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Bhupatsinh Chauhan: भूपतसिंह चौहान, वो बाग़ी जिसने ख़ूब गदर मचाया, वाहवाही बटौरी, फिर धर्म-देश और ईमान तक बदल लिया


नोट करें कि भूपत सिंह चौहान की इस कहानी में कुछ अपुष्ट बातें भी आ सकती हैं। क्योंकि उपलब्ध ज़्यादातर जानकारी पुष्ट नहीं है। हालाँकि इसका पूरा ध्यान दिया गया है कि पुष्ट बातें ज़्यादा दर्ज हो पाए और तथ्यों के आसपास ही ठहर कर बात की जाए।
 
भारत स्वतंत्र हो चुका था। अनेक रियासतों का भारत में विलय हो चुका था, कुछ का विलय होना बाकी था। इसी समय वडोदरा के शासक गायकवाड़ परिवार को एक चिट्ठी मिलती है। ये कोई आम चिठ्ठी नहीं थी। ये तो चेतावनी पत्र था। चिठ्ठी में पूरे शाही परिवार को धमकी दी गई थी, महल में काम करने वाले सभी 42 नौकरों को उनकी सेवानिवृत्ति के समय पाँच-पाँच बीधा ज़मीन दी जाए और इसकी सूचना शहर में सार्वजनिक की जाए। अगर आपने ऐसा नहीं किया तो परिवार के सभी सदस्यों की एक-एक कर हत्या कर दी जाएगी। इस धमकी भरे पत्र के नीचे नाम लिखा था- भूपत सिंह चौहान।
 
यह वही भूपत सिंह था, जिसने वडोदरा से लेकर दिल्ली की सरकार तक के नाक में दम कर रखा था। असली नाम भूपत सिंह बूब, जिसे भारत में, विशेषत: गुजरात में भूपत सिंह चौहान के नाम से जाना जाता है। नोट करें कि इंग्लैंड के रॉबिन हुड या हिंदी फ़िल्मों की तरह लगने वाली यह चिठ्ठी कथा भूपत सिंह पर किताब लिखने वाले जीतूभाई ढाढल के मुताबिक़ अपुष्ट या मिथक समान है। (दरअसल, इस कथा को भूपत सिंह के साथी कालू वाँक द्वारा पाकिस्तान में स्थायी होकर लिखी गई किताब या कानिटकर द्वारा लिखित किताब के किसी हिस्से में वर्णित नहीं किया गया है, तथा जीतूभाई ढाढल के रिसर्च में अपुष्ट माना गया है)
 
यह दास्ताँ उस समय की है, जब भारत को अभी स्वतंत्रता मिली ही थी। भूपत सिंह को लेकर गुजरात की लोक संस्कृति में अनेक कहानियाँ हैं, कथाएँ हैं। लाजमी है कि लोक संस्कृति में पुष्ट और अपुष्ट, दोनों कथाएँ चलती हैं। हम यहाँ पुष्ट के आसपास ठहर कर आगे बढ़ने का प्रयत्न करेंगे। लोक संस्कृति में वो किसीके लिए वह नायक है, किसी के लिए महज एक बाग़ी डाकू, किसी के लिए एक अपराधी।
 
यह भी एक सत्य है कि भूपत सिंह के कहर से जहाँ राजा-रजवाड़े परेशान थे, राज्य तथा केंद्र सरकार के पास भी कोई उपाय नहीं था, वहीं आम जनता में अनेक लोग उसेक नाम मात्र से भयभीत हो जाते थे, जबकि अनेक लोगों के दिल में उसके लिए सम्मानीय स्थान था।
 
गुजरात राज्य और उसकी काठियावाड़ भूमि, जहाँ अनेक छोटी-मोटी रियासतें थीं। यह उस कालखंड का अंतिम दौर था, जब स्वयं को अन्याय महसूस होता देख अनेक लोग बाग़ी हो जाते थे। इन्हें गुजरात में बाहरवटिया या बारहवटिया नाम से जाना जाता था।
भूपत सिंह चौहान (बूब) इसी इलाक़े का एक बड़ा बाग़ी नाम था, जिसने गुजरात से लेकर दिल्ली तक सत्ता के नाक में दम कर रखा था। कई लोगों और पुलिस वालों को मौत की नींद सुला देने वाले भूपत सिंह को ना कोई रियासत पकड़ सकी, ना राज्य सरकार, ना केंद्र सरकार। वह गुजरात से लेकर राजस्थान और दूसरे राज्यों में भी गदर मचाता रहा। फिर सिकंजा कसता चला गया तो वह सरहद पार कर पाकिस्तान पहुंच गया।
 
भूपत सिंह के शिकार बने कई लोगों के परिवार अब भी काठियावाड़ और आसपास के क्षेत्रों में रहते हैं। भूपत सिंह की क्रूरता भरी कहानियाँ भी हैं, तो दूसरी तरफ़ उसकी शौर्यगाथाओं और ग़रीबों के प्रति उसके प्रेम का गुणगान करती हुई कहानियाँ भी हैं।
 
