लाल
आंख करके रास्ता दिखाने वाली यह घटनाएं समूचे भारत से संबंधित है। इसे आप जिस तरह
से पढ़ना या समझना चाहते हैं, पढ़ या समझ सकते हैं। न्यायतंत्र, राजनीति, कानून, नीतियां, नियम, संविधान, सख्ती, कमजोरी,
लापरवाही, मामलों की एकरूपता या फिर मामलों की भिन्नता के साथ साथ राजनीतिक और नागरिकी नजरिये
की एकरूपता या भिन्नता... जिस तरह से इसे पढ़े या समझे।
काले धन पर भी सुप्रीम कोर्ट को ही लेने पड़े संज्ञान और सरकारों को देने पड़े सख्त निर्देश
काला धन। एक ऐसा विषय जिसे लेकर
राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटियां सेंकती आयी है। मुमकिन है कि किसी राजनीतिक दल या
नेता ने अपनी राजनीति के कारण यह विषय उठाया हो। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस
विषय पर संज्ञान लिये और मनमोहन सिंह शासित तत्कालीन यूपीए सरकार को इस विषय पर ठोस कदम उठाने के
निर्देश दिए। तत्कालीन सरकार की इस विषय पर मंथर गति से नाराज होकर अंत में
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को काले धन पर विशेष समिति गठन करने का आदेश दिया। उस
दौरान सरकार बदल गई और मोदी शासित एनडीए सरकार सत्ता में आई। सुप्रीम कोर्ट का आदेश किसी विशेष सरकार को नहीं था, लिहाजा
नयी सरकार को आनन-फानन में इस समिति गठन की समयसीमा समाप्त होने से पहले कदम उठाने
पड़े। लेकिन पिछली सरकार की तरह यह सरकार भी सारे मामले को एक या दूसरे तरीके से
टालती रही या कम गंभीर तौर तरीके से लेती रही।
सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन एनडीए सरकार को आदेश
दिये कि काला धन वालों के नाम सरकार देश के सामने रख दे। हालांकि इस पर सरकार ने
स्विस संधि और अन्य कुछ मामलों को आगे रखा। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने सरकार
को फटकार लगाते हुए कहा कि, “विदेश में जिनके
काले धन है उनके नाम ना बताना कानून का उल्लंघन है।” कोर्ट ने
सरकार को आदेश दिया कि, “संधि का भंग हो या ना हो किंतु नाम की
सूची जाहिर करना सरकार की जिम्मेदारी है।” सुप्रीम कोर्ट
की टिप्पणी कुछ इस प्रकार थी, “सरकार काले धन पर किसी का नाम नहीं छुपा सकती, चाहे आंतरराष्ट्रीय संधि का भंग
हो। भारत का संविधान इस सूची को जाहिर होने की इजाज़त ज़रूर देता है। सरकार इस मसले
पर खामखा चिंताएं मत करे, ये मामला सुप्रीम कोर्ट के अधीन है और इसके ऊपर आगे सारे
फैसले भी कोर्ट ही करेगी।” सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र को अल्टीमेटम दिया था और कहा था कि, “काले धन के मुद्दे को सिर्फ और सिर्फ
सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, नामों का खुलासा करने का आदेश हम बदल नहीं सकते,
आप हमें नामों की सूची तुरंत दीजिए। और हमें कानून या संविधान का ज्ञान देने के
प्रयत्न ना करे।”
सरकार ने लोगों
की प्राइवेसी यानी निजता का हवाला दिया, विदेशों से हुई
संधियों का हवाला दिया,
लेकिन कोर्ट ने दो टूंक कह दिया कि, “सरकार को विदेशों में काला धन रखने वालों
की ढाल बनने की ज़रूरत नहीं है।” सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यहां तक कहा था, “आपको कुछ भी नहीं
करना है। सिर्फ खाताधारकों की सूचना हमें दीजिए और हम आगे जांच के लिए आदेश देंगे।
हम काला धन वापस लाने का मसला सरकार पर नहीं छोड़ सकते हैं। यह हमारे जीवन काल के दौरान
नहीं होगा।”
केंद्र ने बाद
