यह बात संघ से जुड़े एक परम मित्र ने कही थी। उन्होंने
कहा था कि, “सत्ता के लिए कौन श्रेष्ठ है उसकी चर्चा हो सकती है,
लेकिन विपक्ष के रूप में भाजपा से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता।” उनके कथन अनुसार सत्ता के लिए कौन बेहतर रहा उस पर वाद-विवाद हो सकते हैं। इस
वाद में कोई जीतेगा तो कोई हारेगा। किंतु विपक्ष के रूप में श्रेष्ठ से लेकर
सर्वश्रेष्ठ तक बीजेपी ही है। बीजेपी को राई का पहाड़ बनाना आता है, दूसरों को पहाड़ मिल जाए तब भी वे राई की तलाश में रहते हैं!
अब इस मुद्दे को लेकर कुछ राजनीतिक इश्कबाजों के तर्क
यही होंगे कि क्या बीजेपी सत्ता के लिए योग्य नहीं है? क्या बीजेपी
नापसंद है हमें? क्या हम किसी दूसरे के इश्कबाज है? किंतु जब इस
लेख का कोण इन्हीं में से किसी सवालों तक जाता ही नहीं तो फिर ऐसे में जंगल में मोर को नचाने
का कोई मतलब नहीं!!! वैसे 2014 से जब सत्ता और विपक्ष, दोनों ही बीजेपी
है तो फिर आधी चर्चा तो पहले से ही खत्म हो जाती है! रही बात सत्ता की... ‘राजनीतिक
इश्कबाजों’ के नजरिए को लेकर हम चार-पांच ‘विशेष लेख’ लिख चुके हैं। हमारा
नजरिया क्या है, उसे तो हम लगभग तमाम लेखों में सार्वजनिक कर ही चुके हैं। सत्ता कोई
भी हो, भारत के नागरिक को हमेशा विपक्ष बने रहना चाहिए।
सत्ता के लिए कौन बेहतर है? कांग्रेस या बीजेपी? या फिर कोई दूसरा?
पहला वाद तो यही होता है कि सत्ता के लिए कौन बेहतर
है? कांग्रेस? बीजेपी? या फिर कोई और ही? देखिए, एक बात तो आईने की तरह साफ
है कि कांग्रेसी-बीजेपी या फिर किसी तीसरे राजनीतिक दल के इश्कबाज के लिए सत्ता के
लिए वही श्रेष्ठ होगा जिनके साथ उनका इश्क हो चुका है। इस लिहाज से जब भी इस बात
का वाद-विवाद हो कि सत्ता के लिए कौन बेहतर है तब इश्कबाजों को शामिल ज़रूर करना
चाहिए, लेकिन परिणाम तय करते समय उनको आराम दे देना चाहिए! शामिल ज़रूर
करना चाहिए, क्योंकि बिना उन इश्कबाजों के, आप भारत के लोकतंत्र और भारत की राजनीति
के एक विशेष नजरिए तथा जमीन से जुड़े कड़वे सत्य को समझ नहीं सकते। परिणाम तय करते
समय उन्हें आराम पर भेज देना चाहिए, ऐसा क्यों इसका उत्तर तो आईने की तरह साफ है
वाले वाक्य में दे दिया है।
भारत छोटा-मोटा राष्ट्र नहीं है। इसका इतिहास भी कोई
सौ-दौ सो साल पुराना नहीं है। बल्कि पुरातन काल से पनपने वाली सभ्यता का देश है यह। सनातन से भी पुरातन वाले तार्किक तथ्य सामने ही हैं। कई
युग आते रहे, जाते रहे। दौर आए, चले गए। कई विचारधाराएँ पनपी, व्याप्त हुई, या फिर
समाप्त हो गई। यहां कुछ भी स्थायी नहीं रहा। सिर्फ एक दौर की बात करे तब भी यहां सैकड़ों विचार हैं, सैकड़ों मान्यताएँ हैं। इतने पुरातन और इतने महान राष्ट्र के संदर्भ
में जब बात करे कि सत्ता के लिए कौन बेहतर है, तब इस वाद में आजादी के बाद का ही साया आना चाहिए। जिन्होंने आजादी दिलाने में अपनी जिंदगियां दे दी, चाहे वो अहिंसावादी
हो या चाहे क्रांतिकारी, उन तमाम महानुभावों को सदैव आदर के साथ नमन। सत्ता के लिए
कौन बेहतर है इसकी चर्चा आजादी के बाद के समय के संदर्भ में ही होनी चाहिए।
सत्ता के लिए कौन बेहतर है? भारत के
लोकतंत्र में, इतने लंबे सफर में, ये वाद वाकई थोड़ा अनुचित सा लगता है। थोड़ा ज्यादा
सोचे तो थोड़ा अनुचित नहीं बल्कि पुरा का पुरा अनुचित लगता है। क्योंकि आम राय तो
यही है कि सारे के सारे एक हैं। हाथी दांत से लेकर एक ही थाली में खानेवाले तक की कहावतें राजनीति के लिए ही बनी होंगी शायद। हमारे हिसाब से सत्ता के लिए कौन बेहतर रहा
इसकी चर्चा किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के विशाल समाज और सभ्यता को अनुचित रास्ते
पर ले जा सकती है। हमारी आजादी का सफर भले ही करीब 70 सालों का रहा हो, किंतु इन 70
सालों के सफर में भी यहां हजारों से भी अधिक विचारधाराएँ हैं, सैकड़ों मान्यताएँ हैं। उन
सभी ने मिल-जुलकर इस राष्ट्र को बनाया, आगे बढ़ाया या फिर कभी-कभार रोका या पीछे भी
छोड़ा। इन सैकड़ों सभ्यताओं की जो मान्यताएँ हैं, जो सोच है उसके हिसाब से कोई एक सही
या कोई एक गलत... यह तय कर लेना वाकई इस महान राष्ट्र के प्रति कर्तव्यहिनता
सरीखा कार्य होगा।
वाद तो इस मुद्दे पर होना चाहिए कि, "ऐसा कौन सा दौर
रहा जब भारत के नागरिकों ने किसी सत्ता को अपने लिए सबसे बेहतर बनाया?" सत्ता तो सत्ता
होती है और उसीके लिए वो श्रेष्ठ होती है जिनके पैसों से सत्ता पनपती है, अपनी जिंदगी
जीती है! ये कड़वा सच भी आईने की तरह साफ है। सो हमारे हिसाब
से सत्ता के लिए कौन बेहतर है, यह सवाल पुरा का पुरा अनुचित है। भारत जैसे
लोकतंत्र में सवाल तो यह होना चाहिए कि कब कब भारत के नागरिकों ने किसी सत्ता को
अपने लिए बेहतर बनाया? सत्ता के लिए कौन श्रेष्ठ रहा या फिर किस दौर में नागरिकों ने अपने लिए सत्ता को सबसे बेहतर बनाया... इन दो सवालों में ही दो भिन्न
दृष्टिकोण है। एक में अपनी मान्यताओं को समग्र सभ्यता पर थोपने का कोण है, दूसरे में समग्र सभ्यता का अपनी जिम्मेदारी, अपने कर्तव्य के प्रति सचेत और सजग होने का कोण
है। दूसरे भी कई सारे कोण समन्वित है इसमें।
मुमकिन है कि आनेवाले काल में कोई समय ऐसा भी आ जाए
जब सत्ता के लिए कौन श्रेष्ठ है इसका 'प्रमाणिक उत्तर' मिल भी जाए। किंतु फिलहाल तो सत्ता
के लिए कौन सबसे श्रेष्ठ है उस सवाल से बेहतर सवाल यही लगता है कि ऐसा कौन सा दौर
रहा जब नागरिकों ने अपने लिए सत्ता को सबसे बेहतर बनाया।
विपक्ष के रूप में क्या बीजेपी ही श्रेष्ठ है? दूसरे नहीं? क्या बीजेपी से भी बेहतर विपक्ष कोई है?
