हमारे यहां चुनाव सुधार एक बड़ा
मुद्दा रहा है। यह मुद्दा बड़ा नहीं होता, लेकिन बड़ा मुद्दा शायद इसलिए रहा
क्योंकि लगभग तमाम राजनीतिक दल चुनाव सुधार के मुद्दे पर अमूमन एकजुट दिखाई देते
रहे हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में चुनाव सुधार के
ज्यादातर कार्य, जो कि मींल के पत्थर समान थे, न्यायालय ने ही किए। जनसेवा या देश
को बदलने की बातें करने वाले राजनीतिक दल इसके बाद यही कहते नजर आए कि हम न्यायालय
का सम्मान करते हैं। लेकिन जो काम उन्हें करने चाहिए थे, न्यायालय को करने पड़े। यहां नजरिया यह समझने को लेकर भी है कि जो राजनीतिक दल सदैव हमें अलग-थलग करने में जुटे रहते हैं वे कितने एकजुट होते हैं, जब उनके साम्राज्यों को लेकर छोटा-मोटा भी खतरा मंडराने लगे।
हालांकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में बेहतर ढंग से चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग की तारीफ तो बनती ही
है। लेकिन हमारा लोकतंत्र बेहतर इसलिए भी है, क्योंकि वो स्थायी नहीं है। बल्कि
उसमें सुधार की प्रक्रियाएँ सदैव जारी रही हैं। कई प्रकार के सुधार की हमेशा से
गुंजाइश रही है। चुनाव आयोग के अधिकार या उसका अधिक बेहतरी से काम करना मुख्य विषय
रहा है। कहा गया है और देखा भी गया है कि देश की सिस्टम को चलानेवाली शक्तियों में इच्छाशक्ति की कमी मुख्य पहलू है।
अब तक देश में चुनाव सुधार सुप्रीम
कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही संभव हो पाए हैं। राजनीति से अपराधीकरण पर रोक, राजनीतिक
पार्टियों के खातों का ऑडिटिंग, चुनाव में काले धन की जांच, पेड न्यूज़ और सरकार प्रायोजित
विज्ञापनों को चुनावी अपराध मानना और उम्मीदवारों द्वारा फर्जी हलफनामा देने को अपराध
की श्रेणी में रखना जैसे तमाम चुनाव सुधार अधूरे पड़े हैं।
चुनाव सुधार और
राजनीतिक नियत का मेलजोल
एक दौर था जब केंद्रीय चुनाव
आयोग को बिना नाखून का शेर कहा जाता था। वैसे कहा तो आज भी जाता है। किंतु उस दौर
से लेकर आज तक कई सुधार हुए हैं। लेकिन तमाम सुधार सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के
बाद ही संभव हो पाए थे। सारे मसले एक ही मोड़ पर आकर रुक जाते हैं। और वो यह कि कोई
भी चुनाव सुधार हो, इसे लागू कराने और पालन करने-कराने की पारदर्शी नीति या इच्छाशक्ति
की राजनीतिक दलों में कमी सी रही है।
चुनाव सुधारों को लेकर गोस्वामी कमेटी,
वोहरा कमेटी, इंद्रजीत गुप्ता कमेटी, चुनाव आयोग की रिपोर्ट की कई सिफारिशें आई। मगर
इन सिफारिशों पर सरकारों का कोई ध्यान नहीं गया। काफी जद्दोजहद के बाद आदर्श आचार संहिता
बनाई गई। पार्टियां इसे मानने के लिए तैयार हो गईं। मगर कोई वैधानिक बाध्यता नहीं होने
के बावजूद चुनाव में संहिताओं का घोर उल्लंघन होता रहा। आचार संहिता का उल्लंघन...
आप सूची बनाएंगे कि कब कब कौन कौन सी पार्टियां या नेताओं ने आचार संहिता का
उल्लंघन किया, सारा माजरा खुद-ब-खुद साफ होता चला जाएगा। धड़ल्ले से कहा जा सकता
है कि लगभग तमाम ने आचार संहिता का उल्लंधन करते हुए संविधान का सम्मान करने वाली
सरकारें बनाने के चुनावी भाषण दिए थे।
अब इसमें चुनाव आयोग, उनके अधिकारी,
अधिकारियों की कार्यशैली आदि चीजें भी चर्चा में जोड़े जा सकते हैं। यह भी कहा जा सकता
है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति या चुनाव आयोग संबंधित कर्मचारियों की
नियुक्ति की प्रक्रिया आदि में ही राजनीतिक हस्तक्षेप ज्यादा रहा है। यानी कि सुधार
के कदम भले चुनाव आयोग उठाए, लेकिन उसे लागू कराने की शक्तियां आयोग के पास कम
है!!! या फिर कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट या आयोग या कमेटियां चाहे जो भी सिफारिशें करे, आदेश दे या कानून बनाए, उन तमाम सिफारिशों, आदेशों या कानूनों को लागू कराने
की पर्याप्त शक्तियां संस्था के पास नहीं है!!! कई सारे एंगल पर आगे बढ़ा जा सकता है।
लेकिन अंत तो एक ही है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी चुनाव सुधार की धीमी
प्रक्रिया के लिए जवाबदेह है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आप इसके लिए खुद को भी
अपराधी मान सकते हैं। चुनावी मौसम के दौरान आचार संहिता के चीथड़े उड़ाते हुए राजनीतिक
दल खुद ही संविधान को मजबूती देने वाली सरकार बनाने का जोक किया करते हैं ये अजीब
भी है तथा सामान्य सा भी!!!
