सन् 1999 का कारगिल सशस्त्र
संधर्ष। इसे अनेक द्दष्टिकोण से याद रखा जाता है। किंतु जब बात इस संघर्ष के अंतिम
परिणाम की आती है, जब बात 'ऑपरेशन विजय' की आती है, तब इस संघर्ष के नायक
वोही सैनिक हैं, जिन्होंने अपने बलिदान
और बहादुरी के दम पर भारत के सम्मान को बरकरार रखा।
यहाँ स्पष्ट कर दें
कि 'कारगिल विजय दिवस' प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई को मनाया जाता है। जबकि 'विजय दिवस' प्रत्येक वर्ष 16 दिसम्बर के दिन 1971 के युद्ध में पाकिस्तान
पर भारत की जीत के कारण मनाया जाता है।
कारगिल सशस्त्र संघर्ष
के उन द्दश्यों को भुलाया नहीं जा सकता। सेना के ट्रकों की वो लंबी लंबी कतारें, जिसमें भारत के वीर सैनिकों के पार्थिव शरीर सम्मानपूर्वक रखे
हुए होते थे। कारगिल संघर्ष, जो क़रीब 77 दिनों तक चला, जिसमें अनेक भारतीय सैनिक वीर गति को प्राप्त
हुए, अनेकों ने बहादुरी की अद्भुत मिसाल पेश की।
जिस संघर्ष में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद द्विपक्षीय युद्धों के अनुपात से देखे तो सबसे अधिक बमबारी हुई, जिस संघर्ष की तुलना विश्लेषकों ने चीन-भारत की उस जंग से की
थी। कारगिल संघर्ष, जो एक मोड़ पर उन पूर्ण युद्धों की तुलना
में अधिक मुश्किल लेकर आया था, और उस मुश्किल समय को भारतीय सेना के वीर
सैनिकों ने भारत के पक्ष में मोड़ दिया था।
कारगिल के इस सशस्त्र
संघर्ष में अनेक भारतीय सैनिकों ने अद्भुत वीर गाथाएँ लिखीं, उनमें से कुछ गाथाओं को यहाँ लिख हम तमाम वीरों को वंदन करते
हैं।
परदे के पीछे के नायक
पंकज कंवर, कारगिल के दौरान चले
ऑपरेशन डायल हार्ड का चेहरा
कर्नल पंकज कंवर इंडिया
टुडे को बताते हैं, "खुद को पाकिस्तानी की तरह बोलता पाकर मैं खुद हैरान था। पाकिस्तानियों को जरा भी
अंदेशा नहीं हुआ कि वे किसी भारतीय से बात कर रहे हैं।"
सन् 1999 के कारगिल संघर्ष
के दौरान भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियों पर सवाल उठाए गए थे। सवाल जायज थे, किंतु सौ फ़ीसदी ऐसा भी नहीं था कि एजेंसियाँ पाकिस्तानी गतिविधियों
से पूरी तरह अनजान थीं। क़रीब एक साल पहले ये एजेंसियाँ केंद्र सरकार को आगाह कर चुकी
थी। भारतीय सेना ने जब कारगिल में लड़ाई शुरू की, तो उसके पास पुरानी कही जाए ऐसी जानकारी मौजूद थी।
नयी ख़ुफ़िया जानकारी
तब जाकर थोड़ी-थोड़ी इकट्ठी होने लगी, जब एक भारतीय सैन्य अधिकारी ने पाकिस्तानी अधिकारी का भेष धरकर सीधे पाकिस्तानी
ठिकानों पर फोन घुमाया और उनकी गतिविधियों की ख़ुफ़िया जानकारी हासिल की। मई से जुलाई
1999 के बीच पंकज कंवर ने पाकिस्तानी पैदल सेना और बख्तरबंद इकाइयों में लगभग 6,000 फोन कॉल किए थे। संक्षिप्त
बातचीत के जरिए उन्होंने पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों, तैनातियों, हताहतों और उसके मनोबल के बारे में पता लगाया
था। इसीसे भारतीय सेना को अपने परमाणु शक्तिसंपन्न दुश्मन की सैन्य गतिविधियों के बारे
में पता चल सका।
कारगिल संघर्ष के दौरान
चले इस अभियान को Operation Dial Hard कहा गया। मई 1999 में मिलिट्री इंटेलिजेंस (पाकिस्तान डेस्क) में एमआई25 के प्रमुख ब्रिगेडियर
राकेश गोयल ने कंवर से, जो उस वक्त मेजर पद पर थे, पाकिस्तानी यूनिटों
में फोन कर जानकारी निकालने के लिए कहा। कारगिल की चोटियों को पाकिस्तानी हमलावरों
के कब्ज़े से मुक्त कराने के लिए भारतीय सेना Operation
Vijay पहले ही शुरू कर चुकी थी। भारतीय सेना यह जानना चाहती थी कि भारतीय हमले के जवाब
में पाकिस्तान ने ऑरबेट में क्या बदलाव किए गए हैं। एमआई के एजेंट भारी-भरकम तैनाती
