हमारे यहाँ तमाम सरकारें नये नये एम्स या नये नये अस्पताल भेंट कर देती हैं, लेकिन जो बीमार व्यवस्था है, उसे दुरुस्त करने
की योजनाएँ शायद ही आती हो। एकाध स्पेशल बजट इसे लेकर भी आना चाहिए।
हमने 'पोलियो मुक्त भारत' अभियान सफलतापूर्वक संपन्न किया, लेकिन 'मलेरिया मुक्त भारत' या 'टीबी मुक्त भारत' किसी पार्टी विशेष मुक्त भारत अभियान के
सामने क्यों पिछड़ जाया करता है? हमारे यहाँ किसान और गरीबी के विषय का इतिहास उठा कर देख लीजिए, इन पर चर्चा ख़ूब होती हैं, लेकिन चर्चा के अलावा शायद ही कुछ खास हुआ हो।
बहरहाल, टीबी की बात कर लीजिए। राजरोग के नाम से मशहूर इस बीमारी को शायद राजरोग होने
से छुआ नहीं गया होगा! कहते हैं कि कुछ सामाजिक संस्थान और मदर टेरेसा जैसों ने संक्रमित
बीमारियों पर संजीदगी से काम किया था। इक्का-दुक्का प्रयास ज़रूर मिल जाएँगे। मलेरिया
और टीबी पर काम करने वाले कई लोग या समाजसेवी संस्थान ज़रूर हैं, जो दूरदराज के इलाकों में जाकर अपना काम किया करते हैं।
पोलियो मुक्त भारत
के तमगे के बीच एक वाक़ये का दर्ज होना ज़रूरी है। जनवरी 2017 में गुजरात के स्थानिक अख़बारों ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की। कहा गया कि अहमदाबाद
म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने पिछले चार महीनों से जिस जानकारी को छुपा कर रखा था वो आख़िरकार
बाहर आ चुकी है। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अगस्त 2016 में पानी के सेम्पल लिए थे, जिसमें पोलियो के टाइप टू वायरस होने की पुष्टि हुई। कथित रूप
से एएमसी ने तो इस रिपोर्ट को दबा कर रखा, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन तो छुपाने वाला
नहीं था। पोलियो मुक्त भारत के तमगे के बीच ऐसी घटनाएँ निश्चित रूप से गंभीर समस्या
ज़रूर कहा जा सकता है। खैर, हम पोलियो से निकलर इस लेख के विषय की ओर आगे बढ़ते हैं।
2014 में टीबी की बीमारी
से पीड़ित भारतीय नागरिकों की संख्या तक़रीबन 22 लाख थी। 2015 में ये आँकड़ा 28 लाख तक जा पहुंचा। यह आँकड़ा उन मरीज़ों का है, जो सरकारी अस्पतालों
में इलाज कराने पहुंचते हैं। कई मरीज़ निजी अस्पतालों में भी इलाज कराते हैं और उनकी
संख्या के अनुमान की कोई व्यवस्था फिलहाल तो हमारे यहाँ नहीं है।
दुनिया में टीबी के
मरीजों का आँकड़ा 1 करोड़ 4 लाख के आसपास है। यानी कि दुनिया के 25 फ़ीसदी टीबी मरीज़
भारत में हैं। शायद 25 फ़ीसदी के ऊपर। लांसेट जर्नल की माने तो, भारत में टीबी के मरीजों की संख्या 36 लाख है। उसके आकलन के अनुसार, बीते साल दुनिया में टीबी मरीजों की तादाद
1 करोड़ 80 लाख थी। भारत में टीबी से मरने वाले मरीजों का आँकड़ा 4 लाख 80 हज़ार बताया गया। वैसे, कई नकारात्मक आँकड़े आते रहते हैं और उसमें भारत आगे होता है
ये कटु सत्य हमने कई बार देखा भी है। इसे केवल एकाध सरकार से जोड़ कर नहीं देखा जा
सकता। वर्ना, आप फिर से उसी चक्रव्यूह में फँस जाएँगे, जहाँ से आगे कोई जा नहीं पाता।
टीबी, जिसका पूरा नाम ट्यूबरक्लोसिस (Tuberculosis) है, बैक्टीरिया से फैलने वाली बीमारी है। यह नयी बीमारी नहीं है। राजरोग के नाम से
