सुप्रीम कोर्ट और चीफ़
जस्टिस... सीधा कहा जाए तो, यह दोनों ऐसे नाम हैं जो बारी बारी राजनीतिक
दलों के समर्थकों के बीच प्रितीपात्र या आलोचनापात्र रहते आए हैं। पक्ष या विपक्ष के
हिसाब से यह चीज़ें बदलती रही हैं।
यूँ तो देश का इतिहास
गवाह है कि ज़्यादातर तो नागरिकों को सेना और सुप्रीम कोर्ट, इन दोनों पर ज़्यादा भरोसा
रहा। इसके पीछे वजह यह भी कही जा सकती है कि देश को बनाने या मजबूत करने के उदाहरण
इन दोनों से ज़्यादा मिल जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट को लेकर या चीफ़ जस्टिस को लेकर कई
बार विवाद भी हुए, या कुछ अप्रत्याशित चीज़ें भी हुईं। लेकिन ज़्यादातर तो मील के पत्थर
समान फ़ैसलों ने न्यायालय को भारतीय सेना के बाद सबसे ज़्यादा पसंदीदा संस्था बनाए
रखा।
वो दौर भी आए, जब न्यायालय
की विश्वसनीयता कटघरे में खड़ी होती दिखी। दूसरी तरफ़ कई मामले ऐसे भी हैं, जिसने भारतीय
लोकतंत्र को कमज़ोर होने से बचाए रखा। तारीख़ पे तारीख़ सरीखी प्रणाली को लेकर अनेकों
बार न्यायिक प्रक्रिया की आलोचना हुई, दूसरी तरफ़ ऐसी तारीख़ें भी रहीं, जिसने
इतिहास में स्थान पाया।
आज़ाद हिंदुस्तान में
कई ऐसे चीफ़ जस्टिस आए, जिन्होंने अपने अपने कार्यकाल के दौरान कई ऐसे फ़ैसले सुनाए,
जो सदैव याद किए जाते हैं। 26 जनवरी 1950 के दिन एचजे कनिया भारत के पहले चीफ़ जस्टिस बने थे। आज हम बात करते हैं हाल ही में
सेवानिवृत्त हुए भारत के 43वें चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर की।
टीएस ठाकुर भारत के
43वें चीफ़ जस्टिस थे।
उनके बतौर चीफ़ जस्टिस के कार्यकाल के दौरान कई ऐसे ऐतिहासिक फ़ैसले आए, कई ऐसी तल्ख़ टिप्पणियाँ हुईं, कई सख़्त निर्देश आए, जिसने आम नागरिकों के दिल में ख़ास जगह
बनाई। उनके बारे में कहा जाता रहा कि टीएस ठाकुर ने हर दिन ये अहसास दिलाया कि... मैं
हूँ।
ज़्यादातर तो चीफ़
जस्टिस का सेवानिवृत्त होना कोई ख़ास बात नहीं होती थी। नये चीफ़ जस्टिस की नियुक्ति
की ख़बर आए, तब जाकर पता चलता था कि तत्कालीन चीफ़ जस्टिस सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
फिर तो नये चीफ़ जस्टिस का ब्यौरा या उनकी जानकारी जुटाई जाती। किंतु कई सालों बाद
यह हुआ कि टीएस ठाकुर सेवानिवृत्त हुए और उनका नाम लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ पर ज़्यादा
छाया रहा।
वे लोग, जो न्यायप्रणाली
या सर्वोच्च न्यायपालिका की प्रक्रिया से इतना लगाव नहीं रखते थे उन्होंने कहा कि चीफ़
जस्टिस भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में छा सकता है वो आज पता चला। उनके विदाई समारोह
के दिन बीबीसी के एक पत्रकार ने लिखा था - यह एक शानदार विदाई समारोह नहीं था, बल्कि
एक शानदार जज का विदाई समारोह था। ये टीएस ठाकुर की कार्यशैली ही थी कि उन्होंने अहसास
दिलाए रखा था कि... मैं हूँ।
संक्षिप्त परिचय
टीएस ठाकुर भारत के
43वें चीफ़ जस्टिस थे।
उनका पूरा नाम तीरथ सिंह ठाकुर है। उनका जन्म 4 जनवरी, 1952 को जम्मू-कश्मीर के रामबन में हुआ था। उन्होंने बतौर वकील अक्टूबर, 1972 में अपना रजिस्ट्रेशन कराया और जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में दीवानी, फौजदारी, टैक्स, संवैधानिक मामलों तथा नौकरी से संबंधित मामलों में वकालत शुरू की। इसके बाद उन्होंने
अपने पिता व प्रसिद्ध अधिवक्ता स्व. डीडी ठाकुर के चैंबर में काम शुरू किया। न्यायमूर्ति
ठाकुर के पिता भी जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के जज और फिर केंद्रीय मंत्री रह चुके थे।
जस्टिस ठाकुर को 17 नवंबर, 2009 को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया था।