के कारण सीमा पार नहीं कर पा रहे थे।
कंवर इंडिया टुडे
को बताते हैं कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना के टेलीफोन केंद्रों में दिल्ली छावनी के
भीतर स्थित एक एसटीडी बूथ से फोन लगाए थे। पहली कामयाबी मिली 4 जून, 1999 को पेशावर स्थित सैन्य
यूनिट को लगाए गए कॉल में। कंवर लिखते हैं, ''इसके बाद मैंने कभी पलटकर नहीं देखा।''
कभी 'मेजर इकबाल' बनकर, तो कभी 'मेजर हसन' बनकर, शुद्ध पंजाबी बोलते हुए वे काम करते रहे।
अनेक पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों में इन्होंने दुश्मन के ऑपरेटर को धत्ता बताते हुए
संपर्क करने में सफलता पाई और ताजा ऑरबेट जानकारी प्राप्त की।
कंवर ने पाकिस्तानी
सेना के लगभग सभी ठिकानों और यूनिटों में, यहाँ तक कि बन्नू और कोहाट जैसे पाकिस्तानी
सैन्य ठिकानों पर भी, बात करने के लिए सैन्य प्रतिष्ठानों में 'खास नागरिकों के बात
करने के लिए दिए गए कोड' का इस्तेमाल किया। कंवर या तो दफ्तर खुलने
से पहले अलस्सुबह फोन करते या फिर दोपहर बाद उस वक्त फोन करते, जब दफ्तर में अधिकारी
नहीं होते।
छोटी-बड़ी हरेक जानकारी
निकलवाने के लिए वे खुद को अलग-अलग रैंक का बताते, जैसे गैर-कमीशन अधिकारी, ड्यूटी बाबू और कनिष्ठ अधिकारी। उन्हें मिली
सफलताओं में से एक वह जानकारी थी, जिससे पता चला कि पेशावर स्थित 11वीं पलटन और क्वेटा
स्थित 12वीं पलटन को भारत के साथ लगी सीमा पर तैनात किया गया है।
कंवर ने नॉर्दर्न लाइट
इन्फेंट्री अधिकारी कैप्टन मजरूल्लाह ख़ान के लाहौर स्थित घर में भी फोन लगाया। इस
पाकिस्तानी अधिकारी का फोन नंबर भारतीय सैनिकों को कारगिल की पहाड़ियों पर स्थित एक
बंकर से मिला था। कंवर ने अपनी कोई भी बातचीत रिकॉर्ड तो नहीं की, लेकिन हर बातचीत का पूरा ब्यौरा उनकी एक फाइल में ज़रूर दर्ज
था।
हालाँकि उनके इस योगदान
के लिए उन्हें पुरस्कृत तो नहीं किया गया था, क्योंकि यह उन्हें दी गई ज़िम्मेदारी थी, जो उन्हें पूरी करनी थी। किंतु उनके इस कारनामे के दम पर ही
महत्वपूर्ण जानकारियाँ हाथ लगी, जो सैन्य बलों को ज़मीनी स्तर पर बहुत काम
आई।
तोलोलिंग की पहाड़ी
को जीतने वाले मेजर विवेक गुप्ता और दिगेंद्र कुमार
मेजर विवेक गुप्ता
(मरणोपरांत महावीर चक्र) तथा नायक दिगेंद्र कुमार (महावीर चक्र), भारतीय सेना की 2 राजपूताना राइफल्स से थे। उन्होंने कारगिल संघर्ष के समय जम्मू कश्मीर में तोलोलिंग
पहाड़ी की बर्फीली चोटी को मुक्त कराकर 13 जून 1999 की सुबह चार बजे तिरंगा फहराते हुए भारत को
प्रथम सफलता दिलाई थी।
कारगिल संघर्ष के दौरान
सबसे महत्वपूर्ण काम तोलोलिंग की चोटी पर कब्जा करना था। 2 राजपूताना राइफल्स
की एक टुकड़ी को यह काम सौंपा गया, जिसकी अगुवाई मेजर विवेक गुप्ता कर रहे थे।
जनरल मलिक ने इस टुकड़ी से तोलोलिंग पहाड़ी को मुक्त कराने की योजना के विषय में बात
की। रास्ता विकट और दुर्गम था। दिगेंद्र ने मलिक से 100 मीटर का रूसी रस्सा
माँगा, जिसका वजन 6 किलोग्राम होता है
और 10 टन वजन झेल सकता है, साथ ही रूसी कीलों की माँग की, जो चट्टानों में आसानी से ठोकी जा सकती थीं।
मेजर विवेक गुप्ता
की अगुवाई में 12 जून 1999 की शाम यह दल सैन्य साजो-सामान के साथ आगे बढ़ा। कीलें ठोकते गए और रस्से को बांधते
हुए 14 घंटे की कठोर साधना के बाद वे मंजिल पर पहुंचे। उनके साथ सूबेदार भंवरलाल भाकर, सूबेदार सुरेन्द्र सिंह राठोर, लांस नायक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमन सिंह, लांस नायक बच्चू सिंह, सीएमएच जशवीर सिंह, हवालदार सुल्तानसिंह नरवारिया थे।
