के 52 से ज़्यादा ज्ञात नामों में से एक था। उसे ठगी के जिन मामलों में सज़ा हो चुकी थी, वह अगर पूरी काटता तो 113 साल की थी! 30 मामलों में तो सज़ा हो ही नहीं पाई थी! 8 राज्यों की पुलिस ने उस पर इनाम घोषित किया था! वह हमेशा बहुत नाटकीय तरीक़े से अपराध करता था। उससे भी ज़्यादा नाटकीय तरीक़े से पकड़ा जाता था और उससे भी ज़्यादा नाटकीय तरीक़े से फ़रार होता था! वह 7 से अधिक बार अलग अलग जेलों से फ़रार हो चुका था।
 
एक कहानी के मुताबिक़, मिथिलेश कुमार उर्फ़ नटवरलाल को अपने इस 'हुनर' के बारे में तब पता चला, जब वो अपने पड़ोसी के साइन की नक़्ल करने में कामयाब हो गया। उसका पहला मुर्ग़ा वही पड़ोसी बना, जिसका नाम सहाय था। वो पड़ोसी अक्सर नटवर को ड्राफ्ट जमा करने के लिए बैंक भेजता था। जब तक सहाय को धोखे का पता चला, नटवर पैसे लेकर बिहार छोड़ कोलकाता पहुंच चुका था! नटवर ने उसके 1000 रुपयों का गोलमाल किया था। उस जमाने में यह काफी बड़ी रकम हुआ करती थी। कोलकाता पहुंचकर नटवर ने कपड़े के बिज़नेस में हाथ आजमाया, पर वो फ्लॉप हो गया।
 
बताया जाता है कि 1937 वह साल था, जब नटवरलाल पहली बार पकड़ा गया था। कोलकाता पुलिस ने उसे 9 टन लोहे से साथ पकड़ा था। ये लोहा सरकार का था और नटवर ने उसे नकली काग़ज़ बनाकर एक डीलर को बेच दिया था! इसके लिए उसे 6 महीने की सज़ा हुई। इसके बाद उसने एक नये जुर्म की शुरुआत की, जिसे 'प्रास्टिटूट पॉयजन' कहा जाता था। उस पर आरोप लगा कि वो अनैतिक काम करने वाली महिलाओं को ड्रग्स देकर उनके पैसे लेकर चंपत हो जाता था।
 
उसने रेलवे स्टेशन पर छोटी मोटी ठगी के काम भी किए। इसमें नकली सरकारी काग़ज़ात बेचना, सामान को निकालने के लिए नकली परमिशन लेटर, आदि शामिल थे। वह रेलवे अधिकारियों को फ़र्ज़ी रिलीज़ ऑर्डर और चेक जारी करता था और माल लेकर ग़ायब हो जाता था!
 
मिथिलेश कुमार का नाम नटवरलाल कैसे पड़ा उसकी कहानी इंडिया टुडे पत्रिका में 1987 में प्रकाशित हुई थी। उस रिपोर्ट की माने तो, 1940 के आसपास मिथिलेश कुमार ने ठगी के धंधे में अपने साथ नटवरलाल नाम के एक गुजराती सह्योगी को रखा था। दोनों मिलकर ठगी किया करते थे। एक बार कुछ डीलर एक संदिग्ध मामले में पुलिस को साथ लेकर आज़मगढ़ स्टेशन पहुंचे। वहाँ मिथिलेश और नटवरलाल, दोनों मौजूद थे।
मिथिलेश पकड़ा गया, जबकि उसका सहयोगी नटवरलाल भाग निकला। लेकिन पुलिस को लगा कि वह नटवरलाल है। पुलिस को तथ्य बाद में पता तो चला, किंतु यह नाम उससे सदा के लिए चिपक गया और जल्द ही देश में धोखाधड़ी का पर्याय बन गया। 40 का दौर आते-आते वह नटवरलाल के नाम से मशहूर हो गया। 50 और 60 के दशक में उसका नाम और बदनाम हो गया।
 
