कांग्रेस... यह नाम भारतीय राजनीति
में, भारतीय इतिहास में, भारतीय संस्कृति में वो नाम है, जिसके साथ 130 सालों का लंबा सफर
जुड़ा हुआ है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से भारत की आजादी, आजादी के बाद व्यवस्थाओं
और संरचनाओं के ढांचे तथा सरकारों के गठन से लेकर प्रगति, तकनीक, अवकाश, संरक्षण,
कृषि, गरीबी, राजनीति, जंग, भ्रष्टाचार, आपातकाल, अनैतिकता, विवाद, कलंकित प्रकरण,
अवैध सौदों तक का लंबा इतिहास। कभी पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट देना... तो कभी
खुद अपनी ही पार्टी का अनेकों अनेक टुकड़ों में बंट जाना। कभी भारत का आसमान की बुलंदियों
पर पहुंचना, अणु, ऊर्जा या अवकाश क्षेत्र में आगे बढ़ना... तो कभी आपातकाल का कलंकित
इतिहास। नेहरू, शास्त्री, इंदिरा या राजीव का देश के प्रति काम करते करते ही मौत
की नींद सो जाने का इतिहास.. तो कभी देश की सबसे बड़ी पार्टी का 40 सीटों तक सिमट कर
नामशेष रह जाने का वर्तमान। समाजवाद, विकासवाद से परिवारवाद तक पहुंचने के आरोप।
कांग्रेस का 130 सालों का सफर उस ऊंचनीच से भरा हुआ है, जिसके साथ तमाम सफलताएं और तमाम नाकामियों के दाग चिपके हुए
हैं। हमने अलग संस्करण में कांग्रेस के इस 130 सालों के सफर को संक्षिप्त में समझा था।
आज हम केवल वर्तमान की बात करेंगे। आज बात करते हैं कांग्रेस के उस गुण या अवगुण
की, जिससे आज उसे आलसी पार्टी कहा जाने लगा है। कई सारे विवेचकों ने कांग्रेस के
आलस्य पर अपना निशाना साधा है। कई अहवालों में कांग्रेस के साथ "आलसी पार्टी" नामक लफ्ज़ को पढ़ा जा रहा है।
वैसे तो एक बात कही जाती रही है
कि - कांग्रेस कभी नहीं जाती, जिसे सत्ता मिलती है वही कांग्रेस बन जाती है। दरअसल
ये बात किस नागरिकी दृष्टिकोण में कही जाती है, उसे आसानी से समझा जा सकता है।
बहरहाल, हम उस दृष्टिकोण की ओर जाए बगैर केवल कांग्रेस के वर्तमान के इर्द-गिर्द
रहने के प्रयत्न करेंगे। बात अगर मेहनत की हो, तो कहा जाएगा कि कांग्रेस ने मेहनत कम की है। वैसे मेहनत की है, लेकिन शायद उतनी मेहनत नहीं करी कि जितनी भाजपा या
नरेन्द्र मोदी ने की थी। क्योंकि मेहनत के बाद असर पैदा न हो, तब मेहनत का मतलब
नहीं रहता। वैसे मुझे कांग्रेस के वक्त भाजपा में दिलचस्पी थी, आज भाजपा का दौर है,
और दिलचस्पी कांग्रेस में है। क्योंकि लोकतंत्र में पक्ष के साथ साथ विपक्ष भी उतना
ही महत्व रखता है। (वैसे दिलचस्पी का मतलब मुहब्बत मत समझ लेना, पर विपक्ष का खयाल
रखना भी जरूरी होता है। खास करके तब कि जब कोई रख ना रहा हो!)
