भारतीय सभ्यताओं के बीच भारतीय सेना के बाद सबसे ज्यादा विश्वासपात्र
नाम सुप्रीम कोर्ट है। ज्यादातर यही देखा जाता है, कुछ अपवादों को छोड़ दे तो। सुप्रीम कोर्ट को लेकर या चीफ जस्टिस
को लेकर कई बार विवाद भी हुए या कुछ अप्रत्याशित चीजें भी हुई। लेकिन ज्यादातर तो मील
के पत्थर समान फैसलों ने न्यायालय को भारतीय सेना के बाद सबसे ज्यादा पसंदीदा संस्था
बनाये रखा।
लेकिन 12 जनवरी 2018 के दिन आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में एक दिन वो भी रहा, जब सरकार-मीडिया से लेकर देश का नागरिक तक सकते में आ गया था।
इस दिन सुप्रीम कोर्ट के 4 प्रमुख और वरिष्ठ जजों ने एक प्रेसवार्ता आयोजित कर सुप्रीम
कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस पर मनमानी करने का आरोप लगाया। यह वो दिन था जब आजाद
हिंदुस्तान में पहली दफा शीर्ष अदालत के वरिष्ठ जज मीडिया के सामने आए और कह गए कि, “अगर सुप्रीम कोर्ट को नहीं बचाया गया तो देश में लोकतंत्र खत्म
हो जाएगा।” उनके इस अभूतपूर्व कदम के दौरान उनके द्वारा देश को संबोधित
करके कहे गए कुछ लफ्ज़ यूं थे – सुप्रीम कोर्ट में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था... सुप्रीम कोर्ट में प्रशासन सही तरीके से नहीं चल रहा है... ऐसा ही रहा
तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा।
आजाद हिंदुस्तान की इस एकमात्र घटना के बाद संस्थान के भीतर कितना कुछ हुआ या बदला
ये सचमुच कोई नहीं जानता। प्रेस वार्ता करने वाले चार जजों में से एक रंजन गोगोई वरिष्ठता
और परंपरा के अनुसार चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बने। वे सेवानिवृत्त भी हुए और उसके बाद
शरद बोबडे सीजेआई बने। न्यायपालिका की इस अभूतपूर्व त्रासदी के बाद सदैव धूंध में रहनेवाली
सीबीआई को भी ग्रहण लगा और वहां भी अभूतपूर्व दिन देखे गए। सीबीआई का मामला अदालत पहुंचा
तो कहा गया कि अब सीबीआई की नहीं बल्कि अदालत की साख दांव पर है। आज क्या दांव पर था
और क्या नहीं, यह सब कुछ हवा हो चुका है। शीर्ष अदालत की दहलीज से ही देश को
सूचित किया गया था कि ऐसे तो न्यायतंत्र ही खत्म हो जाएगा। उसके बाद यह मसला कैसे खत्म
हुआ या फिर कितना जिंदा है,
कोई नहीं जानता। उसी दहलीज से फिर हिंसा-डर
आदि का ज़िक्र भी हुआ और तटस्थता की जगह इफ फॉर्मूला सामने आने लगा। लोकतंत्र के लिए
यह सब अस्थायी भाव हो यही ठीक होगा।
हिंसा हो रही है या होने की संभावना है इसलिए अदालत आदेश नहीं दे सकती!!! हिंसा रुकवाने का धर्म जिनका है क्यों न उन्हीं से हिंसा रुकवाने का काम
सख्ती से कराया जाए?
आदेश देना और आदेश का पालन करवाना, दोनों शक्तियां अदालतों के पास तो है ही
इन दिनों कहा गया कि अब तो अदालत यही कह दे कि दागी भरे पड़े हुए हैं इसलिए शपथ-ग्रहण
नहीं हो सकता। नोट करे कि इसमें मोदियाबिंद और सोनपापड़ियों की भावनाओं के लिए थोड़ी सी
भी जगह नहीं है। जो कहा गया इसमें कई तथ्यात्मक तर्क शामिल है, जिसका लठैतपंति से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं है।
बड़ा पेंच यही है कि अदालत आदेश तो दे सकती है, किंतु आदेश को लागू करवाने का काम सरकारी मशीनरी के पास है। अदालती आदेश को लागू
करवाना उस मशीनरी की ‘संवैधानिक जवाबदेही’ है। उपरांत अदालत के पास
जो संवैधानिक शक्तियां हैं उसके अनुसार यदि कोई सरकारी मशीनरी अदालत के आदेश को लागू
नहीं करवा पाती तो अदालत सरकारी मशीनरी को भी आदेश दे सकती है। यहां तक कि उस सरकार को
बर्खास्त करने की कार्रवाई भी शुरू करवा सकती है। इसी शक्तियों से जुड़ा बड़ा मसला यह
भी है कि - अदालत का आदेश और आदेश को पैरों के तले कुचलना। साफ लफ्जों में कहे तो भारत
के संविधान के जरिए आदेश और उस संविधान की धज्जियां उड़ाना, यह इतिहास काला अध्याय है। 1975 का वो साल, जब अदालत ने देश की कार्यपालिका
को आदेश दिया। लेकिन उस कार्यपालिका की मुखिया, यानी कि देश की प्रधानमंत्री
इंदिरा गांधी ने भारतीय संविधान के उस आदेश को न केवल कुचल दिया, बल्कि समूची न्यायपालिका को पंगू कर संविधान को ही हाइजैक कर
लिया था। तब से लेकर आज तक,
इंदिरा से लेकर नरेन्द्र मोदी तक... अब तो
अदालत हिंसा होने की संभावना को लेकर आदेश भी नहीं दे सकती!!! अदालत को भी पहले यही
खयाल आता होगा कि आदेश तो दे देंगे, किंतु क्या आदेश का पालन
हो पाएगा? तथ्य-साक्ष्य के बजाय ‘व्यावहारिकता’ कई मसलों में हावी होती दिख रही है!
कुछ सालों पहले राम रहीम के समर्थकों ने जिस तरह से गुंडई और हिंसा का प्रदर्शन किया
था, पंचकुला से लेकर समूचे हरियाणा में जिस तरह से निजी और सरकारी
संपत्तियों को आग में खाक कर दिया था, अदालत ने सख्त आदेश दिया
था कि हिंसा से हुए नुकसान की भरपाई डैरा सच्चा सौदा से की जाए। उस नुकसान की भरपाई
हुई या नहीं, कैसे वसूला गया, कितना वसूला गया, कोई नहीं जानता। सबरीमाला फैसला तो लागू होगा ही नहीं, यही सरकारी एलान हो गया और शीर्ष अदालत देखती रही कि उसका आदेश
लागू नहीं हो रहा!!! पानी की लड़ाई ने तमिलनाडु और कर्णाटक को कितना जलाया यह ताज़ा इतिहास
है। शीर्ष अदालत ने आदेश दिया तो एक राज्य ने लागू करने से मना कर दिया!!! अदालत को
कहना पड़ गया कि यदि हमारे आदेश का पालन नहीं करवाया गया तो हम राज्य सरकार को बर्खास्त
कर देंगे। इतना कहने के बाद भी पानी की लड़ाई अब भी शांत नहीं हुई है। 21वीं सदी ही नहीं, 20वीं सदी में भी ऐसे अनेक वाक़ये मिल जाएंगे। 1994 के दौरान अदालत ने राज्यपाल और सरकारों के गठन के विवाद को लेकर
आदेश दिया था। लेकिन आज भी,
मोदी सत्ता के दौर में भी, राज्यपाल साल में एक-दो बार खुलकर असंवैधानिक तरीके से सरकारें
बनवाते या गिराते रहते हैं! अदालती आदेश वहीं का वहीं है, सरकारें तो असंवैधानिक तरीकों से ही खुद को बनाती या दूसरों को
बिगाड़ती रहती है! अदालत नागरिक आंदोलन में यह तो कह सकती है कि हिंसा हो रही है इसलिए
हम नहीं सुनेंगे। लेकिन यही अदालत यह नहीं कह पाती कि क्रिमिनल रिकॉर्ड वाले भरे पड़े
हैं इसलिए शपथ-ग्रहण नहीं हो सकता।
नागरिकता कानून पर जारी विरोध के बीच देश के मुख्य न्यायाधीश को यह कहते हुए रिपोर्ट
किया गया कि, “अगर प्रदर्शनकारियों को सड़क पर ही विरोध करना है तो अदालत में
आने की ज़रूरत नहीं है।” मुख्य न्यायाधीश की बात सिर्फ उनकी नहीं, देश के शीर्ष अदालत की ही नहीं, बल्कि उस राष्ट्र के संविधान और कानून का नजरिया माना जाता है।
“सड़क पर ही विरोध करना है तो अदालत में आने की ज़रूरत नहीं है” - इस कथन में सुनवाई से पहले के दिनों की हिंसा, गुंडई वगैरह शामिल रहे होंगे इसमें कोई शक नहीं। यह भी देखा गया
कि यह हिंसा और गुंडई प्रदर्शनकारियों से लेकर पुलिसियां कार्रवाई तक में देखी गई थी।
तो क्या हिंसा होगी तो अदालतें हर चीजों को अनदेखा कर देगी? शीर्ष अदालत की टिप्पणी के ऊपर एक सवाल यह भी उठा कि क्या हम
यही समझे कि न्याय पाने के लिए 'अच्छा व्यवहार' आवश्यक है?
