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Media & Political Parties : मीडिया और हमारे राजनीतिक दलों के बीच अजीब साम्य है



कहा जाता है कि मीडिया देश की चौथी संपत्ति है। आगे लिख ही दिया है कि कहा जाता है कि...। तो फिर ज्यादातर लोगों की भावनाएं मैंने समन्वित कर दी है। वैसे मीडिया चौथी संपत्ति माना जाता है, वहीं राजनीतिक दल संपत्ति का अकूट भंडार। कह सकते हैं कि संपत्ति के मामले में दोनों काफी संजीदा ज़रूर है। मीडिया के बारे में बहुत अरसे से कहा जाता है कि भारत के जायज और नाजायज, दोनों प्रकार के सैकड़ों सर्वे करने वाले मीडिया को एक सर्वे यह भी करा लेना चाहिए कि मीडिया पर लोगों को कितना यकीन है।

मीडिया और हमारे राजनीतिक दल... इन दोनों का महत्व लोकशाही में किसी प्रकार से कम आंका नहीं जा सकता। इतिहास गवाह है कि इन दोनों का लोकशाही में योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता। फिर चाहे वो सफेद, नीला, लाल टीला हो या काला हो! दोनों के बिना देश को नहीं चलता और देश के बिना दोनों को नहीं चलता। वैसे हमारे नीति निर्माता नेता है। मीडिया भी आजकल स्टूडियो में बैठकर यह उत्तरदायित्व निभाने की कोशिशों में लगा है!

गौरतलब है कि हमारे देश का इतिहास, वर्तमान और भविष्य इन दोनों के बिना अधूरा है। पूरा तो कब होगा वो भी किसी ज्ञानी के बस की बात नहीं। किंतु इतिहास, वर्तमान और भविष्य... इन तीनों को विधविविध रंगों से भरा हुआ या फिर कभी कभी बेरंग ये दोनों ही बनाते रहे हैं।

राजनीतिक दलों के इतिहास, उनके नेता, उनके द्वारा दलबदल, पाला बदलना, विचार बदलना, अपने हाईकमान की विचारधारा को ही खुद की विचारधारा बनाना, उनकी योजनाओं को अपनाकर आगे चलना, कभी कभी खुद की सोच को ठोस तरीके से आगे रखना, फिर पार्टी से निष्कासित होना, कभी किसी दूसरे विषय को लेकर पार्टी से खुद ही निकल जाना या निकाले जाना, फिर दूसरी पार्टी का दामन थामना ये सब हमारे राजनीतिक दलों का मूलभूत चरित्र रहा है। हमारा मीडिया भी इस चरित्र के काफी करीब रहा है। वहां पर भी ये समस्या या कार्यशैली ऐसी ही रही है।
राजनीति में पहले इक्का-दुक्का दल हुआ करते थे और कुछेक नेता हुआ करते थे। मीडिया का भी पहले कुछकुछ ऐसा ही हाल था। इक्का-दुक्का प्रोडक्शन हाउस या न्यूज़ चैनल और कुछेक गिने-चुने पत्रकार। इसके बाद राजनीति में वो दौर आया जब उन दलों के बंटवारें होते चले गए, विचारधारा के नाम पर या अवसरवाद के नाम पर। मीडिया का भी बिल्कुल यही हाल हुआ। वहां पर भी नये नये प्रोडक्शन हाउस बनने लगे, नये नये न्यूज़ चैनल आने लगे और पत्रकारिता में नये चेहरों का उत्पादन होने लगा।

हमारी राजनीति में कुछेक दल ऐसे हैं जो राष्ट्रव्यापी है। लेकिन इससे ज्यादा दल प्रादेशिक है और सैकड़ों छिटपुटिये हैं। मीडिया भी शायद राजनीति की शैली को कॉपी-पेस्ट ही कर रहा था। कुछेक चैनल राष्ट्रीय चैनल माने गए। जितने राष्ट्रीय हैं, उससे ज्यादा तो प्रादेशिक हैं और उससे भी ज्यादा छिटपुटिये भी हैं।

