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Judicial Vs Government : लाल आंख करके रास्ता दिखाने वाली घटनाएं (पार्ट 1)



हमारे यहां न्यायतंत्र की शिथिलता हमेशा बड़ा मुद्दा रहा है। बावजूद इसके यह भी कहा जाता रहा है कि इस देश में फौज और न्यायतंत्र अपने कार्यों से जनसमुदाय को ज्यादा प्रभावित करते रहे हैं। हमारे अलग अलग राज्यों के उच्च न्यायालय या देश का सर्वोच्च न्यायालय सैकड़ों बार, अलग अलग विषयों पर कुछ न कुछ ऐसे फैसले व टिप्पणियां देते रहे हैं, जो मींल के पत्थर साबित होते गए।

लाल आंख करके रास्ता दिखाने वाली यह घटनाएं समूचे भारत से संबंधित है। इसे आप जिस तरह से पढ़ना या समझना चाहते हैं, पढ़ या समझ सकते हैं। न्यायतंत्र, राजनीति, कानून, नीतियां, नियम, संविधान, सख्ती, कमजोरी, लापरवाही, मामलों की एकरूपता या फिर मामलों की भिन्नता के साथ साथ राजनीतिक और नागरिकी नजरिये की एकरूपता या भिन्नता... जिस तरह से इसे पढ़े या समझे।

जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की जीत को ही अवैध घोषित कर दिया था
जब भी न्यायतंत्र और राजनीति की बात हो तब बगैर इस मामले के विषय को शुरू करना बेईमानी ही है। भारत के राजनीतिक इतिहास में यह मामला न्यायतंत्र के लोकतांत्रित इंसाफ का सबसे बड़ा गवाह माना जाता है। भारतीय राजनीति के इतिहास में इस मुकदमे को इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण के नाम से जाना जाता है।

1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की पार्टी ने ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थी। इंदिरा ने खुद रायबरेली सीट से विपक्ष के उस वक्त के बड़े नेताओं में शुमार राजनारायण को 1 लाख 11 हज़ार वोटों से हराया था। हालांकि, इस चुनाव में राजनारायण ने नतीजे आने से पहले ही अपना विजय जुलूस तक निकाल लिया था। लेकिन रायबरेली की इस सीट पर एक लाख से ज़्यादा वोटों से हारने के बाद राज नारायण ने इंदिरा पर सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करने, वोटरों को खरीदने और चुनाव में धांधली कराने का आरोप लगाया। नतीजे जारी होने के कुछ दिनों बाद राज नारायण ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक अर्जी भी दाखिल की और अदालत से उन्हें अयोग्य घोषित किये जाने की मांग की।

राज नारायण ने यह याचिका 15 जुलाई, 1971 को दायर की थी। इस अर्जी पर सबसे पहले जस्टिस लोकुर ने सुनवाई की थी। बाद में यह मामला जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की बेंच में ट्रांसफर हो गया। साढ़े तीन साल तक चली सुनवाई के बाद जस्टिस सिन्हा ने जब राज नारायण द्वारा लगाए गए तमाम आरोपों को सच के करीब पाया, तो उन्होंने प्रतिवादी बनाई गई तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को समन जारी कर 18 मार्च 1975 को कोर्ट में तलब कर लिया। भारत के इतिहास में यह पहला मौका था, जब किसी प्रधानमंत्री को अदालत ने समन जारी किया और उसे कोर्ट में पेश होना पड़ा।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की चुनिंदा ताकतवर हस्तियों में शुमार किया जाता था। अपने ज़माने में इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक वो दिन भी रहा, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते हुए ऐसी जगह पहुंची, जहां सौ से ज़्यादा लोग कुर्सियों पर बैठे हुए थे, लेकिन इंदिरा के पहुंचने पर कोई भी उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, लगभग पांच घंटे बिताने के बाद इंदिरा जब वहां से वापस जाने लगीं, तब भी कोई अपनी जगह से नहीं हिला।

न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने अपने ऐतिहासिक फैसले में श्रीमती गांधी की जीत को अवैध करार दिया और उन्हें 6 वर्ष के लिये चुने हुए पद पर आसीन होने से रोक लगा दी। 12 जून 1975 के दिन इंदिरा को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव में धांधली का दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया। वे 6 साल तक चुनाव भी लड़ नहीं सकती थी। इंदिरा गांधी पर चुनाव संबंधी धांधली के 14 आरोप लगे थे, जिसमें वोटरों को घूस देना, सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग आदि आरोप शामिल थे। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इस मामले पर अपना फैसला सुनाया था। नानाभाई पाल्खीवाला इंदिरा गांधी के अधिवक्ता (वकील) थे, तो वहीं राज नारायण के वकील शांति भूषण थे।

मुरुगन की किताब और चेन्नई हाईकोर्ट का फैसला
पेरुमल मुरुगन तमिलनाडु के प्रसिद्ध लेखक है। उनकी एक पुस्तक को लेकर काफी बवाल हो गया और राज्य सरकार, पुलिस सेवा और जनता के बीच इसको लेकर काफी माथापच्ची हुई। स्वाभाविक है कि अपनी किताब को लेकर मुरुगन को कई वैचारिक विरोधियों के विविध प्रकार के हमलों का तथा विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा। इस कथा को लेकर कुछ लोग भड़क गए कि यह अश्लील है और इससे स्थानीय संस्कृति और परंपरा बदनाम हुई है। स्थानिक सत्ताधीशों और पुलिस तथा सरकार के प्रयासों के बाद इसका स्थिति अनुसार समाधान हुआ। जनवरी 2015 में मुरुगन ने फेसबुक पर लिखा कि लेखक पी मुरुगन मर गया है। वो भगवान नहीं है कि पुनर्जीवित होगा। चेन्नई हाईकोर्ट में उनके खिलाफ याचिका दायर की गई कि मुरुगन की किताबों को वापस ले लिया जाए और उन पर आपराधिक मामला चले, क्योंकि इससे जाति और धार्मिक भावना नाम की दो भावनाओं को ठेस पहुंची है। वैसे अश्लील फिल्में धड़ाधड़ रिलीज हो जाती है और तब किसी की कोई भावना आहत नहीं होती यह भी लाजवाब पहलू है।

