जिस समाज में माँ का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है, उसी समाज में हर पल, हर
मोड़ पर, आप उससे संबंधित अपशब्दों का अविरत इस्तेमाल सुनेंगे। कभी कभी लगता है कि
नेता या नागरिक, दोनों में से अच्छा गिरगिट कौन है यह तय कर पाना वाक़ई मुश्किल
है। और ऐसा समाज कुछ घटनाओं पर शर्मसार भी होता रहता है! ऐसा तो नहीं है न कि शर्मसार होना सम्मानित होना होता है ऐसा गलती से हम सभी ने
पढ़ लिया हो? ऐसा तो नहीं है न कि शर्मसार होना नोबेल पुरस्कार मिलने जैसा होता है यह मान लिया
हो हमने? अगर शर्मसार होना, सचमुच शर्मसार होना ही है ऐसा मान लिया होता, तब तो कुछ मामले
और वारदातें कम से कम नियंत्रित तो हो ही चुके होते।
जो चीजें छुप छुप करने
में भी पहले लोग डरा करते थे, आज उन्हीं चीजों को सरेआम, बीच बाज़ार किया जा रहा है। क्यों? और इस क्यों के पीछे
सचमुच शर्मसार होकर सोचेंगे, तब यक़ीनन आप शर्मसार हो जाएँगे। 31 दिसंबर की आधी रात को जो घटना हुई, कुछ लोग तो इसे छेड़खानी कहते हैं। बीच सड़क पर, सरेआम किसी के निजी
अंगों पर हाथ डालना केवल छेड़खानी है? सचमुच शर्मसार हुए होते तो आप इसे छेड़खानी नहीं कहते। दुष्कर्म से लेकर सामूहिक
दुष्कर्म, घर में छेड़खानी से लेकर सामूहिक रूप से बीच बाज़ार महिला सम्मान के चिथड़े उड़ाना, आप अगर शर्मसार होना
ही चाहते हैं तो गर्व महसूस कर सकते हैं कि हमने काफ़ी प्रगति की है।
कुछ लोग उसी घटना पर
सोच कर शर्मसार ना हो। बदकिस्मती से हमारे यहाँ ऐसे अपराध और साथ ही हमारी अपनी ही
बेशर्मियों की ढेर सारी वारदातें हैं। शर्मसार होने के लिए इक्का-दुक्का घटनाओं का
इस्तेमाल ना करें। निर्भया बहन का मामला जगजाहिर है। उससे पहले भी और उसके बाद भी, अनगिनत और ढेर सारे
वाक़ये हैं, जिससे आप को होलसेल में शर्मसार होने का मौका मिल जाएगा। आइए, मिल-जुल कर ढेर सारे
शर्मसार हो जाते हैं। और कौन सा रिएक्शन दें? किस तरीके से हमारे खोखलेपन को पेश करे?
निर्भया बहन के मामले
की कई सारी पर्तें थीं। समाज शर्मसार हुआ, फिर सरकार की कार्यशैली और घिनौने बयानों के चलते हमारी व्यवस्था शर्मसार हुई, कदाचित न्यायतंत्र
ने अपना फ़ैसला सबसे सख़्त सुनाया होता, अगर उन्हें वक्त रहते हमारी व्यवस्था मजबूत आधार मुहैया करा देती। हमने उन दिनों
कई आंदोलन किए, कई प्रदर्शन किए, सरकार को मजबूर भी किया। लेकिन वक्त गुजरता है और हम थक जाते हैं। हमारी नियत
का सबसे बड़ा खोखलापन उस घटना के नाम से ही पेश हो जाता है। उस दौर से लेकर आज भी हम
उसे निर्भया कांड के नाम से जानते है। कांड??? कांड का मतलब आम तौर पर जो होता है वो सभी को पता होगा। क्या वो केवल एक कांड
था? उसे आप दूसरे नामों
से भी लिख सकते हैं या सोच सकते हैं। लेकिन हमने उसे कांड के नाम से ज़्यादा जाना।
ऐसी घटनाओं में जब
आप किसी सरकार को दोष देते हैं, दरअसल आप सरकार को दोष नहीं दे रहे होते। बल्कि आप समाज के खोखलेपन को स्वीकार
कर रहे होते हैं। हमारे यहाँ ऐसी घिनौनी घटनाओं का इतिहास पुराना है। 20वीं शताब्दी से हम
21वीं शताब्दी में आ
चुके हैं। बैलगाड़ी के जमाने से हम इलेक्ट्रॉनिक युग में हैं। और साल दर साल ये चीजें
