लाल आंख करके
रास्ता दिखाने वाली यह घटनाएं समूचे भारत से संबंधित है। इसे आप जिस तरह से पढ़ना
या समझना चाहते हैं, पढ़ या समझ सकते हैं। न्यायतंत्र, राजनीति, कानून, नीतियां, नियम,
संविधान, सख्ती, कमजोरी, लापरवाही, मामलों की एकरूपता या फिर मामलों की भिन्नता के
साथ साथ राजनीतिक और नागरिकी नजरिये की एकरूपता या भिन्नता... जिस तरह से इसे पढ़े
या समझे।
मुंबई के दही हांडी पर हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट हुआ सख्त, दे दिये आदेश
मुंबई में दही हांडी का उत्सव बड़े जोश के साथ मनाया जाता है। लाखों की भीड़ इस उत्सव में उमड़ पड़ती है। जो वहां पहुंच नहीं पाते, ऐसे लाखों लोग टेलीविजन से चिपक जाते हैं। महाराष्ट्र सरकार ने तो इसे साहसिक
खेलों की श्रेणी में डाल कर प्रोत्साहन भी दिया। लेकिन इस उत्सव के दौरान, गोविंदाओं की मौतें और उनका घायल होना, ऊंचे ऊंचे मानव पिरामिड बनाना, आयोजकों द्वारा गोविंदाओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त इंतज़ाम न करना आदि को लेकर विरोध भी होते रहे थे।
अगस्त 2016 के अंत में, जब अष्ठमी महोत्सव सर पर ही था, हाईकोर्ट ने एक याचिका के
तहत अपना फैसला सुनाते हुए दही हांडी पर नियंत्रण लगा दिए। मानव पिरामिड 20 फीट
से अधिक नहीं बनाए जा सकते तथा 18 साल की उम्र के नीचे के लड़के या लड़कियां महोत्सव
में भाग नहीं ले सकते, जैसे आदेश हाईकोर्ट ने दे दिए। इसके खिलाफ आनन-फानन में आयोजक
सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के आदेश को मान्य
रखा और महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिए कि न्यायालय के आदेश का पालन होना चाहिए।
हालांकि, अष्टमी के दिन कई जगहों पर इस आदेश का पालन नहीं हुआ। जिन जिन जगहों पर आदेश
का उल्लंघन हुआ, वहां मामले भी दर्ज हुए। किंतु राजनीतिक वजहों से लीपापोती भी
हुई ऐसी राय सामने आई। हालांकि 16 गोविंदामंडलों के प्रमुख तथा आयोजकों के विरुद्ध
मामला दर्ज किया गया। इनके विरुद्ध अदालत की अवमानना के साथ साथ सदोष मानववध की
धाराएं भी लगाई गई।
सार्वजनिक जीवन
में है, आलोचना को सहन करने की आदत रखिए, जयललिता को सुप्रीम कोर्ट की नसीहत
अगस्त 2016 के दौरान सुप्रीम
कोर्ट ने एक मामले में तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को सख्त नसीहत
देते हुए कहा कि, “आप सार्वजनिक जीवन में है, आलोचना का
सामना करने की आदत रखिए।” मानहानि के मामलों को लेकर दायर की गई
राजनीतिक पार्टी की याचिका के उत्तर में सुप्रीम ने कहा कि, “दूसरे
राज्यों के सामने तमिलनाडु सरकारी तंत्र का ज्यादा दुरुपयोग कर रहा है। मुख्यमंत्री
के स्वास्थ्य पर टिप्पणी के मामले में मानहानि का मामला दायर नहीं हो सकता।” पीछले
महीने ही सुप्रीम ने एक मामले में सुनवाई करते हुए कहा था कि सरकार की आलोचना करने
वाले आलोचकों के विरुद्ध मानहानि की धाराओं का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में
नहीं हो सकता।
हाईकोर्ट ने दी
मुंबई की हाजीअली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश की अनुमती
26 अगस्त, 2016 के दिन यह फैसला
आया। मुंबई की हाजीअली दरगाह में महिलाओं पर प्रवेश की मनाही को न्यायालय ने रद्द
करते हुए फैसला दिया कि जहां पुरुषों को जाने की इजाज़त है, वहां महिलाओं को भी जाने
का अधिकार है। दरअसल, डो. निरजा नियाज तथा अन्यों द्वारा याचिका दायर की गई थी।
याचिका में कहा गया था कि हाजीअली में पुरुषों के माफिक महिलाओं को भी प्रवेश की
अनुमति होनी चाहिए। हाजीअली दरगाह के ट्रस्ट ने अपने धर्म का हवाला देते हुए
महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित किया था। महिलाओं को इस दरगाह के कुछ हिस्सों में जाने
