Ticker

6/recent/ticker-posts

Notebandi Notebadli Days : 500 और 1000 के नोट पर सरकार का बैन, ऐतिहासिक फ़ैसला, आपाधापी, विवाद और आशंकाएं तथा ख़ुशी और ग़म का दौर


इतिहास... जो बनता हमारी आँखों के सामने है... जीते हम हैं, किंतु लिखती है आने वाली पीढ़ी... पढ़ता है आने वाला कल। इतिहास प्रथम नहीं होता, दोहराए जाने वाली चीज़ भी होता है।

दिन था 8 नवम्बर, 2016। वक्त था रात 8 बजे का। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक ही देश को संबोधित किया। पाकिस्तान के साथ सरहदों पर तनातनी चल रही थी। 8 बजे के कुछ पहले ही अचानक ख़बरें आने लगी कि रात 8 बजे प्रधानमंत्री देश को संबोधित करेंगे। इसी दिन वे दोपहर को तीनों सेना प्रमुखों से मुलाक़ात कर चुके थे। एनएसए के साथ भी संभवतउनकी मुलाक़ात हो चुकी थी। ख़बरें आ रही थी कि देश के नाम संबोधन ख़त्म करके वे राष्ट्रपति से मुलाक़ात करेंगे। देश में माहोल गर्म हो गया। सभी की जुबान पर एक ही बात थी  युद्ध। कोई पाकिस्तान को लेकर सख़्त कदमों की बात कर रहा था, कोई कश्मीर को लेकर, तो कोई सरहद को लेकर। रात के 8 बजे पीएम ने देश के नाम अपना संबोधन शुरू किया।

देश के नाम संबोधन शुरू हुआ। संबोधन की कुछ मिनटों तक पीएम अपनी सरकार तथा सरकार की योजनाओं को लेकर बातें करते रहे। उन्होंने सरकार द्वारा किए गए विकास कार्यों तथा योजनाओं का ज़िक्र किया। उन्होंने व्यापार, गरीबी, भ्रष्टाचार जैसी चीजों पर कई मिनिटों तक संबोधित किया। हालांकि, पीएम के इस संबोधन का शुरुआती हिस्सा कइयों को आश्ववस्त कर गया कि बात युद्ध को लेकर नहीं होगी। लोग इंतज़ार कर रहे थे कि बात शायद पाकिस्तान के खिलाफ किसी रिश्ते, सख्त कूटनीतिक कदम की होगी। और आखिरकार, जब लोगों ने इस संबोधन का मुख्य विषय सुना, लोगों का तो पता नहीं, लेकिन जिन्होंने अवैध धन जमा करके रखा था उनके पैरों तले से जमीन खिसक गई।

प्रधानमंत्री मोदी ने देश के सामने ऐतिहासिक घोषणा करते हुए कहा कि, रात 12 बजे से 500 और 1000 के नोट अमान्य हो जाएंगे। ये काले धन के विषय में सरकार द्वारा उठाया गया सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण कदम था। उन्होंने जो कहा उसका मतलब यही होता था कि रात से ही ये दोनों नोट कानूनी नहीं रहेंगे। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि बाकी की सारी मुद्राएं मान्य रहेगी। उन्होंने कहा कि, इससे कुछ दिनों की कठिनाई आएगीमगर कालाधनभ्रष्टाचार और आतंक से लड़ने के लिए लोग इतना सहन कर सकेंगे। सभी राजनीतिक दलमीडियासमाज के सभी वर्ग इस महान कार्य में सरकार से भी ज्यादा बढ़-चढ़ कर भाग लेंगे और सकारात्मक भूमिका अदा करेंगे। प्रधानमंत्री ने कहा कि, इस घोषणा की जानकारी किसी भी मंत्रीअधिकारी को नहीं थी। भारतीय रिजर्व बैंक ने फैसला लिया है कि 9 नवंबर को एक दिन के लिए सभी बैंक बंद रहेंगे। क्योंकि बैंकों को आने वाली चुनौतियों के लिए खुद को तैयार रखना है। उन्होंने आग्रह किया कि, सभी नागरिक धैर्य रखते हुए पोस्ट ऑफिस से लेकर बैंक के अधिकारियों का सहयोग करेंताकि बदलाव का यह दौर आसानी से निकल जाए।

उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि, लोगों को 50 दिन का वक्त दिया जाता है। 10 नवंबर से 30 दिसंबर तक आप 500 और 1000 के नोट बैंक में जमा कर उसके बदले में दूसरे नोट ले सकते हैं। 11 नवंबर की मध्यरात्रि से 72 घंटे तक सभी सरकारी अस्पतालों में 500 के नोट स्वीकार किए जा सकते हैं। रेलवे बुकिंग काउंटरबस अड्डे पर और हवाई अड्डे पर भी 500 और 1000 के नोट स्वीकार किए जा सकेंगे। चेकडीडी और ईसीएम में कोई रुकावट नहीं आएगी।

तत्कालीन पीएम की इस घोषणा के साथ ही 500 और 1000 के कागज के टुकड़े सचमुच कागज के ही टुकड़े बन गए। आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में मोरारजी देसाई सरकार के बाद ये दूसरा मौका था जब बड़े नोट को रद्द कर दिया गया हो। काले धन को लेकर तत्कालीन सरकार का ये अब तक का सबसे बड़ा कदम था। और सबसे सख्त भी। 1, 2, 5, 10, 20, 50 और 100 के नोट पहले की तरह ही मान्य थे, उसे इस सूची में नहीं डाला गया था। पीएम ने अपने संबोधन में नोट्स की बदली करने की व्यवस्थाओं की जानकारी भी दी। पीएम के संबोधन के कुछ देर बाद आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल ने भी प्रेस कोन्फरन्स की और अन्य तकनीकी पक्ष सामने रखे। जिसमें नोट जमा करना तथा नोट बदलना आदि पर ज्यादा जानकारी मुहैया करवाई गई।

कुल मिलाकर, 8 नवम्बर 2016 की रात 12 बजे से 500 और 1000 के नोट अमान्य हो गए। सरकार ने लोगों से आग्रह किया कि कुछ वक्त तक दिक्कतें ज़रूर होगी, लेकिन ये करना होगा। नोट बदलने के लिए कई सारी व्यवस्थाएं बताई गई। दूसरे दिन देश के तमाम बैंक बंद रहे। दो दिन तक एटीएम भी बंद कर दिये गए। दूसरे दिन दिक्कतें बढ़ती देख सरकार ने नेशनल हाईवे को 11 नवम्बर की रात तक टोल टेक्स फ्री कर दिया, जिसे बाद में 14 नवम्बर तक बढ़ाया गया। एक दिन बैंक बंद रहे और 10 नवम्बर के दिन नोट की अदलाबदली का कार्य आरंभ कर दिया गया। 12 और 13 नवम्बर, यानी कि शनिवार और रविवार के दिन भी बैंकों ने काम किया। शेयर बाज़ार पहले दिन धड़ाम से गिरे और उन्हें संभलने में कुछ दिन लग गए। केवल पंदरह मिनटों में बीएसई की मार्केट केप 7 लाख करोड़ तक गिर गई। कई जगहों पर ट्रैफिक पुलिस ने भी जुर्माना वसूलना बंद कर दिया था। पानी-बिजली जैसे बिलों के भुगतान के लिए 3 दिन तक पुरानी नोट चलाने का भी फैसला बाद में आया। कुछ दिनों बाद सहकारी क्षेत्रों के बैंकों में नोटबदली पर रोक लगा दी गई।

कुछ दिनों बाद दिक्कतें बढ़ती देख फिर एक बार समयमर्यादा बढ़ा दी गई। टोल टैक्स मुक्ति 18 नवम्बर तक पहुंची। सीनियर सिटीजन और विकलांगों के लिए अलग से कतारें शुरू की गई। करेंट अकाउंट से निकासी की ढिल दे दी गई। एयरपोर्ट पर 21 नवम्बर तक कार पार्किंग फ्री कर दिया गया। आवश्यक सेवाओं में पुराने नोट की समयसीमा फिर एक बार बढ़ाकर 24 नवम्बर कर दी गई। कहा गया कि फैसले के कुछ दिनों बाद जिस तरह की उम्मीद थी, उसके सामने देश में कैश-क्राइसीस सामने आने की वजह से सरकार को छूट देने के ये कदम उठाने पड़े थे। कुछ दिनों बाद आरबीआई ने बैंकों तक नकदी पहुंचाने के लिए भारतीय वायुसेना की भी मदद ली। कुछ दिनों बाद नोटबदली करवाने वालों को स्याही लगवाने के निर्देश भी दिये गए।

दूसरे दिन से देशभर में इंक्मटैक्स के रेड शुरू हो गए। देश के अलग अलग शहरों में अलग अलग व्यवसाय धारकों पर आयकर विभाग टूट पड़ा। इसमें सोने के दाम बढ़ने के बाद सोनी बाज़ार भी चपेट में आ गया। डब्बा ट्रेडिंग में काफी अफरातफरी फैली रही और उनके डब्बे पिचक गए। दूसरे दिन बाजारों में सन्नाटा पसरा रहा, शॉपिंग मॉल्स सूमसाम दिखे और ट्रैफिक रुक सा गया।

