2016 के दौरान ब्रिटेन में
चिलकोट कमेटी की करीब 6 हज़ार पन्नों की एक रिपोर्ट आई थी। रिपोर्ट में कहा गया था
कि इराक के साथ युद्ध ज़रूरी था ही नहीं, लेकिन फिर भी किया गया। जो जंग ज़रूरी थी ही
नहीं, उस जंग में ब्रिटेन के सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। ब्रिटेन से भारत का
रिश्ता काफी गहरा है यह सभी भली-भांति जानते हैं। एक साल बाद भारत में एक मामले में
एक ऐसा अदालती फैसला आया, जिसने कुछ कुछ ऐसे ही सवाल यहां भी खड़े कर दिए।
2017 के आखिरी महीने में यूपीए-2
सरकार के दौरान हुए 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई विशेष अदालत का जो फैसला आया
वो वाकई अविश्वसनीय तथा झकझोरने वाली घटना थी। 21 दिसम्बर 2017 के दिन पटियाला
हाउस कोर्ट की सीबीआई विशेष अदालत ने ए राजा समेत 25 आरोपियों को बरी कर दिया।
अदालत ने कहा कि इस मामले को साबित करने के लिए जांच एजेंसी के पास पर्याप्त सबूत
नहीं हैं। कंपनियों को गलत तरह से टूजी स्पेक्ट्रम आवंटित करने का यह महाघोटाला यूपीए
सरकार के समय का था। कैग के एक अनुमान के मुताबिक जिस कीमत में इन स्पेक्ट्रमों
को बेचा गया और जिस कीमत में इसे बेचा जा सकता था उसमें 17.6 खरब रुपये का अंतर था। टूजी
स्पेक्ट्रम घोटाले को स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला माना गया था।
लेकिन इस दिन जो फैसला आया, लोग वाकई सकते में थे। सोशल मीडिया पर एक लाइन खूब
चली जिसमें तंज कसते हुए लिखा गया था कि काले हिरण को किसी ने नहीं मारा था... आरुषि
का कत्ल किसी ने नहीं किया था... और टूजी घोटाला ऐसा घोटाला है जो हुआ तो सही लेकिन
किसी ने नहीं किया!!!
हिंदुस्तान के
सबसे बड़े कथित घोटाले में सवालों के जवाब ढूंढने हेतु जांच की गई, लेकिन सालों की
जांच ने नये सवाल ही खड़े कर दिए!!!
बताइए, सबसे बड़े घोटाले की जांच
के लिए सीबीआई जैसी संस्था, स्पेशल कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी, अनगिनत
गवाह, बयान और सालों की माथापच्ची... ये सब इसलिए ताकि सैकड़ों सवालों के जवाब मिल
पाए। लेकिन इन सबका नतीजा क्या आया? कोई जवाब तो
नहीं मिले, उल्टा सैकड़ों नये सवाल उठ खड़े हुए।
सबसे पहला सवाल तो यही था कि कोई
तो बता दो कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ था या नहीं? और गर हुआ था तो कितने का था? लाजमी था कि
कैग जैसी संवैधानिक संस्था के रिपोर्ट के संदर्भ में मीडिया से लेकर समूचा देश
गंभीरता से चर्चा किया करते हैं, (राजनीतिक लोगों की बात को कोने में रख दें), तो फिर
सवाल उठे कि कैग रिपोर्ट के बाद जो सब हुआ क्या वो निराधार था?
सीधा सवाल सीबीआई पर उठा कि
पिछले 7 सालों से आप किस बात की जांच कर रहे थे? अप्रैल 2011 में सीबीआई ने 80 हज़ार
पन्नों की चार्जशीट दायर की थी, इसमें सीबीआई ने क्या लिखा था? 125 गवाह थे,
654 पन्नों के संवेदनशील दस्तावेज थे, तो फिर उसका ऐसा अंजाम कैसे? सालों तक मामला
चला, सीबीआई जैसी संस्था दलील, आरोप और सबूत में तालमेल क्यों नहीं बिठा पाई? सीबीआई ने
अपनी चार्जशीट में स्वान टेलीकॉम और कलिंग्नार टीवी पर स्पेक्ट्रम लाइसेंस पाने के
लिए 200 करोड़ के रिश्वत का इल्ज़ाम लगाया था, उसका क्या हुआ? 1 लाख 76 हज़ार
करोड़ रुपये के नुकसान का क्या? कमाल तो देखिए कि ए राजा के टेलीकॉम मिनिस्टर रहते हुए
सुप्रीम कोर्ट ने आवंटित सभी 122 लाइसेंस को रद्द कर दिया था। अब ए राजा के बरी
होने के बाद यह सवाल और बड़ा हो गया कि ये लाइसेंस क्यों रद्द कर दिए गए थे? कैग ने अपनी
रिपोर्ट में कहा था कि स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज पर
नियम को पलट दिया गया था, सीबीआई ये भी साबित क्यों नहीं कर पाई?
