चमड़ी सफ़ेद पड़ने लगी है। पानी में डूबे रहने से ये सडऩे लगी है। पीठ और देह
के निचले हिस्से में फोड़े निकल रहे हैं और फिर भी लोग कई दिनों से पानी के अंदर बैठे
हैं। सिर पर गमछा बंधा है, चेहरे सूख चुके हैं।
मुस्कान गायब है और आँखों में एक अजीब सी शून्यता है। लगता है जैसे इनके जीवन में उम्मीद
नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। जगह है मध्य प्रदेश का खंडवा ज़िला। यहाँ घोघल गाँव में
जल सत्याग्रह चल रहा है।
इनकी मांग है कि ओंकारेश्वर बांध में पानी का स्तर तब तक न बढ़ाया जाए, जब तक ठीक से पुनर्वास नहीं हो जाता तथा विस्थापितों की ज़िंदगियाँ
जिन ख़तरों में फँसी हैं, वे सुरक्षित नहीं हो
जातीं। ये लोग जल स्तर बढ़ाने के ख़िलाफ़ नहीं हैं।
यह विस्थापन के ख़िलाफ़ सत्य़ाग्रह है। विकास बनाम विस्थापन का कड़वा सच फिर एक
बार देश को देखने के लिए मिल रहा है। हज़ारों लोगों की सहूलियत के लिए मुठ्ठीभर लोगों
की ज़िंदगी नर्क बना देना कितना सही है? देश तो लोगों से ही
बनता है और देश के विकास के नाम पर उन्हीं लोगों से उनकी उम्मीद छिन लेना कितना न्यायसंगत
है? सवाल वहीं हैं, जो दशकों पुराने हैं, सही जवाब किसी के पास नहीं है।
नोट करें कि जल सत्याग्रह
सिर्फ़ इसी जगह नहीं चल रहा, राज्य में दूसरी जगहों पर भी चल रहा है और
साथ ही दूसरे राज्य में भी, जहाँ सत्याग्रहियों के लिए विषय अलग है, किंतु मुद्दा तो यही है।
यहाँ घोघल में जो लोग
सत्याग्रह कर रहे हैं, वे तमाम छोटे, मझले किसान और आदिवासी हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के बैनर तले
ये लोग अपने जीवन में उम्मीद की एकाध किरण ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। इन्हें या हमें, किसीको नहीं पता कि नर्मदा बचाओ आंदोलन के कर्ताधर्ता राजनीतिक
या दूसरे मक़सद को धारण कर रहे हैं? या सचमुच सार्वजनिक हितों के पक्षधर हैं।
किंतु इससे इन सत्याग्रहियों को लेना देना नहीं है। वे अपना वर्तमान और अपना भविष्य, दोनों के लिए जल समाधि के संवेदनशील तरीक़े को धारण किए हुए हैं।
ये मुठ्ठीभर सत्याग्रही
हैं। सिर्फ़ 51 की तादाद है इनकी और इन्होंने 25 अगस्त को घोघल गाँव में नर्मदा नदी के पानी में खड़े रहकर प्रदर्शन शुरू किया
था। ये लोग राज्य सरकार के उस फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं जिसके मुताबिक़ ओंकारेश्वर
बांध में जल स्तर 193 मीटर तक बढ़ाए जाने को मंजूरी दे दी गई है। कुछ दिन पहले तक बांध का जल स्तर 189 मीटर ही था।
सत्याग्रह कर रहे लोगों
का कहना है कि अगर पानी की ऊंचाई बढ़ाई गई तो कई गाँव डूब जाएँगे। आंदोलन के नेता आलोक
अग्रवाल कहते हैं, "अगर पानी का स्तर सरकार ने इस उंचाई तक बढ़ा दिया तो क़रीब 30 गाँव पूरी तरह या