इन सालों में वो पूरे देश में घूम रहा था और सुनारों, घड़ी के व्यापारी, अन्य बड़े व्यापारी, बैंक वालों के साथ साथ सरकारी अफ़सरों को भी ठग रहा था! इस समय में उसने दिल्ली और यूपी के कई घड़ी व्यापारियों को ठगा। इन सबको वो बताता था कि वो एक मशहूर नेता का सचिव है। इन ठगी का हिसाब लगाया जाए तो वो लाखों में होगी।

 
1987 के साल की बात है। जगह थी दिल्ली का कनॉट प्लेस। सुरेंद्र शर्मा की घड़ी की दुकान। सफ़ेद कमीज़ और पैंट पहने एक बूढ़ा आदमी घड़ी की दुकान में जाता है और ख़ुद का परिचय वित्त मंत्री नारायण दत्त तिवारी के पर्सनल स्टाफ़ डीएन तिवारी के रूप में देता है। वह दुकानदार से कहता है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं, इसलिए उन्होंने पार्टी के सभी वरिष्ठ लोगों को समर्थन के लिए दिल्ली बुलाया है और इस बैठक में शामिल होने वाले सभी लोगों को वो घड़ी भेंट करना चाहते हैं, तो मुझे आपकी दुकान से 93 घड़ी चाहिए।
 
दुकानदार यक़ीन तो नहीं कर पा रहा था, किंतु उस बूढ़े आदमी का बात करने का स्टाइल ही कुछ ऐसा था कि ख़रीदी की बात आगे बढ़ ही गई।
 
अगले दिन वो बूढ़ा आदमी घड़ी लेने दुकान पहुंचा। दुकानदार को घड़ी पैक करने की बात कह एक स्टाफ़ को अपने साथ नॉर्थ ब्लॉक (नॉर्थ ब्लॉक वो जगह है, जहाँ प्रधानमंत्री से लेकर बड़े-बड़े अफ़सरों का ऑफ़िस होता है) ले गया। वहाँ उसने साथ आए स्टाफ़ को भुगतान के तौर पर 32,829 रुपए का बैंक ड्राफ्ट दे दिया। दो दिन बाद जब दुकानदार ने ड्राफ्ट जमा किया तो बैंक वालों ने बताया कि ड्राफ्ट तो फ़र्ज़ी है!
वह नटवरलाल था, जिसने उस व्यापारी को चूना लगाया था। फिर तो इसके बाद नटवरलाल वित्त मंत्री वीपी सिंह, तो कभी वाराणसी के ज़िला जज का नाम, कभी यूपी के सीएम के नाम पर अलग-अलग शहर में दुकानदारों को चूना लगाता रहा।
 
पटना सीआईडी के तब के डीजीपी एसके सक्सेना ने एक बार उसके बारे में कहा था, "नटवरलाल जैसा दूसरा ठग भारत में नहीं हुआ। लगता है वो राष्ट्रीय एकता में बहुत विश्वास करता है। क्योंकि भारत का एक भी राज्य ऐसा नहीं, जहाँ उसने ठगी को अंजाम न दिया हो।" (संदर्भ, इंडिया टुडे पत्रिका रिपोर्ट, राज चेंगप्पा, 30 नवंबर 1987)
 
नटवरलाल ने 1977 में कानपुर के बेकन गंज स्थित घड़ी की एक दुकान से लाखों की ठगी की थी। वह डीएम का अधिकारी अंबिका पांडे बनकर दुकान पर पहुंचा और बेटी की शादी में मेहमानों को घड़ियाँ देने की बात कर महंगी और कीमती घड़ियाँ ले लीं। कलेक्ट्रेट से चेक देने की बात कह दुकानदार के नौकर को साथ लिया और डीएम कार्यालय भी पहुंचा! और फिर गच्चा देकर फ़रार हो गया!
 
