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Deshbhakti Vs Divaliyapan : हम कितनी दफा सबूत देंगे कि हम में से ज़्यादातर नागरिक देशभक्त कम और पार्टीभक्त ज़्यादा हैं!


एक बात बड़ी व्यावहारिक है। और वो यह कि, वतन से मोहब्बत दिल से होती है, लेकिन राजनीति से लगाव दिमाग से ही होना चाहिए। सबसे पहली चीज़ तो यही है कि भारतीय सेना या उससे संबंधित जो कुछ भी चीजें घटित हो, उस पर राजनीतिक व्यवस्था और नागरिकी व्यवस्था, दोनों को संजीदगी से काम लेना चाहिए। भारतीय फौज के साथ कोई मसला जुड़ा हुआ हो, जो विवादास्पद हो, तब यह संजीदगी ज्यादा दिखानी चाहिए। आनन-फानन में कोई भी टिप्पणियां करने से बचना चाहिए। सरकारी समर्थकों और विरोधियों, दोनों को कम से कम ऐसी स्थितियों में देशभक्ति का लिहाज कर लेना चाहिए। फिर चाहे दोष सेना का हो या सेना संबंधित अधिकारी या जवान का हो। या फिर किसी का भी ना हो।

राजनेताओं पर खुलकर टिप्पणियां करना, बिना तर्क या सत्यता की टिप्पणी करना या सत्य और ठोस आधारों पर टिप्पणियां करना... ये सब चीजें स्वाभाविक है और उससे उतना ज्यादा इनकार भी नहीं है। लेकिन सेना के मामलों में हमें सदैव एक सीमा में रहना चाहिए। हम सरकार के समर्थक हो या सरकार के विरोधी, लेकिन अपनी अपनी पार्टीभक्ति दिखाने के लिए या अपनी अपनी पार्टी का पक्ष रखने की जद्दोजहद में हमें कुछ सीमाएं नहीं लांधनी चाहिए।

हमारे यहां देशभक्ति और दलभक्ति के बीच का अंतर कई बार मिटता रहा है। इसका इतिहास पुराना भी होगा। नवम्बर 2016 के दौरान दिल्ली में रामकिशन ग्रेवाल नाम के पूर्व फौजी द्वारा की गई खुदकुशी का मामला देख लीजिए। उस घटना को लेकर कुछ सवाल उठने स्वाभाविक थे। सवालों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन उन सवालों की अपनी एक जगह थी, अपना दायरा था। लेकिन इस घटना पर विपक्षी व शासकिय समर्थकों ने जमकर मानसिक दरिद्रता का प्रदर्शन किया। मैं सभी समर्थकों की बात नहीं कर रहा, लेकिन ज्यादातर की बात ज़रूर कर रहा हूं।  

उस घटना पर सत्ता व विपक्षी समर्थकों ने जो किया वो हल्की राजनीति और पार्टीभक्ति का प्रदर्शन ही तो था। खुदकुशी करने वाले पूर्व सैनिक के समर्थन में विपक्षी सेनाएं मैदान में उतर आई। क्या ज्यादातर को उनके साथ सचमुच हमदर्दी थी? अगर होती तो चर्चा या आरोप कुछ और होते। सेनाभक्ति की आड़ में निजी राजनीतिक विरोध को ठेलने का बहानाभर ही तो था। वर्ना सभी जानते हैं कि विपक्ष ने दशकों तक सत्ता संभाली है। इस लंबी अवधि के दौरान ओरोप को लेकर उन्होंने कुछ भी किया होता, तब जाकर विरोध थोड़ा झायज माना जा सकता था। ऊपर से उस खुदकुशी को विपक्ष व उनके समर्थकों ने ऐसे पेश किया, जैसे कि बेशर्मी का नया चैप्टर लिखने पर आमादा हो।