पिछले दस या बारह सालों के बारे
में कहा जाता है कि दोनों दफा एक चीज़ कॉमन थी। और वो यह कि ज्यादातर समय तक विपक्ष
ही नहीं था। या तो अंत समय में ही उभरा। लेकिन आज एक चीज़ उलट है। और वो यह कि पक्ष
और विपक्ष दोनों एक ही पार्टी है! आज भाजपा सत्ता पर काबिज है। पक्ष भी
वही है और विपक्ष भी वही है। कहते हैं कि कांग्रेस को उसकी ही शैली ने और उसके ही
भ्रष्टाचार ने हराया है। बेशक, सहमत हूं इससे। लेकिन हराया है वहां तक ही सहमत हूं।
40 सीटों पर सिमट जाना, यह हराने से भी कुछ ज्यादा है। मेरी राय में, भाजपा ने या
मोदी ने कमजोर सत्तादल का सामना करके सत्ता की कुर्सी हासिल की है ऐसा नहीं है।
बल्कि सच तो यह भी है कि मोदी ने कई तरह के विपक्षों का सामना किया, खुद अपने ही दल
में उन्हें विपक्षों से पार पाना पड़ा था। उन्होंने संसाधनों से लैस दस साल की सत्ताधारी
कांग्रेस को हराया।
कांग्रेस को सिर्फ हराया ही नहीं,
बल्कि इतिहास में उस स्थान पर बिठा दिया जहां कांग्रेस पहले कभी नहीं पहुंची थी। उसके
बाद राज्यों के चुनाव आये, प्रतिपक्ष की भूमिका आई, लेकिन कांग्रेस या राहुल
गांधी, कोई भी जैसे कि जीतने में दिलचस्पी ही नहीं दिखा रहा था या सत्ता का स्वाद
भुगतते भुगतते उन्हें विपक्ष की कुर्सी नागंवार गुजर रही थी। दो-तीन साल की नयी
नवेली दुल्हन जैसी आम आदमी पार्टी कांग्रेस से आगे निकल कर एक सख्त विपक्ष के रूप
में उभरी, लेकिन राहुल गांधी या कांग्रेस मेहनत करने के बाद भी एक के बाद एक राज्य
हाथ से निकलते देखते रहे। मेरी राय में तो, 40 सीटों पर सिमटना कांग्रेस के लिए जितना शर्मनाक था, उससे ज्यादा शर्मनाक यह था कि दिल्ली जैसे केंद्रशासित प्रदेश
में सत्ता भुगत रही नयी नवेली आम आदमी पार्टी भाजपा या मोदी के सामने सुर्खियां
बटोरती रहीं। ताज्जुब तो यह था कि मोदी के साथ जिस राहुल गांधी की चर्चा होती थी,
उसकी जगह अरविंद केजरीवाल का नाम आता रहा।
सितम्बर-अक्टूबर का महीना देख लीजिए।
अगले साल यूपी में चुनाव है। कांग्रेस अपनी सीट से ज्यादा अपनी खोयी हुई साख जुटाने
के जुगाड़ में है। ऐसे में यूपी में राहुल गांधी ने तीस दिनों की एक यात्रा की। लेकिन
इस यात्रा को इतना कवरेज मीडिया में भी राहुल गांधी नहीं दिला पाए। यात्रा खत्म हुई
और राहुल दिल्ली लौट आये, लेकिन कइयों को तो पता ही नहीं चला कि यात्रा खत्म भी हो
गई है!!! हो सकता है कि यूपी में सभी को पता हो, लेकिन
कांग्रेस को अपनी साख वापिस जुटानी थी। इस लिहाज से देश में, मीडिया के पैनलों पर,
अखबारों में इसको छाया रहना चाहिए था, लेकिन यह नहीं हो सका। राहुल गांधी की यात्रा
चलती रही, उधर भाजपा -मोदी -आम आदमी पार्टी -केजरीवाल -सर्जिकल स्ट्राइक -पाकिस्तान -भारतीय
सेना इन सबके आगे राहुल गांधी दबते से नजर आए। मुझे लगा कि भाजपा के मार्गदर्शक
मंडल में कथित सम्मान के साथ आराम से कोने में बैठे हुए आडवाणीजी की थोडी सी मदद
राहुल गांधी ले लेते, तो यात्रा सफल हो जाती। वैसे भी आडवाणीजी को यात्राओं को सफल
बनाने का जितना अनुभव है, उतना शायद ही वर्तमान समय में किसी और को रहा होगा। इतिहास
गवाह है कि स्वयं वाजपेयी को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का श्रेय आडवाणी की विविध
यात्राओं को रहा था, फिर भले ही वाजपेयी ने यात्रा से दूरी बना रखी थी। वो भी ऐसे समय में जब भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में
जुटी हुई थी।
वहीं, साख बचाने में जुटी हुई
कांग्रेस की, उनके राजकुमार माने जाने वाले राहुल गांधी की ये यूपी यात्रा, जैसे
कि आराम से शुरू हुई और आराम से खत्म भी हो गई! लगा कि औपचारिकताएं पूरी की गई है। सोचिए, उसकी जगह ऐसी यात्रा नरेन्द्र मोदी या आडवाणी कर रहे होते तो? मीडिया
के पैनलों से लेकर अखबारों की सुर्खियां बटौरने का प्रथम कर्तव्य वो सफलता से जरूर
अदा करते। यात्रा यूपी में हो रही होती, लेकिन लगता कि देश यात्रा कर रहा है। उनके
तमाम कार्यकर्ताओं से लेकर केंद्र के बड़े बड़े मंत्री या नेतागण यूपी में दिखाई देते।
प्रवक्ता या मंत्री मीडिया से रुबरु होते और राजनीति का सबसे पहला कर्तव्य, लोगों
के दिलो-दिमाग में अपने मकसदों को घुसा देना, निभा रहे होते। लेकिन राहुल गांधी की
इस यात्रा में यह सब था ही नहीं। यहां तक कि यूपी में उनकी सीएम उम्मीदवार शीला
दीक्षित के दर्शन भी दुर्लभ दिखे। लगा कि उनके बड़े बड़े नेता आराम से दिल्ली में
बैठे हैं और राहुल अकेले यात्रा कर रहे हैं!!! यूपी में उनके मीडिया
प्रभारी ने भी मीडिया कर्मियों से मिलना ठीक नहीं समझा!
