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Destructive Covid in India : घी दूध की नदियाँ बहानी थीं, लेकिन नदी में लाशें बह रही हैं


सपनों के सौदागर सदैव हमारी भावनात्मक सभ्यता को बड़े बड़े सपने दिखाते हैं। और ऐसे में अगर वह भावनात्मक सभ्यता विचारशून्य प्रजा में तब्दील हो चुकी हो तब होता यह भी है कि जब सपने टूटते हैं तब भी उस प्रजा को महसूस नहीं हो पाता कि वे बर्बादी की कगार पर नहीं खड़े हैं बल्कि बर्बादी के बीच लाशें बनकर इधर से उधर, उधर से इधर घूम रहे हैं। घी दूध की नदियाँ बहे न बहे, लाशें नदियों में, नालों में बह रही हैं।  
 
कुछ विशेष लोगों के लिए लिख दूं कि जी हां, पता है कि उत्तराखंड त्रासदी के बाद एक साल बाद भी मलबे से, नाले से लाशें निकली थी। जी हां, यह भी पता है कि गंगा में या दूसरी नदियों में लाशें मिलने की यह कोई प्रथम घटना नहीं है। लेकिन आजाद हिंदुस्तान में इस कदर सैकड़ों लाशें नदियों में तैरती देखने के लिए मिल जाए, 50-100 की तादाद में लाशों का जमघट घाट-घाट पर नजर आने लगे और आंकड़ा 2000 के पार चला जाए, क्योंकि अंतिम संस्कार के लिए साधन नहीं है, क्योंकि उन लाशों के स्वजनों तक-परिवारों तक जागरूकता-जानकारी पहुंचाने में सरकार महीनों के बाद भी विफल रही है, यह एकमात्र और पहली घटना ज़रूर है।
 
मौतों के निर्मम चुनावी स्नान के बाद गायब हो चुके केंद्रीय गृह मंत्री को फिर एक बार हिम्मत दिखानी चाहिए। यह कहने की हिम्मत कि घी-दूध की नदियाँ फिर बहेगी वाला आह्वान तो एक जुमला ही था। देखा जाए तो सचमुच यह एक जुमला ही तो है। भारत के दिग्गज इतिहासकार स्व. डीएन झा ने अपने गहन संशोधन के बाद लिखा था कि भारत में स्वर्ण युग था ये विचार तो उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में बाहर निकला था। बक़ौल स्व. डीएन झा, ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि भारतीय इतिहास में कभी कोई स्वर्ण युग नहीं था। भारत के इस दिग्गज इतिहासकार के इस रिसर्च से कई लोग सहमत-असहमत हो सकते हैं। लेकिन स्वर्ण युग वाले इस रिसर्च पर बात करते हुए उन्होंने बड़ी सीधी बात कही थी। उन्होंने कहा था कि साधन-संपन्न लोगों के लिए तो हर युग स्वर्ण युग ही रहा है।
 
साधन-संपन्न लोगों के लिए तो हर युग स्वर्ण युग ही रहा है। स्व. डीएन झा का यह कथन आज की स्थिति में भी सच साबित होता है। नदी में जो लाशें बह रही हैं, नालों में जो लाशें पड़ी हैं, आधुनिक से आधुनिक जाँच कर लें उन लाशों पर, एक भी लाश साधन-संपन्न इंसान की नहीं होगी।

कोरोना के कहर के बीच चौसा महदेव घाट पर लाशों के मिलने का सिलसिला ऐसा चला कि फिर तो यूपी-बिहार में जगह जगह लाशों का अंबार नजर आने लगा। मध्य प्रदेश से भी ऐसी ही ख़बर आई थी। हर जगह, घाट घाट पर, किनारे किनारे, जहां देखे वहाँ लाशों का मेला!!! विश्वगुरु देश, जहां फिलहाल तो लोगों को मरने के बाद भी अदद मुकाम हासिल नहीं हो पा रहा!!! जैसे तैसे अपनों के शवों का निकाल हो रहा है। नदी किनारे शवों को कुत्ते नोच-नोच कर खा रहे हैं। अद्दश्य दुश्मन से लड़ने का जुमला देकर पहाड़ से भी बड़ी गलती छिपाने की कोशिश कर रही सरकार पतली गली से निकले जा रही है।
14 मई 2021 को प्रधानमंत्री ने किसानों के लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं को लेकर कार्यक्रम किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि योजनाओं से किसान बहुत खुश हैं। कितने खुश हैं वह तो पिछले एक साल से दिल्ली की सरहदों पर देख ही रहे हैं हम!!! लेकिन इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने यह भी कह दिया कि गंगा के दोनों किनारों पर किसान जैविकीय खेती कर लाभ उठा रहे हैं। हो सकता है कि प्रधानमंत्री का ये कथन सच भी हो। लेकिन जिस दिन प्रधानमंत्री ये बोल रहे थे, उन्हीं दिनों गंगा के दोनों किनारों से सैकड़ों की तादाद में लाशें मिल रही थी, शव तैर रहे थे!!!
 
