नोट करें कि ठग बेहराम की इस कहानी में कुछ
अपुष्ट बातें भी आ सकती हैं। क्योंकि उपलब्ध ज़्यादातर जानकारी पुष्ट नहीं है। हालाँकि
इसका पूरा ध्यान दिया गया है कि पुष्ट बातें ज़्यादा दर्ज हो पाए। उपरांत, यह कहानी उस दौर के भारत में व्याप्त ठग त्रासदी, उनके कारनामों, अन्य जानकारी और दूसरे संदर्भों को अवश्य उजागर
करती है। उसी दौर में ऐसा ही एक दूसरा ठग हुआ करता था, जिसका नाम आमिर अली खाँ था। हम यहाँ ठग बेहराम की बात को लेकर
आगे बढ़ते हैं।
जिस रास्ते से वो गुज़रता था, वहाँ कोसों दूर इंसान तो क्या, इंसानों की निशानी तक मिलना बंद हो जाती थी। जहाँ जहाँ भी वो जाता, प्रवासी समुदाय इलाक़ा खाली कर उसकी पहुंच से दूर निकल जाते और स्थायी निवासियों
का हर पल खौफ़ में ही गुज़रता। पैसों के लिए वो लोगों को अपना निशाना बनाता था। वो लोगों
को लूंटता ही नहीं था, किंतु उनकी हत्या भी कर देता था। उसका हथियार होता था एक रूमाल
और एक सिक्का। वो रूमाल से अपने शिकार को मौत देता था। कहते हैं कि एक नहीं, दो नहीं, दो सौ नहीं, तीन सौ नहीं, उसने नौ सौ से भी ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा था।
व्यापारी, क़ाफ़िला और पीला रूमाल…। ये दास्तान है एक ऐसे ठग की, जिसे भारत के अब तक के सबसे क्रूर सीरियल किलर का ख़िताब हासिल है। व्यापारियों
के क़ाफ़िले को वो अपना निशाना बनाता था। बेहराम ठग का दिल्ली से लेकर ग्वालियर और जबलपुर
तक इस कदर खौफ़ था कि लोगों ने इस रास्ते से चलना बंद कर दिया था। और यह बात पुष्ट
रूप से कही जाती रही है।
बेहराम ठग को समझने के लिए हमें उसी युग (1765-1840) में चलना होगा, जिसमें वो रहता था। 18वीं सदी ख़त्म होने को थी। मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो
चला था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश में अपनी जड़ें जमा ली थीं। ब्रिटिश पुलिस देश में
क़ानून व्यवस्था अपने हिसाब से दुरुस्त करने में जुटी थी। उसी दौर में दिल्ली से जबलपुर
के रास्ते में पड़ने वाले थानों में कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रता था, जब कोई पीड़ित आदमी अपने किसी क़रीबी की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराने न आता
हो। अंग्रेज़ अफ़सर परेशान थे कि इतनी बड़ी तादाद में लोग ग़ायब कैसे हो रहे हैं?
कराची, लाहौर, मंदसौर, मारवाड़, काठियावाड़, मुर्शिदाबाद के व्यापारी बड़ी तादाद में रहस्यमय परिस्थितियों
में अपने पूरे की पूरे क़ाफ़िलों के साथ ग़ायब थे! तिजारत करने जाते इन व्यापारियों के
मुनीम और कारिंदे भी रास्ते से ग़ायब हो चुके थे! लखनऊ की तवायफ़ हों, बारातें हो, डोली में बैठकर ससुराल जाती नई नवेली दुल्हनें हो, या फिर बंगाल से इलाहाबाद और बनारस की तीर्थयात्रा पर आने वाले दल हो, सभी इन रास्तों से ग़ायब हो रहे थे!
उन दिनों सूरत और बॉम्बे अफ़ीम के कारोबार के केंद्र बन चुके
थे। अफ़ीम का पैसा राजपुताना, मालवा तक पहुंच रहा था। लंबी दूरी तक चांदी और सोने के सिक्के
ले जाने के लिए ख़ास लोग होते थे, जो अक्सर भिखारी का भेष लेकर चलते, ताकि किसी को शक न हो। अब तो यही लोग भी ग़ायब होने लगे थे! इतना ही नहीं, छुट्टी से घर लौट रहे ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों की टोली भी अपनी ड्यूटी पर
नहीं लौट रही थीं! उनका भी कहीं कोई अता-पता नहीं था!