प्रचलित बहुत पुरानी स्वास्थ्य संबंधित समस्या है यह। इसमें इंसान के फेफड़ों पर बैक्टीरिया
का प्रभाव बढ़ता जाता है, जिससे फेफड़ों का कमजोर या नष्ट होना शुरू होता है।
ये बैक्टीरिया गरीबी या अमीरी देखते नहीं हैं, लेकिन बीमारियाँ गरीबों को ज़्यादा परेशान करती हैं। स्वास्थ्य विषयक जानकार बताते हैं कि पोषणक्षम ख़ुराक की कमी से मरीज़ का शरीर
बैक्टीरिया के सामने लड़ नहीं पाता। 25 से 30 किग्रा वजन वाले कमजोर शरीर इसका पहला शिकार बनते हैं।
कहते हैं कि ये बीमारी
वंशानुगत भी है। वैसे ये बीमारी पूरी तरह से वंशानुगत भी नहीं बताई जाती। किसी गाँव
में किसी इंसान को बीमारी लागू होती है, तब दूसरे लोग भी चपेट में आ सकते हैं। जिनकी
आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती, वे ख़ुराक से लेकर तमाम चीजों में पिछड़ जाते हैं। हमारी व्यवस्थाओं
की कृपा से हमारे यहाँ अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों की संख्या बहुत कम है। एक
आँकड़े के मुताबिक़ भारत में प्रति डेढ़ मिनट टीबी का एक मरीज़ दम तोड़ देता है।
टीबी का कोई नया मरीज़
पाया जाता है तो उसे कैटेगरी-1 में रखा जाता है। इसका इलाज क़रीब 6 माह तक चलता है। कैटेगरी-1 के इलाज के बाद भी मरीज़ का स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो उसे
कैटेगरी-2 में रखा जाता है, जहाँ इलाज आठ महीनों तक का बताया जाता है। इस बीच मरीज़ का
सीबीएनएएटी टेस्ट किया जाता है। ये टेस्ट अगर पॉजिटिव आता है तो मरीज़ को कैटेगरी-4 में रखा जाता है और 24 से 30 माह का इलाज शुरू होता है। यहाँ भी नतीजा ठीक नहीं आता तो मरीज़
को कैटेगरी-5 में रखा जाता है और 24 से 30 माह का इलाज किया जाता है।
हालाँकि पहले के समय
में कल्चर टेस्ट किए जाते थे, लेकिन आजकल जीन एक्सपर्ट टेस्ट किए जाते हैं। इसमें कुछ घंटों
में ही रिपोर्ट आ जाते हैं, जिससे मरीज़ का इलाज जल्दी शुरू किया जा सकता है। इन सारी कैटेगरीज़
में इलाज का खर्चा भी अलग अलग होता है। हालाँकि सरकारी अस्पतालों में ये निशुल्क बताया
जाता है।
भारत में 21.9 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। एक अजीब बात है कि नेता अपने आपको बचाए
रखने के लिए हमेशा गरीबी की बातें करते हैं और मीडिया नेता को बचाए रखने के लिए हमेशा
गरीबी की बातें नहीं करता! हमारे यहाँ महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी कुपोषण को लेकर
हुई मौतों पर सुप्रीम कोर्ट को टिप्पणियाँ देनी पड़ती हैं।
इसके अलावा, जिनके पास सोने-बैठने की जगह की कमी हो वहाँ टीबी के फैलने की संभावना बढ़ जाती
है। हमारे यहाँ आवासों का हाल तो सभी को पता ही है। संक्रमित बीमारियों में टीबी वो
बीमारी है, जिसमें मृत्युदर सबसे ज़्यादा है। एक दौर था जब युरोप में टीबी की बीमारी की समस्या
इतनी फैली कि कई युवा, लेखक, चित्रकार से लेकर शिल्पी तक इसकी चपेट में आए थे। हमारे यहाँ
सूरत में भी चौल में बसने वाले हीरा उद्योग के श्रमजीवी इसकी चपेट में आए थे।
