सीधे मुद्दे पर आते
हैं और बात करते हैं मनोरंजन के खजाने और शरीर सौष्ठव वाले क्षेत्र – खेल की। भारत में कई
खेल खेले जाते हैं। इसमें से वर्तमान में क्रिकेट ऐसा खेल है, जिसके खिलाड़ियों की प्रशंसक पूजा करते हैं। कई बार तो इन्हें
भगवान के अवतार में भी देखा जाता है। धार्मिक भावनाएँ आहत होती होगी, किंतु नकली भगवान के सामने ज़्यादातर तो असली भगवान को हरा ही
दिया जाता है।
जबकि कई खेल ऐसे भी
हैं, जिन्हें न तो लोग तवज्जो देते हैं और ना ही
सरकार। जब इन खेलों के खिलाड़ियों को अपने सम्मान बेचने पड़ रहे हो, या राष्ट्र का गौरव बढ़ाने वाले इन खिलाड़ियों को सड़कों पर
आकर कोई काम करने पड़े हो, तभी इन खेलों की तरफ़ ध्यान जाता है।
यहाँ हम बात करते हैं
उस खेल की, जो मनोरंजन का बादशाह बना, किंतु पर्दे की पीछे की राजनीति और माथापच्ची ने इसे विवादित
भी बनाया।
आईपीएल की माथापच्ची
और बीसीसीआई की राजनीति
आईपीएल, यानी कि इंडियन प्रीमियर लीग। भारत में क्रिकेट के पीछे लोग
इस कदर दीवाने हैं कि उनकी टीम हारने या जीतने भर से लोग मर जाते हैं! कोई खुशी में, कोई गम में! ये कोई मजाक नहीं किंतु होने वाली घटनाएँ हैं। क्रिकेट को यहाँ पूजा जाता है और
क्रिकेटरों की चांदी ही चांदी बनी रहती है।
इस क्रिकेट का छोटा
संस्करण वाला अवतार आईपीएल उन प्रशंसकों को पागलपन की सीमाएँ पार करवा रहा है। 20-20 ओवर का ये खेल दीवानगी
की उस हद को भी पार कर जाता है, जहाँ धर्म और राष्ट्र के बड़े मायने रहे हैं।
2009 की आईपीएल प्रतियोगिता भारत के बदले साउथ अफ़्रीका में खेली गई थी। इस प्रतियोगिता
को भारत के बाहर ले जाने का विवाद, या यूँ कहे कि राजनीतिक विवाद बहुत लंबा भी
चला। जब ये भनक लगी कि ये प्रतियोगिता भारत के बाहर साउथ अफ़्रीका में खेली जा सकती
है, तब राजनीतिक युद्ध छिड़ गया।
भारत के दो मुख्य राजनीतिक
दल कांग्रेस और भाजपा इस विवाद को लेकर सार्वजनिक तौर पर एक दूसरे के सामने आ चुके
थे। आईपीएल किसके कारण भारत से बाहर गया, उसके लिए ज़िम्मेदार कौन था उस मुद्दे के
ऊपर भी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे। भाजपा ने कांग्रेस और कांग्रेस शासित राज्यों
को दोषी बताया। पलट वार करते हुए कांग्रेस ने कहा कि आईपीएल कुछ लोगों के लिए पैसे
बनाने का एक जरिया है, वो राष्ट्रीय अस्मिता का मामला नहीं है और
इसलिए ये प्रतियोगिता भारत में खेली जाए या भारत के बाहर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
वैसे यह बात सच है
कि क्रिकेट और उसका यह संस्करण पैसे बनाने का जरिया है, राष्ट्रीय अस्मिता का मामला नहीं है। किंतु दूसरी तरफ़ सच यह
भी था कि इस मसले पर दोनों दलों के हाथ काले थे और दोनों की नियत पर सवालिया निशान