चुनाव आचार संहिता
क्या होती है?
चुनाव आचार संहिता के बारे में
कुछ प्रमुख बातें संक्षेप में देख लेते हैं। देश में आदर्श आचार संहिता की शुरुआत सबसे
पहले 1960 में केरल की विधानसभा से हुई थी। इसके बाद 1962 के लोकसभा चुनावों में आचार
संहिता के नियम सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को बताए गए। 1991 में आचार संहिता
को देश में पहली बार बड़ी मजबूती दी गई। 1994 में चुनाव आयोग ने आचार संहिता तोड़ने
पर पार्टी की मान्यता तक रद्द करने का नियम बनाया। अगर आज के नियमों की बात करें तो
चुनाव आचार संहिता कहती है कि पार्टी या प्रत्याशी दो धर्मों को बांटने वाली बात नहीं
कह सकता, वोट के लिए जाति-धर्म पर आधारित बात नहीं बोल सकता, वोटर को रिश्वत देकर
या डरा धमकाकर वोट नहीं मांग सकता। किसी भी पब्लिक मीटिंग-जुलूस से पहले पार्टी-प्रत्याशी
को स्थानीय प्रशासन से इजाज़त लेनी होती है। सत्ताधारी पार्टी सरकारी दौरे को चुनावी
इस्तेमाल में नहीं ला सकतीं। सरकारी इमारत,
गाड़ी, हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल
नहीं हो सकता।
चुनाव सुधार के
इतिहास की तमाम बातें संक्षेप में लिखना असंभव है, लिहाजा हम कुछ ताज़ा चुनावी सुधार
की कुछ मुख्य घटनाओं पर बात करते हैं।
जब चुनाव आयोग
ने पीएम को तल्ख भाषा में लिखा था पत्र, आखिरकार कोर्ट को उठाना पड़ा कदम
वर्ष 2006 में चुनाव आयोग ने तत्कालीन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक कड़ा पत्र लिखते हुए कहा था कि, “यदि जनप्रतिनिधित्व
कानून 1951 में ज़रूरी बदलाव नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब देश की संसद और विधानसभाओं
में दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम जैसे लोग बैठेंगे।” लेकिन इस पर कोई
ध्यान नहीं दिया गया और अंत में सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पड़ी थी।
दरअसल ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951’ की धारा 8 (4)
के अनुसार अगर कोई भी जनप्रतिनिधि किसी मामले में दोषी ठहराए जाने की तिथि से
तीन महीने के दौरान तक अपील दायर कर देता है, तो उस मामले का निबटारा होने तक वह अपने
पद से अयोग्य घोषित नहीं होगा। यही वह धारा रही जिसका हमारे सियासतदानों द्वारा लम्बे
समय तक फायदा उठाया गया। जब 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को यह कहते हुए खारिज
कर दिया कि ‘जनप्रतिनिधित्व
अधिनियम की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार पर खरी नहीं
उतरती’ तो इससे देश के
पूरे सियासी बिरादरी में खलबली मच गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय के इस
ऐतिहासिक फैसले के बाद लगभग सभी दलों द्वारा ना केवल आलोचना की गई, बल्कि सुप्रीम
कोर्ट को अपने हद में रहने की नसीहत भी दी गई थी!!! लालू प्रसाद यादव व रशीद मसूद
जैसे नेता कोर्ट के इसी फैसले की वजह से ही चुनाव में सीधे तौर पर भाग ना लेने को
मजबूर हुए, लेकिन हमारे राजनीतिक दल इस फैसले को बेअसर करने के जतन ही करते रहे। तभी
तो तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा अध्यादेश जारी करके इस निर्णय को रद्द करने की
कोशिश की गई।
इस विवादित अध्यादेश में
प्रावधान किया गया था कि सजायाफ्ता सांसद व विधायक न केवल विधानसभा व संसद के
सदस्य बने रह सकेंगें बल्कि चुनाव भी लड़ सकेंगे!!! हालांकि दोषमुक्त होने तक उनके
संसद-विधानसभा में मत देने का अधिकार और वेतन भत्ते पर रोक थी। बाद में राहुल
गांधी द्वारा “बकवास”,
“फाड़ कर फेंक दिए जाने लायक” बताए
जाने के बाद तत्कालीन मनमोहन सरकार ने इस अध्यादेश को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
2013 के सुप्रीम
आदेश के सामने राजनीतिक गलियारों ने ढूंढा था बचने का रास्ता
ऐसा प्रतीत होने लगा कि सुप्रीम कोर्ट
के 2013 के फैसले के बावजूद इससे बचने का रास्ता निकाल लिया गया था। चूंकि अयोग्य
ठहराए जाने के लिए पहले संबंधित सदन के सचिवालय से अधिसूचना जारी कर चुनाव आयोग
के पास भेजी जाती है और इसके बाद चुनाव आयोग सदस्य को अयोग्य ठहराने की अधिसूचना
कर उस सीट को रिक्त घोषित करता है। लेकिन इस मामले में याचिका लगाने वाले गैर
सरकारी संगठन “लोक प्रहरी” का आरोप रहा कि अयोग्य ठहरा कर सदस्यता
रद्द करने की सूचना जारी करने में संबंधित सदन का सचिवालय देरी करता है, जिसकी वजह
से कारवाई नहीं हो पाती है।
2014 में नयी
सरकार आई, सरकार बदली पर रवैया रहा जस का तस
2006 में इसे लेकर मामला न्यायिक
गलियारों तक पहुंचा। क्योंकि तब तक कथित जनसेवकों ने कुछ किया ही नहीं होगा, तभी तो
मामला कोर्ट तक पहुंचा होगा। इसके 10 साल गुजर गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इस दौरान
2009 में यूपीए सरकार सत्ता में आई, जबकि 2014 में एनडीए सरकार। सरकारें बदली, लेकिन
मामला जस का तस पड़ा रहा!