वैसे 90 के बाद परिस्थितियाँ ज़्यादा अच्छी हुई हैं और जिस टीबी को नाइलाज माना जाता था, उसका इलाज अब मुमकिन है। कहा गया है कि 6 महीने तक एंटीबायोटिक दवाई वगैरह से टीबी
की बीमारी से बचा जा सकता है। स्थितियों में इतना सुधार आ चुका था कि गुजरात में तो
कई टीबी अस्पताल बंद भी कर दिये गए थे। लेकिन इस बीमारी ने फिर एक बार सिर उठाया।
मेडिकल से जुड़े लोगों
ने कहा कि तमाम एंटीबायोटिक्स दवाइयों में हो रहा है वैसे, अगर बीमारी का इलाज ठीक से न किया जाए तब बैक्टीरिया दवाई के प्रभाव से बेअसर
होने लगते हैं। मतलब कि वो ये कहते हैं कि आज फिर एक बार बैक्टीरिया के सामने दवाई
को अपडेट करने की ज़रूरत है। लेकिन मरीजों को तो इतना लंबाचौड़ा ज्ञान होता तो वे स्वास्थ्य
संबंधित सेवाएँ लेने घर से बाहर ही नहीं निकलते न।
2011 में मुंबई में ऐसे
मरीज़ देखने के लिए मिले, जिनकी बीमारी किसी दवाई से ठीक नहीं हो रही थी। डॉ निमलन अरिनामपति
कहते हैं कि भारत दुनिया में टीबी से सबसे ज़्यादा प्रभावित देश है। फिर एक बार दावा
किया जा रहा है कि स्थिति सुधरती जा रही है। मरीज़ को तो ये 50-50 का मैच लग रहा है, जहाँ स्थिति हर 10-15 ओवरों के बाद बिगड़ती
या संवरती जाती है!
वैसे, निजी अस्पतालों में इलाज करवा रहे मरीजों को भी अब सरकार मदद करने लगी है। निजी
अस्पतालों में सेवा देने वाले चिकित्सकों को साथ रखकर पायलट प्रोजेक्टस तैयार हो रहे
हैं। अब तो निजी अस्पतालों में इलाज करवाने वाले मरीजों को मुफ्त दवाई मिलने जा रही
है। टीबी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए 650 करोड़ का बजट था, जो बढ़ाकर 2000 करोड़ किया गया है। सरकारी अस्पतालों में इलाज करवा रहे मरीजों पर ज़्यादा ध्यान
देने की मार्गदर्शिकाएँ आने वाली हैं। मरीजों को टीबी के विषय में जानकारी उपलब्ध कराना, दवाई लेने की समयसीमा तथा नियमित दवाई के विषय में जानकारियाँ उपलब्ध कराना, जैसी
चीजें आगे बढ़ती नजर आ रही हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ
ऐसी व्यवस्था बनाना चाहते हैं, जिसमें मरीज़ दवा का डोज लेने के बाद मोनिटरिंग सेंटर को कॉल
कर दें। ऐसा कॉल न आए तब सेंटर मरीज़ के रिश्तेदारों को या स्वास्थ्यकर्मी को जानकारी
देगा।
कई ऐसे कदम ज़रूर सरकार
की तरफ़ से उठाए जा रहे हैं। लेकिन एक दौर में टीबी का ख़तरा कम होने के बाद फिर से
जिस तरह बढ़ा था, उसे देखकर एक ठोस रोड मेप होना चाहिए, उसकी कमी सी नजर आती है। पाँच साल की योजना
का एक ब्लूप्रिंट था, लेकिन अब तक वो लागू नहीं हो पाया है! कुपोषण से टीबी ज़्यादा फैलता है, जबकि कुपोषण के मामले में दुनियाभर से भारत के लिए नकारात्मक रपटें ही आ रही हैं। भूख और कुपोषण के मामले में भारत काफ़ी पीछे नजर आता है।
टीबी के बाद बात करते
हैं मलेरिया (Malaria) की। हमारा पड़ोसी
देश श्रीलंका तो मलेरिया मुक्त हो चुका है, लेकिन हमने तो इसको लेकर शायद जंग ठीक से
शुरू ही नहीं की है! क्योंकि हम पोलियो मुक्त राष्ट्र हो चुके हैं और हमारे लिए ये गौरव काफ़ी होता
होगा। लेकिन मच्छरों से तो हम भी परेशान हैं। मलेरिया के मच्छरों की बात हो रही है!
