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Scientists - Heroes of India : क्या हमारे रक्षा वैज्ञानिकों ने देश के लिए कुछ नहीं किया था? फिर उन्हें वो स्नेह क्यों नहीं मिला जो फौजियों को मिल पाया था



[खयाल रखे कि लेख का मकसद वैज्ञानिकों के प्रति हमारा नजरिया बदलने को लेकर है। उनके निधन को यथोचित सम्मान मिले इसे लेकर है। साथ में यह खयाल भी रखे कि यहां लिखे गए आंकड़े आरटीआई को लेकर दिये गए सरकारी प्रत्युत्तर को लेकर है, जो पहले से ही पब्लिक डोमेन में हैं। इसे वैज्ञानिकों की हत्या या ऐसी नजरों से न देखे। बल्कि लेख के मूल मकसद को ध्यान में रखकर हमारे वैज्ञानिकों के जीवन तथा मृत्यु को वो ही यथोचित सम्मान प्रदान करे, जो हमारे सैनिकों को दिया जाता है।]

यह चीज़ स्पष्ट है कि हमने हमारे रक्षा वैज्ञानिकों से अन्याय ही किया है। रक्षा वैज्ञानिक का मतलब परमाणु, वैमानिकी, मिसाइल, अवकाश संबंधित वैज्ञानिक है। अजीब है कि हमारी भावनाएं फौज के साथ ही जुड़ी हैं, लेकिन उसी फौज को या समस्त देश को परमाणु शक्ति बनाने वाले वैज्ञानिक, आधुनिक हथियारों से फौज को आरक्षित करने वाली शख्सियतें या देश को आसमान की बुलंदी तक पहुंचाने वाले वैज्ञानिकों के साथ हमारी भावनाएं उतनी जुड़ी नहीं रही। होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई तथा अब्दुल कलाम जैसी शख्सियतों का शुक्रिया कि उन्होंने वैज्ञानिकों के प्रति हमारा नजरिया काफी हद तक ज़रूर बदला था। लेकिन आज भी उन वैज्ञानिकों को, उनकी प्राकृतिक या अप्राकृतिक मृत्यु तक को देश की उतनी भावनाएं नहीं मिलती, जितनी उन्हें यकीनन मिलनी चाहिए। परमाणु वैज्ञानिक या संरक्षण संबंधी वैज्ञानिक भी तो अपना समस्त जीवन इसी देश को अर्पित करते हैं। उनके साथ नाइंसाफी यह है कि उनके जीवन तथा उनके निधन के बाद भी देश उन्हें वो सम्मान प्रदान नहीं करता, जिनके वे अधिकारी हैं।

ये भी सच है कि यहां कही गई बातें नयी नहीं हैं। या यूं कह लीजिए कि पब्लिक डोमेन में हैं। मतलब कि ये दावा कतई नहीं है कि यह चीजें नयी हैं। अरसे से ये विषय आम नागरिकों के बीच चर्चा का केंद्र बनते रहे हैं। लेकिन हम जिन्हें नापसंद करते हैं उन नेताओं के दशकों पुराने इतिहास याद रख सकते हैं, जिससे आत्मसंतोष के अलावा कुछ खास हासिल भी नहीं होता। ज़रूरी है कि हम कुछ ऐसी समस्याएं भी याद रखे, जिससे बहुत कुछ हासिल ज़रूर हो सकता है।

भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों की प्राकृतिक व सामान्य मौतों से लेकर खुदकुशी तक का दुखद सिलसिला
कहा गया था कि जय जवान... जय किसान... जय विज्ञान। और खुदकुशी के मामले में तीनों महत्वपूर्ण तबके गंभीर चिंता का विषय बने हुए हैं।

परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) से मिली जानकारी बताती है कि 2009 से 2013 के दौरान 11 परमाणु कर्मियों की रहस्यमयी तरीके से मौत हुई। डिपार्टमेंट के मुताबिक, लैब और रिसर्च सेंटर्स में काम करने वाले आठ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की विस्फोट, समुद्र में डूबने या फांसी लगाने से मौत हुई। न्यूक्लीयर पॉवर कॉर्पोरेशन के दो अधिकारियों ने कथित तौर पर खुदकुशी कर ली। वहीं एक की मौत सड़क दुर्घटना में हुई थी।  हरियाणा के रहने वाले राहुल शेखावत को सूचना का अधिकार के जवाब में डिपार्टमेंट ने यह जानकारी दी थी। केंद्र सरकार ने भी माना है कि कुछ सालों में वैज्ञानिक अकाल मृत्यु मरे हैं। बार्क की तरफ से बारी-बारी इन्हें जो जवाब दिए गए, उसमें वैज्ञानिकों की मौत को हादसा या आत्महत्या बताया गया है।