जुलाई 2016 में ‘लोक प्रहरी’ की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख
अपनाया। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा
कि कोर्ट के फैसले के तीन वर्ष बाद भी कानून को लागू करने के लिए कदम क्यों नहीं
उठाया गया। कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह भी पूछा कि क्यों न दोषी ठहराए जाते ही
सदस्य ऑटोमेटिक अयोग्य करार दिया जाए और क्या सदस्य की सदस्यता रद्द करने के लिए नयी
अधिसूचना जारी करने की ज़रूरत है?
कांग्रेस शासित सरकार विदाई ले
चुकी थी और भाजपा शासित सरकार केंद्र में थी। लेकिन कोई भी अपने तरीके से इसे आगे
बढ़ा नहीं रहा था! बचने के रास्ते खुले रखने की कोशिशें साफ दिख रही थी। नयी सरकार
बनने के तीन साल बाद भी इसे लेकर कुछ नहीं हुआ! अप्रैल 2017 में टाइम्स ऑफ इंडिया
ने एक खबर छापी। अखबार ने लिखा कि केंद्र सरकार आपराधिक मामलों में दोषी साबित हुए
व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध के खिलाफ है। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक
सरकार ने यह बात सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका की सुनवाई के दौरान कही थी। सरकार ने
जनप्रतिनिधित्व कानून (1951) का हवाला देते हुए कहा कि इसके तहत दोषी व्यक्ति के जेल
से बाहर आने के बाद उसके छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध का प्रावधान पहले से मौजूद
है।
सुप्रीम कोर्ट का
बड़ा फैसला - धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी
2 जनवरी 2017 के दिन सुप्रीम कोर्ट
ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए कहा कि धर्म के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी होगा। 7 जजों
की संविधान पीठ ने यह फैसला हिंदुत्व से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान लिया। फैसले
में कहा गया कि प्रत्याशी या उसके समर्थक धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर वोट
मांगते हैं तो यह गैरकानूनी होगा। कोर्ट ने कहा कि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है। वैसे आप इस अदालती फैसले का क्या हाल होगा इसे लेकर जो सोचते हैं वो सही हो सकता है, लेकिन हम यहां बात चुनाव सुधार के ताज़ा इतिहास की कर रहे हैं, जिसमें हमें जुदा करने वाले राजनीतिक दलों की एकता के दर्शन करना ज़रूरी है।
उच्चतम न्यायालय ने बहुमत के आधार
पर अपने फैसले में कहा कि धर्म के आधार पर वोट देने की कोई भी अपील चुनावी कानूनों
के तहत भ्रष्ट आचरण के बराबर है। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि भगवान और मनुष्य के
बीच का रिश्ता व्यक्तिगत मामला है। कोई भी सरकार किसी एक धर्म के साथ विशेष व्यवहार
नहीं कर सकती, एक धर्म विशेष के
साथ खुद को नहीं जोड़ सकती। शीर्ष न्यायालय में बहुमत का विचार चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर, जस्टिस एमबी लोकुर, जस्टिस एलएन राव, जस्टिस एसए बोबडे का था, जबकि अल्पमत का विचार जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एके गोयल और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़
का था।
मतदाताओं को
प्रलोभन देने के मुद्दे पर हाईकोर्ट ने केंद्र और चुनाव आयोग से मांगा जवाब
चुनाव से पहले और सत्ता संभालने
के बाद लगभग तमाम उम्मीदवार और दल मतदाताओं को ललचाने की हर मुमकिन कोशिशें करते हैं।
जिसमें मुफ्त चीजें बांटना जैसे शिगूफे खास तौर पर आजमाए जाते हैं। ऐसे मामलों को
रोकने के लिए दिल्ली के अशोक शर्मा ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। 2
फरवरी 2017 के दिन याचिका पर सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जी रोहिणी और
जस्टिस संगीता धींगड़ा सेहगल ने इसे लेकर केंद्र सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को
नोटिस भेजा और आठ सप्ताह में जवाब देने के लिए कहा। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था
कि चुनावी घोषणाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट की जो ताज़ा मार्गदर्शिकाएँ हैं उसका पालन
नहीं किया गया। याचिका में कहा गया था कि मुफ्त चीजें बांटना तथा अन्य प्रलोभन