तीन तीन राज्यों में, जहां उनकी ही सरकारें हैं, वहाँ से शव मिलते हैं तो लब चुप ही रहे तो अच्छा है वाला गाना याद आया होगा! विपक्ष वालों के राज्य से मिलते तो लब बोलेंगे वाला रीमिक्स बजता! सैकड़ों शवों का यूं मिलना... डर, दहशत, जागरूकता का अभाव, महंगाई, अंतिम संस्कार का टूटा हुआ सरकारी ढाँचा, प्रशासन की बड़ी नाकामी, सरकारों की पहाड़ जैसी गलती... सब कुछ इसके लिए ज़िम्मेदार हो सकता है। कम करके दिखाए जा रहे आंकड़ों के बीच लाशों ने तैरकर अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी है।
 
स्थिति बयां कर जाती है कि गाँवों में परिवार के परिवार तबाह हो गए होंगे। पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी, किसी ने ऐसा मंजर तो नहीं देखा है। 14 मई 2021 के दिन दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि अकेले यूपी के 27 जिलों में 1140 किलोमीटर की दूरी में गंगा किनारे 2000 से ज्यादा शव मिले हैं!!! दूसरी जगहों पर तथा बिहार और एमपी की घटनाओं का आंकड़ा इसमें शामिल नहीं था। लाजमी है कि आंकड़ा बहुत ही अधिक होगा। दैनिक भास्कर की इस रिपोर्ट में कहां कहां कौन से घाट या किनारे पर कितने शव हैं उसको लेकर पूरा ब्यौरा छपा है।
 
सत्ता के लिए तो केवल सत्ता ही धर्म रहा है। आज़ाद हिंदुस्तान के अलग अलग धर्म-जाति के नागरिक अब लाशें बनकर नदियों में तैर रहे हैं!!! कितने घाटों के नाम लिखे? कितने किनारों का ज़िक्र करें? कितने इलाकों को चिन्हित करें? समय की गंगा में बेफिक्र होकर सरकारें नौका विहार करती रही। सरकारें नीचे देखना ही नहीं चाह रही तो उसे लाशों का ये अंबार कैसे नजर आएगा? नोटबंदी (नोटबदली) के समय नदी में बहा दी गई नोटों का श्रेय ले लिया, लेकिन अब की बार माँ गंगा बुला नहीं रही!!! बस आज़ाद हिंदुस्तान आज अपने इतिहास का सबसे बड़ा स्मशान देखने को मजबूर हो चला है। न जाने कितने ट्रिलियन का सपना देखा था देश ने, आज ट्रिलियन में कितने जीरो होते हैं वह बता नहीं पाने वाले लोग हास्यास्पद तर्कों के साथ लड़ रहे हैं।
 
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन, दोनों नोटिस देकर कर भी क्या लेंगे? जब राज्यों में अदालतें बार बार झाड़ कर थक चुकी हैं, तो फिर आयोग या मिशन कौन से बगीचे के भंवरे हैं? फर्क कोई नहीं पड़ेगा। बस बातें होगी कि चौकसी बढ़ा दी गई है, अंतिम संस्कार के लिए राशि दी गई है, आदेश दिए गए हैं, वगैरह वगैरह। जो सरकारें साल भर से सो रही हो वे अब काहे को जागेगी? पहले कुछ लोग शवों को दफनाया करते थे, महामारी के चलते दहशत तो है ही, लेकिन आज की तारीख में जो आंकड़ा है, वो अलग ही कहानी बयां करता है। सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की सही संख्या को लेकर सवाल उठते रहेंगे, फर्क किसे पड़ता है? इंतज़ाम, विफलता, लीपापौती, गलतियां, सोते रहना आदि को लेकर सवाल उठेंगे तो फिर घोषणाओं का थोक व्यापार तो है ही।
आत्म मुग्धता वाला महानायक और हठयोग वाला नायक, दोनों की पेशानी पर चिंता की लकीरें तभी दिखती हैं जब चुनाव का मैदान हो। तभी तो लाशों के ढेर पर विश्वगुरु बैठा तब जाकर बिगड़ती छवि की चिंता हुई, दूसरी चीजों की नहीं!!! मुफ्त वैक्सीन का जुमला सच होते हुए देखते इससे पहले तो सैकड़ों लोग बिना इलाज़ के चल बसे!!! जो चल बसे वे अब शव बनकर तैर रहे हैं।
 
लाशों के ढेर पर सकारात्मकता फैलाने की योजना बीजेपी और संघ की ओछी राजनीतिक सोच और चुनावी नजरिए का झरोखा भर है, और कुछ नहीं। छवि चमकाने के लिए की जा रही जद्दोजहद भर ही है। एक भारत-श्रेष्ठ भारत के जुमले के बीच राज्य यह कहते हैं कि लाशें हमारी नहीं हैं। भारत में सैकड़ों लाशों का इस कदर बहना, यह दुखद घटना लोगों की जागरूकता-समझदारी के साथ साथ सरकार व प्रशासन की लापरवाही-आंकड़ों के मायाजाल-नकारापन से लेकर दूसरे कई मसलों को उजागर कर जाती है।
 
सबसे पहले 10 मई 2021 को राष्ट्रीय स्तर पर इस खबर को जगह मिली, जब बिहार के बक्सर जिले के गंगा घाट पर लाशों का अंबार लग गया। विश्वगुरु बनने के लगभग लगभग आउटर पर खड़े देश में इंसानियत लाशें बनकर तैर रही थी इन दिनों!!! शर्मसार होने की आदत छोड़ चुके इस काल में जब यह खबर आई तो सबसे पहला काम क्या हुआ था, पता है? वह काम था – पल्ला झाड़ना और लाशों के आंकड़े छिपाना!!! संक्रमितों के और संक्रमण से मारे गए लोगों के आंकड़ों में जमीन-आसमान का अंतर बिल्कुल साफ दिखता है अब तो। लेकिन अब तैर रही लाशों के आंकड़ों में भी ऊंच-नीच का सरकारी कामकाज पहले दिन ही शुरू हो गया।
 