रैली का आखिरी दिन था। आखिरी दिन
को कवर करने पहुंचे एक पत्रकार ने लिखा है कि, “राहुल ने मुझसे
बात नहीं की, कोई बात नहीं। जब
वह हमारे सामने आए तो वे ख़ुद में सिमट कर रह गए। चुपचाप निकल गए। उनकी जगह कोई भी
नेता होता तो मीडिया में स्पेस पाने के लिए कुछ न कुछ बात तो कर लेता, ख़ासकर जब वो तीस दिनों की थका देने वाली
यात्रा पर निकला हो और उन यात्राओं
को मीडिया में बेहद संक्षिप्त जगह मिल रही हो। हैरानी की बात ये रही कि राहुल के अलावा
दूसरे दर्जे के लोकप्रिय कांग्रेसी नेताओं ने भी बात करने की उत्सुकता नहीं दिखाई।
ऐसा लग रहा था कि वे मुझसे बात कर लेते तो उनकी जेब से उनका विशाल जनाधार छिटक कर गिर
जाता। जब पार्टी के नेताओं में ही जिजीविषा नहीं है, ज़िद नहीं है तो राहुल क्या कर लेंगे?”
यूपी की इस रैली के आखिरी दिनों का
एक दृश्य देख लीजिए। एक जगह बागीचे जैसी छोटी सी जगह में राहुल गांधी सभा को संबोधित
कर रहे थे। उनके साथ के बड़े नेता बाहर टहल रहे थे और कुछ बस में बैठे थे। यही अगर
प्रधानमंत्री मोदी की सभा होती, तो कम से कम केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद तो मीडिया
को लेकर चलने वाली खुली बस में ज़रूर होते। राहुल के अलावा बाक़ी नेताओं में वापसी
की होड़, आक्रामकता नहीं
दिखी। उनके चेहरे से ज़्यादा उनके मन में थकावट दिख रही थी। ये नेता न तो अपनी पार्टी
के लिए नारे लगा रहे थे और न ही अपने उपाध्यक्ष और भावी अध्यक्ष के लिए। इस रेली
के किसी विवेचन में लिखा था कि, “राहुल गांघी के साथ राहुल गांधी ही अकेले
चल रहे थे। कांग्रेस नहीं चल रही थी।”
जिस पार्टी ने इतनी बड़ी लड़ाईयां
लड़ी हो, भारत के राजनीतिक इतिहास में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें जितने का रिकॉर्ड दर्ज किया हो, कई सारी नाकामियों से लड़ कर वापसी की हो, उस पार्टी के लिए सबसे बड़े
राज्य की महत्वपूर्ण रैली का ये हाल देखकर ही कइयों ने लिखा कि... कांग्रेस आलसी पार्टी हो चुकी है।
उधर नयी नवेली दुल्हन आम आदमी
पार्टी को ही देख लीजिए। केंद्र शासित प्रदेश जैसे ठीकठाक राज्य दिल्ली में सत्ता पर
काबिज है वो। सभी को पता है कि दिल्ली राज्य की सत्ता नाम मात्र की सत्ता होती है।
इस देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को इतिहास का सबसे बुरा वक्त दिखाने वाली
भाजपा और मोदी जैसे कद्दावर नाम के सामने गिनेचुने संसाधनों से लैस आम आदमी पार्टी
की जिजीविषा कांग्रेस को शर्मसार कर देती है। देखिए न, आम आदमी पार्टी भाजपा से
लड़ती है, रोज लड़ती है, हर धंटे लड़ती है, केजरीवाल लड़ते हैं, सिसोदिया लड़ते हैं,
आशुतोष लड़ते हैं, संजय सिंह लड़ते हैं, विधायक लड़ते हैं, तमाम प्रवक्ता लड़ते हैं। हारते
