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Gujarat Election History : गुजरात के विधानसभा चुनावों का इतिहास और आंकड़े




गुजरात विधानसभा चुनावों में आंकड़ों का इतिहास
वर्ष    सबसे ज्यादा सीटें           कुल सीटें     
1960  कांग्रेस, 112               132        
1962  कांग्रेस, 113               154        
1967  कांग्रेस, 93                168
1972  कांग्रेस, 140               168
1975  कांग्रेस, 75                182
1980  कांग्रेस (आई), 141          182
1985  कांग्रेस (आई), 149         182
1990  जनतादल 70 + भाजपा 67  182
1995  भाजपा, 121               182
1998  भाजपा, 117               182
2002  भाजपा, 127               181
2007  भाजपा, 117               182
2012  भाजपा, 115               182

गुजरात विधानसभा चुनाव का संक्षिप्त इतिहास
गुजरात के राजनीतिक इतिहास को देखें तो जनता ने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों को भरपूर मौका दिया है। वैसे कांग्रेस यहां कई अरसे से राजनीतिक संन्यास भुगत रही है यह ज़रूर कहा जा सकता है। 1960 से लेकर 1985 के दौरान गुजरात में जनता की पसंद कांग्रेस रही थी, जबकि 1990 से लेकर 2017 तक बीजेपी ने गुजरात की कमान संभाली है। गुजरात में पहली बार 1960 में विधानसभा का चुनाव हुआ था। यह चुनाव 132 सीटों के लिए कराया गया था। चुनाव नतीजों के बाद 112 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा रहा।

इसके बाद 1962 में दूसरी विधानसभा के लिए 154 सीटों पर चुनाव कराया गया। इस चुनाव में कांग्रेस को 113 सीटें मिली। स्वतंत्र पार्टी को 26 और प्रजा समाजवादी पार्टी को 7 सीटें मिली थी। तीसरी विधानसभा के लिए 1967 में मतदान कराया गया और इस चुनाव में सीटों को 154 से बढ़ाकर 168 कर दिया गया। भले सीटों में बदलाव किया गया था, लेकिन जनता ने कांग्रेस पार्टी को हैट्रिक जीत दी। कांग्रेस ने 93 सीटों के साथ दबदबा कायम रखा। 1972 में चौथी विधानसभा के लिए चुनाव कराए गए और इस बार भी कांग्रेस जनता के दिल में जगह बनाने में कामयाब रही और लगातार चौथी बार जीत हासिल की। जीत के रूप में कांग्रेस को 140 सीटें मिली थी। 1975 में पांचवीं विधानसभा के लिए मध्यावधि चुनाव कराया गया और सीटों की संख्या 182 कर दी गई थी, जिसमें कांग्रेस को 75 सीटें मिली।

सबसे ज्यादा सीटें जीतने का रिकॉर्ड कांग्रेस के नाम, भाजपा-जनतादल गठबंधन ने छुआ है 137 का आंकड़ा
गुजरात के चुनावी इतिहास में 1985 के चुनाव में माधवसिंह सोलंकी के दम पर कांग्रेस ने 149 सीटें जीती थी। इससे ज्यादा सीटें अब तक कोई जीत नहीं पाया है। 1990 के चुनाव में भाजपा और जनतादल एक होकर चुनाव में उतरे थे। उस चुनाव में भाजपा को 67 तथा जनतादल को 70 सीटें मिली थी। दोनों को मिला दे तो इस गठबंधन ने 137 सीटें जीती थी। भाजपा ने 2002 में 127 सीटें जीती, जो उसका अब तक का सबसे बड़ा स्कोर है।

जनतादल ने महंगाई के मुद्दे पर, भाजपा ने दंगे के बाद मैदान जीता था
आपातकाल के पश्चात देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना। इस राजनीतिक परिस्थिति का फायदा उठाने हेतु एकदूसरे से भिन्न विचारधारा लेकर चलने वाले राजनीतिक दल एक होने लगे। स्वतंत्रता के बाद पहली दफा केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार सत्ता में आई। 1975 में चीमनभाई पटेल ने होस्टेल फूड बिल को महंगाई का मुद्दा बनाया। चीमनभाई का नवनिर्माण आंदोलन कांग्रेस के खिलाफ था, जिसके चलते उनका गठबंधन भाजपा के साथ हुआ। गुजरात में 1990 के दौरान भाजपा और जनतादल ने गठबंधन किया। इस गठबंधन को 182 में से 137 सीटें मिली थी। हालांकि यह गठबंधन ज्यादा चल नहीं पाया। चीमनभाई अपनी पूरी पार्टी समेत कांग्रेस में चले गए। इसके 12 साल बाद 2002 में गोधरा दंगे के बाद भाजपा ने 127 सीटें जीती।