सरकारी आँकड़ा है कि
जनवरी 2016 से जुलाई 2016 तक भारत में मलेरिया के 4 लाख 71 हज़ार मरीज़ दर्ज हुए हैं। इस अवधि में मलेरिया से मरने वालों
की संख्या 119 है। भारत में बाकायदा मलेरिया संबंधित विभाग चलते हैं, कर्मचारी हैं और बजट भी है। वैसे कर्मचारी पर्याप्त हैं या नहीं इसको लेकर समीक्षा
ज़रूरी है। देश के तमाम निगमों के संसाधनों को जोड़ ले तभी पता लगेगा कि भारत में मच्छरों
के पीछे कितने लोग लगे हुए हैं! मच्छरों से मुक्ति को लेकर सरकार समय समय पर अभियान चलाती
है, जिस पर हम समय समय पर ध्यान नहीं देते हैं!
सरकार मच्छर मारने
के अभियान में पिछड़ती है और हम मच्छर पैदा करने के अभियान में आगे निकलते हैं! हम खुद ही मच्छर के पैदा होने के हालात पैदा करते हैं और फिर बाज़ार से क्रीम
खरीद कर सोचते हैं कि एक मच्छर हमारा क्या बिगाड़ लेगा? सोचिए, एक मच्छर भारत सरकार के मलेरिया विरुद्ध अभियानों से नहीं डरा, तो हमारे एक क्रीम से क्या डरेगा?
मलेरिया काफ़ी प्रचलित
बीमारी है, लेकिन हमारे यहाँ जो प्रचलित होता है, ज़रूरी नहीं कि उसके बारे में पूरी जानकारी
से लेस हो हम! हम कभी बात नहीं करते कि मलेरिया विभाग कैसे काम करता है, इसमें काम करने वाले लोग पर्याप्त हैं या नहीं, मशीनें हैं भी या
नहीं, कौन सी मार्गदर्शिका है। हम कभी कभार एकाध राज्य की अच्छी स्थिति को देखकर खुश
हो जाया करते हैं, लेकिन ये नहीं सोचते कि भारत एकाध राज्य से बना हुआ देश नहीं है।
कहा जाता है कि भारत
में मलेरिया से मुक्ति पाने में 2030 तक का वक्त लगेगा। डेंगू और चिकुनगुनिया से कब मुक्ति मिलेगी
इसकी जानकारी नहीं है। बताया जाता है कि श्रीलंका ने 1911 से एंटी मलेरिया केंपेन शुरू किया था। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ उस दौर में श्रीलंका
में हर साल मलेरिया के 15 लाख मामले दर्ज हुआ करते थे। 1963 के आसपास श्रीलंका ने मलेरिया को क़रीब क़रीब ख़त्म कर दिया था। फिर श्रीलंका
ने इसका बजट और ध्यान कहीं और लगा दिया और ये बीमारी फिर से लौटी।
विश्व स्वास्थ्य
संगठन के मुताबिक़ श्रीलंका ने 90 के दशक में मलेरिया के ख़िलाफ़ अपनी रणनीति बदली। इसमें मच्छर
के अलावा मच्छर के पैरासाइट, यानी परजिवी को निशाना बनाया गया। आम भाषा में कहे तो, हम फॉगिंग मच्छर को भगाने के लिए करते हैं, जबकि पैरासाइट को
निशाना बनाने का मतलब है, मच्छर के भीतर मलेरिया के जो तत्व हैं उन्हें ख़त्म करना।
श्रीलंका ने मलेरिया
से निपटने के लिए इंटरनेट का बख़ूबी इस्तेमाल किया। हर तरह के बुखार वाले मरीजों की
जाँच की गई और हर मामले एंटी मलेरिया डिपार्टमेंट को भेजे गए। श्रीलंका ने इसका एक
राष्ट्रीय डाटा तैयार किया। मलेरिया प्रभावित मुल्कों की यात्रा करने वाले लोगों के
डाटा तैयार किया गया। दूसरे मुल्कों में अभियानों पर जाने वाली श्रीलंकाई सेना का भी
टेस्ट किया जाने लगा। बीमारी को फैलने से रोकने के लिए अलग से अभियान चलाए गए। ग्रामीण
इलाकों के लिए भी अलग योजनाएँ आईं। इसका अच्छा परिणाम श्रीलंका को मिला।
हमने भी पोलियो से
मुक्ति इसी तरह के प्रयासों से पाई थी। यानी कि इसी कटिबद्धता और सटिक व्यवस्थाओं के
दम पर। वर्ना कुछ लोग इंटरनेट का ज़िक्र करके सवाल उठाने में माहिर है। संयुक्त अरब
अमीरात, मोरक्को, मालदीव, आर्मीनिया, तुर्कमेनिस्तान जैसे कई देश हैं जिन्होंने पिछले सात-आठ सालों में मलेरिया से
मुक्ति पाई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 2030 तक अन्य 35 देशों को मलेरिया से मुक्त किया जाएगा, जिसमें भारत और इंडोनेशिया शामिल हैं।
किसी को पुख़्ता तौर
पर पता नहीं है कि हमारे यहाँ मलेरिया से कितने मरीज़ पीड़ित हैं और कितनी मौतें होती
हैं। भारत का आँकड़ा कहता है कि 2015 में 300 लोग मलेरिया से मारे गए। जबकि ब्रिटन का हेल्थ जर्नल लांसेट
ये आँकड़ा 40,000 के पार बताता है!