एससीएसटी एक्ट हो-घरेलू हिंसा के मामले हो-रोड रेज के बाद तोड़फोड़ हो-धार्मिक विवाद-हिंदूओं
के मसले-मुसलमानों के मसले-सिखों से जुड़े मसले-मदरेसाओं के मामले-मंदिरों और आश्रमों के
मसले-आरक्षण-दंगे-अधिकारों की लड़ाइयां-मूलभूत हक़ की मांगें-लोगों का जायज गुस्सा हो-या
नाजायज भी हो... सबकी पृष्ठभूमि का एक चेहरा हिंसा तो है ही। क्या हिंसा का पहलू अदालत
में याचिकाकर्ता को जाने से रोक देता है? विरोध करना और अदालत का
दरवाजा खटखटाना, यह दो विकल्प है जो जनता के लिए उपलब्ध रहते हैं। इसमें कोई शक
नहीं है कि असहमति और प्रदर्शन लोकतंत्र की आत्मा है और इसमें हिंसा जायज नहीं। हिंसा
स्वीकार्य नहीं है, किंतु हिंसा की योजनाएं, प्रपंच, षड्यंत्र वगैरह पहलूओं का क्या? दंगों के मामलों में तो हिंसा ही हिंसा होती है, क्या दंगों की सुनवाई के लिए अदालत में पीड़ित नहीं जाएंगे?
बात अगर हिंसा की ही है तो फिर ‘हिंसा की राजनीति’ और ‘राजनीतिक हिंसा’ के ऊपर हमने हाल ही में विशेष
चर्चा की थी। उसमें हिंसा की राजनीति को लेकर कई सारे तथ्य लिखे थे। हिंसा मुद्दा तो
है, किंतु हिंसा ही मुद्दा है तो फिर ‘हिंसा की राजनीति’ या ‘राजनीतिक हिंसा’ तो गंभीरता की पराकाष्ठा
है। पत्थर गैंग से लेकर हिंसा-दंगे-आगजनी-तोड़फोड़ में तमाम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता-नेता-मंत्री
आदि के नाम खुलकर सामने आते हैं। मंत्रीमंडल या चुने गये उम्मीदवारों में 75 फीसदी से ज्यादा नेता इसी पृष्ठभूमि से आते हैं, जिनके ऊपर गंभीर प्रकार के मामले चल रहे होते हैं। गोली मार दो
से लेकर अब युद्ध शुरू हो चुका है हम किसीको नहीं छोड़ेंगे...। सरकारी मंत्री ही लोगों
को उक्साते हैं।
भीड़ हिंसा करती है, फिर उस भीड़ हिंसा को लेकर पत्र लिखो तो देश की छवि बिगाड़ने के हास्यास्पद
जुर्म में एफआईआर दर्ज होती है। हिंसा कौन करता है सबको पता होता है, लेकिन डिटेन तो बुद्धिजीवी, तर्कवादी, सामाजिक कार्यकर्ता या पत्रकार ही होते हैं! गोली मारने की बातें नेता लोग करते हैं और मुकदमा बेकसूर लोग झेलते हैं। हिंसा करनेवाले नेताओं के साथ फोटू
खींचवा रहे होते हैं और लोकतांत्रिक सवाल करनेवाले राजद्रोह के मामलों में जेलों में सड़ते
रहते हैं। अदालत को हिंसा का डर लगता है तो सरकारें किसी कविता से डरती दिखाई देती है!!!
बात सिर्फ नागरिकता कानून के विरोध की नहीं है। कांग्रेस का दौर हो या भाजपा का
युग हो, इस तरह की स्थिति में जब पूरा समाज ही प्रदर्शन कर रहा हो तो
प्रदर्शनकारियों को अच्छा या बुरा घोषित करने का कोई तरीका कैसे हो सकता है?
शीर्ष अदालत ने जामिया मामले में टिप्पणी की कि, “जब तक उपद्रव नहीं रुकेगा, वह सुनवाई नहीं करेगा।” सबरीमाला और आरटीआई के मामले में भी कोर्ट की कुछ ऐसी ही टिप्पणियाँ
आई थी। अदालत की दहलीज पर देखे गए दो वाक़यों को देखिए। सबरीमाला मामले पर शीर्ष अदालत
का आदेश सबको पता है। ऐतिहासिक से लेकर न जाने क्या-क्या बताकर उसे आजाद हिंदुस्तान
का नया अध्याय बताया गया। सबरीमाला मामले पर अंतिम आदेश से पहले और अंतिम आदेश के बाद
भी हिंसा का दौर खुलकर चला। केंद्र सरकार के अमित शाह जैसे दिग्गज मंत्रियों ने तो
एकतरीके से सबरीमाला मामले पर अदालती आदेश को मानने से इनकार ही कर दिया। जिस जगह पर
फैसले का असर होनेवाला था उस जगह पर भी यही हाल था। सत्ताधारी राजनीति ने तीन तलाक
मामले में महिलाओं के अधिकार का डीजे डांस किया, लेकिन सबरीमाला पर महिलाओं के अधिकार को दफन कर दिया!!! मामला फिर अदालत पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने ‘हिंसा के डर से’ सबरीमाला के बारे में प्रतिकूल
आदेश देने से परहेज़ किया। फिर उसी सुप्रीम कोर्ट ने ‘हिंसा को ही आधार’ बनाकर जामिया विश्वविद्यालय
में हुई पुलिसियां कार्रवाई पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया। कह दिया कि जब तक उपद्रव
नहीं रुकेगा, वह सुनवाई नहीं करेगा। दोनों बेंचों की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश
शरद अरविंद बोबडे ही कर रहे थे।
दृश्य तो कुछ ऐसा बना,
लगा कि जैसे अलग-अलग घर्म के लोग जिद पर अड़े
हैं, और इधर अदालत भी जिद कर रही है! मामला नागरिकता कानून विरोध के दौरान
हिंसा का हो, जामिया हिंसा का हो, जेएनयू का हो... संविधान
के जानकारों का मानना था कि अगर सुप्रीम कोर्ट जल्द सुनवाई शुरू कर देता तो उस हिंसा
को रोका जा सकता था, जिस हिंसा का ज़िक्र हो रहा था। तो फिर क्या कहीं और से हिंसा
शुरू हो जाती? जानकारों के अनुसार व्यावहारिकता तो यही थी कि एक बार सुनवाई शुरू
हो जाती तो फिर न्याय मिलने की उम्मीद से मसला शांति की तरफ जल्दी से बढ़ जाता। सीजेआई
ने कह दिया कि, “अदालत नागरिकता संशोधन कानून से जुड़ी हुई याचिकाओं को तब तक नहीं सुनेगी, जब तक हिंसा रुक नहीं जाती।” और यह एक से ज्यादा बार कहा गया। हिंसा रुकवाइए, फिर हम सुनेंगे – यह अदालत ने कहा। किसे कहा? याचिकाकर्ताओं को!!! जैसे कि बिना जांच-वांच के पहले ही दिन तय हो गया हो कि हिंसा
कौन कर रहा है!!! हिंसा रुकवाइए – यह याचिकाकर्ताओं को क्यों? यह काम तो सरकारों के जिम्मे होता है। जबकि कुछ ही दिनों के भीतर
साफ होने लगा कि हिंसा के पीछे राजनीतिक दल-उनके संगठन और स्वयं पुलिस का हाथ था!