बढ़ती गई। क्या ये किसी एक सरकार का दोष था? क्या ये किसी एक युग का दोष था? क्या ये किसी एक शहर का दोष था? दरअसल, ये होता है, क्योंकि इसे हमारा खोखलापन इजाज़त देता आया है।
धर्म के नाम पर या
पार्टियों के नाम पर पूरा भारत सर पर उठा लेते हैं हम लोग। दशकों में एकाध मामला मिल
जाएगा, जब हमने इस विषय पर पूरा भारत झकझोरा हो। जी हां, दशकों में एकाध मामला
मिलेगा, जब हम इस विषय को लेकर संजीदा हुए हो। वैसे संजीदा होने का वक्त काफी लंबा भी
नहीं रहता। धर्म या राष्ट्र के नाम पर हम सनक के स्तर पर पहुंच सकते हैं, लेकिन जो चीजें राष्ट्र
को बनाती हैं उस मामलों में सनक के स्तर पर क्यों नहीं जाया जा सकता? निर्भया बहन के मामले
में हमने पूरे देश की व्यवस्था को प्रभावित किया। लेकिन सोचिए, क्या उसका अंजाम वही
हुआ जो हम चाहते थे?
कई लोग नाबालिग अपराधी को लेकर न्यायतंत्र
के फ़ैसले पर टिप्पणियाँ करते नजर आए। मैं भी सहमत हूँ कि जो दिमाग दुष्कर्म करने की
सोच सकता है, वो नाबालिग नहीं हो सकता। लेकिन उस कानून को और ज़्यादा सख़्त बनाने के वचन देकर
बाद में हमारी राजनीतिक व्यवस्था मुकर गई। जब फ़ैसले का वक्त आया, तब राजनीतिक व्यवस्था
की नींद टूटी। दरअसल हम भी सो गए थे और हम भी उसी वक्त नींद से बाहर आए। इस बीच तीन
तीन सालों तक क्या हुआ? उस कानून को लेकर कौन से नागरिकी व राजनीतिक प्रयत्न हुए? कुछ भी तो नहीं।
दिल्ली वाला विषय, बदायूं वाला विषय
या अन्य विषय... हमने कुछ दिनों तक जमकर विरोध प्रदर्शन किए। जम कर शर्मसार होने की
औपचारिकता भी निभाई। सोशल मीडिया पर स्टेटस डाले, पंक्तियाँ लिखीं। सदैव होता है वैसे ही राजनीतिक गलियारों ने
उम्मीदें दे दीं। पीड़ित परिवारों की मुलाकातें ली गई। आरोप-प्रत्यारोप का वही पुराना
दौर चला। हर किसी ने महिला सम्मान की बात की, महिला सुरक्षा की बातें की। दूसरी तरफ़ सभी दलों की ओर से निचले स्तर के बयान
आए। किसीने एक दूसरे के खिलाफ कोई कदम उठाए? कही पर तो केंद्र व राज्यों के अधिकार तक के तर्क आए थे।
दूसरी तरफ़ हमारे बिखरे
हुए विरोध ने वक्त रहते उबाल को ठंडा कर दिया। हर वक्त व्यवस्थाओं ने हमें वक्त का
मरहम लगा दिया। वक्त वो दवाई है, जिससे हम लोगों का गुस्सा पिघल जाता है। किसी बर्फ
की तरह। वक्त गुजरता है और शर्मसार होना खत्म हो जाता है। फिर नये सिरे से शर्मसार
होने में नये मामले का इंतज़ार। लेकिन इसमें भी एक पेंच है। पिछली बार जिस स्तर पर
घटना हुई थी, उससे ज़्यादा घिनौनी घटना होनी चाहिए। तभी हम शर्मसार होते हैं। बस यही
तो हमारी सतह के नीचे का सच है।
पुराना इतिहास तो हम
भूल ही चुके होते हैं। लेकिन निर्भया बहन का मामला ताज़ा इतिहास था। क्या मिला हमें? क्या मिला उससे ज़्यादा
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हम क्या ले पाए थे? किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र में क्या मिला और क्या ले पाए, इन दोनों सवालों के
बीच बड़ा सा अंतर ज़रूर है।
दुष्कर्म, महिला अपराध, महिला सम्मान जैसे
विषय पर हमने कैसे कैसे विवादित बयान सुने ये हमें नहीं पता? दिल पर हाथ रखकर बोलिएगा
कि क्या ये बयान किसी एक पार्टी की तरफ से आए थे? कैसे कैसे बयान आये थे ये लिखने की जगह लिखना पड़ेगा कि ऐसे
वैसे बयान आए थे। उसका ताज़ा इतिहास जगजाहिर है। किसी एक पार्टी का चश्मा पहनकर आप
