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Smart Cities in Rain : हमारे स्मार्ट सिटी... जहां 2 इंच बारिश से पूरा शहर रुक जाता है


वैसे हमारे नेता बड़े लाजवाब हैं। वे अपने भाषणों में कहते हैं कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है, और फिर योजनाएं स्मार्ट सिटी की लेकर आते हैं!!! इन स्मार्ट सिटी में ऐसे ऐसे ओवरब्रिज बनाए जाते हैं, जिससे लोगों को खिड़की खोलने में भी परेशानी हो जाए। ऐसे ऐसे रास्ते बनाए जाते हैं, जहां रास्ते बनने के बाद तय होता है कि रास्ते का डिजाइन ही गलत है! वाहनों को निकालने के लिए रास्ते बनाए जाते हैं, लेकिन पानी को निकालने के लिए नहीं! नतीजन, बारिश के मौसम में ये पानी वाहनों को ही रोक देता है। ग्राम्य इलाकों में जब भी बाढ़ आती है तब वहां बारिश से पानी बरसने का जत्था तथा हताहतों की तादाद का अवलोकन साफ दर्शाता है कि ग्राम्य इलाके ज्यादा स्मार्ट हैं। जबकि हमारे स्मार्ट सिटी में पानी को निकाल पाने में हम स्मार्ट नहीं दिखते।

एक खयाल यह भी रखे कि यहां 'स्मार्ट सिटी' को केवल उन सरकारी योजनाओं के अधीन इलाकों के रूप में ना ले, बल्कि वो शहर जो खुद को सदैव स्मार्ट ही समझते हैं उन्हें भी स्मार्ट सिटी मानते हुए चले।

वैसे हर मानसून में ग्राम्य और शहरी इलाके, दोनों में जल भराव की ख़बरें बहुत आती हैं। लेकिन फर्क यह होता है कि शहर 2 इंच बारिश में रुक जाते हैं। शायद इसलिए कि गांवों में पुरातन काल की जो व्यवस्थाएं हैं, चाहे वो प्राकृतिक हो या मानवीय, उसे मानवों ने बदला नहीं। जबकि नगरों या महानगरों को बदल कर रख दिया है। डिजिटल, एडवांस या फिर स्मार्ट बन रहे शहर के लिये कह दिया जाता है कि एक ही घंटे में या एक ही दिन में बारिश ज्यादा हो गई और इसी वजह से शहर रुक गया। लेकिन वो जितनी बारिश बताते हैं, उतनी मानसून में आम मात्रा होती है! सिटी तो स्मार्ट नहीं बने, लेकिन जवाबदेही या उत्तरदायित्व से दूर जाने के बहाने ज़रूर स्मार्ट बन चुके हैं!

वैसे भी हमारे यहां गर्मी में जंगल सुलगने लगते हैं और बारिश के मौसम में पुल पानी के साथ नदियों को मिलने चले जाते हैं। मुंबई, दिल्ली, गुड़गांव (गुरुग्राम), बेंगलुरु जैसे महानगरों के रास्तों पर वाहन रुक जाते हैं और पानी दौड़ने लगता है। अहमदाबाद जैसे नगरों में पानी रास्ता छोड़कर घरों में आगमन करने लगता है। हम इतने स्मार्ट हैं कि इसका उपाय डिजास्टर मैनेजमेंट (Disaster Management) के नाम से ढूंढ लिया है। फंसे लोगों को रस्सी से झूला कर कैसे बचाया जाए, शायद यही इसका एकमात्र उपाय होता होगा। जल निकासी की प्राकृतिक व्यवस्थाओं को बचाए रखना शायद इस स्मार्ट और डिजिटल जमाने में उससे भी मुश्किल माना जाता है!