की मनाही थी। अपने फैसले में हाईकोर्ट ने महिलाओं पर इस मनाही को रद्द कर दिया।
हालांकि, ट्रस्ट इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी दायर करने का मन
बना चुका था।
बुलंदशहर
सामूहिक दुष्कर्म मामले पर आजम खान के बयान पर सुप्रीम ने जताई आपत्ति
जुलाई 2016 के दौरान उत्तरप्रदेश
के बुलंदशहर सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद युपी के कैबिनेट मंत्री आजम खान ने
विवादित बयान देते हुए कहा कि, “सत्ता के लिए राजनेता किसी भी हद तक जा
सकते हैं और इसीलिए विपक्ष द्वारा ये सामूहिक दुष्कर्म करवाया गया है या नहीं उसकी
जांच होनी चाहिए।” एक तरीके से उन्होंने इस घटना को राजनीतिक साजिश
करार दे दिया। इस दफा सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच
ने आजमखान के इस बयान को आपत्तिजनक तथा संवेदनहिन बयान कहा और पूछा कि, “ऐसे
बयान को लेकर आजमखान के ऊपर आपराधिक मामला क्यों ना किया जाए?” जस्टिस
दीपक मिश्रा तथा जस्टीस सी नागपन्न की बेंच ने चेतावनी भरे अंदाज में कहा कि, “सत्ता
भुगत रहे लोग तथा दूसरे सक्षम सत्ताधीश पीड़ितों को न्यायतंत्र में भरोसा ना रहे ऐसे
बयान क्यों दे रहे हैं?”
सिंगूर में ताता
को दी गई जमीन किसानों को वापिस करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश
सिंगूर... ताता नैनो... साणंद...
इस वाक़ये से सभी भली भांति परिचित है। सिंगूर में इसी मुद्दे को लेकर जमीन अधिग्रहण
के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त फैसला सुना दिया। पश्चिम बंगाल के सिंगूर
में नैनो कार का प्लांट स्थापित करने के लिए ताता मोटर्स द्वारा संपादित की गई
जमीन का सौदा सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया। इतना ही नहीं, कोर्ट ने संपादित की गई
जमीन 12 सप्ताह में वापस करने का हुक्म सुना दिया। दरअसल, सन 2006 में तत्कालीन
सीपीएम सरकार ने ताता मोटर्स को तकरीबन 1000 एकड़ जमीन दी थी। उस वक्त मुख्यमंत्री
बुद्धदेव भट्टाचार्य थे। कोर्ट ने 31 अगस्त 2016 के दिन फैसला सुनाते हुए कहा कि
जमीन का संपादन सार्वजनिक हेतु से नहीं किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल
सरकार को जमीन का कब्जा वापिस लेने तथा उन जमीनों को उसके मूल मालिक को परत करने का
आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि, “किसानों से ली गई जमीन किसी कार प्लांट के लिए दी जाए यह विषय सार्वजनिक हेतु के परिप्रेक्ष्य में नहीं आता। यह जमीन
उपजाऊ है, इसलिए कार प्लांट के लिए उसे संपादित करना कानून के खिलाफ है।” कोर्ट
ने जमीन संपादन की प्रक्रिया को ही गलत करार दिया और कहा कि, “सरकार
ने सार्वजनिक फायदों का खयाल किए बिना ताता कंपनी को फायदा पहुंचाया है।”
इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने
यह भी कहा कि, “किसानों को जमीन संपादित करते समय जो मुआवजा दिया गया
था, उसे किसानों को परत करना नहीं होगा। क्योंकि पिछले 10 सालों से किसानों के पास
आजीविका का कोई संसाधन नहीं था।” गौरतलब है कि 2006 के उस दौर में विरोध
पक्ष की नेता ममता बनर्जी सिंगूर प्रोजेक्ट के खिलाफ खड़ी हो गई थी और उसके बाद
नैनो कार प्रोजेक्ट को गुजरात के साणंद में ले जाया गया था। 2008 में कोलकाता
हाईकोर्ट ने जमीन संपादन बिल को सही ठहराया था। उसके बाद विवाद होने के कारण ताता
ने अपना प्रोजेक्ट साणंद में स्थापित किया। 2011 में ममता ने 400 एकड़ जमीन किसानों को
वापिस देने का फैसला लिया। उसी साल 997 एकड़ जमीन वापिस लेने के लिए सरकार ने
अध्यादेश जारी किया। ताता मोटर्स ने बिल के खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में अपील की।
हाईकोर्ट ने बिल को सही ठहराया। ताता कंपनी ने हाईकोर्ट के इस फैंसले के खिलाफ