अब आप कहेंगे कि जब हमने पहले सवाल को ही (सत्ता के
लिए कौन श्रेष्ठ है) अनुचित ठहरा दिया तो फिर क्या हम जबरन इसी मुद्दे पर चर्चा
करने चाहते है कि विपक्ष के रूप में कौन श्रेष्ठ है? लोकतंत्र है भाई, सवाल उठ सकते हैं कि क्या हम बीजेपी को ही विपक्ष के रूप में श्रेष्ठ मानने का मन बना चुके है? सवाल उठ सकते हैं कि क्या हम बीजेपी को विपक्ष के
रूप में श्रेष्ठ मनवाकर सत्ता के लिए बीजेपी को उतना ठीक नहीं मानते? ढेरों सवाल उठ सकते हैं यह हमें ज्ञात है।
देखिए, सत्ता के लिए कौन श्रेष्ठ है उसकी चर्चा हम ऊपर कर ही चुके हैं। उस सवाल से जो परिणाम मिलेंगे वो कितने सही होंगे, कितने गलत,
अति भिन्न परिणामों के बाद एक देश के रूप में सभ्यता सही सड़क के लिए निकलेगी या बीच
रास्ते में ही अटक जाएगी, इन सारे कोण तथा दूसरे भी अन्य ढेरों कोण को लेकर सत्ता के
लिए कौन श्रेष्ठ है वाले सवाल को हम पहले ही अनुचित ठहरा चुके है। सत्ता के लिए
कौन श्रेष्ठ है वाला सवाल तो सदैव नागरिकों में छाया रहता है। उस सवाल से ज्यादा
फायदेमंद सवाल हमने पेश कर दिया कि ऐसा कौन सा दौर रहा जब नागरिकों ने अपने लिए
सत्ता को सबसे बेहतर बनाया? लेकिन फिर भी किसीको नागरिकी दोष और नागरिकी
जिम्मेदारी व जवाबदेही से बच निकलना है और अपने अपने हिसाब तथा मान्यताओं के आधार पर
श्रेष्ठ सत्ता को ही चुन लेना है तो फिर लोकतंत्र में इसकी छूट तो संविधान भी देता
है।
दूसरा सवाल जो है, जो ऊपर लिखा है - विपक्ष के रूप
में क्या बीजेपी ही श्रेष्ठ है? दूसरे नहीं? क्या बीजेपी से भी बेहतर विपक्ष कोई है? उसे लेकर जितने
भी सवाल या तर्क आ सकते हैं उन सवालों या तर्कों का थोड़ा सा अंश तो ऊपर ही पेश कर
दिया। हमने पहले सवाल को क्यों अनुचित ठहराया तथा हमारा अनुचित ठहराना ही किसीको को अनुचित लगता हो तो लोकतंत्र में संवैधानिक छूट वाला ज़िक्र भी किया। ऐसा भी नहीं है कि हम जबरन इसी मुद्दे पर ही
चर्चा करना चाहते है कि बीजेपी ही विपक्ष के लिए श्रेष्ठ है, या फिर दूसरा कोई भी
विपक्ष के लिए श्रेष्ठ है। विपक्ष के लिए सबसे श्रेष्ठ कौन है – यह सवाल पहले वाले
सवाल (सत्ता के लिए कौन श्रेष्ठ है) से ज्यादा उचित क्यों लगता है इसका उत्तर नीचे
बोल्ड फॉन्ट में लिखे गए कथन में दिया गया है।
भारत जैसे लोकतंत्र में नागरिकों को सदैव विपक्ष बने
रहना चाहिए। भारत जैसे लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष, दोनों अतिमहत्वपूर्ण हैं। अब तक
देखा गया है कि सत्ता विपक्ष को प्रेरित या मजबूर करे उससे ज्यादा फायदेमंद यह रहा
है कि विपक्ष ही सत्ता को प्रेरित या मजबूर करने की क्षमता रखता हो। भारत जैसे
लोकतंत्र में विपक्ष की शैली अतिमहत्वपूर्ण विषय है।
भारत में सैकड़ों राजनीतिक दल हैं। राष्ट्रीय दल हैं,
क्षेत्रीय दल हैं। तो साथ में मौसमी घास जैसे राजनीतिक दल भी हैं। लाजमी है कि राष्ट्रीय
और क्षेत्रीय दलों की बातें ज्यादा होती हैं। यह भी सच है कि मौसमी घास जैसे दलों ने
भी सरकारें बनाने या बिगाड़ने में अपना सह्योग दिया है। लेकिन ज्यादातर राष्ट्रीय और
क्षेत्रीय दलों ने अपना दबदबा कायम रखा है। राष्ट्रीय दल पांच या सात है, लेकिन
इनमें बीजेपी और कांग्रेस के दो नामों की ही चर्चा होती है। भारतीय लोकतंत्र में क्षेत्रीय दलों का भी अपना महत्व है। कोई यह कह दे कि इन्होंने भारत को आगे जाने से
रोका तो यह तर्क भी एक तरीके से झूठा तर्क साबित होता है। इसकी बड़ी लंबी चर्चा हो
सकती है, किंतु क्षेत्रीय दलों का अपना एक स्थान है, अपनी एक हैसियत है, योग्यता भी
है। राजनीति जो भी हो, लेकिन तभी तो वन नेशन वन इलेक्शन के मुद्दे पर क्षेत्रीय
विरुद्ध राष्ट्रीय दलों का मुद्दा (चुनाव तथा चुनावी प्रचार-प्रसार, सभ्यताओं तक
अपनी बात पहुंचना, उन्हें प्रेरित या सजग करना, या भ्रमित करना, केंद्रीय सत्ता की
कमियां या खूबियां कोने कोने तक पहुंचाना, योजनाओं-नीतियोंं को लेकर समाज से जुड़ना)
चर्चा के अधीन विषय है।
पिछले कुछ काल से ही नहीं, बल्कि आजादी के बाद के दौर
का सटीक के करीब अध्ययन करे, उसे राजनीतिक नजरिये की कसौटी पर कसे, तो यही उभरता
है कि कभी भारत की राजनीति में शून्यता से लेकर भारतीय राजनीति के तमाम उच्चतम पदों तक काबिज होकर, भारतीय लोकतंत्र के तमाम स्तंभों को प्रभावित करने की हैसियत अगर
किसीने अर्जित की हो तो वह बीजेपी ही है। बड़ी से बड़ी सत्ता हो, लोकप्रियता के
सामने लड़ना हो, सड़कों की राजनीति करके भारत को झकझोरना हो, लोगों के मुद्दों को संसद
से खींचकर गलियों-नुक्कड़ों में लाना हो, इसमें बीजेपी ने महारत हासिल की है। दूसरे
भी कई नाम हैं इसमें। भारतीय राजनीति के जितने भी दौर रहे, कई चेहरे बतौर विपक्ष
सरकारों को प्रभावित करते रहे। यूं कहे कि जनता से जुड़े मुद्दे को देश के मानस पटल
पर रखते रहे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया, वीपी सिंह सरीखे बीते हुए काल
से लेकर आज की 21वीं शताब्दि में ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव या कुछ काल के लिए
अरविंद केजरीवाल समेत दूसरे भी कई नेता हैं भारत की राजनीति में, जिन्होंने विपक्ष के
रूप में अपनी एक अलग ही छाप छोड़ी है।
भारतीय लोकतंत्र में 'सड़क की राजनीति' हमेशा प्रभावी
रही है। सड़क की राजनीति, यह लफ्ज़ सड़कछाप राजनीति से परे है, भले ही इसके आसपास
दिखता हो! कभी