आंशिक रूप से डूब जाएँगे। 8 हज़ार परिवार इससे प्रभावित होंगे और 40 हज़ार लोग विस्थापित हो जाएँगे।"
यूँ तो पानी की ऊंचाई
एक ही बार में नहीं बढ़ाई जाएगी, जैसा कि सरकार ने संकेत दिया है। फ़िलहाल
इसे 1.5 मीटर बढ़ाया गया है। यानी सज़ा पूरी दी जाएगी, लेकिन किस्तों में! अभी जितना स्तर बढ़ाया गया है, इसीसे कई गाँवों पर डूब का ख़तरा मंडराने
लगा है।
ख़ुद को पानी के भीतर
उतारने वाले भले ही 51 हो, किंतु इनका साथ देने क़रीब 3 हज़ार लोग नदी के
किनारे बैठकर धरना दे रहे हैं। आसपास के अनेक गाँवों के लोग भी आंदोलन के समर्थन में
सामने आए हैं। इनकी मांग है कि सबसे पहले जल स्तर को घटाकर 189 मीटर तक लाया जाए।
आंदोलन करने वालों की मांग है कि जब तक ठीक से पुनर्वास नहीं किया जाता तब तक बांध
में पानी का स्तर नहीं बढा़या जाना चाहिए।
अग्रवाल मीडिया से
कहते हैं, "हमारा कहना है कि पहले ठीक से पुनर्वास करो फिर ऊंचाई बढ़ाओ। ये तो कोर्ट के नियम
के भी ख़िलाफ़ है। कोर्ट ने कहा था कि बांध में जल स्तर 189 मीटर से ऊपर नहीं
किया जा सकता लेकिन सरकार ऐसा कर रही है।"
सत्याग्रही स्नेहा
प्रेस समक्ष कहती हैं, "विस्थापन का सरकारी नियम ये है कि ज़मीन के बदले ज़मीन दी जाए। लेकिन यहाँ तो कुछ
भी नहीं दिया जा रहा।"
यहाँ जलाशयों के जल-स्तर
में वृद्धि से 400 हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि और खड़ी फसलें जलमग्न हो गई हैं। इस ज़मीन पर फसलें
पूरी तरह से नष्ट हो गई हैं। इस विनाश से लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
यूँ तो नर्मदा नदी
पर बांध बनाए जाने और उसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन का इतिहास पुराना है। किंतु यहाँ
आंदोलनकारी न तो बांध मनाने से मना कर रहे हैं, न उसकी ऊंचाई बढ़ाने के ख़िलाफ़ हैं। ये लोग
तो एकदम व्यायवहारिक और बहुत ही सीधी-सादी मांग कर रहे हैं।
बांध बनाने से बिजली और सिंचाई की कमी को दूर किया जा सकता है, विकास की तरफ़ बढ़ा जा सकता है, इन सभी बातों को तमाम आंदोलनकारी समर्थन देते
हैं। किंतु विस्थापितों, यूँ कहे कि 'विकास के लिए अपना
बलिदान दे रहे नागरिकों' की स्थिति, दिक्कतें, अन्याय आदि को दूर करने के बाद विकास क्यों
न किया जाए? इनका यह सवाल लाज़िमी
भी है तथा तर्कसंगत और अधिकार संगत भी।
जब भी बांध बनाए जाते
हैं, तब तब भूमि अधिग्रहण, मुआवज़ा, विस्थापितों का पुनर्वास, समेत अनेक मूलभूत समस्याएँ समय रहते सुलझाई नहीं जातीं यह सच
दशकों से देश के सामने है। देश के विकास के लिए अपनी माँ समान भूमि को देने के बलिदान
के बाद भी उन्हें सिर्फ़ अन्याय ही क्यों मिलता है? क्यों उन्हें सड़क पर आना पड़ता है? क्यों जल समाधि की नौबत आती है?
