कृपया व्यक्तिगत रूप से मत लीजिए।
ये तो हम सभी नागरिकों के चरित्र को छूने वाली किसी गजल की पंक्तियाँ हैं। ये भी मत
समझिए कि इश्क की बात है तो फिर आप की निजी जिंदगियों में झांकने का प्रयास होगा।
पंक्ति को सार्वजनिक जनजीवन के संदर्भ में कहा है। क्योंकि हम आमतौर पर नागरिकी
हक़ का गाना गाते हैं, लेकिन ज्यादातर तो किसी न किसी का मतदार या चाटुकार बन कर
ही सोचते हैं। किसी दल का मतदाता होने में और एक देश का नागरिक होने में कुछ तो फर्क
है न। और इसीलिए मुखड़ा चिपका दिया कि इश्क नचाए जिसको यार... वो फिर नाचे बीच
बाजार...???
एक बात सर्वसामान्य रूप से देखी
जाती रही है। आप अगर भाजपा की बुराई कर दे, तो आप को कांग्रेसी या आपिया का लेबल
चिपका दिया जाता है। आप कांग्रेस की बुराई कर दे तो फिर आप भाजपाई या आपिये हो
गए। आप अगर आप पार्टी को झाड़ दे, तो फिर आप भाजपाई या कांग्रेसी है ऐसा मान लिया
जाता है। यह होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि हमारे यहां आमतौर पर किसी पार्टी की
बुराई दूसरी पार्टी वाले ही करते हैं। क्योंकि बाकी बचे खुचे लोगों को तो बोलने का
मौका ही नहीं मिलता, या फिर वे बोलने के लायक ही छोड़े नहीं जाते!
इन सब माथापच्ची के बीच तो
वो लोग पीसते हैं, जो सभी की बुराई करते हैं। उन्हें पाकिस्तानी मान लिया जाता हैं! कुछेक
उग्र स्वभाव के दल समर्थक उन्हें पाकिस्तानी मान लेते हैं। लेकिन सभी दल समर्थक तो ऐसे नहीं होते। कुछेक में दया भावना भी होती है! यद्यपि वे लोग
सभी की बुराई करने वालों को पाकिस्तानी करार देने के बजाय पागल या भ्रमित इंसान
बता देते हैं। कुल मिलाकर नियम तो यही लगता है कि आप को किसी न किसी पक्ष या पार्टी
से शादी तो करनी ही पड़ती है!!!
आप कहेंगे कि इसमें शादी करने की
बात कहा से आई? देखो मित्रों, हमने जिसे वोट किया हो उसकी हर नीति
अच्छी ही होती है और जिन्हें वोट नहीं किया वो तो देश को बर्बाद करने पर ही तूला
होता है, ये सर्वप्रचलित रवैया है। बिना किसी पक्ष से शादी किए ऐसा रवैया अपनाना
तो नामुमकिन ही है।
जैसे कि सत्तादल
के किसी ब्याहे समर्थक को बजट के बारे में पूछ लेना। लगता है कि रामायण या महाभारत
काल के बाद पहली बार इतना अच्छा बजट आया होगा! प्रतिपक्ष के हिसाब से तो यह बजट ऐसा होता है कि लगता है कि दूसरे दिन ही देश बर्बाद हो जाएगा! ये
शादी किए समर्थकों की कृपा होती है कि जनलोकपाल, चुनाव सुधार, माहिती अधिकार जैसे
कानून सालों तक लटकते रहते हैं, जबकि विधायक या सांसद अपने वेतन में 300 से 400
प्रतिशत इज़ाफ़ा आसानी से कर लेते हैं।
इनके तर्क भी, चाहे बचाव के हो
या विरोध के, काफी अजीब होते हैं। महंगाई के बचाव में अपनों का बचाव करते हुए दलीलें दी जाती है कि फलांना फलांना फिल्म ने इतने करोड़ का बिजनेस किया, कहा है महंगाई? तर्क
दिए जाते हैं कि इतनी महंगी टिकटें खरीद लेते हैं और टमाटर और दाल के दाम पर रोना
रोते हैं। इन्हें सबक सिखाने के लिये तो और भी दाम बढ़ाने चाहिए। कुछ तो यहां तक कहते
हैं कि मैंने सस्ती दाल के लिए वोट नहीं किया था, लेकिन फलां फलां चीजों के लिए वोट
किया था। अब इनकी दलीलों के सामने भी वैसी ही दलीलें होती हैं। बेचारा वो आदमी जो
सचमुच महंगाई से परेशान है वो किसे जाकर समझाए कि मैंने तो कोई फिल्म नहीं देखी। वो
किसके सामने जाकर कहे कि टिकट खरीद कर मौज कोई और करता है और गालियां उन्हें मिलती
है। महंगाई का समाधान तो नहीं निकलता, लेकिन तर्कों के ऐसे ऐसे तीर छूटते हैं कि बात
1947 के दौर तक पहुंचा दी जाती है। एक तर्क बहुत प्रचलित है कि तुम्हारे दौर में
महंगाई नहीं थी? केवल महंगाई नहीं, किंतु किसी भी मुद्दे पर सबसे
पहला तीर यही छूटता है कि पहले नहीं था? अब ही हुआ है? समझ
नहीं आता कि समस्याएं सुलझाने के बजाय समस्या तुम्हारे वक्त भी थी यही तय करने में
ही सारा वक्त क्यों गुजर जाता होगा?