उठते रहे थे। राजनीति कितनी गंदी तरह से खेली गई वो तो शायद जानना आसान नहीं होगा, लेकिन इसका खामियाजा देश को ज़रूर भुगतना पड़ा था।
आईपीएल के उस वक्त
के मुखिया ललित मोदी भाजपा के नजदीकी माने जाते थे और उन्होंने राजस्थान के 2008 के विधानसभा चुनाव
में भाजपा की वसुंधरा राजे के लिए सार्वजनिक प्रचार-प्रसार किया था। माना जाता है कि
वसुंधरा सरकार में ललित मोदी किसी भी ओहदे पर ना होते हुए भी काफ़ी ताकतवर शख्सियत
बन चुके थे। संभावना जताई गई कि ललित मोदी को राजनीतिक दंड देने के लिए कांग्रेस शासित
राज्यों ने आईपीएल को सुरक्षा देने के लिए अपनी असमर्थता को आगे कर दिया था।
और इस तर्क से इनकार
भी नहीं किया जा सकता। बीसीसीआई के लिए आईपीएल मसले के ऊपर भारत में जिस प्रकार की
राजनीति खेली गई उसका ये एक छोटा सा हिस्सा ही है।
ललित मोदी एक सेलिब्रिटी
बन चुके थे। आईपीएल से ही वो देश में चर्चित चेहरा बने। हालाँकि भारतीय राजनीति के
भीतर तो वो एक छोटी सी मछली ही माने जाएँगे। ये और बात है कि विदेश गमन करने के बाद
यह मछली सभी के गले में कांटा बन कर अटक गई! आईपीएल की ये राजनीति ललित मोदी जैसे शख्स के माध्यम से बड़े बड़े मगरमच्छों ने
खेली होगी ये भी एक मज़बूत संभावना है। और इन तमाम राजनीति या आरोप-प्रत्यारोप के पीछे
एक ही मंजिल हो सकती थी और वो थी - दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई पर नियंत्रण।
बीसीसीआई के ऊपर उस
दौर में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री और कद्दावर राजनेता शरद पवार की सत्ता थी। वैसे
तो शरद पवार तत्कालीन कांग्रेस शासित सरकार यूपीए का हिस्सा थे और मूल रूप से एक कांग्रेसी
ही थे। किंतु कांग्रेस की नयी पीढ़ी नहीं चाहती थी कि शरद पवार का दिल्ली में कद बढ़
जाए और इसीलिए उनका कद छोटा करने के लिए कई बार भीतरी राजनीति खेली जाती रही।
कांग्रेस की ये पवार
विरोधी नीति 2004 में बीसीसीआई प्रमुख के चुनावों में भी देखी गई थी। 2004 के दौरान डालमिया
बीसीसीआई के प्रमुख थे। उस वक्त बीसीसीआई की सत्ता के लिए जब शरद पवार मैदान में उतरे
तो जगमोहन डालमिया भी उनका साथ दे रहे थे। डालमिया सीधे तौर पर किसी राजनीतिक दल के
साथ जुड़े हुए नहीं थे, किंतु जैसे हर व्यापारी सत्ता पक्ष की तरफ़
ही होता है, वैसे ही इनका रुख़ भी कांग्रेस के पक्ष में
दिखता था। डालमिया के इस कांग्रेस दृष्टिकोण के कारण ही बंगाल में लेफ्ट पार्टी उनसे
नाराज रहा करती थी।
2004 के इस खेल चुनाव में डालमिया ने कांग्रेस के कहने पर या कथित तौर पर उनकी मदद
से शरद पवार के सामने रणबीर सिंह महेंद्र को मदद कर दी। वैसे लंबे अरसे से राजनीति
में रहे शरद पवार को जगमोहन डालमिया के संभावित धोखे की भनक तो थी, लेकिन सीधे तौर पर वो इतनी बड़ी पल्टी मार देंगे, वह उम्मीद शायद नहीं होगी। शरद पवार वो चुनाव 1 मत से हारे थे...