में सर्वोच्च न्यायालय से अपने फैसले में संशोधन करने का अनुरोध भी किया। विदेशी बैंकों
में काला धन जमा करने वाले खाताधारकों के नामों के खुलासे से संबंधित न्यायिक आदेश
में संशोधन का अनुरोध करने के लिए सरकार को आड़े हाथ लिया। कोर्ट ने केंद्र से कहा, “हम अपने आदेश में एक शब्द भी नहीं बदलेंगे।” ये फटकार उन छुपे हुए तथ्यों के प्रति इशारा करते है जिससे कुछ काले निशान
हमेशा रह जाएंगे।
बीसीसीआई के
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार की लोढ़ा समिति की सिफारिशें
18 जुलाई 2016 के दिन सुपीम
कोर्ट ने बीसीसीआई पर सबसे अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने बीसीसीआई में फैरबदल करने
के लिए जस्टिस आरएम लोढ़ा की सिफारशों को मंजुरी दे दी। कोर्ट ने आदेश दिया कि, “बीसीसीआई
को लोढ़ा कमेटी की ज्यादातर सिफारशों को मानना ही पड़ेगा।” कोर्ट
के इस फैसले से स्पष्ट हो गया कि अब बोर्ड में कोई भी मंत्री पद प्राप्त नहीं कर
सकेगा। हालांकि राजनेताओं पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया। इसके अलावा किसी भी पदाधिकारी
की उम्र 70 साल से ज्यादा नहीं होगी। एक राज्य एक मत तथा एक व्यक्ति एक पद का नियम
भी लागू कर दिया गया। खिलाड़ियों का खुद का एसोसिएशन बनाना, बोर्ड में कैग का एक
प्रतिनिधि नियुक्त करना जैसी कई सिफारिशें लागू कर दी गई। हालांकि बोर्ड को आरटीआई
के दायरे में लाने के विषय को तथा सट्टाखोरी की वैधता के विषय पर कोर्ट ने कहा कि
ये मामले संसद तय करे। लोढ़ा समिति की इन सिफारशों को लागू करने के लिए सर्वोच्च
न्यायालय ने बोर्ड को 6 महीने का वक्त दिया।
हालांकि इस बीच बीसीसीआई ने
पूर्व चीफ जस्टीस मार्कंडेय कात्जू का सहारा लिया और उन्हें कुछ अवलोकन करके आगे
क्या किया जाए उसका एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। कात्जू ने रिपोर्ट तो तैयार कर
दी, लेकिन रिपोर्ट पर एक प्रेसवार्ता भी आयोजित कर दी। इस वार्ता में कात्जू ने
लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर अपनी राय रखी और साथ
में फैसला देने वाले जजों पर भी टिप्पणियां कर दी। शायद बीसीसीआई वक्त गुजारना
चाहता था या उसकी मंशा कुछ और थी। हालांकि कुछ दिन बाद बीसीसीआई को सख्ती से कहा
गया कि, “सिफारिशें जो समयसीमा दी गई है उसी दौरान लागू होनी
चाहिए, अन्यथा इसे सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।”
उसके बाद कई सारे विवादित दौर
आते रहे। जैसे कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें मानने पर लीपापौती कर रही बीसीसीआई को
कोर्ट ने चेतावनी दी। बाद में लोढ़ा समिति की पेनल ने बीसीसीआई के भुगतान रोकने के
लिए बैंकों को निर्देश दिए। कोर्ट ने बीसीसीआई के हलफ़नामे को नामंजूर किया तथा
राज्यों के फंड आवंटन पर रोक लगाई। ये सब चीजें बीसीसीआई के ढुलमुल रवैये के चलते
एक के बाद एक होती रही। उसके बाद सुप्रीम ने बीसीसीआई की अपील खारिज की और कहा कि,
“लोढ़ा समिति की सिफारिशें बीसीसीआई को माननी ही होगी।”
ढुलमुल रवैया लेकर चल रही बीसीसीआई पर सुप्रीम कोर्ट का पहला सख्त कदम भी आया तथा
तत्कालीन बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर को झूठे हलफ़नामे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने
जेल भेजने की चेतावनी भी दी। उसके बाद भी ये मामला अलग अलग गलियों से गुजरता रहा।