संसद में जप्पी को लेकर काफी बवाल
मचा रहता है। वैसे हमारे महान नेतागण का धन्यवाद, कि वो सदन के अंदर जप्पियां लेकर
उन वाहनों के पीछे लिखी प्रचलित पंक्तियों को खुद-ब-खुद साबित करते रहते हैं। ट्रक या ऑटो के पीछे लिखा हुआ वाक्य “होर्न धीरे बजाइए, मेरा देश सो रहा है” कुछेक
सालों से प्रसिद्ध है। ये वाक्य लिखा गया था हम आम नागरिकों के लिए। किंतु गंभीरता
से ले रहे है हमारे माननीय नेतागण! किंतु समर्थकों
के बीच नजारा तो देखिए। नरेन्द्र मोदी की तस्वीर आती है, जिसमें वो संसद के अंदर
सोते हुए दिखाई देते है। बदले में मोदी समर्थक राहुल गांधी की सोती हुई तस्वीर ढूंढ
कर ले आते है। वैसे इन समर्थकों की खोजबीन काफी प्रशंसनीय माननी चाहिए। किसी जांच
संस्था को इनसे प्रेरित ज़रूर होना चाहिए। ये लोग हर दर्द की दवाई ढूंढ ले आते हैं। वे
हर गड़े हुए मुर्दें उखाड़ कर ले आते हैं। कुछेक लोग कहते हैं कि ये आईटी सेल के कारण
होता है। वैसे हमारे राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्रों के तहत थोड़े थोड़े काम भी
कर लेते, तब उन्हें आईटी सेल की ज़रूरत नहीं पड़ती। खैर, लेकिन नरेन्द्र मोदी की सोती
हुई तस्वीर के सामने राहुल गांधी की सोती हुई तस्वीर। जैसे कि राहुल
सो रहे है तो मोदी भी सोएंगे?!!!
आप भ्रष्टाचार या घोटाले का आरोप
लगा ले, फिसले हुए बयानों का ज़िक्र कर ले, कुछ भी कर ले, एक सर्वसामान्य दलील तुरंत
रिटर्न गीफ्ट में मिलेगी कि पहले की सरकार का भ्रष्टाचार, दूसरे दलों के काले काम
वगैरह वगैरह। अपने काले-पीले या नीले कारनामों के प्रत्युत्तर में दूसरों के कारनामों
की खाताबही खूलने लगती है। इसके बजाय वे साफ साफ बोल देते कि उन्होंने इतना सारा
खाया तो हम भी थोड़ा खा लेंगे। स्वीकार कर लेते कि उन्होंने 100 किलोग्राम का काला
काम किया तो हम 90 किलोग्राम किये, 10 किलोग्राम कम किये!!!
कभी कभी नेतागण समर्थकों के लिए काफी मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। खास करके वो नेतागण जो पाला बदलने में यकीन रखते हैं।
वैसे छिटपुटिये नेतागण पाला बदल ले वो चीज़ तो आजकल खास नहीं मानी जाती। मामला तो तब
अटकता है जब कोई प्रसिद्ध नेतागण पाला बदल ले। मैं इसे पार्टी पोर्टेबिलिटी कहता
हूं। सिद्धू पाजी को ही देख लीजिए। भाजपा के फायरब्रांड नेता नवजोत सिंह सिद्धू विरोधी दलों पर जमकर वार करते थे। शेरो शायरी के उस्ताद माने जाने वाले यह नेता
अपने भाषणों के जरिए विरोधियों की बख्खियां उधेड़ चुके थे। लेकिन अचानक से उन्होंने
पाला बदल लिया। भाजपा के सांसद सिद्धू ने राज्यसभा के पद से इस्तीफ़ा दे दिया और
उनकी आम आदमी पार्टी में जाने की चर्चा तेज होने लगी। वैसे अब तक उन्होंने भाजपा से इस्तीफ़ा नहीं दिया था। अब ऐसे हालात में समर्थकों के उत्साह, निरुत्साह, गुस्से या
तंज को देखना काफी दिलचस्प था।
वैसे सिद्धू ने भाजपा से
आधिकारीक रूप से बिदाई नहीं ली थी। लेकिन प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया ने
उन्हें आधिकारीक बिदाई ज़रूर दे दी थी! सूत्रों के
हवाले से खबरों की बाढ़ आ चुकी थी। कभी कभी लगता है कि सूत्रों को ही ताज्जुब होता
होगा कि उनके नाम से खबरें चलने लगती हैं और उन्हें ही पता नहीं होता!!! खैर,
समर्थकों की बात करे तो, अगले दिन तक सिद्धू को जी भर के गालियां देने वाले आम आदमी
पार्टी के समर्थक उन्हें सर आंखों पर बिठाने लगे थे। बैठे बिठाये लड्डू मिल जाए तब
जैसा हाल होता है वैसा हाल उन दिनों था। दूसरी तरफ कांग्रेस समर्थक ना इधर जा सकते
थे, ना ही उधर। वे भाजपा और आप दोनों पर टूट पड़े थे। शायद मलाल था कि मौका दूसरी ओर
चला गया था। भाजपा समर्थक कोई स्टैंड ही नहीं ले पा रहे थे। वे तो शायद सिद्धू को
मन ही मन कहने लगे थे कि जल्दी से कोई फैसला सुना दो। ताकि हमें पता चल सके कि आप
को हार पहनाना है या फंदा! ये तमाम समर्थक तब ज्यादा फंस सकते हैं जब सिद्धू कोई अलग फैसला ही ले ले। भले ही मीडिया या तथाकथित सूत्र खबरों की बाढ़ में लोगों को फंसा रहे हो, लेकिन राजनीति में धारणाओं का टूटना पारंपरिक इतिहास रहा
है। ये देखना दिलचस्प होगा जब सिद्धु कोई नया फैसला सुनाये या फिर फैसला ही पलट
दे। तब सारे समर्थकों की फ्लेक्सिबिलिटी की तारीफ ज़रूर करनी पड़ेगी।
वैसे ये लेख पोस्ट कर रहा हूं तब
तक तो यह आशंका सच ही साबित हो चुकी है। सिद्धू पाजी आप और भाजपा को छोड़ कांग्रेस
में जा चुके हैं। अब सारे समर्थकों ने राहत की सांस ले ली है। अब उन्हें सर आंखों पर
बिठाने वाले आप समर्थक बुस्टर स्पीड एप के बिना तेजी से बदल चुके हैं!