चौसा के बीडीओ अशोक कुमार ने बताया कि ये करीब 40 से 45 लाशें होगी जो अलग-अलग जगहों से बहकर महदेवा घाट पर आकर लग गई हैं, ये लाशें हमारी नहीं हैं। (नोट करे कि यूपी-बिहार से मिल रहे इन शवों का आंकड़ा अब तक 2000 के पार जा चुका है) यूं तो कहा जाता है कि पूरा भारत एक है, हम सब भारतीय हैं, लेकिन लाशें हमारी नहीं हैं!!! अभी कितनी लाशें होगी यह पता नहीं था लेकिन बिहार प्रशासन ने सबसे पहला काम पल्ला झाड़ने का ही किया। कह दिया कि यूपी वालों की लाशें हैं, हमारी नहीं हैं।
 
चौसा के बीडीओ ने पहले दिन बयान दिया था कि हमने एक चौकीदार लगा रखा है जिसकी निगरानी में शव जलाए जाते हैं, घाट पर मिले शव तो उत्तर प्रदेश से बहकर आए और यहाँ लग गए हैं। बीडीओ साहब को लगे हाथ ये भी साफ कर देना चाहिए था कि यदि आपने इस घाट के लिए एक चौकीदार लगा रखा है, तो फिर यहाँ सैकड़ों लाशें लग गई तब भी चौकीदार साहब को पता क्यों नहीं चला? ये ख़बर राष्ट्रीय अखबारों में छाने के बाद ही आपको पता चला, तो क्या ये समझ ले कि चौकीदार ही चोर है? यहाँ ये स्पष्ट कर दें कि प्रशासन ने चौकीदार लगा रखा है ये बात स्थानीय पत्रकार भी बताते हैं, लेकिन कहानियां उससे भी आगे हैं।
चौसा के उस अधिकारी ने यह भी कहा था कि मैंने घाट पर मौजूद रहने वाले लोगों से बात की है, उन्होंने कहा है कि ये लाशें यहाँ की नहीं हैं, ये उत्तर प्रदेश से बहकर आई है। प्रशासन की बातों के विरुद्ध स्थानीय लोगों और स्थानीय पत्रकारों की बातें इससे बिल्कुल उलट है। लेकिन बिहार प्रशासन का वह जवाब, लाशें हमारी नहीं हैं, एक भारत-श्रेष्ठ भारत के जुमले को कसकर थप्पड़ जड़ रहा है! सवाल यह भी उठता है कि एक चौकीदार लगा रखा है, कुछ लोग वहाँ रहते हैं, फिर भी सैकड़ों लाशें तैर रही हैं और प्रशासन कोई सुध नहीं ले रहा था, ऐसा क्यों? सैकड़ों लाशें, जो पीपीई किट में थी, जो कपड़े में बंद थी, जो सड़ चुकी थी, इन सैकड़ों लाशों को एक ही दिन में एक ही बार में देखकर किसी नायाब वैज्ञानिक पद्धति से तय कर लिया गया कि लाशें वहाँ की नहीं बल्कि दूसरे राज्य की थी!!! 
 
बिहार प्रशासन ने पहले दिन कहा कि ये जो लाशें यूपी से बह कर आ रही हैं उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। और फिर यही प्रशासन कहने लगा कि हम ये उपाय कर रहे हैं, वो उपाय कर रहे हैं!!! उपाय था ही नहीं तो फिर कौन से उपाय कर रहे हो ये किसीने नहीं पूछा। हालांकि कुछेक उपाय ज़रूर किए गए थे। किंतु 21वीं शताब्दी के विश्वगुरु को नदियों में, नालों में, लाशें रोकने के लिए नेट लगाने पड़े यह बात इतिहास का काला अध्याय ज़रूर है।
 
प्रशासन की बातें तो निराली ही होती हैं। प्रशासन की बातें सुनने के बाद जमीनी सच्चाई की बातें भी सुन लेनी चाहिए। पत्रकार मनीष कुमार की 10 मई 2021 की रिपोर्ट में बिहार के पवनी निवासी नरेंद्र कुमार मौर्य के हवाले से बताया गया कि बक्सर समेत अनेक जिलों में कोरोना फैल चुका है, चौसा घाट पर रोजाना 50 से 100 लोग आते हैं, लकड़ी की व्यवस्था न हो पाने की वजह से लाशें नदी में ही फेंक देते हैं, प्रशासन कोई मदद नहीं दे रहा। प्रशासन की बातें, चौकीदार लगा रखा है वाला जुमला और एक पत्रकार की स्थानीय लोगों के मुँह से बाहर निकल कर आ रही सच्चाई...।

कम करके दिखाए जा रहे आंकड़ों के बीच लाशों ने तैर कर अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी है। समय की गंगा में बेफिक्र होकर सरकारें नौका विहार करती रही। सरकारें नीचे देखना ही नहीं चाह रही तो उसे लाशों का ये अंबार कैसे नजर आएगा? कुछ जगहों पर तो शव देखने लायक स्थिति में भी नहीं बचे! कहीं पेर, कहीं हाथ, कहीं कुछ! अनेकों अनेक मानव शरीर टूटे हुए, बिखरे हुए पड़े हैं! 1918 में तो हम गुलाम देश थे। 2021 में हम विश्वगुरु बनने के आउटर पर ही खड़े हैं। लेकिन स्थिति 1918 से भी बदतर है!!! नोटबंदी (नोटबदली) के समय नदी में बहा दी गई नोटों का श्रेय ले लिया, लेकिन अब की बार माँ गंगा बुला नहीं रही। आजाद हिंदुस्तान आज अपने इतिहास का सबसे बड़ा स्मशान देखने को मजबूर हो चला है। न जाने कितने ट्रिलियन का सपना देखा था देश ने, आज ट्रिलियन में कितने जीरो होते हैं वह बता नहीं पाने वाले लोग हास्यास्पद तर्कों के साथ लड़ रहे हैं। यूं तो कहा जाता है कि पूरा भारत एक है, हम सब भारतीय हैं, एक भारत-श्रेष्ठ भारत, लेकिन लाशें हमारी नहीं हैं!!! लोगों की गलतियाँ हैं, लेकिन उससे ज्यादा तो सरकार गुनहगार साबित हो रही है।
 