पुलिस की फ़ाइलें लगातार ग़ायब हो रहे लोगों की शिकायतों से बढ़ती
जा रही थीं। अंग्रेज़ अफ़सर चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। आलम ये हो गया कि ईस्ट इंडिया
कंपनी को एक फ़रमान जारी करना पड़ा। फ़रमान यह था कि कंपनी बहादुर का कोई भी सिपाही या
सैनिक इक्का-दुक्का यात्रा नहीं करेगा। निर्देश दिए गए कि यात्रा करते समय सभी सैनिक
बड़े झुंड में हो और अपने साथ ज़्यादा नक़दी लेकर न चले।
व्यापारी हो या फिर तीर्थयात्रा पर निकले श्रद्धालु, या फिर चार धाम की यात्रा करने जा रहे परिवार, सभी निकलते तो अपने अपने घरों से, लेकिन न जाने कहाँ ग़ायब हो जाते! ब्रिटिश कंपनी के सैनिक तक इसका शिकार बन रहे
थे! क़ाफ़िले में चलने वाले लोगों को ज़मीन खा जाती है या आसमान निगल जाता है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
इस बीच इससे भी बड़ी हैरानी की बात ये थी कि पुलिस को लगातार
ग़ायब हो रहे इन लोगों की लाश तक नहीं मिलती थी! लाश मिलने के बाद पुलिस की तफ़्तीश आगे
बढ़ सकती थी। किसीको समझ नहीं आ रहा था कि आखिर लोग ग़ायब कैसे हुए जा रहे हैं? ब्रिटिश हुकूमत ने कुछ जाँचकर्ताओं का एक दल भी बनाया, किंतु ज़्यादा कुछ मिल नहीं पाया। ब्रिटिश हुकूमत ने अनेक बार इन मामलों को रोकने
के प्रयास किए, किंतु सालों बाद भी यह रोका नहीं जा सका था।
आखिरकार सन 1830 के बाद एक विशेष अंग्रेज़ अफ़सर को इस कार्य के लिए नियुक्त किया
गया। उनका नाम था कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन। वे 1809 से ही भारत में काम कर रहे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार
ग़ायब हो रहे लोगों का रहस्य सुलझाने की ज़िम्मेदारी स्लीमन को सौंपी। स्लीमन ने ज़मीन-आसमान
एक कर दिया। अनेक खौजी अभियान चले, छापे पड़े, ख़ुफ़िया जानकारियाँ जुटाई गई। नतीजा शून्य।
आखिरकार स्लीमन की महीनों की कड़ी मेहनत के बाद पता चला कि इन
लोगों के ग़ायब होने के पीछे किसका हाथ है। अनेक लोगों को ग़ायब होने के पीछे ज़िम्मेदार
था ठगों का एक गिरोह। एक ऐसा गिरोह, जो लूटपाट करता था और साथ ही लोगों की हत्या कर देता था। इस
गिरोह में क़रीब 200 सदस्य थे।
स्लीमन को पता चला कि इस गिरोह का मुखिया बेहराम नाम का एक इंसान
था, जो कच्चे-पक्के रास्तों से लेकर जंगलों में अपने साथियों के साथ घोड़ों पर घूमता
रहता। उसके निशाने पर तिजारत करने जाने वाले व्यापारी, अमीर सेठ या तवायफ़ होती थीं। यह गिरोह अनैतिक व्यापार करने वाली महिलाओं को भी
अपना शिकार बनाता था। हर वो शख़्स, जिसके पास धन-दौलत होती थी, वे इन ठगों का शिकार बन जाते थे। बेहराम ठग के नेतृत्व में ही
गिरोह के बाकी सदस्य लूटपाट और हत्याओं को अंजाम देते थे।
ठगों के ख़िलाफ़ विलियम स्लीमन ने पूरे उत्तर भारत में एक मुहिम
छेड़ दी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने विलियम स्लीमन को सन 1835 में Thuggee And Dacoity Department का इंचार्ज बना दिया। इस ऑफ़िस का मुख़्यालय स्लीमन ने जबलपुर में बनाया। स्लीमन
जानते थे कि जबलपुर और ग्वालियर के आस-पास ही ठग गिरोह सक्रिय हैं। ये दोनों ऐसी जगह
थीं, जहाँ से देश के किसी भी कोने में जाने के लिए गुज़रना पड़ता था। साथ ही इस इलाक़े
की सड़कें घने जंगल से होकर गुज़रती थीं। इसका फ़ायदा ठग बड़े आराम से उठाते थे। इन सुनसान