नर्मदा और सरदार सरोवर
बांध को लेकर क़रीब 30 सालों से विस्थापन और पुनर्वास की लड़ाई नागरिकी समाज लड़ रहा है। राजनीति ने
उसी अंग्रेज़ों की तरह आंदोलनों को बदनाम करने, भ्रमित करने, नियमों और क़ानूनों के पेंच में फँसाने के प्रयत्न सदैव किए
हैं। मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र, इन तीन राज्यों में बहने वाली नर्मदा की लडा़ई कोर्ट, कचहरी और सड़क से लेकर ससंद तक लड़ी गई।
नतीजा कुछ ख़ास नहीं
निकला। पुनर्वास में लापरवाही और घपला आम बात है। नर्मदा घाटी में हुए विस्थापन और
पलायन को कई साल तक कवर करने वाले तहलका के पत्रकार शिरीष खरे कहते हैं, "नर्मदा घाटी के लोगों के जैसा धैर्य शायद ही कहीं देखने को मिलेगा। इतना अन्याय
और लापरवाही सहने के बाद भी आंदोलन अहिंसात्मक ही है।"
इन दिनों जल सत्याग्रह
सिर्फ़ इसी राज्य में नहीं हो रहा। ऐसा ही एक जल सत्याग्रह तमिलनाडु में चल रहा है।
जगह है तिरुनेलवेली ज़िले का मशहूर कुडनकुलम शहर।
दरअसल यहाँ कुडनकुलम
परमाणु ऊर्जा प्लांट के विरोध में प्रदर्शन पिछले एक साल से चल रहा है। लेकिन पिछले
कुछ दिनों से यहाँ भी लोग जल सत्याग्रह का तरीक़ा अपना रहे हैं। ये लोग घोघल जल सत्याग्रह
से प्रेरित हुए हैं। यहाँ पिछले दिनों पुलिस ने आंदोलनकारियों के साथ बल प्रयोग किया
था, जिसके बाद अब इन लोगों ने अपना विरोध प्रदर्शन दर्ज कराते हुए
समंदर में एक मानव श्रृंखला बनाई है। कुडनकुलम के निकट इंडिनतकराई तट के पास बड़ी संख्या
में प्रदर्शनकारी जुटे हुए हैं, जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे और महिलाएँ
भी शामिल हैं।
People's
Movement Against Nuclear Energy (PMANE) के कार्यकर्ता समुद्र तट के निकट पानी में घुस कर खड़े हो गए
हैं। इनकी चार प्रमुख मांगे हैं- कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना के लिए ईंधन भरने
की प्रक्रिया पर रोक, परमाणु विरोधी आंदोलन के नेताओं की गिरफ़्तारी
की योजना पर रोक, जिन लोगों को नुक़सान हुआ है उन्हें पर्याप्त
मुआवज़ा और हिरासत में लिए गए लोगों की रिहाई।
प्रदर्शनकारी जापान
के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र का हवाला देते हुए सुरक्षा पर चिंता जता रहे हैं। लेकिन
सरकार उनके भय को ग़लत बताती रही है। बिलकुल वैसे ही ग़लत बता रही है, जैसे मोरबी के मच्छु बांध के समय लोगों की चिंता को ग़लत बताया
जा रहा था।
इधर मध्य प्रदेश में
दूसरी जगह नीमच ज़िले के गाँव मालाहेड़ा के लोगों ने भी जल सत्याग्रह शुरू किया है।
इनके गाँव से कुणिखंमा तक ना रोड़ है, ना पुलिया। बारिश के समय यहाँ विकट परिस्थितियाँ
उत्पन्न होती हैं और यह स्थिति लंबे समय से जारी है। लंबी परेशानी के बाद अब ये लोग
भी जल सत्याग्रह के विकट रास्ते पर चलने के लिए मज़बूर हैं।
नर्मदा नदी के सरदार
सरोवर बांध के बाद अब यहाँ उसी नर्मदा नदी के ओंकारेश्वर बांध को लेकर भी नागरिकी समाज
बलिदान दे रहा है, बदले में अन्याय ले रहा है।
इस परियोजना से इतने
मेगावाट बिजली पैदा होगी, इतने हेक्टेयर या एकड़ ज़मीन को सिंचाई मिलेगी, विकास होगा, यह सब तमाम सरकारें कहती हैं। और ये तमाम
चीज़ें भ्रष्टाचार-घोटालों-कमज़ोर निर्माण आदि के रास्ते से गुज़रता हुआ उसी नागरिकी
समाज पर आख़िरी वार कर देता है, जिसने इन सब विकास कार्यों के लिए पहले ही
बलिदान दिए थे।
मोरबी में मच्छु नदी का बांध टूटा, इससे पहले, इस बांध को नहीं बनाने के लिए अनेक विशेषज्ञों
और इंजीनियरों ने लिखित में कहा था। इस पर रिसर्च किताब भी उपलब्ध है। सरकार ने फिर
भी इसे बनाया। बनाते समय अनेक नागरिकों ने वही बलिदान दिया, जो आज ये लोग दे रहे हैं। जैसे तैसे नागरिकी
समाज ने ज़िंदगी को पटरी पर लौटाया तभी वह बांध टूट गया और साथ में उन्हीं लोगों की
ज़िंदगियाँ ख़त्म करता चला गया। यानी, बांध बनाते समय बलिदान दिया और फिर बांध बनने के बाद उससे बड़ा और अंतिम बलिदान
भी दिया।
मध्य प्रदेश में या
तमिलनाडु में या दूसरी जगहों पर फ़िलहाल जितने जल सत्याग्रह चल रहे हैं, जितने भी लोग दिनों से ठुड्डी तक भरे पानी में खड़े हैं, वे न तो कोई विश्व रिकॉर्ड बनाना चाहते हैं, ना ही उन्हें अख़बार में अपनी तस्वीर छपवानी है। ये लोग तो दूसरों
के विकास के लिए स्वयं का बलिदान देने के बाद भी उन्हें जो अन्याय हो रहा है, उसके ख़िलाफ़ सत्याग्रह कर रहे हैं।
इनका ये सत्याग्रह
एक सीधा-सादा सवाल पूछता है कि यदि बांध, सड़कें, टनल आदि देश के विकास के लिए बनते हैं, तो इससे उनके जीवन के अधिकार को क्यों ख़त्म
किया जाए? ये लोग सवाल पूछ रहे हैं कि वे बलिदान दे
रहे हैं, तब भी उन्हें अन्याय क्यों मिलें?