1985-90, पांच साल और भाजपा को फायदा पहुंचाने वाले कुछेक फैक्टर
हमने पहले देखा वैसे आपातकाल के पश्चात देश में कांग्रेस विरोधी माहौल बना। केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार बनी। आपातकाल के बाद कई चौंकानेवाले गठबंधन हुए भी और वक्त रहते इन गठबंधनों ने और ज्यादा चौंकाया भी था, यानी कि वे टूटे भी थे। आरएसएस की पॉलिटिकल विंग जनसंघ से 1980 में भाजपा का उदय हुआ। भाजपा ने शुरू से ही हिंदुत्व का मुद्दा थामा था। किंतु 1990 तक इस मुद्दे ने जनमानस पर गहरी छाप नहीं छोड़ी थी। इससे पहले 1985 में आरक्षण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले पाटीदार पटेल समुदाय ने भाजपा का साथ दिया। 1990 के बाद हिंदुत्व का मुद्दा ज्यादा प्रभावी बना, जिसका इतिहास सर्वविदित है।

1985 से 1990 के बीच के दौर की बात करे तो, सन 1985 के दौरान आरक्षण विरोधी आंदोलन के चलते पाटीदार समुदाय गुजरात की राजनीति में मजबूत बनकर उभरा। कांग्रेस विरोधी सर्वण समुदाय को भाजपा अपनी और खींचने में सफल हुई। 1985 के चुनाव के नतीजे (जो ऊपर पहले ही देखे) के बाद माधवसिंह सोलंकी गुजरात के सीएम बने। उसके बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन उठ खड़ा हुआ। सांप्रदायिक हिंसा भी हुई। इसका फायदा भाजपा को पहुंचा। 1987 में कथित रूप से राजनीतिक बैसाखी के सहारे लतीफ ने अहमदाबाद में पांच बैठकें जीत ली। गैंगवाॅर के चलते गुजरात में कानून-व्यवस्था पर सवाल उठने शुरू हुए। भाजपा ने अपने तरीके से इस परिस्थिति का राजनीतिक फायदा उठाया। उधर सौराष्ट्र में 1987 तथा 1989 में दो बड़ी हत्याएँ हुई। स्वास्थ्य मंत्री पोपटलाल सोरठिया तथा वल्लभ पटेल की हत्याओं ने पाटीदारों को भाजपा की ओर ज्यादा खींच लिया था। 1990 के बाद हिंदुत्व के मुद्दे ने भाजपा को राज्य से लेकर केंद्र तक में कांग्रेस का विकल्प बना दिया।

3 दशक से राजनीतिक संन्साय भुगतने को मजबूर है कांग्रेस
गुजरात में लगातार 7 विधानसभा चुनावों में सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाली कांग्रेस पिछले करीब 3 दशकों से यहां राजनीतिक संन्यास भुगतने के लिए मजबूर है। आंकड़े तो यहां तक बताते हैं कि कांग्रेस का वोट शेयर उतना कम भी नहीं है, बावजूद इसके सीटों के आंकड़ों के मायाजाल में कांग्रेस पिछले 6 विधानसभा चुनावों में यहां पिछड़ ही गई।

1990 के चुनावों में पहली बार कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा 50 के नीचे जा पहुंचा। इस साल कांग्रेस 33 पर सिमट कर रह गई थी। 1995 में 45, 1998 में 53, 2002 में 50 तथा 2007 में 59... कांग्रेस के लिए 1985 तक हालात जितने सुनहरे थे, 1985 के बाद के हालात उतने ही बुरे रहे। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि इस बुरे दौर में कांग्रेस का वोट शेयर उतना नहीं गिरा, किंतु सीटों के मामले में कांग्रेस का प्रदर्शन बदतर ही रहा।