इस मामले में 1996 में नटवरलाल को बिहार से 'बी' वारंट पर तत्कालीन एसीएमएम प्रथम बीबी सिंह की अदालत में लाया गया था। उस वक्त उसकी उम्र 84 साल थी। दिल्ली की तिहाड़ जेल से कानपुर के एक मामले में पेशी के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के दो जवान और एक हवलदार उसे लेने आए थे। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से लखनऊ मेल में उन्हें बैठना था। स्टेशन पर ख़ासी भीड़ थी। नटवरलाल बैंच पर बैठा हांफ रहा था। फिर अचानक उसने पुलिस के दोनों जवान और हवलदार को गच्चा दिया और हाथ से रस्सी निकाल कर भीड़ में शामिल हो गया!
 
उन दिनों उसके परिवार और रिश्तेदारों के बारे में सिर्फ़ इतना पता था कि परिवार ने उसे घर से निकाल दिया था, पत्नी की बहुत पहले मृत्यु हो गई थी और संतान के बारे में अता पता नहीं था।
सन 1957 में वह कानपुर जेल से भागा था। उसने अपने सेल में एक सब इंस्पेक्टर की पोशाक छिपाकर रखी थी। उसने गार्ड को पैसों से भरी अटैची देकर दरवाज़ा खुलवाया और सब इंस्पेक्टर की वर्दी पहनकर फ़रार हो गया। कहते हैं कि गार्ड ने जब अटैची खोली तो वह अख़बारों से भरी पड़ी थी!
 
हर ठग की तरह वह भी ख़ुद को रॉबिन हुड मानता था। कहता था कि मैं अमीरों से लूट कर ग़रीबों को देता हूँ। उसने कहा था, ''मैंने कभी हथियार का इस्तेमाल नही किया। मैंने कभी लोगों को नहीं धमकाया। मैंने उनसे पैसे मांगे और लोग पैसे दे गए। इसमें मेरा अपराध क्या है?'' वह कहता था, "मुझे एक घंटे के लिए स्वतंत्र छोड़ दो और मुझे उसी सड़क से हज़ारों-हज़ारों रुपये मिलेंगे, जहाँ से मैंने पैसे लिए थे। और लोग स्वेच्छा से मुझे दे देंगे।"
 
1987 में जब नटवरलाल को पुलिस ने वाराणसी से गिरफ़्तार किया तब इंडिया टुडे पत्रिका के रिपोर्टर से उसने यह बात कही थी।
 
30 नवंबर 1987 के दिन इंडिया टुडे पत्रिका में राज चेंगप्पा ने नटवरलाल पर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उस रिपोर्ट के मुताबिक़, उन दिनों उत्तर प्रदेश की एक जेल में एक कैदी बंद था, जो धोखाघड़ी के मामले में लाया गया था। इस मामले का नियमित क्रॉस-चेक चल रहा था। वाराणसी पुलिस ने पटना सीआईडी को एक पत्र लिख उस कैदी, अंबिका पांडे उर्फ़ शंकर लाल उर्फ़ बीएन मयूर, के बारे में जानकारी मांगी थी, क्योंकि दावा किया जा रहा था कि उसका इतिहास बिहार से जुड़ा है।
 
रिपोर्ट के मुताबिक़ फ़ाइल पटना सीआईडी के पुलिस उप अधीक्षक भोला प्रसाद के पास पहुंची। नियमित क्रॉस-चेक का उबाऊ मामला था। प्रसाद सुस्ती से फ़ाइल को पलट रहे थे, तभी अपराधी के स्नैपशॉट पर उनकी नज़रें ठहर गईं। वो उठ खड़े हुए। उन्हें पता चल गया था कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस शख़्स को पकड़ा है, वह कोई आम धोखेबाज़ नहीं है। वह मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव था, जिसे नटवरलाल के नाम से जाना जाता था।
नियमित क्रॉस-चेक के दौरान किसी अंबिका पांडे उर्फ़ शंकर लाल उर्फ़ बीएन मयूर की बात थी, लेकिन सामने आया वह नाम, जो अनेक राज्यों में वांछित था, जो भारत का मशहूर ठग था, जो आख़िरी बार 1979 में देखा गया था। 8 साल बाद वह फिर एक बार पुलिस के सामने था।
 
