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Digital, Cashless, Electronic India : लेकिन बेसिक सवाल काजल की कोठरी में क्यों बंद है?

 
हम डिजिटल बनना चाहे, इलेक्ट्रॉनिक बनना चाहे या ऑनलाइन बनना चाहे... बुरा कुछ भी नहीं है। बुरा तो यह है कि हर नयी चीज़ों के लिए सुरक्षा तथा अन्य व्यवस्थाएँ या मूलभूत ढाँचे पर कम ध्यान दिया जाए।
 
जिन्हें लगता है कि यहाँ बात इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन की आलोचना की है या उसके ख़िलाफ़त की है, उन सभी को उनका यह विशेष भ्रम मुबारक हो।
 
कैशलेस होना, डिजिटल होना या इलेक्ट्रॉनिक होना बुरी बात तो नहीं है। हर नयी बात पहले पहल थोड़ी सी परेशानी ज़रूर खड़ी करती है। व्यवस्थाओं में नहीं, बल्कि दिमागी या मानसिक तौर पर! फिर वक्त गुज़रता है और यही चीज़ें जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। देखिए न, हमारी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने बैलगाड़ी के साथ संसद में जाकर कंप्यूटर और आईटी का विरोध किया था! आज यह दल कांग्रेस से भी ज़्यादा डिजिटल है!
 
लेकिन हर नयी चीज़ दिमाग को परेशान करे ना करे, किंतु व्यवस्थाओं को कम परेशान करनी चाहिए। क्योंकि ऐसा तो नहीं होता कि हर नयी चीज़ लाने से पहले बेसिक्स पर सोचने की सरकारों को मनाही होती होगी। दरअसल सरकारें इसीलिए भी हैं कि तमाम ख़तरे, चुनौतियाँ या संभावित पहलुओं को जाँचे या परखे। फिर उस हिसाब से व्यवस्था, कानून या अन्य ऐसी सुविधा खड़ी करें या उसकी समीक्षा करें। बिना ऐसी तैयारी के कोई चीज़ देश के नागरिकों की थाली में परोसी नहीं जानी चाहिए।
 
2016 में बांग्लादेश में हुआ दुनिया का सबसे बड़ा बैंकिंग फ्रॉड हो या भारत का सबसे बड़ा डाटा हैकिंग वाला 2016 का मामला हो, चुनौतियाँ तो मुँह फाड़े अपना रूप दिखाती ही रही हैं।
 
हम कह सकते हैं कि ये चीजें तो दुनियाभर में हैं। यूँ भी कह सकते हैं कि ये समस्या केवल भारत की नहीं है, दुनिया की है। किंतु समस्याओं से सीखना, उसे समझना और उससे खुद को संरक्षित करना भारत के ऊपर ही निर्भर है। हमें समझने से और फिर खुद को संरक्षित करते रहने से दुनिया का कोई देश रोक देता हो ऐसा तो बिलकुल नहीं होगा न? या फिर ऐसा सोच कर बेठा भी नहीं जा सकता न कि दुनिया की समस्या है तो दुनिया सुलझाएगी, हमें क्या?
डिजिटल इंडिया के साथ साथ डिजिटल फ्रॉड या डाटा हैकिंग सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिए बहुत अरसे से सायबर क्राइम, सायबर डिपार्टमेंट और सायबर लॉ के जरिए हम निपटने की "लचीली तैयारियों" में जुटे हुए भी हैं। तैयारियों को लचीला कौन सी वजहों से कहा उसकी वजह हर उस इंसान को मालूम होगी जो ऐसी डिजिटल त्रासदी से गुजर चुके हो या उसके संपर्क में आए हो या उसके बारे में अरसे से पढ़ते रहे हो।
 
देसी भाषा में समझाया जाए तो, यह बिलकुल उन मामलों की तरह है, जिसमें आये दिन हम बच्चों को उठाने वाले गेंग के बारे में पढ़ते हैं, मासूम बच्चों के गुम होने की ख़बरें पढ़ते हैं। जिनके साथ ये त्रासदी हुई हो उन्हें ही इसका दुख पता होता है। वैसे ही हम सायबर फ्रॉड या लचीले कानूनों के बारे में पढ़ कर जो भी सतही राय दें, किंतु जिन्होंने इसे भुगता हो उन सभी की प्रतिक्रियाओं को दरकिनार कर घर में बैठे बैठे कोई अंतिम राय बनाने से बचना चाहिए।
 
कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिसमें चुनौतियाँ या ख़तरों को पहले परखना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं होता कि प्रस्तावित प्रयासों की बुराई हो रही है।
 
शायद हर कोई जानता है कि आप के बैंक खाते से कोई हैकर पैसा उड़ा ले जाए, तो उसके बाद वो पैसा फिर से बैंक खाते में जमा कराना उतना आसान नहीं रहता। कभी कभी बैंक अस्थायी तौर पर घोखे की रकम आप के खाते में जमा कर देता है। ये कहकर कि 'विवाद' का निपटारा होने तक ये पैसा दिया जा रहा है।
 