7 सालों तक चले इस सनसनीखेज तथा
हाई प्रोफाइल मामले में, जिसे आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा घोटाला कहा गया था, जांच
अवधि की बात करे तो 4 साल यूपीए सरकार के थे तथा 3 साल एनडीए सरकार के। बताइए, 7
सालों तक जांच चली, लंबी-चौड़ी चार्जशीट बनी, कई आरोप लगे, सबूतों के नाम पर खूब
हो-हल्ला हुआ, लेकिन अंजाम के वक्त कहा गया कि किसी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है!!!
मैट्रिक पास आदमी तक को हलक के नीचे नहीं उतरती यह बात। ऐसा कैसे हो सकता है कि
इतने बड़े घोटाले में किसी भी आरोपी के खिलाफ कोई सबूत ना मिले? किसी
एक सरकार के दौरान जांच की गई होती तो भी कुछ चीजें हलक से उतरती, लेकिन यहां दो-दो
सरकारें थी, जिसके नीचे सीबीआई ने काम किया था, लेकिन फिर भी कोई सबूत नहीं? देश
के सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में सीबीआई जैसी बड़ी संस्था ने काम किया था, वो भी
दो अलग-अलग सरकारों के दौर में, फिर ऐसा क्या हुआ कि पूरा पहाड़ खोदने पर चूहा तक
नहीं मिल पाया? एक ही सवाल हर किसी के मन में कौंधता रहा
कि ऐसा कैसे हो सकता है कि सीबीआई सात साल तक किसी के भी खिलाफ कोई सबूत पेश ना कर
पाए?
सीबीआई की विशेष अदालत, विशेष
अदालत के जज ओपी सैनी और उनकी वो तंज, व्यथा और कई सवालों को उजागर करने वाली
टिप्पणी, जिसमें उन्होंने फैसला देते वक्त कहा था कि, “मैं यह
भी जोड़ना चाहता हूं कि सभी कार्यदिवसों पर, जिसमें गर्मी की छुट्टियां भी शामिल है,
मैं ओपन कोर्ट में 10 से 5 बजे तक बैठता था। इंतज़ार करता था कि कोई ऐसा सबूत लेकर
आएगा जिसे कानूनी तौर पर स्वीकार किया जा सके। लेकिन कोई नहीं आया।” विशेष
अदालत के जज की टिप्पणी में वो लफ्ज़... “कोई आएगा...”, “कोई
नहीं आया...” ये वाकई अनगिनत सवालों को खड़ा करने का
मौका दे गए।
उन्होंने आगे कहा था कि, “इंतज़ार
करता रहा कि कोई शख्स कानूनन स्वीकार्य सबूत लेकर सामने आएगा, लेकिन सब व्यर्थ गया।
कोई भी सामने नहीं आया। इससे संकेत मिलता है कि हर कोई अफवाहों, गपशप और अटकलों
के आधार पर बनी सार्वजनिक धारणा के हिसाब से चल रहा है। बहरहाल, सार्वजनिक
धारणा का न्यायिक कार्यवाही में कोई स्थान नहीं होता।” सीबीआई
कोर्ट ने कहा कि, “किसी ने दूरसंचार मंत्रालय के किसी
वर्जन पर विश्वास नहीं किया। सभी ने इसमें एक बड़ा घोटाला देखा, जबकि ऐसा हुआ ही
नहीं था। आरोपियों के खिलाफ दलीलों को साबित करने वाले पुख्ता सबूत नहीं और
अधिकारियों की समझदारी सवालों के घेरे में है। उनको कई चीजों के अर्थ तक मालूम
नहीं थे।”
अब तो हालात यह है कि इससे पहले “2जी
घोटाला” लिखा जाता था, जबकि अब “2जी का
कथित घोटाला” लिखना पड़ रहा है। “घोटाले” से “कथित
घोटाले” तक का ये सफर किसने तय करवाया यही मूल सवाल है। उस
दौर को जिसने देखा होगा, राजनीतिक तू तू मैं मैं का वो मंजर, टेलीविजन चैनलों पर
डिबेट में राजनीतिक दलों और उनके प्रवक्ताओं का वो शोरगुल, प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक में बड़े बड़े हेडलाइंस, कथित घोटाले का वो लंबा.... सा...