अपील की। 2012 में हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने बिल को रद्द कर दिया। उसके बाद
पश्चिम बंगाल सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम में अपील दायर की थी।
कावेरी जल
विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
तकरीबन 21 साल पुराने कावेरी जल
विवाद पर सितम्बर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। ये मामला तमिलनाडु
तथा कर्णाटक राज्य के बीच था। अपने फैसले में कोर्ट ने कर्णाटक को आदेश दिया कि वे
तमिलनाडु राज्य को 10 दिनों के लिए प्रतिदिन 15,000 क्यूसेक पानी दे। सुप्रीम के
इस आदेश के बाद कर्णाटक राज्य में उग्र प्रदर्शन हुए और जमकर हिंसा हुई। सुप्रीम के
दो जजों के विरुद्ध शिकायत भी दायर की गई, जिसमें दावा किया गया कि सुप्रीम को
राज्यों के बीच जल विवाद के समाधान की सत्ता नहीं है। कर्णाटक सरकार ने सुप्रीम में रिव्यू पिटीशन दायर की और राज्य में हो रहे उग्र और हिंसक प्रदर्शनों का हवाला दिया।
इस रिव्यू पिटीशन पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व फैसले में थोड़ा फैरबदल किया। सुप्रीम ने अब प्रतिदिन 12,000 क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश
दिया, लेकिन ये अवधि 10 दिनों के बजाय 15 दिनों की कर दी गई। हिंसा और प्रदर्शनों के
मामले में सुप्रीम ने कर्णाटक सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि, “कानून
को दुरस्त रखने की जिम्मेदारी सरकार की है और वे न्यायालय के आदेश का पालन करे।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नागरिक स्वयं कानून नहीं बन सकते। कोर्ट ने याद दिलाया कि,
“जब सर्वोच्च न्यायालय कोई भी आदेश जारी करता है तब उसका
पालन करना सरकार तथा नागरिक, दोनों की जिम्मेदारी है।”
कावेरी जल
विवाद को लेकर सुप्रीम ने कर्णाटक को लगाई फटकार, विधानसभा का प्रस्ताव ही कर
दिया खारिज
27 सितम्बर, 2016 के दिन कावेरी
जल विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कर्णाटक को फटकार लगाई। गौरतलब है कि इसी
महीने सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर अपना फैसला सुनाया था। इसके बाद कर्णाटक
ने तमिलनाडु को पानी देने में असमर्थता जताई थी। कर्णाटक विधानसभा ने तो प्रस्ताव
पारित कर तमिलनाडु को पानी देने में अपनी दिक्कतें पैश कर दी थी। कोर्ट ने कर्णाटक
सरकार को कहा कि, “कोई भी राज्य सर्वोच्च न्यायालय का आदेश
मानने से इनकार नहीं कर सकता।” सर्वोच्च न्यायालय ने कोर्ट की अवमानना
को लेकर सरकार को चेताया। सर्वोच्च न्यायालय ने कर्णाटक विधानसभा का प्रस्ताव भी
खारिज कर दिया। कोर्ट ने कर्णाटक सरकार के वकील फली नरिमान को कहा कि, “आप
अपने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को कहे कि वे सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करे।”
कावेरी जल
विवाद को लेकर सुप्रीम फिर एक बार कर्णाटक पर बरसा, राज्य सरकार को दी सीधी
चेतावनी
30 सितम्बर के दिन, यानी कि
कर्णाटक सरकार को फटकार लगाने के केवल 2 दिन बाद ही, सुप्रीम कोर्ट को कर्णाटक
सरकार ने फिर एक बार बरसने के लिए मजबूर किया। 27 सितम्बर के बाद कर्णाटक ने कहा
था कि हम ऐसी स्थिति में नहीं है कि तमिलनाडु को ज्यादा पानी दे पाए। कर्णाटक सरकार
ने फैसला किया था कि जब तक दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की केंद्रीय जल संसाधन
मंत्रालय के प्रधान उमा भारती से मुलाकात का परिणाम नहीं आता, तब तक तमिलनाडु को
पानी देना शुरू नहीं किया जाएगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने कर्णाटक सरकार को कहा
कि, “कर्णाटक सरकार कानून के आक्रोश को निमंत्रण ना दे।”