और वो 1 मत जगमोहन डालमिया का था। उस वक्त के प्रमुख डालमिया ने अपना कास्टींग वोट रणबीर
महेंद्र को दे दिया और शरद पवार हारे।
हालाँकि मजे हुए राजनेता
पवार ने मैदान नहीं छोड़ा और कुछ वक्त बाद वो फिर से मैदान में कूदे। इस बार वो पूरी
तैयारी के साथ उतरे थे। नतीजा यह आया कि पवार चुनाव जीत गए और उसके बाद बीसीसीआई पर
शरद पवार का राज चलने लगा।
हालाँकि बीसीसीआई की
जो राजनीति है वो भारत की राष्ट्रीय राजनीति से कुछ अलग प्रकार की प्रकृति की राजनीति
है। राष्ट्रीय राजनीति में शरद पवार और कांग्रेस एक पलड़े में थे और सामने भाजपा थी।
लेकिन खेल की इस राजनीति में पवार और भाजपा साथ दिखे और सामने कांग्रेस थी। भाजपा के
अरुण जेटली Delhi & District Cricket
Association के प्रमुख थे और वो पवार के समर्थक माने जाते थे। शरद पवार ने
आईपीएल की एग्जीक्यूटिव कमेटी में अरुण जेटली को जगह दी हुई थी। आईपीएल के चेयरमैन
ललित मोदी भी भाजपा के नजदीकी आदमी माने जाते थे और पवार के खास भी माने जाते थे।
लेकिन ये राजनीति है, जहाँ किसी से किसी का रिश्ता खुल कर लोगों के सामने नहीं आता
और कोई रिश्ता उतना लंबा चलता भी नहीं। जैसे कि कांग्रेस और पवार सार्वजनिक तौर पर
एक ही दल के रहे थे, लेकिन खेल की राजनीति में और भीतरी तौर पर
कांग्रेस ने ख़याल रखा था कि पवार का कद ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा नहीं होना चाहिए। शरद
पवार का कद छोटा रखने के लिए जगमोहन डालमिया का उपयोग भी किया गया। लेकिन जब पवार ने
डालमिया का पत्ता साफ़ कर दिया तो फिर नये दूल्हे की तलाश भी शुरू कर दी गई।
इन सारी राजनीतिक घटनाओं
के बीच तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव भी बीसीसीआई की कुर्सी के लिए मैदान में
कुदे। लालू प्रसाद यादव Bihar Cricket
Association के साथ जुड़े हुए थे। शरद पवार ने लालू प्रसाद का पत्ता साफ़
करने के लिए बिहार क्रिकेट एसोसिएशन को ही अयोग्य घोषित कर दिया! शरद पवार ने अपने दूसरे खेल के जरिए बीसीसीआई का संविधान ही बदल दिया! पवार ने ऐसे नियम बना दिए, जिसमें प्रमुख के चुनाव ही रद्द कर दिए गए
और अब नियमों के तहत बिदा होने वाला प्रमुख ही नये प्रमुख का चुनाव कर लेता था!
कांग्रेस कुछ करे इससे
पहले शरद पवार अपना गेम खेल चुके थे और अब गेंद कांग्रेस के पाले में थी। इस दौरान
आईपीएल के मसले पर कांग्रेस ने पवार का कद कम करने के लिए कई सारे कथित खेल खेले। आखिर
में कांग्रेस शासित राज्यों ने जब आईपीएल को सुरक्षा देने में समस्याएँ ज़ाहिर की तो
इसे भी राजनीति का हिस्सा माना गया। और ऐसा मानने के पीछे भी ठोस तर्क थे। भारत के
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तो आईपीएल को नये सिरे से आयोजित करने की सलाह तक दे दी।
हालाँकि 2008 का मुंबई आतंकी हमला और आतंकवाद की समस्या, ये दो चीजें सरकार के पक्ष में जा रही थीं।
किंतु पवार ज़्यादा
स्मार्ट निकले और उन्होंने आईपीएल को भारत से बाहर ले जाने का फ़ैसला ले लिया! भारतीय कांग्रेस को कल्पना नहीं थी कि बीसीसीआई ऐसा फ़ैसला भी ले सकता है।
इस मसले पर लंबा लिखा