किंतु सवाल यह है कि विवाद कैसा? सुरक्षा चूक बैंक की तरफ़ से होती है और इसे विवाद का अलंकरण दे दिया जाता है! एक ही समय पर दो अलग अलग जगहों से आप के कार्ड से पैसे निकाल लिए जाते हैं या तय सीमा से ज़्यादा पैसे निकाल लिए जाते हैं। इतनी बड़ी चूक का बैंकों को पता नहीं चलता और इसे 'विवाद' कहा जाता है!
आरोप तो यह भी लगते रहे हैं कि आरबीआई की मार्गदर्शिका भले ही बेहतर या श्रेष्ठ हो, लेकिन ऑनलाइन बैंकिंग फ्रॉड के मामलों में इसे लागू करते वक्त ज़्यादा परेशानियाँ तो उपभोक्ता को ही उठानी पड़ती हैं।
 
एक मीडिया रिपोर्ट को यहाँ रखते है। उसमें आईसीआईसीआई बैंक का उदाहरण पेश करके सिस्टम को समझाने के प्रयत्न किए गए थे। रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में Banking Codes and Standards Board of India (BCSBI) है। बैंक इसके सदस्य होते हैं। इसीके अनुसार आईसीआईसीआई बैंक ने वादा किया है कि किसी फ्रॉड के मामले में अगर बैंक मान लेता है कि ग़लती उसकी या उसके स्टाफ की है तो बैंक अपना दायित्व स्वीकार करेगा और क्लेम चुकाएगा। फ्रॉड होने पर जब ब्रांच या उपभोक्ता में से किसी की ग़लती नहीं होगी, तो एक सीमा तक बैंक उपभोक्ता के नुकसान की भरपाई करेगा। जॉब रैकेट, लॉटरी या ईमेल के ज़रिए फंड ट्रांसफर जैसा फ्रॉड होने पर बैंक तय करेगा कि क्या उसके स्टाफ ने ऐसा किया है। ऐसा साबित होने पर बैंक अपना दावा तय करेगा और आपको चुका देगा। बैंक की ग़लती होती होगी, तो बैंक पूरा पैसा चुकाएगा। अगर उपभोक्ता या बैंक में से किसी की ग़लती नहीं होगी, सिस्टम में किसी गड़बड़ी से ऐसा होगा तो 5,000 रुपये तक ही चुकाया जाएगा। वो भी पूरे जीवन में इस तरह का भुगतान एक बार होगा। अगर दोबारा फ्रॉड हो गया तो पाँच हज़ार भी नहीं मिलेगा।
 
ऑनलाइन बैंकिंग एक सत्य है, जो स्थापित तो हो ही रहा है। पूर्णतया भी स्थापित हो जाएगा। आज नहीं, तो कल। लेकिन ज़ल्दबाजी में कुछ बेसिक्स काजल की कोठरी में बंद नहीं किए जाने चाहिए। वर्ना इसका भुगतान उसी राष्ट्र को करना पड़ेगा, कोई और देश तो नहीं करेगा न?
 
वैसे यहाँ ये भी लिखना होगा कि भारत का डिजिटल बनना आजकल ही शुरू हुआ हो ऐसा मान लेना ज़रूरी भी नहीं है। बरसों पहले इंडिया शाइनिंग के नारे से पहले ही अलग अलग डिजिटल क्रांतियाँ शुरू हो चुकी थीं। मोबाइल से लेकर टेलीविजन, प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, स्मार्ट फोन से लेकर टैबलेट पीसी और ई-वॉलेट से लेकर इंटरनेट या ब्रॉडबैंड, 2जी, 3जी आदि तक का सफ़र उसी डिजिटल इंडिया का अनछुआ सफ़र है।
 
हो सकता है कि राजनीतिक रूप से हमारे दल अपने अपने हिस्से की कहानियाँ अपने अपने तरीकों से बयां करते हो। या फिर ये भी मान ले कि तेजी लाने की कोशिशें नयी हो, क्योंकि सफ़र कछुए वाले गति से हुआ होगा।
हमारे यहाँ फ़ेसबुक अकाउंट से लेकर ट्विटर अकाउंट, बैंक अकाउंट या मोबाइल बैंकिंग से लेकर सरकारी वेबसाइट तक हैक किए जाते रहे हैं। दुनियाभर में यह चुनौतियाँ हैं। लेकिन इन चुनौतियों को निपटने की मार्गदर्शिकाएँ और कानून या व्यवस्थाओं को लागू करने में हम पिछड़ते ज़रूर नजर आए हैं। याद रखिएगा कि लागू करने में पिछड़ने की बात कही है।
 