प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ इसकी ख़बर तत्काल वाराणसी पुलिस अधीक्षक अरविंद जैन को दी गई। उन्हें जब यह संदेश मिला तो वह दंग रह गए। कैंटोनमेंट पुलिस स्टेशन के लॉक-अप में जो आदमी था, वह एक हानिरहित, पेट वाले बूढ़े व्यक्ति जैसा लग रहा था, जो उसके जीवन पर आधारित मिस्टर नटवरलाल में अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए साहसी नायक से बहुत अलग था।
 
गहन पूछताछ के बाद ही उस शख़्स ने खुलासा किया कि वह कौन था और गर्व से कहा, "ऐसे सैकड़ों चोर हैं, जिन्होंने ख़ुद को मेरे जैसा बताया। लेकिन मैं असली नटवरलाल हूँ।"
 
फिर क्या था। तुरंत आसपास सुरक्षा कड़ी कर दी गई। वह जिस कमरे में बंद था वहाँ चौबीसों घंटे दो सशस्त्र कांस्टेबलों को तैनात किया गया और प्रति घंटे रिपोर्ट भेजने के लिए कहा गया। दूसरे पुलिसकर्मी इलाहाबाद, पटना, लखनऊ और रांची की ओर रवाना हो गए। इस बार वो सबसे लंबे समय तक बंद रहा और फिर भाग निकला।
 
आख़िरी बार नटवरलाल बिहार के दरभंगा रेलवे स्टेशन पर देखा गया था। पुलिस के पुराने थानेदार ने, जो सिपाही के जमाने से नटवरलाल को जानता था, उसे पहचान लिया। नटवरलाल ने भी देख लिया कि उसे पहचान लिया गया है। सिपाही अपने साथियों को लेने थाने के भीतर गया और नटवरलाल ग़ायब हो गया। पास खड़ी मालगाड़ी के डिब्बे से नटवरलाल के उतारे हुए कपड़े मिले और गार्ड का यूनीफॉर्म ग़ायब था!
इसके बाद नटवरलाल का नाम 2004 में तब सामने आया, जब उसने अपनी वसीयतनुमा फ़ाइल एक वकील को सौंपी। वह बलरामपुर के अस्पताल में भर्ती हुआ और इसके बाद एक दिन अस्पताल छोड़ कर चला गया। डॉक्टरों का कहना था कि जिस हालत में वह था, उसे देखते हुए उसके तीन चार दिन से ज़्यादा समय तक बचने की गुंजाइश नहीं थी।
 
वह अच्छी अंग्रेज़ी बोल लेता था। जितनी अंग्रेज़ी वह बोल लेता था, उतनी उसका काम चलाने के लिए काफी थी। उसके शिकारों में ज़्यादातर या तो मध्यम दर्जे के सरकारी कर्मचारी होते थे, या फिर छोटे शहरों के बड़े इरादों वाले व्यापारी, जिन्हें नटवरलाल ताजमहल बेचने का वायदा भी कर देता था। वायदा करने की शैली कुछ ऐसी होती थी कि उस वायदे पर लोग ऐतबार भी कर लेते थे!
 
ख़ुद नटवरलाल ने एक बार भरी अदालत में कहा था, ''सर, अपने बात करने का स्टाइल ही कुछ ऐसा है कि अगर 10 मिनट आप बात करने दें, तो आप वही फ़ैसला देंगे, जो मैं कहूँगा।''
 
उसने कॉमर्स की पढ़ाई की, फिर वकालत का अभ्यास किया और ठगी को अपना पेशा बनाया! नटवरलाल के परिवार के बारे में ज़्यादा जानकारी तो किसी के पास मौजूद नहीं है, किंतु माना जाता है कि उसकी एक बेटी है, जो फ़िलहाल यूएस में रहती है।
 
