भक्त, लठैत या फैंस जैसी प्रजातियों के लिए यह जो भी हो,
लंबी-चौड़ी चर्चा के बाद यह मसला राजनीतिक ज्यादा, कानूनी या संवैधानिक कम दिखता
है। “सीबीआई – ममता और मोदी” नाम के इस शर्मसार करनेवाले चैप्टर में कानून है, संविधान भी
है। लेकिन कानून और संविधान, दोनों ही राजनीति के वो रेनकोट हैं, जिसको पहनकर दोनों नहा रहे हैं। दोनों पक्ष कानून, संविधान और लोकतंत्र बचाओ के खोखले नारे लगा रहे हैं,
लेकिन लठैत प्रजाति के अलावा सभी को पता है कि दरअसल दोनों मिलकर कानून, संविधान और
लोकतंत्र की फुल टू वाट लगा रहे हैं।
इस संस्करण में नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी, दोनों की
कार्यशैली के साथ साथ हमारी राजनीति तथा उस राजनीति की बंदर समान लठैत प्रजाति पर
सवाल उठाया गया है। सीधा सा है कि चिंताएँ उन्हीं की जायज है जो हर मामलों में चिंतित
हो। चिंतित होने में भी चॉइस होने लगे तो फिर चिंता करने की शैली ही स्वयं देश के
लिए चिंतित होने की वजह मानी जा सकती है। यहां किसी को बचाने की कोशिशें नहीं है,
बल्कि ममता बनर्जी और नरेन्द्र मोदी, दोनों पक्षों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश है
यह नोट कर ले। इस प्रयास में पूरी संभावना यह भी है कि आर्टिकल लिखनेवाले को ही
कांग्रेसी-आपिया या पापिया कहा जाए। ऐसे कुतर्की प्रयासों के राजनीतिक इश्क के
बारे में हम पहले ही लिख चुके हैं।
सीबीआई-ममता
और मोदी नाम के इस चैप्टर के मुख्य किरदार शारदा चिटफंड घोटाले की बात सबसे पहले कर
लेते हैं। कुछ लठैत शारदा चिटफंड को लेकर हो-हल्ला करते हैं, तो कुछ व्यापमं को
लेकर। ये जो लठैत है, इन सबकी लंपटता ही इतनी लंपट है कि जो शारदा चिटफंड को लेकर
हो-हल्ला करते हैं वो व्यापमं को लेकर चुप होते हैं और जो व्यापमं को लेकर फेफड़े फाड़ते हैं वो शारदा चिटफंड को लेकर मौन धारण कर लेते हैं!!! दरअसल, हमें इस चैप्टर में ऊपर ऊपर जो कानून या संविधान का छाता है, उसको हटाकर इसके नीचे जो रंग बिरंगी दाल
है उसको लेकर ही आगे बढ़ना है। क्योंकि लठैतों की दुनिया उनको मुबारक हो। हम तो हर
मसले को उसी तरह देखेंगे, जैसा वो है। भारत की बात है तो भारतीय बनकर करेंगे।
किसीके लठैत बनकर नहीं।
दोनों पक्ष भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन पर उतरे हैं, दोनों कानून की रक्षा करना चाहते हैं,
तो फिर देख ही लेते हैं कि इनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है।
मध्यप्रदेश के व्यापमं जैसी है शारदा चिट फंड घोटाले की कहानी, व्यापमं की तरह इस घोटाले में भी हो चुकी है 50 से ज्यादा मौतें
लठैत प्रजाति के
लोग आहत हो सकते हैं कि शारदा चिटफंड की बात है तो फिर व्यापमं क्यों? शारदा चिटफंड की ही क्यों नहीं? उधर सामने वाले लठैत कहेंगे कि शारदा चिटफंड और व्यापमं को एकसरीखा क्यों
बताया? वो इसलिए, क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों और उनके लठैतों की ‘लंपटता’ बड़ी मशहूर है हमारे यहां!
शारदा चिटफंड
घोटाले की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अभी तक इस मामले में शारदा के एजेंट समेत 50 से ज्यादा लोगों के शव संदिग्ध परिस्थितियों में मिल चुके
हैं। बिल्कुल उसी व्यापमं घोटाले की तरह, जहां संदिग्ध परिस्थितियों में मरनेवालों की
तादाद 40 के पार पहुंची थी। शारदा चिटफंड घोटाले के प्रमुख आरोपियों में शामिल
कुणाल घोष भी आत्महत्या का प्रयास कर चुके हैं। कुणाल घोष सत्तारूढ़ टीएमसी के
सांसद रहे हैं। बाद में घोटाले में नाम आने के बाद पार्टी ने उन्हें निलंबित कर
दिया था।
शारदा चिटफंड
घोटाला मध्यप्रदेश के व्यापमं की तरह ही मौत का कुआं है। करीब 4 हज़ार करोड़ रुपये
से अधिक के शारदा चिटफंड की कहानी मध्यप्रदेश के व्यापमं घोटाले से मिलती-जुलती है। व्यापमं घोटाले में कथित तौर पर करीब
40 लोगों के शव संदिग्ध परिस्थितियों में मिले थे। ये ऐसे लोग थे जो व्यापमं से
जुड़े थे और कथित तौर पर घोटाले के अंदर की कहानी जानते थे। आरोप लगा कि घोटाले का
राजफ़ाश न हो, इसलिए इन्हें रास्ते से हटा दिया गया। ठीक इसी तरह शारदा घोटाले
में भी कंपनी के कई एजेंट और अन्य महत्वपूर्ण लोगों के शव मिले थे। हालांकि कई
एजेंट के बारे में कहा गया कि उन्होंने ग्राहकों के दबाव में सुसाइड किया, लेकिन यह भी आरोप
लगे कि ये सभी शारदा घोटाले के 'राजदार' थे और काफी कुछ जानते थे, इस वजह से उन्हें रास्ते से हटा दिया गया।
उधर व्यापमं घोटाला
भारतीय राज्य मध्यप्रदेश से जुड़ा प्रवेश एवं भर्ती घोटाला था, जिसके पीछे कई नेताओं, वरिष्ठ अधिकारियों
और व्यवसायियों का हाथ होने की बातें सामने आई थी। तत्कालीन सीएम शिवराज सिंह का
नाम भी बहुत उछला। यहां 40 से ज्यादा लोगों की संदिग्ध मौतें हुई, जिस पर मध्यप्रदेश
भाजपा के नेता ने कह दिया था कि लोग तो रोज मरते रहते हैं, ज़रूरी नहीं कि व्यापमं की