जुलाई 2016 में चेन्नई हाईकोर्ट ने दोनों याचिकाएं खारिज कर दीं और अपने फैसले में जो लिखा उसे मींल का पत्थर बताया गया। चीफ जस्टिस सीजे कौल और जस्टिस पुष्पा सत्यनारायण ने यह फैसला लिखा। चेन्नई हाईकोर्ट ने अपने फैसले में मुरुगन को पुनर्जीवित होने के लिए कहा, जिन्होंने अपने मरने का एलान कर दिया था। अदालत ने लिखा कि, उठो और लिखो। एक जीवंत लोकतंत्र के नागरिक की पहचान यही होती है कि वो समय के साथ अपने विरोधी के संग चलना सीखे। हर लेखन किसी के लिए आपत्तिजनक है इसलिए उसे अश्लील, अभद्र और अनैतिक नहीं कहा जा सकता है। मुरुगन को भय में नहीं रहना चाहिए। उन्हें लिखना चाहिए और अपने लेखन के कैनवस का विस्तार करना चाहिए। उनका लेखन साहित्य में योगदान माना जाएगा, बावजूद इसके उनसे असहमत होने वाले लोग भी होंगे। मगर इसका हल यह नहीं है कि लेखक खुद को मरा हुआ घोषित कर दे। वो उनका मुक्त फैसला नहीं था, बल्कि एक बनाई गई स्थिति में लिया गया था। फैसले की प्रस्तावना में चीफ जस्टिस कौल ने लिखा कि समाज किसी किताब को पढ़ने के लिए, किताब जो कहती है उससे बिना आहत हुए आत्मसात करने के लिए तैयार है या नहीं, इन सब बातों पर वर्षों से विवाद होता रहता है। समय बदल गया है। पहले जो स्वीकृत नहीं था, अब स्वीकृत है।

अदालत ने कला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाने का आदेश दिया, जो ऐसे मामलों में कया किया जाए, इसकी रूपरेखा तय करेगी। उनकी मार्गदर्शिका को पुलिस से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों को भिजवाये जाने के निर्देश दिए। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में मुकदमा शुरू होने से पहले सजा दे दी जाती है जो ठीक नहीं है। लोगों का दबाव रहेगा मगर राज्य उस दबाव को लेखक या कलाकार पर हावि न होने दे। अन्य तरीकों से उन्मुक्त अभिव्यक्ति के अधिकार को सुरक्षित रखे। कानून बनाए रखने के नाम पर कलाकार को अपने स्टैंड से मुकरने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, न ही नॉन स्टेट एक्टर को इजाज़त होगी कि वो तय करे कि क्या अनुमति योग्य है, क्या नहीं। समाज के एक तबके से जब भी किसी लेखक या कलाकार पर हमला होगा, राज्य को पुलिस सुरक्षा देनी होगी।

पूर्वोत्तर राज्यों का विवादित कानून अफस्पा और सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी
AFSPA (Armed Forces (Special Powers) Acts) बहुत पहले से अपने आप में विवादित कानून रहा है। इस कानून के तहत जिन राज्यों में अफस्पा लागू है वहां सेना को विशेषाधिकार दिए गए है। लिहाजा लोगों पर अत्याचार और फर्जी मुठभेड़ समेत कई सारे विवाद हमेशा से उठते रहे हैं। अफ्स्पा को हटाने और न हटाने पर सभी की अपनी अपनी राय आती रही है। इरोम शर्मिला अफस्पा का वो चेहरा है जिन्होंने कई सालों तक इसे हटाने को लेकर भूख हड़ताल की। इसके पक्ष में कहा जाता है कि अशांत इलाकों में सेना को कुछ विशेषाधिकार ज़रूर मिलने चाहिए, ताकि स्थिति को नियंत्रित किया जा सके। जबकि इसके विरोध में लोग सेना द्वारा किये जा रहे अत्याचारों को निशाना बना कर इसे दुर करने की वकालत करते रहे हैं।

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों की जांच के लिए तीन जजों की एक समिति का गठन किया था और जस्टिस संतोष हेगड़े की अगुवाई वाली इस टीम को इनमें से शुरुआती छह केस 'ईमानदार' नहीं लगे थे। जुलाई 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने उन 1528 मुठभेड़ों की जांच के भी आदेश दिए, जिन पर फर्ज़ी होने का आरोप लगाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पूर्वोत्तर राज्यों में जहां अफस्पा का कानून लागू हैं वहां सेना 'अत्याधिक बल' का इस्तेमाल नहीं कर सकती। कोर्ट ने यह अहम बात उस याचिका की सुनवाई के दौरान कही, जिसमें मणिपुर में सेना द्वारा फर्जी एनकाउंटर का आरोप लगाया गया था।