जंगलों में किसी को भी निशाना बनाना आसान होता था, साथ ही अपने शिकार का काम तमाम करने के बाद यहाँ छिपना भी आसान
था।
विलियम स्लीमन ने जबलपुर में अपना मुख़्यालय बनाने के बाद सबसे
पहले दिल्ली से लेकर ग्वालियर और जबलपुर तक के हाईवे के किनारे जो जंगल बन चुका था, उसका सफाया कर दिया। इसके बाद स्लीमन ने गुप्तचरों का एक बड़ा जाल बिछाया। कहते
हैं कि भारत में इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की नींव तभी की रखी हुई है। गुप्तचरों की
मदद से स्लीमन ने पहले तो ठगों की भाषा को समझने की कोशिश की। ठग अपनी इस विशेष भाषा
को ‘रामोसी’ कहते थे। रामोसी एक सांकेतिक भाषा थी, जिसे ठग अपने शिकार को ख़त्म करते वक्त इस्तेमाल करते थे।
यह एक ऐसी भाषा थी, जिसे सिर्फ़ ठगों का समुदाय ही समझता था। यूँ तो इस भाषा में
शब्द आम भाषा जैसे ही होते थे, लेकिन उनका अपना एक अलग ही अर्थ हुआ करता था! ठग लोग इस भाषा
का इस्तेमाल अपने शिकार के बीच भी आराम से किया करते थे।
कुछ लेखों में रामोसी भाषा के कुछ शब्दों को इस प्रकार से वर्णित
किया गया है। ग़रीब शिकार को लट्कनिया, पक्के ठग को बोरा या औला कहते थे, ठगों के गिरोह के सरगना को जमादार, अशरफी को गान या ख़ार, जिस जगह सारे ठग इकठ्ठा होते थे उसे बाग़ या फुर, शिकार के आस-पास मंडराने वाले को सोथा (या सौंधा), जो ठग सोथा की मदद करता उसे दक्ष, सभी कामों पर नज़र रखने वाले फुरकदेना, पुलिस को डाकिन, जो ठग शिकार को फांसी लगाता उसे फांसीगीर, कब्र खोदने वाला लगुनिया, जिस जगह शिकार को दफ़नाया जाता था उसे तपोनी कहा करते थे।
यहाँ यह भी समझ लें कि ठगों और पिंडारियों में फ़र्क़ था। दरअसल, इसी कालखंड में मध्य भारत में पिंडारियों का भी बड़ा आतंक था। ठग और पिंडारी, दोनों एक दूसरे से अलग समूह थे। दोनों के काम करने का तरीक़ा भी अलग था। जहाँ ठग
हाईवे और जंगलों में लोगों को चकमा (या बेवकूफ़) बनाकर लूटते थे, वहीं पिंडारी डकैतों का समूह होता था, जिसकी तादाद बहुत अधिक मात्रा में थी। पिंडारी हथियारों से लैस
होते थे और गाँव के गाँव और कस्बों तक को लूट लेते थे। कुछ किताबों की माने तो, पिंडारियों को मराठा राजाओं का सरंक्षण प्राप्त था। यही वजह है कि तीसरे आंग्ल-मराठा
युद्ध को पिंडारी युद्ध के नाम से भी जाना जाता है।
उपरांत, ठगी प्रथा का उन्मूलन जहाँ कर्नल स्लीमन ने किया था, पिंडारियों को ख़त्म करने का श्रेय लॉर्ड हेस्टिंग्स और जॉन मैल्कम को जाता है।
कर्नल स्लीमन को महीनों की मेहनत के बाद लोगों के ग़ायब होने
के पीछे के सूत्र ज़रूर मिले, किंतु बेहराम नहीं मिल पाया था। तभी स्लीमन के हाथ लगा एक ऐसा
ही ख़ूंखार ठग आमिर अली खाँ। कथित रूप से इस ठग के परिवार को रास्ता बनाकर उसे अपने
साथ मिला लिया गया और उसकी निशानदेही के बाद, ब्रिटिश हुकूमत की सालों की कड़ी मशक्कत के बाद कर्नल स्लीमन
ने आखिरकार बेहराम ठग को सन 1838 में गिरफ़्तार कर ही लिया। उसके गिरफ़्तार होने के बाद उत्तर
भारत में लगातार हो रहे सैकड़ों लोगों के ग़ायब होने का राज़ आधिकारिक तौर पर खुल गया।
उपरांत ऐसे भी राज़ खुले, जो सिर्फ़ उस गिरोह को ही पता थे।
गिरफ़्तार होने के बाद बेहराम ठग ने बताया था कि उसके गिरोह के