1920 के आसपास का समय था। भारत पर अब पूरी तरह ब्रिटिश सरकार का शासन था। कुछ राजा-रजवाड़े बचे भी तो वे अंग्रेज़ सरकार के कठमुल्ले मात्र ही थे। इसी समय, 31 जनवरी 1922 के दिन, अमरेली के बरवाला (बावीसी) गाँव में भूपत का जन्म हुआ। उसका पूरा नाम भूपत सिंह मेरूजी बूब था। लेकिन उसने अपने लिए भूपत सिंह चौहान नाम ही पसंद किया और वह इसी नाम से पहचाना गया। दरअसल इस नाम के पीछे मूल वजह यह थी कि उसके वंशज चौहान वंशी क्षत्रियों से ही संबंध रखते थे।
 
काठियावाड़ में जन्मे भूपत सिंह को स्वाभाविक रूप से घुड़ सवारी में महारत हासिल थी। यह उस इलाक़े की मूल कला थी। भूपत सिंह को जानने वाले लोगों के हवाले से कुछ लेखों में दर्ज किया गया है कि वह स्वयं इतना तेज़ दौड़ा करता था कि उस समय उसे कोई हरा नहीं सकता था।
 
भूपत का बचपन वागनिया में बीता, जो उस समय 12 गाँवों की एक छोटी सी रियासत थी। वागनिया में उस समय अमरा वाला नाम के एक शासक थे, जिन्हें गुजरात में वागनिया दरबार के नाम से जाना जाता था। भूपत सिंह बचपन से ही बहुत बुद्धिशाली था। उसकी तर्क-वितर्क और निर्णय की शक्ति इतनी पैनी थी कि जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही उसकी नियुकित वागनिया के दरबार में हो गई थी।
इसके अलावा भूपत को तरह-तरह के खेलों में भी ख़ूब दिलचस्पी थी। उसकी यह प्रतिभा भी ज़्यादा दिन छुपी नहीं रह सकी। जब भी राजा के दरबार में दौड़, घुड़दौड़, गोला फेंक जैसी स्पर्धा आयोजित होतीं, वह अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए कई अवॉर्ड राजा की झोली में डाल दिया करता।
 
साल 1941 की बात है। वडोदरा रियासत के राजा प्रताप सिंह राव गायकवाड़ ने एक रोज़ खेलों की प्रतियोगिया आयोजित की। तय तारीख़ को आसपास की रियासतों से खिलाड़ी पधारे। धूम रही एक मात्र भूपत सिंह की। इस स्पर्धा में वह छह खेलों में प्रथम तथा सात खेलों में दूसरे क्रम पर रहा। इसकी वजह से उसका नाम दूर दूर तक प्रसिद्ध हो गया था। उसके बाद 1944 में भूपत सिंह के द्वारा राज्यों के बीच आयोजित खेलों में ऐसे ही अभूतपूर्व प्रदर्शन का एक और किस्सा मिलता है।

 
कदाचित भूपत सिंह का जीवन आलीशान महल में रहने के लिए नहीं था। सन 1947 के तुरंत बाद का दौर था। भारत स्वतंत्र हो चुका था। इसी दौर में भूपत सिंह की ज़िंदगी में एक साथ दो-दो ऐसी घटनाएँ हुईं कि उसने हथियार उठा लिए। शायद नियती ने उसके भाग्य में दौड़ना ही लिखा था। तेज़ भागना उसकी आदत थी, और वह ताउम्र भागता ही रहा।
 
नोट करें कि भूपत सिंह डाकू कब बना था इसके बारे में भी अनेक कहानियाँ हैं। अनेक किस्सों में उसका डाकू काल 1941 से दर्शाया गया है, तो कुछ कहानियों में 1942 से। हालाँकि जो ज़्यादा तथ्यात्मक कहानी है उसके मुताबिक़ दरअसल स्वतंत्रता के पश्चात ही वह डाकू बना था और वह तारीख़ 24 जून 1949 बताई जाती है।
 
भूपत सिंह डाकू किन वजहों से बना उसका भी कोई ठोस ब्योरा या वजह उपलब्ध नहीं है। किस्से-कहानियों में इसे भिन्न भिन्न तरीक़ों से वर्णित किया गया है।
जो ज़्यादा तथ्यात्मक किस्से हैं, उसमें से एक वजह यह मानी जाती है कि भूपत सिंह के घनिष्ठ मित्र और पारिवारिक रिश्ते से भाई राणा की बहन के साथ हुई घटना। कथित रूप से इस घटना के बाद राणा बदला लेने पहुंचता है, जहाँ राणा पर अनेक लोगों द्वारा हमला होता है, भूपत सिंह राणा को बचा लेता है, फिर झूठी शिकायतें दर्ज होती हैं, रियासतों के आपसी झगड़े जुड़ते हैं और भूपत सिंह फंस जाता हैदूसरा किस्सा है भारत और सौराष्ट्र में उन दिनों लागू हुए भूमि सुधार क़ानून का। जिसके बाद राजे-रजवाड़ों ने भूपत सिंह का इस्तेमाल किया और वह अपराध के दलदल में फंसता चला गया।
 