घूम रहे हैं, तो एकाध बार वो चश्मा उताकर देख लीजिएगा। तमाम दल, तमाम नेता और उसके
तमाम चाटुकारों ने अपने बयानों और तर्कों से शर्मसार ही किया था। चाहे वो पुलिस अधिकारी
हो, राजनीतिक दलों के
कार्यकर्ता हो, किसी भी दल का नेता हो, मंत्री हो या उनके कहे जाने वाले सोशल लठैत हो। सभी ने अपने अपने स्तर को और नीचे
गिराया हो ऐसे बयान जगजाहिर है। बयानों के ज़िक्र खुद ही देख लीजिएगा।
कभी कभार बातें तो
यह भी हुई कि महिलाओं को कराटे की ट्रेनिंग दी जाएगी! मुझे तो ये तरीका ही विफलता का
स्वीकार सा लगता है। जल्दबाजी ना करिए। क्योंकि जब भी मैं यह कहता हूँ, लोग कहते हैं कि हिंसा
से डरते हो? लेकिन, ऐसे तरीके अंत में विफलता का स्वीकार ही है। कराटे ट्रेनिंग का विरोध नहीं कर
रहा, बल्कि उस चीज़ को सामने ला रहा हूँ, जो इसका अंतिम सिरा है। और वो यही कि उस विषय को लेकर हम विफल हुए हैं। इसके पीछे
वजहें कौन सी थीं वो अलग विषय है। लेकिन, हम और हमारी सरकारें उन चीजों एवं योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करने में विफल
ही रहे और आखिर में कुछ नया प्रयोग करने पर उतारू हो गए।
इस देश की बेटियों
को कराटे की ट्रेनिंग देना अच्छी बात है। किंतु व्यवस्था के प्रदर्शन के नजरिए से
देखे तो, ये साफ तौर पर दर्शाता है कि महिला की सुरक्षा व्यवस्था पर सरकारें और व्यवस्था
खुद एकरार कर रही हैं कि हमसे अब कुछ नहीं हो सकता, खुद की सुरक्षा खुद कर लें, हमसे और ज़्यादा उम्मीद मत रखना। यहाँ सुरक्षा ट्रेनिंग देने
पर आपत्ति नहीं है, लेकिन सुरक्षा की ज़िम्मेवारी में नाकाम होने के बाद ट्रेनिंग देने पर आपत्ति
है। और आखिर में स्थिति यह है कि... अपने घर का खयाल खुद रखो, अपने शरीर का खयाल
खुद रखो, अपनी इज्ज़त का खयाल खुद रखो, अपने परिवार का खयाल खुद रखो! ये कैसे रखा जाता है इसका हल्का सा ज्ञान कोई दे
देगा... वो ज्ञान ले लो और डटे रहो! सेल्फ डिफेंस का एक और नारा! नारों पे ही शायद
हम ज़िंदा हैं।
हम डिजिटल बनना चाह
रहे हैं, क्योंकि हम ये मानते हैं कि हम एशिया की महासत्ता बनने वाले हैं। लेकिन अरुणा
शानबाग से लेकर आज तक हम शर्म की सत्ता के सम्राट ज़रूर बन चुके हैं। इतिहास अरुणा
शानबाग से भी पुराना है और यक़ीनन.. यक़ीनन भविष्य में इससे भी आगे जाएगा। यक़ीन इसलिए, क्योंकि हम दरअसल
पुतले हैं। हम खुद को हिंदुस्तानी कहते हैं, लेकिन हम अपनी अपनी पार्टियों के पुतले हैं। नारों से हमारा पेट भर जाता है, भाषणों से हम जिंदगी
जी लेते हैं और उम्मीदों तथा वचनों से हम सुनहरा भविष्य देख लेते हैं। मसला तो इससे
भी आगे जाता है (विकृत मानसिकता के ऊपर), जिसे हम आगे देखेंगे।
अरुणा शानबाग से पहले
भी देश शर्मसार हुआ था। अरुणा शानबाग के समय भी हुआ। उसके बाद भी होता गया। ताज़ा इतिहास
में निर्भया बहन के मामले में भी हुआ। लेकिन शायद देश को शर्मसार होने की शर्मसार वाली
आदत सी हो गई थी। इसलिए फिर एक बार उस रात भी हुआ। उम्मीद हे कि देश जगेगा, लोग उठ खड़े होंगे।
लेकिन तभी कि जब करुणता की सीमाएँ लांधती एक और घटना दर्ज हो! तब तक तो नहीं जगेगा
ये देश। और जब जगेगा, तब कोई अरुणा शानबाग या कोई निर्भया बहन आसमान से पुकारेगी कि इतनी देर क्यों
सोये रहे?