सरकार ने लोगों की योग्यता तथा डिग्रियों को मजाक बना रखा है गुजरात हाईकोर्ट
जुलाई 2016 में एक मामले में गुजरात हाईकोर्ट की टिप्पणी बिल्कुल यही थी। मामला था राज्य में संगीत विशारद् की नियुक्ति का। इन नियुक्तियों के दौरान जिन लोगों ने उम्मीदवारों का साक्षात्कार किया उन्हीं के पास ज्ञान व योग्यता नहीं थी, यह याचिका दायर हुई और मामला हाईकोर्ट तक जा पहुंचा। जामनगर के एक शख्स ने इस मामले में याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला सुनाया और फैसले के दौरान गुजरात सरकार को झाड़ दिया। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, सरकार ने लोगों की योग्यता तथा डिग्रियों को मजाक बना कर रखा है। जिन लोगों के पास संगीत का ज्ञान नहीं है वैसे लोग संगीत विशारद् का साक्षात्कार कैसे ले सकते हैं? इस प्रकार की गैरजिम्मेदाराना कार्यशैली स्वीकार नहीं की जा सकती। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इन साक्षात्कार को रद्द करके नये सिरे से साक्षात्कार करने के आदेश दिए। कोर्ट ने राज्य के शिक्षा विभाग के उत्तर को भी खारिज कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय ने एक वक्त की सरकार की तुलना रिप वैन विंकल से कर दी थी
पर्यावरणीय मामलों पर सरकारी गति से सुप्रीम कोर्ट एक वक्त पर इतना नाराज हुआ कि उसने तत्कालीन सरकार के प्रति अतिसख्त रवैया अपनाया। कोर्ट ने कहा था कि, “सरकार कुंभकर्णी नींद में सोई हुई है।कोर्ट ने सरकार  की तुलना 19वीं सदी की एक मशहूर कहानी के कामचोर किरदार रिप वैन विंकल से की थी। पर्यावरण मामलों में लापरवाहियों से नाराज सुप्रीम कोर्ट की बेंच के जस्टिस दिपक मिश्रा और आरएफ नरीमन ने पर्यावरण मंत्रालय को जमकर फटकार लगाई थी। साथ ही, केंद्र सरकार को भी निशाने पर लिया था। उत्तराखंड में अलकनंदा और भागीरथी नदी पर चल रहे 24 हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स के बायोडायवर्सिटी इंपैक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय से दो महीने के अंदर रिपोर्ट मांगी थी। मंत्रालय ने रिपोर्ट तय वक्त में कोर्ट में हाजिर नहीं की। ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट न मिलने पर इन सभी प्रोजेक्ट्स पर रोक लगा दी और अहवाल पेश करने के लिये कहा। कुछ दिन बाद भी रिपोर्ट पेश न कर पाने पर जज नाराज हो गए। उन्होंने कड़े लहजे में कहा कि, रिपोर्ट को आज यहां होना चाहिए था। केंद्र सरकार कुंभकर्ण की तरह व्यवहार कर रही है। कोर्ट यह समझने में नाकाम है कि केंद्र सरकार ने रिपोर्ट पेश क्यों नहीं की? आखिर केंद्र सरकार क्या चाहती है? काफी समय दिया जा चुका है। आप 'रिप वान विंकल' जैसे ही हैं।सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स के साथ-साथ जैव विविधता भी महत्वपूर्ण है। दोनों के बीच एक संतुलन की ज़रूरत है।

गंगा सफाई पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था  ऐसे तो युगों तक गंगा साफ नहीं होगी
गंगा सफाई पर सरकारें जागी या फिर मजबूरन जागना पड़ा, उससे पहले कई लोगों ने गंगा सफाई के लिए अपनी तरफ से प्रयास किए तथा सरकारों से मदद मांगी। उसके बाद कुछेक संत और स्वैच्छिक संगठन भी आगे आए। बाद में सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने पड़े और तत्कालीन यूपीए सरकार को निर्देश देने पड़े। लेकिन सरकारों की कार्यशैली मंथर रही। नयी एनडीए सरकार को भी सुप्रीम कोर्ट निर्देश देती रही। लेकिन सरकारी फाइलों और अन्य चीजों से आहत होकर सरकार की गंगा सफाई पर खुद सुप्रीम कोर्ट को सख्त रवैया अपनाना पड़ा। किसी सरकार के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था कुछ सख्त रवैया अपना ले तो यह चीज़ अपने आप में सरकारी दावों पर सवालियां निशान है। खुद कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि, आपके चुनावी घोषणापत्र में ये था तो अब तक इसकी शुरुआत क्यों नहीं हो रही है?” कोर्ट ने यहां तक कहा कि, सरकार फाइलों को घुमाना ना पड़े इसलिए मंत्रीमंडल के स्वरूप में पहले से ही भारी बदलाव कर चुकी है तो फिर फाइलें अब भी क्यों मंत्रालयों के बीच घूम रही है?” सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को रोड मैप के लिए 2 हफ्ते का वक्त दिया था। इसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने 2 बार केन्द्र सरकार को फटकार लगाई और कहा कि, “ऐसी कार्यपद्धति से युगों तक भी गंगा साफ नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सरकार यूपीए तथा तत्कालीन सरकार एनडीए, दोनों से गंगा शुद्धिकरण योजना पर हुए खर्च का हिसाब मांगा और फटकार लगाते हुए टिप्पणी कर दी कि, एक ऐसी जगह सरकार बता दे जहां गंगा की सफाई हो पायी हो।

गुजरात सरकार, गुजरात चुनाव आयोग और गुजरात हाईकोर्ट
सुप्रीम कोर्ट के 2005 के आदेशानुसार म्युनि. चुनाव को एक दिन भी खींचा नहीं जा सकता। 2015 के मध्यकाल में बरौडा व अहमदाबाद म्युनि. चुनाव पर स्टे लगा हुआ था। गुजरात हाईकोर्ट ने सरकार के विरुद्ध फैसला सुनाया तो सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। सुप्रीम कोर्ट ने 3-3 बार सरकार को समय दिया किंतु सरकार उत्तर नहीं दे पाई। दूसरी ओर गुजरात हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार को खरी खोटी सुनाई और राज्य के चुनाव आयोग को सीधा कह दिया कि, आप सम्राट नहीं हो। हाईकोर्ट ने गुजरात सरकार को आदेश दिया कि जल्द से जल्द चुनाव कराये जाएं। राज्य के चुनाव आयोग तक को हाईकोर्ट ने झाड़ दिया था।

शिक्षा का अधिकार और गुजरात हाईकोर्ट
गुजरात के ऊपर कैग ने 2008-13 की एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें शिक्षा के अधिकार विषय पर राज्य सरकार की उदासीनता पर सवाल उठाये गए। कैग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि गुजरात सरकार ने राइट टु एजुकेशन जेसे कानून को गंभीरता से लिया ही नहीं। आखिर गुजरात हाईकोर्ट ने नवम्बर-14 में राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि, राइट टु एजुकेशन के अधीन गरीब बच्चों को प्रवेश क्यों नहीं दिया जा रहा इसका जवाब दीजिए। हाईकोर्ट ने कहा कि, शिक्षा के अधिकार कानून का राज्य सरकार इस्तेमाल क्यों नहीं कर रही? उसमें कोताही नहीं चलेगी।