विपक्षी सेनाएं हल्केपन का नया अध्याय लिखने के लिए बेकरार दिखी। सामने शासकिय समर्थकों की सेनाएं भी रेस में उनसे आगे निकल जाने के लिए आमादा थी। उन्होंने भी बेशर्मी का विक्रम बनाने का निश्चय कर लिया था। अपनी पार्टी या अपनी सरकार का बचाव करने के चक्कर में पूर्व सैनिक की जाति, करियर, निजी जिंदगी, आर्थिक परिस्थितियां, मनोस्थिति से लेकर हर वो चीज़ जोड़ी गई, जिसने स्वयं ही सिद्ध कर दिया कि देशभक्ति का लिहाज तो वे भी नहीं करते। विपक्षी समर्थकों ने देशभक्ति को जितना निचोया, उससे ज्यादा निचोने की सनक में सत्तादल के समर्थकों ने भी तो सीमाएं लांध दी थी।

सत्ता व विपक्षी पार्टियों के समर्थकों ने खुद की ही पार्टियों की रोटियां सेंकने के चक्कर में ऐसा ऐसा नहीं, बल्कि ऐसा वैसा किया। हम खुद को हिंदू बताते हैं। हिंदुस्तानी का तमगा पहनते हैं। लेकिन ये कौन से हिंदुस्तान की संस्कृति थी कि मृत इंसान पर इस कदर राजनीति की जाए। हिंदू और हिंदुस्तान, दोनों की संस्कृति रही है कि हम हमारे मृत दुश्मन को भी आदर प्रदान करते है। लेकिन यहां क्या हुआ था कौन नहीं जानता? मौत का लिहाज किसी ने भी नहीं किया। ऊपर से सोचा भी नहीं कि ये एक सैनिक की मौत थी।

मान भी ले कि सारे कथित देशभक्त (जो कि दरअसल पार्टीभक्त ज्यादा थे), जो सभी दलों से दूबकने लगे थे, उन्होंने उस मृत सैनिक के बारे में जो भी आरोप लगाए वो सच थे। मान भी ले कि उन तमाम पक्ष-विपक्ष के समर्थकों के हाथ में ही देश की जांच एजेंसियां थी और दो-तीन दिनों में उन्होंने हर प्रकार की जांच की थी। चलो ये सब मान भी लेते है। लेकिन कम से कम इतनी तो सामान्य समझ होनी चाहिए थी कि मृतात्मा पर हमारे यहां गरियाने की संस्कृति नहीं है। सेना के मनोबल, सेना के सम्मान की बातें बहुत झाड़ते हैं, तो फिर उसे अपनाना भी तो चाहिए था। जो इंसान अपना पक्ष रखने के लिए जिंदा ही नहीं है, उस पर केवल और केवल अपनी अपनी पार्टियों को चमकाने हेतु ऐसे वैसे आरोप लगा देना कहां की संस्कृति थी? चीजें सही हो या गलत हो, लेकिन सेना और मृतात्मा पर जिस मकसद से सब (सत्ता व विपक्षी समर्थक) गरियाने लगे थे, क्या उन्हें ऐसा लगता है कि उन मकसदों को कोई नहीं जानता? तब तो वो उनका भ्रम है।  