आश्चर्य की बात यह है कि सरकार ने तो सदन के पटल पर ही सूचना गलत दी थी! यह बात 12 फरवरी, 2014 की है। लोकसभा में वैज्ञानिकों की रहस्यमय मौत पर सवाल पूछा गया था। उस सवाल के जवाब में राज्यमंत्री वी. स्वामीनारायण ने जो जवाब दिया वह गौर करने वाला है। उन्होंने बताया, “2009-2013 तक 9 वैज्ञानिकों की मौत विभिन्न कारणों से हुई है। लेकिन आरटीआई के जरिए 2009 से 2013 के बीच होने वाली मौत का जो आंकड़ा सितंबर 2015 में मिला है, उसके मुताबिक वैज्ञानिकों की मौत की संख्या 11 है।

ये मामले एकबार फिर चर्चा में आये जब बॉम्बे हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल कर इन सभी की जांच, विशेष जांच दल (एसआईटी) से करवाने की मांग की गई। एक आरटीआई एक्टिविस्ट चेतन कोठारी ने यह याचिका लगाई थी। कोठारी ने 2010 में डीएई में आरटीआई लगाकर यह जानकारी मांगी थी कि बीते 15 सालों में विभाग के कितने कर्मियों की असामान्य मौत हुई है। इसके जवाब में डीएई का कहना था कि 1995 से 2010 तक उसके सभी 32 केंद्रों में 197 कर्मियों के आत्महत्या करने के मामले सामने आए थे। बार्क में 2010 के दौरान ही तीन वैज्ञानिकों ने आत्महत्या की थी। कोठारी ने उसी साल इंस्टीट्यूट ऑफ मैथमेटिकल साइंस, चेन्नई और हैवी वॉटर प्लांट, बड़ौदा जैसे दूसरे कई संस्थानों में आरटीआई लगाकर कर्मचारियों की मृत्यु से जुड़े और आंकड़े जुटाए। इस जानकारी के आधार पर उन्होंने याचिका में दावा किया कि पिछले एक दशक के दौरान भारत के परमाणु वैज्ञानिकों में आत्महत्या या फिर उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के मामले तेजी से बढ़े थे। भारत में परमाणु संस्थानों से जुड़े कर्मियों की मौत के मामले गाहे-बगाहे सुर्खियां बनते रहे हैं।

राजीव लोचन की मृत्यु
25 अगस्त 2007 के दिन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (इसरो) के वैज्ञानिक राजीव लोचन व कृष्ण मूर्ति श्री हरिकोटा प्रक्षेपण केंद्र के लिए अपनी कार से रवाना हुए। सितंबर महीने में यहां उपग्रह इनसैट 4सीआर को जीएसएलवी से प्रक्षेपित किया जाना था। रास्ते में हुई सड़क दुर्घटना में वैज्ञानिक लोचन का स्वर्गवास हो गया और कृष्णामूर्ति गंभीर रूप से घायल हो गए।

दिवाकर तिवारी की मृत्यु
मध्यप्रदेश के सतना में तैनात इसरो के वैज्ञानिक डॉ. दिवाकर तिवारी की नदी में बहने से मौत हो गई, जो कि पूरी तरह संदेह के दायरे में मानी जाती है। मुमकिन है कि वैज्ञानिकों की प्राकृतिक मोत हमेशा से संदेह की नजरों से देखी जाती हो।

एजी पोद्दार की मृत्यु
श्री एजी पोद्दार वरिष्ठ वैज्ञानिक थे। इनकी मृत्यु 27 मार्च 2008 के दिन सड़क दुर्घटना में हुई थी। परिवार के लोगों ने हत्या की आशंका जताई थी। पुलिस ने इसे दुर्घटना मान कर फाइल बंद कर दी है।