3 दिसंबर 2015 के दिन उन्होंने चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया का पद ग्रहण किया। वे एचएल दत्तु के बाद
43वें चीफ़ जस्टिस बने।
तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलवाई। देश के
चीफ़ जस्टिस के रूप में उनका कार्यकाल एक साल से कुछ अधिक 4 जनवरी, 2017 तक रहा। उनकी जगह जस्टिस जेएस खेहर (जगदीश सिंह खेहर) भारत के नये चीफ़ जस्टिस
बने।
टीएस ठाकुर पूर्व में
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तथा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय और दिल्ली
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। वे जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय तथा
कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रह चुके हैं।
जस्टिस ठाकुर ने आईपीएल
स्पॉट फिक्सिंग और सट्टेबाजी प्रकरण में फ़ैसला सुनाने वाली पीठ की अध्यक्षता की थी।
बहुचर्चित शारदा चिटफंड घोटाले के मामले की जाँच की निगरानी भी न्यायमूर्ति ठाकुर की
अध्यक्षता वाली पीठ ही कर रही थी। इसके अलावा बीसीसीआई और क्रिकेट संबंधित मामला, जज नियुक्ति प्रक्रिया, राष्ट्रपति शासन संदर्भित फ़ैसले, चुनाव सुधार संबंधी फ़ैसले उनके कार्यकाल के प्रमुख व चर्चित
फ़ैसले रहे। सेवानिवृत्त होने से पहले बीसीसीआई तथा चुनाव संबंधी फ़ैसले देकर उन्होंने
अपनी विदाई को यादगार बना दिया।
विधानसभा चुनाव में
पराजय
यह बहुत कम लोगों को
पता होगा कि तीरथ सिंह ठाकुर एक बार चुनाव भी लड़ चुके हैं। उन्होंने चुनाव बतौर निर्दलीय
उम्मीदवार लड़ा था। जम्मू-कश्मीर में 1987 के विधानसभा के चुनावों में उन्होंने रामबन विधानसभा क्षेत्र से अपना भाग्य आज़माया
और उनका मुक़ाबला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भरत गांधी के साथ था। तीरथ सिंह ठाकुर
ये चुनाव हार गए थे। उन्हें कुल 8,597 वोट मिले थे, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी भरत गांधी को 14,339 वोट मिले थे। रामबन
के पुराने लोगों में से एक ग़ुलाम क़ादिर वानी के अनुसार, ठाकुर चुनाव इसलिए हार गए थे, क्योंकि राजनीति और ख़ास तौर पर चुनावों में जो तिकड़म नेता अपनाया करते हैं, उससे वे पूरी तरह अनभिज्ञ थे। चुनाव जीतने के लिए सब कुछ करना
पड़ता है। सिर्फ़ उसूलों से चुनाव जीते नहीं जाते। तीरथ सिंह ठाकुर को वे सारे तिकड़म
नहीं आते थे। इसलिए वोटरों को रिझाने के लिए वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए।
पिता को भी नहीं बख़्शा
था ठाकुर ने
एक दफा ठाकुर ने अपने
पिता की सरकार की बर्खास्तगी की भी मांग कर दी थी। यह ग़ुलाम मोहम्मद शाह की सरकार
थी, जिसमें टीएस ठाकुर के पिता देवीदास ठाकुर उप मुख्यमंत्री थे।
ग़ुलाम मुहम्मद शाह 2 जुलाई 1984 से 6 मार्च 1986 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। उस दौरान टीएस ठाकुर जम्मू हाईकोर्ट बार एसोसिएशन
के अध्यक्ष हुआ करते थे। बार एसोसिएशन में उनके पुराने साथी बताते हैं कि ग़ुलाम मोहम्मद
शाह की सरकार विवादों में थी और चारों तरफ़ सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहे थे। टीएस
ठाकुर को लंबे समय से जानने वाले और वरिष्ठ वकील बीएस सलाथिया ने कहा था, "तीरथ सिंह ठाकुर हमेशा से सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने का माद्दा रखते थे।
जब वे अपने पिता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकते हैं, तो आप समझ जाइए कि वो ग़लत होते हुए
नहीं देख सकते हैं। वे जिस पद पर आज हैं, वहाँ वे भला कैसे चुप रह सकते हैं, जब पूरे देश में जजों की इतनी कमी है।"