कुल मिलाकर, कुछ ऐसी घटनाएँ हुई, जिसके बाद खिलाड़ी भूपत मर गया और डाकू भूपत सिंह का जन्म हुआ। कुछ जगहों पर लिखा गया है कि एक अच्छा घुड़सवार भूपत सिंह उन दिनों 'रियासतों की आपसी दुश्मनी' और 'राजनीति' के चलते कुख्यात डाकू भूपत बन गया।
 
स्वतंत्रता के पश्चात के किसी एक समय गोंडल के नवलखी में मेमन परिवार को लूट लिया गया। इस डकैती में उस वक़्त लाखों रुपये लूटे गए थे। कहते हैं कि रियासतों की राजनीति हावि हो गई। डकैती का आरोप अमरा वाला और भूपत सिंह पर लगा। गोंडल पुलिस ने अमरा वाला और भूपत सिंह के नाम पर वारंट जारी किया। इस बीच अमरा वाला की मृत्यु हो गई। डकैती के आरोप में भूपत सिंह वागनिया छोड़ दूसरे इलाक़े में चला गया।
 
राणा भगवान डांगर के साथ मिलकर भूपत सिंह ने नाजापुर गाँव में राणा के दुश्मन की पहली हत्या की। उस समय उसकी टोली में सिर्फ़ तीन ही व्यक्ति थे। जैसे जैसे वह बाग़ी अपराध की दुनिया में कदम बढ़ाता चला गया, उसके साथियों की संख्या भी बढ़ती चली गई।
 
जुलाई 1949 से फ़रवरी 1952 तक के तीन सालों के अंदर इस गिरोह ने 87 हत्याएं और लगभग 9 लाख रूपये की लूट को अंजाम दिया। उस दौर के हिसाब से 9 लाख रूपये, यह नोट करें।
अपराध की चरम सीमा पर पहुंचने तक उसके 42 साथी थे। भूपत उस समय का पहला ऐसा डाकू था, जिसने अपने 21-21 साथियों की दो टोलियाँ बना रखी थीं। दोनों टोलियों के लिए सरदार नियुक्त थे, लेकिन हुक्म सिर्फ़ भूपत का ही चलता था। इसके अलावा दोनों टोलियाँ जंगल में अलग अलग ही ठहरती थीं।
 
भूपत सिंह से गद्दारी करते हुए उसका ख़बरी या उसका साथी पकड़ा जाता, तो वह उन्हें जान से नहीं मारता था, बल्कि उनकी नाक व कान काट दिया करता था। भूपत सिंह की इस क्रूर सज़ा का शिकार हुए लोगों की संख्या 40 से अधिक थी। इनमें से चार व्यक्ति कुछ सालों पहले तक सुरेंद्रनगर ज़िले में रहा करते थे।
 
इनमें से एक व्यक्ति के दावे के मुताबिक़, भूपत का मानना था कि हत्या करने के बजाय जीवन भर के लिए सज़ा देना अन्य लोगों को भी डराता रहता है। इसके अलावा भूपत उसे धमकी भी दिया करता था कि अगर उसने ख़ुदकुशी की तो फिर उसके बाकी बचे परिवार की हत्या कर दी जाएगी। इस तरह से वे नाक-कान कटे लोगों को मरने भी नहीं देता था।
 
ध्यान दें कि नाक-कान काटने की तमाम घटनाएँ भूपत सिंह से जुड़ी नहीं थी, किंतु फिर लोक संस्कृति और कहानियों में इसे बहुत अधिक मात्रा में कल्पनाओं के साथ पेश किया गया। हामापुर, बगसरा, भावनगर रियासत के ओलिया, सीमरण जिरा, जेसर के साथ नया वागनिया और जामवाला गिर के इलाकों में भी नाक-कान काटने के किस्से हुए, जिसमें जेठूर लाला, रहम तोला और वीसा मांजरिया जैसे डकैतों का नाम सामने आता रहा। वीसा मांजरिया भूपत सिंह के गिरोह का सदस्य माना जाता था।
 
