निर्विवाद तथ्य है कि भ्रष्टाचार ने सदैव भारत के अर्थतंत्र को नुकसान पहुंचाया है। भारत में भ्रष्टाचार चर्चा और आंदोलनों का एक प्रमुख विषय रहा है। आजादी के एक दशक बाद से ही भारत भ्रष्टाचार के दलदल में धंसा नजर आने लगा था और उस समय संसद में इस बात पर बहस भी होती थी। 21 दिसंबर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में डॉ राममनोहर लोहिया ने जो भाषण दिया था वह आज भी प्रासंगिक है। उस वक्त डॉ लोहिया ने कहा था कि, “सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ है।”
भ्रष्टाचार से देश की अर्थव्यवस्था और प्रत्येक व्यक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारत में राजनीतिक एवं नौकरशाही का भ्रष्टाचार बहुत ही व्यापक है। इसके अलावा न्यायपालिका, मीडिया, सेना, पुलिस आदि में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है।
एक बात स्पष्ट है कि जो लोग ये मानते हैं कि भाजपा ही भारत है या फिर कांग्रेस ही इंडिया है, वे लोग भ्रष्टाचार नाम की समस्या को कभी संजीदगी से ले ही नहीं सकते। इस कथन को मैट्रिक पास आदमी भी समझ सकता है, लिहाजा उम्मीद है कि कुछ में बहुत कुछ समझ लेंगे।
परिचय
2005 में भारत में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक एक संस्था द्वारा किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाने के लिए रिश्वत या ऊँचे दर्ज़े के प्रभाव का प्रयोग करना पड़ा। वर्ष 2008 में पेश की गयी इसी संस्था की रिपोर्ट ने बताया कि भारत में लगभग 20 करोड़ की रिश्वत अलग-अलग लोकसेवकों को (जिसमें न्यायिक सेवा के लोग भी शामिल थे) दी गई थी। उन्हीं का यह निष्कर्ष था कि भारत में पुलिस और कर एकत्र करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है। आज यह कटु सत्य है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिये बगैर कोई मकान बनाने की अनुमति नहीं मिलती। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी यह मानकर चलता है कि किसी भी सरकारी महकमे में पैसा दिये बगैर गाड़ी नहीं चलती। भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट + आचार। भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण। अर्थात भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो। आज भारत देश में भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ रहा है। इसकी जड़े तेजी से फैल रही है। भ्रष्टाचार का प्रभाव अत्यंत व्यापक है। जीवन का कोई भी क्षेत्र इसके प्रभाव से मुक्त नहीं है। यदि हम इस वर्ष की ही बात करें तो ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो कि भ्रष्टाचार के बढ़ते प्रभाव को दर्शाते हैं। जैसे आईपीएल में खिलाड़ियों की स्पॉट फिक्सिंग, नौकरियों में अच्छी पोस्ट पाने की लालसा में कई लोग रिश्वत देने से भी नहीं चुकते हैं। आज भारत का हर तबका इस बीमारी से ग्रस्त है। आज भारत में ऐसे कई व्यक्ति मौजूद हैं जो भ्रष्टाचारी है। आज पूरी दुनिया में भारत भ्रष्टाचार के मामले में 94वें स्थान पर है। भ्रष्टाचार के कई रंग-रूप है, जैसे रिश्वत, काला-बाजारी, जान-बूझकर दाम बढ़ाना, पैसा लेकर काम करना, सस्ता सामान लाकर महंगा बेचना आदि।
भ्रष्टाचार के कई कारण हैं। जब किसी को अभाव के कारण कष्ट होता है तो वह भ्रष्ट आचरण करने के लिए विवश हो जाता है। जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरूद्ध जाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करने लगता है तो वह व्यक्ति भ्रष्टाचारी कहलाता है। आज भारत जैसे सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश में भ्रष्टाचार अपनी जड़े फैला रहा है। इसमें नागरिक तथा सरकार, दोनो तरफ से लचर रवैया जिम्मेदार है। भ्रष्टाचार पिछड़ेपन का द्योतक है। भ्रष्टाचार का बोलबाला यह दर्शाता है कि जिसे जो करना है वह कुछ ले-देकर अपना काम चला लेता है और लोगों को कानों-कान खबर तक नहीं होती। और अगर होती भी हो तो यहाँ हर व्यक्ति खरीदे जाने के लिए तैयार है। गवाहों का उलट जाना, जाँचों का अनन्तकाल तक चलते रहना, सत्य को सामने न आने देना - ये सब एक पिछड़े समाज के अति दु:खदायी पहलू हैं।
किसी को निर्णय लेने का अधिकार मिलता है तो वह एक या दूसरे पक्ष में निर्णय ले सकता है। यह उसका विवेकाधिकार है और एक सफल लोकतन्त्र का लक्षण भी है। परन्तु जब यह विवेकाधिकार वस्तुपरक न होकर दूसरे कारणों के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है तब यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आ जाता है अथवा इसे करने वाला व्यक्ति भ्रष्ट कहलाता है। किसी निर्णय को जब कोई शासकीय अधिकारी धन पर अथवा अन्य किसी लालच के कारण करता है तो वह भ्रष्टाचार कहलाता है। भ्रष्टाचार के संबंध में हाल ही के वर्षों में जागरूकता बहुत बढ़ी है। जिसके कारण भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम-1988, सिटीजन चार्टर, सूचना का अधिकार अधिनियम-2005, कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट आदि बनाने के लिए भारत सरकार बाध्य हुई है। हालांकि जागरूकता की अवधि लंबी नहीं रहती ये भी बड़ी बाधा है।
ब्रिटिश भारत में भ्रष्टाचार
अंग्रेजों ने भारत के कुछेक राजा महाराजाओं को भ्रष्ट करके भारत को गुलाम बनाया। उसके बाद उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भारत में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया और भ्रष्टाचार को गुलाम बनाए रखने के प्रभावी हथियार की तरह इस्तेमाल किया। देश में भ्रष्टाचार भले ही वर्तमान में सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ हो, लेकिन भ्रष्टाचार ब्रिटिश शासनकाल में ही होने लगा था जिसे वे हमारे राजनेताओं को विरासत में देकर गए थे।
