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Deshbhakti Vs Divaliyapan ... देशभक्ति या दिवालियापन?



हमारे फौजियों को सिर्फ कश्मीर में ही मारा नहीं जाता, उन्हें जंतर मंतर पर भी पीटा जाता है तथा शायद लोगों को इंतज़ार है कि क्रैश की खबर आये और हम शहीदों के मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वाली भावनाएँ फील करे यह दोनों भावनाएँ जब फौज के साथ जुड़े हुए लोगों की हो तब हमारी नागरिकी देशभक्ति पर सवालियां निशान खुद-ब-खुद लग जाता है।

क्या देशभक्ति का मतलब यह मान लिया गया है कि शहीदी पर रोना? उन्हें शहीद होना न पड़े उस दिशा में हमारे नागरिकी प्रयत्न कम ही होते हैं। इसे देशभक्ति कहे या दिवालियापन? सरहदों पर खड़ा रहकर कोई अपनी छाती पर हमारे लिए गोलियां झेलता रहे यही हमारी देशभक्ति है? उनकी मुश्किलें, परेशानियां, ज़रूरतें... इन सब मसलों पर हम खुलकर क्यों नहीं आते?

15 अगस्त व 26 जनवरी, ये दो दिन ऐसे हैं, जब देशभक्ति सर चढ़ के बोलती हैं। शायद देशभक्ति भी चाइनीज होती हैं कि दूसरे दिन फिर से किसी और की भक्ति में जुट जाते हैं हम लोग। अक्षरधाम आतंकी हमले में घायल हुआ एनएसजी कमांडो सुरजन सिंह महीनों तक अस्पताल में बेहोश पड़ा रहता है। लोगों को देशप्रेम तभी चढ़ा जब उनकी शहीदी की खबर आई। दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन को जुकाम भी हो जाए, तब दुआओं में जो दीवानगी होती है वैसी दीवानगी यहां नहीं दिखती। सलमान, शाहरुख, रजनीकांत की फिल्मों के लिए लोग रात भर जग जग कर इंतज़ार करते हैं, नेता की रैलियों के लिए लाखों का हुजूम उमड़ता हैं, लोग खंभे पर लटक लटक कर भाषण के एकाध-दो लफ्ज़ सुन लिया करते हैं, लेकिन ऐसा जुनून फौजियों के लिए नहीं देखने मिलता। फौजियों की शहीदी पर वतन रोता है, वतन वाले रोते हैं, लेकिन उनके कम वेतन पर शायद ही कभी किसी ने सोचा हो। किसी नेता को लेकर उड़नेवाला उड़नखटोला, यानी कि हेलीकॉप्टर गुम हो जाए तब पूरा प्रदेश या कभी कभी देश, उस हेलीकॉप्टर का एक एक पुर्जा मिल न जाए तब तक बैचेन रहता हैं! वहीं दर्जनों फौजियों को ले जाने वाला एएन-32 गायब हो जाए, तब दिन में दो-चार बार अपडेट लेकर कर्तव्य पालन की प्रक्रियाएँ निभा ली जाती हैं।

कभी कभी लगता है कि ये हमारी देशभक्ति है या दिवालियापन? इसमें कोई शक नहीं कि ये देश फौज और न्यायालय, इन दोनों पर ही यकीन करता हैं। न्यायालय पर लोगों का यकीन, यह मुद्दा विवादास्पद हो सकता है। किंतु फौज पर तो लोगों को यकीन से ज्यादा कहा जाए तो नाज़ है। ये भी सच है कि ये देश अपनी फौज के बारे में बुरा तक नहीं सुन सकता। इतिहास गवाह है कि फौजियों की शहीदी पर उनके परिवार के बाद सचमुच कोई रोया हो, तो वो यह देश ही था। देश से मेरा मतलब देश के नागरिक हैं। धड़ल्ले से कहा जा सकता है कि फौज को भी देश के नागरिकों की भावनाओं से, उनके प्यार से, उनके स्नेह से बल मिलता रहा हैं। हमारी देशभक्ति को दिवालियापन बताने के साथ साथ एक चीज़ धड़ल्ले से कही जा सकती है कि... फौजियों ने देश के लिए खुद को कुर्बान किया और फौज को ये भी भरोसा रहा कि उनकी कुर्बानी को अंतरमन से देशवासियों ने ही समझा होगा।

