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Media and Political Parties: मीडिया और हमारे राजनीतिक दलों के बीच अजीब साम्य है

 
कहा जाता है कि मीडिया देश की चौथी संपत्ति है। लिख ही दिया है कि कहा जाता है कि...। तो फिर ज़्यादातर लोगों की भावनाएँ समन्वित कर दी हैं। वैसे मीडिया चौथी संपत्ति माना जाता है, वहीं राजनीतिक दल संपत्ति का अकूट भंडार। कह सकते हैं कि संपत्ति के मामले में दोनों काफी संपन्न ज़रूर हैं। मीडिया के बारे में बहुत अरसे से कहा जाता है कि भारत के उचित और अनुचित, दोनों प्रकार के सैकड़ों सर्वे करने वाले मीडिया को एक सर्वे यह भी करा लेना चाहिए कि मीडिया पर लोगों को कितना यक़ीन है।
 
मीडिया और हमारे राजनीतिक दल... इन दोनों का महत्व लोकतंत्र में किसी प्रकार से कम आंका नहीं जा सकता। इतिहास गवाह है कि इन दोनों का लोकतंत्र में योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता। फिर चाहे वो सफ़ेद, नीला, लाल टीला हो या काला हो! दोनों के बिना देश को नहीं चलता और देश के बिना दोनों को नहीं चलता। वैसे हमारे नीति निर्माता नेता हैं। मीडिया भी आजकल स्टूडियो में बैठकर यह उत्तरदायित्व निभाने की कोशिश में लगा है!
 
ग़ौरतलब है कि हमारे देश का इतिहास, वर्तमान और भविष्य इन दोनों के बिना अधूरा है। पूरा कब होगा यह बताना किसी ज्ञानी के बस की बात नहीं। किंतु इतिहास, वर्तमान और भविष्य... इन तीनों को विधविविध रंगों से भरा हुआ या फिर कभी कभी बेरंग ये दोनों ही बनाते रहे हैं।
 
राजनीतिक दलों के इतिहास, उनके नेता, उनके द्वारा दलबदल, पाला बदलना, विचार बदलना, अपने हाईकमान की विचारधारा को ही ख़ुद की विचारधारा बनाना, उनकी योजनाओं को अपनाकर आगे चलना, कभी कभी ख़ुद की सोच को ठोस तरीक़े से आगे रखना, फिर पार्टी से निष्कासित होना, कभी किसी दूसरे विषय को लेकर पार्टी से ख़ुद ही निकल जाना या निकाले जाना, फिर दूसरी पार्टी का दामन थामना ये सब हमारे राजनीतिक दलों का मूलभूत चरित्र रहा है। हमारा मीडिया भी इस चरित्र के काफी क़रीब रहा है। वहाँ पर भी समस्या या कार्यशैली ऐसी ही रही है।
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी मीडिया कर्मी अपने अख़बार, मैगज़ीन, न्यूज़ चैनल वगैरह को बदलता रहता है। वहाँ भी मीडिया कर्मी या तो निकल जाते हैं या निकाले जाते हैं। फिर दूसरी कंपनी का दामन थामना, वहाँ भी एक हाईकमान का होना, विचार बदलना या विचारों का मारना, राजनीति वाला वह चरित्र यहाँ भी अमूमन वैसा ही है। शायद इसलिए, क्योंकि दोनों एकदूसरे के क़रीब पाए जाते हैं।
 
राजनीति में पहले इक्का-दुक्का दल हुआ करते थे और कुछेक नेता हुआ करते थे। मीडिया का भी पहले कुछकुछ ऐसा ही हाल था। इक्का-दुक्का प्रोडक्शन हाउस या न्यूज़ चैनल और कुछेक गिने-चुने पत्रकार। इसके बाद राजनीति में वो दौर आया जब उन दलों के बँटवारें होते चले गए, विचारधारा के नाम पर या अवसरवाद के नाम पर। मीडिया का भी बिलकुल यही हाल हुआ। वहाँ पर भी नये नये प्रोडक्शन हाउस बनने लगे, नये नये न्यूज़ चैनल आने लगे और पत्रकारिता में नये चेहरों का उत्पादन होने लगा।
 