इन सब उतार चढ़ाव के चलते ये लंबी प्रक्रिया और लंबा मामला बना।
कलकत्ता
हाईकोर्ट का नाम बदलने से जजों ने कर दिया इनकार
जुलाई 2016 के दौरान देश के कुछ
हाईकोर्ट के नाम केन्द्र दारा बदले गए थे। जैसे कि बोम्बे हाईकोर्ट का नया नाम
मुंबई हाईकोर्ट रखना। ठीक वैसे ही कलकत्ता हाईकोर्ट का नाम कोलकात्ता हाईकोर्ट कर
दिया गया। लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट के जजों ने केंद्र के इस प्रस्ताव को मानने से
इनकार ही कर दिया। यह प्रस्ताव केंद्रीय कानून मंत्रालय की ओर से था। 11 जुलाई,
2016 के दौरान कलकत्ता हाईकोर्ट में समस्त जजों की एक बैठक हुई। उस बैठक के पश्चात
केन्द्रीय मंत्रालय के प्रस्ताव को रद्द किये जाने पर सहमती बनी। कुछ अन्य
हाईकोर्ट के नाम भी बदले गए थे, लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट एकमात्र हाईकोर्ट था
जिसने केंद्रीय मंत्रालय के प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया।
सुप्रीम ने कहा
- सरकार को भ्रष्ट कहने वालों पर मानहानि का केस नहीं चलाया जा सकता
सुप्रीम कोर्ट ने 28 जुलाई, 2016
के दिन मानहानि के मामलों को लेकर सख्त टिप्पणी की। सर्वोच्च न्यायालय न कहा कि, “सरकार
की आलोचना करने वालों के खिलाफ ऐसे मामलों को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल
नहीं किया जाना चाहिए।” इसके साथ ही कोर्ट ने इस मामले में
डीएमडीके चीफ विजयकांत और उनकी पत्नी प्रेमलता के खिलाफ जारी गैरजमानती वारंट पर
रोक लगा दी। गौरतलब है कि जयललिता सरकार की ओर से इन दोनों पर मानहानि के मामले को
लेकर सर्वोच्च न्यायालय अपना फैसला सुना रहा था। जस्टिस दीपक मिश्रा और आरएफ नरीमन
की बेंच ने कहा, “सरकार को करप्ट
या अनफिट कहने वाले किसी भी शख्स पर मानहानि का केस नहीं चलाया जा सकता।” सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को यह
नसीहत भी दी कि, “आलोचना को
सहनशीलता से लिया जाना चाहिए। सरकार और ब्यूरोक्रेट्स की आलोचना करने पर केस होने
से डर पैदा होता है।” कोर्ट ने इसके साथ ही तमिलनाडु की सीएम
जयललिता की ओर से पब्लिक प्रॉसिक्यूटर द्वारा दो हफ्ते में दाखिल मानहानि के
मामलों की लिस्ट भी तलब की।
तिरुपुर डिस्ट्रिक्ट की ट्रायल
कोर्ट ने 27 जुलाई को विजयकांत और उनकी पत्नी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया
था। इन पर जयललिता का मानहानि करने का आरोप
था। अदालत में पेश नहीं होने पर इनके खिलाफ ये वारंट इश्यू किया गया था। राज्य सरकार ने यह मुकदमा 6 नवंबर 2015
को दायर किया था। फैसला सुनाते समय सर्वोच्च न्यायालय ने अदालतों को भी हिदायत दी।
बेंच ने कहा कि, “आईपीसी की धारा
499 और 500 का इस्तेमाल विरोध को दबाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि लोकशाही की पहचान ही आलोचना, असहमति और सहनशीलता के विचार से होती
है। इसके जरिए लोगों की इच्छा, महत्वाकांक्षा
और कई बार निराशा झलकती है।” सुप्रीम
कोर्ट ने इसके साथ ही अदालतों को यह भी निर्देश दिया कि वे ऐसे मामलों में दखल न
दें, जहां कई
मानहानि के केस दर्ज कर किसी को परेशान करने की कोशिश की जा रही है। बेंच ने तमिलनाडु सरकार को भी यह निर्देश
दिया कि वह मानहानि के प्रावधानों का गलत इस्तेमाल न करे।
गुजरात
हाईकोर्ट ने म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन से पूछा- टैक्स लेते हो और बदले में पानी क्यों
नहीं देते?
