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Kargil 1999: सरकारी गलतियों की शर्मिंदगी को भारतीय जांबाजों ने अपने खून से इज्जत बक्षी?

 
कारगिल सशस्त्र संधर्ष... 1999 का वो साल... मई से जुलाई का वो मौसम... जम्मू-कश्मीर का कारगिल ज़िला... शून्य से भी कम तापमान और बर्फीले तूफानों के बीच ऊंची ऊंची चोटियों पर बहादुरी की मिसाल पेश करता वो मंजर... दोस्ती और अमन के लिए भारत का ऐतिहासिक कदम और बदले में दुश्मन का पीठ पीछे किया गया वार... सबक-अंदरूनी कमजोरियाँ... आरोप-प्रत्यारोप... सेना का हौसला... देश का एक साथ खड़ा होना... राजनीतिक और कूटनीतिक प्रक्रियाएँ... कफन प्रकरण... गर्व का दौर और कलंकित घटनाएँ... और कई सारे मुद्दे हैं जिससे ऑपरेशन विजय की दुनिया के सामने आती कहानियाँ और पर्दे के पीछे के वो राज... कई चीजों पर चर्चा संभव है। कुछ मुद्दे ऐसे भी हैं जिसकी सार्वजनिक रूप से चर्चा करना ठीक नहीं है, या तो फिर लफ्जों की जाल में बुनकर इशारा भी किया जा सकता है।
 
उस वकत भारत में एनडीए गठबंधन सरकार सत्ता में थी और अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे। भारत के आर्मी जनरल थे वेद प्रकाश मलिक। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ थे और परवेज़ मुशर्रफ़ पाकिस्तानी सेना के जनरल थे। पाकिस्तान के पैरामिलिट्री फोर्स के चीफ अशरफ रशीद पाकिस्तान के उस ऑपरेशन के इंचार्ज थे।
 
कहा जाता है कि पाकिस्तान के अलग अलग हुक्मरान जो भी हो, किंतु परवेज़ मुशर्रफ़ ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे बाद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन बैठे थे। कारगिल के उस संघर्ष में भारतीय वायुसेना ने भी हिस्सा लिया था। ये बात एक इशारा भी है कि पाकिस्तान भौगोलिक तौर पर उस वक्त काफी अच्छी स्थिति में था और भारतीय सेना को नुकसान रोकने के लिए अपनी वायुसेना तक को संघर्ष में शामिल करना पड़ा। भारत ने अपनी आर्मी और एयरफोर्स के बेहतरीन तालमेल के साथ उन ऊंची पहाड़ियों में कातिलाना मौसम के दौरान "Operation Vijay" चलाया था।
 
कारगिल ज़िला
कारगिल की बात करे तो ये जम्मू-कश्मीर का एक ज़िला है। 1947 के पहले कारगिल लद्दाख के बाल्टिस्तान ज़िले का हिस्सा था। वहाँ उस वक्त कई भाषा, धर्म और जाति के लोग बसते थे। यह ज़िला 1979 में बनाया गया था, जो महान हिमालय श्रृंखला और लद्दाख की सिंधु नदी के बीच स्थित है।
 
आज का कारगिल श्रीनगर से 205 किमी दूर है। कारगिल के नज़दीक ही Line of Control (LoC) निकलती है। ये क्षेत्र हिमालय के जो ऊंचे हिस्से हैं, बिलकुल वैसा ही माहौल वाला क्षेत्र है। कारगिल में गर्मी के मौसम में भी कातिलाना ठंड होती है, जबकि शर्दी के मौसम में तो यहाँ का तापमान माइनस 15, तथा कुछ इलाकों में उससे भी नीचे पहुंच जाता है। भारत का नेशनल हाईवे 1, जो श्रीनगर से लेह जाता है, वो कारगिल से गुजरता है। कारगिल में नेशनल हाईवे 1 का 160 किमी लंबा रूट है। कारगिल के नज़दीक द्रास सेक्टर और मुश्कोह सेक्टर है। पाकिस्तान के स्कर्दू नगर से कारगिल 173 किमी की दूरी पर है। कारगिल की पहाड़ियाँ इतनी कठीन हैं कि वहाँ भारतीय चौकियाँ नहीं हैं, और इसीलिए पाकिस्तान की सेना और उनके आतंकवादी उस इलाक़े में अंदर तक घुसने में सफल रहे और व्यूहात्मक जगह ढूंढ पाए थे।
 