हमारी राजनीति में कुछेक दल ऐसे हैं जो राष्ट्रव्यापी है। लेकिन इससे ज़्यादा दल प्रादेशिक हैं और सैकड़ों छिटपुटिये हैं। मीडिया भी शायद राजनीति की शैली को कॉपी-पेस्ट ही कर रहा था। कुछेक चैनल राष्ट्रीय चैनल माने गए। जितने राष्ट्रीय हैं, उससे ज़्यादा तो प्रादेशिक हैं और उससे भी ज़्यादा छिटपुटिये भी हैं।
 
पाला बदलना, दलबदल करना राजनीति में एक आम बात रही। किसी न किसी बहाने या मजबूरियों के चलते हमारे नेता दल बदल करते रहे। पत्रकारिता भी इसी रास्ते चलती नज़र आई। कोई कभी इस अख़बार-चैनल में पाया गया, कभी कोई उस अख़बार-चैनल के साथ जुड़ गया। जुड़ने के या पाला बदल लेने के अपने अपने तर्क थें या मजबूरियाँ थीं। राजनीतिक दलों से नेता आते रहे और जाते रहे। मीडिया में भी यही होता रहा। राजनीतिक दलों में नेता को निकाला जाता रहा और आयातित किया जाता रहा। मीडिया ने यहाँ भी कॉपी-पेस्ट किया। पत्रकार या कर्मी निकाले गए या आयात किए गए।
राजनीति में तो कभी कभार ऐसा भी हुआ कि किसी असंतुष्ट या तथाकथित रूप से मजबूर नेता ने अपनी ख़ुद की पार्टी बना ली। मीडिया में भी तथाकथित वजहों के चलते किसी कर्मी या पत्रकार या संपादक ने अपना नया चैनल बना लिया या नया प्रोडक्शन हाउस खोल लिया। आप कह सकते हैं कि राजनीति से प्रेरणा लेने में मीडिया ने कभी परहेज़ नहीं किया! जैसे कि, नव निर्मित दलों ने कुछेक समय के लिए अपना बाजा बजाए रखा और फिर वक़्त रहते ख़ुद को किसी दल के साथ जोड़ दिया। मीडिया में भी ऐसा ही होता गया! नये बने मीडिया हाउस या प्रोडक्शन हाउस ख़ुद को किसी दूसरे से जोड़ते रहे।
 
राजनीति में कुछेक लोग ऐसे भी हैं जो ख़ुद को समाजसेवी बताते रहे और सैकड़ों दलों या नेताओं से जुड़ते रहे। वे इन दलों को या नेताओं को अपने विचार, अपने आयोजन, ज्ञान या अनुभव बाँटते रहे। उनके तमाम दलों या नेताओं से संपर्क रहते और वो एक तरह से ऑल-इन-वन वाला काम करते।
 
मीडिया में भी ऐसे लोगों की कभी कमी नहीं रही। वहाँ पर भी, सैकड़ों ऐसे तथाकथित विशेषज्ञ रहे जो लगभग तमाम मीडिया हाउस या चैनलों से जुड़ते, अपना ज्ञान या अनुभव बाँटते और फिर शाम को किसी ओर जगह, फिर दूसरे दिन किसी ओर जगह। ये ऐसी श्रेणी थी जो उस क्षेत्र में सर्वसामान्य रूप से प्रचलित थी।
 