मतदाताओं को भ्रष्ट करने के प्रयास हैं, लैपटाॅप, मोबाइल, पानी, बिजली जैसी चीजें मुफ्त देने के वादे भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।
चुनाव आयोग का सुप्रीम
कोर्ट में हलफनामा, अपराधियों के आजीवन चुनाव लड़ने पर लगे पाबंदी
20 मार्च 2017 के दिन चुनाव आयोग
ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि आपराधिक मामलों में दोषियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन पाबंदी
होनी चाहिए। आयोग का यह भी मानना था कि आपराधिक मामलों में आरोपी नेताओं का ट्रायल
एक वर्ष के भीतर पूरा हो जाना चाहिए। वर्तमान प्रावधान के मुताबिक दोषी पर सजा काटने
के छह वर्ष तक ही चुनाव लड़ने पर पाबंदी है।
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में
हलफनामा दायर कर कहा कि वह निष्पक्ष चुनाव के लिए प्रतिबद्ध है। आयोग ने कहा कि वह
इसका समर्थन करता है कि आपराधिक मामलों में दो या उससे अधिक वर्ष की सजा पाने वालों
पर चुनाव लड़ने की आजीवन पाबंदी होनी चाहिए। उसका कहना था कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए
इस तरह की पाबंदी होनी चाहिए। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दाखिल जनहित याचिका
पर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपना यह पक्ष रखा।
हलफनामे में आयोग ने कहा कि चुनाव
सुधार को लेकर उन्होंने विस्तृत प्रस्ताव सरकार को सौंप दिया है। इनमें अपराधमुक्त
राजनीति, रिश्वत को संज्ञेय
अपराध बनाना, पेड न्यूज़ पर पाबंदी
और मतदान के 48 घंटे पहले तक विज्ञापनों पर प्रतिबंध आदि हैं। आयोग ने कहा कि अधिकतर
सिफारिशों को विधि आयोग ने अपनी 244 और 255वीं रिपोर्ट में अप्रूव कर दिया है। फिलहाल
यह केंद्र सरकार के विचाराधीन है।
अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका
में गुहार लगाई थी कि आपराधिक मामलों में दो वर्ष या इससे अधिक की सजा पाने वालों पर
आजीवन चुनाव लड़ने की पाबंदी लगा दी जानी चाहिए। साथ ही राजनेताओं के मामले का ट्रायल
एक वर्ष के भीतर पूरा हो जाना चाहिए। साथ ही याचिका में यह भी गुहार की गई थी कि चुनाव
लड़ने के लिए अधिकतम उम्र निर्धारित हो और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय हो। याचिकाकर्ता
का कहना था कि कार्यपालिका और न्यायपालिका में ऐसी व्यवस्था है कि अगर कोई व्यक्ति
आपराधिक मामले में दोषी ठहराया जाता है तो वह नौकरी से बर्खास्त हो जाता है। वहीं विधायिका
पर यह मापदंड लागू नहीं होता। याचिका में विधायिका में भी यही मापदंड तय करने की गुहार
की गई। याचिका में कहा गया कि मौजूदा स्थिति है कि दोषी ठहराए जाने और सजा काटने के
दौरान भी दोषी राजनीतिक दल बना सकता है और वह दल का पदाधिकारी भी बन सकता है। इतना ही
नहीं, सजा काटने के छह वर्ष बाद भी दोषी फिर से चुनाव लड़ सकता है।
चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम उम्र और
न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने के मसले पर आयोग ने कहा कि यह विधायिका के कार्यक्षेत्र
में है और इसके लिए संविधान में संशोधन की ज़रूरत है।
ज्योतिषियों पर
भी सख्त हुआ चुनाव आयोग, चुनावी नतीजों की भविष्यवाणी को बताया गैर-कानूनी
मार्च 2017 के दौरान आयोग ने प्रिंट
और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों से
कहा कि वे भविष्य में स्वतंत्र, निष्पक्ष
एवं पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबंध की अवधि के दौरान चुनावों की भविष्यवाणी
से जुड़े कार्यक्रमों का प्रकाशन-प्रसारण नहीं करें। मीडिया संगठनों को भेजे गए एक
परामर्श में आयोग ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 126-ए का ज़िक्र किया, जिसमें कहा गया कि चुनाव आयोग की ओर से अधिसूचित
की गई ऐसी अवधि के दौरान कोई व्यक्ति प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए कोई एग्जिट
पोल नहीं करेगा और न ही इनके नतीजों को प्रकाशित-प्रसारित करेगा और न ही इसे किसी अन्य
तरीके से वितरित करेगा।
फरवरी मार्च 2017 के उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर की विधानसभाओं के चुनाव के दौरान एग्जिट पोलों
पर प्रतिबंध की अवधि चार फरवरी की सुबह 7 बजे से लेकर नौ मार्च की शाम 5-30 बजे तक