हताहत संख्या
कारगिल संघर्ष कुल 77 दिन तक चला था। कारगिल संघर्ष के दौरान भारत के आधिकारिक दस्तावेजों के मुताबिक भारत के 527 जवान वीर गति को प्राप्त हुए थे और 1,363 जवान घायल हुए थे। भारत के कुछेक जवान युद्ध कैदी भी बने थे। भारत का एक फाइटर जेट और एक हेलीकॉप्टर दुश्मन ने मार गिराया, जबकि एक फाइटर जेट मौसम के चलते क्रैश हो गया था।
 
पाकिस्तान के आधिकारिक दस्तावेजों में भारत के 1,600 जवान दिवंगत हुए थे ऐसा दावा किया गया था, जबकि पाकिस्तान के 357 से 465 जवान शहीद हुए थे और 665 जवान घायल हुए थे और उनके 8 जवान युद्ध कैदी बने थे।
 
उसके सामने भारतीय दस्तावेजों के तहत पाकिस्तान के 900 से ज़्यादा जवान दिवंगत हुए थे। लेकिन सशस्त्र संघर्ष या युद्धों के इतिहास में कम से कम ऐसे आंकड़े पर्दे के पीछे कई सारे राज भी समेट कर बैठे होते हैं। जैसे कि उर्दू डेली में छपे एक बयान में नवाज़ शरीफ़ ने इस बात को स्वीकारा था कि कारगिल का संघर्ष पाकिस्तानी सेना के लिए एक आपदा साबित हुआ था। पाकिस्तान ने इस संघर्ष में 2,700 से ज़्यादा सैनिक खो दिए थे। पाकिस्तान को 1965 और 1971 की लड़ाई से भी ज़्यादा नुकसान हुआ था।
 
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे अधिक बमबारी कारगिल संघर्ष में हुई
कारगिल संघर्ष के दौरान भारतीय सेना ने घुसपैठियों पर ढाई लाख रॉकेट और मोर्टार दागे थे, यानि रोजाना लगभग तीन हज़ार। इससे पहले इससे ज़्यादा रॉकेट केवल दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ही दागे गए थे।
 
कारगिल संघर्ष में भारतीय सेना द्वारा बोफोर्स तोप प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल की गई थी। वहीं पाकिस्तान की सेना और घुसपैठियों ने ग्रेनेड लॉन्चर, एंटी एयरक्राफ्ट गन, जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइल तथा लैंड माइंस का इस्तेमाल किया था।
 
1999 में लड़े गए कारगिल संघर्ष में तोपखाने (आर्टिलरी) से क़रीब 2,50,000 गोले और रॉकेट दागे गए थे। संधर्ष के दिनों की तुलना करे तो, 300 से अधिक तोपों, मोर्टार और रॉकेट लॉन्चरों ने रोज क़रीब 5,000 बम फायर किए थे। लड़ाई के महत्वपूर्ण 17 दिनों में प्रतिदिन हर आर्टिलरी बैटरी से औसतन एक मिनट में एक राउंड फायर किया गया था।
 
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह पहली ऐसी लड़ाई थी, जिसमें किसी एक देश ने दुश्मन देश की सेना पर इतनी अधिक बमबारी की थी।
 
रिटायर्ड ब्रिगेडियर बाजवा ने कारगिल को ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी बताया था
कारगिल की लड़ाई लड़ने वाले रिटायर्ड ब्रिगेडियर एमपीएस बाजवा ने कहा था कि कारगिल हमारे ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामयाबी का ही नतीजा था। वो हवाई जहाज, जिसे कारगिल में सूचना एकत्रित करने के लिए रखा गया था, उसे किसी और काम के लिए कहीं और लगा दिया गया था। कारगिल संघर्ष के दौरान इन्होंने 192 माउंटेन ब्रिगेड की कमान संभाली थी। बाजवा को टाइगर हिल पर अपनी सेना का उत्साह बढ़ाने और वीरता के लिए सम्मानित किया गया था। इन्होंने कहा था कि हमारा ख़ुफ़िया तंत्र भारतीय सेना को पाकिस्तानी सैन्य गतिविधियों की जानकारी मुहैया कराने में पूरी तरह विफल रहा।
 