हमारे नेताओं और मीडिया में एक समानता और भी है। हमारे नेता भाषणों में पाकिस्तान को सैकड़ों बार मार गिराते रहे या हाफिज़ सईद तथा दाऊद जैसों को सैकड़ों बार पकड़ते रहे। भाषणों में नेताओं का कोई सानी नहीं। माईक हाथ में आते ही वो कभी भारत को विश्वगुरु बनाते रहे, तो कभी इतिहास तक बदलते रहे। मीडिया भी इसमें पीछे नहीं रहा। कईयों ने बग़दादी को 2-3 बार मार गिराया, पाकिस्तान को सैकड़ों बार दुनिया के नक़्शे से उड़ाया, पृथ्वी मिसाइल तक चला दी, भारत को शिखर पर बिठा दिया। नेता किसी मंच से माईक हाथ में लेकर दुश्मन का काल बनते नज़र आए। मीडिया भी स्टूडियो से पाकिस्तान को ठिकाने लगाता रहा। मीडिया ने तो एक-दो बार सारे संसार का अंत भी कर दिया!
देखा तो यह भी गया कि माईक से या मंच से नेताओं ने भारत की विदेश नीति, पाकिस्तान नीति या कश्मीर नीति तय कर दी और स्टूडियो से यही काम मीडिया ने किया। राजनीति और मीडिया, दोनों में पाकिस्तान और चीन को लेकर ग़ज़ब समानता रही। जब जब पाकिस्तान के साथ रिश्ते तंग हुए तब तब राजनीति और मीडिया, दोनों ने दुश्मन को भाषणों, पैनल डिबेट आदि में जोश और गुस्से के साथ नेस्तनाबूद कर दिया। लेकिन जब जब चीन के साथ रिश्ते बिगड़े, राजनीति और मीडिया, दोनों ही कूटनीति और धैर्य का गुणगान करते हुए नज़र आए!
 
दोनों किसी विषय को सनसनीखेज़ बनाकर देश के सामने पेश करने में कभी पीछे नहीं हटे। दोनों ने छिटपुटिये मुद्दे को देश की सर्वप्रथम समस्या बना दिया और सर्वप्रथम समस्या को छिटपुटिये मुद्दे! एक ने मंच से भारत की ज़मीन को समझ लिया तो दूसरे ने स्टूडियो से भारत को समझने का दावा कर दिया! अपने प्रदेश को समझ नहीं पाने वाले नेता ब्रेक्जिट के समय पूरे ब्रिटेन के विशेषज्ञ बनते नज़र आए, और वही काम मीडिया ने किया। मीडिया के तथाकथित बुद्धिजीवी दो दिन में ब्रिटेन के अख़बार पढ़ कर ब्रिटेन के विशेषज्ञ बनते नज़र आए।
 
दोनों ने अपना अपना प्रभाव अपने अपने तरीक़े से देश पर छोड़े रखा। दोनों में ये दम ज़रूर रहा कि वे लोगों को प्रेरित करते रहे या फिर सनकी बनाते रहे। एक चीज़ है कि दोनों ने ख़ुद को कभी कम नहीं माना। वे अपनी अपनी नज़र में देश के लिए काफी ज़रूरी रहे, और वे ज़रूरी हैं ऐसा देश को बताते भी रहे!
 
दोनों के पास ये ताक़त रही कि वे किसी भी चीज़ को राष्ट्रीय बहस बना सकते थे। किसी ने अपने भाषणों को या किसी ने अपने रिपोर्ट को हर तरह के रंग रूप दिए, हर तरह की सनसनी दी और उसे राष्ट्रीय स्तर पर ले आए। वे जब जी चाहे वैसे लोगों के दिमाग़ को झकझोरते रहे। ऐसा लगता है कि लोगों को क्या सोचना है और कैसे सोचना है उस हद तक जाने में वे सफल से नज़र आए।
नये नये लफ्ज़, नये नये नाम, नयी नयी सनसनी... ख़ुद को लोगों के बीच ले जाने के लिए या फिर लोगों को ख़ुद से जोड़ने के लिए उन्होंने हर वो मुमकिन रास्ते अपनाए जो शायद कॉर्पोरेट वाले मार्केटींग में अपनाते रहे थे! किसी भी मसले को अपनी तरह से सजाना, उसे शृंगार करना या फिर खौफ़नाक बताना! नायक निर्धारित किए गए और खलनायक भी! वे हर उस तरकीब को ढूंढ कर ले आए।
 
लगा कि राजनीति और मीडिया ने पढ़े-लिखे और समझदार माने जाने वाले नागरिकों तक को क्या ज़रूरी है और क्या ग़ैरज़रूरी यह तय करने के विवेक को हाईजैक कर लिया हो। धारणाएँ गढ़ने की राजनीति नेता लोगों का अधिकार था, जिसे मीडिया ने कॉपी-पेस्ट किया!
 