लगे हाथ यह भी नोट करें कि प्रशासन ने 40 से 45 लाशों का ज़िक्र किया था पहले दिन, लेकिन उसी दिन स्थानीय पत्रकारों ने दावा किया था कि लाशों की तादाद इससे बहुत ज्यादा है। आज की तारीख में एक रिपोर्ट के मुताबिक इन लाशों की गिनती 2000 से भी ऊपर जा चुकी है!!! सोचिए, 21वीं शताब्दी के डिजिटल इंडिया में नदियों में लाशें तैर रही हैं!!! अगर आप मैट्रिक पास हैं तो आसानी से समझ में आ जाएगा।
बीबीसी हिंदी के सीटू तिवारी की रिपोर्ट में स्थानीय पत्रकार सत्यप्रकाश प्रशासन के दावे को सिरे से खारिज करते हैं। सवाल उठाते हुए कहते हैं कि, अभी गंगा जी के पानी में धार नहीं है। पुरवैया हवा चल रही है। ये पछिया का तो समय नहीं है, ऐसे में लाश बहकर कैसे आ सकती है?” सत्यप्रकाश आगे बताते हैं कि, 9 मई को सुबह पहली बार मुझे पता चला। मैंने वहाँ क़रीब 100 लाशें देखीं। जो 10 मई को बहुत कम हो गईं। बक़ौल सत्यप्रकाश, दरअसल बक्सर के चरित्रवन घाट का पौराणिक महत्व है और अभी वहाँ कोरोना के चलते लाशों को जलाने की जगह नहीं मिल रही है, इसलिए लोग लाशों को आठ किलोमीटर दूर चौसा श्मशान घाट ला रहे हैं।
 
वो आगे बताते हैं, "लेकिन इस घाट पर लकड़ी की कोई व्यवस्था नहीं है। नाव का भी परिचालन बंद है। इसलिए लोग लाशों को गंगा जी में ऐसे ही प्रवाहित कर रहे हैं। नाव चलती है तो कई लोग लाश में घड़ा बांधकर गंगा जी की बीच धार में प्रवाहित कर दे रहे हैं।"
 
वहीं घाट पर मौजूद रहने वाले पंडित दीन दयाल पांडे ने स्थानीय पत्रकारों से बातचीत में बताया, "अमूमन इस घाट पर दो से तीन लाशें ही रोज़ाना आती थीं, लेकिन इधर बीते 15 दिन से यहाँ तकरीबन 20 लाशें आती हैं। ये जो शव गंगा जी में तैर रहे हैं, ये संक्रमित लोगों के शव हैं। यहाँ गंगा जी में बहाने से हम लोग मना करते हैं, लेकिन लोग मानते नहीं हैं। प्रशासन ने यहाँ चौकीदार लगाया है, लेकिन उनकी कोई बात नहीं सुनता।"
 
वहीं घाट पर रहने वाली अंजोरिया देवी बताती हैं, "लोगों को मना करते हैं, लेकिन लोग ये कहकर लड़ते हैं कि तुम्हारे घरवालों ने हमें लकड़ी दी है जो हम लकड़ी लगाकर शव जलाएँ?" बक्सर ज़िले की बात करें तो बक्सर के स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि यहाँ कोविड संक्रमित मरीज़ों के दाह संस्कार में 15-20 हज़ार रुपए ख़र्च हो रहे हैं। स्थानीय पत्रकार कहते हैं कि एम्बुलेंस वाले मोटा पैसा ले रहे हैं, दाह संस्कार में भी बहुत पैसा बहाना पड़ रहा है। वहीं स्थानीय निवासी चंद्रमोहन कहते हैं, "प्राइवेट अस्पताल में लूट मची है। आदमी के पास इतना पैसा नहीं बचा कि वो श्मशान घाट पर भी जाकर पंडित पर पैसे लुटाए। एम्बुलेंस से शव उतारने के लिए तो दो हज़ार रुपए मांगा जा रहा है। ऐसे में गंगा जी आसरा बची हैं। लोग गंगा में शव बहा रहे हैं।"
 
बक्सर के घाट की घटना से शुरू हुआ ये दुखद मंजर फिर तो हर दिन नयी नयी कहानियां, नये नये सवाल, नये नये दर्द सामने लाने लगा। फिर प्रशासन ने अपने जवाबों को बदला और कहा कि इन सबके अंतिम संस्कार सम्मानपूर्वक किए जाएँगे। बिहार के बक्सर के बाद यूपी के गाजीपुर में नदी में शव तैरते दिखे। यहाँ स्थानीय लोगों ने प्रशासन पर अनदेखी के आरोप लगाए थे। स्थानीय बता रहे थे कि हमने अधिकारियों को सूचित किया, लेकिन अधिकारी कुछ कर ही नहीं रहे।
 