31 दिसंबर की घटना के बाद स्वाभाविक तौर पर जो होता है, वही हुआ। वही हुआ
जो निर्भया बहन को लेकर हुआ था। वही हुआ जो उससे पहले भी होता था। यही कि शर्मसार होना, लानत है, सोच बदलो, माता-बहन का सम्मान
वगैरह। यानी कि हर ऐसी शर्मसार होने वाली घटनाओं के पश्चात देश के लोग, सरकारें, मंत्रालय, विभाग, पुरुष, महिलाएं सभी जिस तरीके
के प्रतिघात देते हैं वही आए। इसमें कोई शक नहीं कि ज़्यादातर लोग गुस्से में होंगे।
लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि सतही गुस्सा ही था, जो वक्त रहते दुबक जाने वाला था। निर्भया बहन के दुखद प्रकरण
के वक्त भी लिखा था कि ये स्थिति नहीं बदलने वाली।
क्योंकि हम सब, विशेष करके हम पुरुष
समुदाय खोखले विचार व खोखली नियत वाले जीव हैं। सोशल मीडिया पर सुबह सुबह उठ कर ऐसे
ऐसे अच्छे अच्छे विचार चिपका देते हैं, लगता है कि देश डिजिटल
हो या ना हो, लेकिन देश संस्कारी ज़रूर हो चुका है। लेकिन पूरा दिन फिर उसी मंच से हम जिस तरह
की छिछोरापंती या पर्दे के पीछे की गधापंती किया करते हैं वो किसी से छुपी हुई नहीं
हैं। घर से बाहर निकलते वक्त घर की बच्चियों या महिलाओं को सही ढंग के कपड़े पहनने
की सलाह देकर निकलते हैं। और घर से बाहर निकलते ही गलियों में दूसरी महिलाओं को ताड़ा
करते हैं। ताड़ने में बुराई नहीं है तो उसे माफ़ कर भी दें, लेकिन जिस नियत से
ताड़ते हैं, लगता है कि ये बंदा घर में किस मुँह से नसीहत देकर निकला होगा?
कुछ फ़िल्मों को दोष
देते हैं, कुछ इंटरनेट को, तो कुछ समाज में एक निश्चित सीमा से ज़्यादा खुल्लापन है उसको। अन्य मुद्दे भी
हैं, जिसे दोष दिया जाता है। समझ नहीं आता कि हम कुछ घटनाएँ क्यों हुई उसका फ़ैसला
करने में ही यक़ीन रखते हैं, या फिर वो हुआ ही क्यों उसे समझने में? क्यों हुआ... और... हुआ ही क्यों? इन दोनों में फर्क तो यक़ीनन है। दरअसल, हमारे देश में पुल का गिरना बहुत आसान है, मुश्किल तो यह जानना है कि वो गिरा
क्यों? कुछ कुछ ऐसा ही इस विषय को लेकर भी है।
मैं उस दलील से भी
सहमत हूँ, जिसमें महिलाओं के जो कुछ दोष हैं उन पर भी टिप्पणियाँ की जाती हैं। उस पर भी
सहमत हूँ, जो उनके परिवार, उनके माहौल को लेकर दलीलें दी जाती हैं। सहमत हूँ इससे। मैं उस दलील को सही नहीं
मानता, जिसमें कहा जाता है कि आधी रात को निकलना गुनाह है क्या? ये पहनना गुनाह है
क्या? ऐसे रहना गुनाह है क्या? इसलिए, क्योंकि कुछ मामलों में यह दलीलें सही ठहरती नहीं लगती। इससे भी सहमत हूँ, जिसमें कहा जाता है
कि कई मामलों में महिलाओं का दोष ज़्यादा होता है। कई ऐसे मामले, जो मीडिया में दिखाए
जाते हैं, उससे उल्टे भी होते हैं। अलग अलग अदालतों में एकाध-दो बार टिप्पणियाँ भी हो चुकी
हैं कि फलां फलां कानून का महिलाएँ दुरुपयोग ना करें। कई आधिकारीक मामले ऐसे भी हैं, जिसमें कथित अपराधी