विरोधियों के बयान या उनकी कार्यशैली को लिखने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप नींद में हो तब भी इसका अंदाजा होता ही है। स्वयं भाजपा ने प्रतिपक्ष के तौर पर जनवरी 2014 में 2005 के पहले के नोट की बदली का विरोध किया था। तब भाजपा ने कहा था कि, "यह निर्णय बैंक सुविधाओं के बिना रह रहे दूर दूराज के गरीब लोगों की खून पसीने की गाढ़ी कमाई को मुश्किल में डाल देगा, जिसे उन्होंने वक्त जरूरत के लिए जमा किया है।" अरुण जेटली ने कहा था कि, "करेंसी बदलने का यह फैसला आम आदमी को परेशान करने और उन्हें बचाने के लिए है जिनका भारत के जीडीपी के बराबर का कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है।"

वही, कांग्रेस के ऐसे उदाहरण भी मिल जाएंगे। जैसे कि सन 2004 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक सिक्का जारी किया था। इस सिक्के के पीछे प्लस का निशान बना हुआ था, जिस पर चार बिंदु थे। दरअसल ये क्रॉस के निशान की प्रतिकृति थी। आरोप लगे थे कि ये ईसाई धर्म के वोट बैंक की राजनीति थी। मामला जो भी हो, लेकिन ये सिक्के जारी ज़रूर किए गए थे। आरबीआई ने इन्हें 2004 से 2006 के बीच जारी किया था और विरोध के बाद 2007 में वापस ले लिया था। हमारे यहां शायद मुद्रा हर व्यक्ति तक अपनी बात पहुंचाने का सबसे आसान तरीका है।

जितने भी अर्थशास्त्रियों की त्वरित प्रतिक्रियाएं आई, उनमें से किसीने ही शायद इस फैसले की ठोस आलोचना की थी। हां, लोगों को होने वाली दिक्कतों के संबंध में आलोचनाएं ज़रूर की गई। लेकिन इसके पीछे उन आलोचकों का मकसद व्यवस्थाओं को ज्यादा दुरस्त करने का था। ज्यादातर तो इस फैसले की प्रशंसा ही हुई। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की ओर से आलोचना हुई और ये स्वाभाविक भी था। विपक्षी राजनीतिक पार्टी होने का कर्तव्य उसे निभाना था और उसने यही किया। हालांकि 2000 के नोट पर अर्थशास्त्रियों से लेकर आम आदमी तक के मन में सवाल कोंधते रहे। कालाबाजारी या ऐसी संबंधित चीजें रोकने हेतु ऐतिहासिक फैसला और उस फैसले के साथ 2000 के नोट वाली बात सवालियां निशान बनती रही।

वही, इस निर्णय की जानकारी चंद लोगों तक ही थी, इस चीज़ को लेकर भी कई सारी आशंकाएं बनती रही। इन आशंकाओं का अपना एक स्थान था और ठोस वजहें भी थी। लिहाजा, इन आशंकाओं को नजरअंदाज करना लोगों के लिए मुमकिन भी नहीं बना। जो मनघडंत आरोप लगाए गए उन आरोपों की बात और है, जिन्हें हम यहां स्थान नहीं दे रहे।

जो वाकई इमानदार लोग थे उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्हें महसूस हुआ कि आखिरकार उनकी भी कुछ जगह है इस देश में। जिनकी मध्यमवर्गीय जीवनशैली पर ताने मारे जा रहे थे वे लोग कहने लगे कि  अब कइयों को पता चलेगा कि चेन की नींद क्या होती है। एश-ओ-आराम से हर दिन व्यतीत करने वाले लोगों के प्रति मध्यमवर्गीय लोगों ने कोई सहानुभूति रखनी नहीं चाही। रखते भी कैसे? कहा गया कि जैसी करनी वैसी भरनी। एक पत्रकार ने अपने शो में जो कहा वो ही मध्यमवर्गीय लोगों की सामूहिक प्रतिक्रिया हो सकती थी। उसके लफ्जों मे, जब प्रधानमंत्री के एलान को सुन रहा था तब अपनी इमानदारी को अलग से महसूस कर रहा था। अक्सर सिर्फ सैलरी पर जीने वाले लोगों को समाज बेवकूफ की तरह देखता हैइसलिए लगा कि हंसने की बारी मेरी है। मैं हंस सकता हूं। सो फ़ैसले की रात खूब हंसा। मैं सचमुच का ख़ुश था। बहुत लोग झूठमूठ के ख़ुश थे!

जो लोग इमानदार थे, जिन्हें हररोज झटके लगते रहते थे, जिन्हें ऊंचनीच के तानों में बुना जाता था, वो लोग एश-ओ-आराम वाले समुदाय को करारा झटका लगने से काफी खुश दिखाई दिए। 2000 के नोट आ रहे थे इसलिए कई इमानदार लोग आशंकित भी थे, लेकिन उन्होंने भी कहा कि, कुछ दिन तो सीना तन के चलने का मजा आएगा। जब तक 2000 की नोट का क्लोनिंग नहीं होता तब तक तो यकीनन।

इस बीच एक विश्लेषण भी यहां रखना ज़रूरी है। कहा जाता है कि पढ़ने वाले सब नहीं पढ़ते, समझने वाले सब नहीं समझते और लिखने वाले भी सब नहीं लिखते। क्या समझे? संक्षेप में उसे यहां हुबहु रख देते हैं, जो कुछ कुछ यूं था कि, उन तथ्यों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि 2000 के नोट की तस्वीर सोशल मीडिया में पहले से घूम रही थी। रिज़र्व बैंक ने भी कहा है कि तस्वीर सही है और उनकी गुप्त प्रक्रिया के बावजूद किसी ने तस्वीर बाहर कर दी!!!! जो लोग बड़े पैमाने पर नकद काला धन रखते हैंवो इस तरह के इशारे को तुरंत समझ जाते हैं। हम इस तरह की बातों की समझ नहीं रखते कि जब ऐसे लोगों को ये सूचना मिल जाए तो वो क्या क्या कर सकते हैं! वैसे भी अख़बारों में 6-7 महीने से 500 और 1000 रुपये के नोट बंद करने के विश्लेषण तो छप ही रहे थे। आप गूगल कर सकते हैं। इसी साल के मई महीने में लाइवमिंट और इकोनॉमिक टाइम्स में नोटों को बैन करने के असर पर लेख छपे हैं।

जहां हाल ही में जमीन या मकान के सौदे हुए थे वहां बेचनेवाले फायदे में दिखे, जबकि खरीदनेवाले लोग फंस गए। जो आशंकाएं या आरोप लगे थे कि सरकार की संभवित कार्रवाई की खबर लीक हो चुकी थी उसीको समर्थन देने वाली घटनाएं भी हुई। एक स्थानिक अखबार के हवाले से कहा गया कि अहमदाबाद में सब रजिस्ट्रार कचहरियों में आम दिनों में हर दिन औसतन 20 से 25 दस्तावेज रजिस्टर होते हैं। लेकिन 2016 की दीवाली के पहले अचानक ही इनकी संख्या 100 से 125 तक पहुंच चुकी थी। यहां तक कि पूरी की पूरी सोसायटी का सौदा हुआ हो ऐसे मामले भी सामने आए, जो आसानी से समझ में नहीं आते। अहमदाबाद के वेजलपुर, नवावाडज और पालडी इलाको में सबसे ज्यादा रजिस्ट्रेशन हुए। बोपल से लेकर ओगणज इलाकों तक जमीनों के सौदों ने अचानक ही तेजी पकड़ ली थी। पता नहीं कि रियल एस्टेट वालों की छठी इंद्रिय काम कर गई थी या फिर उन्हें सरकार के कदमों का अंदेशा हो चुका था या फिर मामला कुछ और ही था। कम से कम यहां तो बिल्डर और डेवलपर्स की इस बार चांदी हो गई और बाकी लोग फंस गए। अब यह जांच का विषय है कि हर दीवाली में इतना ज्यादा उछाल आता रहा था या नहीं।

मामले को सरकार ने गोपनीय बताया था, लेकिन सचमुच गोपनीय था या नहीं, उसे लेकर बड़ी आशंकाएं पसरी रही। और इसका किसी के पास कोई ठोस उत्तर नहीं था। गुजरात के सौराष्ट्र से संचालित स्थानीय अखबार अकीला ने तो 1 अप्रैल 2016 को ही घोषणा कर दी थी कि 500 तथा 1000 के पुराने नोट बंद होने वाले हैं। अखबार ने रिपोर्ट में लिखा था कि यह कवायद मोदी सरकार काले धन पर नकेल कसने के लिए कर रही है। खास बात है कि तत्कालीन पीएम ने 8 नवंबर को रात 8 बजे राष्ट्र के नाम संबोधन में जो बातें कहींसारी बातों का उल्लेख गुजरात के इस अखबार की रिपोर्ट में पाया गया था।

12 नवम्बर 2016 के दिन रेडिफ.काॅम साइट पर छपे एक रिपोर्ट में अकीला के संपादक किरीट गणात्रा ने इसे लेकर बयान दिया था कि हमने तो ये खबर 1 अप्रेल के दिन छापी थी, ताकि दर्शकों के साथ अप्रैल का पारंपरिक जोक किया जा सके, हमें नहीं पता था कि ये जोक सच हो जाएगा। उन्होंने दावा किया कि ये तो संयोग ही था। वाकई, संयोग भी आजकल संयोग से संयोगिता हुए जा रहे थे!!!

दैनिक जागरण कानपुर संस्करण में 27 अक्टूबर को ही 2,000 के नए नोट आने की खबर आ चुकी थी। वहीं एक दिन पहले यानी 26 अक्टूबर के दिन ही दैनिक जागरण की वेबसाइट पर यह खबर दौड़ने लगी थी। शायद उन्हें अक्टूबर में अप्रैल वाला जोक करना होगा!!!