वे लोगों को वहाँ छोड़ आने में या ले आने में सफल हुए जहाँ जाकर लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते थे! फिर वे धारणाओं के पहाड़ खड़े करने लगे। धारणा की राजनीति और धारणाओं की पत्रकारिता शुरू हुई। आगे चल कर यही धारणाएँ लोगों को भविष्य आँकने का एकमात्र पैमाना दिखने लगी।
 
दोनों लोगों के बीच ऐसे मुद्दे ले जाने लगे और उसे इस तरह पेश करने लगे की लोगों को लगा कि यह मुद्दा हल होना ज़रूरी है, वर्ना कल को प्रलय भी आ सकता है! फिर वे उसी मुद्दे पर लोगों को आधे रास्ते छोड़ने लगे, जिससे लोग बीच रास्ते में किसी पेड़ पर लटके नज़र आने लगे। बीच रास्ते में पेड़ पर लटके लोगों को सब अपनी अपनी तरफ़ मोड़ने लगे।
 
राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिए या सत्ता में भागीदारी के लिए उन मुद्दों को जीवंत बनाए रखा या कभी कभी किसी छिटपुटिये विषय को बड़ा मुद्दा बना कर रखा, जिससे उनके मक़सद पूरे हो। राजनीति में सब मुनासिब है ऐसा लोग मानने भी लगे! अब तो पत्रकारिता में भी सब कुछ मुनासिब होने लगा! वहाँ पर भी यही शैली दिखी।
लोकसभा या राज्यसभा के भीतर मुद्दों पर चर्चा, मुद्दों पर भाषण, संसद की लाइब्रेरी खँगाल कर तर्कों और तथ्यों से बात करने का दौर समाप्त हो गया और उसकी जगह बिना तर्क, बिना तथ्य, बिना मुद्दे के एकदूसरे पर गरियाने का फैशन चल पड़ा। न्यूज़ चैनलों ने इसमें भी कॉपी-पेस्ट किया! वहाँ भी जाँच-परख कर, जानकारी देते हुए मुद्दों पर रिपोर्टींग या चर्चा करने का समय समाप्त हो गया। एंकर चीखने-चिल्लाने की शैली ले आए और गरियाने का फैशन यहाँ भी शुरू हो गया!
 
पूरा दिन टीवी देखने वालों ने जब सुबह टीवी देखा तो उन्हें लगा कि देश की असली समस्या तो पिम्पल और बालों की रूसी है!!! जब दुनिया में कुछ हो रहा होता तो हमारा मीडिया हर दोपहर सास-बहू में उलझा रहता! जब देश में कहीं कुछ हो रहा होता तब हमारा मीडिया दिखा रहा होता कि शाहरुख़, अक्षय, कैटरीना या करीना कौन से शैंपू से बाल साफ करते हैं! पूरा दिन अंधश्रद्धा पर शो करने वाला मीडिया आधी रात को यंत्र बेचने लगा!!! दिन भर किसी धार्मिक गुरु के विवादित काम को लेकर लोगों की आँखें खोलते, लेकिन सुबह उसी मीडिया को उन धार्मिक गुरुओं के शो दिखाए बिना नींद नहीं उड़ती थी!!!
 