भूपत सिंह को खौफनाक मानसिकता वाला व्यक्ति कहा जाता था, दूसरी तरफ़ अनेक मामलों में उसकी तारीफ़ भी की जाती रही। बाग़ी समुदाय के अनेक अलिखित नियमों का वह पालन किया करता था। लूट के दौरान या फिर लूट के अलावा, उसने बिना वजह किसी को परेशान किया हो ऐसी घटनाएँ भी नहीं मिलतीं।
गुजरात के बाग़ी गिरोह के जो आदर्श और सिद्धांत होते थे, उसका पालन भूपत सिंह का गिरोह भी किया करता था। वे कभी महिलाओं पर हमला नहीं करते थे। यहाँ तक कि भूपत सिंह ग़रीब लड़कियों की शादी भी करवाता था और कई बार ग़रीबों को पैसा बाँट भी दिया करता था। एक किस्सा मशहूर है कि एक बार उसने एक सुनार को लूटा और लूट से मिले सोने और चांदी के सिक्के बाज़ार में उछाल दिए।
 
इस बाग़ी पर 'एक हतो भूपत' नाम से गुजराती में किताब लिखने वाले जीतूभाई ढाढल के मुताबिक़, 1947 के बाद जब पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे और उसके बाद जूनागढ़ का विलय भारत में हो रहा था, तब भूपत सिंह और उसके साथियों ने अनेक नागरिकों की रक्षा की थी और दोनों धर्मों की औरतों के सम्मान को सुरक्षित रखा था। भूपत सिंह की इन्हीं अच्छाईयों की वजह से उसके क्रूर इतिहास को भुला दिया जाता था। लोग बड़ी दरियादिली के साथ उसे अपने घरों में छिपने के लिए पनाह देते थे। कहा जाता है कि इस समय भूपत सिंह आरझी हुकूमत का हिस्सा भी बना था।

 
भूपत सिंह की इसी नेकनीयती के कारण वह अनेकों बार पुलिस से बचा लिया गया। उसे कई बार पुलिस ने घेरा, लेकिन उसे बचने के लिए किसी न किसी का साथ मिल ही जाता था। कई बार तो उसे महिलाओं ने ही बचाया था। एक बार तो गिर के जंगल के पास के एक गाँव की कई महिलाओं को इस आरोप में गिरफ़्तार भी कर लिया गया था कि उन्होंने भूपत सिंह को भगाने में मदद की थी। लेकिन अख़बारों में इसकी ख़बर आने और विवाद उठने के बाद सभी महिलाओं को मुक्त कर दिया गया था।
 
भूपत सिंह ने सैकड़ों बार पुलिस को चकमा दिया। देश स्वतंत्र होने के पश्चात भूपत सिंह के कारनामे चरम पर पहुंच गए थे और पुलिस उसे रोकने तथा पकड़ने में पूरी तरह नाकाम हो रही थी। इस बात से सौराष्ट्र राज्य के तत्कालीन गृह मंत्री रसिकलाल इस कदर गुस्सा थे कि उन्होंने पुलिस प्रशासन को यह आदेश दे दिया था कि जब तक भूपत सिंह पकड़ा नहीं जाता, तब तक के लिए पुलिस को 25 प्रतिशत कम सैलरी मिलेगी।
 
महीनों तक पुलिस को 25 प्रतिशत कम सैलरी मिली, लेकिन भूपत सिंह पकड़ा नहीं गया। इसके बाद भूपत सिंह ने रसिकलाल को ही धमकी दे दी थी कि वे तुरंत पुलिस को पूरी सैलरी देने का आदेश सुनाए। और भूपत सिंह की इस धमकी के बाद पुलिस को पूरा वेतन देना शुरू करना पड़ा। क्योंकि तत्कालीन सरकार को अंदाज़ा हो चला था कि भूपत सिंह के इस एलान के बाद यदि पुलिस बल को पूरा वेतन देना शुरू नहीं किया गया तो पुलिस बल पूरे मन से भूपत सिंह के ख़िलाफ़ चल रहे सरकारी अभियानों में सह्योग नहीं देंगे।
राजकोट के नीमु बहन 1950 के साल का एक किस्सा सुनाते हुए मीडिया के समक्ष जो कहते हैं, उसमें भी भूपत सिंह का महिलाओं के प्रति सम्मान करने वाले डकैत का चित्र उपस्थित होता है। नीमु बहन के पिता ऑयल मिल चलाते थे। उनके घर 1950 में भूपत सिंह लूट करने आया था और खाली हाथ लौट गया था। नीमु बहन के मुताबिक़ भूपत सिंह ने महिलाओं ने जो गहने पहने थे उसे लेने से इनकार कर दिया था।
 
उन दिनों साप्ताहिक आज़ाद भारत में एक ख़बर छपी थी, जिसमें लिखा गया था कि गारियाधार गाँव को लूटने गए भूपत सिंह ने लूट चलाने के बाद उसी गाँव की 21 लड़कियों की शादी कराई थी। जय भारत नामक किताब में लिखा गया है कि उनका कन्यादान भूपत सिंह ने ही किया था। इस किताब के मुताबिक़ उस शादी समारोह के दौरान पुलिस बल ने भूपत सिंह को घेर लिया था और गोलीबारी भी हुई थी, किंतु किसी तरह शादी की विधि पूर्ण कराने के बाद भूपत सिंह और उसके गिरोह ने 14 पुलिस वालों को वहीं मार गिराया था।
 