जामियां या जेएनयू में हिंसा एक मुद्दा हो सकती थी, लेकिन नागरिकता विरोध कानून से जुड़ी याचिकाएं हिंसा के बारे में
थी ही नहीं! यह याचिकाएं तो कानून की वैधता के ऊपर थी। कुछ दिनों के बाद सीजेआई ने ही
कहा था कि अदालत का काम किसी कानून को संवैधानिक घोषित करना नहीं है बल्कि उस कानून
की संवैधानिक वैधता की जांच करना है। तो फिर यह काम जल्द शुरू करने से परहेज करने के
पीछे कोई मजबूत आधार कानून के जानकारों को तो नजर नहीं आया।
सारे मसले धर्म से जुड़े हुए हैं, आस्था से लबालब है, धार्मिक परंपरा और मान्यताओं से भरे पड़े हैं। जहां धर्म-आस्था हावी
हो वहां दूसरी तमाम चीजें शून्य होती हैं, यही भारत की संस्कृति है और यह सब जानते व मानते
भी हैं। अदालत भी इसी फैरे में उलझती दिखी। सबरीमाला का मुद्दा - वे हिंसा कर सकते हैं, इसलिए हम उनके ख़िलाफ़ आदेश नहीं देंगे। जामिया का मुद्दा -
वे हिंसा कर रहे हैं, इसलिए हम उनका पक्ष नहीं सुनेंगे। नागरिकता कानून मसला – पहले हिंसा रुकवाइए, तभी हम आपको सुनेंगे। आश्चर्य
की बात यह थी कि कोर्ट यह बात तब कह रहा था जबकि अभी यह तय भी नहीं हुआ था कि हिंसा
किसने की थी! अदालत में याचिकाओं में दर्ज दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए। वकीलों की याचिका
इसी मुद्दे पर थी कि पुलिस ने जामिया विश्वविद्यालय में घुसकर छात्रों को मारा-पीटा
और तोड़फोड़ की। उनका मुद्दा यही था कि पुलिस ने निर्दोष छात्रों के ख़िलाफ़ अनुचित
कार्रवाई की। याचिका पुलिस की ज़्यादतियों पर थी और उधर कोर्ट माँग कर रहा था कि पहले
हिंसा रुके!!! तो क्या कोर्ट पहले ही तय कर चुका था कि हिंसा छात्रों ने की थी और वे
ही इसके लिए ज़िम्मेदार थे?
प्रथम दृष्टया छात्रों को दोषी ठहरा दिया गया
था इसी तरह का भाव पसरने लगा।
अदालत अभिमान-धर्म-आस्था वगैरह को नहीं देखती यह बुनियादी सिद्धांत है। अदालत की
हिंसा के डर वाली टिप्पणी के बाद कई संविधान विशेषज्ञों ने लिखा कि चलो मान भी लेते
हैं कि कुछेक छात्रों ने तोड़फोड़ की तो क्या पुलिस को अधिकार बनता है कि उसके सामने
जो भी छात्र आए, उसे वह लहूलुहान कर दे? यही नहीं, कमरों में घुस-घुसकर उनकी तलाश करे और पिटाई करे? दो छात्रों को तो गोलियाँ तक लगी। ये गोलियाँ किसने चलाई? याचिका तो इसी मांग पर थी और याचिकाकर्ता कही पर हो रही हिंसा
के लिए जिम्मेदार कैसे हो सकता है? विशेषज्ञों ने तर्क दिया
कि अगर ‘किसी कारण से’ अदालत को ‘व्यावहारिकता’ को चुनना पड़ रहा है तब तो
व्यावहारिकता यही थी कि एक गैरकानूनी घटना को किसीने अंजाम दिया था और इसे लकर कोई हिंसा
भी कर रहा था, लेकिन इससे याचिकाकर्ता को क्या? क्या अदालत इसी आधार पर याचिकाकर्ता को लौटा देगी कि भई आपने
जो मुद्दा उठाया है उसे लेकर कही पर हिंसा हो रही है और वो हिंसा रुकेगी तभी हम आपको
सुनेंगे! याचिका करनेवाले तो एक स्पष्ट मुद्दे को लेकर उस दहलीज पर गए थे, हिंसा करने का काम या हिंसा रुकवाने का काम जिस मशीनरी का है
उन्हें अदालत आदेश दे सकती थी और साथ में सुनवाई को शुरू भी कर सकती थी। यह कहना संविधान
के जानकारों का है, जो सार्वजनिक रूप से कई जगहों पर लिखा हुआ पाएंगे।
मूल बात यह भी है कि मुद्दा कोई भी हो, हिंसा अदालत के खिलाफ नहीं सरकार के विरुद्ध हो रही थी। सरकार कह सकती थी कि हिंसा हो रही है इसलिए हम आपकी बात
नहीं सुनेंगे, पहले हिंसा रुकवाइए। सरकार यह कहती तो इसमें किसीको कोई आपत्ति
भी नहीं हो सकती थी। इसमें कुछ गलत भी नहीं होता। अगर केंद्र सरकार ऐसा स्टैंड लेती तो
यह जायज हो सकता था। लेकिन अदालत के इस स्टैंड पर सवाल तो उठने ही थे। सही है कि अदालत
हिंसा से चिंतित है। किंतु जब दो पक्षों में कोई विवाद होता है तो शांति तभी कायम होती
है जब उसे तीसरे पक्ष के हवाले कर दिया जाए। और भारत में यह तीसरा पक्ष अदालत ही तो
है। जहां सुनवाई टाल देने से नहीं, सुनवाई शुरू करने से मसले का हल निकालने का
काम शुरू होता है।
आरटीआई मामले में शीर्ष अदालत की टिप्पणी भी संविधान जानकारों
के लिए समझ से परे निकली
पहला ज़िक्र तो यह कि सीजेआई का दफतर आरटीआई के दायरे में आएगा यह फैसला शीर्ष अदालत
दे चुकी है, लेकिन मनमोहन काल से लेकर मोदी काल तक के रहनुमा खुद को इसके
आसपास से भी कोसो दूर रखते नजर आते है। खैर, लेकिन अब मूल बात पर लौटते
हैं।
अदालत ने इन्हीं दिनों एक और मामले में इसी तरह का एक बयान दिया जिसका मुद्दे से
कुछ लेना-देना नहीं था। सीजेआई ने कहा कि कुछ लोग इन दिनों आरटीआई एक्टिविस्ट बन गए
हैं और ऐसा लगता है जैसे सूचना का अधिकार उनका पेशा बन गया है। उन्होंने यह भी कहा
कि कुछ लोग इसका सहारा लेकर ब्लैकमेलिंग का धंधा कर रहे हैं। बात सोलह नहीं बीस आने
सच कर रहे थे सीजेआई, लेकिन जानते है मुद्दा क्या था। मुद्दा था आरटीआई आयुक्त की
नियुक्ति का। मूल मुद्दे के दौरान अदालतें अपने तर्क देती है, जो सच भी होते हैं। यह कई दफा होता है। लेकिन ऐसे हर मामलों में
इधर-उधर के मजबूत तर्क पेश करने के बाद भी मूल मुद्दे को लेकर बात तो आगे बढ़ती ही है।
लेकिन यहां रुकती दिखाई दी!!! मुद्दा था आरटीआई आयुक्त की नियुक्ति का और सीजेआई ने कह
दिया कि, “सूचना के अधिकार का दुरूपयोग हो रहा है और इस कारण सरकारी मशीनरी
में 'भय और जड़ता’ का माहौल बन गया है।”
सूचना के अधिकार का दुरूपयोग हो रहा है इसमें कोई दो राय नहीं और अदालत इसे लेकर
सरकारी मशीनरी को किसी प्रकार की व्यवस्था करने का निर्देश दे भी सकती है। लेकिन याचिकाकर्ता
आरटीआई आयुक्त की नियुक्ति को लेकर याचिका डालता है और अदालत सूचना के अधिकार के दुरूपयोग
व सरकारी मशीनरी में भय का ज़िक्र कर देती है। सवाल उन दिनों भी उठ गया कि आखिर सूचना
मांगे जाने से कोई क्यों डरेगा? अदालत खुद ही पहले कह चुकी है कि सूचना का
अधिकार क्रांतिकारी कानून और लोकतंत्र को मजबूत करने का प्रयास है। तो फिर कोई सूचना
मांगता है तो उसमें सरकारी मशीनरी को डर क्यों लगेगा? किसीके द्वारा सूचना मांगे जाने से सरकारी मशीनरी में जड़ता कैसे आ जाएगी? और मूल बात यही कि इससे आरटीआई आयुक्त की नियुक्ति का क्या लेना-देना? अधिकारों के दुरूपयोग को लेकर मसला घरेलू हिंसा मामलों में भी है, महिला सुरक्षा कानूनों को लेकर भी है, आरटीआई में भी है और एससीएसटी एक्ट जैसे कानूनों में भी है। इन
सबका उपाय नहीं होगा तब तक सारी चीजें लटकी रहेगी क्या? अधिकारों का दुरूपयोग, यह मामला अतिगंभीर तो सरकारी
मशीनरी और सरकारी मंत्रीमंडल में ही होता है। याचिकाकर्ता को याचिका डालने से पहले क्या
इन सबके सुलझाये जाने का इंतज़ार करना होगा?