पाला बदलना, दलबदल करना राजनीति में एक आम बात रही। किसी न किसी बहाने या मजबूरियों के चलते हमारे नेता दल बदल करते रहे। पत्रकारिता भी इसी रास्ते चलती नजर आयी। कोई कभी इस चैनल में पाया गया, तो कभी कोई उस चैनल के साथ जुड़ गया। जुड़ने के या चैनल बदल लेने के अपने अपने तर्क थे या मजबूरियां थी। राजनीतिक दलों से नेता आते रहे और जाते रहे। मीडिया में भी यही होता रहा। राजनीतिक दलों में नेता को निकाला जाता रहा और आयातित किया जाता रहा। मीडिया ने यहां भी कॉपी-पेस्ट किया। पत्रकार या कर्मी निकाले गए या आयात किए गए।

राजनीति में तो कभी कभार ऐसा भी हुआ कि किसी असंतुष्ट या तथाकथित रूप से मजबूर नेता ने अपनी खुद की पार्टी बना ली। मीडिया में भी तथाकथित वजहों के चलते किसी कर्मी या पत्रकार या संपादक ने अपना नया चैनल बना लिया या नया प्रोडक्शन हाउस खोल दिया। आप कह सकते हैं कि राजनीति से प्रेरणा लेने में मीडिया ने कभी परहेज नहीं किया! जैसे कि, नव निर्मित दलों ने कुछेक समय के लिए अपना बाजा बजाये रखा और फिर वक्त रहते खुद को किसी दल के साथ जोड़ दिया। मीडिया में भी ऐसा ही होता गया। नये बने मीडिया हाउस या प्रोडक्शन हाउस खुद को किसी दूसरे से जोड़ते रहे।
राजनीति में कुछेक लोग ऐसे भी हैं जो खुद को समाजसेवी बताते रहे और सैकड़ों दलों या नेताओं से जुड़ते रहे। वे इन दलों को या नेताओं को अपने विचार, अपने आयोजन, ज्ञान या अनुभव बांटते रहे। उनके तमाम दलों या नेताओं से संपर्क रहते और वो एक तरह से ऑल-इन-वन वाला काम करते। मीडिया में भी ऐसे लोगों की कभी कमी नहीं रही। वहां पर भी, सैकड़ों ऐसे तथाकथित निष्णांत रहे जो लगभग तमाम मीडिया हाउस या चैनलों से जुड़ते, अपना ज्ञान या अनुभव बांटते और फिर शाम को किसी ओर जगह, फिर दूसरे दिन किसी ओर जगह। ये ऐसी श्रेणी थी जो उस क्षेत्र में सर्वसामान्य रूप से प्रचलित थी।

हमारे नेताओं और मीडिया में एक समानता और भी है। हमारे नेता भाषणों में पाकिस्तान को सैकड़ों बार मार गिराते रहे या हाफिज सईद तथा दाऊद जैसों को सैकड़ों बार पकड़ते रहे। भाषणों में नेताओं का कोई सानी नहीं। माईक हाथ में आते ही वो कभी भारत को विश्वगुरु बनाते रहे, तो कभी इतिहास तक बदलते रहे। मीडिया भी इसमें पीछे नहीं रहा। कइयों ने बगदादी को 2-3 बार मार गिराया, कइयों ने पाकिस्तान को सैकड़ों बार दुनिया के नक्शे से उड़ाया, कइयों ने तो पृथ्वी मिसाइल तक चला दी। नेता किसी मंच से माईक हाथ में लेकर दुश्मन का काल बनते नजर आए। मीडिया भी स्टूडियो से पाकिस्तान को ठिकाने लगाता रहा। मीडिया ने तो एक-दो बार सारे संसार का अंत भी कर दिया!!!