भूपत सिंह को पशु-पक्षियों की आवाजें निकालना व पहचानने की कला में भी महारत हासिल थी। यह हुनर उसने जंगल में ही आदिवासियों से सीखा था। इसका उसे भरपूर फ़ायदा भी मिला। गिर जैसे ख़तरनाक जंगल में इसी कला की वजह से वह आज़ाद रह पाया। पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में यह बात लिखी भी थी कि उसकी इस कला के कारण जंगल में जाकर उसे पकड़ना बहुत मुश्किल है।
 
भूपत सिंह के बारे में लोक संस्कृति में पुलिस, जंगल और शेर की गुफा (मांद) की भी एक कहानी प्रसिद्ध है। हालाँकि पुष्ट नहीं होने की वजह से उसे हम यहाँ लिख नहीं रहे हैं।
 
स्वतंत्रता से पहले सौराष्ट्र समेत भारत के ज़्यादातर इलाकों में डकैतों का जो आतंक या ज़माना रहा, उसमें एक तथ्य यह भी शामिल रहा कि इन बाग़ियों, डकैतों या लुटेरों को उस दौर में राजे-रजवाड़ों या छोटी-मोटी रियासतों व ज़मींदारों का संरक्षण प्राप्त था। राजनीति के नाम पर अपने प्रतिद्वंदी के अपराधियों के सिर पर हर दूसरी-तीसरी रियासत, रजवाड़े या ज़मींदार हाथ रख देते थे।
स्वतंत्रता के पश्चात इसी कथित घटनाक्रम के चलते काफी बवाल काटा गया। उन दिनों भूमि सुधार और कृषि सुधार को लेकर एक क़ानून लागू हुआ। इस क़ानून को ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए बनाया गया था। सौराष्ट्र में भी यह क़ानून लागू हुआ। जो लोग खेती कर रहे थे, वह उस ज़मीन के मालिक बन गए। गरासदारी या ज़मींदारी के दौरान किसानों द्वारा उपज का आधा हिस्सा अदालत या राज्य को देने की प्रथा नए क़ानून से टूट गई।
 
सौराष्ट्र में हामापुर रियासत ने सबसे पहले इसका विरोध किया। रियासतों को जनता पर नियंत्रण खोने का मलाल भी था। दूसरी तरफ़ नयी सरकार इन रियासतों को नये भारत की नयी स्थापित व्यवस्था के अधीन करता चाहती थी। आग दोनों तरफ़ से लगी। रियासतों पर आरोप लगा कि वे लोग ब्रिटिश शासित भारत के समय की तरह आज भी डकैतों को हथियार और आश्रय देकर लोकतंत्र की स्थापना के प्रयासों को नुक़सान पहुंचाना चाहते हैं। उधर रियासतों ने सरकार पर आरोप लगाए।
 
स्वतंत्र भारत में पहले आम चुनाव होने जा रहे थे। इसी दौर में भूपत सिंह का नाम फिर एक बार चर्चा में आने लगा। काठियावाड़ की देसी रियासतों पर आरोप लगे कि वे भूपत सिंह का इस्तेमाल कर आम चुनावों में हिंसा फैलाना चाहते हैं। दीवान जरमनी दास की किताब महाराजा में इन घटनाओं का विवरण है। आरोप लगे कि नाराज रजवाड़े भूपत सिंह का इस्तेमाल कर उत्पात मचा रहे हैं।
 
साल 1952 में अमेरिकी मैगज़ीन न्यू यॉर्कर में एक लेख छपा। पत्रकार और लेखक संथा रामा राव ने लिखा, आज़ाद भारत के पहले चुनावों से ठीक पहले भूपत का आतंक बहुत बढ़ गया था। उसके गैंग के साथी बॉम्बे प्रेसिडेंसी में लूटपाट और हत्याएं कर रहे थे। आगे संथा लिखती हैं, सरकार के अनुसार ये रजवाड़ों की साज़िश थी। वो क़ानून व्यवस्था ख़राब कर ये दिखाना चाह रहे थे कि लोकतंत्र में क़ानून का हाल ऐसा ही होता है और अगर कांग्रेस सत्ता में आ गई तो चीजें और भी ख़राब होंगी।
 