ये वाक़या जुलाई 2016 का था।
अहमदाबाद के कई इलाकों में पीने के पानी की कमी के चलते हाईकोर्ट में याचिका दायर की
गई थी। याचिका में कहा गया था कि कॉर्पोरेशन पानी का टैक्स वसूलता है, लेकिन पीने
का पानी मुहैया नहीं करवाता, इस लिहाज से लोगों की प्राथमिक सहूलियतों के अधिकार का
भंग हो रहा है। याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई थी कि यदि तंत्र उन्हें पानी
मुहैया करवाने में असमर्थ है तो उन्हें टैक्स की वसूली बंद कर देनी चाहिए।
इस मामले को लेकर गुजरात
हाईकोर्ट ने म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के प्रति नाराजगी जताई। हाईकोर्ट ने कॉर्पोरेशन को सीधा और तीख़ा सवाल पूछा कि, “टैक्स
वसूल करते हो और बदले में पानी क्यों नहीं दिया जाता?” हाईकोर्ट
ने कहा कि, “हम हुक्म दे चुके हैं और कॉर्पोरेशन को पानी या बिजली
जैसी प्राथमिक सहूलियतें पहुंचाने का फ़र्ज निभाना चाहिए था।” कोर्ट
ने कॉर्पोरेशन को आदेश दिया कि वे एक सप्ताह के भीतर हाईकोर्ट के सामने अपना जवाब
पैश करे।
पूर्व
मुख्यमंत्रियों को बंगले खाली करने का आदेश
ये घटना उत्तरप्रदेश राज्य की
है। अगस्त 2016 के प्रथम सप्ताह में ही सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरप्रदेश के 6 पूर्व
मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले खाली करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं, जिन नियमों के
तहत इन्हें आवास मुहैया करवाए गए थे उन नियमों को भी कोर्ट ने गैरकानूनी करार दे
दिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “कभी मुख्यमंत्री होने की वजह से ही किसी
को सारी जिंदगी के लिए आवास दिया नहीं जा सकता।” नारायण दत्त
तिवारी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह और राम नरेश यादव इन छह
पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास खाली करने के आदेश दिये गए। राम नरेश यादव केवल 1 साल
और 249 दिन तक मुख्यमंत्री रहे थे, किंतु 1979 से उन्होंने आवास पर कब्जा जमाकर रखा
हुआ था।
जब गुजरात
हाईकोर्ट ने 10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण का सरकारी अध्यादेश रद्द कर दिया
गुजरात हाईकोर्ट ने 4 अगस्त 2016
के दिन यह फैसला दिया था। दरअसल इसी साल गुजरात में आरक्षण को लेकर पटेल समुदाय ने
आंदोलन चलाया था। गुजरात में पटेल समुदाय भाजपा का एक मुख्य वोटबैंक माना जाता है।
लेकिन उस समुदाय को आरक्षण में सीधा शामिल कर लेना मुमकिन नहीं था। आंदोलन में गुजरात जल उठा और तत्कालीन भाजपा सरकार का वोटबैंक उनके ही खिलाफ होने लगा था। आनन-फानन
में तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने पटेल समुदाय को 10 प्रतिशत आर्थिक
आधारित आरक्षण का अध्यादेश जारी किया।
लेकिन 4 अगस्त के दिन गुजरात
हाईकोर्ट ने सरकार के इस अध्यादेश को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने कहा कि, “सरकारी
नौकरियां तथा शैक्षणिक संस्थानों में आर्थिक रूप से कमजोर तबके को 10 प्रतिशत जगह दे
देना वर्गीकरण नहीं माना जा सकता, बल्कि यह आरक्षण है।” साफ
है कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की बैठकों की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की हुई है।
हाईकोर्ट ने कहा कि, “सर्वोच्च न्यायालय ने रेशियो तय किया
हुआ है, जो सभी पर लागू होता है, आरक्षण के लिए आर्थिक पैमाना स्वीकृत नहीं हो
सकता।” हाईकोर्ट ने सरकार को कहा कि, “वैज्ञानिक