हालाँकि इसके सामने ख़ुफ़िया तंत्र की पूर्व सूचनाएँ तथा उन सूचनाओं को नजरअंदाज करना तथा कारगिल के दौरान ख़ुफ़िया तंत्र द्वारा जानकारियाँ इकठ्ठा करने का संस्करण भी है। तंत्र का इस्तेमाल या तंत्र की विफलताएँ, दोनों अपने आप में शायद एकसाथ चल रही प्रक्रिया थी। लेकिन बाजवा की वो बात बहुत हद तक सही भी है कि तत्काल रूप से ख़ुफ़ियातंत्र नाकाम ज़रूर रहा था, क्योंकि कई प्रमाण बताते हैं कि दुश्मन के घुसपैठियों की ख़बर भी स्थानीय चरवाहों से मिली थी।
 
1998 से कारगिल अभियान को अंजाम देने की फिराक में था पाकिस्तान
दावा किया जाता है कि पाकिस्तानी सेना कारगिल अभियान को 1998 से ही अंजाम देने की फिराक में थी। इस काम के लिए पाक सेना ने अपने 5,000 जवानों को कारगिल पर चढ़ाई करने के लिए भेजा था। कहा जाता है कि 18 दिसंबर 1998 को पहली बार पाकिस्तानी सेना के तीन जवानों को एलओसी पार कर भारतीय सीमा के भीतर हालात का जायजा लेने का आदेश दिया गया था।
 
लड़ाई से पहले मुशर्रफ़ ने भारतीय सीमा में गुजारी थी रात
कहा जाता है कि कारगिल सेक्टर में 1999 में भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों के बीच लड़ाई शुरू होने से कुछ सप्ताह पहले जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने एक हेलीकॉप्टर से एलओसी पार की थी और भारत की सीमा में करीब 11 किमी अंदर जिकरिया मुस्तकार नामक स्थान पर रात भी बिताई थी। 28 मार्च 1999 को तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने नियंत्रण रेखा (एलओसी) को पार किया था। मुशर्रफ़ के साथ 80 ब्रिगेड के तत्कालीन कमांडर ब्रिगेडियर मसूद असलम भी थे।
 
वाजपेयी को आईबी ने एक साल पहले ही कर दिया था अलर्ट
सेना के एक वैचारिक संगठन ने यह दावा किया था कि 1999 में हुए कारगिल सशस्त्र संघर्ष से क़रीब एक साल पहले ख़ुफ़िया ब्यूरो (आईबी) ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से इसकी आशंका जताई थी। बताया जाता है कि आईबी ने कारगिल क्षेत्र में नियंत्रण रेखा के पास पाकिस्तान की साजो-सामान संबंधी तैयारियों के बारे में वाजपेयी को सूचना दी थी। उसके बाद भी सरकार घुसपैठ रोक पाने से चूक गई और कारगिल संघर्ष जैसा परिणाम सामने आया।
 
Centre for Land Warfare Studies के अध्ययन में कहा गया था कि 2 जून 1998 को ही आईबी ने पीएम को एक नोट भेजा था। इस नोट में कारगिल के सामने वाले क्षेत्र में नियंत्रण रेखा के पास पाकिस्तान की घुसपैठ करने का ब्यौरा था। अध्ययन की मानें तो यह अनुमान लगाया गया था कि परमाणु शक्ति से संपन्न होने के बाद पाकिस्तान कारगिल में भाड़े के सैनिक भेज सकता है। इस नोट पर उस समय के आईबी प्रमुख के हस्ताक्षर भी थे।
 
स्टडी 'Perils of Production, Indian Intelligence and The Kargil Crisis' में कहा गया कि रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) ने भी अक्टूबर 1998 के अपने आकलन में आगाह किया था कि पाकिस्तानी सेना गठबंधन के अपने सहयोगियों की संभावित मदद के साथ एक सीमित लेकिन तेज हमला कर सकती है। इस स्टडी में कहा गया कि आमतौर पर विश्वसनीय मानी जाने वाली रॉ की इस रिपोर्ट में संघर्ष या जंग की आशंका असंगत नजर आई, लिहाजा सेना तथा सरकार ने इस पर सवाल किए थे।
 