एससीएसटी एक्ट को लेकर शीर्ष अदालत का आदेश, फिर जातिगत और दलगत भावनाओं का उफान, उफान के बाद एक्ट उसी रूप में लौटा जिस रूप में वो पहले था
शीर्ष अदालत ने एससीएसटी एक्ट में बड़ा संशोधन करते हुए आदेश दिया था कि बिना जांच
के गिरफ्तारी नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद भारत में जातिगत और दलगत
भावनाएं उफान पर थी। हिंसा-प्रदर्शन-विरोध सब कुछ हुआ। वोट बैंक की राजनीति को चोट पहुंच
रही थी, इसीलिए राजनीतिक भावनाएं भी फेफड़े फाड़ने लगी। सुप्रीम कोर्ट के
आदेश को एक तरीके से केंद्र सरकार ने ही ‘अव्यावहारिक’ मान लिया! संविधान और कानून की मूल भावना के अनुसार किसीके भी
खिलाफ कोई भी शिकायत होती है तो प्राथमिक जांच तो होनी ही चाहिए और उसीके पश्चात गिरफ्तारी
होगी। बिना जांच गिरफ्तारी करना उस मूल भावना के विरुद्ध है। 'एक देश एक कानून' के सपने
में यह ढाँचा फिट नहीं बैठता। शीर्ष अदालत ने तो यही संशोधन किया था। उसके बाद मूल अधिकार-अन्याय-पीड़ित
वाला दृष्टिकोण... सब कुछ जागृत हो गया और वोट बैंक के साथ-साथ राज्य और केंद्र सरकारें
भी चल पड़ी। चुनाव का दौर था और वोट बैंक छिटकता देख राजनीति के लिए तथ्यों के बजाय व्यावहारिकता
को चुनना ही था।
माथापच्ची बढ़ती गई और शीर्ष अदालत को अपना आदेश दोबारा देखना पड़ा। आखिरकार संशोधन
को रोकना पड़ा और एससीएसटी एक्ट उसी रूप में लौटा, जिस रूप में वो पहले था। मूल अधिकार, अन्याय... आदि दृष्टिकोण
से इनकार नहीं है। उन सभी दलीलों से सहमत होने में कोई परेशानी नहीं है। भूतकाल हो या वर्तमान, भारत में इस तरह के अन्यायों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन
किसीके खिलाफ कोई शिकायत होती है तो उसकी जांच किए बिना ही गैरजमानती धाराओं के तहत
गिरफ्तारी होगी, सुप्रीम कोर्ट को भी उसी दहलीज पर वापस लौटना पड़ा। जिनका इन
सबसे कोई लेना-देना नहीं था उन्होंने भी तंज कसते हुए लिखा कि ऐसा करो, गिरफ्तार करने के तुरंत बाद फांसी ही दे दो, जांच-वांच तो बाद में भी हो सकती है!
अयोध्या-बाबरी विवाद पर सुप्रीम के फैसले पर बुनियादी सवाल उठे, लेकिन अंतिम नतीजा यही निकला कि अदालत ने ऐतिहासिक विवाद को
व्यावहारिक तौर पर सुलझाकर एक विवाद को सदैव के लिए खत्म कर दिया है
अयोध्या, बाबरी मस्जिद का विवाद। आस्था-भावना से लबालब इस ऐतिहासिक विवाद
में जितना वजन आस्था और भावना का है, लगभग उतना ही हिंसा और दंगों का है। इस विवाद ने भारत को जो कुछ दिया, उससे भारत ने क्या पाया
और क्या क्या खोया उसका कच्चा-चिट्ठा सार्वजनिक है। शुक्र है कि इसमें अदालत ने यह नहीं कहा कि हिंसा हो रही है इसलिए हम फैसला नहीं सुनाएंगे। अंतिम फैसला सुनाना ज़रूरी था, ताकि हिंसा सदैव के लिए रुक जाए। लेकिन फैसला भी ऐसा होना चाहिए
था, जिससे भविष्य में शांति बनी रहे। एक तरीके से देखे तो दरअसल यह
मामला नहीं, किंतु मामले का फैसला एसिड-टेस्ट टाइप ही था! कभी-कभी लगता है
कि तथ्य के आगे व्यावहारिकता ही अच्छा उपाय था। कहते हैं न कि हर समस्या का उपाय कानून
की किताबें नहीं हो सकती। लेकिन बुनियाद पर ही तीर लगने लगे तो उसको भी देखना चाहिए।
अयोध्या, बाबरी मस्जिद, राम मंदिर आदि को लेकर सुप्रीम
कोर्ट का जो फैसला आया उसमें भी बुनियादी सवाल उठे थे। बुनियादी सवाल उठे लेकिन दब गए
क्योंकि सभी को हिंदू-विरोधी और राष्ट्र-द्रोही साबित होने का डर है। सरकार की आलोचना
ही यहां ईष्टदेव का अपमान सरीखा बन गया है ऐसे में न्यायिक प्रक्रिया की विसंगतता यदि भारत के सबसे बड़े विवाद से जुड़ी हुई हो तो उन विसंगतताओं को छेड़ने का जोखिम कोई लेना
नहीं चाहता। क्योंकि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के सनक का दौर बहुत ही आगे जा चुका है।
लेकिन कुछ चीजों पर ज़रूर बातें हुई। कानून-संविधान के जानकारों ने यह बातें कही थी।
बातें कहनेवाले हिंदू थे यह ज़िक्र गैरज़रूरी है फिर भी ज़रूरी है!!! विश्वगुरू बन चुके
या फिर बनने जा रहे राष्ट्र के लिए ‘गैरज़रूरी वाला ज़रूरीपन’ गंभीर समस्या है यह सच कोई नहीं देखेगा यह नोट करे। सुनवाई के
दौरान शीर्ष अदालत से एक आवाज यह भी आई थी कि, “हमारे लिए यह जमीन का विवाद
है, आस्था या भावना का मुद्दा नहीं है।” जब अंतिम फैसला आया तो उसी अदालत की दहलीज से यह भी कहा गया
कि, “यह भावनात्मक मुद्दा है जिसमें आस्था केंद्र मै है।” अयोध्या विवाद पर सुप्रीम के फैसले को डीएन झा समेत कई प्रमुख
इतिहासकारों ने निराशाजनक बताया। उन्हें कट्टरतावाद के इस दौर में हिंदू विरोधी या राष्ट्रद्रोही
कहने की मूर्खता भी हुई। डीएन झा ने कह दिया कि फैसले में हिंदू आस्था को अहेमियत दी
गई है तथा फैसले का आधार दोषपुर्ण पुरातत्व विज्ञान को बनाया गया है। अयोध्या विवाद
के अंतिम फैसले तक एएसआई और उसकी जांच सवालों के घेरे में आये। इसी दौरान सरकारें कांग्रेस
की भी आई और बीजेपी की भी। अंतिम निष्कर्ष यही निकला कि हिंदूओं को नाराज नहीं करने का