वजह से मरे हो!!! इधर शारदा घोटाले की ज़द में सिर्फ बंगाल ही नहींं बल्कि पड़ोसी उड़ीसा और असम के लोग भी आए थे। 34 गुना ज्यादा पैसा वापस करने के वादे का साथ क़रीब 10
लाख लोगों से पैसे लिए गए। जिसमें बाद में कंपनी लोगों के पैसे लेकर फरार हो गई।
इस घोटाले में पश्चिम बंगाल
में सत्तारूढ़ टीएमसी के कई नेताओं का नाम सामने आया और उन्हें जेल तक जाना पड़ा।
टीएमसी के नेताओं को ही इस घोटाले का मुख्य सूत्रधार भी कहा गया। हालांकि ममता
बनर्जी लगातार इससे इनकार करती रही, ठीक वैसे जैसे व्यापमं में शिवराज सिंह इनकार करते रहे। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सीबीआई जांच का आदेश दिया
था।
व्यापमं घोटाला
मुख्यत: मध्यप्रदेश से
जुड़ा हुआ घोटाला है। शारदा चिटफंड घोटाला उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से जुड़ा है। अप्रैल
2010 में पश्चिम बंगाल सरकार की आर्थिक अपराध जांच शाखा के निदेशक ने सेबी को
घोटाले की सूचना दी थी। बंगाल सरकार ने रिटायर्ड जस्टिस श्यामल सेन की अध्यक्षता में
एक जांच समिति बना दी। जांच समितियों का इतिहास जगजाहिर है यह तथ्य भी जेहन में रखें।
9 मई 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच का काम सीबीआई को सौंप दिया। उड़ीसा में
बिना लाइसेंस के चल रही 44 ऐसी कंपनियों के खिलाफ जांच के आदेश दिए थे। सीबीआई के
अलावा, बंगाल, असम और उड़ीसा की पुलिस को भी जांच के आदेश दिए। कहा था कि राज्य पुलिस संघीय
एजेंसी की मदद करती रहे।
मई 2014 के अपने
फैसले में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने लिखा था कि अभी तक जो
जांच हुई है उससे सेबी, रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज और रिज़र्व बैंक के अधिकारियों की भूमिका संदिग्ध नज़र आती
है। उस पहलू पर क्या हुआ इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। क्या सुप्रीम कोर्ट इस केस की मॉनिटरिंग कर
रहा है? क्या उसके आदेश से सीबीआई की टीम
कोलकाता गई? ऐसा होता तो सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कह दिया होता कि हुज़ूर हम तो आपका ऑर्डर लेकर गए थे। जून 2016 में सीबीआई ने इस
केस के संबंध में 46 एफआईआर दर्ज की थी। 43 एफआईआर उड़ीसा में दर्ज हुई और 3 बंगाल
में। एफआईआर में शारदा समूह के अधिकारियों के अलावा तृणमूल सांसद कुणाल घोष का नाम
था। पश्चिम बंगाल के पूर्व पुलिस प्रमुख रजत मजूमदार, संधीर अग्रवाल, सहित कई लोगों के
नाम थे और गिरफ्तार भी हुए थे।
यह भ्रष्टाचार से लड़ने की जिद होती तो ममता और मोदी, दोनों के घरों में इतने अपराधी
नेता भरे पड़े ना होते, दोनों के यहां जो घोटाले हुए उसके नतीजे आ चुके होते, न्याय
के लिए लोग तरस नहीं रहे होते
यह मानने में कोई
बुराई नहीं है कि ममता सरकार ने शारदा चिटफंड घोटाले की कार्रवाई में ढिलाई बरती थी।
कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने उस जांच की प्रशंसा कर दी थी, लेकिन पूर्व सीजेआई
टीएस ठाकुर की टिप्पणी याद नहीं की जा रही। टीएमसी के बड़े बड़े नेताओं को उदाहरण स्थापित किया जा सकें ऐसी सजा अब तक तो नहीं मिली है। उधर गुजरात हो, राजस्थान हो
या मध्यप्रदेश हो, भाजपा शासित सरकारों के घरों में भी यही हाल है। सिक्के के इन दो
पहलूओं का ज़िक्र क्यों नहीं हो सकता? ममता कैबिनेट हो या केंद्र का मोदी कैबिनेट, दोनों के बारे में एडीआर के रिपोर्ट
क्यों महत्व नहीं रख सकते?
ममता बनर्जी कहती
है कि शारदा चिटफंड घोटाला उनकी सरकार बनी उससे पहले हुआ था। ममता दीदी के इस दावे
के सामने पूछा जा सकता है कि तो फिर आपकी पार्टी के इतने बड़े बड़े नेता इसमें क्यों
घिरे? क्या आपकी पार्टी के नेता और पूर्व
सरकार, दोनों का कोई मेलजोल रहा था? 50 के करीब लोग संदिग्ध अवस्था में मारे गए, लाखों लोगों की कमाई डूब गई, जांच
में ढिलाई बरती गई, बड़ी मछलियां बच गई... ये सब सच क्यों नहीं हो सकता? व्यापमं और शारदा चिट फंड, दोनों में समानताएँ है उसका ज़िक्र तो होना ही चाहिए।
यह समझने के लिए कि दोनों भ्रष्टाचार के सामने सचमुच लड़ते तो हालात यह नहीं होते। चिटफंड
घोटाले केवल पश्चिम बंगाल का सिरदर्द नहीं है, ये लगभग तमाम राज्यों में हो चुकी गंभीर वारदाते हैं। याद करिए पर्ल एग्रोटेक कारपोरेशन लिमिटेड वाला ताज़ा घोटाला, जिसमें 2
फरवरी 2019 को दिल्ली में एक आंदोलन भी हुआ था। 5 करोड़ 60 लाख लोगों की बचत इसमें
किसीने उड़ा ली है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2 फरवरी 2016 को आदेश भी दिया था।
कुछ नहीं हुआ तो ये लोग दिल्ली में जमा हुए। 49,100 करोड़ और 5 करोड़ 60 लाख लोगों का
मामला है यह। सभी को संविधान ही बचाना था तो फिर इन सबने इन घोटालों पर अब तक किया
है क्या? कुर्सी पर खतरा मंडराने लगे तभी इन्हें संविधान याद क्यों आता है?