जा सकता है। इसकी परतें बहुत गहरी हैं, ढेर सारी जानकारियाँ मौजूद हैं। थोड़ी बहुत
जानकारियों को आधार बना लें तब भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि बीसीसीआई में कुर्सी
के कैसे खेल खेले जाते हैं और सत्ता-पैसा ही लक्ष्य है। बीसीसीआई में आईपीएल के साथ
साथ ग्लैमर की विवादित दुनिया ने भी अपनी जगह ले ली है। बीसीसीआई की सत्ता के लिए कई
सारे राजनेता मैदान में हैं। एनकेपी साल्वे, माधवराव सिंधिया या शरद पवार जैसे राजनेता
सफल हुऐ हैं, जबकि लालू प्रसाद जैसे नेता पिछले 10 सालों से इस कुर्सी
के लिए भीतरी राजनीति खेलने के बावजूद बाहर ही है।
हालाँकि इस राजनीति
से आखिर तो क्रिकेट को जुनून की हद तक चाहने वाले क्रिकेट प्रेमियों को और देश को ही
नुकसान हुआ था। 2009 का दौर वैश्विक मंदी का दौर था और उस दौर में भारत में जो आईपीएल खेली जाने वाली
थी, उससे कम से कम 2 महीने तक कई लोगों को रोजगार मिलने वाला था। किंतु प्रतियोगिता भारत के बाहर चले
जाने से यह हो नहीं पाया। स्टेडियम में खेल देखने आ रहे लोग मनोरंजन के लिए, खान-पान के लिए जो चीजें ख़रीदते हैं, उसका व्यवसाय भी बड़ा है। इन सिज़नेबल व्यवसाय वालों को ये धंधा
भी गवाना पड़ा। खेल के साथ अनगिनत लोग, स्टाफ और सुरक्षा के लिए अनगिनत निजी कर्मी
चाहिए होते हैं। उन्हें भी रोजगार का मौका गँवाना पड़ा। आईपीएल के विज्ञापनों से लेकर
ट्रांसपोर्टेशन के मुनाफ़े के ऊपर भी बुरा असर हुआ। देश की भीतरी हवाई सेवाओं का मुनाफ़ा, मीडिया का मुनाफ़ा, होटेल्स या गेस्ट हाउस का मुनाफ़ा गया वह
अलग था।
हालाँकि इस घाटे को
किसी राष्ट्रीय समस्या से या ऐसे सार्वजनिक मसले से जोड़कर देखा नहीं जा सकता ये भी एक सच्चाई है। दूसरी सच्चाई यह भी रही कि साउथ
अफ़्रीका को इस प्रतियोगिता से नयी पहचान मिली और ढेर सारा मुनाफ़ा भी। साउथ अफ़्रीका
ने इस दौरान अपने विजा नियमों में छूट दे दी और इससे भारतीय मूल के अनेक लोग वहाँ खींचे
चले गए। भारत में ये दौर छुट्टियों का दौर था इसलिए वहाँ टूरिज्म सेक्टर वालों को चांदी
ही चांदी थी।
एक अनुमान के मुताबिक़
भारत की कथित रूप से राष्ट्रीय राजनीति और खेल की राजनीति के चलते जो हुआ, उससे भारत को कम से कम 10,000 करोड़ का नुकसान हुआ था। उसी भारत में, जहाँ 500 करोड़ की भी विदेशी सहाय आती थी या देश को दी जाती थी, तब उसका श्रेय लेने के लिए भी कतारें लग जाती थीं।
उसके 1 साल बाद... यानी 2010 में भी आईपीएल खेली
गई। इस बार यह प्रतियोगिता भारत में ही खेली गई थी। किंतु इस बार बाजी पलट चुकी थी।
आईपीएल की ये प्रतियोगिता चल ही रही थी और कई सारे विवाद उठे, कई सारे घोटाले बाहर आए और बड़े बड़े लोग फँसे।
शशि थरूर का पत्ता
साफ़ हुआ और इस प्रतियोगिता की फाइनल ख़त्म हो इससे पहले तो आईपीएल के सर्वसत्ताधीश
माने जाने वाले ललित मोदी का विकेट गिर गया!!! आईपीएल में करोड़ों रुपयों की हेराफेरी होने का मामला सामने आया... लोगों ने खुद
को छला हुआ महसूस किया... स्पॉट फ़िक्सिंग ने जलती आग में घी डाला। वैसे इस ‘खेल के असली खिलाड़ियों’ को पता था कि इन चीजों से और लोगों से कैसे निपटा जाएँ!