सरकार के ख़िलाफ़ षड्यंत्र के आरोप में तब कई छोटी रियासतों के राजाओं को गिरफ़्तार कर जेल भी भेजा गया। हालाँकि भूपत सिंह पुलिस की पकड़ में नहीं आया। अंत में सरकार ने इस काम के लिए एक ख़ास शख़्स को ज़िम्मेदारी सौंपी।
इनका नाम था विष्णु गोपाल कानिटकर। कानिटकर को आईजी बनाकर सौराष्ट्र भेजा गया। कानिटकर ने इस काम के लिए एक विशेष दल का गठन किया। इस दल में 'पगी' भर्ती किए गए। पगी यानी वे लोग जो किसी भी ज़मीन पर छपे पाँव के निशान पढ़ने में माहिर होते थे। ऐसे दो पगी कानिटकर के उस दल का हिस्सा थे।
 
सरकार राजे-रजवाड़ों के ऊपर किसी न किसी तरह दबाव डाल रही थी। दूसरी तरफ़ कानिटकर ने सबसे पहले भूपत सिंह के समर्थकों को गिरफ़्तार करना शुरू किया। इससे भूपत के छिपने के कई ठिकाने बंद हो गए। हालाँकि भूपत सिंह अभी भी उनकी पकड़ से दूर था।
 
कानिटकर ने भूपत सिंह पर मराठी भाषा में एक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने बताया है कि हालात तो यहाँ तक जा पहुंचे कि अब तो भूपत सिंह पुलिस को सीधी चुनौती देते हुए लूट की वारदात करने से पहले एक चिट्ठी पुलिस के पास भेजता था। इसमें लूट की जगह और समय लिखा होता। इतना ही नहीं, किताब के अनुसार भूपत सिंह अपनी चिट्ठी में कानिटकर के लिए 'डीकरा' शब्द का इस्तेमाल करता था। इसका मतलब होता है बेटा। यूँ तो उम्र के लिहाज से उस समय कानिटकर भूपत सिंह से 10 साल बड़े थे, किंतु भूपत सिंह उन्हें लिखित रूप से बच्चे नाम से संबोधित कर खूली चुनौती देने लगा।
 
चिठ्ठी भेजने के अलावा भूपत सिंह, उसे या उसके गिरोह को धोखा देने वाले या फिर उनकी जानकारी सरकार या पुलिस तक पहुंचाने वालों के नाक-कान काटने का काम अब भी किया करता था।
 
आईजी कानिटकर की तमाम कोशिशों के बावजूद भूपत सिंह उनके हाथ नहीं लगा। बार-बार वो हाथ से निकल जाता था। एक बार कानिटकर को राजकोट से एक लूट की ख़बर मिली। पहुंचे तो एक पर्ची उनके हाथ लगी। पर्ची से पता चला कि वारदात में एक भूतपूर्व राजकुमार की कार इस्तेमाल हुई थी। कानिटकर ने राजकुमार पर दबाव डाला तो पता चला कि भूपत सिंह का एक आदमी उनके यहाँ छिपा है।
पुलिस ने दबिश दी। भूपत सिंह का एक साथी देवायत डकैत गोलीबारी में मारा गया। कुछ रोज़ बाद पुलिस ने राणा को भी एनकाउंटर में मार गिराया। राणा की मौत से भूपत को समझ आ गया कि वो अब ज़्यादा दिन तक पुलिस की पहुंच से दूर नहीं रह पाएगा। बचने का सिर्फ़ एक तरीक़ा उसके दिमाग़ में आया।
 
6 जून, 1952 की रात। भूपत सिंह अपने तीन ख़ास साथियों सहित कच्छ से होते हुए पाकिस्तान की सरहद में दाखिल हुआ। आरोप लगाए जाते हैं कि उसे सरहद पार कराने में उन रियासतों या ज़मींदारों ने मदद की थी, जिनके संरक्षण में वह स्वतंत्रता से पहले डकैती का काम किया करता था।
 
पाकिस्तान जाने के पीछे उसका कोई ख़ास मक़सद नहीं था। उसे तो किसी तरह सरकार से बचना था। किस्मत ऐसी थी कि यहाँ वो पुलिस के हत्थे चढ़ गया। हालाँकि यहाँ उसकी जान को ख़तरा नहीं था। उन तीनों के ख़िलाफ़ पाकिस्तान में अवैध प्रवेश और हथियार रखने का मामला दर्ज किया गया। उसे जेल हुई और 1 साल बाद (11 मार्च 1953 के दिन) रिहाई भी मिल गई।
 
कहा जाता है कि भूपत सिंह के साथ जो दो और लोग पाकिस्तान गए थे, उसमें से एक शख़्स बाद में किसी तरह भारत लौट आया था।
 
पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त के पद पर काम कर चुके डॉ. टीसीए राघवन ने 'द पीपल नेक्स्ट डोर- द क्यूरियस हिस्ट्री ऑफ इंडियाज़ रिलेशनशिप विद पाकिस्तान' नाम से एक किताब लिखी है। भूपत सिंह के बारे में उनके पास आई फ़ाइल के बारे में बात करते हुए राघवन बीबीसी को कहते हैं, "फ़ाइल को सार्वजनिक किया जाना था इसलिए यह मेरे पास आई। इसमें भूपत का उल्लेख था। यह मामला बहुत महत्वपूर्ण हो गया और दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व के बीच इस मुद्दे पर चर्चा हुई। हालाँकि, जैसा कि चर्चा की गई थी, इसे लागू करना मुश्किल था, क्योंकि दोनों देशों के बीच कोई प्रत्यर्पण समझौता नहीं हुआ था।"
वो बीबीसी को बताते हैं, "भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त ने भूपत को सौंपने की कई कोशिशें कीं। जब वो कोशिशें नाकाम रहीं तो उन्होंने पाकिस्तान सरकार पर राजनीतिक तौर पर बहुत कमज़ोर होने का आरोप लगाया।"
 
सौराष्ट्र के नेताओं की ओर से केंद्र सरकार पर लगातार दबाव था और भारतीय प्रेस जगत में भी भूपत सिंह के मुद्दे पर लगातार चर्चा हो रही थी। भारत किसी भी तरह भूपत सिंह को वापस चाहता था। इस मामले में जुलाई 1956 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा के बीच बातचीत भी हुई।
 
बातचीत के बाद नेहरू ने विदेश कार्यालय की फ़ाइल पर लिखा कि, "पाकिस्तान के प्रधान मंत्री ने मेरे सामने भूपत का मुद्दा उठाया। जैसा कि मैं इसे समझता हूँ, पहल उन्हीं की ओर से हुई थी।" नेहरू ने लिखा, ''उन्होंने कहा कि भारतीय प्रशासन को सूचित करने के बाद भूपत को भारतीय सीमा पर रिहा करने पर विचार किया जा सकता है।'' नेहरू लिखते हैं, "श्री बोगरा ने कहा कि वह इस बात से सहमत हैं कि भूपत को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने उसे भारत भेजने के विचार को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि दोनों देशों के बीच कोई प्रत्यर्पण संधि नहीं है।"
 
बोगरा पहले तो भूपत सिंह को भारत को सौंपने के लिए तैयार हो गए, लेकिन फिर अपनी बात से पलट गए। हालाँकि, किसी तरह प्रस्तावों के इस आदान-प्रदान की बात भारतीय अख़बारों में लीक हो गई। उस समय भूपत सिंह की ख़बर भारतीय अख़बारों में बड़ी सनसनी के साथ छपती थी।
 
भूपत सिंह भारत तो आना चाहता था, किंतु मामलों को बंद करने की शर्त पर। यह मुमकिन नहीं था। अत: भारत में सज़ा से बचने के लिए भूपत सिंह ख़ुद किसी हाल में भारत आने से बचता रहा।
इधर पाकिस्तान में समर्थन जुटाने के लिए भूपत सिंह ने दलीलें देना शुरू किया। अप्रैल 1953 में ब्लिट्ज़ अख़बार में छपी रिपोर्ट के अनुसार वो ख़ुद को पाकिस्तान समर्थक बताने लगा था। ब्लिट्ज़ में, क्या भूपत पाकिस्तानी सेना के लिए भारतीय डाकुओं की भर्ती कर रहा है?”, शीर्षक के साथ रिपोर्ट छपा। रिपोर्ट में दावा किया गया कि भूपत पाकिस्तानी सेना की जासूसी शाखा के लिए भारतीय डाकुओं की भर्ती कर रहा था।
 
राघवन बीबीसी को बताते हैं, "अख़बारों में ऐसी बातें छपने के बाद भूपत ने ख़ुद को भारत न भेजने की कोशिश की। उसे पता था कि भारत में उसे फांसी दी जाने वाली है।"
 
भूपत सिंह सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं रहा। उसने एक रैली कर अपने समर्थन में 1500 रुपये जुटाए और घोषणा कर दी कि वह एक फ़िल्म बनाएगा, जिसमें जूनागढ़ की आज़ादी के संघर्ष की कहानी दिखाई जाएगी। नोट करें कि यहाँ आज़ादी की बात पाकिस्तान के द्दष्टिकोण से हो रही थी। यानी जूनागढ़ की भारत से आज़ादी।
 
राघवन की माने तो, भूपत सिंह को लगा कि अगर वह ख़ुद को स्वतंत्रता सेनानी बना लेगा तो उसे भारत भेजने की बात ख़त्म हो जाएगी। इस कदम के साथ, भूपत सिंह ने ख़ुद को कारावास से मुक्त रखने के लिए सिंध अदालत में एक याचिका दायर की।
 