कुछ सदस्य व्यापारियों का स्वांग धर कर जंगलों में घूमते रहते थे। व्यापारियों के भेष
में इन ठगों का पीछा बाकी गिरोह करता रहता था। रात के अंधेरे में जो भी व्यापारियों
का क़ाफ़िला जंगल से गुज़रता था, नकली भेष धारण करने वाले ठग उनके क़ाफ़िले में शामिल हो जाते थे।
ठगों का ये गिरोह धर्मशाला और बावड़ी (पुराने जमाने के कुएँ) इत्यादि के आसपास भी बेहद
सक्रिय रहता था।
आम लोगों के क़ाफ़िले के साथ जुड़ जाने वाले स्वांगधारी ठग उन
लोगों से घुल मिल जाते थे और उन्हें किसी चीज़ में नशीला पदार्थ मिलाकर खिला देते थे।
क़ाफ़िले के लोगों को जब ग़हरी नींद आने लगती तो दूर से गीदड़ के रोने की आवाज़ आने लगती।
ये गीदड़ की आवाज़ पूरे गिरोह के लिए एक सांकेतिक आदेश होता था कि अब क़ाफ़िले पर हमला
बोला जा सकता है। थोड़ी ही देर में अपने गिरोह के साथियों के साथ बेहराम ठग वहाँ पहुंच
जाता। सारे ठग पहले सोते हुए लोगों का मुआयना करते और फिर उन्हें लूटकर फ़रार हो जाते।
अगर स्वांगधारी ठग इन लोगों को कोई नशीली चीज़ खिला नहीं पाते
थे, तब वे क़ाफ़िले के साथ चलते रहते और फिर मौक़ा पाकर बड़ी चालाकी से लोगों को मार देते
और सारा माल लूट लेते। बेहराम ठग अपने पीले रंग के रूमाल से या कमरबंद से हत्या करता
था। वो अपनी जेब से एक सिक्का निकालता और रूमाल या कमरबंद में वो सिक्का डालकर गाँठ
बनाता। सिक्के से गाँठ लगाने के बाद वो अपने कौशल के बल पर क़ाफ़िले के लोगों का गला
घोट देता।
गिरफ़्तार ठगों के ब्योरे, तफ़्तीश आदि को स्लीमन ने अपनी किताब में दर्ज किया है। इसी समय
के दूसरे ऐसे ठग आमिर अली खाँ के इक़बालिया बयान को अक्षरश: फ़िलिप मीडो टेलर ने अपनी
किताब में संजोया है।
क़ाफ़िले में शामिल सभी लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद बेहराम
साथियों के साथ मिलकर जश्न मनाता। किंतु जश्न से पहले उन्हें एक और काम करना होता था।
ठग मरे हुए लोगों की लाशों की घुटने की हड्डी तोड़ देते। हड्डी तोड़ने के बाद लाशों
को तोड़ मोड़कर मौक़ा-ए-वारदात पर ही एक गड्ढा खोदकर छिपा दिया जाता। क़ाफ़िले में शामिल
लोगों को मारने के बाद गिरोह के सदस्य उनकी वहीं कब्रगाह बना देते थे! अगर वहीं उनकी
कब्रगाह बनाना संभव नहीं हो पाता, तो उनकी लाशों को पास के ही किसी सूखे कुएँ या फिर नदी में फेंक
देते थें। यही वजह थी कि पुलिस को गुमशुदा लोगों की लाश कभी नहीं मिलती थी। और ना ही
इन ठगों का कोई सुराग़ मिल पाता था।
जब तक बेहराम और उसके साथी क़ाफ़िले के लोगों को ठिकाने नहीं लगा
देते थे, तब तक उसके गिरोह के दो सदस्य दूर खड़े होकर पूरे इलाक़े पर नज़र रखते थे। शिकार
का काम तमाम होने तक वे दोनों हाथ में सफ़ेद रूमाल लिए खड़े रहते थे। सफ़ेद रूमाल से
वे दोनों ठगों को इशारा करते रहते कि सब कुछ ठीक है। जैसे ही उन्हें ख़तरे का अंदेशा
होता, वे सफ़ेद रूमाल हिलाना बंद कर देते। सफ़ेद रूमाल नीचे होते ही ठग चौकन्ना हो जाते।
फिर जब रूमाल हिलने लगता, तो अपने काम में एक बार फिर से मशगूल हो जाते।
फिर पूरा ठग गिरोह मौक़ा-ए-वारदात पर ही जश्न मनाता। जश्न के
तौर पर जिस जगह मारे गए लोगों की कब्रगाह बनाई जाती थी, उससे पहले उसी जगह पर नाच गाना करते! कव्वाली का भी दौर चलता! गाने-बजाने से जब
थक जाते तो कब्रगाह के ऊपर बैठकर ही वे गुड़ खाते थे!