लोगों के पास जानकारी नहीं है, जागरूकता नहीं है वाला हथियार चला। बात सच भी है। लेकिन पिछले 12 महीनों से देश इस त्रासदी को झेल रहा है। इन 12 महीनों में महानायक की दाढ़ी भी बड़ी हो चुकी है। सरकार का काम है जागरूकता फैलाना, जानकारी देना। जो सरकार अपने खुद के टैरेस पर पकोड़े बना रहे लोगों को ड्रोन की मदद से पकड़ सकती है वो सरकार 12 महीनों से लोगों को जानकारी देने के बजाए अनाप-शनाप और अनर्गल प्रलापों का प्रसाद परोसती रहती है!!! कई दिग्गज राजनेता, मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री सरीखों ने कोविड को लेकर कितने हास्यास्पद बयान दिए हैं यह कोई पुराना इतिहास भी नहीं है।  
  
राष्ट्रीय अखबारों में स्थानीय लोगों के हवाले से लिखा गया है कि यूपी और बिहार, दोनों तरफ से एम्बुलेंस वाले आते हैं, शव को पुल से नीचे फेंकते हैं और चले जाते हैं। उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती बिहार के सारण जिले के मांझी प्रखंड के जय प्रभा सेतु के स्थानीय लोगों के हवाले से यह रिपोर्ट राष्ट्रीय अखबारों में छपे थे। दावा किया गया कि जय प्रभा तथा जय प्रकाश सेतु अब कोविड संक्रमित शवों के निपटारे का साधन बना हुआ है, आए दिन इस पुल से एम्बुलेंस चालक अस्पतालों से लाये गए शवों को फेंक कर आराम से निकल जाते हैं और प्रशासन आँखे मूंदे स्थिति को सामान्य या नियंत्रण में बताने की कोशिश में लगा रहता है। वैसे इन्हीं दिनों बिहार बीजेपी के ही सांसद जनार्दन सिंह सिगरिवाल ने आरोप लगाया था कि कोरोना पीड़ितों के शव को जय प्रकाश सेतु नाम के ब्रिज से गुजरने वाली एंबुलेंस से नदी में फेंका जा रहा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि बिहार और यूपी, दोनों जगहों पर ऐसा ही चल रहा है। वैसे स्थानीय लोगों के दावे को सरकारें आसानी से झूठला सकती हैं। कैसे और क्यों, ये दोनों चीजें मैट्रिक पास आदमी तक को ज्ञात होनी चाहिए।
बिहार वाली घटना के प्रथम दिन जो प्रशासन 40-45 शवों के मिलने की बातें करता था, वो कुछ दिनों बाद 70-75 तक तो पहुंच ही गया था। जबकि स्थानीय पत्रकार बता चुके थे कि यह तादाद इससे बहुत ही अधिक थी। फिर तो दूसरी जगहों से भी शव मिले। बिहार से भी मिले, यूपी से भी मिले। नदी में मिले, नालों में मिले। रेत में दफनाए गए शव मिले। अब तो एक रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा 2000 के पार है!!! 
 
बिहार और यूपी, दोनों जगहों पर कई घाटों पर, नदी किनारों पर, ऐसा ही हाल था। नदियों में तैरती अधजली लाशों से लोग परेशान हो रहे हैं। बीबीसी हिंदी के रिपोर्ट की माने तो तैरती लाशों के चलते इन इलाकों में लोग दुर्गंध से भी परेशान हैं। सीटू तिवारी और समीरात्मज मिश्र की बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के मुताबिक लोग गरीब हैं, दाह संस्कार नहीं कर पा रहे हैं, प्रशासन का भी कोई सहयोग नहीं मिल रहा, तो परिजन शव को गंगा जी में फेंक कर चले जा रहे हैं, घाट किनारे आकर शव लग रहे हैं और दुर्गंध फैल रही है। अधिकारियों के जो दावे हैं उससे उलट लोग कहते हैं कि दुर्गंध इतनी कि खाना तक नहीं खाया जाता, रोज़ाना यहाँ लाशें दिखती हैं, प्रशासन का कोई ध्यान नहीं है, टीवी पर आ रहा है तो अब सरकार जागी है। लोग बताते हैं कि अब की बार जिस मात्रा में लाशें आ रही हैं, कोरोना के चलते आ रही हैं।
 
इसी रिपोर्ट में लोग बताते हैं कि अभी सूखी लकड़ी बड़ी मुश्किल से मिल रही है, दाम भी बहुत है, सरकारी इंतज़ाम है नहीं। कुछ लोग बताते हैं कि जागरूकता का अभाव भी है, लेकिन सरकारी स्तर पर कोताही बरती जा रही है यह भी सच है।
 
लोगों की गलतियाँ हैं, लेकिन उससे ज्यादा तो सरकार गुनहगार साबित हो रही है। हम सबने वो मंजर देखा जहां शहरों में भी लोग अपनों को ठीक से अंतिम विदाई नहीं दे पा रहे! वहाँ भी श्मशानों के बाहर लंबी कतार है! शहरों में भी ऐसे किस्से सामने आए जब अस्पतालों से शव यह कहकर दे दिए गए कि यहाँ अंतिम संस्कार का ढाँचा टूट गया है, आप अपने गाँव-घर लेकर जाइए और खुद ही जला दीजिए! इस महामारी में सही इलाज तो सरकारों ने समय रहते मुहैया नहीं कराया, साथ ही अंतिम संस्कार बहुत मुश्किल और महंगी प्रक्रिया बन चुका है!
 