प्रचार-प्रसार के संसाधनों के अभाव के युग से लेकर आज के सोशल मीडिया के युग तक,
सड़क की राजनीति ने ही दिशा और दशा बदली है। हमने लिखा वैसे, 1947 से लेकर 2019 तक,
कई ऐसे नेता आए जिन्होंने बतौर विपक्ष सत्ता को झकझोर दिया, बतौर विपक्ष देश को नये
विकल्प दिए, बतौर विपक्ष लोकप्रयिता हो या निरंकुशता हो, सभी को मजबूर किया।
लेकिन इन तमाम नामों में कोई एक व्यक्ति शामिल रहे। वो
उस दौर को लंबे समय तक जीवित नहीं रख पाए। उनकी विचारधारा, उनकी सोच समूचे देश की
सोच लंबे समय तक नहीं बन पाई। ज्यादातर तो क्षेत्रीय राजनीति में जबरदस्त और ताकतवर
विपक्ष हैं, लेकिन उनकी पहुंच उस इलाके तक सीमित रही। हो सकता है कि बीजेपी से भी
ज्यादा ताकतवर विपक्ष कहीं पर आज मौजूद हो। लेकिन कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर वो
व्यक्ति या वो संगठन या वो राजनीतिक दल ऐसे चमत्कार या ऐसी सफलताएँ प्राप्त नहीं कर
पाए, जितनी बीजेपी ने की।
हम फिर एक बार नोट करते हैं कि 1947 से लेकर 2019 तक,
इतने विशाल राष्ट्र में कई क्षेत्रीय व्यक्ति या क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन रहे,
जिन्होंने केंद्रीय सत्ता तक को झकझोरे रखा। ऐसे मौके कम नहीं हैं। लेकिन उनका दौर,
उनकी सोच, उनकी मानसिकता या उनकी विचारधारा लंबे समय तक तथा राष्ट्रीय स्तर पर
व्यापक रूप में हावी नहीं रही। यह कारनामा बीजेपी के हिस्से में ही आया है।
वो दौर, जब सबको पता होता था कि चुनाव चाहे कितने
भी दल लड़ ले, जीतेगी तो कांग्रेस ही, बीजेपी ने उस दौर में भारतीय राजनीति में शून्यता से शुरुआत की। लेकिन शुरुआत से ही हिंदुत्व के अपने नारे को नगाड़े पर
जोरो से पीटते हुए सामाजिकता, समरसता, आक्रामकता, विकास, विश्वास तक का सफर चुपके
से नहीं बल्कि जोर-जोश से तय करती गई। एक बात को सच मान ले, जहां कहा जाता है कि
बीजेपी और उसकी मातृसंस्था संघ का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं रहा है। थोड़ी देर के लिए मान लेते है इस बात को। तब तो ये तर्क ज्यादा मजबूत होता
है कि उनसे बेहतर विपक्ष कौन उभरा है आज तक? क्योंकि बिना किसी स्वर्णिम इतिहास के, बिना किसी ऐतिहासिक साये के, बीजेपी और संघ ने भारतीय राजनीति में जो हासिल किया है वो
सचमुच अकल्पनीय है! कह सकते हैं कि बिना किसी स्वर्णिम इतिहास के, बिना किसी ऐतिहासिक साये के, बीजेपी
और संघ ने हजारों साल का पुराना सुनहरा बीता कल, हजारों साल के राष्ट्रीय इतिहास
तथा राष्ट्रीय भावना तथा उन राष्ट्रीय प्रतीकों का बखूबी इस्तेमाल करके वो जीत लिया
जिसकी उम्मीद स्वर्णिम इतिहास और ऐतिहासिक साये वाले संगठन या राजनीतिक दल को भी
नहीं होती थी!!!
बीजेपी ने बतौर विपक्ष सिर्फ कारनामे ही नहीं किये,
बल्कि भारतीय राजनीति में विपक्षी कर्तव्यों के जो स्थायी पैमाने थे उसको सफलतापूर्वक
संपन्न भी किये। जिसके पास अपना कुछ था ही नहीं, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना कोई इतिहास नहीं छोड़ा, जिसके पास अपना कोई ऐतिहासिक प्रतिबिंब ही नहीं था, उसने नेहरू से लड़ा, उसने इंदिरा से लड़ाई लड़ी, उसने
राजीव से लड़ाई लड़ी!!! इन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र में, भारतीय सभ्यताओं में, भारतीय राजनीति में खुद की विचारधारा को स्थापित किया। वो विचारधारा भले ही विवादित हो, लेकिन स्थापित तो ज़रूर किया। जिसके पास अपना कोई
सुनहरा इतिहास ना हो वह राजनीतिक दल अपनी विचारधारा को स्थापित कर जाए यह बात
सामान्य सी घटना नहीं है! उसने हिंदुत्व को, राष्ट्रवाद को, राष्ट्रीय प्रतीकों को ही नहीं सत्ता दल की
कमजोरियों को, सत्ता दल के बंटवारे को, सत्ता दल के अंदर की भिन्न विचारधाराओं को,
सत्ता दल की छोटी सी विफलताओं को, आम जनमानस को, उनकी आकांक्षाओं को, उनकी आशाओं को,
उनके सपनों को, उनकी मान्यताओं को या गैरमान्यताओं को... बखूबी भुनाया। यूं कहे कि
भारत का जो समाज था, उसकी जो आशाएँ थी, आकांक्षाएँ थी, मान्यताएँ थी, गैर मान्यताएँ थी, सपनें थे, उन सबका जिम्मा उठाने का काम हमेशा बीजेपी करती रही।
बतौर विपक्ष बीजेपी ने क्या किया यह ठीक है, लेकिन
बतौर विपक्ष बीजेपी ने दूसरों से कितना बेहतर किया यह समझने के लिए दूसरों ने बतौर
विपक्ष कितना किया ये भी समझना ज़रूरी है। दूसरों ने जो किया उसका साया कितना लंबा
चला यह कोण भी रखना ज़रूरी है। क्योंकि 'चंद सालों के चमत्कार' यहां देखने को मिल
जाएंगे इसका ज़िक्र तो पहले ही कर लिया है। बीजेपी बतौर विपक्ष दूसरों से आगे है यह
समझने के लिए एक विचित्र सा नजरिया भी है। हमने एक लेख लिखा था – Imagine Impossible : सोचिए, अगर नरेन्द्र मोदी विपक्ष के साथ मिल जाए तो
क्या हो? इस लेख में एक विचित्र सा नजरिया है। बात सिर्फ
नरेन्द्र मोदी की नहीं है, बल्कि बतौर विपक्ष बीजेपी के जोश की है। उस लेख में एक
नजरिया यह था कि अगर बीजेपी के पास बतौर विपक्ष जो जोश है या नरेन्द्र मोदी के पास
जो लहजा है, वो अगर कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल के पास होता तो 1947 से लेकर 2019
तक का कांग्रेसी सत्ता का इतिहास, उसका नजरिया लोगों के सामने बहुत ही अलग होता।
जिस कांग्रेस ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना
योगदान दिया, जिसने आजादी के लिए लड़ाईयां लड़ी, जिसने भारत के विकास में, विज्ञान