आर्थिक विकास में बाधक
भारत के महाशक्ति बनने की सम्भावना का आकलन अमेरीका एवं चीन की तुलना से किया जा सकता है।
महाशक्ति बनने की पहली कसौटी तकनीकी नेतृत्व है। अठारहवीं सदी में इंग्लैंड ने भाप इंजन से चलने वाले जहाज बनाए और विश्व के हर कोने में अपना आधिपत्य स्थापित किया। बीसवीं सदी में अमेरीका ने परमाणु बम से जापान को और पैट्रियट मिसाइल से इराक को परास्त किया। यद्यपि अमेरीका का तकनीकी नेतृत्व जारी है परन्तु अब धीरे-धीरे यह कमजोर पड़ने लगा है। वहां नई तकनीकी का आविष्कार अब कम ही हो रहा है। भारत से अनुसंधान का काम भारी मात्रा में 'आउटसोर्स' हो रहा है जिसके कारण तकनीकी क्षेत्र में भारत का पलड़ा भारी हुआ है। तकनीक के मुद्दे पर चीन पीछे है। वह देश मुख्यत: दूसरों के द्वारा ईजाद की गई तकनीकी पर आश्रित है।
दूसरी कसौटी श्रम के मूल्य की है। महाशक्ति बनने के लिए श्रम का मूल्य कम रहना चाहिए। तब ही देश उपभोक्ता वस्तुओं का सस्ता उत्पादन कर पाता है और दूसरे देशों में उसका उत्पाद प्रवेश पाता है। चीन और भारत इस कसौटी पर अव्वल बैठते हैं जबकि अमेरीका पिछड़ रहा है। विनिर्माण उद्योग लगभग पूर्णतया अमेरीका से गायब हो चुका है। सेवा उद्योग भी भारत की ओर तेजी से रुख कर रहा है। अमेरीका के वर्तमान आर्थिक संकट का मुख्य कारण अमेरीका में श्रम के मूल्य का ऊंचा होना है।
तीसरी कसौटी शासन के खुलेपन की है। वह देश आगे बढ़ता है जिसके नागरिक खुले वातावरण में उद्यम से जुड़े नये उपाय क्रियान्वित करने के लिए आजाद होते हैं। बेड़ियों में जकड़े हुए अथवा पुलिस की तीखी नजर के साये में शोध, व्यापार अथवा अध्ययन कम ही पनपते हैं। भारत और अमेरीका में यह खुलापन उपलब्ध है। चीन इस कसौटी पर पीछे पड़ जाता है। वहां नागरिक की रचनात्मक ऊर्जा पर कम्युनिस्ट पार्टी का नियंत्रण है।
चौथी कसौटी भ्रष्टाचार की है। सरकार भ्रष्ट हो तो जनता की ऊर्जा भटक जाती है। देश की पूंजी का रिसाव हो जाता है। भ्रष्ट अधिकारी और नेता धन को स्विट्जरलैंड भेज देते हैं। इस कसौटी पर अमेरीका आगे है। 'ट्रान्सपेरेन्सी इंटरनेशनल' द्वारा बनाई गयी रैंकिंग में अमेरीका को 19वें स्थान पर रखा गया है जबकि चीन को 79वें तथा भारत का 94वां स्थान दिया गया है।
पांचवीं कसौटी असमानता की है। गरीब और अमीर के अन्तर के बढ़ने से समाज में वैमनस्य पैदा होता है। गरीब की ऊर्जा अमीर के साथ मिलकर देश के निर्माण में लगने के स्थान पर अमीर के विरोध में लगती है। इस कसौटी पर अमेरीका आगे और भारत व चीन पीछे हैं। चीन में असमानता उतनी ही व्याप्त है जितनी भारत में, परन्तु वह दृष्टिगोचर नहीं होती है क्योंकि पुलिस का अंकुश है। फलस्वरूप वह रोग अन्दर ही अन्दर बढ़ेगा जैसे कैंसर बढ़ता है। भारत की स्थिति तुलना में अच्छी है क्योंकि यहाँ कम से कम समस्या को प्रकट होने का तो अवसर उपलब्ध है।
भ्रष्टाचार व असमानता
महाशक्ति बनने की इन पांच कसौटियों का समग्र आकलन करें तो वर्तमान में अमेरीका की स्थिति क्रमांक एक पर दिखती है। तकनीकी नेतृत्व, समाज में खुलेपन, भ्रष्टाचार नियंत्रण और समानता में वह देश आगे है। अमेरीका की मुख्य कमजोरी श्रम के मूल्य का अधिक होना है। भारत की स्थिति क्रमांक 2 पर दिखती है। तकनीकी क्षेत्र में भारत आगे बढ़ रहा है, श्रम का मूल्य न्यून है और समाज में खुलापन है। हमारी समस्यायें भ्रष्टाचार और असमानता की है। चीन की स्थिति कमजोर दिखती है। तकनीकी विकास में वह देश पीछे है, समाज घुट रहा है, भ्रष्टाचार चहुंओर व्याप्त है और असमानता बढ़ रही है।
यद्यपि आज अमेरीका भारत से आगे है परन्तु तमाम समस्याएं उस देश में दस्तक दे रही हैं। शोध भारत से 'आउटसोर्स' हो रहा है। भ्रष्टाचार भी शनै: शनै: बढ़ रहा है। 2002 में ट्रान्सपेरेन्सी इंटरनेशनल ने 7.6 अंक दिये थे जो कि 2009 में 7.5 रह गए। अमेरीकी नागरिकों में असमानता भी बढ़ रही है। तमाम नागरिक अपने घरों से बाहर निकाले जा चुके हैं और सड़क पर कागज के डिब्बों में रहने को मजबूर हैं। आर्थिक संकट के गहराने के साथ-साथ वहां समस्याएं और तेजी से बढ़ेंगी। इस तुलना में भारत की स्थिति सुधर रही है। तकनीकी शोध में भी हम आगे बढ़ रहे हैं जैसा कि नैनो कार के बनाने से संकेत मिलते हैं। भ्रष्टाचार के क्रम में ऊपर-नीचे हो रहा है। सूचना के अधिकार ने सरकारी मनमानी पर कुछ न कुछ लगाम अवश्य कसी है। परन्तु अभी बहुत आगे जाना है।
महाशक्ति के रूप में भारत का भविष्य
राजनीतिक पार्टियों का मूल उद्देश्य सत्ता पर काबिज रहना है। इन्होंने युक्ति निकाली है कि गरीब को राहत देने के नाम पर अपने समर्थकों की टोली खड़ी कर लो। कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए भारी भरकम नौकरशाही स्थापित की जा रही है। सरकारी विद्यालयों एवं अस्पतालों का बेहाल सर्वविदित है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 40 प्रतिशत माल का रिसाव हो रहा है। मनरेगा के मार्फत् निकम्मों की टोली खड़ी की जा रही है। 100 रुपये पाने के लिए उन्हें दूसरे उत्पादक रोजगार छोड़ने पड़ रहे हैं। अत: भ्रष्टाचार और असमानता की समस्याओं को रोकने में हम असफल हैं। यही हमारी महाशक्ति बनने में रोड़ा है।