संशोधन तथा तकनीकी वजहों को दरकिनार करके किसी उच्चस्तरीय कमिटी के अवलोकनों को आधार
बनाकर कानून बनाने की चेष्टा गैरसंवैधानिक है।” कोर्ट ने साफ
लफ्जों में कहा कि, “संविधान में आरक्षण के विषय पर कोई
संशोधन नहीं हुआ है, लिहाजा सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा जो पैमाने दिये गए हैं उसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए।”
राजस्थान
हाईकोर्ट ने 5 प्रतिशत एसबीसी आरक्षण को रद्द किया
9 दिसम्बर 2016 के दिन राजस्थान
हाईकोर्ट ने राजस्थान के गुर्जर तथा अन्य पांच समुदायों के लिए राज्य सरकार द्वारा
दी गई एसबीसी (स्पेशल बैकवर्ड क्लास) आरक्षण नीति को रद्द कर दिया। जस्टिस एमएन
भंडारी तथा जेके राका की बेंच ने एक अर्जी की सुनवाई करते हुए राज्य सरकार की इस
आरक्षण नीति को रद्द किया। राज्य सरकार ने 28 नवम्बर, 2012 के दिन एसबीसी आरक्षण
का फैसला लिया था। इसके तहत ओबीसी के 21 प्रतिशत अनामत को छूए बगैर एसबीसी समुदाय
को 5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। इसके चलते राज्य में नोकरी तथा शिक्षा में आरक्षण
54 फीसदी तक जा पहुंचा।
गौरलतब है कि सन 2008 में भी
एसबीसी समुदाय को 5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, जिसे 2009 में हाईकोर्ट ने रद्द कर
दिया था। इस मामले में भी हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि 50 प्रतिशत से
ज्यादा आरक्षण अनामत नहीं दिया जा सकता।
दिल्ली की अरविंद
केजरीवाल सरकार विरुद्ध केन्द्र सरकार
दिल्ली में उस वक्त अरविंद
केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सत्ता में थी। जबकि केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई
में एनडीए सत्ता में थी। दिल्ली के उपराज्यपाल थे नजीब जंग। तीनों अलग अलग राजनीतिक
पार्टी से थे तथा सार्वजनिक जीवन में एक दूसरे के वैचारिक विरोधी दल थे। दिल्ली में वैसे भी केंद्र विरुद्ध दिल्ली सरकार की जंग पुरानी है तथा पूर्व सरकारों के दौरान
भी यह मामला उठता रहा है। एक दौर में दिल्ली के एक मुख्यमंत्री ने यहां तक कह दिया था
कि मुझे लगता है कि मैं दिल्ली का मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि किसी नगरनिगम का प्रमुख
हूं। दिल्ली केन्द्रशासित प्रदेश है, लिहाजा कई मामलों में संवैधानिक समस्याएं आती
रही है। केजरीवाल के दौर में ये तकरार इतनी बढ़ी की आये दिन, या यूं कहे कि हर दिन
कोई न कोई खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती रही। ये तकरार राजनीतिक वजहों से थी, किंतु
संविधान की आड़ में इसे दोनों सरकारें खेल रही थी।
दिल्ली हाईकोर्ट में दिल्ली और उप
राज्यपाल के बीच अधिकारों की स्पष्टता को लेकर भी याचिकाएं डाली गई। एक दफा
हाईकोर्ट ने खुद केजरीवाल सरकार को लताड़ दिया और कहा कि, “ऐसे
छोटे छोटे मसले लेकर आये दिन कोर्ट का वक्त बर्बाद न करे, ये चीजें हमारा विषय नहीं है।” केन्द्र के साथ दिल्ली की ये जंग, जो कानूनी व संवैधानिक
कम, किंतु राजनीतिक ज्यादा थी, उस पर सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार की ओर से
याचिका दायर की गई। इस याचिका में आम आदमी पार्टी की ओर से सुप्रीम कोर्ट को कहा गया
कि वे सत्ता व अधिकारों की स्पष्टता करे। किंतु आम आदमी पार्टी की ये याचिका सुप्रीम
कोर्ट ने खारिज कर दी। उन्हें नसीहत दी गई कि इस मामले पर दिल्ली हाईकोर्ट फेसला