जिस गुड़गांव या गुरुग्राम की, दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई जैसे शहरों की मानसून की खबरें देखने के लिए मिलती हैं, वे तमाम इस देश की आर्थिक व्यवस्था व आधुनिकता के प्रतीक हैं। लेकिन लगता है कि हम कही ओवर स्मार्ट तो नहीं बन गए न? गुड़गांव वाला जाम 2016 के दौर में एशिया का सबसे लंबा जाम ज़रूर बन गया। नाम बदलने से शहर को कितना फायदा पहुंचता है ये भी संशोधन करने का विषय है और पीएचडी वालों के लिए नया सब्जेक्ट!
जल निकासी की व्यवस्थाएं टूट गई हैं। अगर इससे भी साफ कहा जाए तो, ये व्यवस्थाएं हम सब ने मिलकर तोड़ दी हैं। वैसे छोटी गटर की जगह प्रगति और विकास के नाम पर बड़े बड़े नाले डाल दिए गए हैं। लेकिन मानसून में जल भराव के समय स्वयं सरकार ही यही नालों को तोड़ते हुए नजर आती है!!! भूगर्भ निकासी व्यवस्था जल भराव के वक्त ही ब्लॉक हो जाती है या खुद ही सड़कों पर पानी छोड़ने लगती है! हम इतने आधुनिक बन चुके हैं कि जल भराव की समस्याओं से जूझने के नाम पर फ्लड मैनेजमेंट (Flood Management) जैसे अंग्रेजी नाम से नया विभाग बना चुके हैं। इंतज़ार करते हैं कि जल भराव हो, और अंग्रेजी नामकरण वाले इस विभाग का इस्तेमाल हो। और फिर हम फ्लड मैनेजमेंट की तत्परता, तकनीक और खामियों को लेकर चर्चा भी करते हैं। किंतु, जल भराव और जल निकासी के मूल मुद्दे पर शायद ही हमने काम किया है। हम शहर के तालाबों को बंद करके, उनके ऊपर बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी कर देते हैं। नालों को रोक कर, वहां आलीशान चमक दमक वाली इमारतें खड़ी कर देते हैं। जल निकासी की प्राकृतिक व्यवस्थाओं को अव्यवस्थित करके उन्हें हम फिर से यांत्रिक रूप से व्यवस्थित कर लेने का दावा कर देते हैं।

जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा जैसे इलाके तकरीबन हर साल बाढ़ की समस्या से रूबरू होते रहते हैं। ये मान लेना गलत ही होगा कि इतने राज्यों के नाम लिये हैं, तो बाकी सारे राज्य बड़े आराम से मानसून का मजा लेते होंगे! महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश जैसे राज्य भी बाढ़ से अछूते नहीं हैं। हर जगह ऐसा या कभी कभी इससे भी बुरा मंजर देखने के लिए मिल जाता है। हम अपने स्मार्ट फोन के स्मार्ट कैमरों में चट्टाने खिसकने की तस्वीरें सजाते रहते हैं, बाढ़ में ठेली जा रही गाड़ियो की तस्वीरें घुमाते रहते हैं। हर साल एनडीआरएफ के लोग हेलीकॉप्टर से रस्सियां डालकर फंसे लोगों की जान बचाते हैं, और हम गौरवान्वित होते रहते हैं! नदियां अपने मूल रास्ते को छोड़कर नये रास्ते तलाशती हैं। नाले सड़कों पर दौड़ने लगते हैं। सड़कों पर दौड़ने वाली कारें पानी में तैरने लगती हैं। घरों के अंदर रहने वाले लोग छतों पर नजर आते हैं। कई जगह पर तो शवों के अंतिम संस्कार तक छतों पर करने पड़ते हैं। और हम बड़े आराम से स्मार्ट कम्प्यूटर सिस्टम से देश की चर्चा करते हैं। सरकारें भी बचाए गए लोगों के आंकड़े अपनी छाती फूलाकर दे देती हैं।

वैसे हम चर्चा करने से भी पीछे नहीं हटते। यहां हम से मेरा मतलब सरकार है। समितियां, प्रतिनिधि मंडल, अहवाल... आदि आदि इन सालाना वारदातों के पारंपरिक व प्रस्थापित उपाय है। बेचारे ग्लोबल वार्मिंग को जी भरके दोष दे दिया जाता है। क्लाइमेट चेंज, ग्रीन हाउस इफेक्ट इत्यादि बड़े लंबे-चौड़े अंग्रेजी नामों को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। लेकिन स्मार्ट फोन को लेकर बैठे लोग सचमुच उतने बददिमाग तो नहीं है कि वे पूरा खेल समझ ना पाए।

1952 में भारत का बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र 250 लाख हैक्टर था, जो 2011 के दौरान 498.15 लाख हैक्टर तक पहुंच चुका था। अब इसका तकनीकी मतलब बुद्धिजीवियों को तो समझ आ ही जाता है, लेकिन हम लोग आम नागरिक हैं, हमें तो इतना समझ आता है कि हर साल तमाम सरकारें जो दावे करती हैं उसमें वे विफल रही हैं और बाढ़ से बचने या बचाने के नाम पर जो पैसे खर्च किये जाते हैं वो बेफजूल का खर्चा ही रहा है।