हालाँकि उस देश के
खेल प्रेमी ये समझ नहीं पाए कि दुनिया का सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड खुद को एक ट्रस्ट
कहता है तो फिर हर खेल के दौरान स्टेडियम के अंदर उन्हें पानी का एक ग्लास भी इतना
महंगा क्यों मिलता है? वो खेल प्रेमी शायद ये समझने के लिए नैतिक
रूप से तैयार ही नहीं थे कि उनके खेल के प्रति जुनून कुछ लोगों के लिए पैसे बनान का
जरियाभर है।
उसके बाद भी ये राजनीति
और उसके विवाद नहीं थमे। ललित मोदी भारत को छोड़ लंदन चले गए। राजनीतिक दलों ने एक
दूसरे के ऊपर कीचड़ उछाला। सत्ता में जो जो आए उन्होंने दावा किया कि वे ललित मोदी
को भारत लाएँगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। ललित मोदी लंदन में
बैठे बैठे भारत की किरकिरी करते रहे।
मोदी सरकार के दौरान
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की मानवता की सहाय पर तो पूरा ललित गेट काँड ही हो गया! भगोड़ा घोषित होने के बाद भी ललित मोदी Rajasthan
Cricket Association के अध्यक्ष बन बैठे!!! दूसरी तरफ़ आईपीएल
में स्पॉट फ़िक्सिंग काँड का भंडाफोड़ हुआ। कई नामी क्रिकेटर इसकी चपेट में आए। बीसीसीआई
या सरकार, किसीने प्रभावी कदम नहीं उठाए।
हर बार की तरह अदालत
ने ही गंदगी को साफ़ करने के प्रयत्न किए। श्रीनिवासन जैसे बड़े बड़े नामों पर अदालत
की गाज गिरी। राजस्थान रॉयल्स तथा चेन्नई सुपर किंग्स जैसी टीमों पर प्रतिबंध लगा!!! और फिर इन दोनों प्रतिबंधित टीमों के खिलाड़ी दूसरी टीमों से खेलने भी लगे! आईपीएल से जुड़े दूसरे महाशय विजय माल्या भी आराम से विदेश गमन कर गए!
इतनी माथापच्ची के
बीच भी आईपीएल के प्रति लोगों का आकर्षण कम नहीं हुआ। क्रिकेट की गंदगी खुली हो चुकी
थी, किंतु लोगों ने तो अपनी ओर से कोई कोशिशें नहीं की! हर दफा होता है वैसे इक्का-दुक्का खेलप्रेमी इस गंदगी को दूर करने में जुटे। आम
क्रिकेट प्रेमियों का इन लोगों को साथ मिला हो ऐसी घटना दर्ज नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट
ने लोढ़ा समिति के जरिए इस गंदगी को साफ़ करने के भरचक प्रयास किए। लेकिन देश को आगे
ले जाने का सर्वकालीन प्रचलित दावा करने वाले नेता आज भी कोर्ट की सिफ़ारिशें कैसे
लागू ना हो पाए उसीका तोड़ ढूंढने में लगे हैं।
बीसीसीआई पर लोढ़ा
समिति के सुझाव, उसे लागू करने का सुप्रीम
आदेश और बाद में बीसीसीआई तथा नेताओं की नौटंकी
क्रिकेट की राजनीति
राष्ट्रीय राजनीति से बिल्कुल उलट रही है। स्पॉट फ़िक्सिंग जैसे मामले को लेकर जब किसी
में कोई संजीदगी नहीं दिखी, तब इंडियन प्रीमियर लीग, यानी आईपीएल में, स्पॉट फ़िक्सिंग मामले की तह तक जाकर दोषियों
के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बनाई। कुछ इक्का-दुक्का खेल प्रेमियों
की अर्जियों के चलते ये संभव हो पाया।
स्पॉट फ़िक्सिंग का
ये पूरा मामला आईपीएल सीज़न 6 से जुड़ा हुआ था, जब दिल्ली पुलिस ने मुंबई से पूर्व टेस्ट