दिसंबर 2016 में कुछेक राजनीतिक ट्विटर अकाउंट को हैक कर लिया गया। दरअसल ये मामला इसलिए गंभीर नहीं माना गया, क्योंकि ये किसी एक दल के ही नेता थे और विपक्षी पार्टी थी। लेकिन ये कारनामा करने वाले हैकर्स ने दावा तो यह तक किया कि अब हमारा अगला निशाना भारत के संसद का वेबसाइट है। संसद का यह वेबसाइट सरकारी कर्मचारियों को ईमेल की सेवाएँ मुहैया करवाता है। ईमेल वो संवेदनशील दस्तावेज़ है, जिसमें लीक होने से ख़तरे का स्तर कई गुना तक बढ़ जाता है।
 
Legion के नाम से पहचाने जाने वाले इस हैकर्स के समूह ने दावा किया था कि भारत के बैंकिंग सिस्टम को हैक करना बेहद ही आसान काम है। हालाँकि उन्होंने राहत देते हुए कहा कि वे बैंकिंग सिस्टम को हैक नहीं करेंगे।
 
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी ख़बर के मुताबिक़ लीज़न ने कहा कि उन्होंने दक्षिण भारत और एआईएडीएमके के सर्वर से तमिलनाडु की पूर्व सीएम जयललिता के बारे में काफी अहम डाटा जमा किया है। हैकर्स का कहना था कि अपोलो अस्पताल के सर्वर तक वे अपनी पहुंच बना चुके हैं। उन्होंने यहाँ भी राहत का कुछ वक्त देते हुए कहा कि इसे अभी जारी नहीं किया जाएगा, क्योंकि इससे भारत में हड़कंप मच सकता है। वॉशिंग्टन पोस्ट के सामने इन्होंने दावा किया था कि वो भारत के 40,000 से अधिक सर्वर को हैक कर चुके हैं। वैसे गजब है कि वो डाटा हैक करते हैं, लेकिन हड़कंप ना मचे उसका भी ख़ूब खयाल रखते हैं! राहत देने के नाम पर सौदेबाजी कर पैसे कमाने के आरोप भी लगते हैं।
 
दिसंबर 2016 के दौरान चिपसेट बनाने वाली कंपनी Qualcomm ने दावा किया कि भारत में मोबाइल बैंकिंग सुरक्षित नहीं है। कंपनी ने कहा कि भारत में एक भी मोबाइल एप सुरक्षित नहीं है। कहा गया कि एक भी वॉलेट या मोबाइल बैंकिंग एप हार्डवेर लेवल सिक्योरिटी का इस्तेमाल नहीं करते, जिससे सुरक्षित ऑनलाइन बैंकिंग हो सके। कंपनी ने भारत के साथ साथ दुनिया में मोबाइल बैंकिंग एप के ऊपर निशाना साधा। कहा गया कि ये एप्स पूरी तरह एन्ड्रोइड पर चलते हैं, जिसमें आसानी से पासवर्ड चोरी किया जा सकता है। यहाँ तक कि मोबाइल उपभोक्ता के फिंगर प्रिंटस चुरा लेना भी आसान है।
वहीं भारत में पाकिस्तान और आतंकवाद के मनसुबों के सबसे बड़े प्लेटफॉर्म आईएसआई के बारे में कुछ सालों से कहा जाता है कि पाकिस्तान की ये ख़ुफ़िया संस्था मोबाइल गैमिंग, म्यूजिक एप जैसे एप के जरिए जासूसी करती है या करवाती है। टाॅपगन, टॉकिंग फ्रॉग, एमपीजुक, बीडीजुक जैसे एप को मोबाइल से दूर करने की बात भारत सरकार के द्वारा भी कही जा चुकी है।
 
दिसंबर 2016 में वेनेज़ुएला में भी नोटबंदी हुई। नवम्बर 2016 के दौरान भारत में लागू की गई कथित नोटबंदी या फिर नोटबदली के बाद वेनेज़ुएला ने दिसंबर माह में अपने यहाँ ये कदम उठाया था। लेकिन 14 दिसंबर 2016 के आसपास वेनेज़ुएला ने भारत के कैशलेस की संभावित योजना पर अपनी राय रखी थी। वेनेज़ुएला के भारत में राजदूत ऑगस्टो मोनितल ने कहा कि सायबर क्राइम इसका सबसे बड़ा ख़तरा है और भारत सरकार को इस जोख़िम के सामने तैयार रहना चाहिए।
 
याद रखना चाहिए कि वेनेज़ुएला दुनिया में सबसे ज़्यादा वेब कनेक्टिविटी वाला देश है। लेकिन ऑगस्टो ने साफ लफ़्ज़ों में कहा कि हम डिजिटल अर्थतंत्र का विकल्प स्वीकृत कर चुके होते, किंतु सायबर हमलों ने हमें कह दिया है कि रियल करेंसी के सामने डिजिटल करेंसी में सायबर हमलों का जोख़िम कई गुना ज़्यादा है। उन्होंने 2016 में अपने देश में हुए सीरीज़ वाइज़ सायबर हमलों का ज़िक्र भी किया।
 