इश्क वाले अंधे
होते हैं, नागरिकों को तो सीधा दिखता है कि जितनी काली दाल ममता की है, उतना ही काला काजल
मोदी सरकार की कोठरी में भी है। क्या सीबीआई की कार्रवाई भ्रष्टाचार या घपलों से
लड़ने की किसी सरकारी चिंता का नतीजा है, या वह एक विपक्षी नेता का बाजू मरोड़ने की कोशिश है? अगर वाकई बीजेपी सरकार
को शारदा घोटाले की फ़िक्र होती, तो वह कम से कम मुकुल रॉय को अपनी पार्टी में शामिल नहीं करती, जो इस घोटाले के
मुख्य आरोपियों में से एक है। उन पर जब एफआईआर हो चुकी थी, तब उन्हें पार्टी
में शामिल किया गया और रविशंकर प्रसाद और कैलाश विजयवर्गीय जैसे वरिष्ठ नेताओं की
मौजूदगी में शामिल किया गया!!! यही नहीं, अमित शाह से उनकी मुलाकात भी कराई गई!!! क्या पार्टी को यह पूछना नहीं चाहिए था
कि शारदा घोटाले में लिप्त होने के आरोप से घिरने के बावजूद मुकुल रॉय उसके
साफ-सुथरे घर में घुसने की कोशिश कैसे कर रहे है? मोदी सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का यह कैसा तरीका है कि
आरोपी को ही पार्टी में शामिल कर लो!!! अब मुकुल रॉय गाहे-बगाहे बोल रहे हैं कि मेरा
नाम एफआईआर में नहीं था, मैं आरोपी नहीं था, मैं गवाह था!!! जब उनका नाम एफआईआर में था तो
अब वे कैसे कह जाते हैं कि उनका नाम एफआईआर में नहीं था? ममता झूठी है तो क्या उनका नेता झूठा नहीं है? उनका नेता झूठ बोल रहा है तो राजनाथ या रविशंकर क्यों चुप है? क्या उनका झूठ बैकुंठ उत्थान के लिए होगा और दूसरों का झूठ ही देशद्रोह समान माना
जाएगा? ऐसे कई आरोपियों, कथित अपराधियों को
भाजपा अपनी पार्टी में बाकायदा सम्मानित करके शामिल कर चुकी है। यह किस प्रकार की
भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ाई है?
इससे महज कुछ दिन
पहले एक दिलचस्प घटना हुई थी। सीबीआई ने आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ चंदा कोचर और
वीडियोकॉन के मालिक वेणुगोपाल धूत के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया। उन पर आपसी मिलीभगत
से बैंक को करोड़ों का चूना लगाने का इल्ज़ाम लगा। वैसे यह इल्ज़ाम कई साल से लगता
रहा था और कई साल बैंक इसे नकारता रहा था। लेकिन तथ्य सामने आते रहे तो बैंक ने
अंदरूनी जांच बिठाई। इस जांच के आधार पर बैंक ने चंदा कोचर पर कार्रवाई की। पहले
उनसे इस्तीफ़ा लिया और बाद में उनकी पेंशन तक रोक ली। उनसे वसूली की भी बात हुई
थी।
लेकिन इस मामले
में सीबीआई की ओर से एफआईआर दर्ज करने वाले अफसर का 24 घंटे के भीतर तबादला कर
दिया गया!!! वो इसलिए कि सीबीआई ने चंदा कोचर के ठिकानों पर रेड की तो देश के वित्त
मंत्री को यह पसंद नहीं आया। सात समंदर पार अपना इलाज करा रहे देश के वित्तमंत्री
और भाजपा के सबसे ताकतवर नेताओं में से एक अरुण जेटली ने सार्वजनिक तौर पर ब्लॉग
लिखकर सीबीआई जांच को बेईमानी करार दिया और चंदा कोचर और बाकी लोगों का बचाव किया!!! उन्होंने तो सीधे-सीधे कहा कि यह जांच कहीं पहुंचने वाली नहीं है, क्योंकि इसका
मक़सद कुछ लोगों को फंसाना है। उन्होंने सीबीआई की रेड को “दुस्साहसी जांच” तक कह डाला!!! लेकिन महज कुछ दिनों बाद खुद आईसीआईसीआई की अंदरूनी जांच में चंदा कोचर पर उंगलियां उठी और उन्हें बैंक से निकाल दिया गया, उनकी पेंशन रोक दी गई, वसूली की भी बातें हुई। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का यह कैसा चैप्टर था उस पर लंपट मीडिया ने चर्चा
नहीं की, लेकिन चर्चा तो होनी ही चाहिए थी। खास करके तब कि जब ममता बनर्जी या मोदी,
दोनों भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के दोगले दावे उछाले जा रहे हो।
अरुण जेटली को
स्पष्ट करना चाहिए कि यह “दुस्साहसी जांच” क्या होता है? इस “दुस्साहसी जांच” की व्याख्या क्या
है? अरुण जेटली का ब्लॉग जिस दिन सामने आया, उसी दिन, बल्कि
ठीक उसी वक्त पीएम मोदी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई वाला घिसा-पीटा भाषण दे रहे थे!!! पीएम भ्रष्टाचार के खिलाफ भाषण दे रहे थे और उनके ओल-इन-वन मंत्री कथित
अपराधी के लिए ब्लॉग लिख रहे थे!!! सीबीआई को सरेआम
झाड़ रहे थे!