पिछले महीने, यानी कि अक्टूबर 2016 में आंध्र के सीएम चंद्रबाबु नायडु ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि 500 और 1000 के नोट बंद कर दिये जाएं। उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी थी। तब उन पर आरोप मड़ा गया था कि नायडू इसके ज़रिए अपने विरोधी जगन को निहत्था करना चाहते हैं। कुल मिलाकर, जिसके बारे में दावा किया गया कि पता तो सिर्फ पीएम और आरबीआई को ही था, मंत्रियों या विभागों तक को नहीं, उसके सामने दूसरा सिरा यह भी था कि इस तरह की बातें कई महीनों से हो रही थी, 2000 के नोट की तस्वीर सोशल मीडिया में पहले से छायी हुई थी, 500 और 2000 के नये नोट्स छप रहे हैं ऐसी बातें बाजारों में नंगे पैर घूम रही थी, तब इसका फायदा किसने उठाया होगाक्या जिनके लिए इशारा काफी होता है वो सो गए होंगे या उन दिनों उन्होंने उन रातों में जग जग कर आज रात की नींद सुकुन वाली फिक्स कर ली होगी।

कई चीजों के होने के बावजूद भी कहा जा सकता है कि जिन लोगों ने बोरियां भर के रखी थी, या जिन्हें इशारे नहीं मिले थे या जो इशारों इशारों में चुक गए थे, ऐसे भी लोग ज़रूर मौजूद थे, जिन्हें योग के बावजूद सुकून नहीं मिला। कई जगहों पर जाली नोट के ढेर जलाए जाने की खबरें भी आई। सरकार के इस फैसले से तत्काल रूप से तमाम अवैध आर्थिक तबके बुरी तरह से झुलस ज़रूर गए थे। जाली नोट का कारोबार करने वाले लोगों के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था, जब तक नये नोट का क्लोनिंग ना कर ले। आतंकवाद और आतंकवाद से संबंधित तमाम प्रक्रियाओं में काला और जाली धन ही इस्तेमाल होता आया है। भारत से सटे पडोशी देश, जो भारत की करेंसी का ही व्यापार करते थे, उनकी नींद हराम हो गई। कहा गया था कि इस साल पाकिस्तान ने करेंसी पेपर और स्याही की अपनी सालाना ज़रूरतों से कई ज्यादा मात्रा में खरीदी की थी। हवालाबाजों से लेकर दूसरे तमाम बाज या लोमड़ियां तक दुबकती नजर आई। साफ था कि कुछ वक्त तक और कुछ हद तक सारे अवैध और राष्ट्रविरोधी कारोबारियों को तीर सीधा दिल पर लगा था। कश्मीर हिंसा में तत्काल कमी इस बात को साबित कर रही थी। आतंकवाद संबंधित ढांचे को इस फैसले से करारा झटका लगा था।

एक बात तो स्पष्ट थी कि नोटबंदी व नोटबदली की ये प्रक्रिया तीन चीजों को सीधा असर डालनेवाली थी। आतंकवाद संबंधी आर्थिक गतिविधियां, जाली नोट का कारोबार और टैक्स कलेक्शन। और ये तीनों चीजें तत्काल रूप से प्रभावित होने वाली थी, यूं कहे कि कुछ दिनों के लिए ही। इसके अलावा और जितने दावे किए गए, चाहे वो काला धन हो या भ्रष्टाचार हो या अन्य उत्साही बातें हो, इन्हें लेकर विवाद ज़रूर पनपते रहे।

वही, इन्हीं दिनों गुजरात में कांडला पोर्ट ट्रस्ट के दो अधिकारियों को 2.5 लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया गया। सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि घूस की ये पूरी रकम नये नोट में थी, जिसे 11 नवम्बर को लांच किया गया था!!! यानी कि अन्य दावें लंबी दलीलें या चर्चा मांग लेते थे। इस कदम से आतंकवाद को लेकर लोगों में जो भरोसा था, वो भी तब डगमगाया जब 22 नवम्बर के दिन जम्मू-कश्मीर के बांदीपोरा इलाके में हुए एक एनकाउंटर के पश्चात मारे गए आतंकवादियों से 2000 रुपये के नये नोट मिले!!!

नोटबंदी के 14 दिन बाद भी लोग बैंकों के आगे नये नोट के लिए कतारों में खड़े थे। इस बीच ऐसी घटना ने लोगो को काफ़ी आहत भी किया। कुछ जगहों पर नये नोट भी नकली मिलने लगे थे! कभी छापों के दौरान लाखो या करोड़ों के नये नोट भी बरामद हुए! इन घटनाओं ने लोगों के भरोसे को हिला दिया था।

काला धन... इसे लेकर हमारी समझ कुछ फिल्मी ज़रूर है। हमें खयाल रखना चाहिए कि काला धन के अनेक रूप होते हैं। काला धन प्रक्रियाओं में जीवित रहता होता है। हम समझते हैं कि नकद दी जाती है और नकद ली जाती है। लेकिन काला धन का ये अवतार पुराना हो चुका है। कहीं पर ज़रूर मिल जाता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसकी मात्रा कम ही है। इसलिए काला धन को ये फैसला तत्काल प्रभावित करेगा ये उत्साह भी बेइमानी थी। हा, काला धन धारकों को तत्काल ज़रूर प्रभावित होना था। लेकिन अतिउत्साही उम्मीदों से आखिरकार सरकार की ही खिंचाई होने वाली थी। क्योंकि लोगों ने ये समझा और कहा कि आज से काला धन खत्म। लोगों ने यह समझा था, क्योंकि सरकार खुद ही ऐसा कह रही थी! लेकिन काला धन के रुप, काला धन बनने की प्रक्रिया का अवतार दूसरा सिरा है, जिसे छूने में लंबा वक्त ज़रूर लगने वाला था। काला धन नकद में ही नहीं होता, या काला धन का बहुत कम हिस्सा नकद में होता है ये समझना ज़रूरी था। या फिर काला धन के आंकड़े याद रखनेवालों को ये भी समझना ज़रूरी था कि काला धन है क्या, वो कहा होता है, विदेश में कितना प्रतिशत है और देश में कितने प्रतिशत है, इसके रूप क्या है, इसका निवेश कहा होता है और इसकी प्रक्रिया क्या होती है। शायद तब संयमित व्यवहार दिख जाता।

हां, इसकी एक झलक 2017 के चुनावों में ज़रूर देखी जा सकेगी, जो एक टेस्ट होगा कि इस फैसले से वो लोग प्रभावित हुए है या नहीं, जिनके लिए फैसला लिया गया था। लोगों की जो उम्मीदें है उनका ये टेस्ट होगा। अगर वहां भारतीय इतिहास का सबसे आदर्श चुनाव लड़ा जाएगा, तो यकीनन उनकी उम्मीदें पूरी हो गई है ऐसा कहा जाएगा। दिन में चार-चार बार हेलीकॉप्टर से उड़ने वाले अलग अलग दलों के चार नेता एक ही कार में दिखाई दे, रैलियों के मंच सिम्पलिसिटी इस द बेस्ट फैशन सूत्र को साबित करते दिखे, रैलियों की तादाद कम हो जाए, रैलियों की सजावट और तैयारियां आदर्श बनती दिखे तथा विशेषतः ये चुनाव पिछले सालों के चुनाव से कम खर्चे पर हो, तब लोगों की उम्मीदें जमीन पर यथार्थ होती दिखेगी। वर्ना उन्हें फिर से काला धन के ग्रंथ को खोलकर नये सिरे से चैप्टर पढ़ने बैठना पड़ेगा।

वैसे इन उम्मीदों में जीना तो अच्छा लगता है। नेताओं की घोषित आय जितनी है उस हिसाब से वो अल्टो कार में आते जाते दिख जाए, किसीकी सारियां और सैंडल्स का संग्रह फिक्का पड़ने लगे, किसीको हाथी की मूर्तियां साफ करवाने के पैसे भी ना मिले, आसमानों में उड़न खटोलों का ट्राफिक कम हो जाए... ये दुनिया सचमुच दिल को खुशी से भर देती है। क्योंकि, हम मानव जीव है, हमारे पास कुछ है नहीं, और हमारे पास कुछ नहीं है इसके ताने भी मारे जाते है, ऐसे में कुछ ऐसा मंजर दिल को खुश ही करेगा न।

वैसे एक बात सीधी थी कि इस फैसले से जाली नोट तथा आतंकवाद संबंधित राष्ट्रविरोधी चीजें, इन दोनों को सीधा और तत्काल असर होने वाला था। इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती। तत्काल असर लिखा है, लंबा नहीं। हालांकि बाद में जाली नोट का मिलना, आतंकवादियों से मिले नये नोट आदि घटनाओं ने इसमें भी आशंकाओं को जगह दे दी थी। ऐसे में अन्य तमाम दावों या मान्यताओं पर विवाद या दलीलें ज़रूर हो सकती है। और यह चर्चा का अन्य विषय रहेगा। फिलहाल तो हम इस फैसले के बाद के खुशी और गम के दौर को देख रहे हैं, जो आने वाले काल में याद रखा जाएगा।