कुछ उत्साही युवा कहेंगे कि किसी दूसरे देश के राजदूत को भारत को नसीहत देने की ज़रूरत क्या है। याद रखना चाहिए कि दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाने की बात हम ही करते हैं। और दुनिया इसका जोख़िम हमें इसलिए भी बताती है, ताकि हम ख़तरों को निपटने की तैयारियों में पिछड़ न जाए।
 
National Crime Records Bureau (NCRB) के मुताबिक़ 2013 में साइबर क्राइम के 4,356 मामले और 2014 में 7,021 मामले दर्ज हुए थे। फ़रवरी 2016 में केंद्रीय आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राज्यसभा में बताया था कि अप्रैल से दिसंबर 2015 के बीच बैंक फ्रॉड के 12,000 मामले दर्ज हुए हैं। कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम CERT-In के अनुसार 2015 में तमाम तरह के साइबर अपराधों की संख्या 49,455 थी। ये राष्ट्रीय अपराध शाखा के आँकड़े हैं।
मीडिया रिपोर्ट में किसी अन्य हवाले से जो ख़बरें छपती रहती हैं उसके आँकड़े इससे कई गुना ज़्यादा बताए जाते हैं। मसलन साइबर क्राइम को देखे तो, 2013 में 41,319 मामले, 2014 में 44,679 मामले तथा 2015 में 49,455 मामले बताए जाते हैं। वेबसाइट अटैक की बात करे तो, 2013 में 28,481 मामले, 2014 में 32,323 मामले तथा 2015 में 27,205 मामले हुए। स्पैम मेल के आंकड़े कुछ यूँ हैं, 2013 में 54,677, 2014 में 85,659 तथा 2015 में 61,628 मामले।
 
साइबर क्राइम में तीन राज्यों को सबसे आगे बताया जाता हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में ऐसे मामले ज़्यादा बार सामने आए हैं। इसके अलावा साइबर क्राइम में अक्सर नाइजीरियन कनेक्शन का ज़िक्र अवश्य हो जाता है।
 
कैशलेस तो वैसे भी हम हुए ही जा रहे हैं। हो सकता है कि पहले ध्यान न गया हो। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले 13 सालों में चेक से भुगतान कम हुआ है। नकद भुगतान का चलन भी कम होता जा रहा है। भारत में कैशलेस लेनदेन का प्रतिशत 13.5 है। हालाँकि हम पहली 10 कैशलेस अर्थव्यवस्थाओं में नहीं हैं। लेकिन जिस तेजी से इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन बढ़ता है, उस तेजी से कानूनों की समीक्षा, ज़िम्मेदारी या ज़वाबदेही की स्पष्टताएँ, उपभोक्ता संबंधी चीजें आदि में उतनी तेज़ गति दिखाई नहीं दी।

 
इस बीच गुजरात सरकार की तरफ से एक बेहतरीन घोषणा हुई। गुजरात राज्य सरकार ने दिसंबर 2016 के अंतिम दिनों में कहा कि डिजिटल व्यवहारों में घोखाखड़ी के मामलों में पाँच करोड़ तक का मुआवज़ा दिया जाएगा। इसके लिए पीड़ित को राज्य के आईटी विभाग के सामने जाना होगा। इस घोषणा का पूरा विश्लेषण फ़िलहाल मुमकिन नहीं है।
 
हमारे यहाँ अलग अलग संस्थाओं के, चाहे सीबीआई हो या मंत्रालय हो, उनके वेबसाइट हैक होते रहते हैं। इस नियमित प्रक्रिया के विरुद्ध संरक्षण की कौन सी तत्परता दिखाई देती है, वो शायद मैग्नीफायर से ढूंढने की ज़रूरत है। हमारे यहाँ Greenpeace नामक एक संस्था को विदेशी चंदे के मामले में 13 दिसंबर 2016 के दिन इजाज़त दे दी गई। यानी कि उस पर जो प्रतिबंध था उसे हटाकर फिर से लाइसेंस दे दिया गया। उसके दूसरे ही दिन, यानी कि 14 दिसंबर को लाइसेंस रद्द कर दिया गया। कहा गया कि ग़लती से प्रतिबंधित संस्था को लाइसेंस दे दिया गया था!!!
इस मामले में हैकिंग का एंगल भी सामने आया था। अब आप सोच ले कि गलतियाँ कहाँ कहाँ नहीं होती और कैसी कैसी नहीं होती। लेकिन कुछ ऐसी जगहें हैं, जहाँ एक बार ग़लती हो जाए फिर देश को तो फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन नागरिकों को फ़र्क़ ज़रूर पड़ जाता है। जिन्होंने भुगता ना हो वे इस त्रासदी की पीड़ा को समझ नहीं पाएँगे।
 