सीबीआई कभी देश को
नहीं बता पाएगी कि उनके तीन-तीन निदेशक और एक विशेष निदेशक, सभी मोइन कुरैशी की ज़द
में कैसे आए थे? कांग्रेस की सीबीआई और अब भाजपा की
सीबीआई, सभी की सीबीआई को अकेले मोइन कुरैशी ने ही कैसे दागदार कर दिया था? सीबीआई संवैधानिक संस्था है वाला तर्क भी चलता रहता है, उधर सीबीआई तोता है
वाला नारा (जो अदालत ने ही दिया था) चलता रहता है। इस बीच एक मसला वो भी याद आता
है, जिसमें एक अदालत ने ही कहा था कि सीबीआई गैरसंवैधानिक संस्थान है!!! सुप्रीम कोर्ट से सरकार को स्टे मिला और फिर सरकार बदल भी गई, स्टे वहीं का
वहीं है!!! सीबीआई संवैधानिक
है या नहीं इसका ही अता-पता नहीं है, फिर भी सब कुछ जस का तस चल रहा है!!! राम राज्य अलग दृश्य है, यह तो राम भरोसे वाला दृश्य है। खैर, सीबीआई की
संवैधानिकता वाले मसले पर फिर कभी चलेंगे। फिलहाल ताज़ा घटनाक्रम को ही देखते हैं।
मुकुल रॉय का नाम
तो आपने सुना ही होगा। 2014, 2015 और 2016 के साल में बीजेपी शारदा स्कैम में
तृणमूल कांग्रेस के इस नेता का खूब नाम लेती थी। जनवरी 2015 में सीबीआई मुख्यालय
में मुकुल रॉय पूछताछ के लिए पेश भी हुए थे। मुकुल रॉय नवंबर 2017 में भाजपाई हो
गए!!! नारद स्टिंग ऑपरेशन में इनके खिलाफ एफआईआर हुई थी। नवंबर 2017 में बीजेपी में
शामिल होने से पहले बीजेपी की महासचिव विष्णु प्रिया राय चौधरी का बयान आया था कि
मुकुल रॉय जैसे अवसरवादी नेताओं को बीजेपी में नहीं लिया जाएगा। मगर मुकुल रॉय
बीजेपी में आ गए!!! ममता बनर्जी ने तो असम सरकार के मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा पर भी
इस घोटाले में शामिल होने के आरोप लगाए हैं।
अभी कुछ महीनों पहले सीबीआई के हेडक्वार्टर को दिल्ली पुलिस ने घेर लिया था!!! आधी रात को जूते की
टांपे सुनाई दी थी। तख्तापलट का वो अभूतपूर्व दृश्य पुराना नहीं बल्कि ताज़ा इतिहास
है। अब कोलकाता में कुछ देर के लिए कोलकाता पुलिस ने सीबीआई ऑफिस को घेर लिया!!! दोनों में से कोई एक बात सही नहीं हो सकती। दरअसल, दोनों ही गलत बातें हैं। दिल्ली में दिल्ली
पुलिस ने सीबीआई मुख्यालय को घेरा, कोलकाता में लोकल पुलिस ने सीबीआई ऑफिस को घेरा।
दिल्ली में आईबी अधिकारियों को कथित रूप से सुबह सुबह उठा लिया गया था!!! आलोक वर्मा
के घर के बाहर निगरानी के कथित आरोपों के लिए। इधर ममता की पुलिस ने सीबीआई को थाने
में ठूंस दिया!!! क्या ये सब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई है?
सीबीआई के नए
निदेशक के जॉइन करने से एक दिन पहले सीबीआई के 40 अफसर कोलकाता पुलिस कमिश्नर
राजीव कुमार का घर और दफ्तर घेर लेते हैं। कोलकाता पुलिस सीबीआई के ड्राइवर को खींच
कर उतार लेती है। उसके अधिकारियों को पुलिस वैन में बिठा लेती है। राज्य पुलिस की
टीम सीबीआई के दफ्तर को घेर लेती है। जवाब में सीआरपीएफ की टीम उतार दी जाती है, सीबीआई के दफ्तर की सुरक्षा में। एक ही दफ्तर के सामने राज्य की पुलिस और केंद्र
का अर्धसैनिक बल आमने सामने हो जाते हैं!!! संवैधानिक मर्यादाएँ दिल्ली में भी टूटी थी
और कोलकाता में भी।
भाजपा के आरोपों में भी दम है, ममता के आरोपों में भी। दरअसल, दोनों भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं, बल्कि
राजनीतिक हित की लड़ाई लड़ रहे हैं। दोनों रेनकोट पहनकर नहाने वाले नेता है। काले रंग
की दाल दोनों की है, लेकिन फिर भी दोनों तिरंगे के तीन रंग में रंगने की कोशिशें कर
रहे हैं। खुलकर कहे तो दोनों देश को बेवकूफ ही तो बना रहे हैं।
ममता बनर्जी ने
अपने धरने को 'सत्याग्रह' नाम दिया!!! यह नाम ही राजनीतिक छलकपट जैसा था। अच्छे दिन
आएंगे वाला जो छल था, बिल्कुल वैसा ही तो था यह सत्याग्रह नामकरण। एक सीएम का सड़कों
पर आकर धरने पर बैठ जाना मुद्दा बन गया। वैसे ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल से
पहले भी देश ने ऐसी नौटंकियां देखी है। फर्क इतना है कि कोई अपने घर का मामला याद
नहीं करता। सीएम रहते हुए नरेन्द्र मोदी ने भी गुजरात यूनिवर्सिटी में यही चीज़ की
थी!!! दूसरे राज्यों में भी ऐसा हो चुका है। हाल ही में पुडुचेरी के सीएम उपराज्यपाल का
विरोध करते करते सड़क पर सो गए थे!!! सन 2000 से पहले भी हुआ था, सन 2000 के बाद भी। दरअसल,
लठैतों की अपनी एक प्रकृति है, जो उनके आकाओं द्वारा हैंडल होती है। उदाहरण के तौर
पर, पहले तो सड़क पर सीएम के घरणे को कोसा जाएगा, प्रचार किया जाएगा कि यह इतिहास में
पहली बार है-गलत है-वगैरह वगैरह। फिर इतिहास की कब्र से ऐसे उदाहरण पेश किए जाएंगे
तो ये लोग इतिहास में पहली बार वाली दलील में झूठे साबित होने के बाद मकसद की दलीलों पर जंप कर देंगे।
जैसे कि 5 फरवरी
2019 को यूपी विधानसभा में सपा-बसपा के विधायकों ने हदें पार कर दी थी। मेज पर खड़े हो
गए, राज्यपाल की तरफ कागज के गोले फेंके गए। इसके सामने यूपी की सरकार ने सपा-बसपा
विधायकों के कृत्य को कोसा, उन्हें गुंडे जैसा कहा और नैतिकता, राजनीतिक संस्कृति