थी। 9 मार्च को अंतिम मतदान हुए थे। परामर्श में कहा गया कि, “ऐसा देखा
गया है कि कुछ टीवी चैनलों ने ऐसे कार्यक्रम प्रसारित किए जिनमें राजनीतिक पार्टियों
की ओर से जीती जा सकने वाली सीटों की संख्या बताई गई। यह उस वक्त किया गया जब एग्जिट
पोलों पर प्रतिबंध की अवधि लागू थी।” आयोग ने कहा कि
एक कार्यक्रम में शो के पैनलिस्टों ने बताया था कि उत्तरप्रदेश में अलग-अलग पार्टियों
को कितनी सीटें मिल सकती हैं। परामर्श के मुताबिक, आयोग का मानना था कि ज्योतिषियों, टैरो रीडरों, राजनीतिक विश्लेषकों या किसी अन्य व्यक्ति
द्वारा प्रतिबंध की अवधि के दौरान किसी भी स्वरूप या तरीके से चुनावी नतीजों की भविष्यवाणी
करना धारा 126-ए का उल्लंघन है।
कड़े शब्दों में लिखे गए इस परामर्श को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया एवं न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन को भी भेजा गया।
हालांकि कुछ मीडिया हाउस द्वारा
धारा का उल्लंघन किया गया था तो इसके विरुद्ध चुनाव आयोग ने कोई कदम उठाने की
सिफारिश नहीं की या फिर उन समाचार संस्थानों को चेतावनियां तक नहीं दी गई!!! हालांकि जो
बीत गया सो बीत गया मानकर नयी इनिंग में यह नियम खयाल में रहे वाला समाधानकारी फॉर्मूला ज़रूर आया और चुनाव आयोग ने मार्च 2017 के अंत में यह निर्देश जारी करके भविष्य में
गलती ना करें वाली चेतावनी ज़रूर दी।
राजनीतिक दल चुनावी
वादों को जुमला बताकर भूल जाते हैं: चीफ जस्टिस खेहर
8 अप्रैल 2017 के दिन चीफ जस्टिस
जेएस खेहर ने राजनीतिक दलों द्वारा बड़े-बड़े वादे कर बाद में भूल जाने के मुद्दे पर
राजनेताओं पर निशाना साधते हुए कहा कि, “चुनावी वादे आमतौर
पर पूरे नहीं किए जाते हैं और घोषणा पत्र सिर्फ कागज का एक टुकड़ा बन कर रह जाता है।” उन्होंने
कहा कि इसके लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने “चुनावी
मुद्दों के संदर्भ में आर्थिक सुधार” विषय पर
एक सेमिनार को संबोधित करते हुए कहा कि, “आजकल चुनावी
घोषणा पत्र महज कागज के टुकड़े बन कर रह गए हैं, इसके लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।” मुख्य न्यायाधीश ने साल 2014 के आम चुनावों
के दौरान राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों के बारे में कहा कि इनमें से किसी में भी चुनाव
सुधारों और समाज के सीमांत वर्ग के लिए आर्थिक-सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के सांविधानिक
लक्ष्य के बीच किसी प्रकार के संपर्क का संकेत ही नहीं था। उन्होंने कहा कि सुप्रीम
कोर्ट के आदेश के मुताबिक भारतीय चुनाव आयोग की तरफ से मुफ्त उपहारों जैसी चीजों को
लेकर दिशा निर्देश तैयार किया गया है। इसके साथ ही चुनाव आयोग की तरफ से आचार संहिता के उल्लंघन पर राजनीतिक दलों
के खिलाफ भी कार्रवाई होती रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने
केंद्र से कहा- चुनाव आयोग में नियुक्तियों पर बनाए कानून, नहीं तो हम देंगे दखल
5 जुलाई 2017 के दिन सुप्रीम कोर्ट
ने केंद्र सरकार पर तल्ख टिप्पणी करते हुए पूछा कि, “चुनाव आयोग
में नियुक्ति के लिए कोई कानून क्यों नहीं है।?” चुनाव आयोग में
नियुक्तियों को लेकर एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “संविधान
के अनुच्छेद 324 (2) के अंतर्गत यह प्रावधान है कि संसद चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के
लिए कानून का निर्माण करेगी, लेकिन अब
तक ऐसा नहीं हो सका है।” सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “हम संसद
को ऐसा करने के लिए आदेश तो नहीं दे सकते, लेकिन अगर
केंद्र सरकार इसके लिए संसद में कानून नहीं लाती है तो अदालत इस मामले में हस्तक्षेप
कर गाइडलाइन जारी करेगी।”
दरअसल सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर
करके पूछा गया था कि चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर कोई कानून क्यों नहीं है।
इस याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार ने कोर्ट से कहा कि अब तक जितनी भी नियुक्तियां
हुई हैं उनमें कोई गड़बड़ी नहीं है। सोचिए, सरकार कह देती है कि अब तक कोई गड़बड़ी नहीं है, और दूसरी तरफ यही लोग एक दूसरे के ऊपर न जाने क्या क्या आरोप लगाते रहते हैं!!!