कुछ लोग उपाय बताते हैं कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके बची हुई रकम को प्रत्येक मतदाता को सीधे रिजर्व बैंक के माध्यम से वितरित कर दिया जाए। प्रत्येक परिवार को कोई 2000 रुपये प्रति माह मिल जाएंगे जो उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को पर्याप्त होगा। उन्हें मनरेगा में बैठकर फर्जी कार्य का ढोंग नहीं रचना होगा। वे रोजगार करने और धन कमाने को निकल सकेंगे। कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार स्वत: समाप्त हो जाएगा। हालांकि यह उपाय काफी अधूरे संशोधन की उपज है, क्योंकि यह फॉर्मूला बहुत ही ज्यादा हानिकारक है और इसमें कई तथ्यों को नजरअंदाज किया गया है। दूसरे जो अच्छे फॉर्मूले हैं उन्हें लागू करने या कराने में प्रमुख समस्या राजनीतिक पार्टियों का सत्ता प्रेम है। सरकारी कर्मचारियों की लॉबी का सामना करने का इनमें साहस नहीं है। सारांश है कि भारत महाशक्ति बन सकता है यदि राजनीतिक पार्टियों द्वारा कल्याणकारी कार्यक्रमों में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों की बड़ी फौज को खत्म किया जाए। इन पर खर्च की जा रही रकम को सीधे मतदाताओं को वितरित कर देना चाहिए। इस समस्या को तत्काल हल न करने की स्थिति में हम महाशक्ति बनने के अवसर को गंवा देंगे। यहां ये स्पष्ट हो कि लाभार्थी को राशि सीधे उसके हाथ पहुंचाने की व्यवस्था का ज़िक्र है, ना कि उसे बैठे बैठे पैसे देने की प्रवृत्ति का।
यह सच है कि भारत महाशक्ति बनने के करीब है परन्तु हम भ्रष्टाचार की वजह से इस से दूर होते जा रहे हैं। भारत के नेताओं को जब अपने फालतू के कामों से फुरसत मिले तब ही तो वो इस संबंध में सोच सकते हैं। भारत को महाशक्ति बनने में जो रोडा है वो हैं नेता। इससे भी बड़ा रोडा है ऐसे नेता को उत्साहित कर रहे नागरिक। ज़रूरी है कि देश का युवा महज मतदाता ना बने। यानी कि वो मशीन का बटन दबानेवाली मशीन बनकर ना रह जाए, बल्कि मतदाता के नजरिये से वो हर व्यवस्था को सदैव सोचता रहे। नागरिकों को यह समझना होगा कि मतदान करना बड़ा कार्य नहीं है, बल्कि मतदान से पहले भी महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं।
एक बात स्पष्ट है कि जब तक इस देश में कांग्रेसी, भाजपाई आदि के रूप में एक भारतीय पहचाना जाता रहेगा, भ्रष्टाचार नाम की समस्याएं अपनी जड़े जमाती रहेगी। इस कथन को मैट्रिक पास आदमी भली भांति समझ सकता है।
भारत के आर्थिक घोटाले तथा आर्थिक विवाद
(1) जीप घोटाला, 1948, 80 लाख (2) बीएचयू फंड घोटाला, 1956, 50 लाख (3) मूंदड़ा घोटाला, 1957, 1.25 करोड़ (4) तेजा लोन घोटाला, 1960, 22 करोड़ (5) कुओ ऑयल घोटाला, 1976, 2.20 करोड़ (6) एचडीडब्ल्यू कमीशन घोटाला, 1987, 20 करोड़ (7) बोफोर्स घोटाला, 1987, 65 करोड़ (8) सेंट कीट्स फॉर्गरी घोटाला, 1989, 9.45 करोड़ (9) एयरबस घोटाला, 1990, प्रति सप्ताह 2.50 करोड़ (10) सिक्योरिटी घोटाला, हर्षद मेहता कांड, 1992, 5000 करोड़ (11) इंडियन बैंक रिप घोटाला, 1992, 1300 करोड़ (12) चीनी घोटाला, 1994, 650 करोड़ (13) जेएमएम लांच घोटाला, 1995, 1.20 करोड़ (14) पिकल घोटाला, 1996, 10 लाख (15) टेलीकॉम घोटाला, 1996, 1.60 करोड़ (16) फोडर घोटाला, 1996, 950 करोड़ (17) यूरिया घोटाला, 1996, 133 करोड़ (18) सीआरबी घोटाला, 1997, 1000 करोड़ (19) वेनिशिंग कंपनी घोटाला, 1998, 330.78 करोड़ (20) प्लांटेशन कंपनी घोटाला, 1999, 2563 करोड़ (21) केतन पारेख घोटाला, 2001, 137 करोड़ (22) स्टॉक मार्केट घोटाला, 2001, 115000 करोड़ (23) होम ट्रेड घोटाला, 2002, 600 करोड़ (24) स्टाम्प पेपर घोटाला, 2003, 30000 करोड़ (25) आईपीओ डीमैट घोटाला, 2005, 146 करोड़ (26) बिहार राहत घोटाला, 2005, 17 करोड़ (27) स्कॉर्पिन पनडुब्बी घोटाला, 2005, 18978 करोड़ (28) पंजाब सिटी सेंटर प्रोजेक्ट घोटाला, 2006, 1500 करोड़ (29) ताज कॉरिडोर घोटाला, 2006, 175 करोड़ (30) हसन अली टैक्स घोटाला, 2008, 50000 करोड़ (31) सत्यम घोटाला, 2008, 10000 करोड़ (32) फौज राशन घोटाला, 2008, 5000 करोड़ (33) 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, 2008, 176000 करोड़ (34) स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र घोटाला, 2008, 95 करोड़ (35) स्विस बैंक काला धन घोटाला, 2008, संभवित 7100000 करोड़ (36) इक्विपमेंट घोटाला, 2009, 130 करोड़ (37) चावल आयात घोटाला, 2009, 2500 करोड़ (38) ओडिस्सा खान घोटाला, 2009, 7000 करोड़ (39) मधु कोड़ा खान घोटाला, 2009, 4000 करोड़ (40) कॉमनवेल्थ खेल महोत्सव घोटाला, 2010, 40000 करोड़ (41) कोयला आवंटन घोटाला, संभवित 12 लाख करोड़ (42) अगस्ता वैस्टलेंड हेलीकॉप्टर घोटाला (43) आदर्श सोसायटी घोटाला (44) व्यापमं घोटाला (45) चारा घोटाला (46) शारदा चीट फंड घोटाला
इसके अलावा (1) बंगारू लक्ष्मण लांच घोटाला (2) फुकन कमीशन घोटाला (3) कारगिल कॉफिन घोटाला (4) कारगिल सेस मिसयूज (5) टेलीकॉम स्कैम (6) बेलआउट पैकेज प्राइवेट प्लेयर्स घोटाला (7) यूटीआई घोटाला (8) सायबर स्पेस इन्फोसिस्टम्स लिमिटेड घोटाला (9) एमआईजी घोटाला (10) जुडीओ घोटाला (11) मेडीकल प्रोक्योरमेंट घोटाला (12) पेट्रोल पंप व गैस एजेंसी वितरण घोटाला (13) सेंटूर होटल घोटाला, दिल्ली जमीन वितरण घोटाला (14) हुडको घोटाला (15) राजस्थान जमीन घोटाला (16) बेल्लारी माइनिंग घोटाला (17) कुशाभाउ ठाकरे ट्रस्ट घोटाला (18) जमीन वितरण घोटाला, कर्नाटक (19) पंजाब लांच घोटाला (20) उत्तराखंड हाइडल पावर घोटाला (21) छत्तीसगढ़ खान घोटाला (22) छत्तीसगढ़ घोटाला केस क्वेरी स्कैम (23) पुणे जमीन घोटाला (24) गैस पावर प्लांट घोटाला, उत्तराखंड (25) फेक पायलट घोटाला (26) वीएसएनएल डिसइनवेस्टमेंट घोटाला (27) आईटी पार्क घोटाला, लखनौ (28) दिल्ली प्लॉट अलॉटमेंट घोटाला (29) मेडिकल प्रोक्योरमेंट घोटाला (30) बाल्को डिसइनवेस्टमेंट घोटाला (31) जैन हवाला घोटाला (32) टाटा मोटर्स प्लांट जमीन विवाद (33) अडानी ग्रुप लैंड अलॉटमेंट विवाद (34) उपेर भाद्रा लैंड अलॉटमेंट घोटाला (35) माइनिंग घोटाला (36) गुजरात को ऑपरेटिव बैंक घोटाला (37) बराक मिसाइल घोटाला (38) बालेकारी पोर्ट घोटाला (39) बैंग्लुरु जमीन घोटाला (40) एनटीआरओ घोटाला (41) चिकी विवाद घोटाला (42) ललित गैट विवाद (43) गुजरात कैग रिपोर्ट विवाद (44) महाजन घोटाला (45) तलाटी भरती घोटाला (46) एलईडी बल्ब विवाद (47) रेलवे माल ढुलाई घोटाला (48) शौचालय घोटाला (49) डीडीसीए घोटाला