खरगोन, खंडवा, हरदा, देवास ये वे ज़िले हैं, जहाँ लगभग 2 लाख परिवारों की भूमि का अधिग्रहण कर उन्हें उनकी जड़ों से उखाड़ा गया। यह कदम
बताता है कि देश और समाज (शहर और एक ख़ास वर्ग) की विलासिता के लिए तुम्हें अपना बलिदान
देना होगा।
पाकिस्तान, बांग्लादेश के हिन्दू
विस्थापितों पर फेफड़ा फाड़ राजनीति के सामने स्वतंत्रता के बाद से लगातार देश के ही
लोगों को विस्थापित किया जाता रहा है। विस्थापन के अधिकतर
शिकार नागरिक भूमिहीन ही नहीं होते, बल्कि इनके सपने तथा इनके भविष्य की सुरक्षित
गारंटी भी इनसे क़ानूनों के नाम पर छिनी जा रही है। ज़मीन के बदले नक़द योजना के बुरे
परिणाम लाखों-करोड़ों लोग भुगत ही रहे हैं, उपरांत ज़मीन के बदले ज़मीन के नाम पर उपजाऊ
ज़मीनों को छिनकर बंजर ज़मीन दे देने की प्रवृत्ति भी चल रही है।
1980 के दशक में जब रानी अवंतीबाई परियोजना यानि बरगी बांध बना, तब लोगों को उनकी ज़मीन के बदले 800 से 1500 रुपए प्रति एकड़ के
मान से मुआवज़ा दिया गया। जैसे ही आसपास के लोगों को पता चला तो सभी यह मानने लगे अब
तो विस्थापित ज़मीन ख़रीदेंगे, क्योंकि यह उनकी मज़बूरी है। दो तीन दिनों
के भीतर वहाँ जमीन के दाम बढ़े। एक हज़ार रुपए एकड़ की ज़मीन कुछ दिनों में 3500 रुपए एकड़ तक पहुंच
गई। ऐसी स्थिति में लोगों को जो नक़द राशि मिली थी उसके कोई मायने ही नहीं रहे।
सरदार सरोवर में मिले
नक़द मुआवजे से ज़मीन ख़रीदने के लिए जो व्यवस्था बनाई गई, उसमें पटवारी से लेकर राजस्व अधिकारी, वकीलों और भू-अर्जन अधिकारी का गिरोह सक्रिय हुआ, जिन्होंने मिलकर आदिवासियों और विस्थापितों के चील कौवों की
तरह नोंचा।
देश में जितनी भी बड़ी
परियोजनाएँ चल रही हैं, उन तमाम में जनविरोध है। ऐसे में अगर तमाम
जगहों पर जनता का ही दोष है, तो ये कैसे हो सकता है? दरअसल, ज़्यादातर परियोजनाएँ गाँव, जंगल, पहाड़, नदियों या समुद्र के आसपास है, और इससे लोगों की आजीविका ही नहीं, बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान जुड़ी है।
उपरांत बलिदान देकर
लोग यही चाहते हैं कि उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन ही मिले। उन्होंने उपजाऊ ज़मीन दी
है तो बदले में उपजाऊ ही मिले, बंजर ज़मीन नहीं। वे तो केवल सम्मानजनक पुनर्वास
चाहते हैं। यह विडंबना है कि सरकार लोगों का विकास करना चाहती है, और वो भी उन्हीं लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा, दमन और शोषण के रास्ते!