दोनों ने अपने मनपसंद मुद्दों को च्यूइंगम की तरह खींचे रखा। दोनों ने किसी छोटे विषय को मुद्दा बनाया और मुद्दे को समस्या! वही दूसरी तरफ़ किसी समस्या को मुद्दा बना दिया और मुद्दे को छोटा सा विषय! दोनों ख़ुद को देश की आवाज़ बताने से पीछे नहीं हटे।
 
इस बीच कई पत्रकार नेता बन गए और कई नेता ख़ुद को पत्रकार बताते भी नज़र आए। हो सकता है कि पत्रकारिता विशेषज्ञों का पेशा माना जाता है और नेतागिरी में उतना विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है! इसीके चलते शायद नेताओं ने सोचा कि पत्रकारिता का लेबल लगाना ठीक होगा, जिससे ख़ुद को विशेषज्ञ बताया जा सके! वहीं पत्रकारों ने सोचा होगा कि केवल विशेषज्ञ बन जाने से हाथ से खाना पड़ेगा, चमच-काँटा या छुरी के साथ खाने के लिए नेतागिरी करने की ज़रूरत आन पड़ी होगी! पता नहीं सच क्या था।
दोनों के बीच अजीब सा रिश्ता रहा, अजीब सी समानता रही। सर्वविदित है कि दोनों को एक दूसरे के बिना नहीं चल सकता और इन दोनों के बिना देश को नहीं चल सकता!
 
हर राजनीतिक दल का अपना अपना एजेंडा रहा, अपनी अपनी शैली रही। मीडिया में भी ऐसा ही दिखा। वैसे आजकल यह 'एजेंडा' लफ्ज़ संदेहात्मक तरीक़े से देखा जाता है। किंतु एजेंडा तो हर विषय में आगे बढ़ने का मूल है। अब वोह एजेंडा कुछ ऐसा हो जो लोगों को नागवार गुज़रे तो फिर उस दल या नेता या चैनल को लोग कोसने भी लगे।
 
मीडिया और दल, इन दोनों ने ख़ुद को राष्ट्र के प्रति समर्पित बताने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। जैसे सभी मीडिया हाउस ख़ुद को देश का नं. 1 चैनल बताते रहे, वैसे सभी दल ख़ुद को देश का श्रेष्ठ विकल्प गिनाते रहे! समझ नहीं आया कि सभी श्रेष्ठ हैं तो फिर सर्वश्रेष्ठ कौन होगा! और इसी कन्फ्यूजन में लोग हमेशा फँसते रहे।
 
फिर वो दौर आया जब सभी राजनीतिक दलों के पास अपना अपना एक जनसमर्थन स्थापित हो गया। ठीक वैसे ही सभी चैनलों के पास अपना अपना एक स्थापित दर्शकगण है। राजनीतिक दल अलग अलग तरीक़े के हैं और उसीके आधार पर उनके पास अपना अपना जनसमर्थन है। वैसे उन दलों के पास जो जनसमर्थन है वो जाति के आधार पर है। मीडिया में ऐसा स्थापित दर्शकगण हो तो इसके बारे में पता नहीं है। किंतु राजनीति की तरह मीडिया में भी हर चैनल के पास अपने अपने स्थापित दर्शकगण ज़रूर हैं।
 
स्थापित गण होने के बाद राजनीति दूसरे गणों को अपनी ओर खींचने में लग गई। उन्हें पता था कि उनके पास जो स्थायी जनसमर्थन है उसके अलावा उन्हें अन्य गणों से छिटपुट समर्थन मिल जाए तो फिर उनकी चल पड़ेगी। लिहाज़ा वे इसी रणनीति पर आगे बढ़े।
मीडिया भी इसी कार्यशैली से चलता नज़र आया। पता नहीं कि कौन किसकी शैली कॉपी-पेस्ट कर रहा था! मीडिया ने भी अपने अपने स्थापित दर्शकगण बना लिए। दर्शकगण स्थापित करने के लिए उन्होंने किस शैली को अपनाया था वह कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सर्वविदित है। दर्शकगण स्थापित होने के बाद वे दूसरे गणों से छिटपुट दर्शक जुटाकर अपना कुनबा बढ़ाने की कार्यशैली पर आगे बढ़ते नज़र आए। इसके लिए उन्होंने अपने ज्ञान, अपने विश्लेषण, अपनी सनसनी इन सभी का भरपूर इस्तेमाल किया।
 