फिर से स्पष्ट हो कि परिवर्तन के साथ आने वाली चुनौतियों के बारे में बात कर रहे हैं। दौर तो हमेशा बदलता रहता है। देखिए न, पहले कहा वैसे बैलगाड़ी लेकर संसद में विरोध करने जाना और फिर उसी तकनीक में सराबोर हो जाना, ये दौर भी हमने देखा। राजनीतिक दलों को छोड़ दे तो, पीसीओ का वो दौर हमने देखा जब कॉल करने बाहर जाया करते थे। आज पीसीओ इतिहास हो चुका है। शायद एटीएम भी उसी रास्ते है। हो सकता है कि उसका दौर भी पीसीओ सरीखा हो जाए। आज हम जिस एटीएम को दिल से इस्तेमाल किया करते हैं, आने वाले समय में वो भी पीसीओ के जैसे ग़ायब हो जाएँगे। ये सब चलता रहता है और चलता रहेगा।
 
किंतु हर नयी चीज़ के साथ साथ व्यवस्थाएँ और चुनौतियाँ भी नयी ही होती हैं। नागरिकों को तथा सरकारों को, दोनों को उस हिसाब से खुद को ढालना ही पड़ता है। मोबाइल फोन के ज़माने में आज भी हम कॉल ड्रोप जैसे मसले पर विवादास्पद तौर-तरीके अपना कर चल रहे हैं। जबकि बात मोबाइल फोन से स्मार्ट फोन तक जा पहुंची है, किंतु कॉल ड्रोप वहीं का वहीं रह गया है!
 
आये दिन ऐसे इलेक्ट्रॉनिक फ्रॉड आम बात हो चुकी है। एटीएम मशीन को हैक करना भी आसान है। क्योंकि सोफ्टवेयर अपडेट किए नहीं जाते। विविध कार्ड से लेकर मोबाइल बैंकिंग तक हैकरों के लिए आसान से निशाने हैं।
 
12 दिसंबर 2016 के दिन इकोनॉमिक टाइम्स में एक ख़बर छपी थी। उस ख़बर के मुताबिक़ 70 फ़ीसदी एटीएम मशीनों को हैक करना कोई मुश्किल काम नहीं है। क्योंकि ये सभी एटीएम विंडो एक्सपी सॉफ्टवेयर पर चलते हैं, जिन्हें माइक्रोसॉफ्ट ने अप्रैल, 2014 से ही सुरक्षित करना बंद कर दिया था। रिपोर्ट में एटीएम सुविधा उपलब्ध कराने वाली कंपनी ने कहा था कि यह काम बैंकों का है कि वे अपने सॉफ्टवेयर को अपडेट करें। यानी कि ज़वाबदेही एकदूजे पर थोपने का सिलसिला यहीं से शुरू हो जाता है। कहा गया था कि दुनिया भर में एटीएम मशीनों को पाँच साल में बदल दिया जाता है, नए सॉफ्टवेयर अपना लिए जाते हैं, लेकिन भारत में दस-दस साल तक इन्हें बदला नहीं जाता है! इन्हें हटाया ज़रूर जाता है, लेकिन किसी दूसरी जगह ले जाया जाता है!
डिजिटल दुनिया में E-wallet नाम आजकल प्रचलित हुआ है। वैसे भारत के उड़ीसा राज्य के सैम पित्रोदा ने 1994 में अमेरिका में डिजिटल वॉलेट के पेटेंट के लिए आवेदन किया था। 1996 में पित्रोदा के डिजिटल वॉलेट को पेटेंट मिल गया। आज डिजिटल इंडिया के नाम पर अलग अलग राजनीतिक दल अपने अपने नेताओं की तस्वीर चिटका देते हैं। देशप्रेम में सराबोर हम उन्मादी नागरिक उसी भारतीय को भूल जाते हैं, जिसने आज से क़रीब 20 साल पहले इसकी नींव रखी थी।
 
इस ई-वॉलेट में 20 साल बाद भारत के भीतर उछाल आया है। इसके लचीलेपन को भी समझना ज़रूरी है। रिजर्व बैंक के मुताबिक़ ई-वॉलेट से आपने किसी को भुगतान किया। जिसे भुगतान किया है उसके खाते में तीन दिन के भीतर पैसा चले जाना चाहिए। मान लीजिए कि पैसा नहीं गया और आपके खाते से निकल गया। इस स्थिति में इसकी शिकायत के लिए स्वतंत्र व्यवस्था क्या है? कुछ घंटों में वो पैसा आपके खाते में वापस तो आ जाएगा, किंतु इस समयावधि के दौरान जो दिक्कत मुख्य पक्षकारों को होगी, उसका क्या?
 