लोकनाथन महालिंगम की मृत्यु
14 जून, 2009 में कर्नाटक स्थित कैगा परमाणु रिएक्टर से जुड़े एक सीनियर इंजीनियर लोकनाथन महालिंगम की लाश काली नदी में पाई गई थी। वे हफ्तेभर पहले रहस्यमय तरीके गायब हो गए थे। पुलिस के मुताबिक यह मामला आत्महत्या का था। लेकिन महालिंगम के परिवार के सदस्य इससे सहमत नहीं रहे। उनका मानना है कि महालिंगम का अपहरण कर उनकी हत्या की गई थी। पुलिस इस केस को भी बंद कर चुकी है। लोकनाथ कैगा परमाणु संयंत्र में बतौर वरिष्ठ वैज्ञानिक कार्यरत थे। इस संयंत्र का कितना महत्व है, इसका अनुमान बस एक बात से लगाया जा सकता है। यह उन आठ परमाणु केंद्रों में आता है, जो अंतरराष्ट्रीय निगरानी में शामिल नहीं है। दरअसल, जब भारत-अमेरिका के बीच नागरिक परमाणु समझौता हुआ था तो अमेरिका ने परमाणु संयंत्रों के निगरानी की शर्त रखी थी। उस समय भारत 22 में से 14 परमाणु संयंत्रों की निगरानी के लिए सहमत हुआ था। वजह सामरिक सुरक्षा थी। अमेरिका ने भी उसे स्वीकार किया था। तब जाकर सहमति बनी थी। कैगा उन्हीं में से एक है। लोकनाथ इसी से जुड़े थे।

वे 5 जून, 2009 को सुबह टहलने निकले थे, पर शाम तक नहीं लौटे। फिर रात बीत गई, दिन गुजरते गए। उनका कोई पता नहीं चला। इससे प्रशासन घबरा गया। क्योंकि उनके पास परमाणु संबंधी कई खुफिया जानकारी थी। लिहाजा सघन छानबीन शुरू हो गई। कैगा के चारों ओर फैले घने जंगलों में विशेष दस्ता भेजा गया। संभावना थी कि उनका किसी ने अपहरण कर लिया है। मगर विशेष दस्ते को उन जंगलों में कुछ नहीं मिला।

फिर लोकनाथ की तलाश की जिम्मेदारी नौसेना को सौंपी गई। पांचवें दिन उनकी लाश काली नदी में मिली। वह भी घने जंगलों के बीच। उनका शव सड़ चुका था। शिनाख्त डीएनए टेस्ट के बाद संभव हो पाई। लोकनाथ वहां कैसे पहुंचे? उनकी हत्या हुई या फिर उन्होंने आत्महत्या की। किसी को कुछ नहीं पता। पुलिस इसे आत्महत्या का मामला मान चुकी है। लेकिन उनके घर वाले ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हैं। मौत का कारण साफ नहीं हो पाया है।

उमंग सिंह तथा पार्थ प्रितम की मृत्यु
ऐसा ही एक मामला उमंग सिंह और पार्थ प्रितम का है। दोनों बार्क की उच्च सुरक्षा वाली प्रयोगशाला में काम करते थे। वे रसायन वैज्ञानिकों के 10 सदस्यों वाली टीम का हिस्सा थे। 30 सितंबर, 2009 को वहां पर एक हादसा हुआ। प्रयोगशाला में अचानक आग लग गई। जब आग लगी तो प्रयोगशाला में टीम के सिर्फ दो सदस्य मौजूद थे, उमंग और पार्थ। उस दुर्घटना में दोनों मारे गए। वहां पर आग कैसे लगी? यह एक बड़ा सवाल है। वह भी उस प्रयोगशाला में जहां पर सुरक्षा के तमाम इंतज़ाम हैं। मसला तो यह भी है कि प्रयोगशाला में आग पहुंची कैसे?