वैसे मीडिया की डिजिटल मुहिम को शायद राजनीतिक दलों ने कॉपी-पेस्ट किया होगा। क्योंकि किसी मसले को सनसनीखेज़ बनाकर पेश करने की शैली भले मीडिया ने राजनीति से उधार ली हो, किंतु उसे डिजिटल तरीक़े से प्रस्तुत करके दर्शकों के दिमाग़ में घुस जाने की शैली तो यक़ीनन मीडिया से राजनीति ने ही उधार ली ऐसा कहा जा सकता है।
 
कहा और देखा जाता है कि कोई ग़रीब चुनाव नहीं लड़ सकता। ठीक वैसे ही कोई ग़रीब अपना न्यूज़ चैनल भी नहीं खोल सकता। दोनों के लिए संपत्ति का होना आवश्यक है। कहते हैं कि राजनीतिक दल वही लोग बना सकते हैं जिनके पास पैसे और पहुँच दोनों हो। हमने नहीं सुना कि जैसे कोई भी आदमी लघुउद्योग आसानी से शुरू कर सकते हैं उतनी आसानी से मीडिया हाउस खोला जा सकता हो!
 
मीडिया और राजनीति, दोनों कभी कभी एक सरीखी स्थिति में फँसते रहे। जो राजनीतक दल या जो नेता लोगों की, समाज की या देश की समस्या सुलझाने के नारे के साथ कूदे थें वे ख़ुद की कथनी-करनी की वजह से समस्याओं में घिरे! उधर दुनियाभर की स्टोरी बनाने वाले मीडिया की ख़ुद की स्टोरीज़ भी बनी!
झूठे भाषण या झूठे दावों के आदती नेताओं की यह आदत मीडिया ने स्वीकार की। उसने भी झूठे रिपोर्ट या झूठे न्यूज़ परोसे! नेताओं ने गली-मोहल्लों के भाषणों में देश की अंतरराष्ट्रीय नीतियाँ तय की, मीडिया ने यह काम स्टूडियो से किया! नेताओं के पसंदीदा मीडिया हाउस और मीडिया हाउस के पसंदीदा राजनीतिक दल होने लगे! घोषित संपत्ति और रिकवर संपत्ति के फ़र्क़ से अंजान नेता और एंकर अर्थतंत्र पर एक साथ विशेषज्ञ बन गए!
 
सोनिया और सानिया का अंतर नहीं पता था, बावजूद इसके दोनों में ऐसे नेता और एंकर मिले जो देश को पेचीदा विषय पर अंतर समझाते! मीडिया ने जैसे कि ऐलान कर दिया कि तूम केवल कर्म करो, काँड में हम बदल देंगे! राजनीति की यह चालाकी मीडिया ने ग्रहण कर ली।
 
और फिर ऐसी राजनीति और ऐसे मीडिया की इतनी आदत हो गई कि ऐसे चैनल-एंकर, जो स्वर्ग की सीढ़ी, प्याज़ माँगती डायन, भूतिया महल, चुड़ैलों वाला गाँव, दुनिया भस्म, इच्छाधारी नागिन, कुएँ में पाताल लोक का रास्ता, सुबह कार्ड निकाल कर भविष्य नहीं बताते तब तक चैन नहीं मिलता। ऐसे नेता-ऐसे मंत्री जो इतिहास-विज्ञान-भूगोल को आलू-मटर की तरह छीले नहीं तब तक संतोष नहीं मिलता।
 
वैसे दोनों काफी किस्मत वाले भी रहे की इनके इर्द-गिर्द कॉर्पोरेट का मेला लगा रहा। या फिर दोनों कॉर्पोरेट के इर्द-गिर्द लगे रहे। कई बार राजनीतिक दलों को किसी विशेष से विशेष अनुदान मिलने के विवाद हुए या फिर विदेश से अनुदान मिलने की बातें हुईं। मीडिया के बारे में भी यही हुआ। कभी कभी मीडिया ने विशेष से विशेष अनुदान माँगा तो कभी सामने से यह प्रस्ताव आते रहे।
 