देगी, क्योंकि उन्होंने इसी विषय पर अपना फैसला आरक्षित रखा है, लिहाजा हाईकोर्ट का
अधिकार क्षेत्र तथा स्वतंत्रता बाधित नहीं की जा सकती।
उसके सामने आम आदमी पार्टी व
दिल्ली सरकार की दलील दी थी कि संविधान के अनुसार केन्द्र तथा राज्य के बीच विवाद
उत्पन्न होता है, तब ऐसे मामलों में विवाद का हल करना हाईकोर्ट का नहीं बल्कि सुप्रीम
कोर्ट का अधिकार क्षेत्र है।
दिल्ली हाईकोर्ट ने केजरीवाल सरकार को दिया झटका, कहा- एलजी ही है बोस
उपरोक्त विषय के संदर्भ में आखिरकार 4 अगस्त, 2016 के दिन दिल्ली हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। विषय था,
दिल्ली में सर्वसत्ताधीश कौन है। दिल्ली सरकार या फिर दिल्ली के उपराज्यपाल। कोर्ट
ने अपने फैसले में कहा कि, “उपराज्यपाल (एलजी) ही दिल्ली के शासकिय
मुखिया है।” कोर्ट ने कहा कि, “एलजी दिल्ली सरकार की सलाह या निर्देश मानने के लिए बाध्य नहीं है।” कोर्ट
के अनुसार दिल्ली सरकार को तमाम फैसले एलजी को भरोसे में ही लेकर करने होंगे। सरकार
के हर फैसलों में एलजी की इजाज़त होना अनिवार्य है। दिल्ली सरकार का आग्रह था कि
शासकिय सत्ता दिल्ली सरकार के पास रहनी चाहिए। लेकिन कोर्ट ने यह मांग भी खारिज कर
दी। कोर्ट ने कहा कि, “एलजी की मंजूरी के बगैर दिल्ली सरकार
कोई भी कानून पारित नहीं कर सकती।” दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले के साथ
दिल्ली सरकार द्वारा लिये गये फैसले भी समाप्त हो गए। सीएनजी फिटनेस घोटाले की
जांच समिति, डीडीसीए घोटाला जांच समिति, स्टाम्प ड्यूटी के मामलें आदि कई फैसले इसके
चलते अवैध घोषित हो गए।
जजों की कमी और
नियुक्ति में ढिलाई पर चीफ जस्टिस और प्रधानमंत्री के बीच सार्वजनिक संवाद
अप्रैल 2016 में एक विज्ञान
संमेलन के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा तत्कालीन चीफ जस्टिस
टीएस ठाकुर ने भाषण दिए। अंतिम भाषण प्रधानमंत्री ने दिया था। इससे पहले चीफ
जस्टिस प्रवचन दे चुके थे। अपने प्रवचन में चीफ जस्टिस ने भारत के कोर्टों में केसों की तादाद, पेंडिंग केसों की तादाद और जजों की कमी को लेकर अपनी राय रखी। उन्होंने
इसे गंभीर मसला बताया। इसी संमेलन का समापन प्रधानमंत्री के भाषण के साथ हुआ। अपने
भाषण में प्रधानमंत्री ने चीफ जस्टिस के भाषण का जिक्र किया। उन्होंने उस भाषण से अपनी
सहमती जताई और भरोसा दिलाया कि उनकी सरकार इस मसले पर तत्काल कदम उठाएगी।
प्रधानमंत्री ने कहा था कि, “मैं ऐसा नहीं हूं कि बोल कर चला जाऊंगा।
हम इस पर गंभीरता से काम करेंगे ये भरोसा मैं दिलाता हूं।”
जजों की
नियुक्ति पर देरी को लेकर सख्त हुआ सुप्रीम कोर्ट
2016 के दौरान, केंद्र सरकार
द्वारा देश की अलग अलग कोर्टों में जजों की नियुक्ति पर हो रही देरी को लेकर सुप्रीम
कोर्ट ने सख्ती अपनायी थी। 12 अगस्त, 2016 के दिन केंद्र के प्रति अपनी नाराजगी को
स्पष्ट करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा कि, “जजों की
नियुक्ति में इतना अक्षम्य विलंब क्यों हो रहा है?” कोर्ट
ने सरकार से कहा कि, “इस विषय के लिए हम पर ऑर्डर पास करने
का दबाव ना बनाए। केन्द्र सरकार फाइलों को रोक कर नहीं बैठ सकती।” चीफ
जस्टिस टीएस ठाकुर ने अटॉर्नी जनरल से कहा कि, “जजों की
नियुक्ति की फाइलें कहा पर और किस सत्ता के पास रुकी है उसका उत्तर चार सप्ताह में दे।” गौरतलब है कि जजों की नियुक्ति के मामले पर सुप्रीम कोर्ट
और तत्कालीन मोदी सरकार के बीच पहले से ही मतभेद थे। सरकार चाहती थी कि जजों की
नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार की भागीदारी ज्यादा हो और वर्तमान कॉलेजियम सिस्टम
रद्द हो। वहीं सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम को रद्द करने के सरकारी अध्यादेश को ही
गैरसंवैधानिक करार दे चुका था। इस मसले पर न्यायालय कह चुका था कि उसकी स्वतंत्रता
को सरकार बाधित ना करे। जजों की नियुक्ति की देरी पर चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने
अटॉर्नी जनरल से सख्त लहजे में कहा कि, “फरवरी से
हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए केंद्र को 75 नामों की सूची दी गई थी। यह तमाम
फाइलें कहा है वो हमें बताए। कोर्ट को बंद करना पड़े ऐसी स्थिति सरकार पैदा ना करे।”
जजों की
नियुक्ति पर ज्यादा विलंब के बाद सुप्रीम ने केन्द्र पर की तल्ख़ टिप्पणी
जजों की नियुक्ति पर विलंब, विलंब
के बाद सुप्रीम का अगस्त 2016 में केन्द्र सरकार पर सख्त होना इन सब चीजों के बावजूद
केन्द्र के रवैये को लेकर अक्टूबर 2016 में सुप्रीम ने फिर एक बार केन्द्र को
लताड़ा। 28 अक्टूबर 2016 के दिन जजों की नियुक्ति को लेकर जनहित की अर्जी पर सुनवाई
करते हुए कोर्ट ने कहा कि, “सरकार जजों की नियुक्ति न करके समग्र
न्यायतंत्र को स्थगित नहीं कर सकती। एक वक्त था जब कोर्टरूम कम थे और जज ज्यादा थे।
लेकिन आज जजों की नियुक्ति न हो पाने की वजह से कोर्टरूम को ताले लगाने पड़ रहे हैं।”
सुप्रीम ने सख्त रवैया अपनाते हुए कहा कि, “जज नियुक्ति की
प्रक्रिया को फास्ट ट्रेक पर नहीं लाया जाता तो हम प्रधानमंत्री कार्यालय तथा कानून
मंत्रालय के सचिवों को समन्स जारी करेंगे।” कोर्ट ने फिर
एक बार कहा कि नाम पसंद करके सरकार को दिये गए है, लेकिन 9 महीनों से सरकार कोई
फैसला नहीं ले रही। हम सरकार को सिस्टम को बाधित करने की इजाज़त नहीं दे सकते। नए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर के इंतज़ार में सरकार जजों की नियुक्त को रोक नहीं सकती।
अटॉर्नी जनरल को लताड़ते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, “क्या
आप न्यायतंत्र को ताले लगाना चाहते हैं?”
जज नियुक्ति और
जजों की कमी को लेकर कोर्ट और सरकार के बीच तल्ख़ हुआ रिश्ता
जज नियुक्ति, न्यायालयों में जजों की कमी आदि मसलों पर सुप्रीम कोर्ट पहले ही सरकार को आग्रह कर चुका था। तत्कालीन
प्रधानमंत्री ने भरोसा भी दिलाया था। उसके बाद जो चीजें घटित हुई उसे हमने ऊपर देखा। 26 नवम्बर 2016 के दिन ओल इंडिया कॉन्फरन्स ऑफ सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल को संबोधित करते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया टीएस ठाकुर ने
अपनी बात रखी और सरकार को फिर एक बार भारपूर्वक आग्रह किया। चीफ जस्टिस ने संमेलन
में बोलते हुए कहा कि हाईकोर्टों में जजों के 500 जितने पद रिक्त पड़े हुए है। आज उन
पदों पर जजों का काम करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है। भारत में कई कोर्टरूम
है, लेकिन मामले को चलाने के लिए जजों की कमी है। उन्होंने कहा कि ट्रिब्यूनल में कर्मियों की कमी है, वहीं ढांचागत सुविधाएं नदारद है। केस सालों तक चलते रहते है। उन्होंने
कहा कि सुप्रीम कोर्ट कई प्रस्ताव सरकार को भेज चुका है, लेकिन उन पर हकारात्मक
तरीकों से आगे बढ़ा नहीं जा सका। मुझे आशा है कि इस आपातकालीन स्थिति को निपटने के