वाजपेयी अपनी कुर्सी से खड़े हो गए और बोले- 'कृपया एलओसी को पार ना करें, एलओसी की क्रॉसिंग नहीं होनी चाहिए'
1999 में हुए इस सशस्त्र संघर्ष के दौरान इंडियन एयरफोर्स ने कुछ और ही प्लान बना रखे थे। बताया जाता है कि एयरफोर्स चाहता था कि उसे पाकिस्तान में घुसकर उसकी सेना को सबक सिखाने का मौका दिया जाए, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके लिए राजी नहीं हुए और ना ही एनडीए सरकार ने इसकी इजाज़त दी।
 
25 मई के दिन इंडियन एयरफोर्स के चीफ मार्शल ए वाई टिपनिस की अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मीटिंग हुई थी। इस मीटिंग में टिपनिस ने वाजपेयी से परमिशन मांगी थी। टिपनिस ने तर्क दिया था कि पाकिस्तान की आर्मी भारत में घुसपैठ कर चुकी है और इस वजह से वे ऊंचाई पर बैठकर ठीक से हमले कर पा रहे हैं, हमें एलओसी क्रॉस करके हमले करने चाहिए। यह सुनकर वाजपेयी अपनी कुर्सी से खड़े हो गए और बोले, "कृपया एलओसी को पार ना करें, एलओसी की क्रॉसिंग नहीं होनी चाहिए।"
 
इसके बाद इंडियन एयरफोर्स ने अपने हिस्से से ही 'ऑपरेशन सफ़ेद सागर' चलाया। यह 26 मई को शुरू किया गया था। कारगिल की लड़ाई के चरम पर होने के वक्त श्रीनगर एयरबेस को हाई अलर्ट पर रखा गया था। पाकिस्तान पर हमला करने के लिए एयरफोर्स तैयार बैठी थी। सारे पायलट्स के पास रिवॉल्वर और पाकिस्तानी पैसे थे, ताकि अगर उनका विमान पाकिस्तान या फिर पीओके में गिर जाए तब भी वह अपने आपको संभाल सकें।
 
पाकिस्तान ने जमकर किया अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन, सालों बाद भी भारत कुछ नहीं कर पाया
कारगिल के इस संघर्ष में पाकिस्तान ने अतंरराष्ट्रीय नियमों का जमकर उल्लंघन किया था। भारत पाकिस्तान के बीच की संधियाँ, अतंरराष्ट्रीय नियम, युद्ध कैदी के नियम सहित कई नीति-नियमों को पाकिस्तान ने जमकर कुचला था। कुछेक भारतीय फौजियों को कैद किया गया और बाद में उनकी निर्मम हत्याएँ कर दी गईं। कुछेक वीर सैनिकों के शव ऐसे हालात में आए थे कि उनके परिजनों को हिदायत दी गई कि वे मृत सैनिकों का चेहरा न देखे।
 
सौरभ कालिया से लेकर अजय आहूजा के क्षत-विक्षत शव इन चीजों के सबूत थे। लेकिन भारत बिना बयानबाजी के कुछ नहीं कर पाया। सरकारें बदलती रही, किंतु किसी ने इन मामलों में बयानों के अलावा सेना या देश को कुछ नहीं दिया। इसके बाद भी पाकिस्तान भारत के फौजियों के सिर काट कर भेजता रहा। विडंबना तो देखिए कि सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के ख़िलाफ़ विपक्ष भाजपा ने जमकर हल्ला बोला। लेकिन फिर जब वे खुद सत्ता में आए तब उन्होंने बाकायदा सुप्रीम कोर्ट में कहा कि यूपीए ने जो कदम उठाए थे वे पर्याप्त थे।
 
साफ है कि कारगिल संघर्ष में भी ऐसी कई कहानियाँ थीं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय नियमों के कुचले जाने के बावजूद भारत प्रभावी तौर से इन विषयों को उठा नहीं पाया।
 
सौरभ कालिया का परिवार अब सर्वोच्च न्यायालय के भरोसे, विक्रम बत्रा के परिवार ने नरेंद्र मोदी तक को झाड़ दिया था
कैप्टन सौरभ कालिया भारतीय थलसेना के एक अफ़सर थे, जो कारगिल संघर्ष के समय पाकिस्तानी सिक्योरिटी फोर्सेज़ द्वारा बंदी अवस्था में मार दिए गए। उन्हें कैद में रखा गया, जहाँ इन्हें यातनाएँ दी गयीं और फिर मार दिया गया। पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रताड़ना के समय इनके कानों को गर्म लोहे की रॉड से छेदा गया, आँखें फोड़ दी गयीं और निजी अंग काट दिए गए।
 