वगैरह की चिंताएँ प्रक्ट करने लगे। लेकिन भूल गए कि कुछ महीनों पहले ही दिल्ली विधानसभा में उनके ही
विधायकों ने इसी राजनीतिक संस्कृति का प्रदर्शन किया था। यूपी, दिल्ली,
जम्मू-कश्मीर, गुजरात, पंजाब, राजस्थान से लेकर तमाम राज्यों में तमाम दल इसी
संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं।
विरोधियों को अपने
यहां रैलियां करने से रोकना, भाषण देने से रोकना, यह किस तरह की शैली है? लोकतंत्र बचाओ के नाम पर ये नेता लोग रैलियां करते हैं, अनशन का मजाक उड़ाते हैं।
लोकतंत्र की इतनी ही फिक्र है तो फिर विरोधियों को रोकना कौन सा तंत्र है? ममता ने अमित शाह या योगी के हेलीकॉप्टर तक को उतरने नहीं दिया, रैलियों की इजाज़त नहीं दी, भाषण नहीं करने दिया! राजनाथ समेत कई भाजपाई नेताओं को रोक दिया गया
बंगाल में। बताइए, इतना सब करने के बाद ममता लोकतंत्र को बचाने के लिए धरना करने
लगती है!!! क्या गज़ब का मजाक
है! उधर भाजपा ने भी गुजरात में राहुल गांधी को रोका था, अरविंद
केजरीवाल को रोका था। कांग्रेस का इतिहास भी इतना ही काला है। वर्ना वो मूवी
डस्टबिन में नहीं होती। हाल ही में यूपी में योगी सरकार ने अखिलेश को रोक दिया था।
ताज़ा राफेल विवाद
को ही देख लीजिए। राहुल गांधी राफेल पर मोदी सरकार को घेरने में लगे हैं, अनिल
अंबानी और मोदी का मेलजोल राहुल गांधी साबित करने में जुटे हैं। उधर, उनकी ही पार्टी
का दिग्गज नेता एक दूसरे मामले में अनिल अंबानी की पैरवी कर रहा है!!! ऐसा ही हाल भाजपा में भी है, जहां उनके कई नेता प्रोफेशनल कमिटमेंट के नाम पर ऐसे ही कारनामों में लिप्त थे या फिर होंगे भी।
आप सूची बनाएंगे
तो दूसरों को नसीहतें देने वाले लोग ‘मकसद’ का ज़िक्र करने लगेंगे। कुल मिलाकर, सारे
लंपट हैं और यह तमाम लंपट दूसरों की लंपटता को गलत कहते हैं, अपनी वाली लंपटता को सही बताते
हैं। अब ऐसे में किसी एक की बात सुनकर आगे बढ़ना जायज है या फिर तमाम के कारनामों का
ज़िक्र करके?
केंद्र सरकार कहती
है कि बंगाल में संवैधानिक संकट है। केंद्र की इस दलील के जितने भी आधार है उसको सच
माने तो फिर देश में ऐसे संवैधानिक संकट पिछले कुछ काल में तीन-चार बार आ चुके थे।
उन संकटों का क्या? ममता कहती है कि यह लोकतंत्र की हत्या
है। पीड़ितों को पूछ लीजिए एक बार कि यह किसकी हत्या है? न्याय दिलाना आपका काम था, अब भी मामला चल रहा है तो फिर आपको धरना पहले ही
कर लेना चाहिए था।
मुख्यमंत्रियों की
सड़क पर धरने की बात करे तो यह वाकई गलत और सरासर गलत परंपरा है। एक सूबे के
मुख्यमंत्री की अपनी जवाबदेही है, अपने विभाग है, अपने अधिकारी है, अपना एक ढांचा
है। उसका काम उन विभागों, मंत्रालयों, अधिकारियों के जरिए लोगों की समस्याएँ सुलझाना होता है। धरने पर बैठकर कैबिनेट चलने लगी है अब तो!!! सड़कों पर सरकार चलने लगी है। हाल
ही में एक राज्य था जहां अस्पताल से कैबिनेट चली थी!!! कहीं पांच सितारा होटल में कैबिनेट बैठक हुई थी। लोकतंत्र के लिए सड़कों पर आना महत्वपूर्ण है। ममता इसीका
फायदा उठाकर चल रही है। इस देश में जो राजनेता सड़क की राजनीति में माहिर है, उसीकी
संभावनाएँ ज्यादा है। लेकिन गंभीरता से कहे तो, सड़क की राजनीति विपक्षों को अच्छी
लगती है। चुनी हुई सरकारें सड़क पर आकर काम करने लगी हैं तो फिर इसके लिए तो
लोकतांत्रिक ढकोसले वाला नामकरण ही अच्छा है। इस बीच यह भी ज़िक्र करना होगा कि
पीएम मन की बात के जरिए देश को उपदेश देने लगे यह भी चर्चा के अधीन है। पीएम को
पीएम होना चाहिए, पादरी नहीं। अगर सरकार संविधान से चलती है ये सब कहते हैं तो फिर
संविधान भी एक निश्चित और अच्छी परंपरा के अधीन ही तो चलना चाहिए।
ममता का आग्रह
सत्य का ही है तो फिर वह सीएम है। सत्य के आग्रह के लिए उनके पास कई सारे संसाधन
हैं। कानूनन और प्रशासनिक संसाधन हैं उनके पास। सत्य का आग्रह इतना पक्का होता तो
शारदा और रोज वैली घोटालों में न्याय तो मिल ही चुका होता। सालों गुजर जाने के बाद अब
भी न्याय के नाम पर मजाक हो रहा है पीड़ितों का, और ये लोग सत्याग्रह पर बैठ जाते
हैं।
भाजपा कहती है कि
कोलकाता पुलिस कमिश्नर अगर बेकसूर है तो फिर जांच से क्यों भागना? भाजपा का ये तर्क सही भी तो है। अब इस तर्क के सामने टीएमसी और अन्य दल कहते
हैं कि ऐसा ही है तो फिर भाजपा रफाल पर जेपीसी बनाने को लेकर क्यों भाग रही है? जितना तर्क भाजपा का सही है, उतना विपक्षों का भी सही है। दरअसल, दोनों सही हैं।
और इस सच के भीतर जो काला सच है उसे देखने से नागरिक भाग रहे हैं।
शारदा चिटफंड
घोटाला यकीनन बड़ा घोटाला है। ममता बनर्जी की भूमिका सराहनीय नहीं है इसमें। लेकिन
ममता बनर्जी को वो लोग नसीहतें दे सकते हैं जिनका चरित्र कुछ अलग हो। सैकड़ों कथित
अपराधियों से भरा हुआ कोई राजनीतिक दल दूसरे ऐसे ही दल को संविधान, कानून और
देशहित की दुहाई देने लगे तो फिर ये तो कॉमेडी शो ही होगा न!!! और हमारे यहां ऐसे कॉमेडी शो हररोज चलते रहते हैं। कांग्रेस, भाजपा, आप, टीएमसी, सपा, बसपा, एनसीपी...