में, कृषि में, संरक्षण में, विदेशनीतियों में, शिक्षा में, स्वास्थ्य सेवाओं में अपना महत्वपूर्ण
योगदान दिया, जिस कांग्रेस ने अपने चार-चार प्रधानमंत्री देश के लिए कुर्बान किए,
उस कांग्रेस ने देश के विकास के लिए-देश की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं किया यह
मान्यता बीजेपी ने स्थापित कर दी!!! ये कांग्रेस की कमजोरी तो है, साथ में बीजेपी की
बतौर विपक्ष बड़ी राजनीतिक जीत भी है। आज जो भारत है, उसकी जितनी ताकत है, उसकी
जितनी दुनिया में हैसियत है, उस सफलता का बहुत बड़ा हिस्सा कांग्रेस को जाता है।
एशिया का नकशा बदलने का कारनामा कांग्रेस ने किया, पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर एशिया के नकशे में एक नये ही देश को स्थापित करने का काम कांग्रेस ने
किया। 1947 के बाद शून्यता को भरकर कांग्रेसी राजनीति ने भारत को ठोस दिशा दी,
ढांचा दिया। किसी अंग्रेज ने आजादी के समय कहा था कि अगर हम भारत को आजादी देंगे
तो आनेवाले दस सालों में भारत का दिवाला निकल जाएगा। उस अंग्रेज को सरासर गलत ठहराने
में कांग्रेस की सत्ता का बड़ा हाथ रहा। सोचिए, बावजूद इसके आज यही मान्यता है कि
पिछले 70 सालों में कांग्रेस ने देश को बर्बाद कर दिया!!! इस मान्यता को बतौर विपक्ष बीजेपी ने स्थापित
किया। यह कोई आम राजनीतिक सफलता नहीं हो सकती।
कांग्रेस को मुस्लिम समर्थक राजनीतिक दल के रूप में चित्रित करके भारत के बहुसंख्यक मतों को अपनी ओर मोड़ने में सफलता पाना, बताइए... आज
तक कौन सा विपक्ष यह कर पाया था, सिवा बीजेपी के? यूपी जैसे विशाल प्रदेश में दलित
राजनीति के मसीहाओं को हराकर उन दलितों के वोट बैंक को अपनी ओर खींचने में सफलता पाने
का काम बीजेपी के अलावा यूपी में कौन कर पाया है? जिस देश में चुनाव ही धर्म और जाति
के नाम पर लड़े जाते हो वहां लगातार दो लोकसभा चुनावों में जातिओं का अंकगणित घराशायी
करने का काम 21वीं शताब्दी में बीजेपी ने ही तो किया है। यह सच है कि 1985 से पहले
के दौर में कांग्रेस ने कई दफा जातिओं का अंकगणित धराशायी किया था। सच है कि
कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में सीटों और मत प्रतिशत का जो रिकॉर्ड बनाया है उससे
बीजेपी फिलहाल बहुत दूर है। लेकिन ये भी सच ही है कि उसी कांग्रेस को इतिहास के
सबसे बुरे दौर में पहुंचाने का काम बीजेपी की आक्रामक विपक्षी नीतियों ने ही किया
है।
1947 से लेकर 2019 तक के सफर की राजनीतिक घटनाओं को
समेटना आसान नहीं है। लेकिन इतिहास के पन्नों को खुद ही उल्टाकर देख लीजिए। कांग्रेस
के सामने भारतीय राजनीति में कोई नहीं था। भारतीय राजनीति में कांग्रेस का विकल्प देश
की जनता को देना... इस दिशा में कइयों ने काम किया होगा, लेकिन जो जीता वही
सिकंदर। गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी भी थी एक दौर में। लेकिन उसको बनानेवाले या उस
सरकार को चलानेवालों की सोच-विचारधारा या उनका साया राष्ट्रीय स्तर पर कही नहीं है
आज। कांग्रेस की विचारधारा के सामने एक ही विचारधारा है, बीजेपी की। ये सच है कि
संघ का एक घड़ा बीजेपी की ताज़ा और नई अनिश्चित विचारधारा को लेकर चिंतित है। किंतु
जिस संघ को एक दफा प्रतिबंधित कर दिया गया था, उस संघ से निकलनेवाले लोग आज
राष्ट्रपति है, प्रधानमंत्री है, गृहमंत्री है, लोकसभा अध्यक्ष है, राज्यों के
मुख्यमंत्री तक है। लोकतंत्र के कई बड़े बड़े पद आज उसी संगठन से निकले लोग संभ्हाल
रहे हैं, जिन्हें प्रतिबंधित किया गया था!!! क्या यह कोई सामान्य सी सफलता है? जिस अमित शाह
को, जो उन दिनों गुजरात राज्य के गृहमंत्री थे, अदालत ने फर्जी एनकाउंटर मामले में तड़ीपार किया था, आज वो देश के गृहमंत्री है। समय के चक्र का यूं उलटना खुद ही तो
नहीं हुआ होगा।
हमने लिखा वैसे, 1947 से लेकर 2019 तक की वो घटनाएँ महाग्रंथ में ही समन्वित हो सकती हैं, किसी एक लेख में नहीं। इसीलिए पुराना दौर आपको
ज्ञात होगा यह मान लेते हैं। वो दौर, जब नेहरू का विराट आभामंडल व्याप्त था, बीजेपी का शुरुआती
दौर, जिसे जनसंघ के नाम से जाना जाता है, ने बतौर विपक्ष अपनी पारी ठोस कदमों के
साथ शुरु की थी। नेहरू के विराट आभामंडल के सामने श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे
राजनेता खुलकर आवाज उठाने का माद्दा रखते थे। इंदिरा के अति विराट आभामंडल के
सामने वाजपेयी की प्रतिभा छुप नहीं पाई। आडवाणी की धार्मिक राजनीति ने देश में
राजनीति के समयचक्र को किस हद तक घुमा दिया सभी को ज्ञात है।
कांग्रेस के 1947 के बाद के राजनीतिक सफर में सत्ता
को भोगने का मौका ज्यादा आया। 2014 तक ज्यादातर तो बतौर सत्ता कांग्रेस ने ही
दिल्ली की कुर्सी का आनंद उठाया। वैसे उसे कई राज्यों में बतौर विपक्ष के रूप में काम
करने का अवसर ज़रूर मिला हुआ था। किंतु कांग्रेस के राजनीतिक सफर का एक विशेष पहलू
यह रहा कि जब जब उसे सत्ता मिली वह अहंकार से लिपटी और जब जब सत्ता गंवाई वो कहीं
ठिठुर के बैठ गई!!! भाजपा को बतौर विपक्ष काम का अवसर ज्यादा मिला। कांग्रेस के पास भी सेवा दल
था, जो संघ से पहले बना था। लेकिन आज बीजेपी और संघ भारतीय राजनीति तथा भारतीय
सभ्यता, दोनों विषयों में कितने आगे हैं सब जानते हैं। उधर कांग्रेस के पास सेवा दल था
या है इसकी जानकारी कांग्रेस के ही कई मतदाताओं को नहीं है!!!
