1960 के दशक के बाद पूंजीवाद और भारतीय
सरकारी तंत्र की कमज़ोरियों के कारण उत्पन्न हुआ नक्सलवाद धीरे धीरे अपने उद्देश्य से
भटकता गया और उसने समय रहते आतंकवाद का चोला पहनना शुरू कर दिया।
बस्तर इलाक़ा नक्सलवादियों का किला
माना जाता है। गहरे जंगल, भयावह नदियाँ या नाले वाले इस इलाक़े में बीएसएफ और सेना पेट्रोलिंग
करती हैं। नक्सलवाद से लड़ने के लिए फ़ौज, बीएसएफ या अन्य विशेष दस्तों के जिन जवानों
को यहाँ लगाया जाता है, वे विशेष रूप से “फॉरेस्ट वॉर” का प्रशिक्षण लेते हैं। यहाँ जवानों को हर दिन नये इलाक़ों में गस्त के लिए जाना होता है और दिन के
किसी भी पल मौत का सामना करना होता है। नक्सलवाद की प्रचलित रणनीति यही रही है कि वो
लैंडमाइंस बिछाकर ब्लास्ट करते हैं, जिसमें भारत ने अपने सैकड़ों जवान गंवाए हैं।
कहा जाता है कि आतंकवाद से भी ज़्यादा ख़तरा और ज़्यादा नुक़सान ऐसे इलाक़ों में होने की संभावना हमेशा से ही रही है। इन इलाक़ों में फ़ौज हर दिन “सड़क सुरक्षा अभियान” चलाती है।
इन अभियानों में हर जवानों को फूंक फूंक कर हर कदम रखने पड़ते हैं। सबसे पहले एंटी लैंडमाइंस
वाहन से रास्तों और सड़कों को चेक किया जाता है। उसके बाद मेटल डिटेक्टर और एक्सप्लोजिव
डिटेक्टर की मदद से रास्ता व सड़कें पूरी तरह से चेक की जाती है। कई बार तो इस तरह के
सड़क सुरक्षा अभियान के दौरान ही नक्सलियों ने हमले किये हो ऐसा हो चुका है।
बस्तर के इस इलाक़े में हज़ारों की तादात
में नक्सली बसे हुए हैं। वे गाँव के लोगों के साथ मिल-जुल जाते हैं और इसीलिए फ़ौज
यह पता नहीं लगा पाती कि सच्चाई क्या है।
बस्तर के कुछ इलाक़ों में जवान बाइक
के साथ पेट्रोलिंग करते हैं। इस दल को “हेड हंटर्स” के नाम
से जाना जाता है। उनको ख़ुफ़िया जानकारी मिलते ही बाइक लेकर अभियान पर निकलना होता है।
आम तौर पर नक्सली अपनी गतिविधियाँ रात में ज़्यादा करते हैं। खाने-पीने की चीजें या लड़ने
का सामान या फिर हमले करना या हमले का आयोजन रात को ही होता है। इसलिए फ़ौज के रात
के समय चलाए जाने वाले अभियान जोखिम के उच्चतम बिंदु को छू लेते हैं।
फ़ौज के रात्रि दल के विशेष दस्ते
होते हैं, जो पीएनबी बाइनोक्युलर, पीएनबी मोनोक्युलर जैसे नाइट विजन मटेरियल्स और लाइट
एक्सप्लोजिव के साथ निकलते हैं। रात्रि दल विशेष रूप से प्रशिक्षित होता है और उनके
पास विशिष्ट उपकरण भी होते हैं। वे अभियान के दौरान ही आराम करते हैं। लेकिन आराम करने
के लिये भी उनके सुरक्षा के कुछ ख़ास नियम होते हैं।
ऐसे नकसलवादी इलाक़े में जो कैंप होते
हैं, उनमें क़रीब 1000 जवान रहते हैं। कैंप में ही सभी विशिष्ट उपकरण या फ़ौजी सामान
रखा जाता है। और इसीलिए ऐसे कैंप की सुरक्षा में विशेष रूप से ध्यान दिया जाता
है। ऐसे कैंप के आसपास 24 घंटे का पहरा होता है और उनकी टीमें भी अलग अलग घंटों
के हिसाब से अलग अलग होती है। ऐसे कैंप की सुरक्षा व्यवस्था “त्रि-स्तरीय” होती है।
नक्सली इलाक़े में इन जवानों को सिर्फ़ नकसलवाद के ख़िलाफ़ ही अभियान चलाने होते हैं ऐसा नहीं है। इन जोखिम भरे कामों के साथ साथ
पिछड़े और अनपढ़ गाँवों को देश की मुख्य धारा के साथ जोड़ने का काम भी इन्हें ही करना पड़ता
है।