कांग्रेसी और भाजपाई, इन दोनों का भी यही हाल है।
वैसे सिद्धू अकेले इस दौर में
शामिल नहीं थे। देखिए मेरे मित्रों, मैं उन प्रचलित तर्कों की तरह 1947 तक पहुंचना
नहीं चाहता। क्योंकि दलबदलू नेताओं पर नहीं, बल्कि बदलने वाले मौसमी समर्थकों की बात
हो रही है। लिहाजा उतने पुराने दौर में जाने की ज़रूरत भी नहीं। मौसमी समर्थकों को
समझने के लिए हाल ही के ढेर सारे ताजे उदाहरण मौजूद है। योगेन्द्र यादव और
प्रशांत भूषण आम आदमी पार्टी से निकले, या फिर निकाले गए, तब दो खेमे में समर्थक
बंट गए। अब तक उन दोनों को सर आंखों पर बिठाने वाले उन्हें भला-बुरा कहने लगे। जबकि
अरविंद केजरीवाल को देश का एकमात्र आधार बताने वाले उन्हे सबसे बड़ा रोड़ा मानने
लगे। कांग्रेस के तो सैकड़ों नेता महोदय समय से अनुकूलन साधते हुए भाजपा में पहले ही
आ चुके थे। भाजपा भी उनसे गठबंधन करने लगी, जिन्हें वे कभी अपना विरोधी बताते थे। बीच
में स्वामीप्रसाद मौर्य भाजपा को गालियां देते देते भाजपा में ही शामिल हो गए।
इन सारे ताजे मामलों पर समर्थकों
का अनुकूलन भी गजब का रहा। कभी किसी को गालियां देने वाले समर्थक जटपट मेगी की तरह
बदलते नजर आए!!! ये सब सभी दलों में हुआ। समय के साथ कदमताल मिलाकर
अपने मंतव्यों या तर्कों को फ्लेक्सिबल बनाने की समर्थकों की यह कला उन नेताओं से भी
ज्यादा प्रभावी मानी जानी चाहिए। कुछ तो यह भी कहेंगे कि मैंने तीन-चार पार्टियों का
नाम लिया, इस लिहाज से मैं किसी दल का पेड राइटर हो सकता हूं वगैरह वगैरह। उनमें वह
कला है कि उनसे बचना नामुमकिन है। आप सैकड़ों दलों का इतिहास लाकर रख दे तब भी आप उन
मौसमी समर्थकों से नहीं बच सकते।
काफी अजीब होते हैं ये समर्थक।
चुनाव से पहले कहते हैं कि हमारा नेता ये करेगा, वो करेगा। फिर कहते हैं कि एक अकेला
आदमी कितना कितना करेगा!!! जो समर्थक नहीं बल्कि मतदाता है वो लोग
तो यही कहने को मजबूर हो जाते है कि शायद पीएम हाउस में ही कोई वास्तू दोष होगा।
सपनें दिखाकर जो भी उस घर में जाता है, उसका ह्दय परिवर्तन ज़रूर हो जाता है, लेकिन
साथ में कुछेक मतदाताओं में भी आमूल परिवर्तन होने लगता है।
किसी विरोधी नेता पर एक नियम ज़रूर
लागू होता है कि उसके पास अनुभव नहीं है, वो कैसे अपना उत्तरदायित्व निभाएगा।
लेकिन खुद के नेताओं पर दूसरा नियम लागू हो जाता है कि जज्बा और योग्यता ही सब कुछ
है!!! विरोध पक्ष में हो तब सब्सिडी हटाना महंगाई है, गरीबों पर
अत्याचार है। लेकिन सत्ता में हो तब यह देशहित है! विरोधी दल में
हो तब एफडीआई देशविरोधी है, स्वदेशी ही एकमात्र इलाज है। लेकिन सत्ता में आने के बाद
एफडीआई ही हर दर्द की दवाई है! जीएसटी कभी बेकार है, फिर जीएसटी ही
सरकार है! आधार लोगों की निजता पर हमला है, सत्ता में आने के
बाद आधार ही एकमात्र आधार है! विरोध में हो तब सदन में नीति विरोध करना
देशहित है, लेकिन सत्ता में हो तब ये कार्य देश का विकास पथ रोकने की प्रवृत्ति है! पहले
पेट्रोल डीजल महंगाई आदि कुछ और होते हैं, सत्ता में आने के बाद ये अंतरराष्ट्रीय
असरों के चलते होने वाली वारदातें है! अब ऐसे में
मतदाता करे भी तो क्या करे। समर्थकों को तो कोई परेशानी नहीं होती। क्योंकि आज कल वे
नेता लोगों से भी ज्यादा फ्लेक्सिबल होने लगे हैं। शायद माना जा सकता है कि उन्हें विरोधी दलों की समस्याओं से परहेज है, अपनों की समस्याओं से नहीं!!!