बेहराम की गिरफ़्तारी के बाद जो जानकारी मिली उसके मुताबिक़, ठग जिस किसी भी नए सदस्य को अपने गिरोह में शामिल करते थे, तो उसे कब्रगाह पर बैठकर गुड़ ज़रूर खिलाया जाता था! एक बार कर्नल स्लीमन ने एक
ठग से इसका कारण पूछा तो उसने जबाब दिया कि, “हुज़ूर, तपोनी (कब्रगाह) का गुड़ जिसने भी चखा उसके लिये दुनिया ही दूसरी
हो गई। अगर आपने भी तपोनी का गुड़ खा लिया तो फौरन ठग बन जाओगे।”
कहा जाता है कि बेहराम ठग और उसके गिरोह ने पीले रूमाल और कमरबंद
से पूरे 931 लोगों को मौत के घाट उतारा था। दर्ज करें
कि हत्याओं की यह पुष्ट आँकड़ा नहीं है। किंतु अनेक जगहों पर यह दर्ज ज़रूर है कि इस
गिरोह ने 600 से ज़्यादा लोगों की हत्या की थी। जबकि क़रीब 125 हत्याओं की पुष्टि हो पाई थी।
इसी कालखंड के ऐसे ही दूसरे ठग आमिर अली खाँ के इक़बालिया बयान
के मुताबिक़ उसके गिरोह ने 700 से ज़्यादा हत्याएँ की थीं। उस गिरोह का तरीक़ा भी बेहराम के
गिरोह से काफी मिलता था।
बेहराम की गिरफ़्तारी के बाद उसके गिरोह के बाकी सदस्य भी पुलिस
के हत्थे चढ़ गए। सन 1840 में बेहराम सहित जितने भी इस गिरोह के कुख्यात सदस्य थे, उन्हें जबलपुर के पेड़ों पर फांसी दी गई। जबलपुर में ये पेड़ अभी कुछ सालों पहले
तक थे। गिरोह के जितने भी नये सदस्य थे उनके लिये स्लीमन ने जबलपुर में ही एक सुधारगृह
खुलवा दिया। इस बंदीगृह के अवशेष अभी भी जबलपुर में मौजूद हैं। अभी कुछ सालों पहले
तक हफ़्ते में एक दिन जबलपुर में एक हाट लगता था। हाट में लगनी वाली दुकानों के अधिकतर
मालिक उन्हीं ठगों की औलाद थीं, जिन्हे स्लीमन मुख़्यधारा में लाए थे। आज की स्थिति क्या है उसकी
जानकारी उपलब्ध नहीं है।
कुछ लेखों के द्वारा कहा तो यह भी जाता है कि स्लीमन का एक पड़पोता
इंग्लैड में रहता है और उसने अपने ड्राइंग रूम में उस पीले रूमाल को संभ्हाल कर रखा
है। वही पीला रूमाल, जिससे ठग बेहराम लोगों को मौत के घाट उतारता था और जिसके चलते
उसे भारत का अब तक का सबसे बड़ा सीरियल किलर माना जाता है।
बता दें कि कर्नल स्लीमन के नाम पर भारत के उस इलाक़े में स्लीमनाबाद
नाम का एक गाँव भी बसा है। मध्य प्रदेश के कटनी ज़िले में एक क़स्बा है स्लीमनाबाद, जो कर्नल स्लीमन के नाम से बसा है। स्लीमनाबाद थाना का पुराना भवन स्लीमन की चौकी
थी। यहाँ स्लीमन की याद में एक स्मारक बनाया गया है। साथ ही दीवार पर स्लीमनाबाद की
उत्पति संबंधी लेख भी लिखा है, जिसमें मध्य प्रदेश पुलिस का जनक कर्नल स्लीमन को बताया
गया है।
कुछ साल पहले इंग्लैंड से स्लीमन के परिजन स्लीमनाबाद आए थे।
स्लीमन की सातवीं पीढ़ी के वंशज लंदन निवासी स्टुअर्ट फिलिप स्लीमन ससेक्स निवासी अपने
भाई जेरेमी विलियम स्लीमन के साथ भारत आए तब सबसे पहले वे स्लीमनाबाद पहुंचे थे। इससे
पहले साल 2001 तथा 2003 में भी स्लीमन के वंशज स्लीमनाबाद आए थे।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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