डिग्री इंजीनियरिंग पर्सेंटाइल पद्धति में भी सरकार को न्यायतंत्र का करारा झटका लग चुका है
गुजरात में भी सरकार के द्वारा लागू की गई पर्सेंटाइल पद्धति को हाईकोर्ट ने गैर संवैधानिक ठहराया था। कोर्ट द्वारा कहा गया था कि, ये मूलभत अधिकारों का भंग है। गुजरात की डिग्री इंजीनियरिंग पर्सेंटाइल पद्धति में सरकार को न्यायतंत्र का करारा झटका लग चुका है। गुजरात हाईकोर्ट के 4 अवलोकन सरकार की पद्धति पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर गए। (1) राज्य सरकार ने नियमों को तोड़ा है। (2) सरकार की सारी दलीलें रद्द करने लायक हैं। (3) सरकार की पद्धति में 2+2 = 4 नहीं लेकिन 7 हो रहे हैं। (4) जो एडमिशन किए गए हैं वो सरकारी प्रक्रिया की कमियां है। गौरतलब है कि गुजरात सरकार ने ये प्रक्रिया 2012-13 में लागू की थी। तब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे। गुजरात हाईकोर्ट ने उसी वक्त इस प्रक्रिया को अयोग्य करार दिया था। लेकिन राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गई!!! सुप्रीम ने रोक लगाने से साफ इनकार कर दिया। बावजूद इसके सरकार ने अपनी एबीसीडी सही ठहराने के लिए नियम-11 खुद-ब-खुद संशोधन पारित कर दिया था...!!! हाईकोर्ट ने इस संशोधन को भी अयोग्य करार दे दिया था।

सीवीसी की नियुक्ति और केन्द्र को सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन एनडीए केन्द्र सरकार को इस मामले में भी फटकार लगाई थी। कोर्ट को सीवीसी की नियुक्ति में पारदर्शिता रखने के लिये निर्देश देने पड़े थे। चीफ विजिलेंस कमिश्नर और विजिलेंस कमिश्नर की नियुक्ति के लिए सार्वजनिक आवेदन मंगवाने के लिये कहा गया। कोर्ट ने नियुक्ति को आईएएस अधिकारियों तक रखने के सरकार के रवैये को फटकार लगाई और सरकार को कहा कि, संविधान के अनुसार अन्य लोग भी कमिश्नर बन सकते हैं।

आधार कार्ड... सरकार और सर्वोच्च न्यायालय
आधार कार्ड। वैसे तो यूपीए के दौर में यह योजना आई और तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इसका विरोध किया था। लेकिन भाजपा ने अपने दौर में इस योजना को आगे बढ़ाया और कई सारी चीजों में आधार कार्ड को ज़रूरी बताया। जबकि आधार कार्ड पर कुछ मसले सर्वोच्च न्यायालय में लंबित थे। आधार कार्ड की अनिवार्यता पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को फटकार लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि, यह उसकी जिम्मेदारी है कि कोर्ट के आदेश का पालन हो। साथ ही कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश दिए कि, आधार कार्ड की वजह से किसी को सरकारी योजना से वंचित न किया जाए। कोर्ट ने यह बात एक याचिका पर सुनवाई के दौरान कही थी। बाद में आधार का मसला कई सारी गलियों से गुजरा था, जिसके ऊपर एक अलग संस्करण लिखा जा सकता है।

दिल्ली में सरकार के गठन पर देरी... केन्द्र विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट
दिल्ली में सरकार के गठन में हो रही देरी पर भी सुप्रीम कोर्ट अपनी नाराजगी जता चुका है। सामने केन्द्र ये दलील दे चुका है कि ये मामला कोर्ट के अधीन नहीं आता। बदले में कोर्ट ने सरकार को कहा था कि, हमें संविधान का ज्ञान देने के व्यर्थ प्रयत्न ना करे। दिल्ली में सरकार गठन में हो रही देरी पर उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार और उपराज्यपाल को कड़ी फटकार लगाई थी। उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली में सरकार के मामले पर हुई सुनवाई पर केन्द्र सरकार और उपराज्यपाल से कई तीख़े सवाल किए। न्यायालय ने दोनों से पूछा कि सरकार बनाने में अपना रुख स्पष्ट करने में इतना समय कैसे लगा। न्यायालय ने सरकार से यह भी पूछा कि दिल्ली में सरकार का गठन कैसे होगा। न्यायालय ने सवाल किया कि, सरकार के गठन में पांच माह का समय क्यों लगा। जनता को चुनी हुई सरकार के शासन में रहने का हक है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति शासन हमेशा जारी नहीं रह सकता। कोर्ट ने पूछा कि प्रशासन इस दिशा में तेजी से काम करने में क्यों विफल रहा। पीठ ने सवाल किया कि केंद्र क्यों मामले की सुनवाई के एक दिन पहले ही हमेशा अलग अलग बयान के साथ आता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि मामले की सुनवाई के लिए सामने आने से ठीक पहले आप एक बयान देते हैं। इस पर पहले क्यों निर्णय नहीं किया जाता। आप इस तरह से कितने समय चलेंगे। पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल को इस बारे में जल्द से जल्द फैसला करना चाहिए था।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि, हम अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकते और हम मामले की सुनवाई इसके गुणों के आधार पर करेंगे। लोकतांत्रिक राजनीति में लोगों को सरकार का अधिकार होता है, राज्यपाल के तहत शासित होने का नहीं। पीठ ने कहा कि, ऐसे विषयों में समय लगता है और इसलिए कई बार मामले की सुनवाई स्थगित की गई, ताकि उपराज्यपाल को निर्णय करने में सहूलियत हो। लेकिन कुछ भी नहीं किया गया। पीठ के समक्ष पेश किये गए राष्ट्रपति के पत्र का जिक्र करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि यह पहल काफी पहले होनी चाहिए थी।