की जिंदगी बर्बाद हो गई, जबकि वो पूरी तरह से निर्दोष था।
ऐसे भी मामले मौजूद
हैं, जहाँ किसी महिला की छेड़खानी हो रही हो और उसमें कोई उसकी मदद करता है। इस बीच
मामला लंबा हो जाता है। महिला की मदद करने के चक्कर में मदद करने वाला उस अपराधी
को पीट भी देता है या उससे कुछ ज़्यादा भी हो जाता है। फिर मामला पुलिस स्टेशन या अदालत
तक पहुंचता है, जहाँ महिला समाज में अपमान के डर से या अन्य किसी वजहों के चलते उस मदद करने वाले
का साथ छोड़ देती हैं। अब उसके कौन कौन से प्रभाव मदद करने वाले तबके पर होंगे ये भी
सोचने का विषय ज़रूर है। ऐसे मामले देखे हैं मैंने। कुछ लोग जो फँस गए और पीड़िता या
उनके परिवार ने उसका साथ छोड़ दिया, ऐसे मामलों में कुछ ने कहा कि अब आगे किसी की मदद नहीं करूंगा, किसी ने कहा कि कुछ
भी हो जाए, मदद करना नहीं छोडूंगा। लेकिन ये सारी चीजें एक अलग विषय है। जहाँ हम किसी एक
तबके का दोष जानने का प्रयत्न करते हैं।
लेकिन ये सब चीजें
अन्य विषय है। जी हा, अन्य विषय। क्योंकि हम उस मामलो की चर्चा नहीं कर रहे। हम ये चर्चा नहीं कर रहे
कि जितने जितने मामले हुए उनमें कौन से सच थे या कौन से झूठ? हम ये नहीं देख रहे
हैं कि सारे मामलों में सच्चाई क्या थी? वो एक विषय है, लेकिन अलग। हो सकता है कि उसमें पुरुषो की दलीलें सही ठहर जाए। लेकिन हम ऐसे मामलों
की बात ज़रूर कर रहे हैं, जिसमें बिना दलील के पुरुष्तव नाम का तत्व कटघरे खड़ा हा जाता है। दरअसल हम उस
विषय की चर्चा कर रहे हैं, जिसमें पूरे समाज की या नागरिकी सोच की सरेआम धज्जियाँ उड़ी हो।
कपड़े को लेकर एक तबका
अपनी अपनी टिप्पणियाँ करता है, तो दूसरा अपनी अपनी टिप्पणियाँ देता है। लेकिन ये टिप्पणियाँ कहाँ ले जाएगी? क्या इससे कोई समाधान
हो पाएगा? शायद नहीं। क्योंकि, वो चीजें किसी दूसरी सड़क पर ले जाती हैं, जहाँ चर्चा महिला समुदाय और पुरुष समुदाय को लेकर होने लगती है। सदियों से दोनों
तबके एक दूसरे पर टिप्पणियाँ करते आए हैं और एक दूसरे की कमजोरियों को लेकर चर्चा या
उग्र चर्चा करते आए हैं। और इससे समाधान कभी नहीं निकला। ऐसी चर्चा के दोनों तबकों
को यह आत्मसंतोष ज़रूर रहता है कि एक दूसरे की कमियों को उजागर किया या एक दूसरे को
झाड़ दिया। उससे ज़्यादा कुछ नहीं निकलता।
आरोप-प्रत्यारोप से
मिलता क्या है? केवल आत्मसंतोष। उसके अलावा ज़्यादा कुछ नहीं। इससे आप मसले के समाधान की तरफ
आगे बढ़ भी नहीं पाते। एक अच्छा मंजर यह होगा कि अपनी अपनी कमियों को समझा जाए। लेकिन
व्यावहारिक रूप से ये संभव ही नहीं है। मैं शेखचिल्ली बनकर सपनों की दुनिया में खोना
नहीं चाहता, जहाँ सभी अपनी अपनी कमियों पर बात करते हो। ऐसा संभव ही नहीं है। लेकिन एक दूसरे
पर आरोप लगाना आत्मसंतोष से ज़्यादा कुछ दे नहीं पाता ये भी पता है। ये किसी संसद सत्र