मन कांग्रेस ने भी बनाया था और बीजेपी के लिए तो नाराज के बजाय खुश करने की राह ही
संस्कृति है। कांग्रेस के राज से लेकर बीजेपी के दौर तक एएसआई ने अपनी जांच और निष्कर्षों
से जो कुछ दिया वो सारी चीजें दोषपूर्ण साबित हुई और उसी दोषपूर्ण संशोधनों को किसी फैसले
में आधार के तौर पर स्थापित किया गया। यह बातें तटस्थ माने जाने वाले इतिहासकारों और पूर्व
जजों ने कही थी यह नोट करे।
एएसआई द्वारा जांच कांग्रेस और बीजेपी, दोनों के दौर में चली। इतिहासकार
बताते हैं कि खुदाई करना वैज्ञानिक काम है, बजाय इसके इसमें प्रस्थापित
मान्यताएं ही आधार थी। डीएन झा बाबरी विध्वंस से पहले का एक किस्सा याद करते हुए कहते
हैं कि, "विध्वंस से पहले जब हम अयोध्या से जुड़ी प्राचीन चीज़ों की जांच
के लिए पुराना क़िला गए, तो एएसआई ने हमें ट्रेंच IV की साइट नोटबुक नहीं दी,
जिसमें काफ़ी अहम सबूत थे।" केवल इतिहासकार
ही नहीं, कुछेक पूर्व जजों ने भी इस फैसले पर हैरानी जताई थी। सुप्रीम
कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गांगुली ने कहा कि, “सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला
दिया है वो समझ से परे है।”
गांगुली ने पुरातात्विवक साक्ष्यों को लेकर
एक दूसरा नजरिया पेश करते हुए कहा कि, “फैसले में पुरातात्विक साक्ष्यों को आधार बनाया गया है, लेकिन यह भी कहा गया है कि पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर
जमीन के मालिकाना हक का निर्णय नहीं हो सकता। तो फिर फैसले का आधार क्या है?”
अंतिम फैसले में शीर्ष अदालत ने कई जगहों पर एएसआई के रिपोर्ट की चर्चा की। अदालत
की एक मान्यता यह भी पाई गई कि एएसआई की ऐसी कोई रिपोर्ट उसके फैसले का आधार नहीं
बन सकती, जहाँ ज़मीन का मालिकाना हक़ तय किया जाना है। इसका फैसला क़ानूनी
सिद्धांत के आधार पर ही किया जाएगा। मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, किसी राजनीतिक दल और किसी संगठनों के इस दुष्प्रचार को शीर्ष
अदालत ने खारिज कर दिया, यह कहकर कि वहां कोई मंदिर होने का साक्ष्य नहीं है, जहां मस्जिद बनी थी। अदालत ने बाबरी विध्वंस को गैरकानूनी-गैरसंवैधानिक
तथा गैरधार्मिक बताया। अदालत ने इस मसले पर ‘घौर गैर संवैधानिक’ लफ्ज़ का इस्तेमाल किया। अदालत में सुनवाई के दौरान एक नजरिया
यह भी पेश किया गया था कि,
“क्या हमारी या हमसे पहले की पीढ़ियों को उक्त
स्थल पर कभी कोई मंदिर दिखा था? जब 1560-70 के आसपास ‘रामचरित मानस’ लिखने वाले राम के अनन्य
भक्त तुलसी दास को नहीं दिखा तो फिर और किसे दिखता!” अदालत ने इसे मान्य रखा,
तभी तो “घौर गैर-संवैधानिक” वाला शब्द पढ़ने को मिला।
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर इस फैसले में पुरातात्विक सबूतों के अलावा यात्रा
वृतांतों का भी ज़िक्र किया। इस पर जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यात्रा वृतांत सबूत नहीं हो सकता। इतिहास भी सबूत नहीं हो सकता।
अगर हम पुरातात्विक खुदाई के आधार पर सबूतों का सहारा लेंगे कि वहां पहले कौन सी संरचना
थी तो इसके ज़रिए हम कहां जाएंगे?'' पूर्व जस्टिस की यही बात अंतिम सुनवाई के दौरान
अदालत की एक मान्यता में दिखाई देती है। ऊपर लिखा वैसे अदालत की एक मान्यता यह भी पाई
गई कि एएसआई की ऐसी कोई रिपोर्ट उसके फैसले का आधार नहीं बन सकती, जहाँ ज़मीन का मालिकाना हक़ तय किया जाना है। इसका फैसला क़ानूनी
सिद्धांत के आधार पर ही किया जाएगा।
जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मस्जिद तोड़ दी गई और अब कोर्ट ने वहां मंदिर
बनाने की अनुमति दे दी है। जिन्होंने मस्जिद तोड़ी थी उनकी तो यही मांग थी और मांग
पूरी हो गई है। दूसरी तरफ़
बाबरी विध्वंस के मामले पेंडिंग हैं। जिन्होंने
क़ानून-व्यवस्था को तोड़ा और संविधान के ख़िलाफ़ काम किया उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली
और विवादित ज़मीन पर मंदिर बनाने का फैसला आ गया।'' पूर्व जस्टिस आगे कहते हैं, ''मैं सुप्रीम कोर्ट का हिस्सा रहा हूं और उसका
सम्मान करता हूं। लेकिन यहां मामला संविधान का है। संविधान के मौलिक कर्तव्य में यह
लिखा है कि वैज्ञानिक तर्कशीलता और मानवता को बढ़ावा दिया जाए। इसके साथ ही सार्वजनिक
संपत्ति की रक्षा की जाए।”
व्यावहारिकता के तर्क को लेकर पूर्व जज ने कहा
कि, “न्याय की प्रक्रिया में निष्पक्षता और संविधान के धर्मनिरपेक्ष
मूल्यों की अहमियत स्थापित होनी चाहिए। किसीके भी पक्ष में निर्माण का फैसला अगर मैं नहीं दे पाता तो कोई सेकुलर इमारत बनाने का आदेश मैं दे देता, जिनमें स्कूल, संग्रहालय या यूनिवर्सिटी
हो सकती थी।” वे कह गए कि, “फैसले से जवाब कम और सवाल
ज्यादा खड़े हुए हैं। टाइटल सूट यानी जमीन के मालिकाना हक़ का फैसला होना था, आस्था का नहीं।” टाइटल सूट और आस्था वाली
बात तो सीजेआई ने भी कही थी। ऐसे में सवाल उठा कि बात टाइटल सूट की थी तो फिर अदालत
को आस्था का ज़िक्र क्यों करना पड़ा? इतिहास-धर्मग्रंथ-वृतांत-नोट्स...