मान लीजिए कि आपके खाते से पैसा निकल गया और रास्ते में कहीं अटक गया। स्वाभाविक है कि इसकी शिकायत आप वॉलेट कंपनी से ही करेंगे। अगर तीन दिन के अंदर कंपनी ने पैसा नहीं दिया, चार दिन बाद दिया या हफ़्ता भर बाद। पता चला कि आपने जो पेमेंट किया था वो बिजली वाले को मिला ही नहीं तो आप क्या करेंगे? रिजर्व बैंक वॉलेट कंपनियों को अनुमति देता है कि वे अपनी न्यूनतम जमा राशि पर ब्याज़ कमा सकती हैं। संभावना तो ये भी है कि कोई कंपनी आपका पैसा रोक कर ब्याज़ कमा ले और उधर समय पर पेमेंट न करने के कारण आपको जुर्माना भरना पड़ जाए। क्या हम तमाम कानूनों और अपने अधिकारों की बारीकियों को समझते हैं?
 
ऑनलाइन दुनिया में आप के साथ धोखाधड़ी करने वाला या डकैती करने वाला इंसान या गिरौह दुनिया के किसी भी कोने में हो सकता है। और ये धोखाधड़ी या डकैती नहीं होगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। ये होगी ये भी स्वाभाविक है। लेकिन उसके बाद उपभोक्ता व सेवा प्रदान करने वाली संस्थाओं के बीच मामले का निपटारा, मामले के कानून व धाराएँ, उसके लिए संस्थाएँ या जाँच करने वाले विभागों की क्षमता, उसके लिए बनाए गए कोर्ट के मामले, आदि की समीक्षा करना पाप तो नहीं है।
जैसे कि हमारे देश में सायबर मामले को लेकर एक ही अदालत है, जो दिल्ली में है। इसे Cyber ​​Appellate Tribunal के नाम से जाना जाता है। किंतु पिछले पाँच सालों से वहाँ जज ही नहीं है! आईटी कानून 2000 में ऐसा कोई प्रावधान न होने के कारण पिछले कई सालों से साइबर ट्रिब्यूनल में तारीख़ ही मिलती है, फ़ैसला नहीं आता! क्योंकि इसके सदस्य जज का काम नहीं कर सकते हैं। वैसे ये जज नहीं प्रिसाइडिंग ऑफिसर कहे जाते हैं, मगर इसकी कुर्सी पर कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही बैठता है। इस ट्रिब्यूनल के आख़िरी जज जस्टिस राजेश टंडन थे और 30 जून, 2011 से वहाँ जज नहीं हैं! ट्रिब्यूनल का वेबसाइट देखे तो पता चलता है कि 2011 से यहाँ पर कोई फ़ैसला ही नहीं आया है!
 
सोचिए, मामले का फ़ैसला कौन करेगा? कितने मामले इक्ठ्ठा हुए होंगे? भुगतने वालों ने जो भुगता उसके बाद कितना कितना भुगता होगा? अपराध करने वालों के हौसले कितने मज़बूत हुए होंगे? उपभोक्ताओं के हालात क्या होंगे?
 
आप भारत के किसी भी राज्य के किसी भी ज़िले के किसी भी गाँव में हो। आप के साथ सायबर फ्रॉड होता है तो एफआईआर भले आप स्थानिक पुलिस स्टेशन में दर्ज करा लें, किंतु पैसा वापस लाने के लिए आप को कई प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। इसके लिए पहले आप बैंक मैनेजर से शुरुआत करेंगे, फिर संबंधित विभागों के अफसरों से गुजरकर आपको ट्रिब्यूनल तक तो पहुंचना ही पड़ेगा।
 
कहा तो यह भी जाता है कि भारत में एक गाँव ऐसा है जहाँ से सबसे ज़्यादा धोखाधड़ी की जाती है। कहा जाता है कि यह गाँव हैकर्स का बड़ा सा अड्डा है। जहाँ हर घर में, हर गली में किसी सिस्टम के साथ लोग या गैंग बैठे हुए होते हैं और मैसेज या ई मेल फ्रॉड करते हैं। इस इलाके में जिन जिन मोबाइल कंपनियों के टावर हैं उन्हें पता भी होगा। उनकी मदद ली जा सकती है। लेकिन ऐसा कुछ किया गया हो इसकी जानकारी फ़िलहाल तो नहीं है। एक ही गाँव से इतने सारे फ्रॉड किए गए हैं! उन्हें रोकने के लिए समय तथा अन्य चीजें भी हैं, लेकिन मामला सालों तक वहीं का वहीं रह गया! जब भी आगे बढ़ेगा, ये लोग कइयों को चूना लगा गए होंगे।
वहीं दिसंबर 2016 में ऐसा ही एक मामला सामने आया। लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि इस बार मामला बिलकुल उलट गया। दरअसल पेटीएम कंपनी ने ही इस बार फ्रॉड की शिकायत की थी। यानी कि अब तक उपभोक्ता शिकायत करते थे। लेकिन इस बार पेटीएम कंपनी ने 48 ग्राहकों के विरुद्ध धोखाधड़ी की शिकायत की। चौंकाने वाली बात यह नहीं थी। बात तो यह थी कि सरकार ने त्वरीत कार्रवाई करते हुए दूसरे दिन ही पेटीएम की शिकायत पर जाँच सीबीआई तक को सोंपने की तत्परता दिखा दी थी।
 