भारत के संविधान के अनुच्छेद
324(2) मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़ा है। इसके
अनुसार उनकी नियुक्ति का अधिकार भारत के राष्ट्रपति को दिया गया है। मुख्य निर्वाचन
आयुक्त को छोड़कर समय-समय पर निर्वाचन आयुक्तों की संख्या को निश्चित करने का अधिकार
भी राष्ट्रपति के पास होता है। लेकिन चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बनाए गए नियम
संसद द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन है। लेकिन संसद ने आज तक चुनाव आयुक्त की नियुक्ति
के लिए कोई कानून नहीं बनाया है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में संसद ने
कोई कानून नहीं बनाया है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 324(5) में उन्हें पद से हटाए
जाने का प्रावधान है। जिसके अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से सुप्रीम कोर्ट के जज
को हटाए जाने के तरीके से हटाया जा सकता है। यानी कि नियुक्ति के लिए कानून नहीं है, किंतु हटाने का तरीका ज़रूर मौजूद है!!!
सुप्रीम कोर्ट की
चुनाव आयोग को फटकार- दोषियों के चुनाव लड़ने के विरोध में हो या नहीं?
इसी साल मार्च में आयोग का मानना क्या था वो हमने ऊपर देखा, लेकिन महज 3-4 महीनों के गुजरने के बाद आयोग का वो मानना भी कहीं गुजर गया! जुलाई 2017 आधा बीत चुका था। इसी
दौरान सर्वोच्च न्यायालय के सामने चुनाव आयोग ने कहा कि वह आपराधिक मामलों में दोषी
नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन पाबंदी के पक्ष में नहीं है। इसके साथ ही आयोग ने कहा
कि वह राजनेताओं के आपराधिक मामलों पर लगाम लगाने के लिए अन्य विकल्पों पर भी विचार
कर रहा है। बताइए, समूचा देश हमेशा से ये मांग करता रहा है कि दोषी नेताओं पर
चुनाव लड़ने की मनाही होनी चाहिए, जबकि स्वयं चुनाव आयोग ऐसा नहीं मानता था। दूसरी
और चुनाव आयोग इस मामले में यह भी कह रहा था कि इसके लिए अन्य विकल्प सोचे जा रहे
हैं। सवाल उठना लाजमी था कि अगर आयोग चुनाव लड़ने की मनाही को ठीक नहीं मानता था तो
फिर दूसरे विकल्प चुनाव लड़ने को लेकर थे या चुनाव नहीं लड़ने को लेकर।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने
चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि, “आप इस मामले में
साफ-साफ अपना पक्ष क्यों नहीं रखते?” कोर्ट ने पूछा
कि, “आप दोषियों के चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं
या विरोध में?” जिसके जवाब में
आयोग ने कहा कि वह दोषियों के आजीवन पाबंदी के पक्ष में नहीं है। मौजूदा कानूनी प्रावधानों
के तहत दोषियों पर लगाम लगाई जा जा रही है। मौजूदा प्रावधान के मुताबिक, अगर नेता को दोषी ठहराया जाता है और उसे
दो या उससे अधिक वर्ष की सजा होती है तो उस पर सजा पूरी करने के छह वर्ष बाद तक चुनाव
लडऩे पर पाबंदी है।
हमने ऊपर ही देखा कि इससे पहले चुनाव
आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि वह निष्पक्ष चुनाव के लिए प्रतिबद्ध
है। आयोग ने कहा था कि वह इसका समर्थन करती है कि आपराधिक मामलों में दो या उससे अधिक
वर्ष की सजा पाने वालों पर चुनाव लड़ने की आजीवन पाबंदी होनी चाहिए। उनका कहना था कि
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इस तरह की पाबंदी होनी चाहिए। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय
द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपना यह पक्ष रखा था।
अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में गुहार लगाई थी कि आपराधिक मामलों में दो वर्ष
या इससे अधिक की सजा पाने वालों पर आजीवन चुनाव लड़ने की पाबंदी लगा दी जानी चाहिए।
साथ ही राजनेताओं के मामले का ट्रायल एक वर्ष के भीतर पूरा हो जाना चाहिए। साथ ही याचिका
में यह भी गुहार की गई थी कि चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम उम्र निर्धारित हो और न्यूनतम
शैक्षणिक योग्यता तय हो।
चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम उम्र और
न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने के मसले पर इसी दिन आयोग ने कहा कि विधि आयोग और
जस्टिस वेंकटचलैया आयोग के सुझावों को तत्काल लागू किया जाए।
याचिकाकर्ता का कहना था कि कार्यपालिका
और न्यायपालिका में ऐसी व्यवस्था है कि अगर कोई व्यक्ति आपराधिक मामले में दोषी ठहराया
जाता है तो वह नौकरी से बर्खास्त हो जाता है, वहीं विधायिका पर यह मापदंड लागू नहीं
होता। याचिका में विधायिका में भी यही मापदंड तय करने की गुहार की गई। याचिका में कहा
गया कि मौजूदा स्थिति है कि दोषी ठहराए जाने और सजा काटने के दौरान भी दोषी राजनीतिक
दल बना सकता है और वह दल का पदाधिकारी भी बन सकता है। इतना ही नहीं, सजा काटने के छह वर्ष बाद
भी दोषी फिर से चुनाव लड़ सकता है।
सांसद व
विधायकों पर मामले जल्दी चलाईए – सुप्रीम कोर्ट
राजनीतिक नेताओं के मामलों में
ढिलाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त 2017 के दिन नाराजगी प्रकट की। अश्विनी
उपाध्याय द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि, “सांसदों और विधायकों के केस को लेकर जल्द सुनवाई क्यों नहीं हो रही?