सन 1976 में पहली बार देश में बाढ़नियंत्रण पंच बनाया गया था। इनका मकसद बाढ़ का वैज्ञानिक रूप से संचालन करना तथा बाढ़ से उत्पन्न हो रही समस्याओं का समाधान ढूंढना था। इन्होंने 1977 तथा 1979 में देश के कई हिस्सों का दौरा किया। वहां पर बाढ़ के आने के कारण व प्रकार, बाढ़ से नुकसान और तूफानों तक का विश्लेषण किया। 1980 में इस पंच ने अपना संशोधन संपन्न करके एक अहवाल तैयार किया। अहवाल में इन्होंने सरकार को 207 सूचन किये थे। इसके 10 साल बाद, यानी कि 1990 तक, सरकार ने 25 सूचनों पर काम किया था। या यूं कहे कि 25 सूचनों को स्वीकृति दी थी। अगर उनके सूचनों को स्वीकार करना ही नहीं था, तब वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर उन्हें 4 साल तक संशोधन करते रहने देने के पीछे मंशा क्या थी? वैसे जो सूचन स्वीकृत किये गए थे, उनमें से कितने सूचन जमीनी स्तर पर कार्यान्वित हुए उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।
2017 में देश के कई राज्यों में जारी बाढ़ के कहर से निपटने के लिए केंद्र सरकार 87 बिलियन डॉलर की लागत से नदियों को आपस में जोड़ने का प्रोजेक्ट शुरू करने जा रही थी। इस योजना का मकसद देश को सूखे और बाढ़ से मुक्ति दिलाना था। वैसे इसी साल कैग का एक रिपोर्ट पेश हुआ था, जिसमें बताया गया था कि देश की जीडीपी में 27 फीसदी की हिस्सेदारी वाले महत्वपू्र्ण राज्य ही अकसर बाढ़ के चलते बेहाल दिखते हैं! कैग ने लिखा कि इसके पीछे वजह यह है कि ये तमाम राज्य बाढ़ के समय अच्छा व्यवस्थापन नहीं कर पाते तथा पैसों का सही जगह सही समय पर इस्तेमाल नहीं किया जाता। कैग ने अपने रिपोर्ट में लिखा कि सालाना बाढ़ के संकट से रूबरू होने वाले इन राज्यों में इस विषय से संबंधित कई योजनाएं अधूरी थी, कई योजनाओं में तो फंड का इस्तेमाल तक नहीं किया गया था! बताइए, जो कमी या कमजोरी या ढिलापन रहा उसे दुरुस्त करने के बजाय या उस पर खुलकर चर्चा करने के बजाय हमारे यहां नई योजनाएं लाने का ट्रेंड कुछ ज्यादा ही है।

ये मत समझे कि देश में यही इक्का-दुक्का प्रयास किये गए होंगे। जिस पंच का ज़िक्र किया है वो देश के सबसे बड़े प्रयासों में से एक था। नदियों को जोड़ने की योजना बाढ़ से मुक्ति के साथ साथ बिजली के उत्पादन की परियोजना भी थी। 21 जुलाई 2017 को कैग ने संसद में एक रिपोर्ट रखी थी। उस रिपोर्ट में 2007 से लेकर 2016 के बीच भारत के 17 राज्यों में बाढ़ नियंत्रण की क्या तैयारी है उसकी समीक्षा की गई थी। आपको हैरानी होगी कि अगस्त 2016 तक देश के 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में फ्लड फोरकास्टिंग सिस्टम (Flood Forecasting System) ही नहीं लगा था, जबकि तय हुआ था कि 100 लगाएंगे!!! कई जगहों पर टेलीमेट्री स्टेशन बनना था, जिससे तुरंत का तुरंत डाटा मिल जाए। एक तो बना नहीं और जहां बना वहां उपकरण वगैरह चोरी या खराब हो गए! भारत में 4,862 बांध हैं, मगर 90 फीसदी के पास आपातकालीन योजना नहीं है!!!