सरीखा लगता है, जहाँ चिल्लाहट के अलावा कुछ नहीं मिलता।
कपड़े, कैसे जीना है, कब जाना, कब आना, माहौल वगैरह अलग सी
सड़क पर जाने वाली चर्चा है। और इसका कोई अंत भी नहीं है। एक सीधी सी सोच है। अपने
धर्म को महान बताने के लिए दूसरे धर्म को झाड़ना ज़रूरी होता है? क्या इससे हमारा धर्म
सचमुच महान हो जाता है? यक़ीनन, नहीं। दरअसल इससे हम दूसरों से महान होने का आत्मसंतोष ज़रूर प्राप्त कर लेते
हैं। इसके अलावा कुछ नहीं होता यह। ये उसी राजनीति की एक सड़क है, जहाँ दूसरी पार्टियों
को झाड़ना एक फैशन सा माना जाता है। जिससे खुद की कमियों को छुपाया जा सके। जो खुद
के धर्म की कमियों को उजागर करता हो, जो नागरिक जिसे वोट किया हो उसकी आलोचना करता हो, वोही समाधान की तरफ
आगे बढ़ता है। अन्यथा, सारी चीजें जगजाहिर हैं, जहाँ दौर या मामले या युग, सब के सब, बीच सड़क पर फँस कर रह जाते हैं।
आज 2017 में भी हम महिला अधिकार
या महिला सम्मान की बातें करते हैं। पार्टियाँ वादे करती हैं। (यहाँ कुछ लोग 2017 का ज़िक्र हुआ तो
एनडीए के चश्मे से सोचेंगे। उनके लिए मैं लिख दूँ कि मेरे सम्मानीय महानुभावों, 1947 से लेकर 2017 तक की सरकारों का
नाम खुद जनरल नॉलेज के पन्नों से देख लीजिएगा) खैर, पर 2017 में भी हम उसी आसमानी वायदों की बातें करते हैं। शायद 3017 तक मुमकीन हो जाए।
है न? क्योंकि, यहाँ लोग किसी एक मसले को लेकर बड़े अलग थलग हो जाते हैं। क्योंकि कोई भाजपाई
है, कोई कांग्रेसी है, कोई आपिया है या कोई
और है। देखिये न, मैंने तीन पार्टियों के नाम लिए तो कोई ये भी बोलेगा कि फलां फलां का नाम क्यों
नहीं लिखा?
हम भारतीय हैं, लेकिन शायद आई कार्ड
पर। दिल से भी होंगे, लेकिन शायद साल में उन दो दिनों में। फिर तो हम पार्टेड़ी ही ज़्यादा होते हैं।
पार्टेड़ी, यानी कि पार्टी विशेष
के मोहपाश में बंधे हुए नागरिक। और इसीलिए हम उधार के चश्मे से विषयों को ज़्यादा सोचते
हैं। सामाजिक दृष्टिकोण की बातें करने बैठते हैं, तब भी बीच में राजनीतिक दृष्टिकोण दुबक जाते हैं! और फिर बीच सड़क हर मसले दम तोड़
देते हैं।
हर ऐसे मसले में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक नाम के
तमाम दृष्टिकोण आते ही रहे हैं। हर उस मसले को मैं दरकिनार नहीं करता। लेकिन तमाम दृष्टिकोण
में संकीर्ण मानसिकता ही ज़िम्मेदार है उसे कैसे दरकिनार कर दूँ? मूल वजह ही मानसिकता है। लोग कहते हैं कि
सोच बदलनी होगी। लेकिन संकीर्ण मानसिकता, वहशीपन वाला दिमाग
और राक्षसी प्रकृति, महिलाओं को लेकर यही
तो मूल वजह है। दूसरे सारे दृष्टिकोण तो बाद में आते होंगे। और ये तीनों चीजें सोशल
मीडिया से लेकर तमाम जगहों पर देखी जाती हैं।
घर में संस्कार चैनल बन कर घूम रहे हम लोग
दूसरी जगहों पर क्या क्या नहीं कर जाते? महिलाओं की आईडी देखी