उस वक्त भारत सरकार ने सौरभ कालिया के परिजनों को भरोसा दिलाया कि वे पाकिस्तान के इस नृसंश कार्य के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाएँगे। लेकिन साल गुजरते गए और आखिरकार यह परिवार अपने वीर बेटे के लिए अब सरकार को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट के भरोसे है। तब से आज तक कालिया परिवार की याचिका को पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ कार्रवाई का इंतज़ार है। तमाम विवादों के बीच सरकार ने फिर भरोसा दिलाया कि सौरभ कालिया के मामले को एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ले जाया जाएगा और मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय अदालतों में उठाने की नई पहल होगी।
 
संसद में इस सिलसिले में पूछे गए एक सवाल के जवाब में विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह ने कहा था कि हम इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार आयोग में उठा चुके हैं, कानूनी विकल्प भी तलाशे गए, लेकिन मामले की अंतरराष्ट्रीय अदालत में पैरवी मुमकिन नहीं है। हालाँकि, बढ़ते दबाव के बीच सुषमा ने सरकार का पक्ष रखते हुए इस पर आगे बढ़ने की घोषणा की और मामले को सुप्रीम कोर्ट के पाले में डाल दिया।
 
वहीं कारगिल संघर्ष के विजयी नायकों से में एक विक्रम बत्रा का परिवार 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी से इतना नाराज हो गया कि उन्होंने चिठ्ठी लिखकर सख़्त नाराजगी जताई। दरअसल, वीर विक्रम बत्रा को याद करके मोदीजी ने भाजपा को वोट करने की अपील की। विक्रम बत्रा कारगिल की चोटी से जो स्लोगन बोले थे (ये दिल मांगे मोर), उस स्लोगन को प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया। बत्रा परिवार ने मोदीजी को खुला पत्र लिख कर कहा कि जो आदमी राष्ट्रधर्म की बातें करते आया हो उसे वीरों के नाम पर राजनीति शोभा नहीं देती, हमारे बेटे का नाम राजनीति के लिए लाना उसका अपमान है, आप झूठी देशभक्ति का प्रदर्शन ना करें।
 
जिंदा सैनिक को सरकार ने दे दिया था मरणोपरांत सम्मान
कुछ रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक कारगिल सशस्त्र संघर्ष के बाद सैनिकों को मेडल देकर सम्मानित करने में जल्दबाजी की गई थी, क्योंकि तत्कालीन सरकार कारगिल प्रकरण को लेकर सरकार के ऊपर उठ रहे सवालों से सभी का ध्यान हटाना चाहती थी।
 
आनन-फानन में सैनिकों को सम्मानित करने की जल्दबाजी में योगेन्द्र सिंह यादव को मरणोपरांत परमवीर चक्र दे दिया गया, जबकि वे जिंदा थे। हालाँकि सेना और स्वयं योगेन्द्र सिंह यादव इसे महज एक गलती मानते हैं। परंपरा रही है कि सेना और सैनिक अपनी नाराजगी कभी जाहिर नहीं करते। विशेषज्ञों के मुताबिक पहले जब भी संघर्ष या युद्ध होता था, तब सैनिकों को सम्मानित करने की जल्दबाजी नहीं दिखाई जाती थी, सरकार ने जो गलती की थी वह नहीं होनी चाहिए थी। इस मामले पर कहा गया कि सरकार कारगिल विजय के बूते पर उन तमाम गलतियों को छुपाने के मकसद से इतनी जल्दबाजी दिखा रही थी और सैनिकों को सम्मान देने की प्रक्रिया बहुत जल्द शुरू कर दी गई, जबकि कारगिल संघर्ष का पूरा आकलन समाप्त भी नहीं हुआ था।
 