कुछ ऐसे फ़ैसले, जो टीएस ठाकुर के कार्यकाल के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने सुनाए
यूँ तो न्यायिक फ़ैसलों
पर लोगों को टिप्पणियाँ देने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन फ़ैसले देने वाले जजों पर टिप्पणियाँ नहीं हो सकतीं। हमारे यहाँ आज भी कई
फ़ैसलों पर लोगों की अपनी अपनी टिप्पणियाँ होती हैं, अपने अपने मत होते हैं। ज़्यादातर
तो सत्ता या उनके समर्थकों का एक जगज़ाहिर रवैया रहा है। जब सर्वोच्च न्यायालय उनके
शासन के दौरान कोई सख़्त फ़ैसला सुनाता है, तब वे कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को अपने
दायरे में रहना चाहिए, या फिर कहा जाता है कि अदालत को हर मामलों में टांग नहीं डालनी
चाहिए। सच तो यह भी है कि जब सरकारें कुछ नहीं करती, तभी तो कोर्ट को दखल देना
पड़ता है। अगर सरकारें कुछ कर लेती, तो ये नौबत ही नहीं आती। हम देखते हैं ऐसे
ही कुछ फ़ैसले या तल्ख़ टिप्पणीयों को, जो टीएस ठाकुर के कार्यकाल के दौरान हुई...
गंगा सफ़ाई के मुद्दे
पर केंद्र द्वारा दायर किए गए हलफ़नामे के संदर्भ में उन्होंने सख़्त टिप्पणी करते
हुए कहा था, "ऐसी कार्यपद्धति से युगों तक भी गंगा साफ़ नहीं हो सकती।"
सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व
सरकार यूपीए तथा तत्कालीन सरकार एनडीए, दोनों से गंगा शुद्धिकरण योजना पर हुए ख़र्च
का हिसाब मांगा और फटकार लगाते हुए टिप्पणी कर दी कि, "एक ऐसी जगह सरकार बता दे, जहाँ गंगा की सफ़ाई हो पायी हो।"
13 मार्च 2016 के दिन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा, "एक संस्था के तौर पर
न्यायपालिका विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है, जो उसके ख़ुद के अंदर से एक चुनौती है।"
उन्होंने न्यायाधीशों
से अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहने को कहा। उन्होंने साफ़ लफ़ज़ों में कहा कि, "जब मैं अंदर से आने वाली चुनौतियों की बात करता हूँ, तब मैं विश्वसनीयता के संकट का ज़िक्र कर रहा होता हूँ, जिसका आज हम देश में सामना कर रहे हैं।"
सुप्रीम कोर्ट की तर्ज
पर देश में चार नेशनल कोर्ट ऑफ़ अपील बनाने के मामले में चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया टीएस
ठाकुर ने मार्च 15, 2016 के दिन कहा, "हमारा 98 फ़ीसदी वक़्त फ़ालतू के मामलों में ही चला जाता है। सरकार को कुछ कदम उठाना चाहिए।"
25 अप्रैल 2016 के दिन चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने जजों की कम संख्या के मुद्दे को उठाया, जिस पर पीएम नरेंद्र मोदी ने "कोर्ट की छुट्टियों" में कटौती की सलाह दे डाली।
इस पर जस्टिस ठाकुर
ने तपाक से प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "गर्मियों की छुट्टियों के दौरान जज मनाली नहीं जाते हैं। वह संवैधानिक बेंच के
फ़ैसलों को लिखते हैं। जब एक साइड तैयार होता है, तो दूसरा नहीं होता। बार से पूछिए
क्या वह तैयार हैं।"
जजों की नियुक्ति पर
देरी को लेकर ठाकुर आख़िर तक सरकार पर दबाव बनाते रहे। 2016 के दौरान, केंद्र सरकार द्वारा देश की अलग अलग कोर्टों में जजों की नियुक्ति
पर हो रही देरी को लेकर इन्होंने सख़्ती अपनाई थी।
12 अगस्त, 2016 के दिन केंद्र के प्रति अपनी नाराज़गी को स्पष्ट करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने
पूछा, "जजों की नियुक्ति में इतना अक्षम्य विलंब क्यों हो रहा है।"
अदालत ने सरकार से
कहा, "इस विषय के लिए हम पर ऑर्डर पास करने का दबाव ना बनाए। केंद्र सरकार फ़ाइलों को
रोक कर नहीं बैठ सकती।" जजों की नियुक्ति की देरी पर चीफ़ जस्टिस