केंद्र ने तथा राज्यों ने अपने अपने स्तर पर बाढ़ के संदर्भ में कई सारे प्रयास किये हैं, कई सारी योजनाएं लाए, कई तैयारियां की और कई दावे भी किए। लेकिन जिन बांधों को बाढ़ से बचाने के नाम पर बांधा गया, वही बांध बाढ़ लेकर आए, ऐसे भी वाक़ये मिलते हैं!!! लेकिन मूलत: जल निकासी को शायद उतनी गंभीरता से कभी नहीं लिया गया। नदियों के किनारों पर कई सारे कंस्ट्रक्शन होते रहे, नदियों से अवैध तरीके से खनन होता रहा, जंगल कटते रहे, जंगल कटने के बाद सरकारें पौधे लगाती रही और आंकड़ों में देखती रही कि कितने पौधे पेड़ बने और कितने बाल्य अवस्था में ही नष्ट हुए! नालों को बनाया जाता रहा और मानसून के समय तोड़ा जाता रहा, भूगर्भ योजनाएं मानसून के समय खुद ही सड़कों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाती रही! सालाना हर शहरों में, चाहे वो शहर स्मार्ट हो या ना हो, लेकिन स्मार्ट पालिकाएं या कॉर्पोरेशन, मानसून से पहले प्रि-मानसून प्लान की पर्ते उधेड़ते रहे। और मानसून के वक्त बारिश लोगों को उधेड़ती रही। प्राकृतिक जल निकासी की व्यवस्थाओं को बचाए रखना शायद इस स्मार्ट और डिजिटल जमाने में उससे भी मुश्किल माना जाता है! कुदरत अपने तरीके से जवाब देती होगी, लेकिन उससे सवाल तो पूछा नहीं जा सकता। कहा जा सकता है कि इन आपदाओं से बचने के लिए हमने इन्हें प्राकृतिक आपदाएं नाम दिया है, जिसे एक्ट ऑफ गोड (Act of God) नाम के छाते के नीचे छिपा दिया जाता है।

लगता है कि हम सबों ने मिलकर जानबूझकर आपातकालीन स्थितियों को निर्मित करने में अपना पूरा सह्योग दिया हो! कुछ सालों पहले जहां पूरा तालाब होता है, फिर वहां बहुमंजिला इमारतें खड़ी होती हैं! यमुना किनारे पर्यावरण संबंधीय कार्यक्रम होता है और उसी कार्यक्रम से यमुना का किनारा इतना प्रभावित हो जाता है कि ठीक करने में दस साल लग जाते हैं!!! हम इससे आहत नहीं होते, बल्कि गौरवान्वित होते हैं! यही जताकर कि हमने तकनीक की दुनिया में हिरण से ज्यादा लंबा जंप लगाया है या चिते से ज्यादा तेजी दिखाई है। वैसे ये लोमड़ी से ज्यादा चालाकियां ज़रूर कही जा सकती है!

हमारे यहां जैसे दोषारोपण एक आम पारंपरिक हथियार है, वैसे ही यहां भी होता है। शुरुआत ही 'प्राकृतिक आपदा' लफ्ज़ से की जाती है, एक्ट ऑफ गोड, जबकि ज्यादातर तो आपदाएं मैन मेड ही होती है!!! एक ऐसा संकट, जिसे कुदरत ने नहीं, इंसानों ने बुलाया होता है! अब प्राकृतिक आपदा लफ्ज़ के फायदे ही इतने सारे हैं कि पहले तो यह किसी सरकारी विभाग या निजी योजना को अभय वचन ही दे देता है! प्राकृतिक आपदा से ही कइयों को क्लिन चीट मिल जाती है! खुद नागरिकों को भी और प्रशासन को भी! बस कुदरत की भूमिका होती है, अन्यों की भूमिकाएं टेबल के नीचे छिप जाती हैं! अब जहां जंगलों में आग, चट्टानों का खिसकना, पहाड़ों का गिरना, नहरों का टूटकर खेतों में बह जाना से लेकर बर्फ तक का पिघलना आम बात है... तब बारिश से कुछ दिनों तक शहरों का रुक जाना बड़ी बात माना भी कैसे जाए!
कुछ घंटों का जाम, कुछ दिनों की दिक्कतें, कुछ बच्चों की तथा कुछ नागरिकों की जिंदगी खत्म हो जाना, कुछ हजार-लाख करोड़ का घाटा, आपदा खत्म होने के बाद लोगों के ही पैसों से फिर से नयी आपदा के लिए नये सिरे से तैयारी करना ये भले शौकिया आदतें ना हो, लेकिन मजबूरन आदतें ज़रूर हैं। और आदतें तो आदतें होती हैं, हम तो पानी जमा हो जाए तो मछलियां पकड़ कर भी टाइम पास कर लेते हैं! हर हाल में खुश रहने की हमारी आदतों को फिर कोई संयुक्त राष्ट्र संघ सराहेगा या कोई नेता प्रदेश के जज्बे को मंच से अलंकृत करेगा।