ब्लिट्ज़ अख़बार ने इस याचिका के बारे में रिपोर्ट लिखी, जिसमें भूपत सिंह का बयान कुछ यूँ छपा था, मेरी रियासत का पाकिस्तान में विलय हुआ। लेकिन भारत की सेना ने हम पर हमला कर दिया। आगे लिखा था, "हमने साढ़े तीन साल तक भारतीय सेना का सामना किया। हमने जवाब देने की कोशिश की। लेकिन हम जीत नहीं पाए। आख़िरकार उनकी जीत हुई और मुझे भारत से भागकर पाकिस्तान में शरण लेनी पड़ी।"
अख़बार के उस रिपोर्ट की माने तो, याचिका में लिखा था, "मैं पाकिस्तान के प्रति वफ़ादार हूँ, क्योंकि उसने मुझे शरण देकर मेरी जान बचाई है। मैं पाकिस्तान की रक्षा के लिए अपने ख़ून की आख़िरी बूंद तक लड़ने के लिए तैयार हूँ।"
 
यह उसी भूपत सिंह चौहान की सिंघ की अदालत में दायर याचिका थी, जिसने एक समय ख़ूब गदर मचाया था। वो बाग़ी, जो काठियावाड़ के उन बहादुर बाग़ियों के बनाए गए आदर्शों और सिद्धांतों का कथित रूप से पालन किया करता था। आज वो तमाम आदर्श और सिद्धांत ग़ायब हो चुके थे।
 
राघवन बीबीसी को बताते हैं, "भूपत का यह तर्क कि वह जूनागढ़ लिबरेशन आर्मी का हिस्सा था,  उसके पक्ष में लाभ करा गया और उसे पाकिस्तान में रहने की अनुमति दे दी गई।"
 
कहते हैं कि भूपत सिंह ने सोचा था कि कुछ साल बाद वह भारत लौट जाएगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।  भारत का क़ानून उसे बक्षने वाला नहीं था और इसी वजह से उसने पाकिस्तान में ही रहना बेहतर समझा। वक़्त गुज़रता गया और भारत तथा पाकिस्तान के बीच रिश्ते ज़्यादा ख़राब होते गए।
 
इस बीच भारत के इस बाग़ी डकैत भूपत सिंह ने मुस्लिम धर्म अंगीकार कर लिया और वहाँ शादी भी कर ली। भारत में शादी करने के बाद अब यह उसकी दूसरी शादी थी। अब उसका नया नाम अमीन यूसुफ हो गया। वह अब कराची के बाज़ार में दूध बेचने लगा था। उसके चार बेटे और दो बेटियाँ हुईं।
 
राघवन बीबीसी के समक्ष कहते हैं, "वह 2006 में अपनी मृत्यु तक पाकिस्तान में रहा। जब मैं सौराष्ट्र गया तो लोगों ने मुझे बताया कि उन्हें भूपत की मौत का पता तब चला जब उसकी पहली पत्नी, जो भूपत के पुराने घर में रहती थी, ने अपने सिर पर सिन्दूर लगाना बंद कर दिया।"
यहाँ नोट करें कि भूपत सिंह चौहान की मृत्यु कब हुई थी उस बारे में भारी मतभेद हैं। अनेक जगहों पर यह भी दर्ज है कि उसकी मृत्यु 1996 में हुई थी। कुछ जगहों पर उसकी मृत्यु तिथि 28 सितंबर 1996 दर्ज है।
 
1960 में भूपत सिंह पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जिसमें तेलुगु देशम पार्टी के नेता एन.टी.राम राव ने अभिनय किया था। वीजी कानिटकर, वो पुलिस अधिकारी जिनकी कार्रवाईयों के बाद भूपत सिंह पाकिस्तान जाने को मज़बूर हुआ था, ने भूपत सिंह के बारे में मराठी में 'भूपत-एक विलक्षण गुन्हेगार' नाम से किताब लिखी थी। भूपत सिंह के साथी कालू वाँक ने पाकिस्तान में रहते हुए गुजराती में 'भूपत सिंह' नाम से एक किताब लिखी थी।
 
कह सकते हैं कि भूपत सिंह भारत का वो पहला दुर्दांत अपराधी था, जिसे पाकिस्तान ने अपने यहाँ शरण दी थी। आगे यही परंपरा पाकिस्तान ने अब तक निभायी है।
 
भूपत सिंह चौहान की कहानी लोक संस्कृति, लोक इतिहास, राजा-रजवाड़े, राजनीति, दुश्मनी, नैतिकता, नीति, आदर्श और सिद्धांत, आदि से गुज़रती हुई एक दूसरे ही अविश्वसनीय छोर तक जा पहुंचती है। वह शख़्स, जो एक समय राजा-रजवाड़ों से लेकर सरकार और उसकी पुलिस तक के सामने हुँकार भरता था, जिसे ग़रीबों का मसीहा माना जाता था, वह वक़्त गुज़रने के बाद एक ऐसे शख़्स के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जो जीवन बचाने के लिए अपना वतन, अपना देश, अपना धर्म और आख़िर में अपना ईमान तक बदल लेता है। भूपत सिंह चौहान का चरित्र परिवर्तन उसकी जाँबाज़ कहानी को बदनामी के गर्त में सदैव के लिए धकेल देता है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)