परमवीर चक्र से सम्मानित सैनिक को कानून व्यवस्था के लिए ख़तरा भी बताया गया था
कारगिल संघर्ष में दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले परमवीर चक्र से सम्मानित योगेन्द्र सिंह यादव अपने परिवार के साथ बुलंदशहर में रहते हैं। यहाँ जमीन की चकबंदी हुई तो उसको लेकर विवाद हो गया। योगेन्द्र सिंह के परिवार को अब तक जमीन तो नहीं मिली, लेकिन प्रशासन ने जमीन दिलाने के बजाए योगेन्द्र सिंह और उनके भाइयों के ख़िलाफ शांतिभंग की धाराओं में नोटिस जारी कर उन्हें मुचलका पाबंद कर दिया। पुलिस की इस कार्रवाई के विरोध में योगेन्द्र सिंह ने एसएसपी और डीएम से भी शिकायत की, लेकिन कोई हल नहीं निकला। योगेन्द्र सिंह और उनके परिवार को नोटिस पे नोटिस जारी किए जाते रहे। आज भी इस सैनिक का परिवार एसडीएम कोर्ट के चक्कर काट रहा है।
 
विश्लेषकों ने कारगिल संघर्ष की तुलना चीन भारत की जंग से की थी
कारगिल सशस्त्र संघर्ष के उन द्दश्यों को भुलाया नहीं जा सकता। सेना के ट्रकों की वो लंबी लंबी कतारे, जिसमें भारत की वीर सैनिकों के पार्थिव शरीर सम्मानपूर्वक रखे हुए होते थे, सड़क से गुजरा करते थे। कारगिल एक सेक्टर में लड़ी गई लड़ाई थी, किंतु पूर्ण युद्ध के अनुपात में यहाँ भारत ने बहुत मात्रा में हानि उठाई। क़रीब तीन महीने तक एक सेक्टर का यह संघर्ष चलता रहा, जबकि पूर्व में लड़े गए भारत-पाक के युद्ध कुछ दिनों तक चले थे।
 
"कारगिल में मिली सफलता आखिर विजय कैसी? अपनी ही धरती पर लड़े गए युद्ध में अपने ही इलाके को खाली कराने में पाई गई कामयाबी को क्या फतह या विजय के नामों से पुकारा जाना चाहिए था?" - ये लफ्ज़ रक्षा विशेषज्ञों के हैं। उनके यह लफ्ज़ सेना के लिए नहीं बल्कि देश और नेतृत्व व्यवस्था के प्रति है। उनका कहना है कि, "कारगिल संघर्ष, कारगिल की विजय सेना के लिए थी। सेना ने निश्चित रूप से उन नाकामियों को अपने खून की क़ीमत देकर चुकाया था और भारत का सिर ऊंचा रखा था।" विशेषज्ञ कहते हैं, "आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि पाकिस्तान बार-बार भारत को अपनी ही धरती पर दुश्मन से मुकाबला करने के लिए मजबूर कर रहा है?" वे कहते हैं, "कारगिल संघर्ष का एक सोचनीय पहलू यह भी रहा था कि कारगिल की लड़ाई पाकिस्तान की धरती पर नहीं बल्कि हिंदुस्तान की धरती पर ही लड़ी गई थी।"
 
विशेषज्ञ बताते हैं कि आधिकारिक रूप से 527 से अधिक कीमती जवानों तथा अधिकारियों को गँवाने के बावजूद भारत कारगिल के संघर्ष में वह सफलता हासिल नहीं कर पाया था, जो युद्ध के मैदान में मिलती थी। याद रहे कि 1947, 1965 तथा 1971 के पूर्ण युद्ध कुछ दिनों तक चले थे, वहीं कारगिल का संघर्ष 3 महीनों तक चल चला था। 1947 में हुए युद्ध में 1103, 1965 में 2902 तथा 1971 के युद्ध में 3630 भारतीय जवान व अधिकारी हताहत हुए थे। उसके अनुपात में कारगिल का आंकड़ा बहुत अधिक था। वे पूर्ण युद्ध थे, जो सारी सीमाओं पर लड़े गए थे, जबकि कारगिल में लड़ी गई लड़ाई एक ही सेक्टर का संघर्ष था। इसमें इतनी क्षति असहनीय थी।
 
विश्लेषक आक्रोश के साथ बताते हैं कि देश की ख़ुफ़िया संस्था 1 साल पहले आगाह कर देती है, फिर भी क्यों हम घुसपैठियों को रोक नहीं पाए थे? उनका कहना है कि आईबी आप को 1 साल पहले आगाह करती है, रॉ जैसी ख़ुफ़िया संस्था सीमित और तेज हमले की चेतावनी देती है, फिर 1 साल तक सरकार ने क्या किया?
 