सबसे बड़ी बात पर्यावरण
और उसके इको सिस्टम की है। जैव संस्कृति के अहित पर मानव समाज के विकास की मूर्खता
की है।
"क्या फ़र्क़ पड़ेगा कि
गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ सत्ता में आ जाएँगे। लॉर्ड इर्विन की जगह अगर
सर तेज बहादुर सप्रू आ जाएंगे तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा? इसलिए राजनीतिक आज़ादी के साथ साथ आर्थिक
और सामाजिक आज़ादी भी ज़रूरी है।" – यह किसी और द्वारा
नहीं बल्कि शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह के द्वारा लिखा गया कथन है। कमोबेश ठीक ऐसे
ही लेख, कथन और भाषण महात्मा
गाँधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल, दोनों ने आज़ादी से
बहुत पहले से ही दिए थे।
अब ठीक इसके सामने
इन स्थितियों को रख दें। भारत के तीनों महानायक जो ख़तरा देखते थे वह बिलकुल सच साबित
हुआ है।
घोघल जल सत्याग्रह
मुद्दे पर सरकार और उनके समर्थक कह रहे हैं कि ये तो बाल हठ है। लेकिन सत्याग्रहियों
की जो मांगे हैं, वे किसी नज़रिए से किसी प्रकार की हठ नहीं
लगती, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का अपने
हक़ की सुरक्षा ही तो वे कर रहे हैं।
ये लोग पानी में अपना
शरीर गला रहे हैं। यह हठ कहाँ से हुई? नोट करें कि ये आंदोलनकारी अब तक कुल मिलाकर
487 ज्ञापन मुख्यमंत्री
कार्यालय को दे चुके हैं। 8 बार भोपाल में उनसे या उनके प्रतिनिधियों से मिले हैं। 170 दिन का अनशन कर चुके
हैं। ज़िला स्तर और जल विद्युत परियोजना कंपनी को दिए गए आवेदनों की गिनती इसमें शामिल
नहीं है। हठ तो प्रदेश सरकार की है, जो इतने दिनों से इन सत्याग्रहियों से मिल
नहीं रही, पूछ नहीं रही, उनकी समस्या का सीधा समाधान दे नहीं रही। सत्ता और माफिया का
गठजोड़ इन सत्याग्रहियों ने तो नहीं बनाया था। इस गठजोड़ को सरकार ने अब तक नहीं तोड़ा।
मध्य प्रदेश के खंडवा
ज़िले के लोग, जो ओंकारेश्वर बांध जलाशय में जल स्तर बढ़ाने
के राज्य के फ़ैसले को फ़िलहाल रोकने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, वे दिनों तक ज़िंदगी और मौत से लड़ते रहे और फिर जाकर मध्य प्रदेश
सरकार ने 10 सितंबर को कहा कि बांध जलाशय में जल स्तर को मूल 189 मीटर तक कम किया जाएगा।
राज्य मानवाधिकार आयोग
ने सरकार से कहा है कि वे बांध के पानी को इतना न बढ़ाए कि किसी की जान को ख़तरा हो
और आगाह किया है कि अगर किसी की जान गई तो आयोग ज़िला प्रशासन और सरकार के ख़िलाफ़
कार्रवाई करेगा। सभी प्रभावित लोगों को ज़मीन के बदले ज़मीन देने पर भी सहमति बनी।
सरकार ने घोषणा की कि ओंकारेश्वर बांध से विस्थापित लोगों की समस्याओं को देखने के
लिए तीन मंत्रियों की एक टीम गठित की गई है।
किंतु इतना सब होने
के बाद सरकार क्यों मानी? सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन हुआ।
जल स्तर और पुनर्वास पैकेज, दोनों पर सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिया था, उसका पालन सरकार ने नहीं किया। इसके ख़िलाफ़ विस्थापित प्रदर्शनकारी
17 दिनों तक गर्दन तक
पानी में बैठे रहे। और फिर सरकार रुक गई। यूँ तो सरकारें कभी झुकती नहीं, वे तो केवल रुकती हैं।
लगभग आधे महीने से
भी उपर की समयावधि तक गर्दन तक पानी में बैठे रहने की वजह से कई लोगों को त्वचा और
अन्य स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएँ हो गई हैं।
सरकार ने जो आश्वासन
दिया है, उसमें भी कहीं जीत तो कही हार वाली स्थिति
है। सभी जगह समस्या एक सी है, मांग भी एक सी ही है, साथ ही विरोध का तरीक़ा भी एक ही है। लेकिन हश्र अलग अलग!