हमारा शरीर और हमारे वाहन, दोनों जवाब देते रहते हैं। लेकिन धीरज नाम का ये प्रभावशाली तत्व इतना लाजवाब है कि जवाब देने के बाद भी सवाल को तैयार नहीं होता! सालों तक शरीर और दिमाग दोनों घिसने के बाद घर में आया वाहन इन दिनों अपना इंजन त्याग दे उसका अफसोस भी नहीं हो सकता, जब खुद इंसान हर साल ऐसे हादसों में अपना प्राण त्यागता आया हो। एंबुलेंस फंस जाए तो सेवाभावी लोग धक्कें मारकर निकाल लेते हैं। किसी कारणवस सेवा प्रदान ना कर पाए तो एंबुलेंस में फंसे लोगों की आत्मा को शांति मिले इसकी हजारों प्रार्थनाएं ज़रूर हो जाया करती हैं!

फिर बचाव दल आता है, बचाव दल का जी-जान लगाना, पीड़ितों का जज्बा, सूर्खियां बन जाता है। सब खत्म होने के बाद सवाल उठते हैं। लेकिन प्राकृतिक आपदा लफ्ज़ के फायदे आगे ही हमने देख लिए। सवाल खत्म होते हैं। जवाब नहीं मिलता लेकिन आश्वासन, घोषणाएं, वायदें या ऐसा कुछ मिलता है, जो अगले साल फिर एक बार जज्बे और जी-जान वाली कोशिशों में दब जाता है।

अनधिकृत कॉलोनियां और झुग्गियों को पेश करने की अपनी राजनीति है। वैध और अवैध वाली प्रक्रिया सालभर चलती रहती है। अतिक्रमण एक सच्चाई है, लेकिन बाहुबली या पहुंचे हुए लोगों का अतिक्रमण और औसतन लोगों का अतिक्रमण तथा आम लोगों का अतिक्रमण, इन सबको देखने के चश्मे अलग अलग हैं!!! अतिक्रमण होता है, लेकिन कौन करता है, कैसे करता है, कहां करता है, इसका फायदा कौन उठाता है, क्यों रुकता नहीं है, कैसे रोका जाता है... इन सबमें आखिर तो लंबे-चौड़े नियमों के जरिये किसने नियमों को तोड़ा है या किसने नियमों को नहीं तोड़ा है, आदि में अतिक्रमण वाली समस्या को उलझा दिया जाता है। ऐसे में जल भराव वाला मौसम आ गया होता है या बाढ़ आ जाती है... और फिर सारी चीजें पानी में बहकर नालों में चली जाती हैं और बचाव अभियान, झकझोरने वाली कहानियां, जिंदा रहने का जज्बा, दर्दनाक मौत आदि कहानियां एक छाते का रूप धारण कर लेती है, जिस छाते के नीचे कइयों का रक्षण हो जाया करता है!

निगमों, नगरपालिकाओं या कॉर्पोरेशन की कार्यशैली की चर्चा होती है, बहुत होती है... किंतु अफसोस कि स्थानिक स्तर तक ही होती है। लोगों में होती है, मोहल्लों में होती है, नुक्कड़ों पर होती है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती। स्टाफ, स्टाफ में किसका काम क्या होता है, स्टाफ की कमी, स्टाफ की योग्यता, कौन सी योजनाएं आई हैं, कितना खर्च होगा, कहां पर होगा, कैसे होगा, कितना हुआ, कितना नहीं हुआ, क्यों नहीं हुआ, किसने टांग अड़ाई, किसने अर्जी दी, किसने घपला किया, किसने अपने पहचान वालों को काम दिलाया, वो काम कितना कमजोर है या कितना अच्छा है, नियम क्या हैं, कितने संसाधन आए, कितनों का इस्तेमाल हुआ से लेकर हर वो चीज़ लोगों के बीच ज़रूर होती है, लेकिन उसका अपना एक दायरा होता है। उस दायरे से वो सारी चीजें बाहर ही नहीं जाती!
गाँव, नगर, शहर, बड़े शहर आदि की सभी के पास अपनी अपनी योजनाएं हैं, लेकिन सारी योजनाएं बरसात के मौसम में धरी की धरी रह जाती हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात तो यह है कि राजनीति आपको तथा कथित बुद्धिजीवियों को यकीन दिला ही देती है कि ऐसा नहीं है कि नगरों या शहरों को लेकर कुछ नहीं हो रहा। बहुत कुछ हो रहा है, ढेरो योजनाएं हैं, ढेरो प्रयास हैं, समितियां हैं, विदेश के विशेषज्ञों के अनुभव की सहायता से ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है... आप कह ही नहीं सकते कि कुछ नहीं हो रहा! लेकिन फिर भी.... हर साल की कहानियां बदलती नहीं! नदियां सूख गई है या मिट्टी की पर्ते डालकर या अतिक्रमण की खुफिया प्रक्रियाओं के चलते सिकुड़ गई है पता नहीं चलता, लेकिन तालाब, नाले आदि के ऊपर आलीशान भवन या निर्माण खड़े हो चुके होते हैं।