देखा तो यह भी गया कि माईक से या मंच से नेताओं ने भारत की विदेश नीति, पाकिस्तान नीति या कश्मीर नीति तय कर दी और स्टूडियो से यही काम मीडिया ने किया। राजनीति और मीडिया, दोनों में पाकिस्तान और चीन को लेकर गजब की समानता रही। जब जब पाकिस्तान के साथ रिश्ते तंग हुए तब तब राजनीति और मीडिया, दोनों ने दुश्मन को भाषणों, पैनल डिबेट आदि में जोश और गुस्से के साथ नेस्तनाबूद कर दिया। लेकिन जब जब चीन के साथ रिश्ते बिगड़े, राजनीति और मीडिया, दोनों ही कूटनीति और धैर्य का गुणगान करते हुए नजर आए। दोनों किसी विषय को सनसनीखेज बनाकर देश के सामने पेश करने में कभी पीछे नहीं हटे। दोनों ने छिटपुटिये मुद्दे को देश की सर्वप्रथम समस्या बना दिया और सर्वप्रथम समस्या को छिटपुटिये मुद्दे। एक ने मंच से भारत की जमीन को समझ लिया तो दूसरे ने स्टूडियो से भारत को समझने तक का दावा कर दिया! अपने प्रदेश को समझ नहीं पाने वाले नेता ब्रेक्जिट के समय पूरे ब्रिटेन का निष्णांत बनते नजर आए, और वही काम मीडिया ने किया। मीडिया के तथाकथित बुद्धिजीवी दो दिन में ब्रिटेन के अख़बार पढ़ कर ब्रिटेन के विशेषज्ञ बनते नजर आए।

दोनों ने अपना अपना प्रभाव अपने अपने तरीकों से देश पर छोड़े रखा। दोनों में ये माद्दा ज़रूर रहा कि वे लोगों को प्रेरित करते रहे या फिर सनकी बनाते रहे। एक चीज़ है कि दोनों ने खुद को कभी कम नहीं माना। वे अपनी अपनी नजर में देश के लिए काफी ज़रूरी रहे, और वे ज़रूरी है ऐसा देश को बताते भी रहे! दोनों के पास ये ताकत रही कि वे किसी भी चीज़ को राष्ट्रीय बहस बना सकते थे। किसी ने अपनी बातों को या किसी ने अपने अहवालों को, हर तरह के रंग रूप दिये, हर तरह की सनसनी दी और उसे राष्ट्रीय स्तर पर ले आए। वे जब जी चाहे, वैसे लोगों के दिमाग को झकझोरते रहे। ऐसा लगता है कि लोगों को क्या सोचना है और कैसे सोचना है उस हद तक जाने में वे सफल से नजर आए।
नये नये लफ्ज़, नये नये नाम, नयी नयी सनसनी... खुद को लोगों के बीच ले जाने के लिए या फिर लोगों को खुद से जोड़ने के लिए उन्होंने हर वो मुमकिन रास्तें अपनाए जो... जो शायद कॉर्पोरेट वाले मार्केटींग में अपनाते रहे थे। किसी भी मसले को अपनी तरह से सजाना, उसे शृंगार करवाना या फिर खौफनाक बताना, नायक निर्धारित किए गए या खलनायक भी निर्धारित किए, हर वो तरकीब वो ढूंढ कर ले आए।

वे लोगों को वहां छोड़ आने में या ले आने में सफल हुए जहां जाकर लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते थे! फिर वो धारणाओं के पहाड़ खड़े करने लगे। धारणा की राजनीति और धारणाओं की पत्रकारिता शुरू हुई। आगे चल कर यही धारणाएं लोगों को भविष्य आंकने का एकमात्र पैमाना दिखने लगी। दोनों लोगों के बीच ऐसे मुद्दे ले जाने लगे और उसे इस तरह पेश करने लगे की लोगों को लगा कि यह मुद्दा हल होना ज़रूरी है, वर्ना कल को प्रलय भी आ सकता है!!! फिर वे उसी मुद्दे पर लोगों को आधे रास्ते छोड़ने लगे, जिससे लोग बीच रास्ते में किसी पेड़ पर लटके नजर आने लगे। बीच रास्ते में पेड़ पर लटके लोगों को सब अपनी अपनी तरफ मोड़ने लगे।