इस बीच, पैसे वालों ने सोना खरीदना शुरू कर दिया और दूसरे दिन ही सोने के दामों में भारी उछाल आ गया। कई तो रेल टिकट खरीद कर उसे कैंसिल करवाने के नुस्खे अपनाने लगे। ऐसे दूसरे अन्य तरीके भी कइयों ने अपनाए। लेकिन सभी विभागों ने इन नुस्खों को पहचान कर उस पर अपने अपने तरीकों से रोक लगा दी। स्मार्ट नागरिकों ने स्मार्ट तरीके भी अपनाए, जिससे टैक्स से बचा जा सके। इन दिनों कइयों को किसानों की भी याद बहुत सताने लगी थी!!! आमलेट बेचने वालों ने अपना राज उगला और बैंक मैनेजरों से पूछने लगे कि घर में 15-20 लाख कैश पड़ा है उसका क्या किया जाए। 25 से 50 लाख वालों की भी कमी नहीं थी। संपर्क में तो ऐसे लोग भी आए जिन्होंने 4 करोड़ तक की कैश का रास्ता पूछा हो। इतना ही नहीं, बड़े बड़े नोट नदी में बहा दिये गए। कहीं पर इसे जला दिया गया। कुल मिलाकर, बोरियों वाले लोग अपनी पैसे की गुनियों के रास्ते तलाशने निकल पड़े। कई जगह गाडियां खरीदी जाने लगी। लेकिन स्मार्ट लोगों के स्मार्ट नुस्खे तुरंत समझ आ गए और सरकार वहां भी टूट पड़ी। आलम ये हुआ कि कुछ वाक़यों में तो लोगों ने बड़ी बड़ी गाडियां खरीदी और फिर किसी को किडनेप किया हो ऐसे बचते-बचाते मंजिल तक पहुंचने लगे! कार खरीदी गई, लेकिन उसी परिवार के कुछ लोग जेब या थेलों में नकद लेकर बस में सफर करते हुए दिखाई दिए!

ऐसा नहीं था कि एफरातफरी बैंकों व एटीएम की लाइनों में ही थी। हर वो घर में अफरातफरी थी जहां सरकार की नजरों से बचाकर नकद जमा की गई हो। विदेश में काला धन पर या करोड़ों अरबो रुपयें लेकर भाग जाने वालों को कोसने वालें खुद काला धन बाहर निकालते नजर आने लगे!!! लगा कि यहां भी दुनिया फेसबुकियां टाइप ही है, जहां लोग दूसरों को उपदेश देते हैं, लेकिन खुद तो वो चीज़ नहीं करते। किसी 57 लोगों ने 85,000 करोड़ का कर दिया है और हमने तो कुछ लाख का ही किया है, ऐसी दलीलें जायज तो नहीं हो सकती। लगा कि बड़े मगरमच्छों ने जो भी रास्ता पहले से कर लिया हो या हो सकता है कि कई फंस भी गए हो, लेकिन इन छोटी मछलियों से टैक्स कलेक्शन अच्छा खासा हो ही जाएगा। जो पैसे घरों में पड़े थे, भले ही वो अवैध ना हो, उनका ठिकाना भी अब बैंक ही बन जाने वाला था।

जिन्होंने लिखापटी किए बिना जो लक्ष्मी छुपा कर रखी थी, उससे काफी कमाई सरकारी तिजोरी में आ जाएगी, इससे आसानी से तो इनकार नहीं किया जा सकता था। या फिर कहा जा सकता है कि अब वो लोग सचमुच नोटों की गड्डी को बेड शीट बनाकर सो सकते थे। क्योंकि अब तो कोई दिक्कत नहीं थी न।

आदमी तो आदमी, संस्थाएं तो संस्थाएं, लेकिन भगवान भी इसकी चपेट में आ गए! मंदिरों ने बोर्ड लगा दिए कि 500 व 1000 के नोट दानपेटी में ना डाले। कुछ मंदिर ऐसे भी रहे जिन्होंने आननफानन में क्रेडिट व डेबिट मशीन लगा दिए। धार्मिक संस्थाएं या उसके संबंधित ट्रस्ट भी इसकी चपेट में आए। और हर तरीके से भी चपेट में आए!!! धर्म पर ज्यादा चर्चा नहीं करते, लेकिन उन्हें भी क्यों ऊपरवाला याद आया होगा उसका अंदाजा हर समझदार आदमी आसानी से लगा सकता है।

11 नवम्बर के दिन केंद्रीय गृहमंत्रालय को अलर्ट जारी करना पड़ा। शायद सरकार ने जो सोचा था इससे ज्यादा व्यवस्थाओं की ज़रूरत थी या फिर ढिलाई बर्ती गई थी। नोट बदली की प्रक्रिया शुरू होने के बाद इतनी भीड़ जुटी की बैंकों में कैश की आवाजाही तेज करने के लिए जुट जाना पड़ा। ऐसे में आपराधिक तत्वों से भी खतरा था। लिहाजा गृहमंत्रालय की ओर से सभी राज्यों को एडवाइजरी जारी की गईजिसमें बैंकों और एटीएम की कैश वैन को पुख्ता सुरक्षा मुहैया कराने के निर्देश दिए गए। कहा तो यह भी गया कि मंत्रालय को आशंका थी कि नकदी न मिलने के कारण आमजन में असंतोष बढ़ने के कारण कानून व्यवस्‍था की समस्या आ सकती है ऐसे में जरूरी है कि बैंकों की कैश वैन की पुख्ता सुरक्षा की जाए। गृहमंत्रालय की ओर से तीन वरिष्ठ अधिकारियों को इसके लिए नियुक्त किया गया। इन अधिकारियों का काम सभी राज्यों के पुलिस प्रमुखों के संपर्क में रहकर बैंक और एटीएम कैश वेन की सुरक्षा व्यवस्‍था की समीक्षा करना था। हालांकि इसके बावजूद 2 जगहों पर लूट की घटना हुई। एक जगह पर पोस्ट ऑफिस में घुस कर कुछ बदमाशों ने लूंट की, वहीं दूसरी घटना में कैश वेन के ड्राइवर की हत्या करके वैन को लूंट लिया गया।

वहीं सुप्रीम कोर्ट में सरकार के फैंसले के खिलाफ याचिका दायर भी हुई। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर और जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ की बेंच ने सरकार के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि, सरकार की आर्थिक नीतियों में कोर्ट दखल देना नहीं चाहता। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फैंसले को अच्छा फैसला कहा। साथ में कोर्ट ने नसीहत भी दी कि, आम नागरिकों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, सरकार अपने कदम को सर्जिकल स्ट्राइक कहे या कारपेट बॉम्बिंग कहे, लेकिन इसे लेकर सार्वजनिक रूप से लोगों को परेशानियां ज़रूर हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ये दिक्कतें दुर करने की नसीहत दी।

वहीं सहकारी क्षेत्र के बैंकों को लेकर भी विवाद हुआ। कुछ दिनों तक सहकारी क्षेत्र के बैंक नोटबदली करने की प्रक्रिया निभाते रहे। फिर उन पर आरबीआई ने रोक लगा दी। आरबीआई ने कहा कि पुरानी नोट बदलने के लिए जो नियम तथा आदेश जारी किए गए हैं उसका सख्त पालन होने के बाद ही सहकारी बैंकों में नोटबदली की जा सकेगी। आरबीआई ने प्रेस रिलीज में कहा कि, उन्हें जानकारी मिली है कि नोट बदली की प्रक्रिया में बैंकों की ओर से नियमों का सही पालन नहीं हो रहा है। नोट लेना और बदल कर देना, इन प्रक्रियाओं में आदेशों और नियमों का सख्ती से पालन नहीं हो रहा है। देश के सहकारी बैंक आरबीआई के इस फैसले से खफा दिखे। कई राज्यों के सहकारी बैंक और उनके कर्मी व अधिकारियों ने आरबीआई के इस आदेश की आलोचना की।

हालांकि, दावे यह भी हुए थे कि सहकारी बैंको में कई बड़े बड़े सेटिंग हो रहे थे, लिहाजा आरबीआई ने उन पर रोक लगा दी थी। अब इन दावों में कितनी सच्चाई थी वो दूसरा विषय है। लेकिन कई अखबार हेडलाइन के पीछे क्वेश्चन मार्क लगाकर सेटिंग के इन दावों की खबरें छाप रहे थे। लोगों की जुबान पर चर्चा जैसे लफ्ज़ इस्तेमाल करके प्रिंट मीडिया में ये बातें लिखी जा रही थी। सवाल यह भी था कि आखिर सहकारी बैंकों को छूट क्यों दी गई थीऔर फिर अचानक वो छूट रद्द क्यों कर दी गई होगी?