विशेषज्ञों का यह आक्रोश तब प्रबल हुआ जब सदन में सरकार ने बयानों के जरिए सारा दोष सुरक्षा और ख़ुफ़िया संस्थानों पर डालने का प्रयास किया। तब इन विशेषज्ञों ने कहा था कि हमें वाजपेयी जैसी शख्सियत से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। उनको 1 साल पहले आगाह किया जा चुका है तब वे आज नाकामियों का ठीकरा ख़ुफ़िया संस्थानो पर कैसे फोड़ सकते हैं?
कारगिल संघर्ष, जिसमें भारतीय सेना की भारी हानि हुई थी उसे कई विश्लेषक उस घटना से भी जोड़ते हैं, जब नेहरू काल के समय चीन पर भरोसा करने के बाद भारत ने चीन का हमला झेला था। वे कहते हैं कि चीन के साथ हर मोर्चे पर पीटने के बाद युद्ध की जाँच के लिए समिति भी बनाई गई थी और समिति के अनुसार निर्देशित कदम भी उठाए गए थे। समिति ने उस जंग में जो कमियाँ थीं उसे उजागर भी किया और प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल भी उठाए। किंतु कारगिल संघर्ष में सरकार ने ऐसी जाँच समिति नहीं बनाई और कमियों को देश के सामने लाने के "गंभीर प्रयास" तक नहीं किए। एक ओर पाकिस्तान शांति के प्रयासों के लिए रचे ढोंग में लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर रहा था, तो दूसरी ओर वह कारगिल प्रकरण की योजनाओं को अंतिम रूप दे रहा था।
 
हालाँकि कारगिल के बाद कुछ कदम ज़रूर उठाए गए, लेकिन उसका जमीनी प्रभाव कम ही देखने के लिए मिला। कारगिल संघर्ष के दौरान हमारी जवाबी कार्रवाई में सुस्ती क्यों थी इस बात की जाँच के लिए एक कमिटी बनाई गई थी। विश्लेषक आहत हैं कि किसी और बात पर नहीं बल्कि सुस्त कारवाई के नाम पर जाँच बिठाई गई।
 
सन 2015 में इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। गौरतलब है कि जब संघर्ष हुआ तब और जब यह रिपोर्ट आई तब सरकार एक ही राजनीतिक दल की थी। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने 2015 में कहा कि उस वक्त सेना की टुकड़ियों का ओवरएज (बुढ़े) कर्नल नेतृत्व कर रहे थे, जिसके कारण दुश्मनों को जवाब देने में देरी हुई। सरकार ने बताया था कि भारतीय कर्नलों की औसतन उम्र 41 साल थी। यह जवाब भी आहत करने वाला ही था। जबकि तत्कालीन सरकार आज तक कहती है कि बड़ी बहादुरी से हमने पाकिस्तानियों को खदेड़ दिया था। सरकार ने सारा दोष यह कह कर फौज पर मड़ दिया कि बूढ़े कर्नल नेतृत्व कर रहे थे! जबकि विजय का श्रेय आता है तब सरकार पीछे नहीं हटी! विश्लेषकों ने दुख के साथ चुटकियाँ लेते हुए कहा कि हमारी लोकसभा के बूढ़े नेता भारत की महान सेना को बूढ़ी सेना कह रहे हैं!
 
तीन महीनों के सशस्त्र संघर्ष के उपरांत कारगिल का आकलन करने के बाद सबसे बड़ा प्रश्न सामने आया था कि क्या खोया और क्या पाया? उत्तर में राजनीति की बिसात पर गोटीयों के स्थान पर इंसानों को खेलने वालों का कहना था कि अंतरराष्ट्रीय समर्थन पाया, तो उन परिवारों के मासूम चेहरे आज भी चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि उनके परिजन बर्बरता से मारे गए और राजनीति ने उनसे खोखले वादे कर दिए। राजनयिक स्तर पर मिली जीत उन परिवारों के घावों को आज 15 सालों के बाद भी नहीं भर पाई है, जिनके एक से ज़्यादा युवा सदस्य इस लड़ाई में कुर्बान कर दिए गए। सवाल यह है कि इन परिवारों तथा एक आम आदमी के लिए राजनयिक स्तर पर मिलने वाली कामयाबी कितना महत्व रखती है? जबकि अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पूर्व में की गई गलतियों का परिणाम ही कारगिल संघर्ष था।