बकौल पत्रकार विजय विनीत, नटवरलाल ठगी को 'धूर्त विद्या' या 'धूर्त दर्शन विज्ञान' कहा करता था! जैसा कि आज कल के ठग कहते हैं। वाराणसी में जब उसकी असलियत पुलिस के सामने आई, उसके बाद वह कहता, ''अच्छा है, अब सरकारी ख़र्चे पर मेरी बीमारी का इलाज होगा।''
मीडिया रिपोर्टों की माने तो, उसने तत्कालीन वित्त मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा और प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से कहा था कि मेरे पास विद्या है, मुझे इजाज़त दें तो भारत के सारे क़र्ज़ भरवा दूँगा। फिर जब विजय विनीत ने उसका इंटरव्यू लिया तब उसने कहा था, ''मैंने सरकार से कहा था। मेरी बात नहीं मानी गई। तब मज़बूरन सरकार को अपना करतब दिखाना पड़ा। ताजमहल, लाल क़िला, संसद भवन और राष्ट्रपति भवन तक का सौदा करके बताना पड़ा कि मैं कोई ऐरा-गैरा नहीं हूँ। विद्या है मेरे पास।''
 
उसने भारत की कई ऐतिहासिक धरोहरों को बेच दिया था! उसने तीन बार ताजमहल, दो बार लाल क़िला और एक बार राष्ट्रपति भवन को बेच दिया था! यही नहीं, एक बार तो उसने भारत के संसद भवन का भी सौदा कर डाला था! ग़ज़ब यह कि उसने जब संसद को बेचा, तब संसद के भीतर सांसद थे और कार्रवाई जारी थी! उसने यह ठगी राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के फ़र्ज़ी दस्तख़त कर की थी!
 
उसने देश की सरकारी इमारतें और राष्ट्रीय धरोहर किसी विदेशी निवेशकों या कारोबारियों को बेच दी थीं! वह संबंधित सभी इमारतों के सारे काग़ज़ात तैयार रखता था। सभी काग़ज़ात बाकायदा सरकारी स्टेंप के साथ होते थे। साथ ही पूरी डिटेल के साथ तैयार किए जाते थे, जिसमें इमारत के बेसमेंट से लेकर टेरेस, गार्डन, हॉल सभी का ब्योरा होता था! असली दस्तावेज़ की तरह दिखने वाली पूरी फ़ाइल तैयार होती थी!
 
वह फ़र्ज़ी हस्ताक्षर में माहिर था। उसे भेष बदलने में महारत हासिल थी। और उससे भी ज़्यादा विशेषज्ञ था लोगों को यक़ीन दिलाने में। वह जेल से भागने में भी उतना ही आगे था।
 
भारत में अपराधियों या ठगों के प्रशंसकों की भी तादाद कम नहीं होती! बिहार में उसके गाँव के लोगों की मांग थी कि यहाँ नटवरलाल के नाम एक स्मारक की स्थापना की जाए। यहाँ कुछ लोग मानते हैं कि नटवरलाल एक भला आदमी था और लोगों की मदद करता था। बताया जाता है कि दूसरे ठगों की तरह वो भी लोगों को ठग कर कमाए हुए पैसों से गाँव वालों के लिए अक्सर कपड़े या खाना ख़रीदता था, या ज़रूरतमंद लोगों को पैसे देकर उनकी मदद भी करता था। नटवरलाल से प्रभावित होकर कई लोग उसके शागिर्द बने।
ठगी से ढेरों पैसे कमाने के बाद एक बार नटवरलाल तीन कार के क़ाफ़िले के साथ अपने गाँव बंगरा गया। गाँव वालों के मुताबिक़ नटवरलाल पूरे रईस अंदाज़ में गाँव पहुंचा था। उसने जो इत्र लगा रखा था उसकी ख़ुशबू मीलों तक फैली थी। नटवरलाल ने गाँव में शामियाना लगवाया, गाँव वालों के लिए बढ़िया खाने का इंतज़ाम किया और इस भोज के बाद उसने गाँव के हर ग़रीब आदमी को 100 रुपए दिए।
 