बीएसएफ जवान के वायरल हुए वीडियो और उस पर सभी पक्षों के समर्थकों की प्रतिक्रियाएं भी देशभक्ति से ज्यादा तो दिवालियापन उभार के चली गई। जनवरी 2017 में बीएसएफ जवान का एक वीडियो सामने आया। जम्मू-कश्मीर में तैनात बीएसएफ के जवान तेज बहादुर यादव ने फेसबुक में एक वीडियो पोस्ट किया। वीडियो में उन्होंने भोजन संबंधित शिकायतें की और बीएसएफ अधिकारियों के ऊपर भ्रष्टाचार के सनसनीखेज आरोप लगाए। यादव ने वीडियो में कहा कि, जवानों को हल्की क्वालिटी का भोजन दिया जाता है। उन्होंने कहा कि, सरकार की तरफ से सब कुछ मिलता है लेकिन अधिकारी जवानों को मिलने वाले भोजन या अन्य सहूलियतों में भ्रष्टाचार करते हैं। वीडियो में यादव ने कहा कि, मैं बीएसएफ 29 बटालियन का जवान हूं। यहां हालात काफी बदतर है। हम 11 घंटे खड़े रहकर ड्यूटी करते हैं। सरकार हमें काफी मात्रा में सामान भेजती है, लेकिन अधिकारी बीच में सब खा जाते हैं। वो हमारे हिस्से के अनाज और पानी बाज़ार में बेच देते हैं। कई बार तो हमें भूखे सो जाना पड़ता है। सुबह नास्ते में एक पराठा मिलता है, जिसे चाई के साथ खाना पड़ता है। दोपहर को दाल में नमक और हल्दी वाला पानी मिलता है। ऐसी दाल और रोटी खाकर जवान कब तक 11 घंटे ड्यूटी करते रहेंगे?” वीडियो में यादव ने दाल, पराठे आदि के शूट किए गए दृश्य भी दिखाए।

इस वीडियो के आने के बाद केंद्र सरकार ने अपनी ओर से रिपोर्ट मांगी और कुछ कदम उठाए। तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने गृह सचिव को इस मुद्दे पर जांच करने के लिए आदेश दिया। गृहराज्यमंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि, यह गंभीर मसला है। मुझे सरहद पर संतुष्ट कार्यवाही देखने के लिए मिली है, लेकिन जवान के इल्ज़ाम गंभीर है। इसमें निष्पक्ष जांच की जाएगी।

वहीं बीएसएफ ने तेज बहादुर यादव पर कई सारे आरोप लगाए या फिर खुलासे किए। बीएसएफ ने कहा कि ये जवान अनुशासन भंग की सजाएं कई बार झेल चुका है और एक दफा अपने अधिकारी के सामने बंदूक भी तान चुका है। बीएसएफ ने कहा कि सन 2010 में इस जवान का कोर्ट मार्शल किया गया था, लेकिन उसके परिवार की स्थिति देखते हुए उसे नौकरी से हटाया नहीं गया। बीएसएफ की ओर से जवान मानसिक रूप से कमज़ोर होने का इशारा भी किया गया। उस पर शराबी होने का तथा अनुशासनहिनता का आरोप लगा।

यादव ने बीएसएफ को जवाब देते हुए कहा कि मैं अगर मानसिक बीमार था तो मुझे 14 अवार्ड क्यों दिए? मुझे बीएसएफ में गोल्ड मेडल क्यों दिया गया? मेरे पास प्लम्बर की भी ड्यूटी करवाई गई थी, जो मैंने की। मैंने तीन बार शिकायतें की, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। और इसीलिए मैंने यह रास्ता चुना। यह वीडियो रखने के बाद में जिंदा रह पाता हूं या नहीं वो मुझे नहीं पता। क्योंकि अधिकारियों की पहुंच बहुत ऊपर तक है। मुझे एक ही उम्मीद है कि प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर ध्यान देंगे और जांच के आदेश देंगे।

इसके बाद एक और फौजी का वीडियो सामने आया। जोधपुर संभाग के बाड़मेर के गांव जागसा के रहने वाले बीएसएफ जवान यादव के साथी खंगटा राम चौधरी ने उन्हें मिलने वाली खाद्य सामग्री और सुविधाओं पर खुलासा किया। इन्होंने 30 दिसंबर के दिन वीआरएस ले लिया था। उन्होंने अपने वीडियो में भोजन और अन्य सुविधाओं की आलोचना की।

ये सब यहीं नहीं रुका। एक वीडियो में वायुसेना के पूर्व जवान ने वायुसेना के उच्च अधिकारियों पर आरोप लगाया कि 14 हजार रुपये नहीं देने पर उसके ऊपर कई चार्ज लगाकर नौकरी से निकाल दिया गया। परेशान होकर जवान ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मौत की गुहार लगाई, ताकि जलालत भरी जिंदगी से उसे छुटकारा मिल जाए।