मीडिया में दो धाराएँ थीं। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। दूसरी तरफ़ राजनीतिक दल शायद उस प्रिंट मीडिया की तरह रसहीन ही थे। फिर तो राजनीतिक दल भी इलेक्ट्रॉनिक होने लगे। पता नहीं उन्होंने देश को कितना डिजिटल बनाया, किंतु मीडिया और राजनीतिक दल, ये दोनों निश्चित रूप से डिजिटल बन गए। अब तो राजनीतिक दल डिजिटल और आधुनिक होने के बाद देश को पुरातन बनने का आह्वान कर रहे हैं।
पता नहीं कि हम आम नागरिकों ने तकनीक का कितना सही इस्तेमाल किया है, नहीं पता कि हमने इसे कैसे अपने में ढाला है। लेकिन मीडिया और राजनीतिक दल इन दोनों ने तकनीक का सफल इस्तेमाल किया ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकता है। शायद इसलिए कि उन्हें अपने अपने तथाकथित फ़र्ज़ या तथाकथित सेवा को डिजिटल बनाकर लोगों के दिमाग़ में घुसना था।
 
वैसे राजनीतिक दलों की एक शैली को मीडिया ने बहुत देर से अपनाया। पता नहीं कि ये राजनीतिक दलों का अपमान था या मीडिया को देर से समझ आया था। राजनीतिक दलों में जो चीज़ दशकों से देखने के लिए मिलती थी वो चीज़ मीडिया में बहुत लंबे अरसे बाद देखने के लिए मिली।
 
राजनीति में एक दूसरे के विरोधी दलों को कोसना, उन्हें नीचा दिखाना, प्रतिपक्ष को या उनके नेताओं पर मनगढ़ंत आरोप लगाना या फिर कभी कभी सत्य आधारित आरोप लगाना, अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए दूसरे को भ्रष्ट बताना, इन सब विशिष्ट गुणों को मीडिया ने काफी देर से अपनाया। अब जाकर मीडिया में प्रतिस्पर्धी चैनल, उसके कर्मी, पत्रकार या संपादक पर नेतागिरी की तरह ही आरोप, प्रत्यारोप, एक दूसरे को नीचा या भ्रष्ट दिखाना जैसी चीज़ें चल रही हैं। मीडिया ने यही एक चीज़ देर से सीखी। या तो फिर देर से उजागर हुई होगी।
 
वैसे मीडिया हाउस कॉर्पोरेट वाले ख़रीदने लगे हैं। राजनीतिक दलों में ये बात नहीं सुनी गई। कृपया आप ये मत कहिएगा कि दलों को भी ख़रीदा जाता है। राजनीतिक दल तथा मीडिया, दोनों के अपने अपने दावे हैं कि वे आम लोगों के हक़ में हैं, समाज के लिए हैं, मजदूर- किसान- ग़रीब आदि के के लिए काम करते हैं। यदि ऐसा है तो अच्छा है। वैसे भी मीडिया हाउस खोलकर या राजनीतिक दल बनाकर आप यह तो नहीं कह सकते कि हम लोगों का हक़ मारने के लिए आए हैं। दोनों की आपसी समझ ग़ज़ब है कि नेता अपने भाषणों में ग़रीबी का ज़िक्र अवश्य करते हैं, उधर मीडिया नेता को बचाने के लिए अपने रिपोर्ट में ग़रीबी का ज़िक्र हमेशा नहीं करता!
 
मीडिया और राजनीति, दोनों में कभी कभार ऐसी इक्का-दुक्का चीज़ें या शख़्सियतें देखने के लिए मिली, जिन्होंने मील के पत्थर रखे या फिर जिन पत्थरों को लोगों से छिपा कर गाड़ दिया गया था उन्हें बाहर लाकर सामने रखा। मीडिया और राजनीति की इन इक्का-दुक्का शख़्सियतों ने अपनी परवाह न करते हुए कई मौक़ों पर राष्ट्र के प्रति या समाज के प्रति समर्पित होकर कार्य किया। यही वजह है कि राजनीति और मीडिया को आज सम्मान हासिल है। फिर वो चाहे जितना भी हो। कम हो या कुछ ज़्यादा हो।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)