गैस के दाम बढ़ने पर ये लोग गोबर इस्तेमाल
करने की सलाह झाड़ते हैं! चीनी के दाम बढ़ने पर कहते हैं कि बिना चीनी की चाय पीया
करो, डायबिटीज का खतरा टलेगा! पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ने पर अंतरराष्ट्रीय
परिस्थितियों का ज्ञान बांटने लगते हैं! हम नागरिकों का रवैया भी मदारी जैसा ही है।
किसी राज्य में हमारे विरोधी पक्ष वाले, लोगों को 40 करोड़ की सब्सिडी देते हैं तो इसे
देशविरोधी और खयाली पुलाव सरीखा फैसला बताया जाता है। लेकिन प्रितीपात्र दल वाले
विदेश वालों को 4500 करोड़ देते है, तो इसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य का निर्णय बताया
जाता है। लोग भी सोचते होंगे कि विदेशी लोगों का कल्याण शायद ज्यादा महत्वपूर्ण है।
शुचिता की राजनीति केवल राजनेता ही नहीं करते, इसमें हम समर्थक बन बैठे महानुभाव भी
निपूण होने लगे है! नैतिकता का बंबूड़ा केवल विरोधियों के
लिए होता है, जबकि अपनों के लिए जोड़–तोड़ से लेकर हर
पारंपरिक तौर तरीकों से सरकारें बना लेने की छूट दी जाती है। ये चीज़ और करे तो उनमें
नैतिकता नहीं है, हम कर ले तो ये प्रदेशहित है! विरोधी दलों को जी भर के कौसने वालों
में सत्ता ग्रहण करने के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाता है। सब शांत, धैर्यवान और
मैच्योर हो जाते हैं।
विरोधियों और समर्थकों के बीच का खेल
तो देखिए। किसी राज्य को हारने पर उन राज्य के लोगों का मुफ्तखोर और बेवकूफ तक
करार दे दिया जाता है। नकली डिग्रियां आजकल संकटों में घिरी है। यह बात और है कि डिग्रियां
उन्हीं की नकली मानी जाती है जब वो विरोधी दलों का मामला हो! हमारे यहां सैकड़ों बार ऐसा हो चुका है कि किसी नेता या व्यक्ति को घोटालों को लेकर जेल होती है, वो विवादों
में आता है तब उसे भारत देश के लिए अवैध व्यक्ति मान लिया जाता है। वो व्यक्ति
अचानक से वैध तब हो जाता है जब वो अपनी पार्टी में जुड़ जाए! आजकल
एक अलिखित सा नियम है कि किसी पार्टी में आप घुस लो तब आप देशभक्त हो गए, किसी
दूसरी पार्टी में जगह बना लो तब आप प्रमाणिक हो गए। कुछेक बेचारे ऐसे भी हैं जहां ये सेवाएं स्थगित की गई है। क्योंकि वो खुद
अपनी जमीन बचाने में व्यस्त है!!!
चुनाव जीतने वाले समर्थकों की
बातें और है। किंतु हारने वाले समर्थक कुछेक दिन गुप्तवास भुगत लेते हैं। फिर वो
बाहर आते हैं और बेफिक्री से सत्तादल को झाड़ते हैं। उन्हें खुद जनता से सबक मिला होता
है, फिर भी चंद दिनों में वे खुद को ही देश या प्रदेश के लिए ज़रूरी बताने लगते हैं! जबकि
देश या प्रदेश ने उन्हें कुछेक दिन पहले ही रिजेक्ट किया होता है! गुप्तवास,
जिसे कुछ बड़े लोग अंडरग्राउंड होना भी कहते हैं, यह समर्थकों का कारगर हथियार है।
वे समय से अनुकूलन साधते हुए चर्चा से छुट्टियां लिया करते हैं। जीतकर आने वाले तथा
हार कर जाने वाले, दोनों के समर्थक इस हथियार का बखूबी इस्तेमाल किया करते हैं।
चुनाव में जीत और चुनाव में हार।
कभी खुशी कभी गम की इस अवधि में हारने वालों के तर्क हर समय एक ही होते हैं। हार के
बाद आत्मचिंतन ज़रूर किया जाता है। मुझे नहीं पता कि कौन सा चिंतन होता होगा। लेकिन
फिर जब समर्थकों के तर्क आते है तब लगता है कि पार्टी ने तो आत्मचिंतन किया होगा,
किंतु समर्थकों ने परायाचिंतन ज्यादा किया है!!! जीतने वाले तो
सिकंदर की भांति दिखते हैं। उनकी प्रतिक्रियाएं देखकर लगता है कि उन्होंने संसार के
तमाम ग्रहों को बदल देने की कसम खाई है। कुछेक दिन बाद उनकी दलीलें बदल जाती हैं और
वे कहते हैं कि कुछेक वक्त दे दीजिए!