लेकिन, हमारी अल्पकालीन भावनाएँ सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि हम कुछेक घटनाओं में इतना अंतर क्यों रख लेते हैं? जैसे कि सबसे पहला वाक्य था कि हमारे फौजियों को केवल कश्मीर में ही नहीं मारा जाता, उन्हें जंतर मंतर पर भी पीटा जाता है। और ये सोच या यह प्रतिघात जब खुद फौजियों के या उनसे संबंधित लोगों के हो तब इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। आतंकवादी या अलगाववादी या विद्रोहियों के सामने जब सेना काम करती हैं तब देश उनके सपोर्ट में खड़ा होने की बाकायदा घोषणाएँ करता हैं। सोशल मीडिया के जरिये लोग सेना को अपना अपना समर्थन घोषित करते हैं। अच्छी बात है यह। लेकिन इन समर्थकों में एक बड़ा सा तबका ऐसा भी था जो उन दिनों चुप ही रहा, जब पूर्व फौजियों को जंतर मंतर पर अनशन के लिए बैठना पड़ा। वे फौजी, जिन्होंने सरहदों पर पहरा देकर हम जैसे लोगों को सुरक्षित रखा, उन्हें अपने हक़ के लिए महीनों भूखा रहना पड़ा। आजादी के एक दिन पहले ही उन्हें वहां से हटाने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। हटाने की नौबत इसलिए आन पड़ी कि कल 15 अगस्त थी और देश को आजादी का जश्न मनाना था! एक तरफ लाल किले से आजादी का जश्न और साथ में दूसरी तरफ फौजियों की भूख हड़ताल। यह मंजर नैतिक रूप से देशभावना को कमजोर कर सकता था! इसीलिए सुरक्षा के नाम पर पूर्व सुरक्षा जवानों को वहां से हटाने की प्रक्रिया आनन-फानन में शुरू की गई।

वन रैंक-वन पेंशन के लिए उन्हें सैकड़ों दिनों तक वहां भूखा बैठना पड़ा। राजनीति के नाम पर ओरोप को लेकर आरोप-प्रतिआरोप तो होने ही थे। राजनीति ने तो नहीं सोचा, लेकिन नागरिकों ने भी नहीं सोचा कि बात आरक्षण जैसे मुद्दों की नहीं बल्कि सेना के अधिकारों की हैं। इन दिनों आश्वासनों के अलावा और कुछ नहीं मिला था। 14 अगस्त के दिन उन्हें वहां से जबरन हटाने के प्रयत्न किये गए। उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया। कइयों के कपड़े फटे। वो मेडल... जिन पर हम नाज़ किया करते थे वे उन दिनों सड़क पर बिखर गए। तारीख के हिसाब से भी लोगों को यह खटकना चाहिए था, लेकिन लोगों की देशभक्ति पक्ष या पार्टियों के साथ जुड़ी हुई पायी गई।