कुछेक बैंक यूनियन नोट रद्द करने के फैसले के खिलाफ भी अड़ गए। इंडियन बैंक एसोसिएशन, ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन तथा ऑल इंडिया बैंक एम्प्लॉइज एसोसिएशन ने आलोचना करते हुए कहा कि पूर्व तैयारियों के बगैर नोट रद्द करने का फैंसला लिया गया है।

वहीं देश में बैंक, पोस्ट ऑफिस, एटीएम की लंबी कतारें, लोगों की दिक्कतें, दिक्कतों के चलते रोज रोज सरकार के नये नये कदम, कुछ जगहों पर लाइनों में खड़े लोगों की मौतें जैसी कई सारी चीजों को सुप्रीम ने संज्ञान में लिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही नोटबंदी को स्थगित करने की जनहित याचिका खारिज कर चुका था और सरकार के आर्थिक फैसले पर दखल नहीं देने की टिप्पणी कर चुका था। लेकिन उस वक्त भी कोर्ट ने लोगों को हो रही दिक्कतों पर सरकार से कदम उठाने के लिये कहा था। सरकार के 8 नवम्बर के फैसले के 10 दिनों बाद भी स्थिति में सुधार न होता देख सुप्रीम ने सरकार की व्यवस्था पर तिख़ी टिप्पणी की। सुप्रीम ने कहा कि, जनता परेशान दिख रही है, सड़कों के ऊपर स्थिति बिगड़ने का भय भी है, आपने गंभीर स्थिति का निर्माण कर दिया है। सुप्रीम ने कहा कि, लोग कतारों में घंटो तक खड़े रह कर परेशान हो रहे हैं। चीफ जस्टिस की बेंच ने कहा कि, हमने सरकार को आदेश दिया था कि जनता की दिक्कतें कम हो, ऐसे में नोट बदलने की मर्यादा कम क्यों की गई है? क्या नोट छापने में कोई दिक्कतें आ रही है?” सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, लोग समस्याओं का सामना कर रहे हो ऐसे में हम उन्हें अदालतों में जाने से रोक नहीं सकते।

कोलकता हाईकोर्ट ने तल्ख़ टिप्पणी करते हुए कहा कि, केंद्र हर नये दिन नियमों में सुधार करता जा रहा है। यह चीज़ दिखाती है कि किसी प्रकार की तैयारी के बगैर सरकार ने फैसला ले लिया था। कोलकता हाईकोर्ट ने लोगों को हो रही दिक्कतों को लेकर केंद्र और बैंक कर्मचारी दोनों की आलोचना की।

वहीं, नोटबंदी के फैसले के तकरीबन एक सप्ताह बाद सरकार द्वारा फैसला लिया गया कि नोटबदली करवाने लोगों की उंगली पर स्याही लगायी जाएगी। इसे लेकर चुनाव आयोग ने अपनी चिंताएं जाहिर की। 19 नवम्बर के दिन पांच राज्यों में लोकसभा व विधानसभा के उपचुनाव थे। चुनाव आयोग ने सरकार से अपील करी कि स्याही की वजह से इन उपचुनाव में मतदाताओं को परेशानियां ना उठानी पड़े यह सरकार सुनिश्चित करे।

इन दिनों अफवाहों का बाज़ार भी गर्म रहा। भारत के तकरीबन हर प्रदेशों में तरह तरह की अफवाहें फैलती रही। कई अफवाहें तो ऐसी भी थी कि स्वयं केंद्रीय वित्त मंत्रालय को स्पष्टताएं देकर लोगों को जानकारी देनी पड़ी। वहीं, नासिक प्रेस ने 30 सालों के अंतराल के बाद एक रुपये के नोट छापना शुरू किया।

लोगों की दिक्कतें बढ़ते देख तथा विपक्षों के हंगामे के चलते एकाध सप्ताह बाद सरकार ने कुछ और कदम उठाए। शादी संबंधी खर्च के लिए, किसानों के लिए तथा कुछ अन्य मामलों में सरकार ने ढिल दी। हालांकि इसके लिए शादी का कार्ड लेकर बैंकों तक पहुंचना तथा अन्य प्रक्रियाओं से गुजरना ज़रूरी था। शादी वाली सहूलियत कुछ दिन तक प्रक्रियाओं में भी फंसी रही। रिजर्व बैंक की गाइडलाइन बैंक मैनेजरों तक पहुंचते पहुंचते कुछ दिन गुजर गए। और जब गाइडलाइन पहुंची तो खुद मैनेजर कहने लगे कि लोग तो सामने से मना कर देंगे कि नहीं चाहिए पैसे। लंबी-चौड़ी और विवादित प्रक्रिया के चलते ये फैसला कितनों को राहत दे गया होगा ये भी खोजबीन का विषय रहा।

वहीं, नोटबदली की मर्यादा जो बढ़ा कर 4500 की गई थी, उसे कम करके 2000 कर दिया गया था। कुछ दिनों बाद किसानों को पुरानी नोट से बीज खरीदने की इजाज़त दे दी गई। दरअसल आरबीआई डाटा के मुताबिक स्थिति भी यही थी कि जितने नोट बदली हुए थे वो अब तक 10 प्रतिशत ही थे। अभी कइयों के नोट बदलने की प्रक्रिया शेष थी। वहीं, करेंसी पेपर की कमी की बातें भी उभर कर आ रही थी। फिर आये दिन नयी नयी छूट और बदलाव आने लगे। सरकार और आरबीआई ने 10 दिन बीत जाने के बाद दिक्कतें बढ़ती देख तथा ऊपर की कुछेक वजहों से कई छूट घोषित की।

वहीं, ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स को-फेडरेशन के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट डी थोमस फ्रांको ने खुले तौर पर आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल के ऊपर निशाना साधा। फ्रांको ने कहा कि, तत्काल जो आर्थिक आपातकाल सरीखी स्थिति है, जिन लोगों की कतारों में मोत हुई है, इन सबकी जिम्मेदारी गवर्नर को लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि, तत्कालीन गवर्नर ने बिना किसी ठोस तैयारियों के बड़ा फैसला ले लिया है और अर्थतंत्र में भय का माहौल है। फ्रांको ने गवर्नर के त्यागपत्र की भी मांग कर डाली।

वहीं, कथित रूप से नोटबंदी का आइडिया देने वाले अनिल बोकिल ने फैसले के बाद की व्यवस्थाओं की खुली आलोचना की। अनिक बोकिल अर्थक्रांति’ नाम के संगठन के संस्थापक हैं। कहा जाता है कि वे 16 सालों से कालेधन को खत्म करने पर काम कर रहे है। उन्होंने कहा कि, प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने नोटबंदी को सही तरीके से लागू नहीं किया। उनका दावा यह रहा कि, उन्होंने सरकार को जो सुझाव दिए थे, उन्हें पूरा नहीं माना गया। उनका दावा रहा कि सुझावों को और नोटबंदी को ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया और इसी वजह से लोग परेशानियों में घिरे हैं।

वहीं, केंद्र सरकार द्वारा विकसित यूपीआई (यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस) की योजना को दरकिनार करके पेटीएम जैसी कंपनियों को मुनाफा और एकाधिकार की अनुमति देने से सरकार पर सवाल भी उठे। नोटबंदी के 15 दिनों बाद परेशानियां कम नहीं हुई तो सरकार ने बीग बाज़ार जैसे निजी व्यापार केंद्र को भी चुना। यह भी सवालिया निशान बना रहा। इसलिए नहीं कि उन्हें क्यों चुना गया। बल्कि इसलिए कि पहले उन्हें क्यों चुना गया। जबकि अन्य सरकारी रास्ते भी मौजूद थे। लोगों ने यह भी सवाल उठाए कि बैंकों में पैसे नहीं है, एटीएम खाली है, ऐसे में बीग बाज़ार के पास पैसे कैसे आए?

इस बीच 24 नवम्बर 2016 की रात 12 बजे से 1000 के नोट पूरी तरह व्यवहार से निकाल दिये गए। ये आखिरी दिन था जब 1000 के नोट बदली किए जाने थे। इसके बाद उसे केवल बैंक में जमा कराया जा सकता था, लेकिन बदली नहीं। 500 के नोट पर सरकार ने लोगों को थोड़ी राहत दी और कुछ ज़रूरी सेवाओं में इसे चलाने की छूट दी। लेकिन ये छूट 15 दिसंबर तक थी। वही टोल टेक्स से मुक्ति की समयसीमां फिर एक बार बढ़ा दी गई और उसे 2 दिसंबर तक लागू किया गया।

वहीं रुपये ने परेशानियों में और इज़ाफ़ा किया। डोलर के सामने रुपिया ऑल टाइम लो लेवल पर चला गया। 1947 के बाद ये सबसे नीचे का स्तर था। डोलर के मुकाबले रुपया 68.86 तक पहुंच गया। अंदाजा तो ये भी आया कि नये साल में ये 70 के पार जा सकता है। क्योंकि नोटबंदी के बाद अर्थतंत्र को नकारात्मक असर पहुंचने के अंदाज लगाए गए थे। एलएंडटी जैसी कंपनियों से तकरीबन 10,000 कर्मियों की छुट्टी, बाजारों में मंदी, शेयर बाज़ार का गिरना-संभलना, जीवन ज़रूरी चीजों में महंगाई का स्तर और ऊपर से रुपये का गिरना, इन सब चीजों ने चिंताओं को नये सिरे से खड़े होने का मौका दे दिया।

अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी कहा कि नोटबंदी से भारत में आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित होंगी और इसकी भविष्य में ग्रोथ कमजोर पड़ेगी। पुराने 500 और 1000 के नोट बंद करने के फैसले से सभी क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होंगे। जीडीपी में गिरावट की भी आशंकाएं जताई गई।

वहीं फिच रेटिंग्स ने इस वित्त वर्ष के लिए भारत की विकास दर का अनुमान 7.4 फीसदी से घटाकर 6.9 फीसदी कर दिया। फिच ने कहा कि देश में नोटबंदी के बाद आर्थिक गतिविधि के लिए कुछ अस्थाई अवरोध रहेंगे। अमेरिका स्थित रेटिंग एजेंसी ने 2017-18 और 2018-19 के लिए भी जीडीपी विकास दर अनुमान को घटाकर 8 फीसदी से 7.7 फीसदी कर दिया।

इस बीच दिसंबर के मध्य में खबरें तो यह भी आई कि सरकार ने बैंकों के 500 शाखाओं का स्टींग करवाया है और सीडी तैयार करवाई है। दरअसल ये वो महीना था जब अचानक से लाखों और करोड़ों के नये नोट के मामले पकड़े जाने लगे थे। धड़ल्ले से कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के नारों के साथ लागू की गई योजना के बाद ही ज्यादा भ्रष्ट-आचार पाया गया!!! यहां भी वो ही मजाकियां अभिगम काम आया कि सरकार मामलों को पकड़ रही है। जैसे कि हमारे देश में पुल का गिरना आसान है, मुश्किल तो यह है कि पुल गिरा ही क्यों? सिस्टम में कुछ तो गंभीर कमजोरियां या लचीलापन था, जिसके चलते इतने बड़े मामलें हुए थे। वैसे भी स्टींग पत्रकारिकता या राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का हथियार था। जो विवादास्पद भी माना जाता था। अगर स्टींग की खबरें सच थी, तब तो स्टींग के आधिकारिक या सरकारी इस्तेमाल की पहली घटना मानी जानी चाहिए!