उसे अलग अलग मामलों में जो सज़ा हुई उसकी गिनती की जाए तो 113 साल होते थे! मोस्ट वॉन्टेड अपराधियों की सूची में शामिल नटवरलाल के ख़िलाफ़ 8 राज्यों में 100 से अधिक मामले दर्ज थे। वह अपने जीवनकाल में 9 बार गिरफ़्तार हुआ, लेकिन किसी न किसी तरह पुलिस के चंगुल से भाग निकला। अंतिम बार जब वह पुलिस की पकड़ से भागा, तब उसकी आयु 84 साल थी! 24 जून 1996 को उसे कानपुर जेल से एम्स अस्पताल लाया जा रहा था। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पुलिस टीम को चकमा देकर वह भाग निकला। इस घटना के बाद उसे फिर कभी देखा नहीं जा सका।
 
आप कह सकते हैं कि पूरी ज़िंदगी ठगी कर लोगों को गच्चा देने वाले नटवरलाल ने मरने मे भी लोगों को ठगा था। वर्ष 2009 में नटवरलाल के वकील ने उसके ख़िलाफ़ दायर 100 मामलों को हटाने की याचिका दायर की थी। उसने दलील दी कि 25 जुलाई 2009 को नटवरलाल मर चुका है। उधर नटवरलाल के भाई का दावा था कि उसकी मौत क़रीब 13 साल पहले वर्ष 1996 में रांची में हो गई थी।
 
अदालत ने रिपोर्ट मांगी, लेकिन चार साल बाद भी रिपोर्ट नहीं आई। इसी मामले में 25 मई, 2013 को एक और प्रार्थना पत्र अदालत में दिया गया था। नटवरलाल के वकील के अनुसार फ़ाइल न मिलने से प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी।
नटवरलाल के जीवन से प्रेरित होकर बॉलीवुड में एक फ़िल्म बनी, मिस्टर नटवरलाल। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में थे अमिताभ बच्चन। अभी हाल ही में राजा नटवरलाल नामक एक फ़िल्म बनी है, जिसमें मुख्य भूमिका इमरान हासमी ने निभाई है।
 
अमिताभ बच्चन वाली नटवरलाल फ़िल्म सन 1979 में आई थी। 1987 में जब नटवरलाल गिरफ़्तार हुआ तब इंडिया टुडे पत्रिका के रिपोर्टर ने उससे पूछा था, "क्या आपने अपनी कहानी पर बनी फ़िल्म 'मिस्टर नटरवर लाल' देखी है?" उसने जवाब दिया,  "जब मैं ख़ुद ही असली हीरो हूँ, तो नकली हीरो को क्यों देखूँ?"
 
उसने तो अपने वकील के द्वारा फ़िल्म मेकर्स पर मुकदमा ही दायर कर दिया था! इसके बाद इस फ़िल्म का नाम बदला गया। फ़िल्म का असली नाम नटवरलाल था, जो बाद में मिस्टर नटवरलाल के नाम से प्रचारित हुई। बता दें कि इस फ़िल्म का बाद में जो नया नाम रखा गया, वह 'अमिताभ बच्चन इन एंड ऐज़ मिस्टर नटवरलाल' है। सेंसर सर्टीफिकेट पर यह नाम लिखा गया है।
 
चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से न जाए। सबसे पहले उस पड़ोसी को अपना हुनर दिखाने वाले नटवरलाल ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में अपने वकील तक को नहीं छोड़ा था! उसने अपने अधिवक्ता (वकील) को ही ठग लिया था! नटवरलाल ने उन्हें सीवान और बिहार में अपनी काफी संपत्ति होने का दावा कर कुछ हिस्सा देने का लालच दिया था। अधिवक्ता अहमद अली के मुताबिक़, वह जेल में उससे मिलने गए तब उसने उनसे कुछ रुपये लिए थे, जो कभी वापस नहीं आए।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)