32 सालों बाद बड़े पैमाने पर जातिगत चुनाव है इस बार?
एक कॉमन सी बात है कि भारत में चुनाव अमूमन जातिगत ही होते हैं। कम से कम वोटिंग तो जातिगत समीकरणों को ज्यादा छू जाता है। प्रचार या प्रसार की बात और है। जातिगत समीकरणों को देखना, उसे बिठाना और अपने पलड़े में लाना, भारतीय राजनीति की यही आम तस्वीर है। लेकिन जब प्रचार-प्रसार की बात हो या फिर प्रचार-प्रसार के दौरान जो सार्वजनिक जमीनी माहौल है उसकी बात हो तब अन्य मुद्दे, नीतियां, स्थानिक स्तर की समस्याएँ समेत कई सारी चीजें दिख जाती हैं। लेकिन 32 सालों बाद गुजरात में इस दफा ज्ञाति आधारित पहलू खुलकर दिख रहे हो ऐसा माहौल है।

1985 में कांग्रेस नेता माधवसिंह सोलंकी ने क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम को साधकर 149 सीटें जीती थी। तब यह सोची-समझी रणनीति थी। लेकिन इस बार के चुनाव जातीय आंदोलनों के कारण खुद ही जातिगत हो गए हैं। पिछले दो सालों में 3 बड़े आंदोलन राज्य में हुए। इन आंदोलनों से हुए नुकसान को कम करने के लिए केंद्र और गुजरात की भाजपा सरकार ने हिमाचल चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद से गुजरात में घोषणाओं की झड़ी लगा दी। इसमें पाटीदार आंदोलनकारियों के 400 से अधिक केस वापस लेने का निर्णय, सफाईकर्मियों की अनुकंपा नियुक्ति, एसटी कर्मचारियों को लंबित एचआरए भुगतान के फैसले सहित करीब 35 घोषणाएँ शामिल हैं। एक बड़ी घोषणा किसानों को तीन लाख तक ऋण ब्याज मुक्त देने की है। अधिकांश किसान ओबीसी, आदिवासी और पाटीदार हैं।

इधर कांग्रेस भी जातिगत आंदोलनों को पीछे से समर्थन देकर इनका साथ जुटाने के प्रयास में है। ओबीसी आंदोलन के बड़े नेता अल्पेश ठाकोर तो कांग्रेस में शामिल भी हो चुके हैं। पटेल आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल भले ही अभी कांग्रेस के साथ नहीं हैं लेकिन वे अपने भाषणों में भाजपा को सबक सिखाने की अपील करते रहे हैं। अहमदाबाद में राहुल गांधी के साथ मुलाकात के उनके सीसीटीवी फुटेज भी चर्चा में रहे। कांग्रेस की पाटीदारों को साथ लाने की कोशिश इससे भी समझी जा सकती है कि पार्टी के बड़े पाटीदार नेता और हाईकोर्ट के वकील बाबूभाई मांगूकिया ने पाटीदार आंदोलन के कई नेताओं के केस भी लड़े हैं। कुल मिलाकर यहां बिल्कुल वैसा ही जाति आधारित चुनाव हो रहा है, जैसा हमेेशा उत्तर प्रदेश में होता है। नवम्बर की शुरुआत में कारडीया राजपूत समाज का भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ किसी मुद्दे को लेकर विरोध गांव-गांव पहुंचा है। बताया जाता है कि कई राजपूत बहुल गांवों में भाजपाई नेता या कार्यकर्ताओं के लिए प्रवेश करने के लिए इनकार करते हुए पोस्टर लगाए जा चुके हैं।

गुजरात विधानसभा के 182 सदस्य है। इनमें से 68 सीटों पर कोली-ठाकोर समाज के मतदाताओं का प्रभुत्व है। इनमें भी 44 सीटों पर कोली समाज का प्रभुत्व है। 24 पर ठाकोर समाज का दबदबा है। समूचे गुजरात में 52 सीटें हैं जहां पाटीदारों का दबदबा है। कड़वा और लेउआ, दोनों में ज्यादातर तबका भाजपा के साथ रहा है।

ज्ञाति आधारित मुद्दे या मांगें सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए प्राथमिकताएँ बन चुके हैं। विकास, नीतियां, योजनाएं, पिछली योजनाओं का हिसाब... ये सब भाषणों में आ ज़रूर रहा है, लेकिन भाषणों से लेकर सड़कों पर दूसरी चीजें ज्यादा छा रही हैं।