वहीं, कालाधन से शुरू हुआ सफर चंद दिनों में कैशलेस तक जा पहुंचा!!! कई जगहों पर आधिकारीक घोषणाएं भी हुई कि इलेक्ट्रॉनिक व्यवहारो पर सरकार द्वारा छूट दी जाएगी। यानी कि डिस्काउंट! यानी कि नकद व्यवहार करने वालों को फायदा नहीं मिलेगा, लेकिन आधुनिक बनेंगे तो फायदे में रहेंगे!!! एक राज्य में सरकारी अधिकारियों को हफ्ते में एक बार डिजिटल बनना अनिवार्य कर दिया गया। दरअसल इलेक्ट्रॉनिक व्यवहार के जोख़िम, चुनौतियां, कानून, व्यवस्थाएं आदि में जो संजीदगी सरकार को दिखानी चाहिए थी, उसकी घोषणाएं कम दिखी। जबकि आननफानन में सपनों की नयी दुनिया लागू करने की जल्दबाजी ज्यादा दिखी। नयी दुनिया लागू करना बुरा नहीं हो सकता। लेकिन बिना मूल तैयारियों के लागू करना या करवाना बुरा ज़रूर माना जा सकता है।

आरएसएस से जुड़े अर्थशास्त्री एस गुरुमूर्ति ने दिसंबर 2016 में एक बयान तक दे दिया कि, आने वाले पांच सालों में 2000 के नोट भी बंद हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि, नोटबंदी के बाद नकद की मांग को संतुष्ट करने हेतु बड़े नोट का फैसला लिया गया था, जो अगले 5 सालों में बंद कर दिये जाएंगे। इन्होंने तो 2000 के नोट को उतारने का सरकारी मकसद क्या था उसका दावा भी कर दिया, जिसकी प्रक्रिया व हेतु अतिगुप्त बताए जाते थे!!! साथ में 2000 के नोट बंद होने की भविष्यवाणी भी कर दी।

यहां यह खयाल रखे कि पूरे लेख में विपक्ष के नेता, उनके बयान या संसद में आपाधापी के किसी माहौल का ज़िक्र नहीं है। हम उन पारंपरिक और सतही विरोधों को स्थान नहीं दे रहे। इस ऐतिहासिक घटना के तीन सीरे थे। पहला - फैसला... दूसरा - फैसले से होने वाले फायदे या नुकसान तथा जमीनी हकीकत... और तीसरा - लोगों की दिक्कतें। तीनों एक दूसरे से अलग अलग विषय थे। यानी कि फैसलें से ज्यादातर लोग सहमत दिखे। लेकिन दावों में तथा हकीकतों में अंतर पसरना लाजमी था। वहीं, लोगों की दिक्कतें तीसरा ही सिरा था।

वहीं इस पूरी प्रक्रिया के दौरान नोटबंदी तथा नोटबदली, इन दोनों लफ्जों को लेकर थोड़े-बहुत तबके में थोड़ी-बहुत बातें होती रही। नोटबंदी और नोटबदली, ये दोनों अलग विषय ज़रूर थे। लेकिन इस पर समर्थक या विरोधी, दोनों में चर्चा बेहद कम रही। लेकिन कुछ तबकों में यह चर्चा यहीं से शुरू होती थी। 25 या 26 नवम्बर के दिन केंद्रीय कानून मंत्री ने भी अपने बयान में कहा कि, इसे नोटबंदी के परिप्रेक्ष्य में न देखे। उन्होंने अपने बयान में साफ कहा कि, नोटबंदी लफ्ज़ गलत अभिव्यक्ति है। यानी कि उन्होंने बड़ी संजीदगी से नोटबंदी और नोटबदली को स्वयं अलग कर दिया था। 9 दिसंबर के दिन वैकेया नायडू ने फिर एक बार बयान दिया कि, यह नोटबदली थी, नोटबंदी नहीं। ये मूल बहस थी, जिन पर लोगों का ध्यान कम रहा। कानून मंत्री के इस बयान के बाद भी नोटबंदी और नोटबदली नाम के दो लफ्जों की विभिन्नता पर अमूमन ध्यान कम ही रहा।

हालांकि ये पूरा दौर जनलोकपाल का दौर ज़रूर याद दिला गया। क्योंकि कथित नोटबंदी की चर्चा आवाम में काला धन से शुरू हुई, फिर आतंकवाद, जाली नोट, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, बैंक, एनपीए, टैक्स जैसे रास्तों से गुजरती हुई कैशलेस सिस्टम तक जा पहुंची! जनलोकपाल के वक्त जैसे एक सर्वव्यापी प्रभाव छाया हुआ था कि अब सब कुछ बदल जाएगा, वैसा ही व्याप इस दौर में भी छाया रहा। हालांकि, ये व्याप उस दौर जितना सर्वव्यापी तो नहीं था। लेकिन सोने की चिड़ियां से लेकर कई सारे उन्माद छाये रहे। जो दिन ब दिन अलग अलग सडक़ों से गुजरते हुए कैशलेस तक जा पहुंचे। फिर से लगा कि हम लोकशाही राष्ट्र ज़रूर है, लेकिन विचार या सपने वो ही देखते हैं, जो अमूमन हमारे शासक हमें दिखा दिया करते है। जैसे कि जनलोकपाल के दौरान सपनों ने उड़ाने भरी थी।

अब ऐसे तबके की भी बात करते हैं, जो काले धन धारक नहीं थे, लेकिन फिर भी इनकी रातों की नींद हराम हुई। यहां यह स्पष्ट हो कि इसका संबंध सरकार के फैसलें की समीक्षा से दूरदूर तक नहीं है। लेकिन ये ऐतिहासिक और प्रशंसनीय फैसला था और उस फैसले के बाद लोगों ने सरकार को किस हद तक जाकर और कौन सी परेशानियां भुगतकर साथ दिया था, ये दृष्टिकोण भी आप ले सकते हैं। अगर चाहे तो। वर्ना कइयों को आदत होती है कि हर दृष्टिकोण को विरोध ही समझे।

इन लोगों ने शुरुआती दिनों में जो भी दिक्कतें सामने आई उसको सबसे ज्यादा झेला और बावजूद इसके फैसले को समर्थन दिया और ज़रूरी सरकारी कदम बताया। इनकी शिकायतें यही रही कि साथ में जनलोकपाल का सख्त प्रावधान लागू किया जाता, लोकपाल नियुक्त कर दिया जाता, पनामा पेपर्स कांड में शुमार लोगों की सूची है उन पर स्ट्राइक की जाती तो उनका सीना ज्यादा ठंडा हो जाता। या फिर एटीएम या बैंकों की लाइन में एकाध सेलिब्रिटी दिख जाता, कोई नेता या उद्योगपति दिख जाता, तो एकसमान भारत का वो अहसास ज्यादा मजेदार होता।

खैर, पर ये तबका वो था जिनके पास अवैध तरीके से कमाया हुआ धन नहीं था, बल्कि वैध ही था। लेकिन अचानक लिये गए फैसले की वजह से उनकी रोजाना जिंदगियां प्रभावित हुई। शादियों का मौसम था, त्यौहार का मौसम खत्म होने को आया था, बाजारों में दीवाली की छुट्टियों के बाद नया दौर शुरू हो रहा था। ऐसे में अचानक से इस फैसले से कई लोग प्रभावित हुए। हालांकि, इनमें से ज्यादातर लोगों के प्रतिभाव बड़े सराहनीय थे। प्रभावित हुए लोगों ने कहा था कि हम इस परेशानी को झेल लेंगे, क्योंकि आखिरकार ये हम सभी के लिए ही तो हो रहा है।  

लेकिन बेफजूल की बयानबाजी ने इनकी छवि को नुकसान तो पहुंचाया ही, साथ ही व्यर्थ और देशभक्ति के आसमानी उपदेश झेलने की नौबत भी आन पड़ी थी। देश के नाम से, सेना के नाम से, जवानों के नाम से या राष्ट्रवाद के नाम से जोड़ कर समर्थक सरकार का बचाव करने में लगे रहे। उधार के दिमाग से चलने वाली गौरव सेनाएं फिर एक बार दूबक पड़ी और वाराणसी के गटर में डालने लायक तर्क दिए जाने लगे। लेकिन इनके हालात किसीने नहीं देखे। जबकि ये भारत देश के ही नागरिक थे। बड़ी बात तो यह थी कि ये लोग वैध धन कमाने वाले थे। कोई भ्रष्टाचारी या कालाबाजारी भी नहीं थे।