गिनकर थक जाएंगे इतने सारे गुरुकुल हैं हमारे यहां और ये सारे ऐसे ही कॉमेडी शो
चलाते रहते हैं। चिटफंड घोटालों की सूची बनाने बैठे तो हर राज्यों में, एक बार नहीं किंतु अनेकों बार ऐसे मामले हो चुके हैं। हजारों-लाखों लोगों की जिंदगियां तबाह हो चुकी
हैं। सैकड़ों परिवार ज़द में आ चुके हैं। जांच-वांच का गाहे-बगाहे एलान होता है। लेकिन
मिलता क्या है? कहते हैं कि देर से मिला हुआ न्याय
अन्याय के समान ही होता है। लेकिन यहां तो देर से भी न्याय मिलने की उम्मीदे सैकड़ों मामलों में लुप्त हो चुकी प्रजाति के भांति है।
हम यह मानने के
लिए तैयार नहीं हो सकते कि ऐसे घोटाले बिना राजनीतिक संरक्षण के हो सकते हैं। अगर इन
सारे बागड़ बिल्लों को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़नी ही होती, जांच संस्थाओं को देश
के लोगों की इतनी ही चिंताएँ होती, तो फिर सालों से ये हालात नहीं होते। 5-10 साल
गुजरने के बाद भी यदि मामले का ट्रायल ही शुरू नहीं हो पाता है तो फिर आप समझ ही
जाइए कि कितनी चिंताएँ है इन सबको।
क्या नरेन्द्र
मोदी लिखकर दे सकते हैं कि उन्होंने विपक्षों को चोरपार्टी कहा है तो इन विपक्षों में
से किसी भी पक्ष को वो अपने यहां आगे जगह नहीं देंगे। उधर विपक्ष का जो पूरा जमघट
लगा है, सबको पता है कि सारे एक जमाने में एकदूसरे को गालियां ही तो देते थे। आज
सारे एक हैं। देशहित के लिए नहीं बल्कि किसी को हटाकर कुर्सी हथियाने के लिए। ना
नरेन्द्र मोदी लिखकर दे सकते हैं और ना ही विपक्ष भूतकाल के सामने वर्तमान काल को
जायज ठहरा सकता है।
कहने का मतलब यही
है कि जब सारे के सारे एक ही काले से काले छाते के नीचे है, तो फिर किसी एक को
हीरो और किसी दूसरे को जीरो मानने का क्या मतलब? किसी विशेष के लिए फेफड़े फाड़-फाड़ कर गुर्दे खराब करते रहने का क्या मतलब? आप इनमें से किसी एक के भी भक्त है तो फिर आप देशभक्त नहीं है ये सीधी सी बात
है। तो फिर बेफिजूल की देशभक्ति की बातें करके खुद को राजनीति के इस गटरछाप बाज़ार में नीलाम करवाके जगहंसाई करवाने का काम भारत माता की सेवा का नहीं, बल्कि उस भारत माता
को शर्मसार करने का ही कृत्य है।
लठैतों की अपनी एक
गटरछाप दुनिया है। लेकिन यह भारत है और यहां लठैतों के अलावा भी दूसरे लोग रहते हैं।
दरअसल, सिक्के के इन दोनों पहलूओं को देखकर ही कहा जाता है कि ये भ्रष्टाचार के
खिलाफ लड़ाई नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक लड़ाई है। मोदी और ममता, दोनों का यही हाल है।
दोनों डेटॉल से नहाने का दावा करते हैं, लेकिन कीटाणु है कि साफ हो ही नहीं रहे!!! बताइए, दोनों के जिस्म पर कीटाणु दौड़ रहे हैं, फिर भी ये दोनों बेशर्म होकर सड़कों पर
चिल्लाते हैं कि हम देश बचाने के लिए जान दे देंगे!!!
ममता बनर्जी पुलिस
कमिश्नर जैसे कथित अपराधी को बचा रही है, उधर भाजपा भी कईयों को बचाकर बैठी है,
कांग्रेस में भी यही हाल है, सपा-बसपा-एनसीपी, सभी जगह ऐसे ही बागड़ बिल्ले भरे पड़े हैं। वो तो लठैतों के लिए है, जहां उन्हें जो बताया जाएगा, जो दिखाया जाएगा, वही
वे सुनेंगे और देखेंगे। लेकिन जो साफ-साफ दिखाई देता है उस पर बात तो होनी ही है।
वो लोग नेताओं से शादी बनाकर बैठे हैं, हम नहीं।
भ्रष्टाचार के अनेक मामलों की अनदेखी करो और फिर किसी एक मामले पर तूल पकड़ लो। ये भ्रष्टाचार
के खिलाफ लड़ाई नहीं होती, बल्कि राजनीति की लंपटता होती है। ऐसी लंपटता के बीच खुद
को कठपुतली की तरह नचवाने का शौक लठैतों को होता ही है, नागरिकों को ऐसे शौक पालने
नहीं चाहिए।
मोदी और ममता, दोनों के आकलन-योजनाएं-रणनीतियां बहुत गहरी होगी जिसे समझना इतना
आसान नहीं है, लेकिन जो समझा जा सकता है उससे मुंह क्यों मोड़ना?