शासकीय दल के समर्थकों में देशभावनाएँ कम दिखी, जबकि राजभावनाएँ ज्यादा पायी गई। विरोधियों ने देशभक्ति दिखाई। किंतु साफ साफ पता चल रहा था कि इस घटना का सहारा लेकर वे शासकीय दल पर अपनी भड़ास ही निकाल रहे थे। फिर महीनों बाद कश्मीर की हिंसा हुई। सुरक्षा बलों और सेना को उतारना पड़ा। हिंसक प्रदर्शनकारियों ने उन पर भी पत्थरबाजी की। कईं जवानों को चोटे आई। लेकिन वे डटे रहे। अब इधर मामला उलट गया। शासकीय दल के समर्थकों की भावनाएँ अचानक उमड़ पड़ी। सेना के प्रति उनका सम्मान जग गया और वे खुलकर सेना के समर्थन में आये। वहीं विरोधियों की देशभक्ति भी कम मौकापरस्त नहीं दिखी। वे समर्थन में तो आये, लेकिन शासकीय दल पर वार करने से भी नहीं चुके। लगा कि यह देशभक्ति है या दिवालियापन?
कुछ लोग कहने लगे कि उन्होंने सस्ती दाल के लिए वोट नहीं किया था, बल्कि सेना को सरकार इतनी छूट दे इसीलिए समर्थन किया था। अब इन लोगों की देशभक्ति कौन से बागीचे में घूमने गई होगी, जब इसी सेना को जंतर मंतर पर पीटा गया था! कुछ लोग फौजियों के भी मानवाधिकार होते हैं ऐसी दलीलें देकर कूद पड़े। पता नहीं उन्हें भूखे बैठे उन फौजियों के अधिकार उन दिनों क्यों नहीं दिखाई दिये थे? वही दूसरे तबके ने भी सेना को समर्थन दिया, लेकिन अपनी भड़ास निकालने से नहीं चूके। उन्होंने भी तरह तरह की दलीलें देकर आत्मसंतोष प्राप्त करने की चेष्टाएँ की। ये सच है कि दोनों तरफ से ये देश का बड़ा तबका नहीं था। ये वो तबका था जो मतदाता नहीं, बल्कि फैंस बने हुए लोग थे। सत्ता दल के भी और विरोधी दल के भी। लेकिन चौंकानेवाला मंजर यह था कि यह नौजवान तबका था। फौज पर कहीं पर भी जुल्म हो, कश्मीर में हो या जंतर मंतर पर हो। विरोध दोमुखा कैसे हो सकता है? राय कैसे बंट सकती हैं? फौज कहीं पर भी अपना फर्ज़ निभाए, समर्थन बंटा हुआ कैसे हो सकता है? भावनाएँ शर्तों के अधीन कैसे हो सकती हैं? फौजियों के प्रति सम्मान सरकारों का मोहताज कैसे हो सकता है?

15 अगस्त तथा 26 जनवरी वाली देशभक्ति मशहूर दीवानगी हैं। इन दिनों देशभक्ति के गीत से लेकर तिरंगे का दिख जाना आम बात है। कहीं पर एक मशहूर पंक्ति सुनी है कि... बिकने लगा है तिरंगा फिर से चौराहों पर, लगता है कि आजादी-ए-जश्न आया है। यह छोटी सी पंक्ति स्थिति को अच्छी तरह से बयां कर जाती हैं। इसके अलावा जब भी कोई जवान शहीद होता है तब भी सोयी हुई देशभक्ति अचानक से जग जाती हैं। लेकिन इसके लिए शायद शर्त यह है कि वो बड़ा अधिकारी होना चाहिए या फिर बड़ी मुठभेड़ या बड़ा हमला! यानी कि मीडिया में आये या फिर कोई बड़े रैंक का फौजी हो या किसी बड़ी मुठभेड़ या आतंकी हमले की घटना हुई हो, तभी शहीदों के मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वाली भावनाएँ उमड़ती हैं। मैं यह नहीं कहता कि हर पल रोओ या आंसू बहाते चलो। लेकिन ये कैसी देशभक्ति है कि हम अपने जवानों का मरने का गम ही झेलते रहे? उन्हें अपनी जान गवांनी ही न पड़े इसलिए हम सरकारों पर दबाव क्यों नहीं बनाते? हमें पता होता है कि उनकी ज़रूरतें पूरी नहीं होती, फिर चाहे वो हथियारों की हो, खाने की हो या रहने की हो। हम ऊन चीजों पर देशभक्ति प्रक्ट नहीं किया करते। क्या देशभक्ति का मतलब यह मान लिया गया है कि शहीदी पर रोना?