दैनिक भास्कर अख़बार के बक्सर संस्करण में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ श्मशान घाट पर 15 से 20 हज़ार ख़र्च हो रहा है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक़ बक्सर के श्मशान घाटों पर एम्बुलेंस से शव उतारने के लिए 2000, लकड़ी व अन्य सामान के लिए 12 हज़ार रुपए लग रहे हैं। प्रशासन के पास ढेरों बहाने हैं इन सब चीजों को नकारने के। लाशों को बहाना, लाशों को दफनाना आदि मामलों को लेकर लोगों पर आसानी से इल्ज़ाम लगाए जा सकते हैं। क्योंकि जो सरकारें महीनों से सो रही थी, आत्म मुग्धता में मस्त थी, देश को झूठा झांसा-दिलासा दे रही थी, जो आज गुनहगार सरीखी दिखती है, वे सरकारें.... अब... उल्टा चोर कोतवाल को डांटे!!!
12 मई 2021 की एनडीटीवी हिंदी की रिपोर्ट को देखिए। बताया गया कि किनारे जो लाशें मिली थी उन्हें प्रशासन के लोग ही जल्दी जल्दी में डुबो रहे थे! रिपोर्ट में दावा किया गया कि यह केवल एक घाट की कहानी नहीं है, दूसरी जगहों पर ऐसा ही मंजर है। इस रिपोर्ट में लिखा गया था कि नैनीजोर घाट पर बांस से लाश को डुबो रहे व्यक्ति का कहना है कि सेमरी सीओ के आदेश पर लाश को छुपाया जा रहा है। इस बात की जानकारी देते हुए मुन्ना कुमार राय ने बताया कि लाशों को हम लोग बहा देते हैं, धकेल देते हैं, क्योंकि सीओ का आदेश है कि घाटों की साफ-सफाई होती रहे, ऐसे में हम लोग बांसों से लाशों को बहाव देते हैं और उन्हें धकेल देते हैं, जबकि मेरा मानना है कि लोगों को लाश जला देना चाहिए या गाड़ देना चाहिए तभी कोरोना की रोक-थाम होगी। यानी लाशों को आगे धकेल दो, घाट साफ कर दो, हाथ घोकर कचहरी वापस चले जाओ!!!
 
शवों को अधजला छोड़ दिया गया, बहा दिया गया, दफना दिया गया। क्यों? इसके ढेर सारे उत्तर हमने ऊपर देख ही लिए। हालात यह कि किनारे आकर जो शव लग रहे हैं, उन्हें अब नदी किनारे रेत के नीचे दफनाया जा रहा है। सैकड़ों की तादाद में। यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ, जैसे-तैसे दफनाया जा रहा है! प्रशासन इन शवों को दफना भी ऐसे रहा है, जैसे वो शहरों-गाँवों में पाइप लाइन बिछाता है। थोड़ा सा गड्ढा किया, पाइप डाल दिया। फिर थोड़ी सी बरसात हुई या कुछ दूसरा किया तो पाइप निकल आता है। यहाँ भी वही हाल है। तेज हवा चलती है तो फिर शव बाहर दिखाई देने लगते हैं! जिन शवों को पहले भी कुत्ते नोच कर खा चुके थे, वे बाहर आते ही पशु-पक्षी फिर से नोचने लगते हैं। कुत्ते घसीट कर बाहर निकाल कर कहीं ले जा रहे हैं। जानवरों का जमावड़ा लगा हुआ है। एक ही शव को दो-चार जानवर खा रहे होते हैं। शवों की दुर्गंध चारों ओर फैली हुई है। और अब तो दफनाने के लिए भी प्रशासन के पास रेत नहीं होगी किनारों पर। शव मिले थे पूरे, लेकिन अब सैकड़ों शव सही अवस्था में नहीं है। मानव शरीर के अंग बिखरे हुए पड़े हैं।
  
पहले शव मिले तो डीएनए, पोस्टमोर्टम जैसी बड़ी बड़ी बातें हुई। बातें यूं ही की गई होगी। क्योंकि उन्हें तो पता ही होगा। लेकिन फिर देश को पता चला कि यहाँ तो 100-200 नहीं बल्कि हजारों शव बिखरे पड़े हैं! फिर प्रशासन खुद ही लाशों को आगे बहाने लगा या दफनाने लगा! जिन घाटों से शव मिले, जिन किनारों पर लाशें लग गई थी, जहां उन्हें बहाया गया या दफनाया गया, उन जगहों के नाम लिखने बैठे तो सूची लंबी बनेगी। राष्ट्रीय अखबारों तक के बिखरे हुए अनेक रिपोर्ट हैं, पढ लीजिएगा नामों को जानने के लिए।  
 
कुछ जगहों पर तो शव देखने लायक स्थिति में भी नहीं बचे! कहीं पेर, कहीं हाथ, कहीं कुछ! अनेकों अनेक मानव शरीर टूटे हुए, बिखरे हुए पड़े हैं! 1918 में तो हम गुलाम देश थे। 2021 में हम विश्वगुरु बनने के आउटर पर ही खड़े हैं। लेकिन स्थिति 1918 से भी बदतर है!!! आंकड़ों का मायाजाल फैलाया जा रहा है! लेकिन स्थानीय निवासी बताते हैं कि पहले जहां 8 से 10 शवों का अंतिम संस्कार होता था वहाँ आजकल 100 से 150 शव आते हैं।
 
पिछले साल से ही, यानी 2020 से ही, कोरोना संक्रमितों और कोरोनो से मारे गए लोगों के आंकड़ों का झोल चल ही रहा है। अब तो 2021 में कई लोग मानने लगे हैं कि असली आंकड़ा बहुत ही अधिक होगा। आंकड़ो के इस विवाद के बीच इस तरह सैकड़ों लाशों के मिलने के बाद सरकार-प्रशासन के हाथ पाँव फूले ज़रूर होंगे। बिहार वाले यूपी को दोषी ठहरा रहे थे। पंचायत चुनावों के बाद यूपी में कोरोना का संक्रमण बहुत फैला था ऐसी रपटे थी। 700 शिक्षकों की मौतें और दूसरे सैकड़ों कर्मचारी, जो चुनावी कार्य में झोंके गए थे, उनकी मौतों को सरकार स्वीकार कर चुकी थी। लेकिन आंकड़ा घटाकर स्वीकार कर चुकी थी यह ज़रूर नोट करें। किंतु स्वाभाविक था कि ये संक्रमण लोगों में, शहरों में, गाँवों में भी फेला होगा।  
 