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन न होने पर कोर्ट ने कहा कि, “अगर
आदेश का पालन नहीं होता है, तब सरकार को इसके बुरे परिणाम भुगतने होंगे और ये
स्थिति सरकार के लिए मुश्किल होगी।” कोर्ट ने कहा
कि, “कर्णाटक भारत का ही राज्य है और धारा 144 के तहत उसे
आदेश का पालन करना होगा, वर्ना सरकार को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।”
लोकपाल व
लोकायुक्त नियुक्तियों पर केन्द्र तथा राज्यों को सुप्रीम का नोटिस
लोकपाल तथा लोकायुक्त नियुक्तियों के लिए 2013 में कानून पारित किया गया था। हालांकि पारित करना पड़ा यह चीज़ ज्यादा
ठीक होगी। क्योंकि वो दौर तथा वो आपाधापी जगजाहिर है। 1 जनवरी, 2014 के दिन
राष्ट्रपति की मंजुरी के पश्चात 16 जनवरी, 2014 से कानून लागू हो गया था। लेकिन
सितम्बर 2016 तक लोकपाल तथा लोकायुक्त की नियुक्तियां नहीं हुई। इस मामले पर एक
जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार तथा राज्य
सरकारों को नोटिस भेजा। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई तथा पीसी पंत की बेंच ने केन्द्र
तथा तमाम राज्य सरकारों को नोटिस भेजा और लोकायुक्त उनकी उत्तरदायित्व स्वतंत्र रूप
से निभा सके इस हेतु ज़रूरी फंड मुहैया करवाने के लिए कहा। गौरतलब है कि कई राज्यों
में अब तक लोकायुक्त की नियुक्तियां नहीं की गई थी, जबकि कानून की धारा 63 के अनुसार
कानून बनने के बाद एक साल के भीतर नियुक्तियां हो जानी चाहिए थी।
लोकपाल के
मुद्दे पर सुप्रीम आया हरकत में, सरकार के ढिले रवैये पर निशाना साधा
23 नवम्बर 2016 के दिन सुप्रीम
कोर्ट ने लोकपाल को लेकर केंद्र को घेरे में लिया। गौरतलब है कि 18 दिसम्बर 2013 के
दिन लोकपाल कानून पास हुआ था। उस वक्त कांग्रेस शासित यूपीए सरकार सत्ता में थी।
तकरीबन 3 साल गुजरने के बाद भी लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई थी। भाजपा शासित एनडीए
सरकार इस बार सत्ता में थी। लोकपाल नियुक्ति में हो रही देरी पर सुप्रीम कोर्ट को
आखिरकार संज्ञान लेना पड़ा। सरकार की ओर से एटर्नी जनरल ने नेता विपक्ष की कमी और
नेता विपक्ष चुनने के संसदीय नियम का हवाला देकर लोकपाल नहीं बनने का बचाव किया।
सुप्रीम ने कहा कि लोकपाल कानून
में संशोधन करके नेता प्रतिपक्ष को पसंदगी प्रक्रिया में लाने के लिए प्रयत्न
किजिए। कोर्ट ने इसे लेकर अब तक कोई कदम न उठाने पर केंद्र सरकार की सख्त आलोचना
की। सुप्रीम ने कहा कि, “सरकार अध्यादेश जारी करके भी इस मामले
पर आगे बढ़ सकती है।” टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाली बेंच ने
कहा कि, “संस्था को कार्य करने की इजाज़त मिलनी चाहिए और इसमें
कानून या नियम को बाध्य नहीं बनाना चाहिए।” कोर्ट ने कहा
कि, “ऐसी छवि ना बने जिससे लगे कि सरकार को लोकपाल बनाने
में दिलचस्पी नहीं है।”
सुब्रतो रोय के
वकील के तेवर से सुप्रीम कोर्ट के तेवर तल्ख हो गए, जमानत रद्द करने का दे दिया
था आदेश
ये वाक़या 23 सितम्बर, 2016 का
है। इस दिन सहारा ग्रुप के प्रमुख सुब्रतो रोय, जो कि जेल में बंद थे, के केस के
ऊपर सुनवाई चल रही थी। सुब्रतो रोय के प्रमुख वकील कपिल सिब्बल खराब सेहत की वजह
से कोर्ट में हाजिर नहीं रह पाए। उनकी जगह रोय के दूसरे वकील राजीव धवन कोर्ट में उपस्थित हुए थे। रोय को पेरोल दिये जा चुके थे। राजीव धवन रोय की तरफ से दलीलें दे
रहे थे। इन दलीलों के बीच धवन ने सुप्रीम कोर्ट के सामने टिप्पणी कर दी। उन्होंने
सेबी द्वारा जब्त की गई संपत्ति को बेचने की कार्रवाई के ऊपर टिप्पणी कर दी। धवन
के अभद्र व्यवहार से जज खफ़ा हो गए। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा कि, “अगर आप
ये चाहते हैं कि कोर्ट आप को सुने, तब पहले रोय को जेल में जाना चाहिए। आप हमें ना