हैं या जीतते हैं, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि वो लड़ते हैं। जबकि
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी जैसे बड़े बड़े नाम और उनका 130 सालों का
इतिहास जैसे कि घुटने टेक कर चुनाव लड़ने की औपचारिकताएं निभाता नजर आता है! लगता है
कि कांग्रेस ने फिलहाल अघोषित अवकाश लिया हुआ है। वे लड़ने के लिए चुनाव लड़ते है,
जीतने के लिए नहीं, कुछ कुछ ऐसा ही इन यात्राओं से नजर आता है! या तो... कांग्रेस एक
राजनीतिक पार्टी होते हुए भी किसी चमत्कार की आश में है कि शायद ऊपर से कोई चमत्कार
हो जाएगा और एकाध-दो राज्यों में कुछ हो जाए! उनकी
जिजीविषा, उनकी महत्वाकांक्षा का खस्ताहाल उनके राजकुमार और उनके नेता दिखा रहे
हैं।
एक घटना देख लीजिए। केंद्र में
तामझाम के साथ जीतने के बाद भाजपा ने देश में पांचसौं से अधिक दफतर बनाने के कार्य
का शुभारंभ किया। दिल्ली में अत्याधुनिक मुख्यालय का शिलान्यास किया गया। यह काम
भाजपा उस समय करती नजर आई, जब उसका श्रेष्ठ दौर चल रहा है। अपने इस दौर में भी
उसकी भूख तेज होती नजर आ रही है। अरसे से देखा जाता रहा है कि राजनीति में अपने समय
का इंतजार बड़ा महत्व रखता है। धैर्य राजनीति में अहम पहलू माना जाता है। लेकिन
भाजपा धैर्य रखना नहीं चाहती। उसमें एक भूख दिखाई देती है। और ज्यादा जीत तथा और
ज्यादा सत्ता। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, बहरहाल उनके साथ जुड़े हुए विवादों को
थोडी देर साइड में रख दे तो, सभी को पता होता है कि उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित
शाह है। कांग्रेस के मामले में कइयों को यह याद करना पड़ता है!!!
वैसे देशभर में जमीन खरीदना तथा
नये कार्यालय बनाना इन सब चीजों को भाजपा की जिजीविषा और श्रेष्ठ बनने का मजबूत और
निर्दोष प्रयास भी माना जा सकता है। लेकिन बात जमीनों की है और शायद स्थितियां ऐसी
भी बने कि ये प्रयास दामन पर दाग भी हो। लेकिन आलसी कांग्रेस के चलते जमीनों का
मुद्दा जमीन से बाहर निकल भी कैसे पाता।
सत्ता आराम की चीज़ मानी जाती रही
थी, लेकिन भाजपा आराम करती नजर नहीं आ रही! उसका मुख्य चेहरा नरेन्द्र मोदी राज्यों की खाख छानता फिरता है। उसका अध्यक्ष कार्यकर्ताओं के साथ घुमता रहता है। उसके नेता
और उसके मंत्री रैलियों में दिखाई देते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री, रक्षामंत्री
या राज्य स्तर के मंत्री दूरदराज के इलाकों में दौरा करते दिखाई देते हैं। देश का काम
करे या न करे, लेकिन वे राजनीति का महत्वपूर्ण काम जरूर करते हैं! 2014
में शायद भाजपाई कार्यकर्ताओं ने भी सोचा होगा कि अब 5 साल आराम करेंगे, लेकिन उन्हें उनके नेता ही सरप्राइज दे रहे हैं! आराम हराम है का सूत्र उनमें दिखाई देता