किसी सरकार के 1 साल बाद उन
समर्थकों के प्रतिभाव देख लीजिए। अपनी पार्टी के लिए वो कहते हैं कि 1 साल
पर्याप्त समय नहीं है, ये तय करने के लिए कि कितने अंक मिलने चाहिए। साथ में वो
अपने नेता को सर्वश्रेष्ठ करार देने से पीछे नहीं हटते। 1 साल का वक्त कम है, लेकिन
फिर भी उनके नेता सर्वश्रेष्ठ है! कुल मिलाकर, ये इश्क ऐसा रंग लेकर आता
है कि उनके मनपसंद नेता कुछ करे या ना करे, वो सर्वश्रेष्ठ ही होता है! कुछ
ना कर पाए तब भी कोई आपत्ति नहीं। क्योंकि समर्थकों के पास बहाना होता है कि विरोधी
दल टांग अड़ाता है। लगता है कि देश बेशक डिजिटल हो जाए, लेकिन समर्थक क्रिटिकल ही
रहेंगे!
किसी क्वार्टर में जीडीपी बढ़ता है
तब समर्थक कहते हैं कि ये सरकार की अच्छी नीतियों का नतीजा है। दूसरे क्वार्टर में कम
होता है तब वे कहते हैं कि पीछली सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है। सरकार की जो भी नीतियां हो, लेकिन हम आम लोगों की जो नीति है कि जिसे वोट किया हो उसकी हर चीज़ अच्छी और
जिसे वोट ना किया हो उसकी हर चीज़ बुरी, ये नीति उन सरकारी घपलों से भी गई-गुजरी है।
कभी कभी लगता है कि समर्थक ही
देश है। विरोधी तो परदेश होता है!!! हमारे यहां महंगाई, रोजगारी, पाकिस्तान,
चीन और अमरिका जैसी चमकदमक... इन पांचों का बहुत चलन है। सरकार बनने के दूसरे दिन
से ही समर्थकों के लिए यह सब समस्याएं सुलझ गई होती है। फिर भले समस्याएं जस की तस
हो या विकराल हो, किंतु समर्थकों के लिए यह सब मामले नियंत्रित विषय हो चुके होते
हैं। उनके हिसाब से यह सब मामले सुलझाई जा चुकी समस्याएं होती है! जबकि विरोधियों के लिए ये समस्याएं कभी नहीं सुलझती। अगर सत्तादल इसे सचमुच सुलझा भी ले तब भी
विरोधी समर्थक ये स्वीकार करने से हमेशा बचते हैं।
लोकशाही व्यवस्था के हिसाब से विरोधियों के आरोप मनघडंत हो तब भी उतने गंभीर नहीं होते, जितनी समर्थकों की आंख बंद करके दी
गई स्वीकृति गंभीर खतरा होती है। सरकारें कोई भी हो, वो कुछ भी अच्छा करती है तब
इनमें दो तबकों की भागीदारी ज्यादा होती है। एक तबका वो जिन्होंने वोट किया हो और
दूसरा वो जो विरोध में लगा रहता हो। आंखे मूंद के समर्थन देने वाले इस प्रक्रिया का
हिस्सा नहीं माने जा सकते। साफ लफ्जों में कहे तो मतदाता और विरोधी, इन दोनों को
सफलता का श्रेय जाता है, अनुयायी को श्रेय जाता हो तब भी इन दोनों के बाद उनका नंबर
आता है। खैर... इस पर चर्चा लंबी हो सकती है और विषय भी बदल जाएगा। हमारा विषय तो
हर सरकारों के, तमाम दलों के वो समर्थक हैं जो खुद को “विशिष्ट श्रेणी” में
शुमार करवा चुके होते हैं।
समर्थक का दिमाग या सोच भी कमाल
की होती है। कश्मीर हमारे यहां एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा है जिसको लेकर हर दल अपनी
निष्ठा साबित करने पर तूला रहता है। लेकिन समर्थकों के लिए कश्मीर को देखने का नजरिया
उसी चश्मे से निकलता है, जिस चश्मे को उनका दल पहनता है। ऊपरवाला ना करे, लेकिन
अगर कश्मीर दान में दे दिया जाए तब भी इश्क किये समर्थक इसे शांति की स्थापना में
मींल का पत्थर बताने से पीछे नहीं हटेंगे!!! वैसे कश्मीर पर जनसमर्थन की बात आए तब
समर्थक उबलने लगते हैं, लेकिन यही बात उनके नेता करे तब उनमें उबाल नहीं होता, बल्कि
उस वक्त वो जनसमर्थन समझदारी का उत्तम नमूना बन जाता है! जैसे कि सत्ता
प्राप्त करने हेतु गठबंधन। यह ऐसा मामला है जो पार्टी के हिसाब से बदलता रहता है।
विरोधी अगर ऐसा कर दे तो यह पाप है। अपने वाले कर दे तब यह लंबी सोच और मैच्योरिटी
होती है। गठबंधन के मामलों में स्थिति स्पष्ट है। विरोधी दल वाले किसी के साथ गठबंधन
कर ले तब स्वार्थ, सत्ता प्राप्ति हेतु नियत की हत्या आदि आदि चीजें होती है। अपने
वाले यही चीज़ करे तब शायद बैकुंठ लोक का उत्थान होता होगा!!!