राजनीतिक दलों ने सत्ता के लिए या सत्ता में भागीदारी के लिए उन मुद्दों को जीवंत बनाए रखा या कभी कभी किसी छिटपुटिये विषय को बड़ा मुद्दा बना कर रखा, जिससे उनके मकसद पूरे हो। राजनीति में सब जायज है ऐसा लोग मानने भी लगे! अब तो पत्रकारिता में भी सब कुछ जायज होने लगा। वहां पर भी यही शैली दिखी। पूरा दिन टीवी देखने वालों ने जब सुबह टीवी देखा तो उन्हें लगा कि देश की असली समस्या तो बालों की रुसी है!!! जब दुनिया में कुछ हो रहा होता तो हमारा मीडिया हर दोपहर सास-बहू में उलझा रहता! जब देश में कहीं कुछ हो रहा होता, तब हमारा मीडिया दिखा रहा होता कि शाहरुख, अक्षय, केटरीना या करीना कौन से शैम्पू से बाल साफ करते हैं! कभी कभार तो देखा गया कि पूरा दिन अंधश्रद्धा पर शो करने वाला मीडिया आधी रात को यंत्र बेच लेता!!! कोई धर्मगुरु विवादित काम करता तो वे उनके पीछे पड़ते, लेकिन सुबह उसी मीडिया को उनके शो दिखाए बिना नींद नहीं उड़ती!!!

दोनों ने अपने मनपसंद मुद्दों को च्यूइंगम की तरह खींचे रखा। दोनों ने विषय को मुद्दा बनाया और मुद्दे को समस्या। वही दूसरी तरफ किसी समस्या को मुद्दा बना दिया और मुद्दे को विषय। दोनों खुद को देश की आवाज बताने से पीछे नहीं हटे। शायद इसलिए कि कई पत्रकार नेता बन गए और कई नेता खुद को पत्रकार बताते भी नजर आए। शायद यह भी हो सकता है कि पत्रकारिता विशेषज्ञों का पेशा माना जाता है और नेतागिरी में उतना विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है! इसीके चलते शायद नेताओं ने सोचा कि पत्रकारिता का स्टीकर लगाना ठीक होगा, जिससे खुद को विशेषज्ञ बताया जा सके। वहीं पत्रकारों ने सोचा होगा कि केवल विशेषज्ञ बन जाने से हाथ से खाना पड़ेगा, चमच-कांटा या छुरी के साथ खाने के लिए नेतागिरी करने की ज़रूरत आन पड़ी होगी! खैर, ये तो मजाकिया लहेजा है। पता नहीं कि ये सच था या नहीं।
लेकिन दोनों के बीच अजीब सा रिश्ता रहा, अजीब सा साम्य रहा। ये भी सर्वविदित ही है कि दोनों को एक दूसरे के बिना नहीं चल सकता और इन दोनों के बिना देश को नहीं चल सकता!!! हर राजनीतिक दल का अपना अपना एजेंडा रहा, अपनी अपनी शैली रही। मीडिया में भी ऐसा ही दिखा। वैसे आजकल यह एजेंडा लफ्ज़ संदेहात्मक तरीके से देखा जाता है। लेकिन एजेंडा तो हर विषय में आगे बढ़ने का मूल है। अब वोह एजेंडा कुछ ऐसा हो जो लोगों को नागवार गुजरे, तो फिर उस दल या नेता या चैनल को लोग कोसने भी लगे। लेकिन मीडिया और दल... इन दोनों ने खुद को राष्ट्र के प्रति समर्पित बताने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। जैसे सभी मीडिया हाउस खुद को देश का नं. 1 चैनल बताते रहे, वैसे सभी दल खुद को देश का श्रेष्ठ विकल्प गिनाते रहे! समझ नहीं आता कि सभी श्रेष्ठ है तो फिर सर्वश्रेष्ठ कौन होगा!!! और इसी कन्फ्यूजन में लोग हमेशा फंसते रहे।