हैदराबाद के फ्रीलांस
पत्रकार विवेकानंद नेमाना और उनके साथ लोगों के पैसे से चलने वाले WNYC रेडियो के लिए काम करने वाली पत्रकार अंकिता राव ने भारत में मलेरिया उन्मूलन
से संबंधित तमाम आँकड़ों का गहराई से अध्ययन कर बताया है कि 2014 में मलेरिया नियंत्रण के बजट का 90 फ़ीसदी हिस्सा प्रशासनिक
कार्यों में ही ख़र्च हो गया। दवाई, मच्छरदानी और छिड़काव के लिए 10 प्रतिशत ही बजट बचा! जबकि इस बीमारी से
भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल क़रीब 13,000 करोड़ रुपये का नुकसान
हो रहा है। आदिवासी इलाकों में मलेरिया का भयानक आतंक है।
इक्का-दुक्का जगहों
को छोड़कर बहुधा रूप से देखा जाए तो, हमारे यहाँ संबंधित महकमे अपने विभागों को
लिखते रहते हैं कि हमें इतने मलेरिया इंस्पेक्टर चाहिए या इतने पब्लिक हेल्थ इंस्पेक्टर
चाहिए। इन पदों को भरने के लिए पत्र भी भेजे जाते हैं, लेकिन भर्तियाँ नहीं होतीं। जब मलेरिया का आक्रमण होता है तब आपातकालीन ख़बरें
चमकने लगती हैं और आपातकालीन बैठकें होती हैं। उस वक्त कहा या लिखा जाता है कि एजेंसियाँ
हरकत में आ गई हैं। लेकिन आदमी है ही नहीं, तब एजेंसियाँ किस
तरह से हरकत में आती होगी ये भी सोचने का विषय है! जब कर्मचारी है ही नहीं, तब गलियों में फॉगिंग मशीनें लेकर कौन घूमेगा?
देखिए न, कई जगह तो विधायक या सांसद मशीनें लेकर फॉगिंग करते नजर आते हैं! मच्छरों के लिए नहीं बल्कि वोट के लिए। जब कर्मचारी हैं तो इन्हें ऐसा करने की
ज़रूरत क्यों आन पड़ी होगी? जब मशीनें हैं, कर्मचारी हैं तो आपातकाल तक राह क्यों देखी
गई होगी? फॉगिंग पहले क्यों नहीं की जाती होगी? क्या मशीनों के अंदर रही दवाई ही ऐसी होती
होगी जो तभी काम करती होगी कि जब उस प्रदेश में मच्छर संबंधित बीमारियाँ पनपकर आपातकाल
बन जाए?