क्रिकेटर एस. श्रीसंत समेत राजस्थान रॉयल्स के 3 खिलाड़ियों को गिरफ़्तार किया। पुलिस के मुताबिक़ 2013 में मुंबई में राजस्थान
रॉयल्स बनाम मुंबई इंडियंस, 5 मई को जयपुर में हुए राजस्थान रॉयल्स बनाम पुणे वॉरियर्स, और 9 मई को मोहाली में हुए राजस्थान रॉयल्स बनाम किंग्स इलेवन पंजाब के बीच मैचों में
स्पॉट फ़िक्सिंग हुई थी।
उस वक्त इस मामले में
3 खिलाड़ियों और 11 सटोरियों को गिरफ़्तार
किया गया। धीरे धीरे इस मामले में देश में क्रिकेट को चलाने वाले लोग भी जुड़ने लगे, जब पूर्व बीसीसीआई अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ
मयप्पन की गिरफ़्तारी हुई। फ़िल्म अभिनेता विंदू दारा सिंह सट्टेबाज़ों के साथ रिश्ते
के आरोप में मुंबई में गिरफ़्तार हुए। बाद में इस मामले में दिल्ली पुलिस की चार्जशीट
में कुल 42 लोग आरोपी बने, जिनमें से 6 फ़रार थे। 23 मई को मामले में सुनवाई
पूरी हो चुकी है। क्रिकेट प्रशासकों और खिलाड़ियों के अलावा इस मामले में अंडरवर्ल्ड
सरगना दाऊद इब्राहिम और छोटा शकील भी आरोपी थे।
बीसीसीआई की बैठक में
फ्रेंचाइज़ी की जाँच के लिए दो रिटायर्ड जजों की कमेटी बनाई गई। बीसीसीआई की बनाई जजों
की कमेटी ने राजस्थान रॉयल्स और चेन्नई सुपर किंग्स को क्लीन चिट दे दी। बिहार क्रिकेट
संघ के अध्यक्ष आदित्य वर्मा ने बीसीसीआई के ख़िलाफ़ बॉम्बे हाईकोर्ट में पीआईएल दी।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने फ़िक्सिंग मामले की जाँच के लिए Mudgal Committee बनाई। मुद्गल कमेटी ने जाँच करके अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी। सुप्रीम
कोर्ट ने श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन और राज कुंद्रा को आईपीएल में सट्टेबाज़ी
का दोषी माना।
सुप्रीम कोर्ट ने आईपीएल
मामले में अहम फ़ैसला सुनाते हुए कहा, “भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के निर्वासित अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन
'हितों के टकराव' की स्थिति में रहते हुए बीसीसीआई अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़
सकते।”
बीसीसीआई को वार्षिक
चुनाव कराने के लिए छह सप्ताह का समय देते हुए जस्टिस टीएस ठाकुर और जस्टिस फकीर मोहम्मद
इब्राहिम कलीफुल्ला की पीठ ने अपना फ़ैसला सुनाते हुए कहा, “एन. श्रीनिवासन सहित ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसका बीसीसीआई के किसी आयोजन में वाणिज्यिक
हित हो वह बीसीसीआई में किसी भी पद के लिए चुनाव लड़ने की पात्रता नहीं रखता।”
कोर्ट ने अपने 230 पन्नों के फ़ैसले
में कहा, “हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि बीसीसीआई में चुनाव लड़ने की अयोग्यता उन लोगों
पर लागू होगी जिनके बीसीसीआई के किसी आयोजन में किसी तरह के वाणिज्यिक हित हों, और वह तब तक चुनाव नहीं लड़ सकता जब तक उसके बीसीसीआई में वाणिज्यिक
हित हों या बीसीसीआई की समिति उसे उचित सज़ा न दे दे।”
उस वक्त श्रीनिवासन