पद्मनाभन अय्यर की मृत्यु
दक्षिण मुंबई का ब्रीच कैंडी या भूलाभाई देसाई रोड शहर के सबसे पॉश इलाकों में से एक है। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) के वैज्ञानिकों की आवासीय कॉलोनी यहीं पर है। साल 2010 में उच्च सुरक्षा वाली यह कॉलोनी अचानक चर्चा में आ गई, जब इसके एक फ्लैट में बार्क के वैज्ञानिक एम पद्मनाभन अय्यर (48 वर्ष) का शव पाया गया। उनकी लाश के पास नायलॉन की रस्सी और अन्य चीजें मिली। पुलिस ने प्रारंभिक जांच में इसे अप्राकृतिक संबंधो से जुड़ी मौत का मामला बताया। लेकिन जब जांच आगे बढ़ी तो वह अपनी बात साबित नहीं कर पाई। 2012 में पुलिस ने अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी। फारेंसिक रिपोर्ट से ही साफ हुआ कि अय्यर की मौत सिर पर चोट लगने से हुई थी। बाद में पुलिस ने भी जांच में माना की हत्यारे ने डुप्लीकेट चाबी से पहले ही फ्लैट में एंट्री कर ली थी और बाद में गला रेंत कर हत्या कर दी। इसमें पद्मनाभन की हत्या की बात तो उसने मानी, लेकिन कहा कि इस मामले की जांच आगे बढ़ाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं है। यह मामला इस रिपोर्ट के बाद खत्म हो गया। इसके अलावा भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) में 2010 के दौरान तीन कर्मचारियों ने कथित तौर पर आत्महत्या की थी।

तीतम पाल की मृत्यु
3 मार्च, 2010 के दिन युवा महिला वैज्ञानिक सुश्री तीतम पाल की लाश कोलकाता में उनके क्वार्टर में झुलती मिली। इस मामले को आत्महत्या मान कर बंद कर दिया गया।

उमा राव की मृत्यु, मोहम्मद मुस्तफा की मृत्यु
साल 2011 में बार्क की एक वैज्ञानिक उमा राव की मौत का मामला भी चर्चा में रहा। पुलिस ने वैज्ञानिक उमा राव की मौत को आत्महत्या बताया था, जबकि उनके परिवारवालों का कहना था कि यह बात मानने की उनके पास एक भी वजह नहीं है। इसी साल आईजीसीएआर कलपक्कम में इंजीनियर मोहम्मद मुस्तफा की अप्राकृतिक मौत हुई थी, जिसे आत्महत्या माना गया था।

केके जोशी तथा अभीष शिवम की मृत्यु
अक्टूबर 2013 को विशाखापट्टनम नेवल यार्ड के समीप के रेलवे ट्रैक में कुछ लोगों को दो लाशें दिखाई दी। शिनाख्त में पता चला कि ये मृत शरीर केके जोशी (33 वर्ष) और अभीष शिवम (34 वर्ष) के है, जो पहली स्वदेशी परमाणु सबमरीन आईएनएस अरिहंत के प्रोजेक्ट्स में चीफ इंजीनियर के रूप में कार्यरत थे। पुलिस ने इस मामले को भी सामान्य दुर्घटना या आत्महत्या मान कर बंद कर दिया। लेकिन उस समय आई कई रिपोर्टों में कहा गया था कि इन दोनों के शरीर पर ऐसी किसी चोट के निशान नहीं थे, जिनसे साबित होता हो कि इनकी मौत ट्रेन की टक्कर से हुई है। इस घटना का ज़िक्र करते हुए अपनी याचिका में कोठारी ने कहा कि उस समय की खबरों के मुताबिक इन दोनों इंजीनियरों को जहर दिया गया था और बाद में उनकी लाश रेलवे लाइन पर रख दी गई, ताकि इनकी मौत दुर्घटना लगे। दोनों वैज्ञानिक अपने क्षेत्रों में स्वदेशी तकनीक विकसित करने में लगे थे।

