आप धर्म के ऊपर सवाल नहीं कर सकते और ना ही देश के ऊपर कर सकते हैं। शायद कुछ लोगों
को इसकी बड़ी समझ है। तभी तो धर्म और राष्ट्र की आड़ में काफी कुछ किया जाता है।
तिरंगे का आकार अब
बड़ा होने लगा है। हमें नहीं पता कि देशभक्ति का साइज़ बढ़ा है या फिर केवल तिरंगे
का आकार! कार के डैशबोर्ड पर लगने वाला तिरंगा या
राष्ट्रीय त्यौहारों के दिन बच्चों के हाथों में दिख जाने वाला तिरंगा अब तो शायद घर
की छतें या बालकनी के लिए ही बनाया जाता होगा। अनजाने में तिरंगे का अनादर भी उतना
ही बढ़ा है, उसमें भी कोई शक नहीं। राष्ट्रीय त्यौहार या कार्यक्रमों के ख़त्म होने के बाद
पूरा मैदान खाली हो जाता है, केवल तिरंगा रह जाता है। प्लास्टिक के तिरंगे दूसरे दिन कहाँ
कहाँ रखे हुए मिल जाते हैं, कौन नहीं जानता?
देश का बचपन... देश
का भविष्य... जैसे सुनहरे अलंकरण पाने वाले बच्चे ही ज़्यादातर तिरंगे बेचते हुए दिखाई
देते हैं। चौराहों पर, ट्रैफिक पॉइंट पर राष्ट्रीय त्यौहारों के दिन ये बच्चे तिरंगे
बेचकर... या यूँ कहे कि राष्ट्रीय प्रतीक का आर्थिक वितरण करके, अपने पेट की अगन बुझाने में लगे रहते हैं। सोशल मीडिया पर उनसे ही तिरंगा ख़रीदने
को लेकर नियमित आंदोलन चलते रहते हैं। ये आंदोलन उतनी ही प्लास्टिक टाइप निष्ठा से
चलते हैं, जैसे कि विदेशी चीजों के बहिष्कार को लेकर चलते रहे हैं।
भारत का राष्ट्रीय
झंडा और चीन का सामान... ये दोनों चीजें देश के हर घर में पहुंचने के लिए इन्हीं बच्चों
पर भी निर्भर होते हैं। हमारी नजरों में या हमारी लिखावट में, ये बच्चे भारत भाग्य विधाता हैं। और ये भारत के राष्ट्रवाद का सर्वोच्च प्रतीक
वितरित करने का सबसे बड़ा झरिया भी है।
तिरंगा हम सभी को भावुक
कर देता है। इसे आसमान में फहराता देख लगता है कि हमारी तकलीफ़देह ज़िंदगी से दूर होकर
हम स्वयं भी इसके साथ लहरा रहे हो। तिरंगा जोश भरता है, उत्साह भरता है, उन्माद पैदा करता है, भावुक बनाता है, राष्ट्रवाद जगाता है, समर्थन में इज़ाफ़ा करता है। तिरंगा वो सब कुछ करता है, जो कोई और प्रतीक कर नहीं पाता। और शायद इसका सबसे ज़्यादा ज्ञान उन आंदोलनकारियों
को है, जो मुद्दा कोई भी हो, लेकिन हाथों में बड़े बड़े तिरंगे लेकर निकल पड़ते हैं।
तिरंगे के नीचे कसमें
खायी जाती हैं, प्रण लिए जाते हैं या जंग के एलान होते हैं। ये बात और है कि कसमें-वादें-प्यार-वफ़ा
सब बातें हैं, बातों का क्या? किसी भी उत्पाद के ऊपर, किसी भी चीज़ के ऊपर, किसी भी मुद्दे के साथ तिरंगे का लग जाना,
जैसे कि पूरा वातावरण बदल देता है। आप धर्म के ऊपर सवाल नहीं कर सकते, और ना ही देश के ऊपर कर सकते हैं। शायद कुछ लोगों को या संगठनों को इसकी बड़ी
समझ है। तभी तो धर्म और राष्ट्र की आड़ में काफी कुछ किया जाता है।
तिरंगा केवल एक ही