अगर विरोधी पर एक आरोप भी लग
जाए तब मामला कुछ और होता है। लेकिन अपने वालों पर लग जाए तब? तब
समर्थक प्रिंट मीडिया का लिंक मांगा करते हैं। लिंक दे दो तब वीडियो मांगा करते
हैं। वीडियो भी दे दो तब? तब सारा मामला राजनीतिक चाल होती है।
विरोधी पर आरोप लगे तब कोर्ट से पहले समर्थक ही फैसला सुना देते है। पर अपनों पर आरोप
लगे तब कोर्ट का फैसला आये तब भी कोर्ट के संवैधानिक ज्ञान को झकझोर दिया जाता
है! कुल मिलाकर, ऊपर से दैवीय शक्ति आकर भी आप के मनपसंद नेता या पार्टी के खिलाफ
फैसला सुना दे तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। समर्थकों के हिसाब से, हो सकता है कि दैवीय
शक्ति का किसी के साथ गठबंधन हो! क्योंकि... इश्क नचाए जिसको यार, वो फिर नाचे
बीच बाजार।
जैसे कि किसी
विरोधी दल में कोई नेता दल को छोड़कर निकलता है तब वो राष्ट्रीय समस्या होता है।
लेकिन खुद के घर में ऐसा हो तब वो अंदरुनी समस्या। समर्थक तो यहां तक कहते हैं कि
उनकी सरकार देश के हर पुलिस थाणे में एक अलग वेबसाइट बनवा देंगी। लेकिन सरकार की
अवधि समाप्त होने के बाद वहां जाकर देख ले तो पता चलता है कि वेबसाइट का तो पता
नहीं, टेलीफोन भी ढंग से नहीं चलता!!! हर सरकारों के वक्त समर्थकों के तर्क एक
ही बात से शुरू होते है और एक ही बात पर खत्म होते है। उन्होंने भी यही किया था और
उन्होंने ये क्यों नहीं किया।
विदेश में बसे दुश्मनों को गिरफ्त
में लेने की योजनाएं इतनी चलती है कि शायद लगता है कि उस योजना पर इतना ध्यान लग गया
था कि अपने ही देश से लोग अपराध करके विदेश चले गए और सरकार को इसका खयाल ही नहीं रहा!!! हर सरकारों के वक्त आर्थिक या अन्य प्रकार के संवैधानिक
अपराध करके कुछेक महानुभाव विदेश गमन कर जाते है। ऐसे में दूसरों की सरकार के वक्त
जो विदेश गमन हुआ हो उसीको आधार बता कर, अपने वाले विदेश गमन को डिफेंड करने की
चेष्टा काफी प्रचलित है। वैसे पहले काला धन विदेश जाया करता था, अब धन के साथ साथ
आदमी भी जाने लगा है!!! शायद काला धन वापिस लाने की योजनाओं के
बाद भविष्य में काला आदमी वापस लाने की योजनाएं आने लगेगी। हो सकता है कि पराया देश
हमें ये भी कह दे कि हम नाम नहीं दे सकते कि कितने काले महानुभाव हमारे पास है। काला
धन का आंकड़ा छूट जाएगा और काले महानुभावों का आंकड़ा दिमाग में आने लगेगा। ये लंबी
प्रक्रिया के बाद होगा। लेकिन तब भी सरकारें बदल गई होगी, किंतु समर्थकों की आदतें नहीं बदली होगी!