सिखाए कि हमें क्या करना चाहिए।” कोर्ट ने कहा कि, “रोय की
दी जा रही तमाम राहतें रद्द की जाती है और रोय सहित तमाम अभियुक्तों को जेल में भेजने
का आदेश दिया जाता है।” जजों की बेंच में जस्टिस एआर दवे तथा
जस्टिस एके सीकरी भी थे। धवन ने सामने दलील कर दी कि कोर्ट गुस्से में आदेश दे रहा
है। चीफ जस्टिस ने इस दलील को खारिज कर दिया।
राजीव धवन की गलती के बाद कपिल
सिब्बल को कोर्ट तक आना पड़ा। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की माफी मांगी और कहा कि जो कुछ
हुआ है उसके लिए मुझे खेद है और उन्होंने राजीव धवन के व्यवहार के लिए माफी
मांगी। कपिल सिब्बल ने माफी मांगते हुए कहा कि कोर्ट उसके आदेश पर समीक्षा करे।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम आदेश के ऊपर समीक्षा करेंगे, हमें किसी से कोई
समस्या नहीं है, हम यहां मोज शौक के लिए नहीं आते। कोर्ट ने टिप्पणी की कि, “अगर
कोई अच्छा बोल लेता हो, तब इसका अर्थ यह नहीं होता कि वो कोर्ट के ऊपर हावि हो सकता
है।”
प्रदुषण की
गंभीर समस्या को लेकर सुप्रीम का दिल्ली सरकार को तीख़ा सवाल, केंद्र को भी दिए आदेश
2016 की दीवाली की खुशियों के बाद
प्रदुषण ने भारत की खुशियां छीन ली। देश की राजधानी दिल्ली, हरियाणा तथा
उत्तरप्रदेश के कुछेक हिस्सों के प्रदुषण स्तर ने वहां के लोगों का चैन गायब कर दिया।
जंतरमंतर पर दिल्ली के नागरिकों ने प्रदर्शन किया। सबसे पहले एनजीटी ने संबंधित
राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार को नोटिस भेजा। उसके बाद तमाम सरकारें जागी और
आनन फानन में बैठकें होने लगी। 8 नवम्बर के दिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को आदेश
दिया कि वे तमाम पक्षकारों के साथ बात करके 48 घंटे में कोमन मिनिमम प्रोग्राम पेश
करे। दिल्ली सरकार को कोर्ट ने कहा कि, “आप की लापरवाही
की वजह से दिल्ली के बच्चों को घरों में बंद होना पड़ रहा है।”
एनजीटी ने भी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान सरकार को तीख़े सवाल
पूछे।
विवादित पूर्व
चीफ जस्टिस कात्जू पर बरसा सुप्रीम कोर्ट
मार्कंडेय कात्जू... ये नाम अपने
विवादित वचनों के कारन हमेशा विवादों में चमकता रहा है। भारत के पूर्व न्यायाधीश रह
चुके कात्जू अपने विवादित बोल को लेकर अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। एक ऐसे मामले में हमेशा दूसरों पर बरसने वाले कात्जू पर सुप्रीम कोर्ट बरस पड़ा। दरअसल, कात्जू ने
अपने ब्लॉग में सौम्या केस के ऊपर अपनी राय रखी थी। लेकिन राय रखने के चक्कर में वो
इस केस का फैसला देने वाले जज पर ही बरस पड़े। फैसले पर टिप्पणियां की जा सकती
है, लेकिन जजों पर नहीं। कात्जू अपने ब्लॉग में तीन जजों की बेंच ने जो फैसला दिया था
उसकी आलोचना करने के चक्कर में जस्टिस गोगोई पर ही टिप्पणी कर बैठे। इसके बाद
सुप्रीम कोर्ट ने कात्जू के खिलाफ अवमानना नोटिस जारी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि, “आपने
फैसले की नहीं बल्कि जस्टिस की अवमानना की है।” बड़बोले कात्जू
ने गोगोई को यहां तक कह दिया कि, “मुझे डराने के प्रयत्न ना करे, आपको जो
करना है कर ले।” इसके बाद दलीलों में गर्मी आने लगी और कोर्ट रूम तपने
लगा। जज के विरुद्ध कात्जू की दलीलें हद पार करने लगी तो गार्ड को बुलाकर कहा गया
कि, “कात्जू को अदालत से बाहर निकाल दिजिए।”
भारत के न्यायिक इतिहास में यह
पहला मौका था जब किसी सेवानिवृत्त जज को अदालत की अवमानना का सामना करना पड़ा था।
हद पार करने पर कात्जू को अदालत से बाहर निकालने का आदेश भी दे दिया।
नोटबंदी पर रोक
लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने किया इनकार, हालांकि व्यवस्था को लेकर पूछे तीख़े सवाल