एक अन्य मामले में मथुरा जनपद के गांव सहजुआ थोक सौंख निवासी जीत सिंह ने भी प्रधानमंत्री से गुहार लगाते हुए कहा कि सीआरपीएफ के जवान चुनाव, वीआईपी, वीवीआईपी, संसद सहित विषम स्थितियों वाले राज्यों में तैनात हैं। इसके बावजूद न वेलफेयर मिलता है न समय से छुट्टियां। आर्मी में पेंशन है, हमारी पेंशन थी वो भी बंद हो गई। 20 साल बाद नौकरी छोड़कर जाएंगे तो क्या करेंगे? हमें एक्स सर्विसमैन की सुविधा नहीं, केंटीन की सुविधा नहीं, मेडिकल की सुविधा नहीं, जबकि ड्यूटी हमारी सबसे ज्यादा है।

इस बीच लांस नायक यज्ञप्रताप सिंह का भी वीडियो आया। ये मत सोचे कि ये सब वीडियो इन्हीं दिनों आए होंगे। दरअसल, कुछ वीडियो कुछ महीनों पुराने थे, लेकिन इन विवादों के बीच आखिरकार उन्हें भी जगह मिली।

सेना में भोजन से लेकर अन्य मसलों पर यूपीए सरकार के दौरान कैग का रिपोर्ट पेश हुआ था। कैग पहले भी सेना के भोजन से लेकर अन्य सहूलियतों पर सवाल उठा चुका है।

इन्हीं दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया ने चौंकानेवाली खबर को छापा। अखबार की माने तो, श्रीनगर में सुरक्षा बलों के कैंप के आस-पास रहने वाले लोगों ने खुलासा किया कि सेना के कुछ अधिकारियों से उन्हें मार्केट से आधे रेट में सामान मिल जाता है। लोगों ने बताया कि अधिकारियों से उन लोगों को पेट्रोल, डीजल के साथ-साथ खाने के कुछ सामान भी मार्केट से आधे रेट में मिल जाते हैं। खाने के सामान में चावल, मसालें जैसी चीजें शामिल हैं। इसके साथ-साथ सब्जियां तक कैंप के पास रह रहे लोगों को सस्ते में बेच दी जाती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने दावा किया कि कैंप के बाहर फर्निचर की दुकान के मालिक ने भी कमिशन वाली बात कही थी।

इस पूरे विवाद और अधिकारियों के ऊपर भ्रष्टाचार के कथित आरोप के बाद सबसे पहला मौका विपक्षों ने ढूंढ निकाला। जवान ने अपने वीडियो में साफ कहा था कि, सरकार की तरफ से सब मिलता है लेकिन अधिकारी बीच में खा जाते है। बावजूद इसके विपक्ष ने सरकार पर आरोप लगाना शुरू कर दिया। बहती गंगा में विपक्षी पार्टी के समर्थक भी कूद पड़े। पार्टीभक्त अचानक से देशभक्त बन गए और तत्कालीन सरकार पर कई प्रकार के मनघडंत आरोप लगाए जाने लगे। फेसबुक, ट्विटर या वाट्सएप के जरिए विपक्षी समर्थकों ने सरकार पर ही धावा बोल दिया। जबकि वीडियो में यादव ने अधिकारियों के भ्रष्टाचार की बात कही थी। उसने तो साफ कहा था कि सरकार से सब चीजें मिलती है। उसने तो अधिकारियों पर कथित भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। लेकिन विपक्षी दल और उनके समर्थकों ने सीमाएं लांधी और अपने मनमाने तरीके से सरकार पर आरोप मड़ना शुरू कर दिया। तत्कालीन पीएम पर अशोभनीय टिप्पणियां करने में विपक्षी समर्थकों ने कोई लिहाज नहीं किया। ज्यादातर समर्थकों की भाषाएं और तर्क चीख़चीख़ कर सबूत दे रहे थे कि सेना या देश से ज्यादा इन्हें मौकापरस्ती करने में ज्यादा यकीन है। मौका मिलते ही वे टूट पड़े। यादव ने भी नहीं सोचा होगा कि विपक्ष मूल समस्या को भूल कर अपनी नफरत खत्म करने में ही लग जाएगा।