फिर वो दौर आया जब सभी राजनीतिक दलों के पास अपना अपना एक जनसमर्थन स्थापित हो गया। ठीक वैसे ही सभी चैनलों के पास अपना अपना एक स्थापित दर्शकगण है। राजनीतिक दल अलग अलग तरीके के हैं और उसीके आधार पर उनके पास अपना अपना जनसमर्थन है। वैसे उन दलों के पास जो जनसमर्थन है वो जाति के आधार पर है। मीडिया में ऐसा प्रस्थापित दर्शकगण हो तो इसके बारे में मुझे पता नहीं है। लेकिन राजनीति की तरह मीडिया में भी, हर चैनल के पास अपने अपने स्थापित दर्शकगण ज़रूर है।

स्थापित गण होने के बाद राजनीति दूसरे गणों को अपनी ओर खींचने में लग गई। उन्हें पता था कि उनके पास जो स्थायी जनसमर्थन है, उसके अलावा उन्हें अन्य गणों से छिटपुट समर्थन मिल जाए तो फिर उनकी चल पड़ेगी। लिहाजा वे इसी रणनीति पर आगे बढ़े। मीडिया भी इसी कार्यशैली से चलता नजर आया। पता नहीं कि कौन किसकी शैली कॉपी-पेस्ट कर रहा था। मीडिया ने भी अपने अपने स्थापित दर्शकगण बना लिए। दर्शकगण स्थापित करने के लिए उन्होंने कौन शी शैली अपनायी थी वो कहने की शायद आवश्यकता नहीं है। क्योंकि ये सर्वविदित है। किंतु दर्शकगण स्थापित होने के बाद वे दूसरे गणों से छिटपुट दर्शक जुटाकर अपना कुनबा बढ़ाने की कार्यशैली पर आगे बढ़ते नजर आए। इसके लिए उन्होंने अपने ज्ञान, अपने विश्लेषण, अपनी सनसनी इन सभी का भरपूर इस्तेमाल किया था।

वैसे मीडिया की डिजिटल मुहिम को शायद राजनीतिक दलों ने कॉपी-पेस्ट किया होगा। क्योंकि किसी मसले को सनसनीखेज बनाकर पेश करने की शैली भले मीडिया ने राजनीति से उधार ली हो, लेकिन उसे डिजिटल तरीके से प्रस्तुत करके दर्शकों के दिमाग में घुस जाने की शैली तो यकीनन मीडिया से राजनीति ने ही उधार ली ऐसा कहा जा सकता है। क्योंकि प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे दो तबके थे। लेकिन राजनीतिक दल शायद उस प्रिंट मीडिया की तरह रसहीन ही थे, लेकिन फिर तो राजनीतिक दल भी इलेक्ट्रॉनिक होने लगे। पता नहीं उन्होंने देश को कितना डिजिटल बनाया, लेकिन मीडिया और पॉलिटिकल पार्टी, ये दोनों निश्चित रूप से डिजिटल बन गए।
पता नहीं कि हम आम नागरिकों ने तकनीक का कितना सही इस्तेमाल किया है, मुझे नहीं पता कि हमने इसे कैसे अपने में ढाला है। लेकिन मीडिया और राजनीतिक दल इन दोनों ने तकनीक का सफल इस्तेमाल किया ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकता है। शायद इसलिए कि उन्हें अपने अपने तथाकथित फर्ज या तथाकथित सेवा को डिजिटल बनाकर लोगों के दिमाग में घुसना था।