जहाँ खंडवा के घोघल
जल सत्याग्रह के डूब प्रभावितों की मांगे सरकार ने मान ली हैं, वहीं हरदा के खरदना गाँव के डूब प्रभावितों को गिरफ़्तार कर
लिया गया है।
घोघल जल सत्याग्रहियों
की जल स्तर को घटाकर 189 मीटर तक करने और ज़मीन के बदले ज़मीन की मांग को नब्बे दिन में पूरा करने की घोषणा
प्रदेश सरकार ने कर दी है। और वो भी बिना शर्त। किंतु यहाँ सरकार को मांगे माननी पड़ी
उसका गुस्सा उधर हरदा जल सत्याग्रह पर फूटा है।
यहाँ इंदिरा सागर बांध
का जल स्तर 260 मीटर तक बढ़ाने का सरकार ने फ़ैसला लिया था, जिसके ख़िलाफ़ हरदा ज़िले के खरदना गाँव के लोग जल सत्याग्रह पर थे। इनकी मांगे
भी घोघल जल सत्याग्रहियों की जो मांगे थीं, वैसी ही थीं। सरकार ने घोघल मसले पर सारी
बातें मान लीं, किंतु यहाँ खरदना मसले पर सरकार के इरादे
बदल गए। प्रशासन ने यहाँ धारा 144 लगा दी और आंदोलन के पंद्रहवें दिन, 12 सितंबर की सुबह सत्याग्रहियों को पानी से ज़बरन बाहर निकालकर गिरफ़्तार कर लिया।
उनकी कोई मांगे नहीं मानी गई।
सरकार का यह रवैया
वाक़ई प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है। एक ही मसला, एक ही मांग, एक ही तरीक़ा। किंतु हश्र अलग अलग!
ओंकारेश्वर और इंदिरा
सागर बांध के डूब प्रभावितों के लिए अलग-अलग मापदंडों को लेकर सवाल उठ रहे हैं। अग्रवाल
कहते हैं, ''दोनों बांधों को लेकर एक-सी पुनर्वास नीति है तो क्रियान्वयन अलग क्यों?''
दरअसल ओंकारेश्वर बांध
के प्रभावितों को लेकर एनबीए की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में पुनर्वास
नीति के मुताबिक ज़मीन के बदले ज़मीन का विकल्प देने की बात कही थी। अदालत ने इंदिरा
सागर बांध को लेकर लगाई गई याचिका पर भी वही आदेश लागू करने को कहा था।
अग्रवाल जबलपुर हाइकोर्ट
के आदेश का हवाला देते हुए कहते हैं कि बिना पूर्ण पुनर्वास के बांध में 260 मीटर से ज़्यादा पानी
न भरे जाने के हाइकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने भी यथावत रखा है। दूसरी तरफ़ उद्योग
मंत्री कैलाश विजयवर्गीय दावा करते हैं कि इंदिरा सागर का मामला सेटल हो चुका हैं और
उसमें जल स्तर को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं है।
इधर मुख़्यमंत्री ने
शासन के लैंड बैंक से ज़मीन के बदले ज़मीन देने की घोषणा तो कर दी है, किंतु अधिकारी असमंजस में हैं। क्योंकि ज़मीन है नहीं। जो है
वह या तो बंजर है या उस पर अतिक्रमण है।
दरअसल आंदोलन या विरोध प्रदर्शन की आग को ठंडा करने हेतु सरकार ने घोषणा कर दी
है? उपरांत एक ही प्रकृति
के मामले में अलग अलग मानदंडों के साथ कार्रवाई की है। यह चीज़ इशारा करती है कि समय
ख़रीदा जा रहा है। वक़्त का मरहम और फिर नियमों, कचहरियों, अदालतों आदि का चक्कर।
भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र से भी ज़्यादा मारक क्षमता इस राजनीति चक्र की है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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