लिए सरकार हस्तक्षेप करेगी। सरकार को जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में तेजी लानी
पड़ेगी। स्थिति यह आ गई है कि कोई भी सेवानिवृत्त जज ट्रिब्यूनल
को हेड नहीं करना चाहता।
इसके सामने तत्कालीन कानून मंत्री रविशंकर
प्रसाद तथा अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने उत्तर दिए। कानून मंत्री ने तो अपने बयान
में कहा कि हम पूरे सम्मान के साथ मुख्य न्यायाधीश की दलील के साथ सहमत नहीं है। उन्होंने
माना कि 500 जितने पद रिक्त है। लेकिन साथ में यह भी कहा कि उसमें भारत सरकार की कोई
भूमिका नहीं होती। अटॉर्नी जनरल ने तो यहां तक कह दिया कि न्यायतंत्र अपनी
लक्ष्मणरेखाएं न लांधे, हर किसी को सीमाओं में रहना चाहिए और आत्मसमीक्षा करनी चाहिए।
लगा कि कानून मंत्री तथा अटॉर्नी जनरल की ये टिप्पणियां आगे जाकर दोनों संस्थाओं के
बीच टकराव को और गहरा करने वाली थी।
मेडिकल डेंटल में 15 प्रतिशत एनआरआई कोटा रद्द करने के अध्यादेश को गुजरात हाईकोर्ट ने रद्द
किया
गुजरात सरकार ने मेडिकल, पैरामेडिकल, डेंटल तथा फिजियोथेरेपी में 15 प्रतिशत एनआरआई कोटा को रद्द करने का
अध्यादेश जारी किया था। इस अध्यादेश के संदर्भ में छात्रों ने हाईकोर्ट में अपील दायर
की। सरकार ने 10 जून, 2016 को अध्यादेश जारी किया था। दरअसल, अमेरिका स्थित भारतीय
मूल की एक छात्रा ने अहमदाबाद आकर करमसद की एक मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस में दाखिला
लेने के प्रयत्न किया। कॉलेज ने उसे दाखिला देने की हा कर दी थी। भारत में दाखिला
मिलता देख छात्रा ने अमेरिका में एमबीबीएस में दाखिला नहीं लिया। इस बीच मेडिकल प्रवेश
की प्रक्रियाएं शुरू हो उससे पहले गुजरात सरकार ने अध्यादेश जारी करके एनआरआई कोटा को रद्द कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने 2005-06 के
दौरान पीए ईनामदार केस के संदर्भ में हुक्म सुनाया था कि सरकार के पास अचानक ही
कोटा रद्द करने की सत्ता नहीं है। इसी संदर्भ में गुजरात हाईकोर्ट ने फैसला सुनाते
हुए कहा कि, “राज्य सरकार दायरे से बाहर जाकर अध्यादेश के जरिये
कोटा रद्द नहीं कर सकती। सरकार ने जल्दबाजी में कदम उठा लिया है।”
कश्मीर मामले
को न्यायिक या संवैधानिक तौर पर सुलझाने से सुप्रीम कोर्ट ने किया किनारा
जुलाई-अगस्त 2016 के दौरान
बुरहान वाणी नाम के आतंकवादी का सुरक्षा बलों द्वारा किए गए एनकाउंटर के बाद
कश्मीर हिंसा की आग में जलने लगा था। कई सारे कश्मीरी और भारतीय सुरक्षा जवान इस
हिंसा में मारे गए। इसका फायदा पड़ोसी देश ने भी उठाया और कश्मीर हिंसा को लेकर कई
बयान दिए। भारत सरकार ने भी अपना रूख कड़ा किया। सर्वदलीय बैठकें हुई। तत्कालीन
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मंत्रियों ने पाकिस्तान के विरुद्ध अपना रूख
कड़ा किया। दोनों देशों ने जमकर एकदूसरे के विरुद्ध बयानबाजी की। इस राजनीतिक आपाधापी
के बीच कश्मीर के नेशनल पैंथर्स पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दायर की। इस
अर्जी में सुप्रीम कोर्ट को मध्यस्थी करने के लिये कहा गया। 22 अगस्त, 2016 के दिन
इस अर्जी के ऊपर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “कश्मीर के अंदर
प्रवर्तमान हिंसा का समाधान राजनीतिक दलों द्वारा किया जाना चाहिए। तमाम समाधान
न्यायिक मानदंडों के आधार पर नहीं निकाले जा सकते।”
(इंडिया इनसाइड,
मूल लेखन 24 जुलाई 2016, एम वाला)
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