सूखे पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों और केंद्र को लगाई थी फटकार
सन 2016 में भारत के कई राज्यों में सूखे को लेकर राज्य तथा केंद्र सरकार के ढिले रवैये को सुप्रीम ने आडे हाथों लिया। अदालत ने सूखे की स्थिति पर एक शपथ पत्र के बजाय एक टिप्पणी प्रस्तुत करने को लेकर गुजरात को आड़े हाथों लिया। कोर्ट ने कहा, आपने हलफनामा दाखिल क्यों नहीं किया? चीजों को इतना हल्के में न लें। सिर्फ इसलिए कि आप गुजरात है, इसका मतलब यह नहीं कि आप कुछ भी करेंगे।

न्यायालय ने केंद्र को भी निर्देश दिए थे। कोर्ट ने कहा कि यह केंद्र की जिम्मेदारी है कि वह (सूखा प्रभावित) राज्यों को सूचित करे और चेतावनी दे कि वहां कम बारिश होगी। जज ने कहा, अगर आपको बताया जाता है कि किसी राज्य के एक खास एऱिया में फसल का 96 फीसदी हिस्सा उगाया जाता है लेकिन आपको यह सूचना मिले कि वहां कम बारिश होगी, तो उन्हें यह मत कहिए सब ठीक है। बल्कि इन राज्यों को बताइए कि वहां सूखा पड़ने की संभावना है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि, सूखा मामले में ब्यौरा पेश करें। कितने राज्यों ने कितने जिले, तहसील और गांव में सूखा घोषित किया है इसका ब्यौरा दिया जाए। कितने लोग सूखा प्रभावित हैं यह बताया जाए। 10 राज्यों ने जो सूखा घोषित किया है वह कब-कब किया, यह बताया जाए।

महाराष्ट्र में आईपीएल और पानी को लेकर भी बोम्बे हाईकोर्ट ने सरकार को आडे हाथों लिया। आईपीएल को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट बीसीसीआई से पूछा कि क्या वो पुणे में होने वाले आईपीएल मैच को कहीं और शिफ्ट कर सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि, क्‍या यह मामला आपको मजाक लगता है? पिछली बार जो कोर्ट की ओर से राज्‍य में हुई बरसात का क्षेत्रवार ब्‍यौरा मांगा गया था, वो कहां है? यह कोई शो नहीं चल रहा है। क्‍या सूखा जैसी समस्‍या को लेकर सरकार की यही गंभीरता है? पहले आपने 2013-14 का आंकड़ा दिया। अब आप 2014-15 का दे रहे है। क्‍या हम बार-बार आपके द्वारा दिए गए आंकड़ों की ही जांच करते रहें? यह कोई मजाक नहीं है। हम आपका हलफनामा स्‍वीकार नहीं करेंगे।

दिल्ली हाईकोर्ट ने महिला सुरक्षा को लेकर केंद्र सरकार को लगाई फटकार
महिला सुरक्षा को लेकर केंद्र सरकार के ढुलमुल रवैये को लेकर हाईकोर्ट केंद्र को फटकार लगा चुका है। हाईकोर्ट ने कहा था कि, महिलाओं की सुरक्षा को लेकर न पिछली केंद्र सरकार गंभीर थी, न ही यह सरकार गंभीर है। कोर्ट ने कहा कि, न तो केंद्र दिल्ली में सीसीटीवी लगवाने की रकम खर्च करना चाहता है और न ही उसकी रुचि पुलिस की नई भर्ती करने में है। दिल्ली में ही सभी नेताओं के बैठने के बाद भी केंद्र सरकार दिल्ली के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है। दिल्ली के लोगों और महिलाओं की सुरक्षा की केंद्र सरकार को फ़िक्र नहीं है। कोर्ट ने कहा कि 7 बजे के बाद अकेली महिला दिल्ली में सुरक्षित नहीं है। गृह मंत्रालय दिल्ली पुलिस में 14 हज़ार और भर्तियों की मंजूरी दे चुकी है लेकिन एक्सपेंडिचर डिपार्टमेंट ने यह कहकर अडंगा लगा दिया है कि सरकार के पास इतना पैसा खर्च करने के लिए नहीं है। कोर्ट ने कहा कि, ऐसा कैसे हो सकता है कि दूसरा विभाग गृह मंत्रालय की मंजूरी के बाद भी भर्ती पर रोक लगा दे। कोर्ट ने दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार को महिलाओं की दिल्ली में सुरक्षा को लेकर उन आदेशों के बारे में बताने को कहा जिनका पालन अभी तक केंद्र सरकार ने नहीं किया था। निर्भया गैंगरेप के बाद महिलाओं की दिल्ली में सुरक्षा को लेकर लगाई गयी याचिका पर हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए यह कहा था। यह मामला जनवरी 2016 का था।

दिल्ली में वायु प्रदूषण पर हाईकोर्ट ने अपनाई थी सख्ती
जनवरी 2016 के दौरान वायु प्रदूषण के एक मामले पर हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार को फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि, दोनों सरकारें स्वच्छ पर्यावरण बनाने की कोशिश कर ही नहीं रही हैं। अधिकारियों की नियुक्ति हुई ही नहीं है। हाईकोर्ट ने कहा कि, अगर आप स्वच्छ पर्यावरण के लिए कदम नहीं उठाएंगे तो हम अवमानना की कार्रवाई करेंगे। इस तरीके से अगर सरकारों और अधिकारियों का एट्टीट्यूड रहा तो पूरा सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा। दिल्ली हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार से पूछा कि 21 दिसंबर को कोर्ट के आदेश के बाद प्रदूषण पर काबू पाने के लिए पड़ोसी राज्यों और संबधित एजेंसियों की बैठक बुलाई गई या नहीं? हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार के वकीलों से कहा कि, आप लोग अपने मंत्री की भी नहीं सुनते क्योंकि अप्रैल 2015 में पर्यावरण मंत्रालय ने प्रदूषण के मास्टर प्लान के लिए बैठक बुलाई थी। प्लान बनाने को कहा, लेकिन कोई प्लान बना ही नहीं। दिल्ली हाईकोर्ट ने सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड को भी फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि इन्होंने स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड से प्रदूषण से संबधित रिपोर्ट पिछले पांच साल में मांगी ही नहीं। अदालत ने दोनों पॉल्यूशन बोर्डों को प्रदूषण पर विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने को कहा। हाईकोर्ट ने एनएचएआई को आदेश दिया कि फरीदाबाद के रास्ते में जहां सड़क बनाने का काम चल रहा है वहां वह प्रदूषण पर काबू पाने के लिए कदम उठाए।