चीज़ पैदा करता है... देशभक्ति। देशभक्ति में छिपी हुई भावनाएँ और उन्माद को कैसे मोड़ना
है उसका किसी तरह का मार्केटींग चल रहा है। कहा जा सकता है कि तिरंगे की आड़ में कई
तरह के झंडे हैं। रामलीला मेदान ही देख लीजिए। बड़े बड़े तिरंगे के साथ आज़ादी की दूसरी
लड़ाई लड़ी गई। लड़ाई ख़त्म हो गई, लोकपाल का क्या हुआ पता नहीं। उसके बाद तो
रामपाल का भी कुछ अधिक नहीं हुआ!!! कसमें बिखर गई और
सभी अपने अपने झंडे के तले लौट गए। नयी पार्टियाँ बनीं, नये विधायक बने, नये नेता बने।
हमें यह समझने में
यक़ीनन देर हो जाएगी कि तिरंगा थाम लेने से सभी का मकसद एक नहीं हो जाता। शायद हम यह
स्वीकार करने में शर्म या कुछ और महसूस करते हैं कि तिरंगा हाथ में लेने का मतलब देशभक्ति
नहीं रह गया।
खैर... पर सड़कें तंग
हो गई हैं, दिल सिकुड़ गए हैं, लेकिन तिरंगा बड़ा हो गया है! इससे आगे कहे तो, तिरंगे को लेकर मकसद भी बड़े हो गए हैं। अब केवल तिरंगा आसमान
नहीं छूता, उसके नीचे दबे मकसद भी आसमान चीर कर आगे निकल जाया करते हैं।
विश्वविद्यालयों में
200 फीट ऊंचे तिरंगे फहराए जाते हैं। प्रशासनिक भवन तो तिरंगा फहराते हैं, लेकिन अब केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी तिरंगे फहराए जाते हैं। ताकि राष्ट्रभावना
बनी रहे। लॉजिक ये कहता होगा कि राष्ट्र के प्रति भावनाएँ जागृत रखने के लिए राष्ट्रीय
प्रतीकों का उपयोग होना अनिवार्य है।
तब तो उम्मीद की जाती
है कि इस तिरंगे के नीचे बैठे वाइस चांसलर सिर्फ़ और सिर्फ़ देशभक्ति से काम करते होंगे।
वो किसी के दबाव में नहीं आते होंगे। किसी के कहने पर भर्तियाँ नहीं होती होगी। पाई-पाई
का हिसाब रखा जाता होगा। छात्र देशभक्ति से लबालब होंगे और कैंपस में राष्ट्रीय भावना
बिखरी होगी। ज़्यादा उम्मीद तो है नहीं, जिस लॉजिक के हिसाब से वहाँ तिरंगा लगाया
जाता है, उसी लॉजिक के हिसाब से छोटी सी उम्मीद है।
अब तो धार्मिक यात्राओं
में भी तिरंगे को स्थान मिलने लगा है। उम्मीद करते हैं कि इससे राष्ट्रधर्म की भावना
फूले-फले और धर्मांधता कम हो। सोच ज़्यादा दिखे, सनक कम हो। उम्मीद करने में बुराई
तो नहीं है। तिरंगे के बगल में डीजे का कानफोड़ू शोर उन्माद के प्रति ज़्यादा ले जाता
है और ज़िम्मेदारी के प्रति कम।
तिरंगा जितना बड़ा
होता जा रहा है, तिरंगे का सटीक व योजनाबद्ध इस्तेमाल भी उतना ही बड़ा होता जा रहा है। वैसे
जहाँ जहाँ तिरंगे दिखते हैं, वहाँ वहाँ इसके सम्मान और संबंधित अन्य मार्गदर्शिकाओं
की नियमावली भी साथ में देनी चाहिए।
तिरंगे के प्रति हमारी
ख़ास क़िस्म की भावुकता है। भावुकता का इस्तेमाल कैसे किया जाए ये कुछ लोग जानते हैं।
वैसे हम अमेरिकनों जैसे नहीं हैं, जो अपने वस्त्र अपने राष्ट्रीय ध्वज से बनाते हो। हम तिरंगे