नागाराजू एन की मृत्यु
नागाराजू एन का एक मसला 2014 के दौरान उठा था। वे तारापुर परमाणु संयंत्र में बतौर इंजीनियर कार्यरत थे। नागाराजू परमाणु संयंत्र के उस हिस्से में काम करते थे, जहां पर परमाणु रिएक्टर के लिए फ्यूल बंडल तैयार किए जाते हैं। कहने का मतलब है, जहां पर रिएक्टर के लिए इंधन तैयार होता है। तकनीकी भाषा में उस हिस्से को एजी-22 कहते हैं। काम के दौरान नागाराजू ने उस हिस्से में सुरक्षा संबंधी कई कमियां पाई। लिहाजा नागाराजू ने सेफ्टी को-ऑर्डिनेटर को एक पत्र लिखा। उसमें नागाराजू ने सारी कमियों का उल्लेख किया और सुरक्षा के लिहाज से उसे जल्द सही कराने की बात कही। यह पत्र नागाराजू ने 11 फरवरी, 2014 को लिखा था। लेकिन जब महीने भर उस पर कोई अमल नहीं हुआ तो नागाराजू ने 23 मार्च, 2014 को रिमांइडर भेजा। इसे लेकर उन्होंने तीन रिमांइडर भेजे। पर हुआ कुछ नहीं। यहां ध्यान रखना होगा कि मसला परमाणु रिएक्टर के इंधन का था। उसकी सुरक्षा के लिए ही नागाराजू बार-बार रिमांइडर भेज रहे थे। मगर शीर्ष अधिकारी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

सेफ्टी को-ऑर्डिनेटर ने नागाराजू के सुझाव पर कार्यवाही करना मुनासिब नहीं समझा। फिर उन्होंने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के चैयरमैन को पत्र लिखा। पर वहां से भी उन्हें संतुष्टि मिल पाए ऐसा जवाब नहीं मिला। अलबत्ता काबिलियत दिखाने की वजह से वह शीर्ष अधिकारियों के शोषण का शिकार हो गए। उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाने लगा। यह पूरा मामला 2014 में शुरू हुआ था और खत्म 22 जून, 2015 को हुआ। 22 जून की सुबह 7.50 बजे नागाराजू का शव रेलवे ट्रैक पर मिला। बताया गया कि ट्रेन दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। संस्थान इसे आत्महत्या मान रहा है। उनके मुताबिक आत्महत्या का कारण पारिवारिक समस्या और स्वास्थ्य है। किन्तु वहां के वैज्ञानिक कथित रूप से संस्थान के दावे को सिरे से खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि सैकड़ों वैज्ञानिकों ने आत्महत्या की है। क्या सब पारिवारिक समस्या से ही जूझ रहे थे। उनकी माने तो आत्महत्या की वजह बार्क और उससे संबंधित संस्थाओं का वातावरण है। साथ ही कुछ और भी कारण हैं, जिन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है।

याचिकाकर्ता कोठारी का दावा मौतों को पेशेवर तरीके से अंजाम दिया गया था
कोठारी ने अपनी याचिका में कई मौतों के पीछे साजिश की आशंका जताई थी। इसके लिए फॉरेंसिक विशेषज्ञों की राय का ज़िक्र करते हुए कहा गया कि संदिग्ध मौतों से जुड़े इन सभी मामलों में उंगलियों के निशान और ऐसे गवाह गायब थे जो पुलिस जांच को सही दिशा दे सकें। याचिका के मुताबिक इन मौतों को पेशेवर तरीके से अंजाम दिया गया था और अमूमन विदेशी खुफिया एजेंसियों को इनमें महारत हासिल होती है। कोठारी ने इस संबंध में बीते सालों के दौरान ईरान में इसी तरह से हुई परमाणु वैज्ञानिकों की मौतों का हवाला दिया। हालांकि कोठारी ने सभी मौतों के पीछे ऐसी आशंकाएं नहीं जताई थी। उन्होंने कुछेक मौतों को संदेह की नजरों से देखा था।

होमी जहांगीर भाभा की मौत भी संदेहात्मक?
इन घटनाओं पर मनीपाल यूनिवर्सिटी के अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग के डायरेक्टर माधव नलपत का कहना है कि सरकार को ऐसी घटनाएं आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती की नजर से देखनी चाहिए। यह बात उन्होंने पिछले साल प्रकाशित एक रिपोर्ट में कही थी। नलपत की बात कुछ हद तक सही है, क्योंकि भारतीय परमाणु कार्यक्रम का इतिहास अपने पहले दौर में ही एक ऐसी घटना का साक्षी बन चुका है। देश के परमाणु कार्यक्रम के जनक होमी जहांगीर भाभा की 1966 में एक प्लेन क्रैश हादसे में मौत आज भी संदिग्ध मानी जाती है। कहा जाता है कि इसके पीछे अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए का हाथ था। हालांकि इस मामले की जांच से यह बात कभी साबित नहीं हो पाई। होमी जहाँगीर भाभा, जिन्हें हिंदुस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम का जन्मदाता माना जाता है, उनकी मौत आज तक मिस्ट्री बनी हुई है। यह कई अहम् सवालों की तरफ इशारा करती है। 1966 में डॉ भाभा बॉम्बे से न्यूयॉर्क जा रहे एयर इंडिया बोइंग 101 विमान में यात्रा कर रहे थे और माना जाता है कि उनकी मृत्यु विमान क्रैश हो जाने के कारण हुई। लेकिन न तो उनका मृत शरीर पाया गया और न ही विमान दुर्घटना का मलबा। दुर्घटना के वक्त इसमें भाभा समेत 106 यात्री और 11 कर्मी दल के सदस्य सवार थे। दुर्घटना में कुल मिलाकर 117 लोगों की मौत हुई थी।