कांग्रेस ने बतौर सत्ता जो अनैतिक काम किए, जो
मर्यादाएँ लांधी, संविधान या स्वायत्त संस्थाओं को जिस तरह से सत्ता के आगे का रोड़ा समझा... सत्ता के छोटे काल में बीजेपी में भी वो सारे दुर्गुण नजर आने लगे। लेकिन
बतौर विपक्ष बीजेपी के पास जो जज्बा है, जो तैयारियां है, जो मेहनत है, जो
जिजीविषा है, जिस तरह का जोश और जुनुन है, कांग्रेस के पास दूर दूर तक कहीं नहीं है।
बीजेपी ने कांग्रेस के दुर्गुणों को तो अपना लिया, लेकिन कांग्रेस बीजेपी के गुणों को अपना नहीं पाई!!!
बीजेपी ने बतौर विपक्ष जो हासिल किया है उसका सटीक
मुकाबला कर पाना करीब करीब नामुमकिन है। हमने पहले लिखा वैसे, जनसंघ के जमाने से
लेकर 2014 के दौर तक, आपको कई ऐसे वाक़ये मिल जाएंगे। उन सबको एक लेख में समेटना
नामुमकिन है। कुछ ताज़ा और प्रमुख मुद्दों को देखे तो...
बीजेपी ने एक साथ दो तीरों को निशाने पर मारा... पहला – खुद को हिंदुओं की हितेच्छी पार्टी के
रूप में स्थापित किया, दूसरा – कांग्रेस को मुसलमानों की पार्टी के रूप में प्रचारित
कर दिया
राम मंदिर का ताला खुलवाने के बाद भी कांग्रेस
मुस्लिमों की पार्टी है और मुस्लिमों को मस्जिद या करोड़ों की सब्सिडी देने के बाद भी
बीजेपी हिंदुओं की पार्टी है!!! क्या इस अवधारणा के पीछे बीजेपी की बतौर विपक्ष जो
रणनीतियां रही उसको श्रेय नहीं जाता? कभी कभी वो दौर भी आए जब बीजेपी ने कांग्रेस को
हिंदू विरोधी पार्टी के रूप में भी चित्रित करने के प्रयास किए। जिस ममता के सामने
किसी की हिम्मत नहीं होती थी उसके घर में घुसकर ममता के क़िले को ढहाना बीजेपी ने ही
शुरु किया। कांग्रेस में वो दम ही नहीं था, वर्ना अब तक वो बंगाल में ममता को चुनौती
देने की अवस्था में होते। ममता के खिलाफ बीजेपी की रणनीति करीब करीब वैसी ही रही,
जैसी कांग्रेस के खिलाफ थी।
हिंदू धर्म की राजनीति से लेकर हिंदुओं के सबसे बड़े आस्थास्थलों में से एक राम मंदिर का मुद्दा। बतौर विपक्ष बीजेपी के इस सफर को
राजनीतिक नजरिए से समझना भी ज़रूरी है। जिसके पास सब कुछ था वो आज कुछ नहीं है,
जिसके पास कुछ नहीं था वही आज सब कुछ है!!! उसके बाद भी बीजेपी इतनी सजग रही कि उसे हमेशा खयाल रहा कि इतना भी धार्मिक
नहीं बनना है कि धर्मसंकट यह हो कि धर्म ही संकट बन जाए!!! धर्म को लेकर जबरदस्त उफान फैलानेवाली बीजेपी विकास के नाम पर भी जीत गई। विकास
के नाम पर जीतने के बाद भी उसने धार्मिक पहचान वाली छवि को हमेशा मजबूत रखा।
एफडीआई, जीएसटी, काला धन, आधार योजना से लेकर लगभग
तमाम मुद्दों पर बीजेपी ने कांग्रेसी सत्ता की शैली को तथा कांग्रेसी विचारधारा को
कटघरे में खड़ा कर दिया, फिर जब खुद की बारी आई तो उन तमाम मुद्दों पर वही नीति लागू
कर दी जो कांग्रेस चाहती थी...!!! सोचिए, बतौर विपक्ष बीजेपी ने अपना काम किया, लेकिन
जब कांग्रेस की जिम्मेदारी आई, बतौर विपक्ष वो (कांग्रेस) कहीं दिखी ही नहीं! स्पष्ट तो यही हुआ कि विपक्ष के रूप में बीजेपी कांग्रेस से कई युग आगे है
यूपीए के दौरान बीजेपी और स्वयं नरेन्द्र मोदी से लेकर अमित शाह, राजनाथ सिंह,
सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी समेत कई बड़े बड़े नेताओं ने कई ऐसे मुद्दे
थे, जिनका खुलकर और जोर-जोश से विरोध किया। फिर उन मुद्दों पर बतौर सत्ता बीजेपी ने
क्या किया यह सार्वजनिक और ताज़ा इतिहास है। नोट करे कि यहां इस लेख का दृष्टिकोण
फिलहाल तो बीजेपी के यू-टर्न को लेकर नहीं है। किंतु कोण सीधा सीधा यही है कि
बीजेपी ने उस दौर में बतौर विपक्ष अपना जो राजनीतिक कर्तव्य था उसे निभाया और सत्ता
को सदैव भींचकर रखा। इसमें अन्ना हजारे वाला आंदोलन और उस आंदोलन के पर्दे के पीछे के विवाद में बीजेपी और संघ को भी रखकर समझ लीजिएगा। बीजेपी राई का पहाड़ तो बना ही लेती थी, साथ में जब राई नहीं होती थी तो राई ढूंढ भी लेती थी। इधर, बतौर विपक्ष कांग्रेस को बैठे-बिठाए वो सारे मुद्दे मिले, जो
आमतौर पर इतनी जल्दी किसी विपक्ष को नहीं मिलते। लेकिन विपक्ष के रूप में कांग्रेस
ने आलसीपन को अपना सबसे बड़ा गुण बनाए रखा! वर्ना बीजेपी ने जिन मुद्दों के लिए यूपीए सत्ता को
घेरा था, उन्हीं मुद्दों को लागू करते समय कोई तो बीजेपी सत्ता को घेर सकता था।
लेकिन कांग्रेस समेत दूसरे तमाम राजनीतिक दल विपक्ष के रूप में निहायती कमजोर और
आलस्यपन का ताज पहने बैठे हुए दिखाई दिए।
यूपीए के दौरान बीजेपी ने एफडीआई के मुद्दे को किसी दानव के रूप में पेश किया। कांग्रेस
के शासन के दौरान नरेन्द्र मोदी और बीजेपी, दोनों ने कहा था कि एफडीआई के जरिए
कांग्रेस देश को विदेशियों के हाथों में सौंप रही है। पार्टी ने 2012 में इस मुद्दे पर सरकार को पीछे धकेलने के लिए महाबंद भी बुलाया
था। उस दौरान नितिन गडकरी ने कहा था कि यह तो एक शुरुआत है, हम तब तक संघर्ष करेंगे जब
तक सरकार कदम वापस नहीं खींच लेती। अरुण जेटली ने कहा था कि बीजेपी अंतिम सांस तक