की कमीज़ नहीं सिलवाते, सोफा कवर नहीं बनाते या पर्दें नहीं बनाते। कुछ ख़ास मौकों
पर कर लेते हैं या कुछ ख़ास जगहों पर, लेकिन नियमित रूप से नहीं। कभी कभार हमारे
नेता इससे मुंह पौछ लेते हैं, कभी कुछ और। लेकिन फिर भी, तिरंगे के प्रति हमारी
भावुकता ख़ास क़िस्म की है। और इस भावुकता का इतना बख़ूबी इस्तेमाल भी किया जाता है
कि आप तिरंगे के तले आ जाओ, फिर सवाल उठने का अवकाश कम ही हो जाता है।
एक दौर था जब तिरंगा
देशप्रेम का पवित्र प्रतीक था। अब ये प्रतीक देशप्रेम उत्पन्न तो करता है, साथ में भावना भड़काने में भी काम आता है। शायद ही कोई इनकार कर पाए कि अब तो
धर्म और राष्ट्रीय प्रतीकों का उपयोग बिज़नेस से लेकर बैकअप फोर्स के लिए भी किया जाता
है। यूँ कहे कि भावनाएँ उत्पन्न करने के लिए कम, किंतु सनकी बनाने
के लिए ज़्यादा काम आने लगे हैं!
तभी तो हमारी देशप्रेम
की भावना तब नहीं धधकती, जब जंतर-मंतर पर सैनिकों को पीटा जाता है, जब उनके मेडल सड़कों पर बिखर जाते हैं! हमारा राष्ट्रप्रेम तब नहीं जगता जब पूरा का पूरा महाकाय हवाई जहाज गायब हो जाता
है और उसकी सुध तक नहीं मिलती! हमारे जवान के कम
वेतन पर राष्ट्रप्रेम नहीं धधकता, लेकिन वतन के नाम पर आग उठ जाती है! रक्षा वैज्ञानिकों के प्रति स्नेह का सागर नहीं बहता! धर्म के साथ जुड़े कई बड़े समाज सुधारकों को हम उतनी अग्रीमता नहीं देते, जितनी कुछ कथित धार्मिक व्यक्तियों को देते हैं!
आज कल तो दशहरा पर
रावण के सद्गुण ढूंढने की कोशिशें ज़्यादा होती हैं, और उन प्रेरक प्रसंगों
में श्री राम, माता सीता या अन्य पात्रों की प्रासंगिकता जैसे कि कम हो चली है। शहीदों के मजारों
पर हर बरस लगेंगे मेले जैसी भावनाएँ हम तभी फिल करते हैं, जब जवान अपना ख़ून बहाए। लेकिन उनके कम वेतन, उनके तकलीफ़देह जीवन
पर कम ही चर्चा होती है। हम नया फाइटर जेट आता है तब काफी कूदने लगते हैं, लेकिन सेना की ज़रूरतें कितने सालों बाद पूरी हुई हैं, कितने प्रतिशत पूरी हुई है, उस पर जाना पसंद नहीं करते।
ये सारे प्रतीक स्वाभिमान
से जुड़े थे, किंतु अब स्वाभिमान के साथ साथ कई और गुणों या मकसदों से भी जुड़े हुए हैं। इसका
इस्तेमाल करने वाले समझ चुके हैं कि जब तक मामला भावुक नहीं होता, तब तक मकसदों को पाया नहीं जा सकता।
बड़ी बड़ी कंपनियाँ
चीन से करोड़ों-अरबो का माल ले आती हैं, मजाल है कि किसी कंपनी के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया
जाए? आंदोलन तो केवल उन गरीब लोगों के ख़िलाफ़ चलते हैं, जो ठेलों में या अपनी सामान्य दुकानों में यह माल बेचते हैं! दिया-बाती बेचने वालों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी जाती है, चीन के स्मार्ट फोन बेचने वाले उद्योगपतियों के ख़िलाफ़ नहीं! जब माल का बहिष्कार करना ही है, तो जम के किया जाए, सहूलियत के हिसाब से क्यों करें? लेकिन ठेले वाले शहीद फंड में दान नहीं दे