के पास इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की फ्रेंचाइज़ी चेन्नई सुपर किंग्स का मालिकाना
हक़ था। कोर्ट ने कहा, “अब समय आ गया है जब श्रीनिवासन को अध्यक्ष पद या फिर चेन्नई सुपर किंग्स में से
किसी एक को चुनना होगा।” हालाँकि कोर्ट ने श्रीनिवासन को सट्टेबाजी
और स्पॉट फ़िक्सिंग मामले को छिपाने के आरोप से बरी कर दिया।
कोर्ट ने श्रीनिवासन
के दामाद और चेन्नई सुपर किंग्स के अधिकारी गुरुनाथ मयप्पन और राजस्थान रॉयल्स के सह-मालिक
राज कुंद्रा को सट्टेबाजी का दोषी करार दिया और कहा कि सिर्फ उन्हें ही दंडित नहीं
किया जाएगा, बल्कि उनके ख़िलाफ़ भी फ़ैसला सुनाया जाएगा, जिन फ्रेंचाइज़ी का वे प्रतिनिधित्व करते हैं। कोर्ट ने मयप्पन
और कुंद्रा को 'टीम अधिकारी' कहा।
कोर्ट ने अन्य मामलों
के अतिरिक्त मयप्पन और कुंद्रा की सज़ा तय करने के लिए पूर्व चीफ़ जस्टिस आरएम लोढ़ा
की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय समिति गठित की। जस्टिस आरवी रावींद्रन और जस्टिस अशोक
भान समिति के दो अन्य सदस्य थे। समिति गठित करने के अपने फ़ैसले पर कोर्ट ने कहा, “इससे न सिर्फ पक्षपात या किसी तरह के प्रभाव में फ़ैसला करने की शंका ख़त्म हो
जाती है, बल्कि पूरी प्रक्रिया को यह पारदर्शी बनाती
है, ख़ास कर तब जब हम बेहद ईमानदार और उच्च न्यायिक मानदंडों वाले
व्यक्तियों को समिति में शामिल करते हैं।”
कोर्ट ने कहा कि मयप्पन
और कुंद्रा की सज़ा तय करते हुए समिति सभी लोगों को नोटिस जारी करेगी। इसके अलावा यह
समिति बीसीसीआई के नियमों की समीक्षा करेगी और बीसीसीआई चुनाव में खड़े होने के लिए
प्रत्याशी की पात्रता और उपयुक्तता से संबंधित नियमों में बदलाव के सुझाव भी देगी।
कोर्ट ने समिति से बीसीसीआई अधिकारी सुंदर रमन की इस मामले में सभी गतिविधियों की पड़ताल
करने और ज़रूरत पड़ने पर मुद्गल समिति की सहायता के लिए गठित जाँच दल की मदद लेने के
लिए भी कहा।
कोर्ट ने श्रीनिवासन
से बीसीसीआई से दूरी बनाए रखने का भी आदेश दिया। हालाँकि कोर्ट ने पूर्व खिलाड़ी सुनील
गावस्कर और मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम के निदेशक रवि शास्त्री के कमेंटेटर के तौर पर
सेवाएँ देने के संदर्भ में हितों के टकराव और पेशेवर हित में स्पष्ट अंतर व्यक्त किया।
सुप्रीम कोर्ट ने इसके
अलावा बीसीसीआई के उस नियम में किए गए संशोधन की भी आलोचना की, जिसके तहत बीसीसीआई के अधिकारियों को आईपीएल, चैंपियंस लीग टी-20 टूर्नामेंट और बीसीसीआई द्वारा आयोजित अन्य आयोजनों में वाणिज्यिक हित रखने की
अनुमति दी गई थी। कोर्ट ने कहा, “बीसीसीआई के नियम 6.2.4 में संशोधन कर शामिल किए गए वाक्य 'आईपीएल या चैंपियंस लीग टी-20 जैसे आयोजनों को छोड़कर' को अब से अमान्य और अप्रभावी घोषित किया जाता
है।”
गौरतलब है कि बाद में
राजस्थान रॉयल्स तथा चेन्नई सुपर किंग्स टीमों पर दो सालों के लिए प्रतिबंध लगा दिया
गया था।
बीसीसीआई के मामले
में सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार की लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशें, वहीं बीसीसीआई के ढुलमुल रवैये पर नेताओं ने साध ली चुप्पी
18 जुलाई 2016 के दिन सुपीम कोर्ट ने बीसीसीआई पर सबसे अहम फ़ैसला सुनाया। कोर्ट ने बीसीसीआई
में फेरबदल करने के लिए जस्टिस आरएम लोढ़ा की सिफ़ारिशों को मंजूरी दे दी। कोर्ट ने
आदेश दिया कि बीसीसीआई को लोढ़ा कमेटी की ज़्यादातर सिफ़ारिशों को मानना ही पड़ेगा।
कोर्ट के इस फ़ैसले
से स्पष्ट हो गया कि अब बोर्ड में कोई भी मंत्री, पद प्राप्त नहीं कर सकेगा। हालाँकि राजनेताओं पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया। इसके
अलावा किसी भी पदाधिकारी की उम्र 70 साल से ज़्यादा नहीं होगी। एक राज्य एक मत तथा एक व्यक्ति एक पद का नियम भी लागू
कर दिया गया। खिलाड़ियों का खुद का एसोसिएशन बनाना, बोर्ड में कैग का एक प्रतिनिधि नियुक्त करना जैसी कई सिफ़ारिशें लागू कर दी गईं।
हालाँकि बोर्ड को आरटीआई के दायरे में लाने के विषय को तथा सट्टाखोरी की वैधता के विषय
पर कोर्ट ने कहा कि ये मामले संसद तय करे। लोढ़ा समिति की इन सिफ़ारिशों को लागू करने
के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने बोर्ड को 6 महीने का वक्त दिया।
हालाँकि इस बीच बीसीसीआई
ने पूर्व चीफ़ जस्टीस मार्कंडेय काटजू का सहारा लिया और उन्हें कुछ अवलोकन करके आगे
क्या किया जाए, उसका एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। काटजू
ने रिपोर्ट तो तैयार कर दी, लेकिन रिपोर्ट पर एक प्रेस वार्ता भी आयोजित
कर दी। इस वार्ता में काटजू ने लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशों पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले
को लेकर अपनी राय रखी और साथ में फ़ैसला देने वाले जजों पर भी टिप्पणियाँ कर दीं। शायद
बीसीसीआई समय ख़रीदना चाहता था।
हालाँकि कुछ दिन बाद
बीसीसीआई को सख़्ती से कहा गया कि, “सिफ़ारिशें जो समयसीमा दी गई है उसी दौरान लागू होनी चाहिए, अन्यथा इसे सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति के जरिए इस गंदगी को साफ़ करने के भरचक प्रयास किए।
उधर राजनेता उस तोड़ को ढूंढते दिखे, जिससे अदालत की सिफ़ारिशों
से बचा जा सके। खेल प्रेमियों में भी इन प्रयासों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई दी।
कुछ फ़िल्मों के नाम पर लोगों का देशप्रेम उभरता रहा, चीनी चीजों के बहिष्कार या भारत माता से लेकर हर चीजों पर राष्ट्रवाद
या देशभक्ति छायी रही। लेकिन इस संवैधानिक स्वच्छता अभियान सरीखे दौर को नागरिकों का
उतना सह्योग नहीं मिला। सुप्रीम कोर्ट और लोढ़ा कमेटी ने तो अपने हिस्से का काम कर
दिया था, लेकिन नागरिक और नेता, दोनों मिलकर इस काम का काम तमाम करने के रास्ते ही चलते दिखे!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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