पाकिस्तानी सेना ने
तोलोलिंग पहाड़ी की चोटी पर 11 बंकर बना रखे थे। कारगिल घाटी में बर्फीली हवा चल रही थी और घना अँधेरा था। दुर्गम
रास्ते और बार बार दुश्मन के गोलों के धमाकों के बीच वे पहाड़ी की सीधी चढ़ान पर बंधी
रस्सी के सहारे चढ़ने लगे और अनजाने में वहाँ तक पहुँच गए जहाँ दुश्मन मशीनगन लगाए
बैठा था। सभी पत्थरों को पकड़ कर आगे बढ़ रहे थे। अचानक दुश्मन की मशीनगन का बैरल दिगेंद्र
कुमार के हाथ लगा, जो लगातार गोले फेंकते काफी गर्म हो गया था।
सच्चाई का एहसास होते
ही उन्होंने बैरल को निकाल कर एक ही पल में हथगोला बंकर में सरका दिया, जो जोर के धमाके से फटा। दिगेंद्र का तीर सही निशाने पर लगा
था। प्रथम बंकर राख हो गया और धूं-धूं कर आग उगलने लगा। पीछे से कमांडो और आर्टिलरी
गोलों की वर्षा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। कोबरा के साथियों ने जमकर फायरिंग
की, लेकिन गोलों ने इधर से उधर नहीं होने दिया। आग उगलती तोपों का
मुहँ एक मीटर ऊपर कराया गया और वे आगे बढे। दिगेंद्र बुरी तरह जख्मी हो चुके थे। दिगेंद्र
की एलएमजी भी हाथ से छूट गई, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। प्राथमिक उपचार
कर बहते खून को रोका।
इधर सूबेदार भंवरलाल
भाकर, लांस नायक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमन सिंह अंतिम साँसें ले रहे थे। लांस
नायक बच्चन सिंह और सुल्तान सिंह राठोर बहादुरी से दुश्मन का सामना करते हुए वीर गति
को प्राप्त हो चुके थे। टुकड़ी की अगुवाई कर रहे मेजर विवेक गुप्ता दो गोलियाँ खाकर
भी डटे हुए थे। अपने साथियों को खो देने के बाद भी इन दोनों ने दुश्मनों से लोहा लिया।
मेजर विवेक गुप्ता ने दो गोलियाँ खाकर भी तीन दुश्मनों को मार गिराया और बंकर पर कब्जा
जमा लिया। वे अपनी अंतिम साँस तक लड़ते रहे और 13 जून को वीर गति को प्राप्त हुए।
इधर दिगेंद्र कुमार
ने एक से ज़्यादा बंकरों में 18 हथगोले फेंके। तभी मेजर अनवर खान अचानक सामने आ गया। दिगेंद्र ने छलांग लगाई और
अनवर खान पर झपट्टा मारा। दोनों लुढ़कते-लुढ़कते काफी दूर चले गए। दिगेंद्र जख्मी थे, पर मेजर अनवर खान के बाल पकड़ कर डायगर सायनाइड से गर्दन काटकर
भारत माता की जय-जयकार की। 13 जून 1999 वह दिन था, जब तोलोलिंग की पहाड़ी पर सुबह चार बजे तिरंगा
लहरा रहा था।
खालूबार का योद्धा
परमवीर मनोज कुमार पांडेय
कैप्टन मनोज कुमार
पांडेय भारतीय सेना के अधिकारी थे, जिन्हें सन 1999 में मरणोपरांत परमवीर
चक्र से सम्मानित किया गया था। वे उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के रूधा गाँव से आते
थे।
एनएसए में प्रशिक्षण
के पश्चात वे बतौर एक कमीशन्ड ऑफिसर ग्यारह गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में तैनात
हुए। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए
भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। सबको चिंता हो रही थी। जब वह दो दिन के बाद
वापस आए, तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देरी का
कारण पूछा। उन्होंने जवाब दिया, "हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।"
सियाचिन में 'बाना चौकी' या फिर 'पहलवान चौकी' की सामने से माँग करने वाले मनोज लंबे समय तक पहलवान चौकी
पर रहे। पाकिस्तान के साथ कारगिल संघर्ष के दौरान कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार
का था। खालूबार टॉप सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण इलाका था। वो पाकिस्तान के लिए एक
तरह का 'कम्यूनिकेशन हब' भी था। खालूबार भारत के हाथ फिर आ जाता तो