अब बारी थी सत्ता दल की। विपक्ष तो इसीलिए बना होता है कि बिना सोचे-समझे वो हर मौके पर राजनीति ही करता रहै। जो सत्ता में है वो भी विपक्ष होते हुए हर चीज़ पर ऐसी ही दरिद्रता दिखाया करते थे। सरकार पर इल्ज़ाम लगने के बाद उनके समर्थक मैदान में उतर गए। सत्तादल के समर्थकों ने भी सीमाएं लांधना शुरू कर दिया। विपक्ष ने याद नहीं रखा था, लेकिन शासकिय समर्थक भी भूल गए कि जवान ने अपने वीडियो में साफ कहा था कि, सरकार की तरफ से सब मिलता है लेकिन अधिकारी बीच में खा जाते हैं। बीएसएफ के बयान को आधार बनाकर विपक्ष पर वार करने के बजाय सत्तासमर्थकों ने उस जवान पर ही वार करना शुरू कर दिया! विपक्ष के इल्जामों का जवाब देने के बजाय ये समर्थक तो यादव को ही विपक्ष मानने लगे! विपक्ष पर बोलने के बजाय शासकिय समर्थकों ने उस जवान पर बोलना शुरू कर दिया! बीएसएफ के बयान की ताकत पर यादव पर लिखा जाने लगा कि तुमसे न हो पाएगा यादव, तुम चलते बनो। शासकिय समर्थक सेना के जवानों को नसीहतें देने लगे कि सरहद पर कैसे फर्ज निभाया जाता है!!! विपक्ष ने यादव को भूल कर सत्तादल को निशाने पर लिया, तो बदले में शासकिय समर्थकों ने विपक्ष को भूल कर यादव को ही निशाने पर ले लिया। यानी कि यहां भी, देशभक्ति की जगह पार्टीभक्ति वाला मंजर साफ दिखाई दिया। तेज बहादुर पर अनाप-शनाप टिप्पणियां होने लगी और देशभक्ति नाम की भावना फिर एक बार शर्मसार हुई।

जवानों को मिलनेवाली सहूलियतें, खाना आदि चीजें पहले से ही विवादों में घिरा हुआ मुद्दा रहा है। बार बार ये चीजें उठती रही है। हो सकता है कि जवान ने सेना का अनुशासन या परंपरा तोड़ी हो। हो सकता है कि जवान गलत हो। हो सकता है कि जवान सही हो। लेकिन, मूल विषय जो सहूलियतों का था, उसको छोड़कर अपनी पार्टी की ही राजनीति करने में सभी ज्यादा लगे रहे। राजनीति के लिए ऐसी जनता आर्शीवाद समान होती है, जहां उस देश की जनता मूल समस्या को छोड़ उस चीज़ पर फेफड़े फाड़ते हैं जिसका ज़िक्र ही नहीं हुआ होता।