टीएस ठाकुर ने अटॉर्नी जनरल से सख़्त लहज़े में कहा, "फ़रवरी से हाईकोर्ट
में जजों की नियुक्ति के लिए केंद्र को 75 नामों की सूची दी गई थी। यह तमाम फ़ाइलें कहाँ हैं वो हमें बताएँ। कोर्ट को बंद
करना पड़े ऐसी स्थिति सरकार पैदा ना करे।"
अक्टूबर 2016 में सुप्रीम ने फिर
एक बार केंद्र को लताड़ा। 28 अक्टूबर 2016 के दिन कोर्ट ने कहा, "सरकार जजों की नियुक्ति न करके न्यायतंत्र को स्थगित नहीं कर सकती। एक वक़्त था,
जब कोर्टरूम कम थे और जज ज़्यादा थे। लेकिन आज जजों की नियुक्ति न हो पाने की वजह से
कोर्टरूम को ताले लगाने पड़ रहे हैं।"
सुप्रीम ने सख़्त रवैया
अपनाते हुए कहा, "जज नियुक्ति की प्रक्रिया को फास्ट ट्रैक पर नहीं लाया जाता तो हम प्रधानमंत्री
कार्यालय तथा क़ानून मंत्रालय के सचिवों को समन्स जारी करेंगे।"
कोर्ट ने फिर एक बार
कहा कि नाम पसंद करके सरकार को दिए गए हैं, लेकिन 9 महीनों से सरकार कोई फ़ैसला नहीं ले रही। हम सरकार को सिस्टम
को बाधित करने की इजाज़त नहीं दे सकते। नये मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर के इंतज़ार में
सरकार जजों की नियुक्त को रोक नहीं सकती। अटॉर्नी जनरल को लताड़ते हुए सर्वोच्च न्यायालय
ने कहा, "क्या आप न्यायतंत्र को ताले लगाना चाहते हैं?"
ये वाक़या 23 सितम्बर, 2016 के दिन का था। इस दिन सहारा ग्रुप के प्रमुख सुब्रतो रॉय के केस के ऊपर सुनवाई
चल रही थी। सुब्रतो रॉय के प्रमुख वकील कपिल सिब्बल ख़राब सेहत की वजह से कोर्ट में
मौजूद नहीं रह पाए। उनकी जगह रॉय के दूसरे वकील राजीव धवन कोर्ट में उपस्थित हुए थे।
रॉय को पैरोल दिए जा चुके थे। राजीव धवन रॉय की तरफ़ से दलीलें दे रहे थे। इस दलीलों
के बीच धवन ने सेबी द्वारा ज़ब्त की गई संपत्ति को बेचने की कार्रवाई के ऊपर टिप्पणी
कर दी।
धवन के अभद्र व्यवहार
से जज खफ़ा हो गए। चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा, "अगर आप ये चाहते हैं
कि कोर्ट आप को सुने, तब पहले रॉय को जेल में जाना चाहिए। आप हमें
ना सिखाए कि हमें क्या करना चाहिए।" कोर्ट ने कहा, "रॉय को दी जा रही तमाम राहतें रद्द की जाती हैं और रॉय सहित तमाम अभियुक्तों को
जेल में भेजने का आदेश दिया जाता है।"
राजीव धवन की ग़लती
के बाद कपिल सिब्बल को कोर्ट तक आना पड़ा। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की माफ़ी मांगी और
कहा कि जो कुछ हुआ है उसके लिए मुझे खेद है। उन्होंने राजीव धवन के व्यवहार के लिए
भी माफ़ी मांगी।
अरुणाचल संबंधित नीचे
लिखा गया फ़ैसला वैसे तो जस्टिस खेहर की अध्यक्षता में पाँच जजों के एक बेंच द्वारा
सुनाया गया था। जस्टिस खेहर अगले चीफ़ जस्टिस होंगे। लेकिन इस फ़ैसले का ज़िक्र ना
किया जाए, तो फिर सुप्रीम कोर्ट और 2016 का साल अधूरा रह जाएगा।
यह अरुणाचल राष्ट्रपति
शासन से जुड़ा हुआ ऐतिहासिक फ़ैसला था, जिसे मील का पत्थर माना गया। जुलाई 2016 में अपने फ़ैसले में
सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के राष्ट्रपति शासन के बाद बनी नयी सरकार को ही असंवैधानिक
घोषित कर दिया! इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने उस नयी सरकार के 7 महीने के तमाम फ़ैसलों
को भी रद्द कर दिया! यह बड़ा सख़्त फ़ैसला
था।
कोर्ट ने राज्यपाल
पर काफ़ी सख़्त टिप्पणियाँ की, और अपने फ़ैसले में उन तमाम बागी विधायकों की सदस्यता
भी रद्द कर दी। कोर्ट ने नबाम तुकी को फिर से अरुणाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित
किया और राष्ट्रपति शासन मामले को लेकर राजनीतिक प्रक्रिया पर निशाने साधे।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल
के 9 दिसंबर, 2015 के नोटिफिकेशन को भी रद्द कर दिया! कोर्ट ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि अरुणाचल में 15 दिसंबर, 2015 की स्थिति को लागू किया जाए। यह पहली बार था, जब सुप्रीम कोर्ट ने पुरानी सरकार
को वापस किया हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
"हम घड़ी की सुइयाँ वापस कर सकते हैं।" कोर्ट ने राज्य में 15 दिसंबर 2015 वाली स्थिति बरक़रार रखने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "गर्वनर को विधानसभा बुलाने का अधिकार नहीं था, यह ग़ैर क़ानूनी था।" अदालत ने 15 दिसंबर 2015 के बाद से सारे एक्शन
रद्द कर दिए गए।
"रिटायर हो जाने के
बाद जज किसी विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकते।" - यह बात 12 जुलाई 2016 के दिन चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कही।
रिटायर्ड जजों के भत्तों
और सुविधाओं से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान रिटायर्ड जज एसोसिएशन की ओर से कहा
गया था कि सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज को चंडीगढ़ के एक अस्पताल में लाइन में
लगना पड़ा।
इस जानकारी पर चीफ़
जस्टिस ने सवाल किया, "इससे क्या हुआ...? जजों को भी लाइन में लगना चाहिए।" उन्होंने एक टिप्पणी
में यहाँ तक कहा कि, "अगर रिटायर्ड जज केएफसी में बर्गर के लिए लाइन में लग सकते हैं, तो दूसरी जगहों पर भी लाइन में लगना चाहिए।"
15 अगस्त 2016 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने अनूठी शुरुआत की। 15 अगस्त को आज़ादी के जश्न में सुप्रीम कोर्ट भी रोशनी से जगमगाने
लगा। इसकी पहल ख़ुद चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने की थी। दरअसल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री
के लाल क़िला पर झंडा फहराने और भाषण देने के बाद सुप्रीम कोर्ट में भी कार्यक्रम आयोजित
किया जाता है। इसमें चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के जजों के अलावा क़ानून मंत्री
भी हिस्सा लेते हैं। लेकिन इस बार का आज़ादी का जश्न सुप्रीम कोर्ट के लिए और भी ख़ास
हो गया। ख़ुद चीफ़ जस्टिस ठाकुर की पहल पर सर्वोच्च न्यायालय पहली बार रोशनी से जगमगा
उठा।
26 अगस्त 2016 के दिन पेट्रोल व डीज़ल में केरोसिन की मिलावट के मामले में एक याचिका पर सुनवाई
करते हुए सुप्रीम कोर्ट के तेवर सख़्त रहे। चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा, "ये कोई सुखद हालात नहीं है। राजनेताओं और कॉर्पोरेट लोगों के ही पंप हैं, जो नहीं चाहते कि नियम क़ानून में बदलाव हो। दूरदराज़ के हालात
और भी ख़राब हैं।" उत्तरप्रदेश की फतेहपुर सीकरी से बसपा की
सांसद सीमा उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह तल्ख़ टिप्पणी की।
अगस्त 2016 के प्रथम सप्ताह में
ही सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के 6 पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले खाली करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं, जिन नियमों के तहत इन्हें आवास मुहैया करवाए गए थे, उन नियमों
को भी कोर्ट ने ग़ैर क़ानूनी करार दे दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "कभी मुख्यमंत्री होने की वजह से ही किसी को सारी ज़िंदगी के लिए आवास दिया नहीं
जा सकता।"
25 अक्टूबर 2016 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश में बैंकों से 500 करोड़ और उससे ज़्यादा
लोन लेकर डिफॉल्टर होने वाले 57 लोगों पर 85 हज़ार करोड़ रुपये की देनदारी है। अगर 500 करोड़ से कम के डिफॉल्टरों की बात करेंगे तो ये 1 लाख करोड़ होगा।
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता
के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि ये लिस्ट सार्वजनिक की जानी चाहिए। जबकि आरबीआई ने
कहा कि लिस्ट के नाम गुप्त रहने चाहिए, क्योंकि ज़्यादातर डिफॉल्टर विलफुल डिफॉल्टर
नहीं हैं। ऐसे में ये नाम पब्लिक होते हैं तो नियमों के ख़िलाफ़ होगा। लेकिन चीफ़ जस्टिस
ने कहा कि, "ये लोग बैंकों का पैसा लेकर वापस नहीं कर रहे। ऐसे लोगों के नाम सार्वजनिक होते
हैं, तो इसमें डिफॉल्टरों के अलावा किसी पर क्या असर पडे़गा?"
ये 28 अक्टूबर 2016 का दिन था। सुप्रीम
कोर्ट में सुनवाई के दौरान एक वकील ने टीएस ठाकुर को हैंडसम कहा तो कोर्ट में मौजूद
लोग मुस्कुरा उठे। लेकिन जस्टिस ठाकुर ने नाराज़ होकर कहा कि वकील को कोर्ट रूम से
बाहर निकाल दिया जाए। हालाँकि बाद में विनती करने पर उन्होंने वकील को सुनवाई में मौजूद
रहने की इजाज़त दे दी।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट
में जजों की नियुक्ति को लेकर अहम सुनवाई चल रही थी। उसी वक़्त एक वकील ने कहा कि उन्होंने
भी इस मुद्दे पर एक अर्जी दी है, वो भी कोर्ट में दलीलें देना चाहते हैं। लेकिन
चीफ़ जस्टिस ने उन्हें चुप रहने को कहा। कुछ देर बाद वकील ने फिर से बोलना शुरू किया
और कहा कि हम जस्टिस ठाकुर का सम्मान करते हैं, वह हैंडसम हैं। इस बात पर कोर्ट रूम में सब
लोग मुस्कुराने लगे। नाराज़ हुए चीफ़ जस्टिस ने अपने कोर्ट मास्टर को कहा, "इस शख़्स को बाहर निकाला
जाए। ये मामला गंभीर है।"
23 नवम्बर 2016 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल को लेकर केंद्र को घेरे में लिया। लोकपाल नियुक्ति
में हो रही देरी पर सुप्रीम कोर्ट को आख़िरकार संज्ञान लेना पड़ा। सरकार की ओर से अटॉर्नी
जनरल ने नेता विपक्ष की कमी और नेता विपक्ष चुनने के संसदीय नियम का हवाला देकर लोकपाल
नहीं बनने का बचाव किया। कोर्ट ने इसे लेकर अब तक कोई कदम न उठाने पर केंद्र सरकार
की सख़्त आलोचना की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "सरकार अध्यादेश जारी करके भी इस मामले पर आगे बढ़ सकती है।" टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाली बेंच ने कहा कि, "संस्था को कार्य करने की इजाज़त मिलनी चाहिए, और इसमें क़ानून या नियम को बाध्य
नहीं बनाना चाहिए।" कोर्ट ने कहा, "ऐसी छवि ना बने, जिससे
लगे कि सरकार को लोकपाल बनाने में दिलचस्पी नहीं है।"
8 नवम्बर 2016 के दिन केंद्र सरकार ने रात 12 बजे से 500 और 1000 के नोट अमान्य घोषित किए। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़
याचिका दायर भी हुई। चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर और जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ की बेंच ने
सरकार के फ़ैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
कोर्ट ने कहा, "सरकार की आर्थिक नीतियों में कोर्ट दखल देना नहीं चाहता।" सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फ़ैसले को 'अच्छा फ़ैसला' कहा। साथ में कोर्ट ने नसीहत भी दी कि, "आम नागरिकों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। सरकार अपने कदम को सर्जिकल स्ट्राइक कहे या
कारपेट बॉम्बिंग कहे, लेकिन इसे लेकर सार्वजनिक रूप से लोगों को
परेशानियाँ ज़रूर हो रही हैं।" सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ये दिक्कतें दूर
करने की नसीहत दी।
18 नवम्बर 2016 के दिन 2000 के नए नोट के पानी में रंग छोड़ने को लेकर चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा, "आप करेंसी नोट को पानी में क्यों डालते हैं? नोट को पानी में डालने का क्या मतलब है?"