इस ऐतिहासिक कदम के बाद सबसे ज्यादा दिक्कतें आम आदमी ने ही सही। बैंक खुलते ही लंबी लंबी कतारें लगी और लोग घंटों तक इंतज़ार करते नजर आए। काला धन किन लोगों के पास होता है उसका अंदाजा सभी को था। लेकिन इन लंबी लाइनों में कोई नेता, कोई अभिनेता या कोई उद्योगपति नजर नहीं आये। आम आदमी के पास ज़रूरी पैसा होते हुए भी उसकी जेब खाली हो गई। खाने-पीने का सामान खरीदने में लोग परेशान हो गए। कुछ दिनों तक माहौल असमंजस सा रहा और लोग भागते हुए दिखे। जिन के घर शादियां थी उन्हें भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई शादियों के तारीख बदले जाने लगे।

घरों से बाहर गए लोग वही फंस के रह गए। बस अड्डों, रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर लोग परेशान दिखे। ये मोराराजी देसाई वाला दौर तो था नहीं, जब चंद लोगों के पास 500 के नोट रहते थे। ये वो दौर था जब कोई ठेले वाला भी अपनी कमाई ऐसे नोट में ही रखता था। लिहाजा, घरो से दूर गए लोग वही फंस के रह गए। खाने-पीने की चीजें खरीदने में लोगों ने भारी दिक्कतों का सामना किया। ग्रामीण इलाकों से शहरों में जाकर कमाने वाले लोगों की जिंदगी रुक सी गई।

हालात तो ऐसे थे कि सरकारी घोषणा के बावजूद कई अस्पतालों में 500 तथा 1000 के नोट स्वीकृत नहीं किए गए! एंबुलेंस वालों ने भी इंसानियत छोड़ दी। कुछ ऐसे मामलें भी सामने आये जिसमें किसीकी मोत हो गई हो। छोटी करेंसी का इंतजाम नहीं हो पाने से मरीज़ का इलाज बंद कर दिया गया, जिससे उसकी मोत हो गई! ये मामला आगरा हाइवे स्थित एफएच मेडिकल कॉलेज का था। बिहार के बेगूसराय में दुष्कर्म से पीड़ित 5 साल की मासूम को एंबुलेंस के लिए घंटों भटकना पड़ा। क्योंकि एंबुलेंस चालक ने 500 और 1000 के नोट लेने से इनकार कर दिया था। कई जगहों से कतारों में खड़े लोगों के मृत्यु की खबरें आई थी।

पहले दिन टोल नाको पर लंबी लंबी कतारें लग गई, बाद में सरकार को टोल फ्री की घोषणा करनी पड़ी। पैट्रोल पंप तथा एटीएम मशीनों पर पीएम की घोषणा के बाद ही लंबी कतारें लगना शुरू हो गई थी। सरकारी बसों से लोगों को उतार दिया गया हो ऐसी घटनाएं भी हुई!!! आधी रात को घोषणा की जानकारी मिलते ही बसों में भी नोट लेना बंद कर दिया गया। इससे जो लोग शाम को बिना जानकारी सफर पर निकले थे, वो बुरे हालातों में फंस कर रह गए। कई जगहों पर तो ऐसे मामलें भी सामने आये जहां लोगों को बस से उतार दिया गया। कुछेक जगहों पर सरकारी परिवहन विभाग ने लोगों को ऑनलाइन टिकट्स बुक करने के लिए अपील तक कर डाली।

कई परिवारों में इन दिनों बच्चों के पीगी बैंक (गुल्लक) तोड़ने पड़े। दूध, सब्जी से लेकर अन्य ज़रूरतों के लिए कई बच्चों के पीगी बैंक उस दिन टूट गए। पैसे होने के बावजूद लोग खुद को दिक्कतों में घिरते हुए देख रहे थे। अपने बीमार परिजनों से मिलने जाने वाले लोग रोते नजर आए। टिकट काउंटर पर आंसू गिरे और लोग मिन्नतें कर रहे थे कि पैसे ज्यादा ले लो, पर टिकट दे दो। शादियों वाले घरो की खरीददारी रुक गई और परिवार सून हो गए। श्राद्ध करने निकलने वाले लोग श्राद्ध को भी पीछे ठेलने के लिए मजबूर हो गए। सरकारी अस्पतालों ने तो लोगों को परेशान किया ही, निजी अस्पतालों ने भी कही का नहीं छोड़ा। अपने शहरों से दूर इलाज करवा रहे लोग परेशान हो गए। वेंटिलेटर पर रखने के लिये अस्पतालों में नकद जमा करनी थी, पर 500 और 1000 के नोट लेकर आये थे।

जो लोग रोजाना कमाई पर खाना खाते थे वे सबसे ज्यादा परेशान हुए। नकद व्यापारियों के धंधे की चमक फिकी पड़ गई। बैंक एक दिन बंद रहे, वहीं कुछ दिन बैंकों का काम नोट को बदलने का ज्यादा रहा, लिहाजा बैंकों से आर्थिक व्यवहार करके व्यापार चलाने वाले लोग भी परेशान दिखे।

होटल वालों ने भी जमकर लोगों को परेशान किया। कही पर खाना खाने के पैसे ज्यादा चूकाने पड़े, तो सैकड़ों मामले ऐसे भी आये जहां लोग भूखे रहे। कई तस्वीरें उभरी, जहां माता-पिता ने अपने बच्चों को खाना खिलाया और खुद भुखे रहे। अपने घर पहुंचने को लेकर लोग आकुल-व्याकुल से दिखे। नोटबंदी में व्यापारियों ने भी आम आदमी को परेशान करने में कोई शर्म नहीं रखी। लोग चारो तरफ से घिरते हुए नजर आए। शादी की सजावट किए बिना डेकोरेटर्स लोट गए। कई जगहों पर शादी में मेहमानों को खाना खिलाने के लिए पैसे होते हुए भी यजमान को रिश्तेदारों से भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा। मेडिकल स्टोर से लेकर ट्रैवेल्स वालों ने भी पहले से परेशान हो चुके लोगों को खूब परेशान किया।

नोट बदलने को लेकर बैंकों तथा पोस्ट ऑफिसों पर लंबी कतारें लग गई। एटीएम मशीनों पर भी यही हाल रहा। बच्चें-बुढ़े-महिलाएं सभी तबका फिर एक बार कतारों में था। कई जगहों पर शांत तरीके से सब चलता रहा, तो कई जगहों पर परेशानियों से तंग आकर लोग नाराज होते हुए भी दिखे। कहीं बैंक के स्लीप खत्म हो गए, कहीं नोट खत्म हो गए तो कही कुछ और दिक्कतें सामने आई। साथ में एक दिन के 2000 ही एटीएम से निकाल सकते थे। लिहाजा लोगों की परेशानियों में इज़ाफ़ा ज़रूर हुआ।

एक खबर के मुताबिक, देश के करीब 2 लाख एटीएम में से 50 हज़ार एटीएम मशीन ऐसे भी थे, जहां से पुराने नोट अब तक नहीं निकाले गए थे! तत्काल तकरीबन 1 लाख एटीएम पूर्ण रूप से काम कर रहे थे। एटीएम मशीनों को पूरी तरह काम पर लौटने में अभी तो 10 दिन लगने वाले थे। बाद में वित्तमंत्री ने इस अवधि को ज्यादा बढ़ा दिया।

कहीं पर स्वाभाविक सा मसला उत्पन्न हो गया। बड़े नोट बंद होने के बाद जब लोग नोट बदली करवाने पहुंचे तो बैंक से उन्हें 2000 के नोट मिले। और लोगों ने बैंकों से ये नोट लेने से इनकार तक किया। उन्होंने 100-100 के नोट मांगे। क्योंकि बड़े नोट पर प्रतिबंध आने के बाद लोग शायद उससे भी बड़ी कीमत के नोट से परहेज ही कर रहे थे। दूसरी दिक्कत यह थी कि इस नये नोट के छुट्टे बाजारों में कोई दे भी नहीं रहा था। जबकि लोगों को तो छुट्टे की ही ज़रूरत थी। इतना ही नहीं, छोटे-मोटे मामलों में जमानत पर छूटने वाले अंदर ही रह गए! क्योंकि काले कोटवाले वकील 500-1000 की नोट से इनकार कर रहे थे, वही बैंकों के बाहर कतारें लंबी थी।

हर दिन सुबह से ही बैंकों पर लंबी कतारें लग जाया करती थी। लेकिन दिक्कतें कम होने का नाम नहीं ले रही थी। एटीएम खुलने के बाद उम्मीद थी कि दिक्कतें कम हो जाएगी। लेकिन एटीएम मशीनों में भी तकनीकी दिक्कतें आने लगी थी। ज्यादातर एटीएम बंद थे, कही पर कुछ घंटों के लिए ही खुलते थे, बैंक तथा पोस्ट ऑफिस में नकद थी नहीं और दिनों तक काम पर लगे रहने की वजह से बैंक व पोस्ट ऑफिस स्टाफ भी थक चुका था। धीरे धीरे सरकार द्वारा की गई व्यवस्थाएं नाकाफी दिख रही थी।