एफडीआई का विरोध करेगी। एफडीआई को लेकर बीजेपी ने कांग्रेस सत्ता के दौरान समूचे
देश में यह मान्यता स्थापित कर दी कि एफडीआई से देश का नुकसान होगा, छोटे
व्यापारियों का खात्मा हो जाएगा। इससे भी अधिक मान्यताएँ पसर रही थी उस वक्त।
लेकिन उससे भी बड़ी बात यह थी कि बीजेपी ने बड़ी चतुराई से एफडीआई से भी ज्यादा कांग्रेस को ही जनता की
अदालत में कटघरे में खड़ा करने में सफलता पायी थी। एफडीआई से ज्यादा तो कांग्रेस बुरी
है, यह धारणा जनमानस में बीजेपी ने स्थापित करने का हर संभव प्रयास किया। सफलता
भी मिली। बीजेपी ने बड़ी चतुराई से एफडीआई और कांग्रेस की सत्ता को जोड़ा। फिर बड़ी चतुराई से एफडीआई से भी ज्यादा कांग्रेसी सत्ता की शैली, कांग्रेसी विचारधारा को कटघरे में खड़ा कर दिया। हालात यह रहे कि कांग्रेस को नकारने में इसी एफडीआई विरोधी
आंदोलन का बड़ा हाथ रहा। लेकिन बतौर विपक्ष बीजेपी ने जिन रणनीतियों से एफडीआई के
जरिए कांग्रेस को ही कटघरे में खड़ा किया था, उसके अंतिम हालात तो यह बने कि जब
बीजेपी सत्ता में आई तो बीजेपी और पीएम नरेन्द्र मोदी कह गए कि एफडीआई का मतलब है
फर्स्ट डेवलप इंडिया। इन्होंने बतौर विपक्ष जिस एफडीआई का विरोध किया था उसे अपनी
सत्ता में लागू भी कर दिया। जिन जगहों पर 49 प्रतिशत विदेशी निवेश का विरोध करते थे
वहीं पर उसे सौ फिसदी तक पहुंचा दिया।
अब इस घटनाक्रम में
समझना तो यही है कि बतौर विपक्ष एफडीआई के जरिए बीजेपी ने जो पाया, कांग्रेस
विपक्ष के रूप में मूकदर्शक की भांति सब देखती रही, जब बीजेपी उसी एफडीआई को लागू
कर रही थी! बतौर विपक्ष कांग्रेस ने एक विरोध प्रदर्शन भी नहीं किया। उनके नेताओं ने कोई
भरचक प्रयास नहीं किए। यानी कि विपक्ष के रूप में बीजेपी जितनी मजबूत थी, कांग्रेस
विपक्ष के अवतार में उससे कई गुना ज्यादा कमजोर साबित हुई।
जीसएटी के विषय ऊपर
भी बीजेपी ने कांग्रेस को पटखनी दी। यूपीए-2 के दौरान जब जीएसटी बिल पेश किया गया
तब नरेन्द्र मोदी शासित गुजरात सरकार के वित्तमंत्री सौरभ पटेल ने विरोध किया था।
बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी जीएसटी को देश को बर्बाद करनेवाली टैक्स
प्रथा बता चुके थे। उन्होंने जीएसटी को गैरज़रूरी और देश के लिए खतरनाक टैक्स
प्रवृत्ति बताया। यहां भी कांग्रेस और जीएसटी दोनों को बीजेपी के कड़े विरोध का सामना
करना पड़ा। नोट करे कि जीएसटी के विरोध की रणनीति भी एफडीआई सरीखी ही थी, जहां जनमानस में जीएसटी से ज्यादा कांग्रेसी सत्ता और कांग्रेसी विचारधारा को कटघरे में खड़ा किया गया। इस विषय का अंत ज्यादा नाटकीय अंदाज में हुआ, जब बीजेपी ने सत्ता पर
रहते हुए इसी जीएसटी को आधी रात को संसद खोलकर, बाकायदा जश्न मनाकर लागू कर दिया।
नोट करे कि कांग्रेस के जो प्रस्तावित स्लैब थे उससे ज्यादा प्रतिशत के साथ लागू
किया गया।
इस घटनाक्रम में भी
बीजेपी और कांग्रेस, दोनों में से बीजेपी ही बतौर विपक्ष आगे निकली। बीजेपी जितना
आगे निकली, बतौर विपक्ष कांग्रेस उतना ही पीछे चली गई!!! कांग्रेस यहां भी कुछ नहीं कर पाई। वो बस देखती रही। सत्ता का स्वाद चखने की
आदत जिस कांग्रेस को थी वह बतौर विपक्ष अपने तमाम कर्तव्यों को भूल कर बेबस राजनीतिक
दल के रूप में नजर आई।
2014 में नरेन्द्र
मोदी ने यह कहकर वोट लिये कि कांग्रेस ने कुछ नहीं किया। 2019 में उनका लहजा यह रहा
कि कांग्रेस ने कुछ नहीं करने दिया, हमें वोट दे दो। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल
इस प्रचार के सामने भी कुछ नहीं कर पाए। बीजेपी ने अपने स्टैंड से सफलतापूर्वक
हटकर काम किया! नरेन्द्र मोदी का प्रथम कार्यकाल
यू-टर्न सरकार के रूप में याद रखा जाएगा। लेकिन विपक्ष के रूप में दूसरे दल निहत्थे
दिखे। जैसे कि विपक्ष जैसा कुछ हो ही ना! बीजेपी ने बतौर विपक्ष देश को जो दिया, उसका एकाध प्रतिशत भी कोई दूसरा नहीं दे पा रहा यही अंतिम नतीजा निकलता है। और तभी ये साबित होता है कि विपक्ष के रूप
में बीजेपी ही श्रेष्ठ से लेकर सर्वश्रेष्ठ है।
100 दिनों में काला
धन लाएंगे, नहीं लाए तो फांसी पर चढ़ा देना, लात मारकर भगा देना। काला धन तो नहीं आया
लेकिन कुछ काले लोग ही विदेश चले गए! यूपीए सरकार के कार्यकाल से ज्यादा विदेशगमन हुआ। एनपीए इतना बढ़ा कि सारे
रिकॉर्ड टूट गए। बेरोजगारी का स्तर पिछले 40 सालों का रिकॉर्ड तोड़ गया। महंगाई बढ़ती
गई। 15-15 लाख से अमित शाह ने पिंड छुड़ा लिया और विपक्ष आलसी साबित हुआ। मोदी कह
गए कि प्रचार में कुछ बातें तो यूं ही कह दी जाती हैं, उसे ध्यान में ना ले। विपक्ष था
ही नहीं, तभी तो सत्ता यह कह गई! विपक्ष इतना कमजोर निकला कि सत्ता से तो ठीक है, वो रामदेव बाबा और रविशंकर
महाराज जैसे महानुभावों से भी सवाल नहीं पूछ पाया कि भई उस लिखित समझौते का क्या हुआ
और डॉलर-रुपये का ज्ञान कहां गया?