नहीं कि इनबॉक्स में ताक-झाँक करने वाले क्या मंगल ग्रह के वासी होते हैं? बीच सड़क पर टूटी फूटी
टांग लेकर चलने वाला राही नहीं दिखता, लेकिन नज़र किसी के वस्त्रों के पार चली जाती है। क्या ये सच नहीं है? छिछोरापंती का कोई
अवॉर्ड होता तो यक़ीनन गृहयुद्ध ही हो जाता। सोच बदलो, मानसिकता बदलो के नारों
की कोई कमी नहीं है यहाँ। लेकिन यही नारा खुद पर लागू नहीं किया जाता और तभी तो हर
वक्त यही नारे रिपीट होते हैं।
दरअसल, जब जब आप इसे किसी अरुणा शानबाग या किसी निर्भया
या बदायूं को ऐसे नामों से सोचते हैं, आप संकुचित सोच से
आगे बढ़ रहे होते हैं। ये मसला किसी व्यक्ति का नहीं है, ये विषय किसी शहर या किसी इक्का-दुक्का वारदातों
का नहीं है। ये नागरिकी सोच का मसला है। जैसे ऊपर लिखा वैसे, एक दूसरे की कमियों पर वार करने से कुछ हासिल
नहीं होने वाला।
कुछ कहते हैं कि महिलाओं
को ढंग के कपड़े पहनने चाहिए। एक स्तर पर उनसे सहमत हो लेता हूँ। लेकिन फिर सवाल उठता
है कि फिर क्यों 4 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म होते हैं? फिर क्यों 75-80 साल की बुजुर्ग महिलाओं
के साथ भी ऐसी घिनौनी वारदातों के मंजर दिखाई देते हैं? क्या ये केवल वस्त्रों का ही मामला है? दरअसल, ये मानसिकता का मामला है, ये खोखली नियत का मामला
है। ये अपने आप में सबूत है कि ढंग के कपड़े वाली नसीहतें खोखली हैं। सारा मंजर मानसिकता
व सोच का है। सारा मंजर विकृत दिमाग का है, जहाँ ज़ेहन में केवल
वहशीपन है। कपड़ों को दोष देकर हम उस विकृति या वहशीपन से दूर जाने की व्यर्थ कोशिशें
ही कर रहे हैं।
पहले लिखा वैसे, घर से बाहर निकलते वक्त घर की बच्चियों को
या महिलाओं को ढेर सारी नसीहतें देते हैं। लेकिन बाहर निकलते ही गलियों में ताक-झाँक
करने लगते हैं। सुबह सुबह एफबी पर अच्छे अच्छे विचार वाले स्टेटस चिपका देते हैं। ये
जताने के लिए हम सुसंस्कृत राष्ट्र के सुसंस्कृत नागरिक हैं। फिर स्टेटस को चिपकाने
के बाद लॉगआउट करके सनी लियोनी को सर्च करने लगते हैं! शाम को घर आकर फिर एक बार संस्कार
चैनल से बन जाते हैं। अगर आप समझते हैं कि आप का ये दोगलापन किसी को पता नहीं है, तो फिर आप गलत सोच रहे हैं। किसी के ढंग या
किसी के कपड़ों पर टिप्पणियाँ करने से आप सतह के नीचे जो सच छिपा है उसे दबा नहीं सकते।
अपनी बहन या बच्चियों
को आप पूरे के पूरे कपड़े पहनाकर भी बाज़ार भेज दें और क्या आप को सौ फ़ीसदी उनकी सुरक्षा
पर भरोसा है? क्या आप ताल ठोककर
यक़ीन से कह सकते हैं कि वो पूरे के पूरे कपड़े में सुरक्षित है? अगर हा, तो फिर आप के सामने सिर झुका लेता हूँ।
देर रात को बाहर घूमना
नहीं चाहिए। ठीक है भाई। एक तरह से ये लड़कों पर भी लागू होता है। लेकिन बीच बाज़ार, दिन-दहाड़े जो होता है उस पर कौन सा बहाना
लेकर आए हम?