कुल मिलाकर, विपक्षी समर्थक और सत्तादल के समर्थक, दोनों में से किसी ने शर्म-लिहाज नहीं रखी। भोजन, भ्रष्टाचार या अन्य सहूलियतों का सवाल धरा का धरा रह गया और सत्तापक्ष व विपक्ष, दोनों के समर्थक एक दूसरे के नेता या पार्टी को चमकाने के लिए मैदान में कूद पड़े। दोनों में से किसी ने सोचा तक नहीं कि वो किस विषय पर बात कर रहे हैं। किसी ने लिहाज नहीं किया कि जवान सच हो या गलत हो, लेकिन सेना तो दोनों की है। कुछ ने कहा कि यादव ने सेना को शर्मसार किया है, तो कुछ ने कहा कि सरकार ने देश को शर्मसार किया है। लेकिन सच तो यह था कि शासकिय व विपक्षी समर्थक, दोनों ही अपनी अपनी नेताभक्ति या पार्टीभक्ति में लीन थे। दोनों फिर एक बार देशभक्त की जगह पार्टीभक्त ज्यादा साबित हो गए। दोनों ने साबित कर दिया कि उनके लिए देश, सेना या देशभक्ति या सेना सम्मान जैसी चीजें बाद में है। दोनों ने अपने तर्कों, कुतर्कों, दलीलों और टिप्पणियों से सबूत दे दिया कि दोनों के लिए अपनी अपनी पार्टियां और अपने अपने नेता की ही भक्ति प्रथम है। सत्ता और विपक्ष, दोनों के समर्थकों ने डंके की चोट पर साबित किया कि उनमें देशभक्ति के नाम पर दिवालियापन दिखाने की चाहत कुछ ज्यादा ही है।

किसी ने ये नहीं सोचा कि मामला सेना का है। वो सारे जवान सच हो या झूठ हो, उनके द्वारा लगाए गए आरोप सिरे से झूठे हो तब भी किसी ने ये लिहाज नहीं किया कि सेना के मामलों में राजनीतिक और नागरिकी, दोनों व्यवस्थाओं को संजीदगी से प्रतिक्रियाएं देनी चाहिए। विपक्षी व सत्तादल समर्थकों को याद रखना चाहिए था कि वो किसी भाजपाई, कांग्रेसी, आपिये या किसी और थप्पे वाले बाद में हैं, लेकिन पहले हिंदुस्तानी हैं। बिना जांच के मान ले... या मान ले कि जांच हो गई और ये बाहर आया कि तमाम जवान गलत थे या यादव के बारे में बीएसएफ ने जो जो दावे किए थे वो सच थे। यानी कि हम मान ले कि जवानों ने गलती की थी या वो झूठ बोल रहे थे, लेकिन तब भी नागरिकों को तो सदैव याद रखना चाहिए था कि ऐसी छिछोरापंति या ऐसी हल्की भाषा या ऐसे गटरछाप तर्क नेता ज्यादा इस्तेमाल किया करते हैं। कथित रूप से जवानों ने सेना को शर्मसार किया होगा, लेकिन अपनी अपनी पार्टी या नेता की भक्ति में लीन होकर उस जवानों से ज्यादा शर्मसार करने का काम तो सत्ता व विपक्ष, दोनों के समर्थकों ने जम कर किया।

माना कि तमाम मामलों में जवानों ने अनुसाशन तोड़ा था। माना कि उन्होंने गलत तरीका अपनाया था। लेकिन सेना कमियों से झूज रही है ये कौन नहीं जानता? यूपीए काल से कैग का रिपोर्ट देश के सामने है। क्या हम जैसे कथित देशभक्तों ने इसे लेकर कभी कोई चीज़ मुखर होकर उठाई? खुद को देशभक्त बताने वाले हम लोगों ने क्या कभी सेना की ज़रूरतें, उनकी सहूलियतें आदि चीजों पर खुलकर आवाज बुलंद की?