सब कुछ देखने के बाद इलाहाबाद का फैसला हो या ताज़ा फैसला हो, अदालत ने यह ज़रूर नोट किया है कि कोई भी वृतांत या कोई भी धर्मग्रंथ
श्री राम का जन्मस्थान बता नहीं सका है। अदालत ने कहा कि राम का जन्म राजा दशरथ के महल
में हुआ था, लेकिन उनका महल कहा था यह किसी ग्रंथों या रचनाओं से साबित नहीं हो सका।
सुप्रीम कोर्ट ने वही और वैसा ही फैसला दिया हालाँकि उसने वे शब्द नहीं कहे जो
85-86 के मुक़दमे में जजों ने कहे थे। लेकिन फैसले की भावना सौ फ़ीसदी
वही रही। अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि किसी ढांचे को तोड़कर कोई दूसरा ढांचा नहीं बना।
चूंकि आज वहां किसी दूसरे धर्म के प्रतीक रखे हुए है और उन्हें हटाने से शांति-व्यवस्था
का खतरा पैदा हो सकता है,
फसाद हो सकता है, अशांति पैदा हो सकती है। अदालत की यह भावना उसके द्वारा इलाहाबाद
उच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना से भी साबित होती है। कोर्ट ने कहा कि इलाहाबाद
उच्च न्यायालय का फैसला इसलिए ग़लत है कि जब जजों ने ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में
बाँटने का फैसला दिया तो उन्होंने यह नहीं सोचा कि इससे विवाद कैसे सुलझेगा और शांति
बहाल करने का मक़सद कैसे पूरा होगा। टाइटल सूट से बात उस कोण पर आकर ठहर गई जब चीफ़
जस्टिस रंजन गोगोई की बेंच ने मामले की सुनवाई शुरू करते समय कह दिया कि यह मामला 1500 वर्ग गज़ इलाक़े के स्वामित्व का नहीं है, बल्कि लोगों के मन, हृदय और घाव भरने का है।
उन्होंने यह भी कहा था कि फैसला करते समय हमें जनसमुदाय और उनकी भावनाओं पर पड़ने
वाले असर का भी ध्यान रखना होगा।
पूर्व जज या संविधान के जानकार कहते हैं कि व्यावहारिकता के अनुसार कोर्ट ऐसा कोई
फैसला देना नहीं चाहता था जिस पर अमल नहीं हो सके। वह 1992 का दोहराव नहीं चाहता था। जानकार 1992 के वो दिन याद दिलाते है जब बाबरी मस्जिद ढहने के बाद राष्ट्रपति
ने सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी थी कि जहाँ बाबरी मस्जिद बनी हुई थी वहाँ क्या पहले कोई मंदिर था, तो सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़
जस्टिस ने कोई राय देने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि पहले सरकार लिखित में यह गारंटी
कि सर्वोच्च अदालत जो भी राय देगी, सरकार उस पर अमल करवाएगी।
सरकार ऐसी कोई गारंटी नहीं दे सकी और कोर्ट ने कोई राय नहीं दी। जानकार बताते है कि
आज भी वैसी ही स्थिति थी। 1992 में जनभावना के आगे शीर्ष अदालत भी कुछ नहीं कर पाई थी। जानकार
कहते हैं कि कोर्ट दुबारा ऐसा नहीं होने देना चाहता था कि वह ऐसा कोई आदेश दे जिसका
पालन न हो सके। इसलिए उसने ऐसा आदेश दिया जिसका आसानी से 'पालन'
हो और उसका ‘सम्मान’ बना रह सके। पूर्व जज और संविधान के जानकारों के अनुसार न्याय की दृष्टि से देखे तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में बहुत-सी कमियाँ
निकाली जा सकती हैं। लोग निकाल भी रहे थे। लेकिन वक़्त की नज़ाकत की नज़र से देखें, देश में अमन-चैन की नज़र से देखें और इस देश समाज की बेहतरी
की नज़र से देखें तो सुप्रीम कोर्ट के इन जजों ने अपनी भूमिका से आगे बढ़कर वह ज़िम्मेदारी
भी अपने कंधों पर ले ली, जिसे पूरा करने में इस देश का राजनीतिक नेतृत्व लगातार नाकाम
हुआ था। एक ऐसा फैसला जो इस विवाद पर मिट्टी डालने और आगे एक बेहतर समाज बनाने की
दिशा में चलने का रास्ता खोल सकता है।
स्पष्ट है कि अयोध्या मामले में फैसला देते समय भी सुप्रीम कोर्ट का ज़ोर तथ्यों
पर कम और शांति क़ायम करने पर ज़्यादा था। निष्पक्षता, संतुलन, संवेधानिक-कानूनी सिद्धांतों के लिहाज से फैसले
ने कई सवाल उठाए, लेकिन तथ्यों के बजाय व्यावहारिकता को चुना गया और अमन-चैन की
आशा है तो फिर विवाद पर मिट्टी डालकर आगे बढ़ना ही ‘बेहतर व्यावहारिकता’ है। शायद अदालत ने बेहतर रास्ता खोला है, लेकिन इस पर चलना या नहीं चलना, यह तय करना है भारत को। और भारत राजनीतिक लठैतों और राजनीतिक
दलों की भावनाओं पर चलता है। और भावनाएं तो आहत होती ही रहेगी!!!
सबरीमाला - हिंसा के डर से प्रतिकूल फैसलों से बचना चाहिए यह
व्यावहारिकता सड़कों पर ही नहीं न्यायपालिका के गलियारों में भी घूम रही हैं?
संविधान के जानकारों ने अयोध्या फैसले के बाद कई जगहों पर खुलकर लिख ही दिया कि सबरीमाला
मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से लेकर अयोध्या विवाद मामले में अगर आप सुप्रीम कोर्ट
के आदेश को देखेंगे तो पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट का ज़ोर तथ्यों पर कम और शांति
क़ायम करने पर ज़्यादा रहा। वो लोग लिखने लगे कि अगर अदालत का जोर शांति कायम करने
पर रहेगा तो न्याय कैसे होगा? शीर्ष अदालत का ही फैसला था और उस फैसले का
अमल नहीं हो रहा था, फैसला लागू नहीं हो पा रहा था।
सुप्रीम कोर्ट में कुछ महिलाएँ अपने लिए न्याय माँगने गई। उनका कहना था कि हम सबरीमाला
में अयप्पा के दर्शन करना चाहती हैं जिसकी अनुमति ख़ुद सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले
में दे चुका है। लेकिन वहाँ हमको दर्शन करने से रोका जा रहा है और सरकार भी हमें सुरक्षा
नहीं दे रही है। ये महिलाएँ चाहती थीं कि सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को उन्हें सुरक्षा
मुहैया कराने का आदेश दे। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि, “महिलाएँ ख़ुशी-ख़ुशी अयप्पा के दर्शनों के लिए जा सकती हैं।
क़ानून भी उनके साथ है। लेकिन यह मुद्दा भावनाओं से जुड़ा हुआ है और स्थिति बहुत विस्फोटक
है। हम नहीं चाहते कि हमारे किसी भी आदेश से वहाँ हिंसक स्थिति पैदा हो। इसलिए हम अभी
कोई आदेश नहीं देंगे।”
कोर्ट ने कहा कि वह अभी कोई न्यायिक आदेश नहीं देगा क्योंकि वह नहीं चाहता कि उसके
किसी आदेश से वहाँ हिंसा फैले! लगभग ऐसी ही बात विश्वविद्यालों की हिंसा मामले में भी
रिपीट हुई। कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले संविधान के आधार पर देता है।
लेकिन जब कोर्ट यह कहते हुए देखा गया कि उसके आदेश से कहीं हिंसा न फैल जाए तो नये
विवाद ने तूल पकड़ लिया। राजनीति ने तो इसमें खुद को झोंक ही दिया था। मुसलमान महिलाओं
के अधिकारों की लड़ाई लड़नेवाली मोदी सत्ता हिंदू महिलाओं के हक़ के खिलाफ दिखाई दी, जब अमित शाह ने कह दिया कि हम अदालती आदेश को नहीं मानेंगे। कांग्रेस
जैसे विपक्ष सोफ्ट हिंदुत्व की राह पर थे। उसके बाद अदालती सुनवाई में यह सुना तो संविधान
के जानकार सवाल उठा गए कि क्या न्याय की देवी का पलड़ा अब लाठी की चोट से एक तरफ़ झुकने
लगा है? क्योंकि यह पहली बार नहीं था जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय
सुनाते समय ‘तथ्यों’ के बजाय ‘शांति बनाए रखने’ पर ज़्यादा ज़ोर दिया था।
शांति के नाम पर (दूसरे शब्दों में हिंसा के भय से) कोई प्रतिकूल आदेश जारी न करने
की सुप्रीम कोर्ट की प्रवृत्ति से आगे के फैसलों के बारे में जानकार सवाल उठाने लगे
तो यह ‘व्यावहारिकता’ ही तो है। क्या अदालतें बहुमत
और अल्पमत के आधार पर इनकार या स्वीकार करने लगेगी? जिसकी लाठी उसकी भैंस के आधार पर न्यायपालिका के सिद्धांत सांस लेंगे? आशंकित हिंसक प्रक्रियाओं के आधार पर किसी सुनवाई को चलाया या
रोका जाएगा? यह भारत है और यहां ऐसे मामले और भी आएंगे। क्या अदालतें फैसले
सुनाने से पहले यह देखेगी कि समाज के दबंग और ताकतवर समूह फैसले को लागू होने नहीं देंगे? बल के हिसाब से ही निर्णय होना है तो फिर कमजोर इंसानों के लिए
उस दहलीज का अर्थ क्या रहता है? आशंकाओं के चलते अदालतें अपने फैसले उसी प्रवाह
में मोड़ देगा जहां समाज में शांति बनी रहे? समाज में शांति ज़रूरी है, लेकिन यह जिम्मा सरकार-प्रशासन-पंचायतें-गैर सरकारी संस्थाएं आदि
के जरिए पूरा किया जा सकता है। अदालत में तो आंखों पर पट्टी बांध खड़ी मूर्तियां होती
है।
उदाहरण खुद से ही पेश करना था, लेकिन अदालती सम्मान की व्यावहारिकता जीती और न्याय की पारदर्शिता
हार गई?