धीरे धीरे अलग अलग शहरों में लोगों का धैर्य जवाब दे रहा था। कई जगहों पर धर्षण हुए, कही पर सरकारी संपत्ति पर गुस्सा उतरा और लोगों ने तोड़फोड़ या पत्थरबाजी भी की। कुछ दिनों के बाद पुलिस के साथ घर्षण और लाठीचार्ज जैसी वारदातें भी नजर आई। कुछ वारदातें मीडिया में दिखाई जाती थी। लेकिन इससे भी ज्यादा मामलें ऐसे थे जो हर दिन, हर बैंक शाखा की कतारों में दिखे, जहां लोग मामूली रूप से लेकिन कुछ ज्यादा ही पीटते नजर आए। और वो भी अपने ही पैसो के लिए! टोकन सिस्टम आने के बाद टोकन बांटने जब कोई बैंक कर्मी कतारों के सामने आता तब तब अपने पैसो के लिए लोग टोकन लेने के लिये दौड़ पड़ते या गिड़गिड़ाते या आक्रमक हो जाते। फिर क्या था। जिन्हें टोकन मिलता वो आधी जंग जीत लेते और बाकी दूसरे दिन की कतारों के लिए खुद को मजबूरन तैयार कर लेते।

हालात यह भी बने थे कि लोग अपने ही फिक्स्ड डिपॉजिट रिक्वर नहीं कर सकते थे। वहीं रोजाना जो मर्यादा तय की गई थी वो भी नाकाफी ही थी। आरबीआई को बाद में 100 के पुराने नोट भी बांटने शुरू करने पड़े। अपनी इमरजेंसी ज़रूरतों के लिए जिन्होंने एफडी करवा के रखा था, वो लोग शादियों के मौसम में एफडी रिक्वर नहीं करवा पा रहे थे। बाद में सरकार ने शादी पर खर्च के लिए ढाई लाख निकाशी की छूट दे दी। लेकिन इसके लिए आरबीआई ने इतनी लंबी-चौड़ी मार्गदर्शिकाएं सामने रख दी कि लोगों की दिक्कतें इससे कम नहीं हुई थी। कई परिवारों में अस्पताल संबंधी तत्काल ज़रूरतों पर भी लोग दिक्कतों में आए। कई रोजिंदा व स्वास्थ्य चीजें ऐसी भी थी, जहां चेक-कार्ड आदि से भुगतान करना मुमकिन भी नहीं था।

सोशल मीडिया पर कुछ उत्साही समर्थकों ने अतिमुहब्बत से प्रेरित होकर लिख दिया कि लोग देश बदलने के लिए कतारों में खड़े हैं, नोट बदलने के लिए नहीं। अच्छा था कि उत्साहीयों ने सोशल मीडिया पर लिखा। कतारों में जाकर ये नहीं कहा। वरना, उन्हें करारा उत्तर मिल सकता था। क्योंकि भावनात्मक तौर पर जितने भी बोल-वचन कर लिये जाए, लेकिन अंतिम सच तो यही था कि लोग नोट बदलने के लिए ही तो खड़े थे। परेशानियां झेलकर खड़े थे। हो सकता है कि कई फैसले के विरुद्ध हो या कई साथ भी हो। लेकिन सभी तबके को दिक्कतें ज़रूर थी। ऐसी दिक्कतों के बीच उन्हें देशभक्ति के व्यर्थ उपदेश वहां जाकर झाड़ दिये जाए, तो फिर परिणाम विपरित भी तो आ सकता था।

यहां बैंक तथा उनके कर्मचारियों की भी तारीफ बनती है, जिन्होंने इस ऐतिहासिक घड़ी में जमकर काम किया और परेशान लोगों के गुस्सें को झेलते हुए अपना कर्तव्य निभाया। बैंकों ने सेवानिवृत्त कर्मचारियों की भी मदद ली और अपने इस काम को दक्षता से पूर्ण करने के हर मुमकिन प्रयत्न किए।

सरकार के फैसलें का समर्थन तो ज़रूर हुआ, लेकिन इतने बड़े फैंसले के बाद व्यवस्थाओं में ढिलाई को लेकर नाराजगी भी फैली रही। लोगों ने सरकार की आलोचना की। हालांकि कइयों ने इस आलोचना को फैसले का विरोध जताकर साथ दे रहे उन लोगों के साथ अन्याय ज़रूर किया था। क्योंकि ज्यादातर आलोचनाएं फैसले को लेकर नहीं, बल्कि व्यवस्थाओं में ढिलाई और कमियों को लेकर थी। जो कि स्वाभाविक भी थी और उनका हक़ भी था।

वैसे 2000 के नये नोट के कागज को लेकर भी नाराजगी सतह पर आती दिखी थी। नोट के पेपर की क्वालिटी को लेकर लोगों में असंतोष बना रहा। वही इसकी साइज और एटीएम मशीन ने रिश्ता तोड़ दिया! साथ ही, नये नोट में गलतियां भी पायी गई!!! कोंकणी भाषा और मराठी भाषा वाला चक्कर भी लोगों को चकराता रहा। लोग आशंकित हुए कि अब आगे क्या होगाक्योंकि नोट में गलती हो तो उसे वापिस खींचने का चलन रहा है। भाषाई चक्कर सच भी हो सकता था या झूठ भी, किंतु गलतियों से लोग आशंकित ज़रूर थे।

लोगों का गुस्सा एक दूसरी चीज़ को लेकर भी था। चीज़ यह कि आरबीआई जैसी जवाबदेह संस्था करेंसी जैसे अतिसंवेदनशील विषयों में इतनी ढिलाई कैसे कर सकती हैगौरतलब है कि जनवरी 2016 में आरबीआई ने 30 हज़ार करोड़ रुपए की कीमत के गलत नोट छापने की बात मानी थी। यह गड़बड़ी हज़ार रुपए के नोटों में हुई थी, जो सिल्वर सिक्योरिटी थ्रेड के बगैर छाप दिए गए थे!!! तकरीबन 70 फीसदी नोट तो रिजर्व बैंक के पास ही थेलेकिन 30 फीसदी जितने नोट बाज़ार में जारी किए जा चुके थे। गलती का पता चलने के बाद आरबीआई और वित्त मंत्रालय ने फैसला किया था कि इन नोटों को जला दिया जाए। बाकी नोटों को वापस लेने के निर्देश जारी किए गए थे। इतनी बड़ी गलतियां आरबीआई जैसे संस्थान कैसे कर सकता है यह सवाल लोगों के मन में कोंधता रहा। लोगों ने तंज कसे कि हमने गलती से ट्रैफिक सिग्नल भी तोड़ा होता तो नियमों के और जुर्मानें के पुलिंदे लाद दिए जाते, लेकिन यहां गलती किसी संस्थान ने की और उस गलती का भुगतान लोगों ने किया। क्योंकि नोट छापने में जो आर्थिक बोज आता है वो आखिरकार लोगों के कमजोर हो चुके कंधों पर ही तो जाता है।

विरोधी अपना फर्ज निभा रहे थे। उनका रवैया क्या हो सकता है वो लिखने की आवश्यकता नहीं है। हा, उत्साही समर्थकों के बढ़ चढ़ कर किए गए दावे या दलीलों से सोशल मीडिया काफी गर्म रहा। लेकिन, काला धन के नाम पर की जा रही इस प्रक्रिया में देश को तथा व्यवस्थाओं को सबसे ज्यादा साथ दिया हो तो वो आम आदमी ही था। फैसला जितना ऐतिहासिक था, उतना ही ऐतिहासिक इन लोगों का परेशानियों को झेलते हुए खुश रहना भी था। ज्यादातर तो किसी ने फैसले को गलत नहीं कहा। ज्यादातर लोगों ने इस फैसले के साथ रहना उचित समझा। लेकिन लागू करवाने की प्रक्रिया पर बहस ज़रूर हुई। इस फैसले से काला धन कितना वापिस आएगा, आएगा या नहीं, विदेश में जो काला धन जमा है उसे कितना असर पड़ेगा, काला धन के जो सैकड़ों रूप हैं उसका क्या होगा, भ्रष्टाचार को इन कदमों से सचमुच कितना नियंत्रित किया जा सकेगा... ये तमाम चीजें लंबी बहस है। याद रखिएगा कि बहस है, विवादित बहस है, लेकिन व्यर्थ नहीं है।

इस विषय के संबंध में अगर आगे कोई और चीजें सरकार द्वारा आधिकारीक या कानूनी रूप से जोड़ी जाती हैं, यदि कोई नयी संबंधित योजनाएं लाई जाती हैं, संबंघित विषयों के कानून की समीक्षा होती है या कोई नये प्रावधान लाए जाते हैं या फिर कुछ नया आधिकारिक इज़ाफ़ा होता है तब बात और है। जो चीजें अब तक थी उस पर ये चर्चा थी। नये कदम, नये कानून, संशोधन या नयी योजना इस दौर के साथ जुड़ जाए तब कि बात एक अलग सिरा होगा। ये तो संक्षेप में खुशी और गम का दौर था। लंबा है, लेकिन क्या करे। इतनी बड़ी प्रक्रिया की हर अच्छी व बुरी यादों को समाविष्ट करना ज़रूरी भी था।

लेकिन, इतिहास में दर्ज हो चुका ये लम्हा हर किसी ने जिया, समर्थकों ने भी और विरोधियों ने भी। और इस लम्हे में जिन लोगों ने दिक्कतें भुगत कर अपना साथ दिया, जिन्होंने परेशानियां भुगती वो सारे लोग, चाहे वो किसी भी दल के क्यों न हो, उन्होंने साबित किया कि जब भी देशहित की बात आती रहती है, वो नेता लोगों से ज्यादा बलिदान देते हैं, ज्यादा परेशानियां झेलते हैं। 

(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 9 नवम्बर 2016, एम वाला)