2009 में फ्रांसीसी पर्वतारोही डेनियल रोच ने एक धमाकेदार खुलासा किया कि 24 जनवरी 1966 को विमान किसी दुर्घटना से नहीं, बल्कि इटली के किसी एयरक्राफ्ट या मिसाइल की टक्कर से नष्ट हुआ था। उन्होंने अपनी 80 पन्नों के रिसर्च डॉक्यूमेंट में इसे बड़ी साजिश करार दिया है। हालांकि इन सभी कहानियों को केवल अफवाह माना जाता रहा है। उनकी मौत विमान हादसे की वजह से ही हुई थी ऐसा माना जाता है।

विक्रम साराभाई की मोत
31 दिसंबर 1971 में विक्रम साराभाई की मोत हुई थी। वे संदिग्ध परिस्थितियों के शिकार हुए थे। साराभाई केवलम बीच पर एक रिसोर्ट में मृत पाए गए थे। हालांकि, आधिकारिक तौर पर मृत्यु की वजह संदिग्ध हो ऐसा कोई कोण नहीं मिला था।

एपीजे अब्दुल कलाम का निधन
अब्दुल कलाम की मृत्यु के बाद कुछेक सवाल सरकार पर भी उठे थे। यहां ये खयाल रखे कि उनकी मौत संदेहात्मक थी ऐसा कोई इशारा नहीं है। दरअसल वे एक जानेमाने वैज्ञानिक, इसरो व डीआरडीओ के अतिमहत्वपूर्ण कार्यक्रमों के साथ जुड़ी रही शख्सियत, परमाणु परीक्षण जैसी जिम्मेदारी संभालने वाले भारतीय वैज्ञानिक के साथ साथ एक राष्ट्रपति भी रह चुके थे। सरकारी परंपराओं के अनुसार तमाम राष्ट्रपति को उनके पद त्याग देने के बाद भी आरोग्य तथा स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं दी जाती हैं। लेकिन कहा गया कि अब्दुल कलाम के स्वास्थ्य की नियमित जांच भी सरकार नहीं कर रही थी। हालांकि, ये कभी साफ नहीं हो पाया कि उनके लिए सेवानिवृत्ति के बाद भी जो आरोग्य सहूलियतें थी उसमें कोताही बरती गई थी या नहीं। नियमित जांच नहीं होने का दावा जिन्होंने भी किया होगा, उनके पास कोई ठोस तर्क या आधार मौजूद नहीं रहे।

इसरो भी बन चुका है शिकार, यहां भी वैज्ञानिकों के निधन के दुख से रुबरु होना पड़ा
15 सालों में इसरो ने अपने 684 कार्यकर्ताओं को खोया है, 45 मौतें हर साल इसरो को बेहद नुकसान पंहुचा रही है। 1995-2010 तक 684 वैज्ञानिकों की मौत हो चुकी है। इनमें से 387 वे हैं, जो इसरो मुख्यालय में कार्यरत थे। बाकी 297 वैज्ञानिक इसरो से संबंधित अन्य संस्थाओं में काम करते थे।

क्रायोजेनिक इंजन, वैज्ञानिक पर आरोप लगे, गिरफ्तारी हुई, निर्दोष पाये गये, अमेरिका ने अड़ायी थी टांग?
1980 और 90 का दशक कौन भूल सकता है। भारत क्रायोजेनिक इंजन के लिए परेशान था। सोवियत संघ से हासिल करने की कोशिश कर रहा था। उसमें वह सफल भी रहा था। तय हो गया था कि क्रायोजेनिक इंजन भारत को मिल जाएगा, लेकिन अमेरिका ने टांग अड़ा दी।