आंकड़ा, आंदोलनों और विरोध-प्रदर्शनों का वो दौर, नुक्कड़-नुक्कड़ पर, हर गली कूचे में
यही चीज़ चलती थी। आज जब उस घोटाले के सभी आरोपी बरी हो गए तब कुछ लोग सीबीआई का
नया नामकरण करते हैं। सीबीआई में सी, बी और आई को मिलाकर उस संस्था को “### बनाने
की इंडस्ट्री” करार देते हैं। मुझे तब भी अजीब लगता है कि यह इंडस्ट्री सीबीआई है या हमारे राजनीतिक दल? क्या उस दौर
में जिस तरह से मूल मुद्दे को छोड़कर अलग रास्ते पर सारा जमघट चल पड़ा था, आज भी ऐसा
ही है? कैग या सीबीआई के नाम बदलने की ये चेष्टा तो कुछ
कुछ ऐसी ही लग रही है।
जज सैनी की वो टीप्पणी... कोई
आएगा... कोई नहीं आया... इंडस्ट्री क्या है उसे समझने का मौका देती है, गर चाहे
तो। ये भी सच है कि कैग और सीबीआई पर सवाल उठने लाजमी है। लेकिन मूल चीज़, जो
इंडस्ट्री के सही नामकरण के बारे में तथा किसी जज की उम्मीद और निराशा के बारे में
कही, उस पर चले बगैर आगे की सड़क कितनी सही होगी या कितनी गलत, यह भी सोचने का विषय
है।
खैर, लेकिन घोटाला हुआ था या नहीं ये सवाल हर किसी के दिमाग में था। कोई वो बाहर नहीं ला रहा था, तो कोई अतिउत्साहित
था। लेकिन ‘अतिउत्साह’ और ‘शर्मिंदगी’ के
बीच वो मूल सवाल फिर एक बार छूट रहा था। अनाप-शनाप सर्वे का खेल रचने वाला मीडिया
इस बार भी किसी खबर को ब्रह्मवाक्य मानकर आगे चला जा रहा था। जबकि उसका काम तो हर
ब्रह्मवाक्य को अपने सोर्स और अपने पैमाने से परखना होता है। कैग जैसी संस्था ने
अपनी एक प्रतिष्ठा कायम की थी, उसका अपना एक रुतबा था, जो दूसरी संस्थाओं से कहीं ऊपर था। घोटाला हुआ था या नहीं, उसके बाद या उसके साथ साथ, सवाल यह भी उठा कि 1 लाख
76 हज़ार करोड़ का कैग का आकलन पूरा का पूरा गलत कैसे हो सकता है? क्या
उसमें थोड़ी भी सच्चाई नहीं थी? अगर हा तो फिर फैसला ऐसा क्यों? और
अगर नहीं तो फिर दूसरे सवाल ज्यादा थे।
मामले में पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए
राजा, पूर्व डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि, कनिमोझी
की मां और करुणानिधि की पत्नी दयालु अम्मा, पूर्व दूरसंचार
सचिव सिद्धार्थ बेहुरा, ए राजा के पूर्व निजी सचिव आरके चंदोलिया, शाहिद बलवा, सुरेंद्र
पिपरा, हरि नायर, गौतम दोशी, विनोद गोयनका, आसिफ बलवा, राजीव अग्रवाल, करीम मोरानी, शरद कुमार, संजय चंद्रा
जैसे बड़े बड़े नाम शामिल थे और ये सबके सब बरी हो गए।
1 लाख 76 हज़ार करोड़ का आंकड़ा कैग
की रिपोर्ट में था। दूसरे अन्य आंकड़े भी थे। कैग ने नुकसान की चार तरह से गिनती की थी।
67,364 करोड़, 69,626 करोड़, 57,666 करोड़ और चौथा आकलन था 1 लाख 76 हज़ार 645 करोड़ का।
सारा झमेला इसी रिपोर्ट के आधार पर सामने आया था। ठीक उसके विपरीत, अप्रैल 2011 में
सीबीआई ने जब राजा के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया तब कहा था कि सरकारी खजाने को 30,984
करोड़ का नुकसान हुआ था। बताइए, कुल मिलाकर पांच आंकड़े, लेकिन कोई भी एक दूसरे के
करीब नहीं था। ये ठीक है कि इस मामले को महज आंकड़े के नजरिये से नहीं देखा जाना
चाहिए था। मीडिया और हमारे नेताओं ने आंकड़े का इस्तेमाल ज्यादा करके क्या खोया क्या