सांसदों और विधायकों वाले मामलों की सुनवाई 6 महीनों में हो जानी चाहिए।”
केंद्र सरकार ने
सुप्रीम कोर्ट में कहा, दोषी करार दिए जाते ही अयोग्य साबित न हो सांसद-विधायक
नौकरी करनेवाला दोषी साबित होता हो या ना होता हो, जांच के समय भी उसे अपने कार्यक्षेत्र से हटना पड़ता है, दोषी साबित होने के बाद तो नौकरी से भी हटना पड़ता है। लेकिन नेताओं के लिए शायद अलग दुनिया है। सितम्बर 2017 के दौरान केंद्र सरकार
ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा कि, “कोई भी
विधायक या सांसद अगर किसी आपराधिक मामले में दोषी पाया जाता है तो वह अयोग्य घोषित
नहीं होंगे। उनकी सीट को तत्काल प्रभाव से ख़ाली घोषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि कानून उन्हें खुद को दोषी ठहराए
जाने के फैसले के खिलाफ अपील करने और उस पर रोक हासिल करने का एक मौका देता है।” केंद्र
सरकार ने कहा कि, “ये नीतिगत मामला है, इसमें कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए।”
सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने लोक प्रहरी एनजीओ
की उस याचिका का विरोध किया, जिसमें
कहा गया था कि अगर कोई विधायक या सांसद आपराधिक मामले में दोषी पाया जाता है तो तत्काल
प्रभाव से उसकी सीट को खाली घोषित किया जाए। याचिका में सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फ़ैसले
को आधार बनाया गया था, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि अगर कोई विधायक या सांसद आपराधिक
मामले में दोषी पाया जाता है तो तत्काल प्रभाव से वो अयोग्य घोषित हो जाएगा। दरअसल,
लोक प्रहरी ने अपनी याचिका में कहा था कि उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कुछ लोग,
जो आपराधिक मामले में दोषी पाए गए हैं, वे उसके
बावजूद अपने पद पर बने हुए हैं, क्योंकि
सीट को खाली घोषित करने और चुनाव कराने में लंबा वक्त लिया जा रहा है।
50 साल बाद
लोकसभा व विधानसभा के चुनाव साथ करने की तैयारी में दिखा चुनाव आयोग, सरकार भी दिखी
राजी
भारत में 1967 तक लोकसभा तथा
विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे। 2017 में तत्कालीन एनडीए सरकार फिर एक बार इसी
इतिहास को दोहराने के लिए तैयार दिखी। अक्टूबर 2017 में केंद्रीय चुनाव आयोग ने भी
इसके संकेत दिए। 5 अक्टूबर 2017 के दिन तत्कालीन मुख्य चुनाव कमिश्नर ओपी रावत ने
कहा कि सितम्बर 2018 के बाद लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने के लिए आयोग पूरी तरह तैयार हो जाएगा। रावत ने कहा कि, “हमने सरकार को
बता दिया है कि हमारे पास कितनी व्यवस्था है और हमें कितने संसाधनों की आवश्यकता
होगी। हमने सरकार को कहा है कि हमें कितने ईवीएम तथा अन्य सामग्री चाहिए होगी।”
उन्होंने कहा कि, “सरकार ने हमें फंड मुहैया करवाया है और हमने ईवीएम
तथा अन्य संसाधनों के उत्पादन के आदेश दे दिए हैं। सितम्बर 2018 तक हमें सब मिल
जाएगा, जिसके बाद हम लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव एकसाथ करवा सकेंगे।”
गौरतलब है कि मार्च 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा था कि लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव एकसाथ
हो तो इससे पैसे तथा समय, दोनों की बचत हो सकती है। नीति आयोग ने इस संदर्भ में एक
परिपत्र भी जारी किया था। सरकार ने 2017 के बजट सत्र से पहले तमाम राजनीतिक
पार्टियां तथा चुनाव आयोग से संपर्क कर सूचन भी मंगाए थे।
लोकसभा-विधानसभा
चुनाव एक साथ कराने पर ईसी बोला- सभी दलों की सहमति ज़रूरी
लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के
चुनाव एक साथ कराने का पक्ष लेते हुए चुनाव आयोग ने 8 अक्टूबर को कहा कि ऐसा कुछ करने
से पहले तमाम राजनीतिक पार्टियों को इसके लिए सहमत करना ज़रूरी है। चुनाव आयुक्त ओपी
रावत ने कहा, “चुनाव आयोग का हमेशा से नजरिया रहा है कि एक साथ चुनाव
कराने से निवर्तमान सरकार को आदर्श आचार संहिता लागू होने से आने वाली रुकावट के बगैर