8 नवम्बर 2016 के दिन केंद्र
सरकार ने रात 12 बजे से 500 और 1000 के नोट अमान्य घोषित किए। इसे लेकर सुप्रीम
कोर्ट में सरकार के फैसले के खिलाफ याचिका दायर भी हुई। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर और
जस्टिस डीवाय चंद्रचूड की बेंच ने सरकार के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
कोर्ट ने कहा कि, “सरकार की आर्थिक नीतियों में कोर्ट दखल
देना नहीं चाहता।” सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फैसले को ‘अच्छा
फैसला’ कहा। साथ में कोर्ट ने नसीहत भी दी कि, “आम
नागरिकों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, सरकार अपने कदम को सर्जिकल स्ट्राइक
कहे या कारपेट बॉम्बिंग कहे, लेकिन इसे लेकर सार्वजनिक रूप से लोगों को परेशानियां ज़रूर हो रही है।” सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ये दिक्कतें दूर करने की
नसीहत दी।
वही देश में बैंक, पोस्ट ऑफिस,
एटीएम की लंबी कतारें, लोगों की दिक्कतें, दिक्कतों के चलते रोज रोज सरकार के नये नये
कदम, कुछ जगहों पर लाइनों में खड़े लोगों की मोतें जैसी कई सारी चीजों को सुप्रीम ने संज्ञान
में लिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही नोटबंदी को स्थगित करने की जनहित याचिका
खारिज कर चुका था और सरकार के आर्थिक फैसले पर दखल नहीं देने की टिप्पणी कर चुका
था। लेकिन उस वक्त भी कोर्ट ने लोगों को हो रही दिक्कतों पर सरकार से कदम उठाने के
लिए कहा था। सरकार के 8 नवम्बर के फैसले के 10 दिनों बाद भी स्थिति में सुधार न
होता देख सुप्रीम ने सरकार की व्यवस्था पर तिख़ी टिप्पणी की। सुप्रीम ने कहा कि, “जनता
परेशान दिख रही है, सड़कों के ऊपर स्थिति बिगड़ने का भय भी है, आपने गंभीर स्थिति का
निर्माण कर दिया है।” सुप्रीम ने कहा कि, “लोग
कतारों में घंटों तक खड़े रह कर परेशान हो रहे हैं।” चीफ जस्टिस की
बेंच ने कहा कि, “हमने सरकार को आदेश दिया था कि जनता की दिक्कतें कम
हो, ऐसे में नोट बदलने की मर्यादा कम क्यों की गई है? क्या नोट
छापने में कोई दिक्कतें आ रही है?” सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “लोग
समस्याओं का सामना कर रहे हो ऐसे में हम उन्हें अदालतों में जाने से रोक नहीं सकते।”
कलकत्ता हाईकोर्ट ने बड़ी तल्ख
टिप्पणी करते हुए कहा कि, “केन्द्र हर नये दिन नियमों में सुधार करता
जा रहा है। यह चीज़ दिखाती है कि किसी प्रकार की तैयारी के बगैर सरकार ने फैसला ले
लिया था।” कोलकाता हाईकोर्ट ने लोगों को हो रही दिक्कतों को लेकर
केंद्र और बैंक कर्मचारी दोनों की आलोचना की।
विदेश
भागने वालों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने की टिप्पणी, सरकार को कहा - सभी को पकड़ कर
उदाहरण पेश करें
भारत में कानून के पंजे से बचने
हेतु विदेश पलायन करने वाले लोगों पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की। गौरतलब है कि
इनमें विजय माल्या, ललित मोदी, रितिका अवस्थी जैसे 100 से ज्यादा लोग शुमार है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि ज़रूरत है कि केन्द्र सरकार इन
अभियुक्तों को वापस लाए और उन पर मुक्द्दमा चलाया जायें। जस्टिस जेएस खेहर तथा
जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच ने कानून से बच निकलने वाले ऐसे लोगों पर अपनी चिंताएं प्रक्ट की। न्यायालय ने कहा कि, “हम देख रहे है कि कानून की पकड़ से बच
निकलने के लिए कई लोग देश छोड़ कर भागे जा रहे है। ऐसे लोगों को देश में वापस लाना
ज़रूरी है, जिससे संदेश दिया जा सके कि भारत का कानून उन्हें पकड़ सकता है।”
रितिका अवस्थी मामले में केंद्र की एक टिप्पणी पर सुप्रीम ने अपनी असहमती जताई।