बिहार या यूपी ही नहीं, एमपी में भी लोग नदियों में शव बहा रहे हैं!!! मध्य प्रदेश के वीडियो भी सामने आ चुके हैं, जहां लोग शव को पानी में बहाते हो। यानी माँ गंगा और माँ नर्मदा, दोनों जगह यही हाल है!!! जलदाग की प्रथा का सहारा लेकर तीनों राज्यों का प्रशासन बच निकलने की कोशिशें कर रहा है। झूठे आंकड़ों का आरोप झेल रही सरकारें जलदाग का सहारा लेकर ठीकरा लोगों के मत्थे फोड़ना चाहती है। लेकिन हमने सारी चीजें ऊपर देख ही ली है।
नदी में तैर रहे शवों को लेकर तरह तरह की कहानियां हैं, तरह तरह के दावे हैं। ग्रामीणों में कोरोना को लेकर डर का माहौल है। डर की वजह से अपनों के शव नदी में छोड़ दिए होंगे। साथ ही ग्रामीण स्तर पर कोरोना को लेकर अंतिम संस्कार के नियमों के पालन का अभाव है। यह बात भी जिम्मेदार हो सकती है। एम्बुलेंस वाले रात में आते हैं, शवों को फेंक कर चले जाते हैं वाली बातें भी सामने आई। भ्रष्टाचार, आंकड़े छुपाना वाली सरकारी कार्यशैली के चलते यह बात भी काफी हद तक सही ही है। कोई अपनों के शवों को यूं छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन अंतिम संस्कार के लिए पैसे नहीं हैं, लकड़ी के दाम बढ़ चुके हैं, अंतिम संस्कार का ढाँचा चरमरा गया हैं, ये मजबूरियां भी सही हो सकती है।
 
महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली आदि जगहों पर शहरों में जिस तरह की त्रासदी देखने को मिली इन दिनों, जिस तरह की झकझोरने वाली तस्वीरें यहाँ से आती रही थी... शहरों में भी यही हाल था। सोचिए, विश्वगुरु बनने के आउटर पर खड़े देश के बड़े बड़े राज्यों के शहरों में इस कदर अराजकता फैली थी तो फिर गाँवों में क्या हाल होंगे?
 
स्थानीय स्तर पर जो तस्वीरें सामने आई हैं वो दिल दहला देने वाली हैं। लाशों को जानवर नोंचते दिख रहे हैं। अधजली लाशें मिल रही हैं, जिसे कुत्ते खाते हैं और पूरे गाँव में घूमते रहते हैं। लाशों को बहाने की या दफनाने की हिंदू परंपरा के नाम पर इस स्थिति से बच निकलने की हास्यास्पद कोशिश कर रही सरकारें अपना नैतिक फर्ज भी भूल चुकी है। कोरोना के चलते इस बार लाशें बहुत ही अधिक तादाद में मिल रही हैं। लोगों की आर्थिक स्थिति पहले से खराब हो चुकी है, सरकार और प्रशासन के स्तर पर सही इंतज़ाम है नहीं। भारत में लोग अपने परिजनों को सम्मानित तरीके से बिदाई देने की परंपरा नहीं निभा पा रहे।
  
कंगना रनौत जैसे पढ़े-लिखे लोग, जो खुद ही अनेकों बार फेक न्यूज़ फैलाकर ट्विटर से खुद का खँभा हटवा चुके हैं, वे सही तस्वीरों को फेक बता रहे हैं! वैसे अनेक फेक तस्वीरें हैं इस घटना को लेकर। फेक न्यूज़ भी चल रहा है शवों के तैरने को लेकर। किंतु जो आईने की तरह साफ तस्वीरें हैं, वे तो सही ही हैं। लेकिन महामहिम कंगना रनौतजी इसे नाइजीरिया की बता रही है!!! मीडिया का तो क्या है? वे बिचारे तो अब भी चाटुकारिता को बेबाक बोल कह रहे हैं!!!
 
लोगों में जागरूकता नहीं है वाला हथियार उन लोगों के लिए सही हो सकता है जो पहले से चिंतित और जागरूक थे। हमारे यहाँ केंद्र की मोदी सरकार हो या उनके नक्शे-कदम पर चलने वाली राज्य सरकारें हो, सारे क्या क्या कर गए थे यह हमने पिछले लेखों में देखा है। इस लिए जिन्हें जागरूकता वाले डंडे का मोह हो वे लोग पिछले लेखों को पढ़ लें।  
बिहार, यूपी, एमपी। हो सकता है कि दूसरी जगहों पर भी ऐसा हुआ हो, जिसकी कहानियाँ बाहर आना बाकी हो। किसकी लाशें हैं, कहां से आई, पता लगाना लगभग नामुमकिन ही है। क्योंकि आंकड़ा 2000 के भी ऊपर जा चुका है!!! जागरूकता का अभाव, डर, दहशत, महंगाई, प्रशासन की बड़ी नाकामी, सरकारों की घोर विफलता, सब कुछ इसके लिए जिम्मेदार है। जो सरकार सिग्नल पर वाहन को ट्रेस करके घर पर लोगों को कागज भेज सकती है, वो सरकार यहाँ नाकाम हो जाती है!!!
 