है। कुछ पार्टियों में जब स्थायी अध्यक्ष अवकाश पर हो, तब कार्यकारी अध्यक्ष चुना
जाता है, जिसे वर्कींग प्रेसिडेंट भी बोलते हैं। लेकिन इनका स्थायी अध्यक्ष स्थायी
के साथ साथ वर्कींग भी दिखाई देता है! पीएम से लेकर
उनका प्रभारी, राज्यों का दौरा हो या विदेशों का, काम हो या ना हो, लेकिन पूरा दिन
वो मीडिया से लेकर हर संभव संपर्कों के जरिये लोगों की नजरों के सामने खुद को खड़ा जरूर कर लेते हैं।
जमीनी स्तर से लेकर सोशल मीडिया
तक, भाजपा अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों तक सारी सामग्री पहुंचाती है। चाहे वो
सच्ची हो या झूठी, लेकिन कार्यकर्ताओं और सोशल मीडिया समर्थकों तक कंटेट जरूर
पहुंचाए जाते हैं। कांग्रेस और भाजपा में वर्तमान में पहला फर्क यही नजर आता है कि भाजपा
पार्टी कैसे चलती होगी, पता चलता है। लेकिन कांग्रेस कैसे चलती होगी, ये करंट
मिस्ट्री ही है!!! जीतने के बाद भाजपा में पुरानों की जगह नये चेहरे का
दौर आज भी जारी है, कांग्रेस में ये कब रुकता है और कब चलता है उसका कोई समय तय
नहीं होता। लंबे दौर से कहा जाता है कि इस देश में सत्ता के काबिल पार्टी कोन है उस
पर अलग अलग राय हो सकती है, लेकिन विपक्ष के तौर पर सबसे कारगर पार्टी भाजपा है।
आज भी सरकार में भी वो ही है और लगता है कि विपक्ष में भी वो ही है!!!
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास
मुद्दे नहीं हैं। 1947 से लेकर 2014 तक का उसका अपना एक इतिहास रहा है। उसके पास
अपनी सफलताएं और शानदार व यादगार लम्हों की लंबी सूची भी है और साथ में विपक्ष के
काले कारनामों का हथियार भी है। सभी को पता है कि आज के समय में जितनी भी योजनाएं हैं,
संगठन हैं, संस्थाएं हैं, ढांचे हैं, व्यवस्थाएं हैं, कानून हैं, उनमें से ज्यादातर
कांग्रेस द्वारा लागू किये गये विषय हैं या उनके द्वारा चलाए गए हैं। कई सारी चीजें कांग्रेस के पास है जो इस देश के इतिहास के लिए मील का पत्थर है। तटस्थ रूप से
देखे तो 70 सालों के भारत के इतिहास में आज दुनिया जिस भारत को जानती है और उसका
लोहा मानती है, उसके पीछे कही न कही कांग्रेस खड़ी दिखाई देती है। अंतिम समय में
आरटीआई से लेकर जनलोकपाल तक के कानून पारित करने का श्रेय उनके पास है।
वहीं, भाजपा जैसी पार्टियों के
काले कारनामे, उनके भ्रष्टाचार, उनके विवाद, उनकी नाकामियां इन सबकी सूची भी लंबी
है। इतना ही नहीं, तत्कालीन सरकार की जो भी योजनाएं हैं, कानून है या प्रयास हैं, सभी
को पता है कि वो पिछली सरकारों के ही प्रतिबिंब हैं। कहा जा सकता है कि तत्कालीन
सरकार का अपना कुछ है ही नहीं। लेकिन हाल देखिए, कांग्रेस के पास सब हथियार होते
हुए भी वो निहत्थे नागरिक जैसी दिखाई देती है!!!