भाजपा को मेहनत ज्यादा करनी पड़ रही है, कांग्रेस लड्डू खाने को बेकरार है
2003 से ही नरेंद्र मोदी ने वायब्रंट गुजरात की शुरुआत कर कट्‌टर हिंदुत्ववादी छवि के बजाय खुद का विकास पुरुष के रूप में मेकओवर शुरू कर दिया था। लेकिन इस बार गुजरात चुनाव में यह करीब दो दशक में पहला मौका है जब भाजपा को विकास पर भी सफाई देनी पड़ रही है। यह सब उसके बाद और बढ़ गया जब- विकास पागल हो गया है, जैसे जुमले तेजी से गुजरात में लोगों की जुबान पर चढ़ते दिखाई दिए।

वहीं दूसरी ओर कांग्रेस यहां पहली बार सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर भी जा रही है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब तक गुजरात दौरों के दौरान लगातार मंदिर जा रहे हैं। सौराष्ट्र के द्वारिका मंदिर से दौरा शुरू करने वाले राहुल अब तक पांच प्रमुख मंदिर जा चुके हैं। स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रतिनिधियों के पैर भी राहुल गांधी छू रहे हैं। कई राज्यों की तरह यहां भी सत्ता की सीढ़ियां धर्म के वाड़ों से गुजरती दिखाई देती है। दूसरी ओर कांग्रेस में इस बार प्रदेश के सबसे बड़े मुस्लिम नेता अहमद पटेल भी अहम भूमिका में नहीं दिखाई दे रहे। अंदरुनी कार्रवाई में उनकी भूमिका जो भी हो, लेकिन सार्वजनिक स्तर पर उनकी मौजूदगी नहीं है। कांग्रेस मुस्लिम मतदाताओं का ज़िक्र करने से बचती नजर आ रही है।

एक बात साफ है कि भाजपा को इस बार अपने किले में ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। शायद बड़ी वजह नरेन्द्र मोदी की गैरमौजूदगी भी हो सकती है। वैसे यह भी साफ है कि नरेन्द्र मोदी ही वह शख्सियत है जिनके दम पर गुजरात भाजपा अपनी नांव किनारे पहुंचा सकती है। इंतज़ार है कि वो कब कूदते हैं। कुछ विश्लेषक एक चीज़ यह भी कहते हैं कि भाजपा के लगभग दो दशक से लगातार शासन में होने के चलते गुजरात में एक समूची नई पीढ़ी जन्म कर युवा हो गई है और इस पीढ़ी को पता ही नहीं है कि गुजरात में कांग्रेस का शासन कैसा था। इस स्थिति में भाजपा अब कांग्रेस शासन की विफलताएँ गिनवाए तो यह बात लोगों को अपील नहीं करती है।

ज्ञाति आधारित समस्याएँ, केंद्रीय नीतियों के पहलू समेत सारी चीजें भाजपा को जमकर मेहनत करवाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। उधर कांग्रेस हाथ में आये मौके को छोड़ना नहीं चाहती। बीमारी के चलते सोनिया गांधी उपस्थित नहीं है, किंतु राहुल गांधी पूरे दमखम के साथ उतरे हुए हैं। मनमोहन सिंह का चेहरा भी यहां देखने के लिए मिल रहा है। नरेन्द्र मोदी का पूरी तरह उतरना अभी बाकी है।

बावजूद इसके संभावनाएँ बहुत हद तक यह भी है कि कमल फिर एक बार यहां खिले और पंजा देखता रह जाए। इसके पीछे भाजपा से ज्यादा कांग्रेस जिम्मेदार होगी ऐसा कहा जा सकता है। सालों बाद कांग्रेस के पास मौका है, किंतु कम ही संभावना है कि कांग्रेस इस मौके को भुना पाए।

अजब सा मौका कांग्रेस के पास, मेहनती भाजपा का गजब का इतिहास, दूसरों के स्टंप बिखर गए
इस दफा अजब गजब सा मौका कांग्रेस के पलड़े में आ गया है। अजब गजब सा इसलिए, क्योंकि नरेन्द्र मोदी जब से गुजरात से बाहर निकलकर केंद्र की राजनीति में आए, कांग्रेस के लिए समूचे देश में अपनी जमीन बचाना टेढ़ी खीर हो गया है। 2014 के लोकसभा चुनावों में अब तक का अपना सबसे खराब प्रदर्शन करनेवाली कांग्रेस एक के बाद एक राज्य अपने हाथ से गंवाती रही। कहीं सरकार बनाने का मौका मिला तो राहुल-सोनिया के सामने मोदी-शाह की जोड़ी ने तत्काल बाजी मार ली थी। कम से कम 2017 के मध्य तक एक धारणा जन्म ले चुकी थी कि कांग्रेस विपक्ष के रूप में आलसी पार्टी है।