चीफ़ जस्टिस ने यह
टिप्पणी वकील एमएल शर्मा की याचिका पर की। वकील एमएल शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल
याचिका में कहा था कि बाज़ार में 2000 के 50 फ़ीसदी नोट नकली आ गए हैं, जो पानी में डालने पर रंग छोड़ रहे हैं।
1 दिसंबर 2016 के दिन न्यायपालिका और सरकार के बीच खींचतान के बीच टीएस ठाकुर ने कहा, "न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया हाइजैक नहीं की जा सकती और न्यायपालिका स्वतंत्र
होनी चाहिए। क्योंकि निरंकुश शासन के दौरान उसकी अपनी एक भूमिका होती है।"
ठाकुर ने यह भी स्पष्ट
किया कि न्यायपालिका न्यायाधीशों के चयन में कार्यपालिका पर निर्भर नहीं रह सकती। ठाकुर
ने यह टिप्पणी 'स्वतंत्र न्यायपालिका का गढ़' विषयक 37वें भीमसेन सचर स्मृति व्याख्यान के दौरान कही।
9 दिसंबर 2016 के दिन सुप्रीम कोर्ट में नोटबंदी मामले की सुनवाई के दौरान कुछ वकीलों के आचरण
पर चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर ने नाराज़गी ज़ाहिर की। उन्होंने कहा, "ये क़रीब-क़रीब उनका
आख़िरी हफ़्ता है और उन्होंने 23 साल में कभी ऐसा माहौल नहीं देखा। इतने गंभीर मसले पर इस तरह का आचरण नहीं देखा।
कोर्ट को 'मछली बाज़ार' बना दिया गया है।"
दरअसल नोटबंदी के मामले
की सुनवाई के दौरान वकीलों के बीच में बहस होने लगी और वो चिल्लाने लगे। इसी दौरान
चीफ़ जस्टिस ने इस पर नाराज़गी ज़ाहिर की और पूछा कि ऐसे गंभीर मसले पर कोई इतना असंवेदनशील
कैसे हो सकता है।
भारतीय क्रिकेट इतिहास
और इससे जुड़ी तमाम राजनीतिक शख़्सियतों को सिरे से झकझोरने वाली इस घटना ने क्रिकेट
संघ तथा उससे जुड़े नेतागणों को एक के बाद एक क़रारे झटके दिए। स्पॉट फिक्सिंग मामले
के बाद लोढ़ा कमेटी गठित हुई थी। लोढ़ा कमेटी ने क्रिकेट बोर्ड में सुधार के लिए कई
सिफ़ारिशें कीं। ये सिफ़ारिशें ऐसी थीं, जिससे बोर्ड से जुड़े कई नेता सीधे सीधे आहत
होने वाले थे।
सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा
कमेटी की ये सिफ़ारिशें स्वीकार कीं, और उसे लागू करवाने का आदेश दिया। उसके बाद शुरू
हुआ बीसीसीआई और सुप्रीम कोर्ट के बीच जंग सरीखा दौर। लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशें मानने
पर लीपापोती कर रही बीसीसीआई को कोर्ट ने चेतावनी दी। बाद में लोढ़ा समिति की पैनल
ने बीसीसीआई के भुगतान रोकने के लिए बैंकों को निर्देश दिए। कोर्ट ने बीसीसीआई के हलफ़नामे
को नामंजूर किया तथा राज्यों के फंड आवंटन पर रोक लगायी। ये सब चीज़ें बीसीसीआई के
ढुलमुल रवैये के चलते एक के बाद एक होती रही। उसके बाद सुप्रीम ने बीसीसीआई की अपील
ख़ारिज की और कहा कि लोढ़ा समिति की सिफ़ारिशें बीसीसीआई को माननी ही होगी।
एक दफा सुप्रीम कोर्ट
ने सख़्त लहज़े में कहा, "ये ना माने कि हमें आदेश देना ही आता है, हमें आदेश लागू करवाना भी आता है।"
क्रिकेट बोर्ड के पास
एक के बाद एक क़ानूनन विकल्प ख़त्म होते चले गए। सबसे पहला विकट गिरा शरद पवार का, जिन्होंने स्वयं ही पद त्याग दिया। लेकिन अनुराग ठाकुर शायद
आख़िरी दम तक कोई न कोई रास्ता ढूंढने की फ़िराक़ में थे। आख़िरकार 2 जनवरी 2017 के दिन कोर्ट ने बोर्ड
अध्यक्ष अनुराग ठाकुर को उनके पद से हटा दिया। ठाकुर के अलावा अजय शिर्के पर भी गाज