पाकिस्तानियों के दूसरे ठिकाने कठिनाई में पड़ सकते थे और उनको रसद पहुंचाने और दूसरे
कामों में बाधा आ सकती थी। खालूबार मिशन पूरी लड़ाई का रुख बदल सकता था।
खालूबार को फ़तह करने
का काम कर्नल ललित राय को सौंपा गया। इस टुकड़ी में मनोज पांडेय अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की
अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गए। 2900 फ़ीट प्रति सेकेंड की रफ़्तार से आतीं मशीन गन की गोलियाँ, तोपों के गोले, रॉकेट लाँचर और ग्रेनेड के घमाकों के बीच
ये जवान ऊपर की तरफ बढ़ते रहे। इस बीच कर्नल ललित राय ने जवानों को दो टुकड़ियों में
बाँट दिया और एक टुकड़ी की अगुवाई सोंप दी कैप्टन मनोज पांडेय को, जिन्हें चार बंकरों पर कब्जा करने का काम सोंपा गया।
कर्नल ललित राय बीबीसी
को कहते हैं कि कैप्टन मनोज पांडेय ने सेकेंड के लिए भी कोई झिझक नहीं दिखाई और रात
के अँधेरे में कड़कती ठंड और भयानक 'बंबार्डमेंट' के बीच ऊपर चढ़ते गए और जीत कर ही माने। ऊपर
पहुंचकर पता चला कि वहाँ चार नहीं किंतु छह बंकर हैं, और हर बंकर से दो दो मशीनगनें गोलियाँ बरसा रही थीं। मनोज पांडेय
ने अकेले अभूतपूर्व बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए तीन बंकरों को ध्वस्त कर दिया और
चौथे बंकर को हथियाने की कोशिश करते समय उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
वे 24 वर्ष की जिंदगी जी
कर देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए। कारगिल संघर्ष में असाधारण बहादुरी
के लिए उन्हें सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया।
ये दिल मांगे मोर...
शेरशाह परमवीर विक्रम बत्रा
"तिरंगा फहराकर आऊँगा, या तिरंगे में लिपट कर आऊँगा, लेकिन आऊँगा ज़रूर"... कारगिल संघर्ष का सीधा हिस्सा बनने
से पहले अपने दोस्तों को यह बोलकर घर से निकलने वाले विक्रम जब तिरंगे में लिपटकर लौटे, तब वे सिर्फ विक्रम नहीं रहे थे, वे शेरशाह विक्रम बत्रा थे, वे कैप्टन विक्रम बत्रा थे।
विक्रम बत्रा, भारतीय सेना के एक अधिकारी, जिन्होंने कारगिल संघर्ष में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति को प्राप्त
किया। उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया
गया।
हिमाचल प्रदेश के पालमपुर
निवासी विक्रम बत्रा गैरसैनिक परिवार से थे। होंगकोंग में भारी वेतन के साथ मिल रही
मर्चेन्ट नेवी की नौकरी को ठुकरा कर वे भारतीय सेना का हिस्सा बने। दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर
नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली।
उनकी टुकड़ी को कारगिल
में बतौर रिजर्व फोर्स भेजा गया था। किंतु फिर हालात ऐसे हो गए कि इन्हें श्रीनगर-लेह
मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त कराने का जिम्मा दिया गया। इन्हें कोड नेम दिया गया
- शेरशाह। विक्रम बत्रा को जब अपना विजय उद्घोष पसंद करने के लिए कहा गया तो इन्होंने
तत्काल कहा - "यह दिल माँगे मोर।" कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय के
जोशी की आँखें और चेहरा विस्मय से भरा था। विक्रम बत्रा ने उनसे कहा, "मैं वहीं से रूकना नहीं चाहता, मैं चाहता हूँ कि मुझे इससे आगे भेजा जाए।"
बेहद दुर्गम क्षेत्र
होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ अद्भुत कौशल और वीरता का परिचय
देते हुए 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो
के जरिए अपना विजय उद्घोष "यह दिल मांगे मोर" कहा तो सेना ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया।