कई राज्यों में बिना शोर किये पक्ष-विपक्ष वाले मिलकर अपना वेतन 300 से 400 प्रतिशत तक बढ़ा लेते हैं और फौजियों को आंदोलन करने पड़ते हैं!!! तब हमारी देशभक्ति मुगल गार्डन में क्यों चली जाती हैं? उनके लिए बनाई गई बिल्डींग में घोटाले होते हैं, हथियारों की खरीदी में अवैध चीजें होती हैं, उनकी जैकेट की खरीदी में, टेंट की खरीदी में, खाना पकाने के लिए अनाज की खरीदी में, केंटीन में, हर जगह धांधली होती हैं। लेकिन वहां हमारी देशभक्ति उतनी भावनाओं के साथ नहीं उमड़ती। उनके लिए सालाना 6,000 करोड़ का बोज पड़ सकता है ये कहकर सरकारें उनकी मांगें पीछे ठेलती हैं। वहीं एक आदमी बैंकों के 9,000 करोड़ लेकर आराम से विदेश चला जाता है। किसी नेता का विमान छूट जाए या ट्रेन का रिजर्वेशन ना मिले तो वे और उनके समर्थक भी बवाल मचा देते हैं। लेकिन फौजियों के लिए युद्धक जहाज तक में देरी हो, तो हम इसे सरकारी प्रक्रिया की आपाधापी मानकर व्यवस्थाओं को दोष देते हैं! तब हमारी देशभक्ति नहीं जगती। उलटा घर पर बैठ कर हम आश लगाते है कि कोई हमारे लिए सरहदों पर दुश्मन की गोलियां झेलता रहे! इस प्रकार के अभिगम को देशभक्ति कहेंगे या दिवालियापन?

किसी नेता का हेलीकॉप्टर गायब हो जाए तब मीडिया समेत हम लोग दिनों तक खाना पीना छोड़ कर जहाज ढूंढने में लग जाते हैं। कुछ लोग वहां ढूंढते हैं और हम खबरों में! गायब हो जाना तो दूसरी बात हैं, लेकिन इमरजेंसी लैंड भी करना पड़े तब भी आधा आधा दिन तक हम मीडिया के जरिये यह जानने की कोशिशों में लगे रहते हैं कि क्यों लैंड करना पड़ा, कौन से पुर्जे में खराबी थी, कब का बना हुआ हेलीकॉप्टर था, ये क्या था, वो क्या था, फलां फलां क्या था। गजब की दीवानगी है यह! वहीं दर्जनों फौजियों को लेकर उड़ने वाला भारी हवाई जहाज गायब हो जाए तब भी दिनों तक हमारी भावनाएँ आराम से अंदर कहीं पड़ी रहती हैं। दिन में दो-चार बार मीडिया से अपडेट लेकर कर्तव्य पालन किया करते हैं। मीडिया सामने से जितना बताता है उतना जान लेते हैं। जैसे कि इंतज़ार हो कि कब प्लेन क्रैश की खबर आये और फिर कब हम वही पुराना शहीदों के मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वाला नाटक कर लें! जी हां, नाटक! क्योंकि हम इसीमें देशभक्ति देखते हैं। उन फौजियों की दैनिक परेशानियां, उनकी मुश्किल जिंदगी, फौज की मुश्किलों के चलते जान गवाने वाले फौजी, आत्महत्या करने वाले वो जवान, लड़ते लड़ते शहीद होने के बाद उनके बच्चे व परिवार, हमें इन सब चीजों में देशभक्ति दिखती ही नहीं।