पुलिस तंत्र का भ्रष्टाचार
'इण्डिया करप्शन एंव ब्राइवरी रिर्पोट' के अनुसार भारत में रिश्वत मांगे जाने वाले सरकारी कर्मचारियों में 30 प्रतिशत की भागीदारी पुलिस तन्त्र की है। ज्यादातर पुलिस द्वारा रिश्वत प्राथिमिकी दर्ज करवाने, आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज करने में कोताही बरतने या मामला न दर्ज करने तथा जाँच करते समय सबूतों को नजरदांज करने संबंधी मामलों में ली जाती है। रसूखदारों के दबाव में काम करना तथा अवांछित राजनैतिक हस्तक्षेप को झेलना पुलिस अपना कर्तव्य समझने लगी है। हांलाकि पुलिस तन्त्र की स्थापना कानून-व्यवस्था को कायम रखने के लिए की गई थी तथा आज भी सामाजिक सुरक्षा तथा जनजीवन को भयमुक्त एंव सुचारू रूप से चलाना पुलिस तन्त्र का विशुद्ध कर्तव्य है। इस क्षेत्र में पुलिस को पर्याप्त लिखित एंव व्यावहारिक अधिकार भी प्राप्त है। भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास, बढ़ती जनसख्या, प्रौद्योगिकी का विकास, अपराधों का सफेद कॉलर होना इन तमाम परिस्थितियों के कारण पुलिस तन्त्र की जबाव देही के साथ जिम्मेदारी भी बढ़ने लगी है। लेकिन भारतीय समाज में पुलिस की तानाशाहीपुर्ण छवि, जनता के साथ मित्रवत ना होना तथा अपने अधिकारी के दुर्पयोग के कारण वह आरोपों से घिरती चली गई। आज स्थिति यह है कि पुलिस बल समाज के तथा कथित ठेकेदारों, नेताओं तथा सत्ता की कठपुतली बन गई है। समाज का दबा-कुचला वर्ग तो पुलिस के पास जाने से भी डरने लगा है। पुलिस वर्ग को तमाम बुराइयों तथा कुरीतियों ने घेर लिया है। पुलिस में भ्रष्टाचारी और अपराधीकरण के कई मामलें हमारे सामान्य जीवन में सामने आते रहते हैं। चूंकि पुलिस के पास सिविल-समाज से दूरियाँ बनाए रखने और उनके ऊपर असम्यक प्रभाव बनाए रखने की तमाम व्यावहारिक शक्तियाँ हैं तो साधारण वर्ग आवाज उठाने की जहमत नहीं रखता। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार में तो पुलिस भर्ती प्रक्रिया में ही भ्रष्टाचार का बड़ा मामला सामने आया था तथा बिहार में भी आरोप लगे थे कि कुछ अधीनस्थ पुलिस कर्मचारी प्रोन्नति के लिए अपने उच्च अधिकारियों को खुश करने में रिश्वत का सहारा ले रहे थे।
उत्तराखण्ड में मित्र पुलिस कही जाने वाली पुलिस की संलिप्तता रणवीर एनकांउटर में फर्जी एनकांउटर में पायी गई। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय ने भी महाराष्ट्र पुलिस के द्वारा प्रोन्नति और रसूख के लिए एक फर्जी एनकांउण्टर मामलें में कड़ी टिप्पणी की और कहा कि ऐसे रक्षक जो भक्षक बन रहे हैं उन्हें मृत्यु दण्ड की सजा होनी चाहिए। निष्पक्ष पारदर्शी पुलिस तन्त्र के योगदान बिना सम्भव नहीं कि समाज की गंदगी को दूर किया जा सके। आखिरकार कुछ कमियाँ हैं जो कि पुलिस की छवि सुधरने नहीं देती।
1. पुलिस जिसके पास कानून व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी है वह स्वयं ही एक मुख्य उल्लघंन कर्ता के रूप में कार्यरत दिखाई देती है।
2. पुलिस समाज के कुछ लोग असमाजिक तत्वों के साथ जुड़े पाए जाते हैं जो भ्रष्टाचार को सामूहिक रूप से बढ़ावा देते हैं। और कानूनों के लचर क्रियान्वन के लिए भी जिम्मेदार हैं।
3. पुलिस द्वारा समाज के लिए बहुत ही निम्न व्यवहार, असभ्य भाषा का प्रयोग तथा मानवाधिकारों व न्यायालय का उल्लघंन और सभी प्रकार के भ्रष्टाचार में संलिप्तता भी एक बेहद जटिल समस्या है।
4. पुलिस द्वारा रसूखदार, राजनेताओं व सत्ताधारियों पर निर्भरता और उनका पुलिस तन्त्र पर प्रभाव भी संविधानिक उद्देश्यों तथा मानव गरिमा का उल्लघंन है।
5. पुलिस द्वारा मानवाधिकारों की उपेक्षा तथा गिरफ्तारी, जांच, परिरोध व परिप्रश्न के मामलों में मानवाधिकारों का हनन सभ्य समाज के लिए हितकर नहीं है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद-21 में विवक्षित गरिमामयी जीवन की विभिन्न व्याख्याओं से स्पष्ट है कि मानव जीवन पषुवत नहीं है और सम्मान व गरिमा के साथ जीवन यापन करना हमारा अधिकार है और यह मानवाधिकार भी है। लेकिन ऐसा एक स्वस्थ, पारदर्शी, सामाजिक, आर्थिक व प्रशासनिक प्रणाली में ही सम्भव है। लेकिन जिस व्यवस्था के बल पर देश में सुशासन लाने की बात होती रही है लेकिन वही व्यवस्था कुशासन की नींव बन चुकी है। सवाल यह है कि आखिर क्या वजह रही कि पुलिस व्यवस्था विफलता और भ्रष्टाचार के कगार पर है। लेकिन पुलिस तन्त्र सुधार की दिशा में कुछ सार्थक कदम उठाए जाए तो निश्चित तौर पर हम अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकते हैं। इसके अनेकों अनेक उपाय बताये जाते हैं। कुछ प्रमुख सूझावों को देखते हैं -
1. पुलिस में बढ़ते राजनीतिक हस्थाक्षेप को रोका जाना चाहिये क्योंकि भ्रष्ट राजनीति ने ही इसे पंगु बना दिया है। आज जब समाज भ्रष्टाचार में आकण्ड डूबा है तो पुलिस तन्त्र की यह जिम्मेदारी है कि वह सर्व प्रथम अपने अंदर से भ्रष्टाचार की सफाई करे और फिर समाज से।