इसी दौरान विक्रम 'शेरशाह विक्रम' बन गए। उन्हें 'कारगिल का शेर' की संज्ञा दी गई। चोटी 5140 को सफलतापूर्वक वापस
लेने के अभूतपूर्व कार्य के चलते बीच लड़ाई में ही, उसी जगह उन्हें पदोन्नति दी गई और वे अब 'कैप्टन विक्रम बत्रा' बन गए। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के
साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया, तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा।
इसके बाद सेना ने चोटी
4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। यह पिछले अभियान से अधिक कठिन और
अधिक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इसकी भी बागड़ोर कैप्टन विक्रम बत्रा को सौंपी गई। उन्होंने
जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत
के घाट उतारा। मिशन लगभग पूरा हो चुका था।
तभी लेफ्टिनेंट जख्मी
हो गए। एक विस्फोट में लेफ्टिनेंट का पैर बुरी तरह से जख़्मी हो गया। अपनी जान की परवाह
न करते हुए कैप्टन बत्रा अपने कनिष्ठ अधिकारी को बचाने के लिये लपके। जब बत्रा भारी
गोलीबारी के बीच लेफ्टिनेंट को पीछे घसीट रहे थे, तभी उनकी छाती में गोली लगी। उनके पैर लड़खड़ाने लगे और फिर वे पाकिस्तानी सैनिक
के सीधे निशाने पर आ गए। वे वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन तब तक यह चौटी भी भारतीय
सेना अपने नियंत्रण में ले चुकी थी।
तिरंगा फहरा कर आऊँगा, या तिरंगे में लिपट कर आऊँगा, लेकिन आऊँगा ज़रूर – यह कह घर से निकलने वाले विक्रम बत्रा तिरंगे में लिपट कर भी आए, और तिरंगे को फहरा कर भी। अपने अदम्य साहस और पराक्रम के लिए
कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को मरणोपरांत परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया।
परमवीर राइफल मैन संजय
कुमार, खून से लथपथ थे फिर
भी आगे बढ़े और पाकिस्तानियों को उन्हीं के हथियार से दी थी मात
राइफल मैन संजय कुमार
जम्मू-कश्मीर राइफल्स की 13वीं बटालियन के सदस्य थे। उन्होंने 16,000 फीट की ऊंचाई की एक महत्वपूर्ण पॉइंट पर दोबारा कब्जा करने में अहम भूमिका निभाई
थी। इस दौरान उन्होंने अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प का परिचय दिया था।
4 जुलाई 1999 को राइफल मैन संजय कुमार जब चौकी नंबर 4875 पर हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ने ओटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी
शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में गम्भीरता को देखते
हुए राइफल मैन संजय कुमार ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक हमले से खामोश करा दिया
जाए।
इस इरादे से संजय कुमार
ने यकायक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानियों को मार गिराया
और उसी जोश में गोलाबारी करते हुए दूसरे ठिकाने की ओर बढ़े। संजय इस मुठभेड़ में खुद
भी लहू लुहान हो गए थे, लेकिन बेपरवाह होकर वो दुश्मन पर टूट पड़े।
अचानक हुए इस हमले से विपक्षी खेमा हैरान था और भगदड़ मच गई। इस भगदड़ में संजय कुमार
ने दुश्मन की यूनीवर्सल मशीनगन हथिया ली और उसी हथियार से हमले को और तेज कर दिया।
जख्मी होने के बावजूद
संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे, जब तक कि प्वाइंट फ्लैट टॉप पाकिस्तानियों से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। उनके
इस अद्भुत पराक्रम के लिए उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया। भारतीय इतिहास में अब तक