क्या स्कूल, ऑफिस, बाज़ार सभी जगहों पर
जाना बंद कर दे कोई? और वो भी इसलिए कि
बाहर तथाकथित मर्द नाम के वहशी दरिंदे घूम रहे हैं? शर्मसार हमारी मानसिकता करती है, ऊपर से दोष हम ऐसी
चीजों को देते हैं, जिससे समस्याएँ तो
हल नहीं होती, बल्कि विवाद बढ़ते
हैं।
कपड़े, जिंदगी जीने के तरीके, संस्कृति का ज्ञान, यह सब पतली गले से निकलने
के बहाने भी हैं। इससे काम नहीं बनता तो राजनीति, कानून वगैरह तो होते ही हैं। किंतु, इसका जो मूल है, मानसिकता-सोच-वहशीपन, उस पर बात नहीं करते।
अगर मूल वजह पर हम संजीदा हैं, उस मूल वजह को लेकर
हम सचमुच गंभीर हैं, तो फिर दूसरी सारी
दलीलें करने का हक़ है। लेकिन मूल वजह छुपाने के लिए दूसरी दलीलें करना भी उसी मानसिकता
का प्रतीक है।
कुछ लोग पतली गली से
निकलने के लिए उसी विषय को फिर से छेड़ेंगे। यही कि उनके कपड़े, उनका आधी रात घूमना, उनका तौर-तरीक़ा वगैरह। इसके लिए किसी महिला
ने कही पर तो लिखा ही होगा। आप उनकी कमियों के लिए उनके द्वारा लिखे गए लेख पढ़ लें।
कपड़ों से ही दुष्कर्म होता है और कपड़ों से भी दुष्कर्म होता है। इन दोनों में
जमीन-आसमान का अंतर है। मानसिकता ही हर कर्म
करवाती है। जो लोग हम इंसानी जीवों के कपड़े, तौर-तरीक़े, खुल्लापन आदी पर तर्क देते हैं, मैं धड़ल्ले से कहता हूँ कि सहमत हूँ इससे।
लेकिन, हम जिस पर चर्चा कर
रहे हैं वो किसी कपड़े, तौर-तरीक़े या खुल्लेपन
से सरोकार नहीं रखता। वो सरोकार रखता है दिमाग से, मानसिकता से। सीधा कहे तो वो सरोकार रखता है विकृती या वहशीपन से। मैंने पहले ही
लिखा कि पूरे वस्त्र धारण करवा के अपने घर के स्वजनों को बाहर भेजिए। फिर अगर आप सौ
फ़ीसदी निश्चिंत हैं, तो फिर मैं आप को नमन
ही कर लूँगा।
जिन्हें कपड़ों से
लेकर तौर-तरीकों पर कुछ पढ़ना है या सुनना है, उनसे निवेदन है कि
कई महिलाएँ स्वयं इस विषय पर लिखती हैं। हमने यहाँ एक बात यह भी की है कि एक पुरुष
अपनी कमियों पर सोचे वो ज़्यादा ज़रूरी है। कई महिलाएँ महिलाओं की कमी पर लिखती रहती
हैं। महिलाओं की कमी को पढ़ने के शौक़ीन लोग वहाँ चले जाए। किंतु याद रखिएगा, खुद को छुपाकर दूसरे की कमियों का मजा लेने
से एक ही चीज़ मिलती है। उसकी बात हम ऊपर कर ही चुके हैं।
दरअसल, शर्मसार करने वाली ये घटनाएँ मानसिकता से
सरोकार रखती हैं। सोच बदलने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि सोच मन से
उत्पन्न होती है। मानसिकता बदले, सोच भी बदल सकती है।
किसी महिला के सम्मान से खेलना हिम्मत नहीं है, बल्कि वहशीपन है। मर्दानगी
दिखानी ही है तो दूसरी कई चीजें हैं, दूसरी कई समस्याएँ
हैं।
उन लोगों को भी समझना होगा जो चुप रहते हैं। सड़क पर हर महिला को ताड़ना बंद कीजिए।
बजाय इसके घर जाकर अपनी माँ का मुँह देख लीजिए। शायद बची हुई शर्म वापस आ जाए। वैसे
कोई इंसान महफूज़ नहीं है। लेकिन महिला का सम्मान या उनकी इज्जत एक अलग विषय है। उसका
सम्मान बीच सड़क बिखर जाए तब मर्द बनकर घूमने वाले हम सभी कथित भारतीय मर्दों का सम्मान
भी टूट ही जाता है। शक्ति का रूप कहा गया है उसे। अगर ज़रूरत पड़ेगी तो वो शक्ति भी
बनेगी। लेकिन एक बात समझ लीजिएगा कि जब वो शक्ति बनने के लिए मजबूर होगी, तब यक़ीनन कहा जाएगा
कि मर्दों की मर्दानगी खत्म हो चली थी, तभी उन कोमल हाथों
को, जो परिवार को बनाती
हैं, सजाती हैं, उसे शक्ति बनना पड़ा।
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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