2. पुलिस के तबादले, प्रोन्नति व नियुक्त प्रक्रिया में पारदर्शिता लाई जाए क्योंकि इन्हीं के सहारे पुलिस में सर्वाधिक राजनीतिक हस्थाक्षेप बढ़ता हैं। पुलिस का तबादला व प्रोन्नति प्रक्रिया का आधार निर्धारित किया जाना चाहिये और उन युक्तियुक्त आधारों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए जिन आधार पर अमुख व्यक्ति का प्रोन्नति व तबादला हुआ है।
3. पुलिस के नियुक्ति व पदोन्नति के लिए केन्द्रीय स्वायत्त संस्था या प्रकोष्ठ का निर्माण किया जाए जो कि राज्य सरकारों की दखलंदाजी से पूर्णतया मुक्त रहे।
4. लोकपाल या किसी अन्य संस्था को यह अधिकार दिया जाए कि पुलिस जांच, या पुलिस कार्य को प्रभावित करने वाले सत्ताधीशों की कारगुजारियों को भी भ्रष्टाचार मानकर दण्डित करे।
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
आश्चर्य नहीं कि भारतीय समाज के भ्रष्टाचार के सबसे व्यस्त और अपराधी अड्डे अदालतों के परिसर हैं। भारत में एक दफा बहुत बड़े आदमी ने कहा था कि, “अदालत न हो तो हिंदुस्तान में न्याय गरीबों को मिलने लगे।”
अंग्रेजी काल से ही न्यायालय शोषण और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए थे। उसी समय यह धारणा बन गई थी कि जो अदालत के चक्कर में पड़ा वह बर्बाद हो जाता है। भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अब आम बात हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायधीशों पर महाभियोग की कार्यवाही हो चुकी है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार में - घूसखोरी, भाई भतीजावाद, बेहद धीमी और बहुत लंबी न्याय प्रक्रिया, बहुत ही ज्यादा मंहगा अदालती खर्च, न्यायालयों की भारी कमी और पारदर्शिता की कमी, कर्मचारियों का भ्रष्ट आचरण आदि जैसे कारकों की प्रमुख भूमिका है।
वैसे विगत छह दशकों में राज्य के तीन अंगों के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका को ही बेहतर माना जाएगा। अनेक अवसरों पर उसने पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका द्वारा संविधान उल्लंघन को रोका है। लेकिन अदालतों में विचाराधीन मुकदमों की तीन करोड़ की संख्या का पिरामिड चिंता और भय उत्पन्न कर रहा है। अदालती फैसलों में पांच साल लगाना तो सामान्य सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो पाना आम लोगों के लिए त्रासदी से कम नहीं है। न्याय का मौलिक सिद्धांत है कि विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो आम आदमी को न्याय सुलभ हो पाना आकाश के तारे तोड़ना जैसा होगा।
वस्तुत: अदालतों में त्वरित निर्णय न हो पाने के लिए यह कार्यप्रणाली ज्यादा दोषी है जो अंग्रेजी शासन की देन है और उसमें व्यापक परिवर्तन नहीं किया गया है। कई मामलों में तो वादी या प्रतिवादी ही प्रयास करते हैं कि फैसले की नौबत ही नहीं आ पाए। समाचार-पत्रों और टीवी के बावजूद नोटिस तामीली के लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता और नोटिस तामील होने में वक्त जाया होता रहता है। सुझाव दिये गए है कि कानूनों में सुधार करके जमानत और अपीलों की चेन में कटौती की जाए और पेशियां बढ़ाने पर बंदिश लगाई जाए। हालांकि देश में भ्रष्टाचार इतना सर्वन्यायी हुआ है कि कोई भी कोना उसकी सड़ांध से बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्चस्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर निस्तवन साफ-सुथरी है। 2007 की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की प्रतिवेदन अनुसार नीचे के स्तर की अदालतों में लगभग 2630 करोड़ रूपया बतौर रिश्वत दिया गया। अब तो पश्चिम बंगाल के न्यायमूर्ति सेन और कर्नाटक के दिनकरन जैसे मामले प्रकाश में आने से न्यायपालिका की धवल छवि पर कालिख के छींटे पड़े हैं। मुकदमों के निपटारे में विलंब का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। उच्चत्तम न्यायालय और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कार्रवाई किया जाना बहुत कठिन होता है। न्यायिक आयोग के गठन का मसला सरकारी झूले में वर्षो से झूल रहा है।
उच्चत्तम न्यायालय द्वारा बच्चों के शिक्षा अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा, चिकित्सा, भ्रष्टाचार, राजनेताओं के अपराधीकरण, मायावती का पुतला प्रेम जैसे अनेक मामलों में दिए गए नुमाया फैसले, रिश्वतखोरी के चंद मामलों और विलंबीकरण के असंख्य मामलों की धुंध में छुप-से गए हैं। यह भारत की गर्वोन्नत न्यायपालिका की ही चमचमाती मिसाल है, जहां सुप्रीम कोर्ट और उसके मुख्य न्यायाधीश उन पर सूचना का अधिकार लागू न होने का दावा करते हैं और दिल्ली हाईकोर्ट उनकी राय से असहमत होकर पिटीशन खारिज कर देता है। यह सुप्रीम कोर्ट ही है, जिसने आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा मुसलमानों को शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हों, देश के विधि मंत्री हों या अन्य और लंबित मुकदमों के अंबार को देखकर चिंता में डूब जाते हैं, लेकिन किसी को हल नजर नहीं आता है। उधर, सुप्रीम कोर्ट अदालतों में जजों की कमी का रोना रोता है। उनके अनुसार उच्च न्यायालय के लिए 1,500 और निचली अदालतों के लिए 23,000 जजों की आवश्यकता है। अभी की स्थिति यह है कि उच्च न्यायालयों में ही 280 पद रिक्त पड़े हैं। जजों की कार्य कुशलता के संबंध में हाल में सेवानिवृत्त हुए उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बिलाई नाज ने कहा कि मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के लिए कई जज फौजदारी मामले डील करने में असक्षम हैं। 1998 के फौजदारी अपीले बंबई उच्च न्यायालय में इसलिए विचाराधीन पड़ी हैं, क्योंकि कोई जज प्रकरण का अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं लेता। वैसे भी पूरी सुविधाएं दिए जाने के बावजूद न्यायपालिका में सार्वजनिक अवकाश भी सर्वाधिक होते हैं। पदों की कमी और रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब ऐसी समस्याएं हैं, जिनका निराकरण जल्दी हो। हकीकत तो यह है कि न्यायपालिका की शिथिलता और अकुशलता से तो अपराध और आतंकवाद तक को बढ़ावा मिलता है। दस वर्ष पूर्व मुंबई में हुए आतंकी कांड के प्रकरणों का निपटारा आज तक पूरा नहीं हुआ है, जबकि ब्रिटेन में हुई ऐसी घटना के प्रकरण एक-दो साल में निपटाए जा चुके हैं।