यह सम्मान सिर्फ 21 सैनिकों को ही प्राप्त हुआ है। बड़ी बात है कि राइफल मैन संजय कुमार उन सात जांबाजों
में शामिल हैं, जिनकी जिंदगी में ही परमवीर चक्र मिला है, बाकी 14 योद्धाओं को युद्धभूमि में सर्वोच्च बलिदान के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया
गया है।
कैप्टन सौरभ कालिया
तथा पूरी पेट्रोलिंग टीम, जिन्हें पाकिस्तान ने बंदी बना लिया और प्रताड़ना देकर सबके
प्राण लिए
कैप्टन सौरभ कालिया, भारतीय थलसेना के अफ़सर, तथा उनकी पूरी पेट्रोलिंग टीम, जो कारगिल संघर्ष के समय पाकिस्तानी सिक्योरिटी फोर्सेज़ द्वारा
बंदी बनाए गए और फिर सबको बुरी तरीके से प्रताड़ित कर मार दिया गया। सेना ज्वाइन किए
हुए बस चार महीने ही हुए थे सौरभ कालिया को। परिवार ने तो अपने लाड़ले को यूनिफॉर्म
में देखा ही नहीं था। किंतु जब वो घर लौटा तो तिरंगे में लिपटकर लौटा, और पूरा देश नम आँखों से इन्हें सैल्यूट कर रहा था।
इन्हीं के बलिदान से
कारगिल सशस्त्र संघर्ष की इबारत लिखी गई थी। 4 जाट रेजिमेंट से आने वाले ले. सौरभ कालिया अपने पाँच जवानों (सिपाही अर्जुन राम, भंवर लाल बगरिया, भीका राम, मूला राम व नरेशसिंह) के साथ 14 मई को पेट्रोलिंग पर निकले थे। उस वक्त कुछ स्थानीय लोगों ने भारतीय सेना को ऊंची
चोटियों पर हथियारों से लैस घुसपैठियों को देखने की बात पहुंचा दी थी। जब सौरभ कालिया
बजरंग चोटी पर पहुंचे तो उन्होंने वहाँ हथियारों से लैस पाकिस्तानी सैनिकों को देखा।
कैप्टन कालिया की टीम
के पास न तो बहुत हथियार थे, न अधिक गोला बारूद। साथ में सिर्फ पाँच जवान
थे। कारगिल संघर्ष पूरी तरह से शुरू भी नहीं हुआ था और ना किसीको घुसपैठ की पुख़्ता
जानकारी थी। ये टीम एक स्थानीय की ख़बर के बाद पेट्रोलिंग के लिए निकली थी। दूसरी तरफ
पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा थी और गोला बारूद भी। बजरंग पोस्ट पर कब्जा
कर बैठे हुए घुसपैठियों का ले. कालिया और उनकी टीम ने मुकाबला किया। किंतु गोला-बारूद
खत्म होने पर वे दुश्मन की गिरफ्त में आ गए।
उन्हें कैद कर लिया
गया और 22 दिनों तक दुश्मन इन्हें बेहिसाब दर्द देता रहा। सभी की बर्बरतापूर्ण हत्या कर
दी गईं। पाकिस्तान ने अमानवीयता की भी सारी हदें पार कर दी थीं। कैप्टन सौरभ कालिया
का शव जब वापस भारत आया, तब परिवार वालों को हिदायत देनी पड़ी कि वे
अपने लाड़ले का चेहरा न देखे। इन्हें बर्बरतापूर्ण तरीके से मारा गया था, असीम यातनाएँ दी गयीं थीं। पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रताड़ना
के समय इनके कानों को गर्म लोहे की रॉड से छेदा गया, आँखें फोड़ दी गयीं और अंग काट दिए गए। पाकिस्तान ने जब उनका पार्थिव शरीर भारतीय
सेना को लौटाया, तब वह काफी क्षत-विक्षत अवस्था में था।
स्क्वाड्रन लीडर अजय
आहूजा और फ्लाइट लेफ्टिनेंट के. नचिकेता
कारगिल संघर्ष के दौरान
पाकिस्तानी सैनिक और घुसपैठिए ऊंची चोटियों पर जमे हुए थे और लड़ाई के द्दष्टिकोण से
अच्छी स्थिति में थे। भारतीय सेना को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा था। हालात ख़राब होते
जा रहे थे। बिगड़ती स्थिति के बीच भारतीय वायु सेना से मदद माँगी गई।
27 मई को स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा और के. नचिकेता मिग 21 विमानों से Operation
Safed Sagar का हिस्सा बन कर संघर्ष क्षेत्र में उड़ान भर रहे थे। तकनीकी
खराबी की वजह से के. नचिकेता को आपात स्थिति में विमान से इजेक्ट करना पड़ा। स्क्वाड्रन
लीडर अजय आहूजा ने फ़ैसला लिया कि वे वापस नहीं जाएँगे और अपने साथी को ढूढेंगे।
नचिकेता की स्थिति