हमारी तथाकथित देशभक्ति को हमारे रक्षा या परमाणु वैज्ञानिक भी भुगत रहे हैं। अजीब है कि हमारी भावनाएँ फौज के साथ ही जुड़ी हैं, लेकिन उसी फौज को या समस्त देश को परमाणु शक्ति बनाने वाले वैज्ञानिक, आधुनिक हथियारों से फौज को आरक्षित करने वाली शख्सियतों के साथ हमारी भावनाएँ उतनी जुड़ी नहीं रही। होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई तथा अब्दुल कलाम जैसी शख्सियतों का शुक्रिया कि उन्होंने वैज्ञानिकों के प्रति हमारा नजरिया काफी हद तक ज़रूर बदला था। लेकिन आज भी उन वैज्ञानिकों को, उनकी संदेहात्मक मौतों को, उनकी प्राकृतिक मृत्यु तक को देश की उतनी भावनाएँ नहीं मिलती, जितनी उन्हें यकीनन मिलनी चाहिए। परमाणु वैज्ञानिक या संरक्षण संबंधी वैज्ञानिक भी तो अपना समस्त जीवन इसी देश को अर्पित करते हैं। उनके साथ नाइन्साफी यह है कि उनकी तथाकथित रहस्मयी मौत या प्राकृतिक मौत पर भी देश चुप ही रहा है।

अवाम को महफूज रखने के लिए सेना के तीनों अंगों के जवान और अफसर तमाम कष्ट सहते हुए सीमाओं पर तैनात रहते हैं। सरहद पर तपती धूप, कड़ाके की ठंड और आंधी-तूफान का सामना करते हुए सैनिक तैनात मिलेंगे। चाहे शांतिकाल हो या फिर युद्धकाल, सेना से उसी तरह से चौकसी रखने को कहा जाता है। हालात शांत हो या अशांत हो, उन पर सदैव कामयाबी का दबाव रहता है। कभी-कभी तो उन्हें देश में ही मौजूद दुश्मनों का मुकाबला करने का काम करना पड़ता है। दूसरी तरफ संसाधनों की कमी, रहने की, खाने पीने की अच्छी सुविधाओं का अभाव, आदी समस्याएँ उनकी मुश्किलें और बढ़ाती हैं। कई चौकियां ऐसी हैं जहां जवानों को जगह के मुताबिक सुविधाएँ मिल नहीं पाती। सियाचिन चौकियों के यूनिफॉर्म की क्वालिटी से लेकर हथियारों की कमी के प्रकरण के मसले निरंतर देश के सामने आते रहे हैं।
माहौल तो ऐसा है, जैसे कि हमारी नागरिकी व सरकारी व्यवस्थाएँ यह मानती हो कि सैनिक को वेतन तो इसी बात का दिया जाता है कि वे देश के लिए अपनी जान दें। हमारी सोच ऐसी नहीं है, लेकिन माहोल तो कुछ कुछ ऐसा ही है। सर्वसामान्य और हर सरकारों के समय देखी जाने वाली परिस्थिति तो कुछ कुछ ऐसी ही लगती हैं कि... सेना को, सेना के जवानों को अपनी जिंदगियां देश के लिए कुर्बान करनी होती हैं। शासकीय व्यवस्था को यह देखना होता है कि उनके पार्थिव शरीर सम्मानपूर्वक कहीं पहुंचाए जाएं। और लोगों को उनकी शहीदी पर आंसू बहाने होते हैं। हर बरस उनके मजार पर मेले लगाने होते हैं। हर साल ये दिन या वो दिन याद कर करके अपने कर्तव्यों का पालन किया जाना होता है। सेना से वीआरएस लेने वाले फौजियों का आंकड़ा कम चिंताजनक नहीं है। उनके द्वारा सरहदों पर या छुट्टियों में घर पर की जाने वाली आत्महत्याएँ हमें क्यों चितिंत नहीं करती? उनकी शहीदी पर जिस प्रकार की भावनाएँ उमड़ पड़ती हैं वैसी भावनाएँ उनकी ज़रूरतों पर, उनकी दिक्कतों पर क्यों दिखाई नहीं देती? जिंदगी वतन से है... जैसा गाना सुन सुन कर या देशभक्ति की फिल्में देख देख कर ही हम संतुष्ट क्यों रह जाते हैं?

(इंडिया इनसाइड, 19 जुलाई 2016, एम वाला)