वैसे मलेरिया जैसी
बीमारियाँ प्रदेशों में फैलने लगती हैं तब साथ में राजनीति भी फैलने लगती है! काश टीबी को लेकर इतनी राजनीति फैलती। लेकिन यदि आप ये सोचते हैं कि एकाध प्रदेश
में सब ठीकठाक है तो सभी जगह ठीक ही होगा, तब तो आप को ठीक से देखना या सोचना होगा।
45 से 50 हज़ार मतदाता वाले वार्ड में, जहाँ सैकड़ों गलियां
होती हैं, सैकड़ों घर होते हैं, मुश्किल से 4 या 5 फॉगिंग मशीनें होती हैं। 4-5 मशीनों के लिए मुश्किल
से 2-3 कर्मचारी मिलते हैं। चलने लायक कर्मचारी! एक-डेढ़ घंटे बाद मशीन का डीजल और दवाई ख़त्म हो जाती है। अब इतने कर्मचारी और इतने मशीनों के दम पर तक़रीबन 100 जगहों पर फॉगिंग करनी होती है।
एक जगह का मलेरिया
नियंत्रण ढाँचा देखिए। सबसे ऊपर डिप्टी हेल्थ अफ़सर होता है। उसके नीचे एंटी मलेरिया
अफ़सर होता है, जो इस वक्त कोई नहीं है। उसके नीचे सीनियर मलेरिया अफ़सर होता है, जो इस वक्त कोई नहीं है। उसके नीचे एक वार्ड के लिए 9 मलेरिया इंस्पेक्टर चाहिए, मगर एक ही है। उसके नीचे 40 एंटी मलेरिया इंस्पेक्टर
चाहिए, मगर 12 ही हैं। ये हाल राजधानी दिल्ली के तुर्कमान गेट वार्ड का है। जब विभागों में फ़ैसले
लागू करने वाले कर्मचारी ही नहीं होंगे, तब सारी माथापच्ची का मतलब क्या रहेगा? यहाँ ये भी देखे कि हमारे यहाँ कई तहसील की जनसंख्या ही 45 से 50 हज़ार होती है।
निचले स्तर पर दवाई
छिड़कने के लिए बेलदारों को लगाया जाता है, जबकि ये उनका काम नहीं है। कई इलाके तो ऐसे
हैं जो अब सरकारी विभागों से निराश होकर खुद की ही मशीनें खरीद रहे हैं! 10 लीटर डीजल वाली मशीन की क़ीमत 2016 के दौरान 55,000 से 60,000 थी। छोटी मशीन भी आती है, जो क़रीब 20,000 रुपयो में आ जाती
है। 4000 से 5000 वाली मशीनें भी मिल जाती हैं। पेट्रोल से चलने वाली मशीनें भी आती हैं। मशीनों
में लगने वाली दवा का दाम प्रति लीटर 600 से लेकर 1500 तक है। इलाकों के हर घर से कोई न कोई सदस्य बीमारी की चपेट में फँसता है तब लोग
विभागों से कितना इंतज़ार करेंगे?
लेकिन सवाल उठता है
कि तब टैक्स क्यों लगाया जाता होगा? जब कई इलाकों में लोगों को ही स्वयं ऐसा
करना पड़े, तब मलेरिया फंड से कौन से बैकुंठ का उत्थान किया जाता होगा? अब सोचिए कि जो लोग विभागों से निराश होकर अपने खर्चे से मशीनें लेकर फॉगिंग
करने निकल पड़ते हैं, वो क्या प्रशिक्षित हैं? और आख़िरकार, लोगों को कॉर्पोरेशन के काम खुद करने की
नौबत क्यों आन पड़ती है? सारे उत्तर किसी समस्या की तरफ़ ले जाते हैं।
वैसे हमारे यहाँ हर चीज़ के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी जाती है। यह जंग नारों के साथ शुरू
होती है और नारों से ख़त्म हो जाती है। समस्याएँ क्या हैं सभी को पता है, शायद उस समस्या का समाधान भी पता है, लेकिन नारों के साथ
खेलना हम सभी को ख़ूब मजेदार लगता है। वर्ना जंग तो हम हर समस्याओं के लिए छेड़ ही
चुके हैं। सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, गलियों से लेकर सड़कों तक हर समस्याओं के समाधान के लिए ख़ूबसूरत विज्ञापनों के
हथियारों से हम जंग शुरू करते हैं और फिर यह जंग कब ख़त्म होती है, किसीका ध्यान ही नहीं रहता। क्योंकि फिर किसी दूसरी चीज़ के लिए जंग जो छेड़नी
होती है।
(इनसाइड
इंडिया, एम वाला)
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