समर्थकों या विरोधियों में पूर्व
सरकारों के बाद सबसे प्रचलित हथियार है मीडिया। समर्थकों की माने तो देश के तमाम
चैनल बिकाऊ ही होते हैं। सत्ता दल के लिए कुछेक चैनल बिकाऊ, विपक्ष के लिए कुछेक
चैनल बिकाऊ। बाकी कुछेक चैनल बच जाते हैं। पर अफसोस कि वो न्यूज़ चैनल नहीं होते। वो
तो सास-बहू के सीरियल वाले चैनल होते हैं। उनको बिकाऊ वाले विशेषण से छुट्टी मिल
जाती है यह उनकी किस्मत ही मान ले। हर समर्थक को लगता है कि उनके ही दल के अनुयायी
बुद्धिमान है। बाकी सभी दलों के अनुयायिओं को वे भ्रमित नागरिक मानते रहते है। आज कल
भक्त नाम की एक फैशन चल पड़ी है। अजीब तो यह है कि औरों को भक्त बताने वाले लोग
स्वयं भी किसी न किसी के भक्त ज़रूर होते हैं!!! सभी देश की
चिंता करते हैं। लेकिन चिंता उन्हीं की जायज होती है, जो हर मामलों पर चिंतित हो।
यह इश्क जमकर
नचाता है। इतना नचाता है कि ज्ञान की आवश्यकता तक नहीं। मैंने 15 अगस्त 2016 के
तकरीबन 10 दिन पहले एक राष्ट्रीय व सामाजिक व सांस्कृतिक संस्था के प्रादेशिक कार्यक्रमों की योजना का एक
प्रयोजित बेनर देखा। इसे कलरफूल अंदाज में प्रिंट करवा के चौराहों पर लगवाना होगा
या फिर इश्तेहार के तौर पर लोगों के हाथों में थमाना होगा। जो भी हो, लेकिन प्रयोजित इश्तेहार में 15 अगस्त के कार्यक्रम की जगह तथा कार्यक्रमों की सूची की जानकारी थी। प्रयोजित इश्तेहार के सबसे ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था, “प्रजासत्ताक
दिन के उपलक्ष्य में कार्यक्रम”....! मैंने जिनके
माध्यम से ये पढ़ा उन्हें तुरंत बोला भी कि, “आप स्वातंत्र
दिन और प्रजासत्ताक दिन में अंतर समझ ले यही बड़ी देशसेवा होगी।”
लेकिन सोचिए अगर गलती से ये गलती बाकायदा प्रिंट होकर दीवारों पर चिपकती या लोगों के हाथों में
जाती तब क्या होता। ज्यादा सोचने की ज़रूरत भी नहीं। वो ही होता जो हर गलतियों पर
होता है। विरोधी इस पर गरियाते और समर्थक इसे मानवसहज गलती मनवा मनवा कर ही सांस
लेने देते। कुल मिलाकर विजयी विश्व तिरंगा प्यारा शर्मसार ही होता। देश भर में न
सही, उन गलियों में तो ज़रूर शर्मसार होता।
योजनाएं अच्छी
है या बुरी, यह चीज़ अगर दल या व्यक्ति विशेष समर्थकों से पूछ कर तय किया जाए, तब
यकीनन आप योजना के बारे में भूल जाएंगे! वर्तमान
उदाहरण ही ले लीजिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बलूचिस्तान का ज़िक्र
किया और समूचा देश सभी समस्याएं और शिकायतें छोड़ कर बलूचिस्तान पर सोचने लगा। 2-3
दिनों में तो तमाम दल के समर्थक बलूचिस्तान के विशेषज्ञ ही बन गए! वैसे कुछेक दिन
पहले भारतीय मीडिया गार्जियन अखबार पढ़ कर ही ब्रिटन का विशेषज्ञ बनते नजर आया था! अब की बार यह काम लोगों ने कर दिया। लगा कि गूगल इंडिया बलूचिस्तान के नाम पर ही क्रैश ना हो जाए! बलूचिस्तान के
ज़िक्र के बाद सत्ता दल और विपक्षी समर्थकों के बीच “स्वयंभू घोषित
विशेषज्ञ” वाला खेल चलने लगा। लेकिन इस आपाधापी में एक बात तो
साफ उभर कर आयी कि... अगर कांग्रेस के दौरान ऐसा आक्रामक ज़िक्र हुआ होता, तब कांग्रेसी
समर्थक इसे भारतीय इतिहास का यादगार पन्ना बता देते। फिलहाल तो वे विपक्ष में थे,
इस लिहाज से अपना विरोध करने का फर्ज अदा कर गए। आम आदमी पार्टी के दौरान ऐसा हुआ
होता, तब उनके समर्थक इसे एशियाई परिप्रेक्ष्य के इतिहास तक ले जाते। रही बात
सत्तादल भाजपा की, उनके समर्थक क्या करते यह बताने की ज़रूरत नहीं है! 2009
के दौरान बलूचिस्तान के जिक्र पर उनकी ही पार्टी ने तत्कालीन युपीए सरकार को
देशहित याद दिलाकर खूब झाड़ दिया था। लेकिन आज उनके समर्थक इसे मील का पत्थर बताते
नजर आए। व्यक्ति या दल विशेष से शादी किए समर्थक मुझे अब किसी चौथी पार्टी के
साथ जोड़ देंगे। लेकिन क्या करे, क्योंकि इतने सारे दल है कि खुद को उन सभी दलों से
अलग रखने के लिए मुझे पूरा संस्करण पार्टियों के नाम से भर देना पड़ेगा।
इन ब्याहे
समर्थकों के कारनामों और तर्कों से सबसे ज्यादा प्रताड़ित होता है, तो वह है... इतिहास। लगता है कि हर दल के पास अपना अपना एक अलग ही, या यूं कहे कि अपना एक
प्राइवेट इतिहास है!!! भविष्य के नाम पर वे इतिहास की इतनी
पर्तें छिल देते हैं, जैसे कि वो इतिहास ना हो, बल्कि आलू या मटर हो!!! लगता
है कि हर किसी का अपना एक प्राइवेट इतिहास है। वे जो सोचते हैं, वही इतिहास होता
है! आज कल इतिहासकार बनना इतना आसान नहीं रह गया। एक ही घटना या एक ही ऐतिहासिक
शख्सियत की सैकड़ों स्टोरी मौजूद होती है। हर स्टोरी इतिहास ही होती है। अपना अपना इतिहास!!! लाल बहादुर शास्त्री या होमी जहांगीर भाभा
की मौत के रहस्य भले सरकारें ढूंढ ना पाई हो, लेकिन इन नये नवेले इतिहासकारों ने
भारत को कोलंबस ने ढूंढा या किसी दूसरे बस ने... ये ढूंढ ही लिया है!!!