नीतियां बनाने और लगातार कार्यक्रम लागू करने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा।” उन्होंने
कहा कि संविधान और जन प्रतिनिधित्व कानून में ज़रूरी बदलाव करने के बाद ही एक साथ चुनाव
कराना मुमकिन हो सकेगा।
रावत ने कहा कि संवैधानिक और कानूनी
खाका बनाने के बाद ही तमाम तरह के समर्थन मांगना और एक साथ चुनाव कराना व्यावहारिक
होगा। उन्होंने कहा कि आयोग संवैधानिक और कानूनी बदलाव करने के बाद ऐसे चुनाव छह महीने
बाद करा सकता है। उन्होंने
कहा कि एक साथ चुनाव कराने के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियों की सहमति आवश्यक है। रावत
ने कहा कि एक साथ चुनाव कराने पर निर्वाचन आयोग से 2015 में अपना रुख बताने को कहा
गया था। रावत ने कहा कि आयोग ने उस साल मार्च में अपने विचार दे दिए थे। उसने कहा था
कि इस तरह के चुनावों को व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ कदम उठाना ज़रूरी है।
हालांकि इसी साल गुजरात तथा
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों की तारीखों को एक ही दिन घोषित ना कर चुनाव आयोग ने खुद
ही विवाद का पिटारा खोल दिया था!!! तंज कसे गए थे कि लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव
एकसाथ कराने के लिए खुद को तैयार बता रहे आयोग ने तारीखों को भी एक ही दिन घोषित नहीं किया था!!! लेकिन यह एक अलग सड़क है, लिहाजा उसे वहीं छोड़ देते हैं।
बिल नहीं चुकाने वाले उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने का चुनाव आयोग का प्रपोजल सरकार ने
खारिज किया
चुनाव आयोग ने यह प्रपोजल सरकार
को भेजा था। चुनाव आयोग ने कहा था कि जिन उम्मीदवारों ने सरकारी मकान का किराया, बिजली का बिल आदि ना चुकाए हो उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए।
अक्टूबर 2017 में केंद्र सरकार ने यह प्रपोजल खारिज कर दिया। चुनाव आयोग ने कहा था
कि ऐसे उम्मीदवारों को लोकसभा व विधानसभा के चुनावों के लिए अयोग्य घोषित किया
जाए। चुनाव आयोग ने यह प्रपोजल कानून आयोग को भेजा था। कानून मंत्रालय ने यह
प्रपोजल अनिच्छनीय बताकर चुनाव आयोग को वापस कर दिया। ऐसे में उम्मीदवार किराया या
बिल ना चुकाना इच्छनीय मान सकते हैं उसमें नया भी कुछ नहीं होना चाहिए!
6 महीने के
भीतर तमाम राजनीतिक पार्टियों के हिसाब जांचे जाए- दिल्ली हाईकोर्ट
9 अक्टूबर 2017 के दिन दिल्ली हाईकोर्ट ने विदेशी फंड के सोर्स ढूंढने हेतु कांग्रेस-भाजपा समेत तमाम राजनीतिक
पार्टियों के हिसाबों को 6 महीने के भीतर जांचने का आदेश दिया। हालांकि यह आदेश
केंद्र सरकार को दिया गया था। सरकार को अपनी ही पार्टी के हिसाब जांचने का आदेश
कितना अधिक फलदायी होगा यह आप लोगों को सोचना है! गौरतलब है कि
ब्रिटेन स्थित वेदांता रिसोर्सेज की भारत स्थित कंपनियों से कांग्रेस तथा भाजपा ने
फंड लिया था, जिसे अदालत ने एफसीआरए का उल्लंघन माना था। यह 2014 की घटना थी। उस
वक्त भी अदालत ने यही निर्देश दिया था। 3 साल बीत चुके थे लेकिन कुछ हुआ नहीं। अब
दिल्ली हाईकोर्ट ने 6 माह में हिसाब जांचने का आदेश केंद्र को दिया था।
नोटा सबसे
ज्यादा हो तब भी चुनाव रद्द नहीं किया जा सकता- सुप्रीम कोर्ट
24 नवम्बर 2017 के दिन सर्वोच्च
न्यायालय ने नोटा संबंधित एक याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मांग की गई थी कि यदि
नोटा की गणना सबसे ज्यादा हो तब चुनाव रद्द होना चाहिए। भाजपा के नेता अश्विनी
उपाध्याय ने यह याचिका दायर की थी। जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस याचिका पर सुनवाई करने
से इनकार करते हुए कहा, “यदि नोटा विकल्प गणना में सबसे ज्यादा हो
तब भी चुनाव को रद्द नहीं किया जा सकता।” जस्टिस ने कहा
कि नोटा की गणना सबसे ज्यादा हो तब भी अर्थ यही होता है कि लोग मतदान कर रहे हैं, ऐसे में चुनाव रद्द क्यों किए जाएं।
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 1
जनवरी 2017, एम वाला)
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