सरकार कई वर्षों से न्यायपालिका में सुधार के लिए कानून लाने की बात कर रही है। अब चार मेट्रो नगरों में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली में फेडरल कोर्ट का नया शिगूफा सामने आया है। वस्तुत: न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ इस अंग की कार्यकुशलता और शुचिता लोकतंत्र के लिए लाजिमी है। मुकदमों का अंबार निपटाने और सुधार करने के लिए केवल कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका ही नहीं वरन देश के अग्रणी न्यायविदों, समाज शास्त्रियों और आम लोगों को विश्वास में लिए जाने की आवश्यकता है।
सेना में भ्रष्टाचार
विश्व की कुछ चुनिंदा सबसे तेज़, सबसे चुस्त, बहादुर और देश के प्रति विश्वसनीय सेनाओं में अग्रणी स्थान पाने वालों में से एक है भारतीय सेना। देश का सामरिक इतिहास इस बात का गवाह है कि भारतीय सेना ने युद्धों में वो लड़ाई सिर्फ़ अपने जज़्बे और वीरता के कारण जीत ली जो दुश्मन बड़े आधुनिक अस्त शस्त्र से भी नहीं जीत पाए।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से बड़े शस्त्र आयात निर्यात में आयुध कारागारों में संदेहास्पद अगिनकांडों की शृंखला, पुराने यानों के चालन से उठे सवाल और जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं, दुर्घटनाएं और अपराधिक कृत्य सेना ने अपने नाम लिखवाए हैं और अब भी कहीं न कहीं ये सिलसिला ज़ारी है वो इस बात का इशारा कर रहा है कि अब स्थिति पहले जैसी नहीं है। कहीं कुछ बहुत ही गंभीर चल रहा है। सबसे दुखद और अफ़सोसजनक बात ये है कि अब तक सेना से संबंधित अधिकांश भ्रष्टाचार और अपराध सेना के उच्चाधिकारियों के नाम ही रहा है। आज सेना के अधिकारियों को तमाम सुख सुविधाएं मौजूद होने के बावजूद भी, सेना में भरती, आयुध, वर्दी एवं राशन की सप्लाई तक में बड़े घपले और घोटालेबाजी के सबूत, पुरस्कार और प्रोत्साहन के लिए फ़र्जी मुठभेड़ों की सामने आई घटनाएं आदि यही बता और दर्शा रही हैं कि भारतीय सेना में भी अब वो लोग घुस चुके हैं जिन्होंने वर्दी देश की सुरक्षा के लिए नहीं पहनी है। आज सेना में हथियार आपूर्ति, सैन्य सामग्री आपूर्ति, खाद्य राशन पदार्थों की आपूर्ति और इंधन आपूर्ति आदि सब में बहुत सारे घपले घोटाले किए जा रहे हैं और इसमें उनका भरपूर साथ दे रहे हैं सैन्य एवं रक्षा विभागों से जुड़े हुए सारे भ्रष्ट लोग। इन सबके छुपे ढके रहने का एक बड़ा कारण है देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा होने के कारण इन सूचनाओं का अति संवेदनशील होना और इसलिए ये सूचनाएं पारदर्शी नहीं हो पाती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि की नहीं जा सकतीं। यदि तमाम ठेकों और शस्त्र वाणिज्य डीलों को जनसाधारण के लिए रख दिया जाए तो बहुत कुछ छुपाने की गुंजाइश खत्म हो जाएगी।
सेना से जुड़े कुछ प्रमुख भ्रष्टाचार के मामलों में, बोफोर्स घोटाला, सुकना जमीन घोटाला, अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाला, टैट्रा ट्रक घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, कारगिल ताबूत घोटाला, जीप घोटाला मुख्य प्रकाशित रहे हैं।
संचार माध्यमों (मीडिया) का भ्रष्टाचार
भारत में 1955 में अखबार के मालिकों के भ्रष्टाचार के मुद्दे संसद में उठते थे। आज मीडिया में भ्रष्टाचार इस सीमा तक बढ़ गया है कि मीडिया के मालिक काफी तादाद में संसद में बैठते दिखाई देते हैं!!! अर्थात् भ्रष्ट मीडिया और भ्रष्ट राजनेता मिलकर काम कर रहे हैं। भ्रष्ट घोटालों में मीडिया घरानों के नाम आते हैं। उनमें काम करने वाले पत्रकारों के नाम भी आते हैं। कई पत्रकार भी करोड़पति और अरबपति हो गए हैं।
आजादी के बाद लगभग सभी बड़े समाचार पत्र पूंजीपतियों के हाथों में गए। उनके अपने हित निश्चित हो सकते हैं इसलिए आवाज उठती है कि मीडिया बाजार के चंगुल में है। बाजार का उद्देश्य ही है अधिक से अधिक लाभ कमाना। पत्रकार शब्द नाकाफी है, अब तो न्यूज़ बिजनेस शब्द का प्रयोग है। अनेक नेता और कारापोरेट कम्पनियां अखबार का स्पेस (स्थान) तथा टीवी का समय खरीद लेते हैं। वहां न्यूज़, फीचर, फोटो, लेख जो चाहे लगवा दें। भारत की प्रेस कौंसिल और न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एजेंसी बौनी है। अच्छे लेखकों की सत्य आधारित लेखनी का सम्मान नहीं होता, उनके लेख कूड़ेदान में जाते हैं। अर्थहीन, दिशाहीन, अनर्गल लेख उस स्थान को भर देते हैं। अखबारों से सम्पादक के नाम पत्र गायब हैं। लोग विश्वास पूर्वक लिखते नहीं, लिख भी दिया तो अनुकूल पत्र ही छपते हैं बाकी कूड़ेदान में ही जाते हैं। कुछ सम्पादकों की कलम सत्ता के स्तंभों और मालिकों की ओर निहारती है।
टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला मामला ने देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक नई इबादत लिख दी। इस पूरे मामले में जहां राजनीतिक माहौल भ्रष्टाचार की गिरफ्त में दिखा वहीं लोकतंत्र का प्रहरी मीडिया भी राजा के भ्रष्टाचार में फंसा दिखा। राजा व मीडिया के भ्रष्टाचार के खेल को मीडिया ने ही सामने लाया। हालांकि यह पहला मौका नहीं है कि मीडिया में घुसते भ्रष्टचार पर सवाल उठा हो! मीडिया को मिशन समझने वाले दबी जुबां से स्वीकारते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण ने मीडिया के अंदर के उच्च स्तरीय कथित भ्रष्टाचार को सामने ला दिया है और मीडिया की पोल खोल दी है। वैसे इसका अंजाम कब आएगा और कैसा आएगा इसकी धारणाएं भयावह है। क्योंकि बड़े बड़े लोगों का अंजाम वैसे नहीं आता, जैसे सोचा जाता है।
हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बड़े शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं। खुले आम कहा जाता है कि पत्रकारों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओं और खबर छपवाओ। मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते हैं।
लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया भ्रष्टाचार के जबड़े में है। मीडिया के अंदर भ्रष्टाचार के घुसपैठ पर भले ही आज हो हल्ला हो जाए, यह कोई नयी बात नहीं है। पहले निचले स्तर पर नजर डालना होगा। जिलों/कस्बों में दिन-रात कार्य करने वाले पत्रकार इसकी चपेट में आते हैं, लेकिन सभी नहीं। अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो संवाददाता सम्मेलनों में खाना क्या, गिफ्ट तक नहीं लेते हैं। संवाददाता सम्मेलन कवर किया और चल दिए। वहीं कई पत्रकार खाना और गिफ्ट के लिए हंगामा मचाते नजर आते हैं।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। ऊपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्लॉक का पत्रकार, अपनी जिंदगी पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा? लाजमी है कि खबर की दलाली करेगा? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक कारण, सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है। सच छापनेवालो को किसी न किसी तौर-तरीको से ठिकाने लगा देना, ये एंगल भी देखा जा सकता है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार
चुनाव में धांधली
बूथ लूटना
चुनाव से ठीक पहले पैसे, शराब एवं अन्य सामान बांटना
चुनाव में अंधाधुंध पैसा खर्च करना
प्रतिद्वन्दियों के बैनर-झण्डे फाड़ना एवं कार्यकर्ताओं को डराना-धमकाना
मतगणना में धांधली करा देना
लोकलुभावन योजनाएँ शुरू करना
जाति/वर्ग के आधार पर वोट माँगना
नौकरशाही का भ्रष्टाचार
यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। इसके कारण यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति उतना ही उदासीन रहता है।
भारत जब गुलाम था, तब महात्मा गांधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा, लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है कि अपना राज है कहां? उस लोक का तंत्र कहां नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है।
देश की पराधीनता के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे, जो अधिकांशत: अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों का पालन करना होता था। लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय बाबू तैयार करना था, जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण कर सकें।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए, लेकिन एक बात जो नहीं बदली, वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं कि उनके पास अधिकार हैं, जिन्हें हमारे ही विकलांग से लोकतंत्र ने दिया है।
भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। हालांकि, नौकरशाही पर किताब लिख चुके पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के मुताबिक राजनीतिक नियंत्रण हावी होने के बाद ही नौकरशाही में भ्रष्टाचार आया, अब उनका अपना मत मायने नहीं रखता, सब मंत्रियों और नेताओं के इशारों पर होता है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें, तो पांच साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल है, इसलिए वो बदलाव नहीं करते।
कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार
पिछले कुछ वर्षों से भारत एक नए तरह के भ्रष्टाचार का सामना कर रहा है। बड़े घपले-घोटालों के रूप में सामने आया यह भ्रष्टाचार कॉर्पोरेट जगत से जुड़ा हुआ है। यह विडंबना है कि कॉर्पोरेट जगत का भ्रष्टाचार लोकपाल के दायरे से बाहर है। देश ने यह अच्छी तरह देखा कि टूजी स्पेक्ट्रम तथा कोयला खदानों के आवंटन में निजी क्षेत्र किस तरह शासन में बैठे कुछ लोगों के साथ मिलकर करोड़ों-अरबों रुपये के वारे-न्यारे करने में सफल रहा। इन घपलों में नेताओं के नाम हैं, अधिकारियों के नाम हैं, पत्रकारों के नाम हैं। साथ ही उद्योगजगत के दिग्गजों का भी नाम है। लिहाजा बड़ी आशंका यह भी है कि भ्रष्टाचार की जांच में ही आचार भ्रष्ट हो जाए।
भारत में नेताओं, कॉर्पोरेट जगत के बड़े-बड़े उद्योगपति तथा बिल्डरों ने देश की सारी सम्पत्ति पर कब्जा करने के लिए आपस में गठजोड़ कर रखा है। इस गठजोड़ में नौकरशाही के शामिल होने, न्यायपालिका की लचर व्यवस्था तथा भ्रष्ट होने के कारण देश की सारी सम्पदा यह गठजोड़ सुनियोजित रूप से लूटकर अरबपति-खरबपति बन गया है।
यह सच है कि आज भी ऐसे बड़े घराने हैं जो जब चाहें किसी भी सीएम और पीएम के यहां जब चाहें दस्तक दें तो दरवाजे उनके लिए खुल जाते हैं। देश में आदर्श सोसायटी घोटाला, टूजी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ घोटाला और कोयला आवंटन को लेकर हुआ घोटाला आदि कॉर्पोरेट घोटाले के उदाहरण हैं।