दरअसल इससे पहले और इसी साल भारत का सबसे बड़ा बैंकिग फ्रॉड हुआ था। लाखों उपभोक्ताओं के डाटा चुरा लिए गए थे। लेकिन उस मामले में जाँच का कोई कदम उठाया गया हो ऐसी कोई ख़बर दिसंबर तक नहीं आई थी। लेकिन यहाँ दूसरे दिन ही 48 ग्राहकों वाली शिकायत केंद्रीय जाँच एजेंसी तक को सुप्रत करने की बातें होने लगी थी!
 
उपरांत Internet Speed भारत में सबसे बड़ी समस्या है। वैसे लगता नहीं कि इसे समस्या माना जाता हो! लेकिन तकनीकी रूप से ये बड़ा मामला ज़रूर है।
 
अंग्रेजी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़, डाउनलोड स्पीड के मामले में भारत बांग्लादेश, नेपाल और इराक से भी पीछे हैं! बैंडविथ की उपलब्धता के मामले में श्रीलंका, चीन, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देश हमसे कहीं आगे हैं! कहा गया कि उपलब्ध औसत बैंडविथ के हिसाब से डाउनलोड स्पीड के मामले में भारत 105 देशों की सूची में 96वें नंबर पर है! वहीं, साइबर सुरक्षा कि स्थिति ख़राब है और यह लगातार ख़राब ही हो रही है।
 
इस रिपोर्ट में भी सायबर हमले के बढ़ते मामले और कमज़ोर बेसिक्स पर निशाना लगाया गया। दरअसल, हमारे यहाँ साइबर अपराध के दोषियों को सज़ा मिलने के उदाहरण न के बराबर हैं। कई समुदाय गंभीरता से चाहते हैं कि सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षित ऑनलाइन ट्रांजैक्शन्स को लेकर एकसाथ कदम उठाए।
हालाँकि जनवरी 2017 में वॉशिंग्टन पोस्ट ने भारत के यूनिफाइड पेमेंट को बढ़िया माना था। वॉशिंग्टन पोस्ट ने लिखा था कि यूपीआई से सेकेंडों में पेमेंट हो जाता है, जबकि बिटकॉइन में 10 मिनट लगता है। वॉशिंग्टन पोस्ट में सिलिकॉन वैली के विवेक वाधवा ने अपने मत में कहा कि भारत फाइनेंशियल तकनीक में दो पीढ़ी तक आगे निकल चुका है। 96वे नंबर वाली कम नेट स्पीड के बावजूद किसी विशेषज्ञ का भारत के यूपीआई सिस्टम की इस कदर खुलकर प्रशंसा करना अच्छा ही माना जाना चाहिए। शायद यही वजह रही होगी कि यूपीआई सिस्टम की जगह अन्य सिस्टम को तवज्जो मिलती देख कइयों ने टिप्पणियाँ भी की थीं।
 
जैसे आगे कहा वैसे, ऑनलाइन बैकिंग आज की सच्चाई है। इसका इस्तेमाल बढ़ने ही वाला है। लेकिन इसके ख़तरे, चुनौतियों का ज्ञान तथा निपटारे की प्रक्रिया को सरकार, सेवा प्रदान करने वाली कंपनी या संस्था तथा उपभोक्ता, तीनों के लिए साफ भी होनी चाहिए।
 
अगर पैसा पल भर में किसी ने ग़ायब कर दिया तो उसे वापस लाने की प्रक्रिया कहाँ से शुरू होगी, कहाँ तक जाएगी, उसकी अवधि कम से कम कैसे की जाए, ज़िम्मेदारी और ज़वाबदेही की स्पष्टता, कानून, नियमावली, मामले को चलाने वाली संस्थाएँ, जाँचने वाली व्यवस्थाएँ व फ़ैसले, इन सारी चीजों पर तैयारी किए बगैर आगे बढ़ना अगर समझदारी है, तो फिर उसके सामने दलील क्या दे सकते हैं?
 