नेपाल में हुई त्रासदी का हवाला देने पर भड़क उठा था सुप्रीम कोर्ट
इस मामले में कोलकाता की एक कंपनी ने कोर्ट में दायर अर्जी में कहा था कि सोने के गहने एक्सपोर्ट करने के लिए एक्सपोर्ट क्रेडिट गारंटी कारपोरेशन ऑफ इंडिया से करार किया था। लेकिन विदेशी खरीदारों से उसके करीब 500 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं हुआ। जब कंपनी ने क्लेम मांगा तो मना कर दिया गया। कंपनी ने इसके खिलाफ नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल कमीशन में अर्जी दायर की, लेकिन 2014 में सुनवाई के बाद उसकी अर्जी खारिज कर दी गई। कमीशन ने आदेश में कहा कि वो किसी सिविल फोरम में मामला दाखिल करे, क्योंकि ये साफ नहीं है कि कंपनी इस मामले में उपभोक्ता है। इसके बाद कंपनी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और कहा कि कमीशन इस तरह मामले को खारिज नहीं कर सकता, क्योंकि कमीशन खुद ही सिविल फोरम है। इस मामले में कोर्ट ने सरकार से उसका पक्ष पूछा था।

सुनवाई में केंद्र सरकार के वकील ने कहा कि, इस मामले में कुछ वक्त चाहिए क्योंकि केबिनेट सचिव अचानक नेपाल में आए भूकंप की वजह से व्यस्त हो गए है। इस वजह से वो जवाब तैयार नहीं कर पाए। इस दौरान जस्टिस एआर दवे की अगुवाई वाली बेंच ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि, सरकार कैसे बार-बार कोर्ट से सुनवाई टालने के लिए कह सकती है? नेपाल में हुई त्रासदी पर के नाम पर सुनवाई टालने की मांग को कैसे सही ठहराया जा सकता है? सरकार क्या ये नहीं जानती कि अदालती कामकाज भी ज़रूरी हैं। सरकार किसी दूसरे काम का हवाला देकर कोर्ट कार्रवाई को लंबित नहीं रख सकती। क्या सरकार इस मसले को सुलझाना नहीं चाहती?” कोर्ट ने कहा कि, सरकार बार-बार मामले को टाल रही है। सरकार को अदालती कामकाज के बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि ये भी ज़रूरी काम हैं और त्रासदी के नाम पर कार्रवाई को टालने की मांग कतई जायज नहीं ठहराई जा सकती।

उत्तराखंड, कांग्रेस विरुद्ध भाजपा विरुद्ध उत्तराखंड हाईकोर्ट विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट
उत्तराखंड, सन 2016 में इस राज्य में राजनीतिक माथापच्ची ने संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया था। उत्तराखंड में उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे हरीश रावत। कांग्रेस के 9 विधायक बागी हो गए और इसको लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया। राज्यपाल तथा केंद्र की सरकार ने अपनी दलीलें पेश की और राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाने की बातें आगे रखी। विवाद तब पैदा हुआ जब विश्वास मत प्राप्त करवाने से पहले ही राष्ट्रपति ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने की राज्यपाल तथा केंद्र की सलाह मान ली और दस्तखत कर दिए। सत्तादल और विपक्ष दोनों की तरफ से अपनी अपनी दलीलें दी जाने लगी।

आखिरकार यह मामला उत्तराखंड हाईकोर्ट पहुंचा। उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला इस मामले में ऐतिहासिक था कि उसने केंद्र सरकार के उस केंद्रीय तर्क को ही धराशायी कर दिया, जिसके सहारे राष्ट्रपति शासन का बचाव किया जा रहा था। ये कोई राजा का फैसला नहीं है, जिसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।ये पंक्ति आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक इतिहास में ज़माने तक गूंजती रहेगी। जब भी कोई राष्ट्रपति राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रस्ताव पर दस्तख़त करना चाहेगा तब भी उसे ये पंक्ति जबरन याद आ ही जाएगी। इतना ही नहीं, राज्यपाल के पत्र का जब केन्द्र ने आधार बनाया तब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राज्यपाल को नसीहत देते हुए कहा कि, राज्यपाल को समझना चाहिए कि वह निष्पक्ष होता है। केंद्र का एजेंट नहीं होता। उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ़ और जस्टिस वीके विष्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था कि, उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले में केंद्र सरकार को निष्पक्ष होना चाहिए, लेकिन वो प्राइवेट पार्टी जैसा व्यवहार कर रही है। हम आहत हैं कि केंद्र सरकार ऐसा व्यवहार कर रही है। आप कोर्ट के साथ ऐसा खेल खेलने की कैसे सोच सकते हैं।

राष्ट्रपति शासन लगने के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक ब्लॉग लिखा था। जिसकी पहली पंक्तियों में से एक पंक्ति यह थी कि राष्ट्रपति शासन लगाने का फ़ैसला राष्ट्रपति ने अपनी राजनीतिक समझदारी और अपने सारे रखे गए दस्तावेज़ों के आधार पर लिया। यही दलील केंद्र सरकार के वकील ने हाईकोर्ट में दी। हाईकोर्ट ने कह दिया कि, लोग ग़लत फ़ैसले ले सकते हैं, चाहे वो राष्ट्रपति हों या जज... ये कोई राजा का फ़ैसला नहीं है, जिसकी न्यायिक समीक्षा ना हो सकती हो।

हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट का एक फैसला रोक दिया था और राष्ट्रपति शासन कुछ मामलों के लिए थोड़े दिन फिर से लागू कर दिया गया। चारो तरफ से घिरी बीजेपी के लिए यह एकमात्र राहत थी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वहां फिर से वो ही सरकार आई, जिसे विदा करने के बारे में विपक्ष सोच रहा था।

विश्वास मत सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में कराया। यहां तक कि जब तक कोर्ट के भीतर लिफाफा नहीं खुला नतीजे के बारे में दावे तो किये जाते रहे, मगर उनकी कोई मान्यता नहीं थी। लिफाफा खुलते ही देहरादून में कांग्रेस खेमे में उत्साह बढ़ गया। हरीश रावत के पक्ष में 33 मत पड़े और बीजेपी के पक्ष में 28। हरीश रावत को फिर से शपथ लेने की ज़रूरत नहीं थी। अदालत का आदेश आते ही केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक हुई और राष्ट्रपति शासन हटाने का फ़ैसला कर लिया गया। बीजेपी ने संवैधानिकता, नैतिकता और भ्रष्टाचार के आरोपों के दम पर राष्ट्रपति शासन को हर स्तर पर जायज़ ठहराने का प्रयास किया, लेकिन सहयोगी संघवाद का नारा देने वाली बीजेपी अदालत में अपनी बात साबित नहीं कर पाई। दो-दो बार स्टिंग ऑपरेशन का मामला सामने आया, जिसमें रावत पर पैसे से सरकार बचाने के प्रयास का आरोप भी लगा। स्टिंग ऑपरेशन से जो सवाल उठे और राष्ट्रपति शासन लगाने को लेकर जो सवाल उठ रहे थे, दोनों का कोई संबंध नहीं था। लेकिन बीजेपी स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये राष्ट्रपति शासन का बचाव करने का हरसंभव प्रयास करती रही। मशहूर वकील हरीश साल्वे ने जब स्टिंग ऑपरेशन का हवाला दिया तो उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कहा कि, अगर राष्ट्रपति भ्रष्टाचार के आरोपों के आधार पर राज्यों में अपना शासन थोपने लगेंगे तो कोई राज्य सरकार पांच मिनट से ज्यादा नहीं चल पाएगी।

1994 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एस आर बोम्मई केस में फैसला दिया था कि अतिविशिष्ट परिस्थिति में ही राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल होना चाहिए। केंद्र सरकार के राजनीतिक हित के लिए कभी नहीं होना चाहिए। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने महीने भर से कम समय में सुनवाई कर फैसला दिया। ये फैसला अपने आप में इतिहास था। वो भी पुरानी सरकार के रहते फैसला दिया था। ऐसा नहीं कि दूसरी सरकार बन गई हो या चुनाव के बाद कोई और सरकार आ गई हो और फिर फैसला आया हो। 1994 में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब बोम्बई सरकार जा चुकी थी।

उत्तराखंड राष्ट्रपति शासन मामले में न्यायालय की कड़ी टिप्पणियां... (1) लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को हटाना अराजकता का एहसास कराता है और उन आम लोगों के विश्वास को डिगाता है जो कि तपती धूप, बारिश और बर्फ के थपेड़ों का सामना करते हुए अपने मताधिकार का उपयोग करते हैं। (2) राष्ट्रपति शासन के लिए अनुच्छेद 356 'असाधारण' है और सावधानी के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए। (3) वहां ज़रूर तथ्य होंगे, उनको सत्यापित किया जाना चाहिए कि क्या वे राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के लिए संतोषजनक और प्रासंगिक है। (4) सरकार के लिए, विधायकों को अयोग्य करार दिया जाना अनुच्छेद 356 लगाने के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता था। (5) यदि कल आप राष्ट्रपति शासन हटा लेते हैं और किसी को भी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर देते हैं, तो यह न्याय का मजाक उड़ाना होगा। क्या (केंद्र) सरकार कोई प्राइवेट पार्टी है? (6) कोई भी हस्तक्षेप जो कानूनी तौर पर नहीं किया गया, वह पूरी तरह से आम आदमी के जीवन में हस्तक्षेप के रूप में देखा जाएगा। (7) भारत में संविधान से ऊपर कोई नहीं है। इस देश में संविधान को सर्वोच्च माना गया है। यह कोई राजा का आदेश नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता है। राष्ट्रपति के आदेश की भी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है...  लोगों से गलती हो सकती है, फिर चाहे वह राष्ट्रपति हों या जज। (8) विधायकों के खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद बहुमत परीक्षण का एकमात्र संवैधानिक रास्ता विधानसभा में शक्ति परीक्षण है, जिसे अब भी आपको करना है। (9) क्‍या आप लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को नाटकिय ढंग से पांचवें वर्ष में गिरा सकते हैं? राज्‍यपाल ही ऐसे मामलों में फैसले लेता है। वह केंद्र का एजेंट नहीं है। उसने ऐसे मामले में फैसला लेते हुए शक्ति प्रदर्शन के लिए कहा है।

अरुणाचल, कांग्रेस सरकार, केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट का इतिहास में सबसे सख्त फैसला
उत्तराखंड का विवाद पैदा हुआ और उस पर उत्तराखंड हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तरफ से जो फैसले दिये, अरुणाचल उससे भी पहले का संवैधानिक विवाद था। जुलाई 2016 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अरुणाचल राष्ट्रपति शासन के मामले में अपना फैसला सुनाया। माना जाता है कि यह फैसला आजाद भारत के इतिहास का सबसे सख्त फैसला था। इसे 5 जजों की एक बेंच ने सुनाया था।

अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार थी और उत्तराखंड मामले की तरह ही इसमें राष्ट्रपति शासन लगा था। जनवरी 2016 में यह मामला हुआ। लेकिन यहां फर्क यह था कि अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद नयी सरकार विश्वास मत जीत चुकी थी। अब वहां भाजपा की गठबंधन सरकार सत्ता में थी। वो 7 महीने से सत्ता भुगत रही थी और इस दौरान वो तमाम प्रकार के फैसले लेती रही थी। जुलाई 2016 में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के राष्ट्रपति शासन के बाद बनी नयी सरकार को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने उस नयी सरकार के 7 महीने के तमाम फैसलों को भी रद्द कर दिया। यह बड़ा सख्त फैसला था।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर राज्यपाल को निशाने पर लिया। कोर्ट ने राज्यपाल पर काफी सख्त टिप्पणियां की और अपने फैसले में उन तमाम बागी विधायकों की सदस्यता भी रद्द कर दी। कोर्ट ने नबाम तुकी को फिर से अरुणाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित किया और राष्ट्रपति शासन मामले को लेकर राजनीतिक गलियारों पर निशाने साधे। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के 9 दिसम्बर, 2015 के नोटिफिकेशन को भी रद्द कर दिया। कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि, अरुणाचल में 15 दिसम्बर, 2015 की स्थिति को लागू किया जाए।

यह पहली बार था जब सुप्रीम कोर्ट ने पुरानी सरकार को वापस किया हो। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, हम घड़ी की सुइयां वापस कर सकते हैं। कोर्ट ने राज्य में 15 दिसंबर 2015 वाली स्थिति बरकार रखने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, गर्वनर को विधानसभा बुलाने का अधिकार नहीं था, यह गैरकानूनी था। 15 दिसंबर 2015 के बाद से सारे एक्शन रद्द कर दिए गए। गौरतलब है कि राज्यपाल ने विधानसभा सत्र जो 14 जनवरी, 2016 के दिन आयोजित होना था, उसे 16 दिसम्बर, 2015 के दिन ही बुला लिया था। कोर्ट ने इसे धारा 163 का उल्लंघन माना। कोर्ट ने राज्यपाल के 9 दिसम्बर, 2015 के तमाम आदेश और फैसले व कदम रद्द कर दिए।

न्यायालय की कड़ी टिप्पणियां... (1) राज्यपाल को केन्द्र सरकार के एजेंट के तौर पर काम करना नहीं होता, राज्यपाल को संविधान के तहत काम करना चाहिए। (2) राज्य सरकारों को ठिकाने लगाने के लिए अरुणाचल जैसे प्रयोग घातक सिद्ध हो सकते है और कोर्ट को अधिकार है कि वो समय को पीछे ले जाए। (3) विधानसभा का सत्र 14 जनवरी की जगह 16 दिसम्बर बुलाने पर कौन सा फर्क पड़ने वाला था? इसका मतलब तो यही होता है कि जब राज्यपाल बोर हो जाने लगे तब एक्साइटमेंट के लिए विधानसभा सत्र बुला लेंगे। (4) लोकशाही की हत्या हो रही हो तब कोर्ट खामोश नहीं बैठ सकता। (5) आप संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल तभी कर सकते हैं जब वे संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित हो। ये संवैधानिक सिद्धांत क्या है? विधानसभा सत्र को जल्दी खत्म किया जाना क्या आप के अधिकार क्षेत्र के नीचे आता है?

राष्ट्रपति शासन और सुप्रीम कोर्ट
भारत में राष्ट्रपति शासन लगाने के विषय पर आजादी काल से विवाद होते आए हैं। हमारे यहां 100 से ज्यादा बार किसी न किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लग चुका है। धारा 356 का दुरुपयोग तमाम सरकारों ने किया है। धारा 356 के अनुसार किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाए तब राष्ट्रपति शासन लग सकता है। संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाना किसे माना जाए इसकी व्याख्या धारा 365 में की गई है। लेकिन इन धाराओं का सभी ने दुरुपयोग किया है। कोई भी इस मामले पर पाक साफ नहीं है। शुरुआती दौर में जब इसे लेकर विवाद होते रहे, तब न्यायालय खुद को इन वाक़यों से दुर रखता था। न्यायालय का कहना था कि ऐसे मामले राजनीतिक है, लिहाजा वो इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। लेकिन वक्त गुजरते जब कोर्ट ने देखा कि हस्तक्षेप की आवश्यकता आन पड़ी है, तब ऐसे मामलों में कोर्ट अपनी राय देने लगा। कोर्ट ने उस वक्त कहा कि धारा 356 को लेकर अपनी मनमानी कार्यशैली अपनाई गई है ऐसा पाया गया तो निश्चित रूप से हम इस पर अपनी राय देंगे।

फिर वो दौर आया जब कोर्ट को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। साल था 1994। केस था एस आर बोम्मई केस। उस वक्त कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एस आर बोम्मई केस में फैसला दिया कि अतिविशिष्ट परिस्थिति में ही राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल होना चाहिए। केंद्र सरकार के राजनीतिक हित के लिए कभी नहीं होना चाहिए। इस केस में कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि, चूंकि नयी सरकार स्थापित हो चुकी है, हम उसे ही बहाल कर रहे हैं जो सरकार फिलहाल सत्ता में है। लेकिन हम भविष्य में नयी सरकारों को रद्द कर देने के फैसले तक जा सकते हैं, यदि दुरुपयोग बंद नहीं किया गया। कोर्ट ने उस वक्त सख्त लहजे में कहा था कि, यदि ज़रूरत पड़ी तो हम घड़ी के कांटे को पीछे घुमाने से भी परहेज नहीं करेंगे। कोई भी दल नहीं सुधरा और आखिरकार 2016 के दौरान उत्तराखंड और अरुणाचल मामलों पर सुप्रीम कोर्ट को सख्त लहजा अपनाना पडा। उत्तराखंड मामले पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी रही थी कि राष्ट्रपति कोई राजा नहीं है कि उसके फैसले की समीक्षा न की जाए। जबकि अरुणाचल मामले पर तो सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में जो कहा था वही कर दिखाया और घड़ी की सुई को पीछे घुमा दिया था।

(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 24 जुलाई 2016, एम वाला)