विविध भ्रष्टाचार
समय-समय पर समाचार आते हैं कि राज्य सभा की सदस्यता 1 करोड़ में खरीदी जा सकती है।
मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की सम्पत्ति एक-दो वर्ष में ही दीन-चार गुनी हो जा रही है।
समय-समय पर विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं में लाखों रूपए लेकर परीक्षा में नकल कराकर मेरिट सूची में लाने के समाचार आ रहे हैं।
संसद में प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेना
पैसे लेकर विश्वास-मत का समर्थन करना
राज्यपालों, मंत्रियों आदि द्वारा विवेकाधिकार का दुरुपयोग
भ्रष्टाचार और स्विस बैंक
“भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा" - ये कहना है स्विस बैंक के डायरेक्टर का। स्विस बैंक के डायरेक्टर ने यह भी कहा कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है। ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है।
इसे आम भाषा में समझने का प्रयास करे तो, 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते हैं। या यूँ भी कह सकते हैं कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि 500 से ज्यादा सामाजिक परियोजनाएं पूर्ण की जा सकती हैं। ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को दो हजार रुपये हर महीने भी दिए जाए तो 60 साल तक ख़त्म ना हो। यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई ज़रूरत नहीं है। जरा सोचिए ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक जारी है। नयी सरकार की कार्यशैली और उनके मंत्रीओं की अतिविशिष्ट जानकारियां दर्शाती है कि इस विषय को छूने की कोशिशें तक नहीं की जा रही। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जो कुछ आदेश दिए है उसे पूरा करने की मजबूरियां नयी सरकार भी निभा रही है।
इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है। अंग्रेजों ने हमारे भारत पर करीब 200 सालों तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा। मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है। एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है। यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है।
वैज्ञानिक समाधान
भारत में भ्रष्टाचार रोकने के लिए बहुत से कदम उठाने की सलाह दी जाती है। उनमें से कुछ प्रमुख हैं-
- भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए सबसे मजबूत ड्राफ्ट जनलोकपाल, जो पिछले 45 सालों से इंतजार कर रहा है, उसे "मूल रूप" में लागू किया जाए।
- आरटीआई के जो कमजोर प्रावधान है उसे संशोधित किया जाए।
- प्रिवेन्शन ऑफ करप्शन एक्ट के ऊपर हर सरकारें संजीदा हो।
- सभी कर्मचारियों को वेतन आदि नकद न दिया जाए बल्कि यह पैसा उनके बैंक खाते में डाल दिया जाए।
- बैंक खाते पर निगरानी के लिए विविध समितीओं के अहवालों का पालन हो।
- बड़े नोटों का प्रचालन बंद किया जाए।
- जनता के प्रमुख कार्यों को पूरा करने एवं शिकायतों पर कार्यवाही करने के लिए समय सीमा निर्धारित हो।
- लोकसेवकों द्वारा इसे पूरा न करने पर वे दंड के भागी बने।
- विशेषाधिकार और विवेकाधिकार कम किये जाए या हटा दिए जाए।
- सभी 'लोकसेवक' (मंत्री, सांसद, विधायक, ब्यूरोक्रेट, अधिकारी, कर्मचारी) अपनी संपत्ति की हर वर्ष घोषणा करें।
- भ्रष्टाचार करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया जाए। भ्रष्टाचार की कमाई को राजसात (सरकार द्वारा जब्त) करने का प्रावधान हो।
- चुनाव सुधार किये जाए और भ्रष्ट तथा अपराधी तत्वों को चुनाव लड़ने पर पाबंदी हो।
- विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन भारत लाया जाए और उससे सार्वजनिक हित के कार्य किए जाए।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष और आंदोलन
- जयप्रकाश नारायण द्वारा सन 1974 में सम्पूर्ण क्रान्ति
- विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सन 1989 में आंदोलन (बोफोर्स काण्ड के विरुद्ध)
- स्वामी रामदेव द्वारा विदेशों में जमा काला धन वापस लाने हेतु आंदोलन (जून 2011)
- अन्ना हजारे द्वारा जनलोकपाल विधेयक पारित कराये जाने हेतु आंदोलन (अगस्त 2011)
SACP के बिना हर विकास कार्यक्रम व हर योजनाएं अधूरी हैं
एसएसीपी, जिसे हम जानेंगे “स्ट्रोंग एंटी करप्शन पॉलिसी” के नाम से। यानी कि “मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी नीति”।
जो सरकारें एसएसीपी पर गंभीरता से कार्य नहीं करती उनके ऊपर सवाल उठते रहे हैं और उठते ही रहेंगे। एसएसीपी हर नीति, हर योजना, हर सुधारणा कार्यक्रम व नागरिकी ढांचे की अहम कड़ी है। एसएसीपी सिर्फ एक लफ्ज़ नहीं है, किंतु उसका उपरोक्त हर चीजों में अहम योगदान रहा है और रहेगा। वो भारत जैसे देश के लिए विकास की मूल ज़रूरत व मूल विषय है। बिना उसके लंबे समय तक हकारात्मक परिणाम कभी प्राप्त नहीं किए गए और ना ही किए जाएंगे।
जो सरकारें एसएसीपी पर गंभीरता से कार्य नहीं करती उनके ऊपर सवाल उठते रहे हैं और उठते ही रहेंगे। एसएसीपी हर नीति, हर योजना, हर सुधारणा कार्यक्रम व नागरिकी ढांचे की अहम कड़ी है। एसएसीपी सिर्फ एक लफ्ज़ नहीं है, किंतु उसका उपरोक्त हर चीजों में अहम योगदान रहा है और रहेगा। वो भारत जैसे देश के लिए विकास की मूल ज़रूरत व मूल विषय है। बिना उसके लंबे समय तक हकारात्मक परिणाम कभी प्राप्त नहीं किए गए और ना ही किए जाएंगे।
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