बीजेपी ने विपक्ष
के रूप में कहा कि आधार देश के लिए खतरा है, आतंकियों की घुसपैठ बढ़ेगी। सत्ता में
रहते हुए कह दिया कि आधार न बनवाना अपराध है, आधार से आतंकियों पर लगाम लग सकती है।
विपक्ष को कोल्ड स्टोरेज में किसीने रख दिया था शायद, लिहाजा सामने वाले खेमे में
चुप्पी का राज कायम रहा! विपक्ष के रूप में
बीजेपी ने कहा कि मनरेगा यूपीए की असफलता का स्मारक है, सत्ता में रहते हुए कह दिया
कि मनरेगा राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। पहले कहा कि कांग्रेस भारत माता की भूमि
को बांग्लादेश के चरणों में डाल रही है, सत्ता में आए तो कह दिया कि भारत-बांग्ला
भूमि हस्तांतरण समझौता ऐतिहासिक है। पहले कहा कि पाकिस्तान को उसीकी भाषा में जवाब
देंगे, फिर कह दिया कि वक्त चाहिए ऐसे पाकिस्तान नहीं सुधरनेवाला। पहले कहा कि चीन
को भी आंख दिखाएंगे, फिर कह दिया कि पडोसी देशों के साथ सौहादपूर्ण रिश्ते से ही
विकास होता है। पहले कहा कि धारा 370 को खत्म कर देंगे, फिर नये चुनाव में दोबारा
कहा कि अब की बार सरकार बनी तो धारा 370 हटा देंगे। पहले कहा कि सत्ता में आते ही
राम मंदिर बनाएंगे, फिर कहा कि दोबारा मौका दो, राम मंदिर के लिए हर संभावनाएँ तलाशेंगे। पहले कहा कि भारत-चीन युद्ध के दस्तावेज जनता के सामने आने चाहिए, फिर
कह दिया कि दस्तावेज सार्वजनिक करना देशहित में नहीं है। यूपीए ने नोटबंदी के लिए
प्रयास किया तो विरोध किया, सत्ता में आए तो नोटबंदी लागू कर दी। नोटबंदी के समय
कहा कि इससे काला धन खत्म होगा, आतंकवादियों की कमर टूट जाएगी, जाली नोट खत्म
होंगे... फिर कह दिया कि किसी एक कदम से आतंकवाद, काले धन और जाली नोट को खत्म नहीं किया जा सकता। पहले कहा कि शहीद हेमराज और सुधाकर के मामले में कांग्रेस ने देश को
शर्मसार किया है, फिर सत्ता के समय बाकायदा कह दिया कि यूपीए ने जो किया वो
पर्याप्त था आगे कुछ करने की ज़रूरत नहीं। पहले कहा कि नेताजी की फाइलें सार्वजनिक
होनी ही चाहिए, फिर कह दिया कि कुछ महत्वपूर्ण फाइलें सार्वजनिक नहीं की जा सकती।
रेल किरायों की
बढ़ोतरी के समय आंदोलन खड़ा किया, जब सत्ता में आए तो रेल किराया बढ़ाकर कहा कि कड़वी
दवाईयों की ज़रूरत है। कहा कि एक साल में संसद को गुनाहगारों से मुक्त कर देंगे,
लेकिन चुनाव-दर-चुनाव क्रिमिनल छवि वाले नेताओं की तादाद बढ़ती गई। कांग्रेस के समय
कहा कि जनलोकपाल और लोगों के बीच कांग्रेस राक्षस की तरह खड़ी है, सत्ता आई तो पांच
सालों तक जनलोकपाल को याद भी नहीं किया। यूपीए के समय एनसीटीसी का विरोध किया, सत्ता
में आए तो उसे लागू करने की तैयारी शुरु कर दी। बतौर विपक्ष घोषणापत्र में लागत का डेढ़
गुना लाभकारी मूल्य देने की बात की, सत्ता में आए तो अदालत में शपथपत्र देकर लाभ
देने से इनकार किया, फिर चुनाव आया तो इसे लागू करने की बात कर दी। भूमि अधिग्रहण
पर कांग्रेस के फैसलों का विरोध किया करते थे, सत्ता में आए तो कांग्रेस ने जो नहीं किया था वही संशोधन लागू कर दिया। किसान नाराज हुए तो फिर एक बार अध्यादेश वापस ले
लिया। ईपीएफ पर टैक्स लगा दिया, लोगों ने नाराजगी जताई तो वापस ले लिया।
पहले
प्याज-टमाटर-इंधन के दाम बढ़ने पर देशभर में आंदोलन होता था, बीते पांच बरस में महंगाई रिकॉर्ड स्तर तक पहुंची लेकिन देश ने आंदोलन तो क्या, कोई छोटावाला दमदार विरोध-प्रदर्शन
तक नहीं देखा! बीजेपी ने साबित किया कि पिछली बार
महंगाई सरकार बढ़ाती थी, अब की बार महंगाई खुद-ब-खुद बढ़ रही है, इसमें सरकार का कोई
रोल नहीं है!!! बिहार-यूपी, दोनों जगहों पर बीजेपी की सरकारें थी। दोनों जगहों पर बीते पांच बरस में अस्पतालों में बच्चों,
मरीजों की मृत्यु को लेकर बड़ी बड़ी घटनाएँ होती रही। कभी ऑक्सीजन की कमी से 100 से
अधिक बच्चे महज कुछ दिनों में जान से हाथ धो बैठे। कभी किसी कथित बीमारी (या बहाने)
के चलते बच्चों के मरने की तादाद तीन आंकड़े तक जा पहुंची। ये घटना दोनों राज्यों में एक से अधिक बार हुई। मजाल थी किसीकी कि विरोध कर पाता?