चार जजों की उस प्रेस वार्ता में देश को ही सूचित किया गया था कि ‘लोकतंत्र और न्यायपालिका दोनों के लिए खतरा’ है। यह सूचना शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठ जजों ने दी थी, जिनमें से दो जज तो सीजेआई बने। देश को सूचना मिली और देश को
ही नहीं पता कि उस खतरे का क्या हुआ!!! तंज कसा गया कि हिंदू कैसे खतरे में यह हिंदूओं
को ही नहीं पता, इधर लोकतंत्र और न्यायपालिका खतरे में है यह पता है लेकिन कैसे
यही नहीं पता!!! मामले का रहस्मयी ढंग से निबटारा हो गया। वक्त बीता और फिर एक बार तत्कालीन
जस्टिस ने एक विवादास्पद मामले में कह दिया कि न्यापालिका को अस्थिर करने का षड्यंत्र चल रहा है। अगेइन... मामले का निबटारा हो गया, लेकिन देश फिर एक बार अंजान
ही रहा। पारदर्शिता का उदाहरण जहां से पेश होना था, वहीं से यह सबकुछ होता गया।
तत्कालीन सीजेआई पर एक महिला ने पिछले साल बड़े गंभीर इल्ज़ाम लगाए थे। सीजेआई ने इल्ज़ाम लगते ही सफाई देते हुए कहा कि यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है। देश की शीर्ष अदालत को
अस्थिर करने की कोशिश की जा रही है। महिला भी संदिग्ध थी, उसके इल्ज़ाम भी और फिर महिला की चुप्पी भी। लेकिन सब कुछ सार्वजनिक
हो चुका था। बहुत ही विवादास्पद तरीके से मामले की सुनवाई हुई और फैसला हो गया। पारदर्शिता
और अदालती सम्मान के सामने व्यावहारिकता ने बहुमत आधारित जीत दर्ज कर ली! रफाल मामले
में टाइपो-एरर ने बहुत बवाल मचाया। जज लोया की संदिग्ध मौत का मामला कई सवालों को छोड़
गया। आधार कार्ड पर सालों से खेल चलता रहा। कभी लगा कि अदालत इसे रद्द कर देगी, लेकिन फिर आधार-नागरिक और सरकार, तीनों की व्यावहारिकता जीत गई! महिला के सीजेआई के ऊपर इल्ज़ाम
मामले में प्रक्रिया पर सवाल उठे। लेकिन सवालों का क्या, क्योंकि सीजेआई ने ही इस मसले पर कहा था कि यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है। उन्होंने देश के न्यायतंत्र को हाइजैक करने तक का ज़िक्र किया था। देश कभी नहीं जान
पाया कि हाइजैक करनेवाले आतंकवादी कौन थे! बहुत बड़ा षड्यंत्र कौन से तंत्र की पैदाइश
थी यह रहस्य गलियारों में दफन हो गया। हर मामले की लाइव सुनवाई होगी, पारदर्शिता, खुद को आरटीआई के दायरे
में लाने का उदाहरण पेश करना... शीर्ष अदालत की दहलीज से कई सारे अच्छे उदाहरण पेश हुए।
लेकिन जिस पर देश चर्चा कर रहा था वहीं व्यावहारिकता फिर एक बार पारदर्शिता के विरुद्ध
बहुमत से जीत गई!
बीते सालों में विवाद का एक बड़ा संस्करण उसी दहलीज से लगाए गए इल्ज़ाम तथा उनके विवादास्पद
ढंग से निबटारे का भी है। जस्टिस कर्णन का किस्सा जगजाहिर है। ऐसे अन्य मामले भी हैं, जो जस्टिन कर्णन वाले किस्से के बाद भी हुए। लिखित रूप से जज
सरीखे ओहदों ने न्यायपालिका के भीतर भ्रष्टाचार को उजागर किया। सारे मामले षड्यंत्र साबित
हुए और अंतिम नतीजा यही आया कि जिन्होंने सवाल उठाए सारे अवमानना के दोषी! सीजेआई पर
महाभियोग से लेकर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार-सरकारी दबाव, आदि के मामले बीते कुछ सालों में खुलकर और सार्वजनिक रूप से उठे
थे। वो भी उसी गलियारों के भीतर से, ना कि दूसरी सड़कों से। अंतिम
नतीजा यही कि अदालती सम्मान-व्यावहारिकता हर दफा पारदर्शिता-परंपरा-प्रणाली-सिद्धांत
आदि के आगे बहुमत के साथ जीत गए!
जम्मू-कश्मीर में प्रतिबंधों को लेकर अदालत की धीमी गति जानकारों को दूरदर्शन सरीखी क्यों लगी?