वैसे हर कोई
देश से प्यार करता है, हर कोई चाहता है कि देश का हित हो। लेकिन समस्या यह है कि
हर कोई चाहता है कि यह देशहित कोई खास दल या खास व्यक्ति ही करे!!! विपक्षी
समर्थकों के लिए देश का बर्बाद होना उसी दिन से शुरू हो जाता है, जिस दिन से जनता
उन्हें हराकर किसी दूसरे को बिठा देती है। सत्ता दल के समर्थकों के लिए भी देश उसी
दिन से विश्वगुरु बनना शुरू कर देता है। यही वजह है कि हमारे यहां पुल का गिरना बड़ा
आसान है, मुश्किल तो यह जानना है कि वो क्यों गिरा!!!
वैसे कोई भी दल
जो सत्ता में हो वे नहीं चाहते कि कोई उनसे काम के बारे में पूछे। क्योंकि इसका जवाब
उनके पास नहीं होता। एक पैटर्न सी बन गई है कि आप उनसे काम के बारे में पूछ ले तब
वो पूर्व सरकारों के गुनाह गिनाने लगते हैं। कभी कभी लगता है कि पू्र्व सरकारों के
गुनाह वर्तमान सरकारी समर्थकों के लिए आशीर्वाद होते हैं।
अतिउत्साही समर्थक, आंखे मुंद के
बैठे समर्थक, भक्त नाम की उपाधि पाने वाले समर्थक... जो भी कह ले। यह प्रजाति इतनी
अनोखी होती है कि उनकी भक्ति कुछ यूं बयां की जा सकती है। उनके हिसाब से, “तोपों की सलामी देने का फैशन बहुत पुराना हो चुका है, मैं तो अपने नेता के स्वागत में
परमाणु बम फोड़ूंगा।" सच तो यह है कि किसी भी दल को अगर कोई सबसे
अधिक नुकसान कर रहा होता हैं तो वह उनके समर्थक होते हैं, जो गलती को ठीक करने के बजाय
उन्हें प्रोत्साहित करते रहते हैं।
कुछेक शिकायतें हैं जो देश हमेशा
करता है। हर पल करता है, हर साल करता है और हर दफा करता है। ये बात और है कि जिसे
वोट किया हो उसकी सरकार बन जाए फिर कुछ तबका शिकायतें नहीं करता। क्योंकि फिर वो
देश नहीं रह जाता, वो सत्ता हो जाता होगा! जैसे कि महंगाई पर लोग शिकायतें करते है,
लेकिन सत्ता में आने के बाद वे महंगाई की शिकायत करनेवाले लोगों की शिकायतें करने
लगते हैं, महंगाई की नहीं करते!!!
वैसे यह याद रखना भी ज़रूरी है कि
आप लाख दलीलें कर ले, पर हमें ये समझ लेना चाहिए कि जिस नजरिये से हम देश को देखते
हैं, हमारे नेता और हमारी पार्टियां उस नजरिये से देश को नहीं देखती। उनके लिए देश
धर्म व जाति वगैरह में बंटा हुआ हिस्सा ही है। उनके लिए देश वो देश नहीं होता, जो
हमारे लिए होता है।
मेरा निशाना केवल हम समर्थक हैं,
ना कि सरकारें। कुछेक लोग इस चैप्टर को फिलहाल हजम नहीं कर पाएंगे। उनसे निवेदन है
कि यह बचाकर रखे। अगली बार जब कोई नयी सरकार आएगी तब यह काम आयेगा। दिल से तो एक
ही चीज़ कहना चाहता हूं कि विरोध हर सरकारों का होता आया है। जो सत्ता में हो उसीका
विरोध होता है। और यह निरंतर होती प्रक्रिया है। लोकशाही का यह अनूठा और बेहद
ज़रूरी रूप है। गोसीप तो ठीक है, लेकिन आप सैकड़ों बार डिबेट कर ले, अंत तो एक ही है
कि किसी भी सरकार की सफलताओं के पीछे दो तबकों का ही हाथ होता है। पहला तबका वो जो
उनका विरोध करता है। दूसरा वो जो उनका मतदाता रहा होता है। और अगर यह काम एक ही
समुदाय कर ले तब सचमुच विश्वगुरु होने का अहसास होने लगेगा।
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 1
अगस्त 2016, एम वाला)
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