नरेन्द्र मोदी और
ममता बनर्जी। दोनों की कार्यशैली में बहुत सी समानताएँ हैं। दोनों इन समानताओं से हटकर एकाध नया अंतर ढूंढकर अपनी अपनी संभावनाओं को और ज्यादा मजबूत करने में लगे हैं यह भी नोट
कर ले। दोनों 'सड़क की राजनीति' में माहिर राजनेता है। भारत में सड़क की राजनीति ही सफलता
का ओल टाइम हिट फॉर्मूला है। दोनों राजनेता 'सड़क की राजनीति' और 'सड़कछाप राजनीति' में अंतर करने से परहेज नहीं करते!!! दोनों साधारण परिवार से आते हैं। नरेन्द्र मोदी और
ममता बनर्जी, दोनों किसी राजीव गांधी- राहुल गांधी– सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी
की तरह आसानी से बड़े चेहरे नहीं बने। बल्कि दोनों ने लंबी पारियां खेली, लंबा
राजनीतिक संघर्ष किया, अपनों से पार पाया, विरोधियों से पार पाया। मोदी और ममता,
दोनों ने अंदरूनी और बाहरी, दोनों लड़ाईयां लड़ी हैं। दोनों अपने अपने परिवार को
सार्वजनिक जीवन से दूर रखते हैं। (पीएम मोदी का उनकी माताजी वाला एंगल छोड़ दे तो) मोदी जितने जिद्दी है, ममता की हठ भी उतनी ही
प्रसिद्ध है। कहते हैं कि मोदी अपने विरोधियों को माफ करने में नहीं मानते, ममता भी
शत्रुओं को भुलती नहीं। मोदी सख्त प्रशासक है, ममता की शैली भी लोहे जैसी है। दोनों
अपने अपने इलाके में लोकप्रिय हैं। अभी नरेन्द्र मोदी का पलड़ा भारी है। क्योंकि ममता
ने बंगाल में 35 साल पुराने लेफ्ट शासन को उखाड़ फेंका था, जबकि मोदी ने कांग्रेस
शासन को झकझोर दिया। एक ने प्रांत में यह कारनामा किया, तो दूसरे ने समूचे देश में।
अब दोनों
आमने-सामने हैं। फर्क इतना है कि मोदी को पश्चिम बंगाल से ममता को फेंक देना है,
जबकि ममता को पश्चिम बंगाल बचाना है। नोट करे कि राजनीति मगरमच्छ जैसे नेताओं का
तालाब है। मकसद पार पाने के लिए सालों लंबा इंतज़ार कर लेने में ये लोग माहिर है। मूल
मकसद के लिए ये इतने रंग बदलते हैं कि वक्त रहते आप इनके मूल मकसद ही भूल चुके होते
हैं। एकसरीखे दो नेता, लेकिन एक को बचाने की जद्दोजहद है, दूसरे को उखाड़ कर फेंक
देने की। कोई कहता है कि भाजपा को पता है कि वो बंगाल में सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन
सकती, इसीलिए ममता को उखाड़कर ममता के विरोधियों की सरकार भी बन जाए ये भाजपा की
जीत ही है। क्या है यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन अपने अपने मकसदों के लिए दोनों नेता
तमाम हदें पार करने से परहेज नहीं करते। और इसीलिए दोनों तरफ से कानून, संविधान,
नैतिकता, परंपरा इन सबका टूटकर चकनाचूर होना तय है।
पश्चिम बंगाल समेत
तीन राज्यों ने सीबीआई के प्रवेश पर पाबंदी लगाई हुई है ऐसी मीडियाई हेडलाइन से
हटकर सच देखे तो दरअसल तीनों राज्यों में सीबीआई को प्रदेश सरकार की रजामंदी लेनी
है। लेकिन अदालती आदेश हो तो सीबीआई को ऐसा करने की ज़रूरत नहीं होती। अब इसमें भी
ढेरों पेंच होंगे। लेकिन मोटे तौर पर ममता का रिएक्शन विवादास्पद था इसमें कोई
दो राय नहीं है। कोलकाता पुलिस कमिश्नर का ममता के साथ सड़क पर धरने की जगह बैठ जाना
भी कोई अच्छी बात नहीं थी। इस मामले में जो पहला अदालती आदेश आया वो आदेश दोनों दलों को मौका दे गया। आगे के आदेश किसको क्या मौका देते है यह देखना होगा।
पश्चिम बंगाल में भाजपा जमीन का विस्तार कर रही है। उसमें भाजपा को सफलता मिलती भी दिख रही है। ममता
को जमीन बचानी है। ममता अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह, शाहनवाज हुसैन, इन
सबकी रैलियों में इजाज़त देने में अड़ंगा अड़ा रही है। ममता यदि लोकतंत्र बचाने की बात
करती है, तो फिर लोकतंत्र में किसी विपक्षी दल की रैलियां नहीं होने देना, उनके
हेलीकॉप्टर को लैंडिंग की इजाज़त नहीं देना, ये सब कौन सा लोकतंत्र है? बंगाल की राजनीति पहले से ही हिंसक प्रकृति की रही है। वहां सरपंच के चुनाव तक
में बम फूटना आम बात है। ऐसे लोकतंत्र को बचाने के लिए ममता ने कौन सा आंदोलन खड़ा किया था यह किसी को पता नहीं है। सवाल तो भाजपा और दूसरे दलों से भी हो सकता है कि
उन्होंने भी विपक्षी नेताओं को अपने राज्यों में रोका हो ऐसे मामले सामने हैं। उसकी
सूची भी बन सकती है। इसके संबंध में हमने ऊपर ही चर्चा कर ली है।
हमारे यहां पुराना
और ताज़ा, दोनों राजनीतिक इतिहास बदतर ही है। मनपसंद राष्ट्रपति को कुर्सी पर
बिठाना, मनपसंद राज्यपाल चुनना, विपक्षी राज्यपालों को हटाना, राष्ट्रपति शासन
लगाना, राज्यपाल से मनपसंद रिपोर्ट बनवाना, सरकारों को बर्खास्त करना, सरकारें गिराना, सरकारें बनाना, संस्थाओं का बंटाधार करना से लेकर सैकड़ों उदाहरण है हमारे
यहां। फिर भी ये लोग बड़े गर्व से संविधान बचाओ का आंदोलन भी करते रहते हैं। क्योंकि
इन्हें उस समुदाय का साथ है, जो चिंतित होने में चॉइस करते हैं। सुना तो यह भी है कि
ज्यादातर घोटाले दो ही चीजों की वजह से बाहर आते हैं। पहला- अंदरूनी लड़ाई और दूसरा-
खोजी पत्रकारिता। दूसरी वजह बहुत बहुत ही कम मौकों पर होती है, लेकिन कभी कभी होती
है ज़रूर। जबकि पहली वजह ज्यादातर हर जगह पर देखी जाती है।
बहरहाल यह साफ है
कि बंगाल में जो कुछ हुआ वो केवल और केवल राजनीतिक लंपटता का खुल्ला चैप्टर ही था।
हिन्दी अखबारों या हिन्दी मीडिया वालों की मजबूरियां होती होगी, तभी तो उनके संपादक
इसे किसी एक तरीके से लिखते या दिखाते हैं। कुछ के लिए ममता दोषी है, कुछ के लिए
मोदी। लेकिन मोदी और ममता दोनों ही दोषी है यह सच क्यों नहीं हो सकता? खैर, लेकिन यह साफ है कि मोदी और ममता, दोनों के आकलन-योजनाएं-रणनीतियां इतनी
ज्यादा गहरी होगी, जिसे समझना हम जैसे लोगों के लिए इतना आसान नहीं है। लेकिन जो
चीजें बहुत आसानी से समझ आती है उससे भी मुंह क्यों मोड़ना?