जम्मू-कश्मीर को लेकर सैकड़ों ऐसे मुद्दे थे जिसमें शीर्ष अदालत की बेरुखी को लेकर
भी बहुत कुछ सवाल उठे। अगर आप धारा 370-आतंकवाद-अलगाववाद को लेकर सोच रहे हैं तो आप बिल्कुल गलत सोच
रहे हैं। इन मुद्दों पर तो अदालत ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया था। लेकिन बात इंटरनेट बैन-सोशल
मीडिया बैन-प्रिंट मीडिया बैन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बैन-सामान्य जनजीवन-शिक्षा-रोजाना
जिंदगियां जैसी कई दूसरी चीजों को लेकर कही गई। इन सबमें शीर्ष अदालत की धीमी गति के
समाचार जानकारों के लिए समझ से परे रहे। धारा 370 को लेकर तो अदालत ने रुख साफ कर दिया, किंतु प्रतिबंधों को लेकर
सुनवाई इतनी लंबी चली कि आधा साल तो यूंही बीत गया। दवायरहिंदी न्यूज़ पोर्टल ने संयुक्त
राष्ट्र की भारत के न्यायालय के ऊपर की गई टिप्पणी को लेकर छापा था। उनकी सच माने तो, सबसे दुखद यह रहा कि संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच से कहा गया कि
भारत का सर्वोच्च न्यायालय आवागमन की स्वतंत्रता और मीडिया पर पाबंदी से संबंधित याचिकाओं से निपटने में धीमी गति से काम कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच से भारतीय न्यायप्रणाली
को लेकर टिप्पणी की जाए यह चिंतित करनेवाला मुद्दा तो था ही।
याद रखना होगा कि संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित करनेवाली शीर्ष
अदालत को ‘ऐसी व्यावहारिकता’ धर्म-आस्था से लबालब नागरिकों की वजह से अपनानी पड़ती है, तीन तलाक से लेकर यूनिफॉर्म सिविल कोड तक अलग-अलग धर्म के नागरिकों
की ‘जिद’ भी दृष्टिकोण होना चाहिए
संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित रखनेवाली देश की उच्चतम संवैधानिक संस्था सुप्रीम
कोर्ट को आस्था-धर्म-जातिगत मुद्दों को लेकर ‘तथ्य-निष्पक्षता’ के बजाय कभी-कभी ‘व्यावहारिकता’ को चुनना पड़ रहा है। याद रखे कि इस प्रकार की स्थिति के लिए
अदालतें कम, बल्कि अलग-अलग धर्म के नागरिकों की ‘जिद’
ज्यादा जिम्मेदार है। याद करिए एक बार में तीन
तलाक और यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे कानूनों की माथापच्ची और स्थितियों को। एक बार में
तीन तलाक पर संवैधानिक फैसला देनेवाली शीर्ष अदालत ही थी। जैसे मोदी सत्ता ने तीन तलाक
और सबरीमाला को लेकर अलग-अलग रुख अपनाकर खुद के दोगलेपन को उजागर किया, वैसा ही हाल इन कानूनों को लेकर कांग्रेस और दूसरी सत्ताओं का
भी है। जो धार्मिक समुदाय देश के संविधान की सुरक्षा करने के नारे लगा रहे है, वही लोग तीन तलाक और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर कितने उग्र
है यह कौन नहीं जानता।
बड़ी बेबाकी से लिखा जा सकता है कि तीन तलाक की चर्चा के दौर में मुसलमानों की जो
‘जिद’
थी वो धार्मिक ज्यादा थी, संवैधानिक कम थी। उतनी ही बेबाकी से यह भी लिखा जा सकता है कि
उन दिनों हिंदूओं की जो ‘कानूनी समझ’ थी वो ‘समझ’
कम किंतु ‘कुछ और’ ज्यादा थी। एक बार में तीन तलाक के अदालती फैसले को कई मुस्लिम
नागरिकों और उनके संगठनों ने मानने से इनकार कर दिया था। हिंदू नागरिकों और उनके संगठनों
ने तब संविधान और कानून की समानता का राग छेड़ दिया। सबरीमाला आया तो स्थितियां बदल
गई। जो हिंदू लोग कहा करते थे वो मुस्लिम कहने लगे और मुस्लिमों ने जैसे तीन तलाक के
फैसले को मानने से इनकार कर दिया था, वैसे ही हिंदू संगठनों ने
सबरीमाला फैसले को नकार दिया।
तीन तलाक और सबरीमाला,
दोनों पर मोदी सत्ता के दोहरे चेहरे को हमने
देखा। लेकिन बात दूसरे छौर की भी तो होनी चाहिए। तीन तलाक को लेकर जब अदालत का फैसला
आया तब भी, उस फैसले के पहले भी और उसके बाद भी, तीनों समय तीन तलाक से जुड़े धार्मिक समुदाय की बेतुकी दलीलें, कुतर्क आदि जगजाहिर है। भारतीय संविधान के अनुसार कायदे से तो
कोई भी कानून तमाम व्यक्तिओं,
संगठनों, धार्मिक समुदायों के ऊपर एकसमान रूप से लागू होता है। संविधान की रक्षा करने की
शपथ नागरिकों के लिए भी दोगलापंति से लबालब क्यों हो? तीन तलाक मामले में आस्था और धर्म की जिद ही तो थी। संविधान-कानून तो समान होने
चाहिए, लेकिन जिद के चलते दशकों तक यह भेदभाव स्थायी रहा। धड़ल्ले से
कह सकते हैं कि तीन तलाक का फैसला सुनाते समय शीर्ष अदालत के लिए स्थितियां अलग थी, और उससे पहले के दौर में स्थितियां अलग रही थी। स्थितियां अलग
नहीं होती तो कानून और संविधान का यह भेद दशकों तक जारी नहीं रह पाता।
याद करिए हिंदू एक्ट लागू करते समय की वो स्थितियां। उन दिनों की माथापच्ची, तर्क-कुतर्क, उग्रता, जिद,
समझ आदि को निष्पक्ष होकर पढ़ लीजिएगा। हिंदू
एक्ट लागू करने से पहले और उसके बाद का वो दौर भी दिलचस्प है। शाहबानो मामला, फैसला और फिर जो स्थितियां बनी वो भी चर्चा के भीतर आना चाहिए।
कांग्रेसी सत्ता का मुस्लिम तुष्टिकरण ही मोदी सत्ता को हिंदू तुष्टिकरण के अपराध से
बचाकर निकाल ले जाता है। आस्था-भावना-धर्म-स्वतंत्रता-जिद... ये सब हमेशा जातियों
और समुदायों के नजरिए से बदलता हुआ इस देश ने कई दफा देखा है।
यही हाल फिलहाल यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर भी तो है। कहते हैं कि अगले साल मोदी
सत्ता यूनिफॉर्म सिविल कोड लानेवाली है। हिंदू-मुसलमान ही नहीं कई अन्य धार्मिक समुदाय
के लोग इन पर माथापच्ची कर रहे हैं। धार्मिक स्वंत्रता और एकसमान कानून, दोनों के बीच का फैसला या नतीजा आसान तो नहीं है। पर्सनल लॉ और
देश का कानून, आदि को लेकर चर्चा किसी एक नजरिये से नहीं हो सकती यह भी हमें पता
है। हम यह कतई नहीं कह रहे हैं कि तीन तलाक हो या यूनिफॉर्म सिविल कोड हो, सबमें एक नजरिए से ही सोचा जाए। लेकिन सारे मामलों में अदालत को
सीधा फैसला देने में आस्था और धर्म की वही जिद को सोचना पड़ रहा है यह भी तो एक तथ्य
है।
सीधी सी बात है। यदि देश की शीर्ष अदालत के व्यवहार में व्यावहारिकता
का पलड़ा भारी हो, जिसे प्रैकिटकल होना भी कहा जाता है तो यह गंभीर विषय है। तथ्य-साक्ष्य-निष्पक्षता
आदि की जगह व्यावहारिकता हावी होने लगे तो यह विश्वगुरू राष्ट्र बनाने की तरफ नहीं, संकुचित देश की ओर चले जाने की सड़क है। भावनाओं में बहकर बॉलीवुड की फिल्में और काल्पनिक गाने बनते हैं, संविधान या कानून नहीं। सरकारें अदालतों को तथा अदालत के फैसलों को प्रभावित करती हैं, लेकिन सरकारों को नागरिक भी प्रभावित कर सकते हैं। भले ही कथित
रूप से 10-12 मल्टीनेशनल कंपनियां मिलजुल कर किसी खिलौने में चाबी भरती हो
और वो खिलौना चल पड़ता हो, लेकिन नागरिकों की समझ नामका तत्व भी तो कही
आता-जाता होगा न? शीर्ष अदालत को हिंसा का डर क्यों? – लेख के इस टाइटल का जवाब इसीके इर्द गिर्द ही तो छिपकर बैठा है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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