मवेशियों के
(गाय-भैंस) मुद्दे पर बीजेपी तमाम राज्यों की प्रतिपक्ष सरकारों को कटघरे में खड़ा करती थी, सत्ता में आए तो बहुत ही विवादित अधिसूचना ले आए मवेशियों पर। जनता की
नाराजगी बढ़ी तो उस आदेश को रोक ज़रूर दिया, लेकिन इसमें विपक्ष का कोई रोल नहीं था। पहले
कहा करते थे कि आरक्षण देश के विकास में बाधा है, फिर सत्ता मिली तो सवर्णों को
आरक्षण दे दिया। गंगा की एक बूंद साफ नहीं हुई, दो संत इस जन-आंदोलन में शहीद हो गए,
लेकिन गंगा फिर भी बीजेपी के लिए वोट का जरिया बनी रही। सुप्रीम कोर्ट ने पहली दफा
किसी केन्द्र सरकार के लिए टिप्पणी कर दी कि सरकार कुंभकर्णी नींद में सोई हुई है,
लेकिन विपक्ष ने कहा कि सोए हुए तो हम हैं!!! पारदर्शिता, जवाबदेही, अहम नियुक्तियां, आरटीआई, अपराधीकरण, महिला विरुद्ध
अपराध से लेकर चुनावी आचार संहिता, संस्थाओं का दुरुपयोग, संस्थाओं को खत्म करने के
प्रयास, नोटबंदी में मौतें, अस्पतालों में मौतें, विवादीत नीतियां, मरती योजनाएं,
महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, सैनिकों को जंतर-मंतर पर पीटना, आरबीआआई-सीबीआई और
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक विवाद, भ्रष्टाचार, एनपीए, बैकिंग फ्रोड, भगोड़ा योजना, आंकड़ों को बदलना, आंकड़ों को छुपाना, मीडिया पर नियंत्रण, फेक न्यूज़ फैलाना, लोकतंत्र के
स्थायी पैमाने से हटना, अनैतिकता... सब कुछ हुआ। लेकिन विपक्ष कुंभकर्णी नींद में था। अगर बीजेपी को बैठे-बिठाए ऐसे मुद्दे मिलते तो क्या क्या कर जाते यह सोच
लीजिए।
ये महज कुछ ही अंश
है। नोट करे कि यहां हमारा दृष्टिकोण यू-टर्न को लेकर नहीं है। किंतु बतौर विपक्ष
बीजेपी ने देश को जो दिया, उसका हजारवां हिस्सा भी आज का विपक्ष नहीं दे पाया।
बीजेपी जब विपक्ष के रूप में थी, उसने खुद ही मौके उत्पन्न किए थे। यहां विपक्षों को
बैठे-बिठाए मौके मिले, लेकिन परिणाम शून्य! जैसे कहा वैसे यह महज कुछ ही अंश है, विपक्ष के रूप में कौन श्रेष्ठ रहा उसे
समझने के लिए। बीजेपी ने नेहरू के जमाने से लेकर मनमोहन तक, कई मुद्दों को, कई
विषयों को स्वयं ही खड़ा किया। देशभर में फैलाया। उसे विचारधारा बनाया। लेकिन इससे भी आगे की
कहानी यह रही कि बीजेपी ने उन मुद्दों को सत्ता की शैली, सत्ता की नाकामी, सत्ता की
कमजोर विचारधारा, सत्ता की मानसिकता से जोड़े रखा। जनमानस में मुद्दों के बजाय
तत्कालीन सत्ता को दोष देने में बीजेपी ने सफलता पाई।
बीजेपी और उनके
नेताओं ने जिन प्रतीकों का इस्तेमाल करके राजनीति की घुरी को मनचाहे कोण पर घुमाया
उस पर चर्चा हो सकती है। किंतु एक बात स्पष्ट रही कि बीजेपी ने उन तमाम विषयों को
देश के लिए राष्ट्रीय मुद्दा बनाया, जिसे वे बनाना चाहते थे। हिन्दी, हिंदुत्व,
संस्कृति, पुरातन काल की बात करनेवाली बीजेपी सबसे आधुनिक संसाधनों से लैस पार्टी है!!! यह विरोधाभास सामान्य नहीं है। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, धर्म से लेकर विकास तक के
मुद्दों का सफल इस्तेमाल किया। गौर कीजिएगा कि वे अपनी भाषा की बात करते हैं, लेकिन
वन नेशन वन इलेक्शन, वन रैंक वन पेंशन, न्यू इंडिया, मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया समेत सारे नारे विदेशी भाषाओं में है!!! यह मूल सफलता जो विरोधाभासी है,
छोटी-मोटी सफलता तो है नहीं। ताज़ा राजनीतिक माहौल ही देख लीजिए। लोकसभा चुनाव में जबरदस्त सफलता के तुरंत बाद आज बीजेपी अगले चुनावों की तैयारी में है। उधर कांग्रेस अपने
अध्यक्ष का चुनाव तक नहीं कर पाई है!!! राहुल गांधी दिनों तक नजर नहीं आए!!! एकाध बार ही
बोले है। बच्चों की मौतें, अस्पतालों के हालात, बिहार या यूपी की घटनाएँ या फिर बंगाल
की गंदी राजनीति पर राहुल गांधी से लेकर तमाम विपक्षी दल चुप हैं!!! तेजस्वी यादव का
गायब होना रहस्य सा बना हुआ है। मायावती हो, ममता हो, नायडू हो या शरद यादव हो,
उनसे ज्यादा तो बीजेपी का साथी दल शिवसेना बोलता नजर आता है! लेकिन सबसे ज्यादा बोलता है सत्ता दल! विपक्ष के रूप में भी वो दूसरों को बोलने
का अवसर नहीं देते थे, बतौर सत्ता भी वो राई का पहाड़ बनाने में दूसरों से काफी आगे
है।
बीजेपी को राई का पहाड़ बनाना आता है, दूसरों को पहाड़ मिल जाए तब भी वो राई की तलाश में रहते हैं...!!! बीजेपी सत्ता के दौरान कई ऐसी
घटनाएं हैं, प्रसंग हैं, जो विपक्ष के लिए आर्शीवाद समान थे, किंतु भारत का सबसे
बेस्ट विपक्ष ही सत्ता में है तो फिर भला पहाड़ को ढहने के बजाय चमकना ही तो था
नोट करे कि इस लेख में 'राजनीतिक नजरिया' शामिल है। आप
यह सवाल ज़रूर उठा सकते हैं कि पुराने काल में विपक्ष हो या सत्ता दल हो, राजनीति में शालीनता, मर्यादा, लोकतांत्रिक लहजा प्रभावी रहता था। आप ज़रूर कह सकते हैं कि उस
दौर में राजनीति में हदें पार करके आचरण करने की घटनाएँ बहुत कम होती थी। आज हद में रहने की घटनाएँ कम होती है!!! ये मुद्दा वाकई बड़ा विषय है। किंतु बतौर विपक्ष
सत्ता दल को प्रभावित करने की ताकत कइयों के पास रही होगी, किंतु उसे लंबे समय के
लिए धारण करके एक विचारधारा के रूप में समाज के सामने स्थापित करना, उस
विचारधारा के साथ समाज को जोड़ना, इसको सफलतापूर्वक प्राप्त तो बीजेपी ने ही किया।
यह भारत है। हो सकता है कि आनेवाले काल में पहला सवाल
(सत्ता के लिए कौन श्रेष्ठ है) अनुचित बन जाए और कोई एक दल निर्विवाद सत्ता के लिए
श्रेष्ठ बन जाए। लेकिन हमने अब तक के काल के बारे में लिखा है, आनेवाले काल के सपनों का व्यापार करके घारणाओं की दुनिया में बागीचा बनाने का फिलहाल छोड़ ही देते हैं।
1947 से लेकर 2014 तक का सफर बड़ा लंबा है। लेकिन
विपक्ष के रूप में कौन श्रेष्ठ है उसे समझने के लिए 2014 के बाद का सफर भी बड़े दृष्टिकोण के रूप में उभरता है। 2014 के बाद एक दिन में ही पांच-सात विषय ऐसे होते
थे, जिसके ऊपर राई का पहाड़ बनाया जा सकता था। जो विपक्ष का मूल राजनीतिक काम है
उसको किया जा सकता था। हम दिन के पांच-सात नहीं बल्कि कम से कम मुद्दे लेकर चले तो
पांच सालों में 3,650 ऐसे विषय-मुद्दें-घटनाएं प्रतिपक्ष को मिले। लेकिन इन 3,650
मुद्दों में से एक भी मुद्दे को विपक्ष सड़क पर नहीं ला पाया, जनता की अदालत में नहीं रख
पाया! विपक्ष के पास
इसके लिए ढेरों बहानें हैं और कमजोर विपक्ष ही बहानों की गलियों में घूमाता रहता है।
बीजेपी ने विपक्ष के रूप में लोकतंत्र के उस मूल भाव
को संभ्हाले रखा जिसमें कहा जाता है कि बहुमत का मतलब यह नहीं है कि अल्पमत गलत है। इस भाव को दूसरे विपक्ष उतने प्रभावी ढंग से स्थापित नहीं कर पाए हैं। अंत तो एक ही
कथन से होना चाहिए। यही कि बीजेपी को राई का पहाड़ बनाना आता है, दूसरों को पहाड़ मिल
जाए तब भी वो राई की तलाश में रहते हैं!!!
(इंडिया इनसाइड,
एम वाला)
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