मीडिया की बात
संक्षेप में समझी जा सकती है। एक दौर था जब पश्चिम बंगाल में चुनावों के दौरान ममता
बनर्जी सड़कों पर उतरकर दांत भींच कर राजनीति करती थी तो मीडिया उन्हें कटघरे में खड़ा करता था। ममता को जिद्दी, अराजक और सिरफिरा राजनेता बताया जाता था। फिर ममता चुनाव
जीती, पश्चिम बंगाल से तीन-चार दशकों पुराना लेफ्ट का राज खत्म हुआ और ममता को लोगों
ने विजयी बनाया। फिर क्या था... इसी मीडिया ने ममता को बंगाल की शेरनी कहकर बुलाना
शुरू कर दिया!!! उनकी जिस अदा को मीडिया कटघरे में खड़ा करता था, उसी अदा को ममता की
शान कहकर मीडिया सजाने लगा था!!! आज वही मीडिया कुछ और कहता है। यही बात नरेन्द्र
मोदी को लेकर भी रही। गोधरा कांड और उसके बाद यही मीडिया नरेन्द्र मोदी को न जाने
क्या क्या कहकर संबोधित किया करता था। मोदी की हर अच्छी चीज़ मीडिया को इतनी नापसंद
थी कि पर्ते उधेड़ दिया करते थे नरेन्द्र मोदी की। फिर दौर बदला और मीडिया आज
नरेन्द्र मोदी की हर बुरी से बुरी चीज़ को भी बैकुंठ उत्थान सरीखा बताता है। मोदीजी
का दौर खत्म होगा तो मीडिया फिर एक बार किसी दूसरे सूरज को प्रणाम करने लगेगा।
सोशल मीडिया में बहुत पुरानी लाइन है कि यहां जिस्म बिकता है, आगे मीडिया की दुकानें
हैं, ईमान वहीं बिकता है।
बहुत हद तक
संभावना है कि ममता को भी पता हो कि सीबीआई की कार्रवाई भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई
नहीं है, बल्कि उनकी राजनीतिक जमीन के खिलाफ आक्रमण है। और यह बात सामने वाली
पार्टी को भी पता तो होगी ही। अगर मोदी और ममता, दोनों की वास्तविक लड़ाई भ्रष्टाचार
के खिलाफ होती तो मंजर कुछ और होता। लेकिन वास्तविक लड़ाई किन मसलों पर है वो तो
बहुत हद तक बहुत ज्यादा लोग समझते भी हैं।
सीबीआई की टीम, 40
अधिकारियों के काफिले के साथ, कोलकाता में बिना राजनीतिक इजाजत के उतर नहीं सकती थी।
जिन्हें राजनीतिक इजाजत देनी थी, उन्हें ममता की दांत भींच कर की जानेवाली राजनीति का
अंदाजा भी होगा। दरअसल, दो ऐसे दल आमने-सामने हैं, जो अपनी राजनीति ज्यादा से
ज्यादा शोर मचाकर करने में यकीन रखते हैं। पीड़ित का अभिनय करने में ममता माहिर है।
उधर सामने वाले भी शांतिपूर्ण अभियानों में यकीन नहीं रखते!!! ममता और नरेन्द्र मोदी,
दोनों का पुराना इतिहास दर्शाता है कि दोनों संविधान या कानून या हकारात्मक राजनीतिक
परंपराओं को ताक पर रखकर अपनी अपनी जमीन का विस्तार करने की शैली में माहिर है।
ममता बनर्जी का उस
रात जो रवैया रहा, एक एंगल स्पष्ट था कि वो खुलकर अपने कथित अपराधी अधिकारी के
बचाव में उतर गई। उधर मोदी सरकार का जो रवैया रहा, स्पष्ट था कि उन्हें भ्रष्टाचार
की इतनी ही चिंता थी तो फिर सैकड़ों बागड़ बिल्लों को भगवा रंग का कपड़ा गले में डालकर
फोटू खिंचवाने का कृत्य उन्हें भी नहीं करना चाहिए था।
भाजपा हो,
कांग्रेस हो, टीएमसी हो, आप हो, एनसीपी हो, सपा हो, बसपा हो या ऐसे जितने भी
सेवाभावी गुरुकुल हैं, सारे उन तमाम कथित अपराधी नेता, जिन पर मामलें दर्ज हैं, उन्हें तमाम पदों से मुक्त करके घर पर बिठाने का काम एक दिन में कर सकते हैं? सभी आम जनता से कहते हैं कि अपने ही बैंक खाते से पैसे निकालने जाओ तो आधार
नंबर दो, ये दो, फलांना दो। क्या वो फंड लेते वक्त किसीसे यह सब मांगते हैं? क्या वो अपने अपने पार्टी फंड का पूरा ब्यौरा खुलकर सामने रख सकते हैं? सभी को संविधान बचाना ही है, देश सेवा ही करनी है, तो सभी एक काम कर लो। अपने
अपने बागड़ बिल्लों के सामने अदालत में जाकर मामला दर्ज करवा दो, उन्हें पार्टी से बाहर
निकाल फेंको, पार्टी फंड का ब्यौरा सार्वजनिक कर दो। कोई नहीं करेगा। क्योंकि नीति,
नैतिकता केवल एक ब्रांड है हमारे यहां, जिसे समय समय पर चमकाया और बेचा जाता है। पहले
पाप का घड़ा होता था, अब ड्रम होता है!
नेताओं के लिए देश
वो देश नहीं होता, जो नागरिकों के लिए होता है। उनके लिए देश धर्म, जातियां,
उपजातियां वगैरह में बंटा हुआ रंगमंच ही है। रंगमंच में सारे किरदार नकली मोहरा,
नकली रंग, नकली संवादों के साथ अपना अपना ही भला कर रहे होते हैं। ऐसी लंपटता के बीच
खुद को कठपुतली की तरह नचवाने का शौक लठैतों को होता है, नागरिकों को ऐसे शौक पालने
नहीं चाहिए।
(फरवरी 2019, इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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