पाते, जबकि उद्योगपति अपना कुछेक हिस्सा दे दिया करते हैं। और यहीं पर तिरंगा का प्रतीक
काम में आ जाता है।
वैसे भी ज़रूरतमंदों
के लिए धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, ये वाद या वो वाद, जैसे लंबे चौड़े लफ्ज़ उतने काम के नहीं, जितनी दो वक्त की रोटी हुआ करती है। लेकिन
तिरंगे के तले ये सब होता है। चुनावों में होता है, चुनावों के बाद होता
है, कुर्सी बचाने के लिए होता है, कुर्सी गिराने के लिए होता है, माल बेचने के लिए होता है या माल रोकने के लिए होता है।
हालाँकि इन सब चीजों
से गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बीमारी वगैरह दूर नहीं हो पाते। उसके लिए तो काम करना पड़ता है। हमारे सरकारी
अस्पतालों में कितने चिकित्सकों की कमी है, स्टाफ कितना कम है, दवाइयाँ कितनी बेकार हैं, व्यवस्थाएँ कितनी बेहाल हैं, और ये सब चीजें प्रतीकों
के जरिए तो ठीक नहीं हो सकती।
एक जगह सुना था कि विश्वविद्यालयों में पर्याप्त गुरु नहीं हैं, लेकिन फिर भी आपके दिमाग में विश्वगुरु का सपना डाल दिया जाता है!!! तिरंगे की भावना में दाना मांझी भी तो लिपटा होगा, लेकिन फिर भी उसे अपनी पत्नी की लाश कंधे पर उठाकर लंबा सफ़र तय करना पड़ा।
जैसे पहले कहा वैसे, कुछ और काम करना हो या काम ही न करना हो, तब इन प्रतीकों का इस्तेमाल बिज़नेस से लेकर
बैकअप के लिए कर लिया जाता है। अब तो राष्ट्र के प्रतीक या धर्म के प्रतीक एक ब्रांड
बन चुके हैं। हर ब्रांड को इन्हीं प्रतीकों का कवर चढ़ा कर मकसदों को पार पाया जा सकता
है। तिरंगे को लेकर हमारी समझ देशभक्ति के उन गानों तक ही सिमटी हुई है। उस दायरे से
बाहर देशभक्ति जाती ही नहीं! और शायद इसीलिए इन
प्रतीकों का इस्तेमाल अपने अपने मकसदों के लिए किया जाता रहा है।
तिरंगे का आकार शायद छोटा था और इसलिए भारत एकजुट नहीं था। देखिए न आज! तिरंगे का आकार बड़ा हो चुका है और इसके चलते कितनी एकजुटता बनी है! हर रंग लोगों को भर देता है। अरसे से भरता आया है। क्योंकि तिरंगा राष्ट्रप्रेम
का प्रतीक था, देशप्रेम की भावना का प्रतीक था और आज भी देश के प्रति भावना का सर्वोच्च बिंदु
है भी। फर्क इतना सा है कि तिरंगे को थामने वाले हर हाथ अब उस बिंदु की ओर ले जाने
के लिए नहीं उठते। फर्क इतना सा है कि तिरंगे को लहराने वाले हर मकसद उस देशप्रेम के
मकसद से भी आगे निकल जाया करते हैं। धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतीकों के बख़ूबी इस्तेमाल
का फायदा यह है कि सवाल उठने की संभावनाएँ ख़त्म सी हो जाती हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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