पूर्व तैयारियों के बगैर कोई चीज़ लागू की जाए तो उसके विपरित परिणाम सरकार से लेकर आवाम तक को कैसी दिक्कतों में डाल सकते हैं उसका इतिहास कथित नोटबंदी के रूप में ताजा है। उपरांत हमारे यहाँ न्यायालय और सरकार जजों की कमी व नियुक्ति के मामले पर आमने सामने हैं, ऐसे में इस संदर्भ को भी जोड़ा जा सकता है। अगर सचमुच आप की चिंताएँ समांतर हैं तो।
 
एक चीज़ स्वाभाविक है कि उपभोक्ता अपने आप में इतना विशेषज्ञ या जागरूक नहीं हो सकता। क्योंकि हमारी पारंपरिक प्रथा को देखे तो, उपभोक्ता वैसे भी हजारों परेशानियाँ और चिंताओं में घिरा हुआ होता है। उपभोक्ता जहाँ से आर्थिक सेवाएँ लेता है, उस पर ही सारा दारोमदार रखता है। ज़्यादातर तो ये स्वाभाविक भी है। और इसके पीछे उपभोक्ताओं के तर्क उतने बेकार भी नहीं लगते। ज़्यादातर जो तर्क आते हैं, उसे एकदम सीधी भाषा में रखा जाए तो, कहा जाता हैं कि एक आम नागरिक की रोजाना ज़िंदगी कई व्यवस्थाओं से जूझती होती है। चाहे वो सामाजिक व्यवस्था हो या सरकारी व्यवस्थाओं से उनके रोजाना सरोकार का संदर्भ हो।
एक नागरिका का दिन देख लीजिए। सुबह बच्चों को स्कूल भेजो तब भी बच्चों को चौकन्ना या जागरूक बनाने की नौबत रोज आन पड़ती है। इससे चॉकलेट नहीं लेना, इसके साथ ही स्कूल से घर वापस आना, ये नहीं करना, वो नहीं करना से लेकर दिन की शुरुआत होती है। अंत या रात में सोने तक का वक्त हर सामाजिक, पारिवारिक व्यवस्थाओं की जद्दोजहद से लेकर सरकारी व्यवस्था के साथ माथापच्ची में ही गुजरता है, जहाँ मामले पेचीदा ही होते हैं। सब्ज़ी से लेकर गैस सिलिन्डर, बाइक में पेट्रोल से लेकर शाम तक का जुगाड़, इस कचहरी से लेकर उस कचहरी तक जाना, पानी के बिल से लेकर बिजली के बिल, यही चीजें ज़्यादातर हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है।
 
ऐसे में वो ऐसे मामलों में कुछ ज़िम्मेदारियाँ सरकारों या व्यवस्थाओं पर छोड़ दें वह चीज़ स्वाभाविक भी है। ज़िम्मेदारियों से ज़्यादा सवाल तो ज़वाबदेही पर आकर अटकते हैं। प्रक्रियाओं में सारे विवाद उलझ कर रह जाते हैं।
 
सायबर सुरक्षा सरकार, कंपनी और उपभोक्ता इन तीनों के ज़िम्में है। लेकिन ज़वाबदेही, धोखाधड़ी के बाद प्रक्रिया आदी में लचीलापन ज़रूर है। एक बात है कि उपभोक्ता लापरवाह होते हैं। हो सकता है कि बहुत से उपभोक्ता लापरवाह हो। पासवर्ड बदलते रहना, पीन बदलते रहना, अन्य सुरक्षा स्तर लागू करना आदि में उपभोक्ता उतने गंभीर नहीं दिखते। दरअसल उपभोक्ता मानता है कि वो जो इलेक्ट्रॉनिक सेवाएँ लेता है उसकी पूरी की पूरी ज़िम्मेदारी सरकार और सेवा देने वाली कंपनी या संस्था के ऊपर है। लेकिन ऐसा है नहीं। ऐसा होना चाहिए या नहीं होना चाहिए उसकी चर्चा एक अलग विषय है। लेकिन ऐसा है नहीं। ज़वाबदेही और प्रक्रिया के मामले में उपभोक्ता, सरकार और कंपनी या संस्था, तीनों शामिल हैं। इसमें फायदे में कौन रहता है और नुकसान में कौन, इसको लेकर चर्चा ज़रूर हो सकती है।
 
अब शायद वो दौर है जब पैसा बोलेगा ज़रूर, लेकिन दिखेगा नहीं। घोर इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन का दौर आने वाला है। ऐसे में इसके साथ वो सारे ख़तरे और चुनौतियाँ भी आने वाली हैं, जिसके लिए हमारी व्यवस्थाओं को तैयार रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि ये बेवजह की चिंताएँ हैं। लेकिन उन्हीं लोगों के साथ ऐसा डिजिटल फ्रॉड हो जाए या उनकी खून-पसीने की कमाई हवा हो जाए, तब शायद उन्हें चिंताओं की वजह मालूम पड़ेगी। लेकिन तब तक देर नहीं होनी चाहिए। क्योंकि ख़तरे या चुनौतियों को समझने या निपटने की तैयारियाँ करने में कोई बुराई नहीं है। इससे हम मज़बूत ही होंगे, कमज़ोर नहीं। 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)