लेकिन आर्थिक और अन्य हालात ऐसे बने कि कांग्रेस के पास केंद्रीय स्तर पर विरोध का सुनहरा मौका हाथ में आया। वैसे इस मौके का कांग्रेस ने फायदा उठाया हो ऐसा कभी लगा नहीं। इसी उथल पुथल के दौर में गुजरात में कुछ चैप्टर ऐसे भी हुए, जिसने कांग्रेस को लड्डू दे दिया। कुछ कहते हैं कि ये सब कांग्रेस का किया-धरा था। कहने-सुनने को बहुत कुछ है, लेकिन उसे फिलहाल साइड में रख देते हैं। अजब मौका आन पड़ा था कांग्रेस के हाथों में। इसलिए भी, क्योंकि आर्थिक नीतियों से लेकर दूसरे मुद्दे, जिनके आधार पर मोदी सरकार धिरी हुई थी, सारे मुद्दे जैसे कि साइडलाइन हो गए। ज्ञाति आधारित राजनीति जमकर उभरी। पाटीदार, दलित और आखिर में राजपूत समाज ने अपने अपने मुद्दों के लिए भाजपा नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। प्रचार-प्रसार में भी यही मुद्दे चमकते रहेंगे ऐसी उम्मीद है। 

यहां स्थानिक स्तर के चुनावों में कांग्रेस ने बाजी मार संजीवनी प्राप्त की हुई है। अहमद पटेल की जीत वाला चैप्टर भी कांग्रेस को टॉनिक दे गया। आंदोलन, ज्ञाति आधारित विरोध के हालात समेत अन्य चीजें भी कांग्रेस के लिए मौका है। किंतु माना तो यह भी जाता है कि कांग्रेस के पास सुनहरा मौका इतना है कि वो अपनी सीटों का आंकड़ा बढ़ा ले या फिर भाजपा के 150 वाले कथित मिशन को रोककर अपनी छाती फूलाने का आश्वासन प्राप्त कर ले। वैसे भी हमारे यहां तमाम चुनावों में जाति आधारित समीकरण सदैव हावि रहते हैं। लेकिन इससे आगे भी कुछ और समीकरण होते हैं, जिसे बिठाने में कोई और जोड़ी माहिर मानी जाती है। कांग्रेस के पास सुनहरा मौका होते हुए भी दिक्कत अपने ढांचे, चेहरे तथा संगठन की है। प्रचार-प्रसार, तैयारियां, समीकरण जोड़ना या बिठाना, ये सारी चीजें तब से चल रही होगी जब से हम लोग चुनावों के बारे में सोच भी नहीं रहे थे। जैसे जैसे चुनाव नजदीक आता है, अलादीन का चिराग जमकर नये नये जिन्न उत्पन्न करता है।

नाउम्मीदी के दौर में कांग्रेस के पास उम्मीद का मौका अचानक ही आन पड़ा है, और वो भी गुजरात में। उधर भाजपा में मोदी-शाह की जोड़ी का इतिहास रहा है कि वो आखिरी पलों में स्थितियों को मोड़ देते हैं। लेकिन इस बीच आम आदमी पार्टी से लेकर दूसरे नामों के बैनर मैदान में दिखाई ही नहीं दे रहे। शायद हो सकता है कि उनके लेबल बाउंड्री लाइन पर लगे हो। भाजपा व कांग्रेस जैसे बड़े बड़े नामों के बीच युवा राजनीतिक चेहरे चर्चा में हैं। बड़े नामों की चर्चा उतनी नहीं होती, जितनी इन युवाओं की होती है। चुनावों में पत्ते छुपाना, पत्ते खोलना जैसे लफ्ज़ इस्तेमाल होते हैं। पत्तों का चैप्टर जो भी हो, लेकिन राजा-रानी-इक्के के अलावा दूसरे पत्ते हेडलाइन में ज्यादा दिखने लगे हैं। टिकटों का बंटवारा तथा उम्मीदवारों की घोषणा के बाद चुनावी मैदान हर दिन नयी नयी कहानियां लेकर ज़रूर आएगा।

(इंडिया इनसाइड, एम वाला)