का पता लगाने के लिए अजय आहूजा ने नीची उड़ान भरने का फ़ैसला किया। मगर उनका फाइटर जैट
दुश्मन द्वारा दागी गई स्ट्रिंगर मिसाइल का शिकार हुआ। अजय आहूजा पैराशूट से कूद गए।
उतरते समय भी शत्रुओं ने उन पर गोलीबारी जारी रखी। अजय आहूजा की मृत्यु को कोल्ड ब्लडेड
मर्डर करार दिया गया। कहते हैं कि पाक सैनिकों ने उन्हें तब तक गोलियाँ मारीं, जब तक
कि वो मर नहीं गए थे। वे वीर गति को प्राप्त हुए। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित
किया गया।
उघर फ्लाइट लेफ्टिनेंट
नचिकेता को रावलपिंडी की जेल में डाल दिया गया। इन्हें असीम यातनाएँ दी गईं, अनेक अत्याचार किए गए। बकौल नचिकेता, एक पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी के नियंत्रित व्यवहार की वजह से
पाक सेना ने इन्हें जान से नहीं मारा। भारत, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मीडिया
के दबाव के चलते उन्हें पाकिस्तान में रेड क्रॉस सोसाइटी की अंतरराष्ट्रीय समिति के
हवाले कर दिया गया। बाद में उन्हें 3 जून 1999 के दिन अटारी बॉर्डर के रास्ते वापस लाया गया। देश के प्रति अपनी उत्कृष्ट सेवा
के लिए इन्हें वायु सेना गैलेंट्री पदक से नवाजा गया।
12 से भी ज़्यादा गोलियाँ
खाकर लड़ते रहे परमवीर योगेंद्र सिंह यादव
सर्वोच्च सैन्य सम्मान
परमवीर चक्र से सम्मानित ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव, जिनके पास शादी के महज 15 दिन बाद, 20 मई 1999 को बॉर्डर पहुंचने का फरमान पहुंचा, तो घर में सब हैरान रह गए। देश में दुश्मनों
ने घुसपैठ कर दी थी और कारगिल सेक्टर में सशस्त्र संघर्ष शुरू हो चुका था।
योगेंद्र सिंह यादव
को 22 जून 1999 को कश्मीर घाटी से सटी तोलोलिंग पहाड़ी पर भेजा गया, जहाँ दिनों तक देश के दुश्मनों से लड़ाई चली। इस दौरान 22 जवान वीर गति को प्राप्त
हुए। 13 जुलाई 1999 की सुबह के समय तोलोलिंग घाटी को फतह कर लिया गया।
इसके बाद आठ जवानों
की 'घातक प्लाटून' को टाइगर हिल फतह करने का टास्क मिला, जिसमें योगेंद्र सिंह शामिल थे। भारतीय सैनिक
बर्फीले तूफान के बीच चल रहे थे, जबकि दुश्मन पहाड़ के ऊपर बैठा था। तीन दिन
और दो रात तक पहाड़ी पर चलने के बाद अंधेरी रात में दुश्मनों ने फायरिंग शुरू कर दी।
योगेंद्र सिंह ने आठ दुश्मनों को मार गिराया। दो दुश्मन घायल होकर बैक अप के साथ वापस
आए और दोबारा हमला किया, जिसमें सात भारतीय सैनिक वीर गति को प्राप्त
हुए। योगेंद्र सिंह को भी गोलियाँ लगी थीं, बावजूद इसके उन्होंने एक ग्रेनेड दुश्मन की
टोली पर फेंका, जिससे विपक्ष हताहत हो गया। फिर वे इसी हालत
में नीचे आए और सबको बताया। बाद में टाइगर हिल के टॉप पर हमला करके उसे अपने कब्जे
में ले लिया गया।
सैनिक अस्पताल में
योगेंद्र सिंह के शरीर से 12 से ज़्यादा गोलियाँ निकली थीं। उन्हें अपनी वीरता के लिए सर्वोच्च सैन्य सम्मान
परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। जब योगेंद्र सिंह ने कारगिल की वो लड़ाई लड़ी, तब वे महज 19 साल के थे।
इन रणबाँकुरों ने भी
अपने परिजनों से वापस लौटकर आने का वादा किया था
कारगिल के इस सशस्त्र
संघर्ष में अनेक भारतीय सैनिक वीर गति को प्राप्त हुए थे, उनमें से कुछ की गाथा यहाँ लिख हम तमाम वीरों को वंदन करते हैं।
17 जाट रेजिमेंट के बहादुर कैप्टन अनुज नायर टाइगर हिल सेक्टर की एक महत्वपूर्ण
चोटी 'वन पिंपल' की लड़ाई में अपने 6 साथियों के सर्वोच्च
बलिदान के बाद भी मोर्चा संभाले रहे। गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी उन्होंने अतिरिक्त