बावजूद इसके, कांग्रेस आलसी
पार्टी दिखाई देती है। उनके पास लंबी सूची है, अपनी सफलताओं की और विरोधियों की नाकामियों
की। तत्कालीन सरकार ने तो ऐसे अनगिनत मौके कांग्रेस को दिए, अनगिनत विवाद दिए,
विवादास्पद चीजें दी, लेकिन कांग्रेस के पास सारे मौके होते हुए भी वो जैसे कि
अवकाश में सो रहा राजनीतिक दल दिखाई देता है! अपना कुछ न होते हुए भी भाजपा ने उसे
अपना साबित करके दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जबकि कांग्रेस 40 पर सिमटने के बाद
जैसे कि मानसिक रूप से सिमट चुकी है! कांग्रेस के
विरोधी दलों के लिए बिलकुल आसान हो रहा है कि वो अपने अपने नेताओं को कांग्रेस
नेताओं सें ज्यादा अच्छे साबित कर सके। इतना ही नहीं, उन विरोधियों के लिए उससे भी आसान
है कि वे कांग्रेसी चेहरों को बुरा भी साबित कर सके।
एक बात तो जरूर लिखनी होगी कि
भाजपा या उनके संगठन इस नयी सदी में भले पुरातन काल की बातें करे, लेकिन यह पार्टी
चलती है नये संसाधनों और नये प्रयोगों से ही!!! जबकि कांग्रेस
रुक सी गई है।
वैसे कांग्रेस के सार्वजनिक जीवन
में बोलने की शैली तथा शालीनता या मर्यादा को लेकर अनेकों अनेक लोगों से एक बात जरूर
सुनी है। उन अनेकों अनेक लोगों के लहजे में संक्षिप्त में बात को रखे तो, वे लोग कहते
नजर आ रहे थे कि, “हम भी कांग्रेस का विरोध किया करते थे,
राहुल गांधी या सोनिया गांधी की आलोचनाएं भी करते थे, लेकिन किसी कांग्रेसी की तरफ से भद्दी गालियां मिलना या विरोध को देशद्रोह से जोड़ देना जैसी प्रतिक्रियाएं नहीं आती थी। एक बात साफ है कि भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों पर दोनों दल एक सरीखे हैं।
भाजपा को जितना छोटा कार्यकाल मिला है, भ्रष्टाचार की सूची फिर भी बनी तो है, मुमकिन
है कि आगे और भी मामले आए। न आए वही ज्यादा अच्छा है। आर्थिक नीतियों पर तो एक ही
चीज़ कही जा सकती है कि जिसे सत्ता मिलेगी वो कांग्रेस बन जाएगा। लेकिन शालीनता, विरोधियों
को उत्तर देने की मर्यादा जैसे विषयों में कांग्रेस काफी परिपक्व थी।”
लेकिन, कांग्रेस के लिए ये बात
और भाजपा या आम आदमी पार्टी के लिए ये बात, एक दूसरे ही दृष्टिकोण की ओर जाती
है। वो विषय अलग सा है। बिगड़े बोल की दुनिया का इतिहास हम लिख चुके हैं। फिलहाल तो कांग्रेस के लिए सिरदर्द यह है कि... आज कई लोग
या कई विवेचक कांग्रेस के आलसीपन पर ज्यादा टिप्पणियां करते हैं। वहीं, ऐतिहासिक जीत
के साथ केंद्र में सत्ता पर काबिज भाजपा या मोदी की कार्यशैली देख लीजिए, या आम आदमी
पार्टी की कार्यशैली देख लीजिए। मोदी ऐतिहासिक जीत के साथ पीएम की कुर्सी पर बैठे
हैं। उनकी पार्टी कांग्रेस जैसे महारथी को धूल में मिला चुकी है। बावजूद इसके, भाजपा
या मोदी में जीतने की इच्छा दिखाई देती है, विरोधियों को घुटनों पर लाने की इच्छा
दिखाई देती है। इतनी लोकप्रियता के बावजूद उनकी रैलियां देख लीजिए। लगता नहीं कि वो
थके हैं या संतुष्ट हैं। जैसे कि उन्हें हर राज्य जितने हैं। उनकी हर रैली में एक जोश
दिखाई देता है। वहीं कांग्रेस सचमुच मृत अवस्था में दिखाई देती है। वे चुनाव लड़ने के
लिए लड़ रहे हैं, ना कि जीतने के लिए! कांग्रेस के
लिए फिलहाल तो सबसे बड़ी नाकामी यह है कि आज भाजपा बनाम कांग्रेस की बात नहीं होती,
आज मोदी बनाम राहुल की बात नहीं होती, बल्कि भाजपा या मोदी के सामने आम आदमी पार्टी
या अरविंद केजरीवाल नाम की शख्सियत का ज़िक्र होता है। 40 सीटों पर सिमटने के बाद
कांग्रेस के लिए ये एक और राजनीतिक हार है।
भविष्य की धारणाएं नहीं की जा सकती।
क्योंकि राजनीति से संबंधित धारणाएं ज्यादातर गलत ही साबित होती आयी है।
(इंडिया इनसाइड, 17 अक्टूबर 2016, एम वाला)
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