कैसे? यह जानने से पहले क्रायोजेनिक इंजन को समझना ज़रूरी है। यह एक विशेष प्रकार का इंजन होता है। इसमें बतौर इंधन ऑक्सीजन या हाइड्रोजन का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए उन्हें तरल अवस्था में लाना होता है। लिहाजा तापमान को कई डिग्री माइनस में ले जाना होता है। इस तरह की तकनीक के बिना सुरक्षा और संचार संबंधी उपग्रह को अंतरिक्ष में भेजना संभव नहीं होता। मिसाइल निर्माण में भी इस तकनीक की ज़रूरत होती है। इसलिए भारत को क्रायोजेनिक इंजन की ज़रूरत थी। सोवियत संघ तैयार भी था।

पर 1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन से सब कुछ बदल गया। रूस की खराब आर्थिक स्थिति का फायदा उठाते हुए अमेरिका ने उस पर दबाव डाला। लिहाजा रूस से तो मदद नहीं मिल सकी, लेकिन भारत के वैज्ञानिकों ने हार नहीं मानी। इसरो ने क्रायोजेनिक इंजन पर काम शुरू कर दिया। लेकिन जल्द ही एक विवाद पैदा हो गया। क्रायोजेनिक इंजन कार्यक्रम से जुड़े वैज्ञानिक नम्बी नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आरोप था कि इंजन से संबंधित सूचना वे पाकिस्तान को दे रहे थे।

हालांकि बाद में उन पर लगे सारे आरोप गलत पाए गए। पर इससे वह कार्यक्रम प्रभावित हुआ। इस पूरे प्रकरण पर इसरो के वैज्ञानिक जे.राजशेखरन नायर ने एक किताब लिखी, जो 1999 में आई। उसका नाम स्पाई फार्म स्पेसहै। उसमें उन्होंने दावा किया है कि क्रायोजेनिक कार्यक्रम को रोकने के लिए अमेरिका ने साजिश की थी, जिसमें भारतीय खुफिया विभाग के कुछ अधिकारी भी मौजूद थे।

नायर के दावे में कितनी सच्चाई है यह तो अलग विषय है। लेकिन जिस तरह सामरिक महत्व के कार्यक्रमों से जुड़े वैज्ञानिकों की मौत हो रही है, उससे संदेह बढ़ता जा रहा है। इसरो से जुड़े रहे नम्बी नारायण कई बार कह चुके हैं कि अमेरिका नहीं चाहता कि भारत अपने पैरों पर खड़ा हो।

अब्दुल कलाम ने भी लिखा था कि मिसाइल परीक्षण को रोकने के लिए विदेश से आ रहे थे दबाव
यदि 21वीं शताब्दी के पहले दशक पर नजर दौड़ाएं तो डीआरडीओ में चल रही जासूसी का बड़ा मामला सामने आया था। उस दौर में माना जा रहा था कि कुछ विदेशी ताकतें नहीं चाहती कि भारत रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने। इसके लिए जासूसी भी हो रही थी और तमाम तरह के विदेशी दबाव भी थे। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की किताब में इस बात का ज़िक्र भी है।

पीछली शताब्दी को याद करते हुए वे लिखते हैं कि अग्नि मिसाइल के परीक्षण से कोई तीन घंटे पहले उनके पास एक फोन आया था। वह फोन कैबिनेट सचिव टीएन शेषन का था। वह मिसाइल के परीक्षण को आगे बढ़ाने की बात कह रहे थे। उनका कहना था कि अमेरिका काफी दबाव डाल रहा है।

कहने का मतलब बस इतना ही है कि विदेशी ताकतें देश के सामरिक कार्यक्रम को बंद कराना या लंबित कराना चाहती हैं ऐसे दावे कई विशेषज्ञ कर चुके हैं। इसलिए ज़रूरत है कि वैज्ञानिकों की मौत को हादसा या आत्महत्या मानकर न टाला जाए, बल्कि उसकी ठीक से पड़ताल हो।