बरसात खत्म होने के बाद बारिश और उसके चलते जो दिक्कतें हुई उससे इतने लोग मरे, इतने प्रभावित हुए वगैरह के आंकड़ों की बरसात होती है। गाँव यहां भी पिछड़ जाते हैं, क्योंकि अक्सर शहरों की सड़कों पर बाढ़ के चलते आलीशान कार का रुकना ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाता है, वहीं सैकड़ों गाँव दिनों तक जो दिक्कतें झेलते हैं, सड़कें टूट गई होती हैं, बीमार परिजनों को शहर की अस्पतालों तक पहुंचाने की कड़ी टूट गई होती है, कोई खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं बनती। हमारे यहां आजकल सरकारें मौत की खबर सुनकर मुआवज़े का एलान ऐसे कर देती हैं जैसे वो कोई बीमा कंपनी हो और उसका काम इस एलान के बाद समाप्त हो जाता हो!!!

आखिरी कहानी तो यही रहती है कि छतों पर लोगों के फोटो, शहर की सड़कों पर नांव में लोग, बचाव दल की जीतोड़ कोशिशें। फिर भी खुशी का सूचकांक भारत को आगे बढ़ाता है! क्योंकि हम इतनी दिक्कतों में भी पानी के साथ आ रहे सांप-बिच्छू से खेल जाते हैं और मछली भी पकड़ने लगते हैं! क्योंकि हम यह भी समझते हैं कि ये सारे जीव-जंतु यही कहते हैं कि आप लोगों ने हमारी जमीन पर कब्जा किये रखा है, फिर हम आपके पाव पर लिपटने तो आएंगे ही न!  

इतनी सारी दिक्कतों की अपनी वजहें हैं। तकनीकी, सामाजिक, राजनीतिक से लेकर हर वो दृष्टिकोण समन्वित होता होगा। इसके समाधान भी हैं। समाधान सभी को पता है लेकिन फिर भी समाधान नहीं हो पाता!!! और समाधान हो नहीं पाता इसके पीछे भी वो सारी वजहें हैं जो समस्याओं के पीछे हैं!!! योजनाओं के बनते वक्त, योजनाओं के नामकरण करते वक्त, योजनाओं को लोगों के सामने पेश करते वक्त माहौल तो ऐसा होता है कि अब सारी समस्याओं से छुटकारा मिल चुका है। लेकिन योजनाएँ अक्सर बरसात के दौरान सड़कों पर पानी के साथ बह जाती हैं! लेकिन जैसे पहले कहा वैसे, गांव और शहर का फर्क आज भी यही है कि स्मार्ट बनने के चक्करों में, या यूं कहे कि चक्रव्यूह में, शहर इतने ओवर स्मार्ट हो चुके हैं कि महज 2 इंच बारिश में ही पूरा शहर रुक जाता है। सारी डिजिटलपंति धरी की धरी रह जाती है। इतने सारे एप या सॉफ्टवेयर होने के बावजूद कोई एप इन परिस्थितियों को रोक नहीं पाया। क्योंकि समस्याओं के बाद बड़ी समस्या समाधान नहीं हो पाने की समस्या है! शहरों में वाॅटरप्रुफ इमारतें या छते हैं, लेकिन वाॅटरयुक्त शहर से फिलहाल तो निजात मिलती नहीं दिख रही।
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)