अरे भाई, चलो मान भी लेते हैं कि तमाम किस्सों में जवानों का ही दोष था। जो इल्ज़ाम जवानों पर लगाए गए वो तमाम सच थे यह भी मान लेते हैं। मान लेते हैं कि वो किसी राजनीतिक दल के बहकावे में आ गए थे। मान लेते हैं जो सभी की दलीलें हैं। ये भी मान लेते हैं कि कोई जांच भविष्य में हो और तमाम किस्सों में वो लोग ही दोषी पाए जाएंगे। लेकिन क्या इससे जो मूल विषय है उसे छोड़ देना चाहिए? इन सबसे क्या ये साबित हो जाएगा कि सत्ता व विपक्षी समर्थकोंं ने नौटंकियां करके राजनीतिक नफरत नहीं निकाली थी? क्या इससे ये साबित हो जाएगा कि सभी ने नेताभक्ति, पार्टीभक्ति से ज्यादा देशभक्ति दिखायी थी? किसी दृष्टिकोण से ये साबित नहीं होगा। क्योंकि सब दिख ही रहा है। कुछ चीजें तो आज ही साबित हो चुकी है। इससे हम पाक साफ साबित नहीं होंगे।

तमाम दलों की गौरवसेनाओं को, चाहे वो सत्तादल की हो या विपक्ष की, एक बात याद रखनी चाहिए थी कि हम भाजपाई, कांग्रेसी, आपिये या फलांने फलांने बाद में हैं। यह समझ ले कि हम सब अलग अलग सिम्बल वाले हैं, क्योंकि पहले हम हिंदुस्तानी हैं। गर हम हिंदुस्तानी ही नहीं होते, तो फिर ये अलग अलग सिम्बल वाले भी नहीं होते।

राजनीतिक मुहब्बत में हम सभी नागरिक इतने धंसे हुए हैं कि कुछ मामलों में हम भूल ही जाते हैं कि हम भारतीय हैं। लोकतांत्रिक सभ्यता हैं हम। इसका मतलब यह भी नहीं है कि संवेदनशील चीजों में वाणीस्वातंत्र्य का उन्माद बनाए रखे। दरअसल, सत्तादल या विपक्ष के ज्यादातर समर्थकों की ऐसी ही प्लास्टिक टाइप चीजों से साबित होता है कि हमारे लिए देश शायद कोई पार्टी है या कोई नेता है!!! हम सभी सचमुच देशभक्त हैं तो हमें देशभक्ति का थोड़ा सा लिहाज भी कर लेना चाहिए। हम सरकार के समर्थक हो या विरोधी हो, लेकिन पार्टी का पक्ष रखने के चक्कर में सीमाएं लांधे तो फिर देशभक्ति की जगह मानसिक दरिद्रता ही उभरती है।

किसीने सोचा तक नहीं कि सेना या उसके जवान सही भी हो या गलत भी हो, लेकिन कुछ मामलों में एक लिहाज होना चाहिए या एक मर्यादा होनी चाहिए। दोनों दलों के समर्थक लाख दलीलें कर ले या मुझे भी कितनी गालियां दे दे, सच तो यह था कि दोनों के समर्थकों ने डंके की चोट पर साबित किया कि उनमें देशभक्ति के नाम पर दिवालियापन दिखाने की चाहत कुछ ज्यादा ही है। हमें याद रखना होगा कि सेना या उनके जवान झूठ भी बोल रहे हो तब भी, हमारी औकात उतनी नहीं है कि उन पर टिप्पणी दे या उनको भी नसीहतें देने के प्रयत्न करे।

यह समझ ले कि आप की पार्टी कोई भी हो, आप का पसंदीदा नेता कोई भी हो, याद रखना... वो सारे के सारे एक दिन एक ही टेबल पर बैठकर खाना खा लेंगे, लेकिन हम लोग बेवकूफी वाली हरकतें कर करके सात पीढ़ी तक एक दूसरे को नफरत ही करते रहेंगे। इसके सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। विरोध करने में शालीनता नहीं रखनी है तो मत रखिए। लिहाज की ऐसी तैसी करनी है तो कर दीजिए। लेकिन सेना के मसलों पर थोड़ा सा नियंत्रण बनाए रखिए। बड़ी शिद्दत से आखिरी बात लिखता हूं कि... वतन से मोहब्बत दिल से होती है, राजनीति से लगाव दिमाग से ही होना चाहिए।

(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 11 जनवरी 2017, एम वाला)