मदद आने तक अकेले ही दुश्मनों से लोहा लिया, जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय सेना इस सामरिक
चोटी पर भी वापस कब्जा करने में सफल रही। इस वीरता के लिए कैप्टन अनुज को मरणोपरांत
भारत के दूसरे सबसे बड़े सैनिक सम्मान 'महावीर चक्र' से नवाजा गया।
कैप्टन विजयंत थापर ने तोलोलिंग पर कब्जा
करने के अभियान में अपना योगदान दिया था। इन्होंने ही 13 जून 1999 को तोलोलिंग की पहाड़ियों
पर जीत का झंडा फहराया था। ये जीत कारगिल के दौरान एक निर्णायक लड़ाई साबित हुई। तोलोलिंग
की जीत के बाद 28 जून को कैप्टन विजयंत थापर को 'थ्री पिंपल्स' नाम की पहाड़ी को पाकिस्तानियों के कब्जे
से आज़ाद कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। बेहद मुश्किल हालात में लड़ी गई इस लड़ाई
में कैप्टन विजयंत ने दुश्मनों के ख़िलाफ बेमिसाल बहादुरी दिखाई और देश के लिए सर्वोच्च
बलिदान देकर अमर हो गए। उनके अदम्य साहस के लिए उन्हें 26 जनवरी 2000 को 'मरणोपरांत वीर चक्र' से सम्मानित किया
गया।
कारगिल में पाकिस्तानी
सेना के होने का सीधा प्रमाण दिया 1 बिहार के जाँबाज अधिकारियों तथा जवानों ने। 29 मई को मेजर सर्वानन और उनके 15 जवानों ने पॉइंट 4268 पर आक्रमण किया। यह
लड़ाई आमने-सामने की थी। दुश्मन द्वारा जबरदस्त गोलाबारी के बीच मेजर सर्वानन ने गंभीर
रूप से घायल होने पर भी दुश्मन के बंकर पर कब्जा कर लिया। भीषण लड़ाई में मेजर सर्वानन
वीर गति को प्राप्त हुए और उन्हें 'मरणोपरांत वीर चक्र' से सम्मानित किया गया।
मेजर सर्वानन के सर्वोच्च
बलिदान के तुरंत बाद नायक गणेश प्रसाद ने मोर्चा संभ्हाला और नीचे से अतिरिक्त
मदद आने तक दुश्मन से कब्जाए हुए बंकर की रक्षा करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। उन्हें
'मरणोपरांत वीर चक्र' से सम्मानित किया
गया। अपने साथियों के शव निकालने गए नायक शत्रुघ्न सिंह को भी गोली लगी, पर
उन्होंने दुश्मन की एलएमजी पर कब्जा कर अनेक दुश्मनों को ढेर कर दिया। उन्होंने मारे
गए एक पाकिस्तानी सैनिक की जेब से पाकिस्तान के महत्वपूर्ण सैन्य दस्तावेज हासिल कर
अधिकारियों को दिए।
कारगिल संघर्ष के दौरान
मंडी ज़िला के नौजवान सैनिकों की कुर्बानियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा
सकता है कि जून और जुलाई माह में हर तीसरे-चौथे दिन बाद दुश्मन से लड़ते हुए वीर गति
को प्राप्त हुए जवानों के पार्थिव शरीर यहाँ आते रहे।
वीरता और बलिदान की
यह फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती। 2 राजपूत राइफल्स के मेजर पद्मपाणि आचार्य (महावीर चक्र, मरणोपरांत), 18 ग्रेनेडियर्स की घातक कंपनी के ले. बलवान सिंह (महावीर चक्र), लद्दाख स्काउट्स के मेजर सोनम वांगचुक (महावीर चक्र), 12 जेके लाइट इंफेंट्री के ले. कीशिंग क्लिफ़ोर्ड नोंग्रम (महावीर चक्र, मरणोपरांत) सहित भारतीय
सेना के अनेक बहादुर सैनिकों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया, जिनके दम पर हम हर साल 'कारगिल विजय दिवस' मनाते हैं।
अनेक रणबाँकुरों ने अपने परिजनों से वापस लौटकर आने का वादा किया था, जो उन्होंने निभाया भी, मगर उनके आने का अंदाज निराला था। वे लौटे, मगर लकड़ी के ताबूत में। उसी तिरंगे में लिपटे हुए, जिसकी रक्षा की सौगंध उन्होंने उठाई थी। जिस राष्ट्रध्वज के
आगे कभी उनका माथा सम्मान से झुका होता था, वही तिरंगा मातृभूमि के इन बलिदानी जाँबाजों से लिपटकर उनकी गौरव गाथा का बखान
कर रहा था।
(इंनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)
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