वैसे राजनीतिक दलों की एक शैली को मीडिया ने बहुत देर से अपनाया। पता नहीं कि ये राजनीतिक दलों का अपमान था या मीडिया को देर से समझ आया था। लेकिन राजनीतिक दलों में जो चीज़ दशकों से देखने के लिए मिलती थी, वो चीज़ मीडिया में बहुत लंबे अरसे बाद देखने के लिए मिली। राजनीति में एक दूसरे के विरोधी दलों को कोसना, उन्हें नीचा दिखाना, प्रतिपक्ष को या उनके नेताओं पर मनगढ़ंत आरोप लगाना या फिर कभी कभी सत्य आधारित आरोप लगाना, अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए दूसरे को भ्रष्ट बताना... इन सब विशिष्ट गुणों को मीडिया ने काफी देर से अपनाया। अब जाकर मीडिया में प्रतिस्पर्धी चैनल, उसके कर्मी, पत्रकार या संपादक पर नेतागिरी की तरह ही आरोप, प्रत्यारोप, एक दूसरे को नीचा या भ्रष्ट दिखाना जैसी चीजें चल रही है। मीडिया ने यही एक चीज़ देर से सीखी। या तो फिर देर से उजागर हुई होगी।

वैसे कहा जाता है कि कोई गरीब चुनाव नहीं लड़ सकता। वैसे तो कोई गरीब अपना न्यूज़ चैनल भी नहीं खोल सकता!!! दोनों के लिए संपत्ति का होना आवश्यक है। कहते हैं कि राजनीतिक पार्टी तो वही लोग बना सकते हैं जिनके पास पैसे और पहुंच दोनों हो। मैंने नहीं सुना कि जैसे कोई भी आदमी लघुउद्योग आसानी से शुरू कर सकते हैं, उतनी आसानी से मीडिया हाउस खोला जा सकता हो!!! वैसे दोनों काफी किस्मतवाले भी रहे की उनके इर्द-गिर्द कॉर्पोरेट का मेला लगा रहा। या फिर दोनों कॉर्पोरेट के इर्द-गिर्द लगे रहे। कई बार राजनीतिक पार्टियों को किसी विशेष से विशेष अनुदान मिलने के विवाद हुए या फिर विदेश से अनुदान मिलने की बातें हुई। मीडिया के बारे में भी यही हुआ। कभी कभी मीडिया ने विशेष से विशेष अनुदान मांगा तो कभी सामने से यह प्रस्ताव आते रहे। काफी कुछ बातें हुई और सब चलता गया।

वैसे, मीडिया हाउस कॉर्पोरेट वाले खरीदने लगे हैं। राजनीतिक दलों में ये बात नहीं सुनी गई। कृपया आप ये मत कह दीजिएगा कि पार्टियों को भी खरीदा जाता है। मैं तो आधिकारिक सत्यता की बात कर रहा हूं। अच्छी चीज़ तो यह है कि राजनीतिक दल तथा मीडिया, दोनों के अपने अपने दावे हैं कि वे आम लोगों के हक़ में हैं, समाज के संदर्भ में हैं, मजदूर-किसान-गरीब-छात्र आदि आदि के हक़ में काम करते हैं। खैर, यदि ऐसा है तो अच्छा ही है। क्योंकि मीडिया हाउस खोलकर या पार्टी बनाकर आप यह तो नहीं कह सकते कि हम अवैध नौकरियों के हक़ में है। वैसे अजीब है कि नेता अपने भाषणों में गरीबी का ज़िक्र अवश्य करते हैं और मीडिया अपने रिपोर्ट में गरीबी का ज़िक्र हमेशा नहीं करता!!!
मीडिया और राजनीति, दोनों में कभी कभार, ऐसी इक्का-दुक्का चीजें या शख्सियतें भी देखने के लिए मिली, जिन्होंने मील के पत्थर रखे या फिर जिन पत्थरों को लोगों से छुपाकर गाड़ दिया गया था उन्हें उखाड़ कर सामने रखा। इन इक्का-दुक्का शख्सियतों ने, जोकि मीडिया व राजनीति दोनों में थे, अपनी परवाह न करते हुए कई मौकों पर राष्ट्र के प्रति या समाज के प्रति समर्पित होकर कार्य किया। यही वजह है कि शायद इन इक्का-दुक्का शख्सियतों की वजह से ही उन्हें आज सम्मान हासिल है। फिर वो चाहे जितना भी हो। कम हो या कुछ ज्यादा हो।

(इंडिया इनसाइड, 12 जुलाई 2016, एम वाला)