शव मिलने से पानी के जरिए कोरोना फैल सकता है या नहीं, इसका अध्ययन वैज्ञानिकों के लिए ज़रूरी है। फिलहाल तो सरकार के लिए उससे ज्यादा ज़रूरी दूसरी चीजे हैं। 21वीं शताब्दी में भारत में ऐसे मंजर देखने के लिए मिले तो वो लोगों के स्तर से ज्यादा प्रदेश सरकारों के निक्कमेपन को उजागर करने वाली घटनाएं हैं। देखिए न, इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी फतेहपुर और उन्नाव ज़िले के बीच 500 शव तो सरहदी विवाद के चलते पड़े रह गए थे!!! 13 मई 2021 के दिन भास्कर का रिपोर्ट था यह। ऊपर से पत्रकारों के सामने ही अधिकारी झूठ बोल देते हैं, कहते हैं कि यहाँ शव नहीं हैं। लेकिन मिनट भर के बाद यहाँ ढेरों शव दिख जाते हैं!!!
 
संस्कृति-स्वाभिमान पर फेफड़े फाड़ देने वाली सभ्यता चुप हैं। भारत का स्वाभिमान, भारत का सम्मान, भारत का गौरव, पर राजनीति करने वाले लोग चुप हैं। भावनात्मक सभ्यता की भावना आहत नहीं हो रही। ऐसा इस लिए, क्योंकि वो सभ्यता भावनात्मक तो है, लेकिन साथ में विचारशून्य प्रजा में भी तब्दील हो चुकी है। न मैँ आया हूँ, न मुझे भेजा गया है, मुझे तो माँ गंगा ने बुलाया है, कहने वाले महानायक से माँ गंगा इस बार रूठी हुई है। गंगा सफाई के लिए अपने प्राण देने की बात करनेवाली उमा भारती तो महीनों से विलुप्त है।
  
हमारे यहाँ एक सूबे का सीएम कह देता है कि माँ गंगा के आर्शीवाद से कोरोना नहीं फैलेगा। एक दूसरा नेता कह देता हैं कि गंगा मैया में डुबकी लगाओ, कोरोना भाग खड़ा होगा। ये सब ऐसी बातें कर सकते हैं, क्योंकि भारत भावनात्मकता और धार्मिक उन्माद से लबालब सभ्यताओं का देश है। जो संस्कृति खुले आसमान सरीखी थी, उसे संकीर्ण बना दिया गया है। यह चीज़ अच्छी है या बुरी यह सोचना भी गुनाह सरीखा हो गया है। ऐसे वातावरण में कोविड 19 जैसी महामारी के दौर में वैज्ञानिकता के नजरिए से बात करना अपने आप में बड़ा संकट है!!! तभी तो यहाँ सैकड़ों लाशें मिलने के बाद भी लोग यह समझने को तैयार नहीं होते कि यदि सामूहिक स्नान-कार्यक्रमों से नदियों में जीवाणु घूल-मिल सकते हैं तो विषाणु क्यों नहीं?
 
जैसे प्रशासन पहले ही दिन से हमारी लाशें नहीं हैं उनकी हैं, जैसा आसमानी बचाव कर रहा था, वैसे ही कुछ लोग कहेंगे कि ये शव तो लोगों ने बहाए हैं। कुछ कहेंगे कि एम्बुलेंस वालों ने बहाए हैं। कुल मिलाकर यही कहना चाहेंगे कि मोदीजी थोड़ी न बहाने गए थे कि आपने लेख के साथ तस्वीर में मोदीजी की फोटो लगा दी। अरे भाई, ना मोदीजी ने बहाई है, ना राहुलजी ने, ना अरविंदजी ने, ना ममताजी ने। इन सब शवों को तो माँ गंगा ने बुलाया है। ठीक है? अब ये मत पूछना कि कैसे बुलाया माँ गंगा ने? क्योंकि महानायक ने भी नहीं बताया था कि उन्हें माँ गंगा ने कैसे बुलाया था!!! जब भारत में डिजिटल कैमेरा नहीं था, ईमेल नहीं था, तब भी महानायक के पास सब कुछ होता था!!! ऐसे ही क्या पता माँ गंगा ने महानायक को ईमेल या व्हाट्सएप करके बुलाया हो!!!    
 
हम तो मार्च 2020 से ही लिख चुके हैं कि जितना अच्छा होगा वो सरकार के सिर होगा और जितना बुरा होगा वो जनता के मत्थे होगा। एक साल पहले ही हम लिख चुके हैं इस कटु योजना को। आज यह हो भी रहा है। लोगों के गुनाह, लोगों की गलतियाँ, लोगों की बेवकूफियाँ, इन सबके साथ महानायक-नायक-देवदूतों के गुनाह, गलितयाँ, बेवकूफियाँ भी छनकर सामने आ रही हैं। जो सत्ता अपने टेरैस पर पकोड़ा पार्टी कर रहे लोगों को ड्रोन की मदद से पकड़ सकती है, जो सत्ता दूल्हे को मंडप से उठाकर जेल भेज सकती है, वो सत्ता दो बूँद ओक्सीजन नहीं दे सकती, वो सत्ता बेड नहीं दे सकती, वो सत्ता इलाज नहीं दे सकती और अब तो वो सत्ता शवों को जलाने का स्थायी ढाँचा भी संभाल नहीं सकती!!! जो सत्ता सिग्नल पर वाहन को ट्रेस करके कागज घर पर पहुंचा सकती है, जो सत्ता टोल टैक्स भी बिना वाहन को रोके ले सकती है, वो इतना नहीं कर सकती!!! हो सकता है कि यह सब जिम्मेदारी जिम्बाब्वे सरकार की हो।
(इनसाइड इंडियाएम वाला)