गिरी। शिर्के को बोर्ड के सचिव पद से हटाया गया।
15 दिसंबर 2016 के दिन सर्वोच्च न्यायालय ने शराब की दुकानों को लेकर सख़्त आदेश सुनाया। सुप्रीम
कोर्ट ने देश के तमाम नेशनल और स्टेट हाइवे पर शराब बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया। कोर्ट
ने कहा कि 1 अप्रैल से देश के नेशनल तथा स्टेट हाइवे के 500 मीटर के आसपास शराब बेचने की दुकान के लाइसेंस रिन्यू न किए
जाए। चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर की बेंच ने कहा कि 31 मार्च 2017 तक तमाम शराब की दुकानें बंद करनी होगी। उसके बाद ऐसे विक्रेताओं को लाइसेंस रिन्यू
नहीं किए जाएँगे। कोर्ट ने नेशनल तथा स्टेट हाइवे पर शराब की दुकानों के अलावा इन दुकानों
के साइन बोर्ड लगाने के लिए भी प्रतिबंध लगा दिया।
16 दिसंबर 2016 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के एक फ़ैसले को ख़ारिज करते हुए
अपने एक आदेश में कहा कि, "भारतीय संविधान के दायरे से बाहर जम्मू कश्मीर को कोई भी शक्तियाँ नहीं दी जा सकती।"
सुप्रीम कोर्ट द्वारा
जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया गया, जिसमें कश्मीर को
संप्रभु राज्य बताया गया था। याचिका पर सुनवाई के बाद दिए फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट
ने कहा, "जम्मू कश्मीर को भारत के संविधान के मुताबिक़ ही छूट दी गई है। जम्मू कश्मीर के
लोग पहले भारत के नागरिक हैं, इसलिए ये कहना ग़लत होगा कि कश्मीर के नागरिक
शेष देश के राज्यों के नागरिकों से अलग हैं।"
सुप्रीम कोर्ट ने आगे
कहा, "संविधान की धारा 3 के तहत भारत संघ राज्यों का एक समूह है और जम्मू कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग
है।"
नये साल की शुरुआत
में ही सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। 2 जनवरी 2017 के दिन हिंदुत्व के
मुद्दे पर एक याचिका की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने ये सख़्त आदेश सुनाया।
सुप्रीम ने कहा, "धर्म, जाति या संप्रदाय के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते। संविधान में कही पर ऐसा नहीं
है। इस शैली से वोट मांगना ग़ैर संवैधानिक है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है
और उम्मीदवारों को उसी आधार पर चलना चाहिए। व्यक्ति और ईश्वर के बीच का मुद्दा निजी
मामला है। सरकार व राजनीति को इससे दूर रह कर काम करना चाहिए।"
चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर
की अगुवाई में एक बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की। राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा गुजरात की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार
मेहता ने कहा था कि धर्म को चुनाव प्रक्रिया से अलग करना मुमकिन नहीं है। उन्होंने
यह भी कहा था कि उम्मीदवार धर्म के नाम पर वोट मांगता है तो वो ग़लत चीज़ है। चीफ़
जस्टिस ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, "राज्य अस्पष्ट दलील क्यों दे रहे हैं? संसद का मक़सद स्पष्ट तरीक़े से काम करना
है।"
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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