दरअसल, रितिका मामले में केंद्र ने कहा था कि उनके पास रितिका अवस्थी के पासपोर्ट
के बारे में जानकारी नहीं है। इस कथन पर सुप्रीम ने असहमती प्रकट करते हुए कहा कि, “जो
सरकार पासपोर्ट जारी करती है वो पासपोर्ट संबंधी जानकारियां बहुत आसानी से प्राप्त
कर सकती है।” कोर्ट ने कहा कि रितिका अवस्थी को भारत वापिस लाने
की जिम्मेदारी सरकार की है।
सुप्रीम आदेश - सिनेमा हॉल में फिल्म से पहले बजेगा राष्ट्रगान, खड़े होंगे दर्शक
30 नवम्बर 2016 के दिन सुप्रीम
कोर्ट ने एक फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश एक याचिका पर सुनवाई के दौरान
दिए। कोर्ट ने कहा कि फिल्म शुरू होने से पहले देश के सभी सिनेमाघरों में राष्ट्रगान
बजाना अनिर्वाय होगा। इसके अलावा स्क्रीन पर राष्ट्रध्वज भी दिखाया जाएगा। कोर्ट ने कहा
कि इस दौरान सिनेमा हॉल में मौजूद रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने राष्ट्रगान के
प्रति सम्मान दिखाना होगा। सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक जनहित याचिका दायर की
गई थी। श्याम नारायण चौकसे की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह निर्णय
दिया। याचिका में देशभर के सिनेमा हॉल में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने
का आदेश देने की मांग की गई थी। याचिका पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने यह आदेश जारी किए।
हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रगान का व्यवसायिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल
नहीं किया जा सकता।
हाईवे से 500
मीटर की दूरी पर बनी शराब की दुकानों को दूर करने का आदेश
15 दिसम्बर 2016 के दिन सर्वोच्च
न्यायालय ने शराब की दुकानों को लेकर सख्त आदेश सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने देश के
तमाम नेशनल व स्टेट हाईवे पर शराब बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया। कोर्ट ने कहा कि 1
अप्रैल से देश के नेशनल तथा स्टेट हाईवे के 500 मीटर के आसपास शराब बेचने की दुकान
के लाइसेंस रिन्यू न किए जायें। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की बेंच ने कहा कि 31 मार्च
2017 तक तमाम शराब की दुकानें बंद करनी होगी। उसके बाद ऐसे विक्रेताओं को लाइसेंस
रिन्यू नहीं किए जाएंगे। कोर्ट ने नेशनल तथा स्टेट हाईवे पर शराब की दुकानों के
अलावा इन दुकानों के साइनबोर्ड लगाने के लिए भी प्रतिबंध लगा दिया।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट इससे पहले
भी तमाम राज्य सरकारों को फटकार लगा चुका था। कोर्ट ने केंद्रीय नीति को राज्यों में
लागू न करने पर पहले भी राज्यों को फटकार लगाई थी। पंजाब तथा पोंडिचेरी सरकार को
विशेष रूप से कोर्ट ने पहले भी खूब खरी-खोटी सुनाई थी। इसके उपरांत केंद्र को भी
कोर्ट ने फटकार लगाते हुए कहा था कि पिछले 10 सालों से नीति को लागू करने में केंद्र
असमर्थ रहा है। उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेताया था और कहा था कि अगर
ज़रूरत पड़ी तो कोर्ट स्वयं देश के तमाम हाईवे पर शराब की दुकानों को हटाने के आदेश
दे देगा।
बावजूद इसके ना ही केंद्र सरकारों
ने ठीक से काम किया और ना ही राज्य सरकारों ने। आखिरकार इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने
अपना फैसला सुना दिया और आदेश दिया।
लगातार पीआईएल
दायर करने की प्रक्रिया पर भड़क उठा सुप्रीम कोर्ट
“क्या रोज रोज नई
याचिकाएं दायर करने के लिए भाजपा तुम्हें फाइनेंस करती है? क्या कोर्ट में पॉलिटिकल एक्टिविज्म को
बढ़ावा देने के लिए भाजपा तुम्हें प्रोत्साहित करती है?” उक्त तल्ख टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली
प्रदेश भाजपा के एक प्रवक्ता पर की थी, जिनकी रौजाना की पीआईएल (जनहित याचिका) दायर
करने की आदत से शीर्षतम कोर्ट भड़क उठा। ये दिन था 16 या 17 दिसम्बर 2016।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट दिल्ली भाजपा
के प्रदेश प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय के लगातार जनहित याचिका दायर करने से नाराज हो
गया। कोर्ट ने उन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “क्या यही वो काम
है जो भाजपा ने आपको दे रखा है? क्या भाजपा
आपको कोर्ट में उसका एजेंडा बढ़ाने के लिए फाइनेंस करती है?” असल में भाजपा के उक्त प्रवक्ता लगातार
सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करते रहते थे। उन्हीं की एक याचिका पर कोर्ट सुनवाई
कर रह था, जिसे कोर्ट ने तुरंत खारिज कर दिया। इसी पर सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने
टिप्पणी की कि, “आप एक पेशेवर पीआईएल एक्टिविस्ट बने हैं
और हम हर रोज आपको कोर्ट में पीआईएल दायर करते हुए देखते हैं। आपकी पार्टी सरकार में
है आपको समस्याओं के निराकरण के लिए उनसे कहना चाहिए।” कोर्ट
ने साफ कहा कि, “वह अपने यहां पॉलिटिकल एक्टिविज्म को बढ़ावा नहीं दे
सकती। हम किसी को न्यायिक व्यवस्था के सहारे पॉलिटिकल एक्टिविज्म को बढ़ावा देने की
छूट नहीं दे सकते।”
गौरतलब है कि नवम्बर 2016 में ही
बोम्बे हाईकोर्ट ने कहा था कि 80 फीसदी पीआईएल सिर्फ ब्लैक मेल करने के लिए दायर की
जाती हैं। उक्त भाजपा प्रवक्ता ने शराब को लेकर देशभर में नेशनल लिकर पॉलिसी बनाने
की मांग की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज
कर दिया।
जयललिता की मोत
पर हमें भी संदेह, उनका शव क्यों न बाहर निकाला जाए –
मद्रास हाईकोर्ट
29 दिसम्बर 2016 के दिन मद्रास
हाईकोर्ट ने तमिलनाडु की पूर्व सीएम स्व. जयललिता की मृत्यु को लेकर बड़ा तीख़ा सवाल
पूछा। जस्टिस एस वैद्यनाथन तथा जस्टिस पार्थिबान की बेंच ने जयललिता की मोत पर
संदेह व्यक्त किया। बेंच ने कहा कि उनकी मोत को लेकर हमें भी संदेह है। जयललिता की
मोत का सत्य बाहर आना चाहिए। कोर्ट ने पूछा कि उनके शव को कब्र से क्यों बाहर
निकाला न जाए? इस मामले को लेकर मद्रास हाईकोर्ट ने
तत्कालीन पीएम, राज्य सरकार, गृह-कानून व संसदीय मंत्रालय तथा सीबीआई को नोटिस
भेजा। अन्नाद्रमुक के सीआर सरस्वती ने कहा कि जयललिता की मृत्यु को लेकर तमाम
जानकारियां पारदर्शी है और उस विषय पर कुछ भी गुप्त नहीं रखा गया। कोर्ट ने कहा कि
हमने अखबारों में पढ़ा है कि सीएम का स्वास्थ्य सुधर रहा है, वो भोजन ले रहे है, कागज
पर दस्तखत कर रहे है। ऐसे में उनकी मोत अचानक कैसे हो सकती है? कोर्ट
ने कहा कि किसी रेवेन्यू विभाग के अफसर ने उनका बोडी नहीं देखा। कोई मेडिकल रिपोर्ट
नहीं है। उनकी मोत के बाद कोई सबूत तो पेश करना चाहिए। बेंच ने कहा कि मीडिया ने भी
मोत को लेकर संदेह उत्पन्न किया है। अब जनता को जानकारी होनी चाहिए कि सत्य क्या
है?
गौरतलब है कि पार्टी से
निष्काषित सांसद शशिकला पुष्पा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी और सीबीआई
जांच की मांग की थी। साउथ की सिनेमा कलाकार गौतमी ने भी तत्कालीन पीएम को पत्र
लिखकर कहा था कि जयललिता की मृत्यु संदिग्ध अवस्था में हुई है। अन्नाद्रमुक के
कार्यकर्ता पीए जोसेफ ने भी जयललिता की मृत्यु की जांच करवाने के लिए याचिका दायर
की हुई थी। वैसे भी ये किसी राज्य की मुख्यमंत्री के मोत का मामला था। स्वाभाविक
था कि इन सब विषयों को लेकर न्यायालय स्थिति को स्पष्ट करवाना चाहता था। ताकि किसी
राज्य के सीएम की मोत का मामला हमेशा संदिग्ध बना न रहे।
(इंडिया इनसाइड,
मूल लेखन 24 जुलाई 2016, एम वाला)
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