पिछले 20 सालों में 4084 वैज्ञानिकों की मृत्यु हो चुकी है, लेकिन उनके निधन तथा उन वैज्ञानिकों के देश के प्रति कार्यों को हम नागरिकों ने अनदेखा ही किया
आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 सालों में बार्क और उससे संबंधित संस्थाओं में 4,084 वैज्ञानिकों की मौत हो चुकी है। इनमें से तकरीबन 2,800 वैज्ञानिकों के मौत की मुख्य वजह कैंसर है। बाकी 1,284 में से 1,029 लोगों की मृत्यु अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्या की वजह से हुई। उनमें कई तरह की बीमारियों का ज़िक्र किया गया है। कुछेक मौतें ऐसी भी रही, जो संदिग्ध बनी। जो आंकड़े 1995-2014 तक के है, उन आंकड़ों में मौत की जो वजह बताई गई, उस पर गौर करके समाधान निकालने के कितने संनिष्ठ प्रयास हुए उसकी जानकारी नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 सालों में तकरीबन 2,800 वैज्ञानिक सिर्फ कैंसर का शिकार हुए हैं। इसका मतलब हर साल औसतन 140 वैज्ञानिक इस भयानक रोग का शिकार हो रहे हैं। वहीं अगर आत्महत्या की बात करें तो वह 255 हो चुकी है। मतलब, औसतन 12 वैज्ञानिक हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। यह सिलसिला दो दशक से चल रहा है और बार्क ने समय रहते कोई उपाय नहीं किया।

मुंबई हाईकोर्ट में जनहित याचिका डालने वाले चेतन कोठारी का दावा था कि परमाणु ऊर्जा से संबंधित एक वैज्ञानिक के पास जब फोन किया गया तो उन्होंने पहले सामान्य तरीके से बात की। मगर जब वैज्ञानिकों की मौत का ज़िक्र छेड़ा तो उन्होंने यह कहते हुए फोन रख दिया कि इस नंबर पर ऐसी चर्चा नहीं हो सकती। बाद में उस वैज्ञानिक ने दूसरे नंबर से फोन किया। उसने बताया कि परमाणु संस्थान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उनकी माने तो जो वैज्ञानिक संस्थान में ईमानदारी से काम करना चाहता है, उसे काम करने नहीं दिया जाता। बेवजह परेशान किया जाता है। उसका स्थानांतरण कर दिया जाता है। वे कहते हैं कि संस्थान में ऊपर बैठे लोग नियम-कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं। अगर कोई उन पर उंगली उठाता है तो उसका मानसिक उत्पीड़न शुरू हो जाता है। प्रमोशन रोक दिया जाता है। परमाणु संस्था से जुड़े लोगों का यह भी दावा है कि परमाणु ऊर्जा के 25 संगठनों में से छह ही संवेदनशील संगठन की श्रेणी में आते हैं। लेकिन मामले को दबाने के लिए इसका दुरुपयोग किया जाता है। किसी भी संगठन को मनमाने तरीके से संवेदनशील बता दिया जाता है। इस वजह से मामले की ठीक से पड़ताल नहीं हो पाती। चेतन कोठारी ने अपनी ओर से ये दावा किया था।

इन सबके साथ साथ मूल बात यह है कि हमारे वैज्ञानिकों को, खास करके रक्षा वैज्ञानिकों को हम उतना महत्व नहीं देते, जितना उनका हक़ बनता है। अब्दुल कलाम के सहारे या उनको हम आम नागरिकों का जो स्नेह मिला था, उस तर्क के सहारे दबी हुई कड़वी सच्चाइयों को नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता। इन वैज्ञानिकों ने देश के प्रति अपना फर्ज निभाते हुए ही आखिरी सांसें ली होगी। हमें उनके कार्यों और उनकी लगन को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

भारत देश की जनसंख्या 1 अरब 25 करोड़ है। सक्रिय सैनिकों की संख्या 13 लाख 25 हज़ार है। इस देश में 2 सैनिकों की मौत होने की कीमत तकरीबन 1,500 नागरिकों के जीवन पर संकट होने के बराबर है। सोचिए, इस देश के 1 रक्षा वैज्ञानिक की मृत्यु की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी???

(इंडिया इनसाइड, 21 जून 2016, एम वाला)