पाया इसकी चर्चा कुछ देर साइड में रख दीजिए। क्योंकि उस दौर में टूजी घोटाले का बड़ा
आंकड़ा ही मीडिया के जरिये लोगों के दिमागों को सुन्न किए जा रहा था। लेकिन कैग ने
आकंड़ों का आकलन करके यह भी लिखा था कि, “यह सही है कि टूजी
स्पेक्ट्रम के बंटवारे में सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा मगर कितना नुकसान पहुंचा, इस पर बहस हो सकती
है।”
कैग ने आंकड़े दिए, आकलन दिए और
बहस की बात भी की!!! यह चालाकी थी या कोई सामान्य सी
प्रक्रिया थी या कुछ असामान्य था इस पर बात करने में मुझे परहेज नहीं है। लेकिन पहला
सवाल यही कि कैग ने साफ कहा था कि कितना नुकसान पहुंचा इस पर बहस हो सकती है।
बताइए, मीडिया, राजनेता, राजनीतिक दल, सोशल मीडिया या अखबारों के लंबे लंबे
आर्टिकल, बहस उस पर ज्यादा नहीं हुई, बल्कि उस मोटे आंकड़े के ऊपर हुई। बहस का रूप
भी ऐसा था जिसमें मीडिया ने सुनी-सुनाई बातों को ब्रह्मवाक्य मानकर छापना मुनासिब
समझा, नेताओं ने अपने तरीके से राजनीतिक फायदा उठाया, सत्ता दल भी कुछ तो दोषित रहा
होगा जिसने अपनी निर्दोषता के लिए कोई ठोस सामाजिक या राजनीतिक सड़कों वाले प्रयास
भी नहीं किए। कुल मिलाकर, 7 सालों की बहस इतनी घटिया निकली कि नतीजा यही आया कि कोई
सबूत नहीं है, सभी बाइज्जत बरी!!!
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक
रिपोर्ट थी। उसने कहा था कि 2011 में 2005 के मुकाबले टेलीविजन पर भ्रष्टाचार के
मामलों का कवरेज 11 गुना बढ़ गया था। यूं कहे कि पहले से बदनाम मीडिया अचानक ही देश
से भ्रष्टाचार हटाने पर आमादा हो चुका था। ऐसा क्यों यह मुझे नहीं पता। लेकिन फिर न
जाने क्या हुआ कि मीडिया ने भ्रष्टाचार को करीब करीब जीरो पर्सेंट जगह दी और उसका
मुद्दा बदल गया। जैसे कि मीडिया ने अपनी भ्रष्टाचार हटाओ मुहिम बदल दी। फिर तो ना
घोटालों पर बात हुई, ना आंदोलनों पर, ना लोकपाल पर और ना ही भ्रष्टाचार विरोधी
कानूनों, मुहिम या समितियों पर!!!
इतनी बड़ी और ऐतिहासिक माथापच्ची
के बाद अदालती फैसले को देखे तो... जैसे कि उन दिनों आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा
घोटाला हुआ था, बहुत बड़ा आंकड़ा था, मीडिया से लेकर तमाम राजनीतिक पार्टियां देश को
बचाने के लिए मैदान में उतर चुके थे, लेकिन साला... कोई जज के पास जाकर यही बताना भूल गया कि इतना बड़ा घोटाला हुआ है!!!
विनोद राय, जो हीरो बनकर उभरे
थे, वे फैसले के बाद चुप दिखे। आगे वे कुछ कहते हैं तो बात और है। बाइज्जत बरी
होने वाले ए राजा ने कहा कि वो इसे लेकर किताब लिखेंगे, जो राजनीति में भूचाल ला
देगा। अरे भाई, इतना भूचाल क्या कम था कि अब किताब की कहानियों का बोझ डालना है।
हजारों पन्नों की चार्जशीट के बाद सीबीआई, यूपीए और एनडीए, सभी को अपनी अपनी किताबें लिखनी चाहिए। क्योंकि अदालती मामलों में इतना बड़ा शॉक झेलने के बाद लोगों को अब
किताबों में बिजी रखना ज्यादा अच्छा है।
विनोद राय, जिन्होंने यूपीए-2
सरकार के एक के बाद एक घोटाले देश के सामने रखे और कांग्रेस को इतिहास का सबसे
बुरा दौर दिखा दिया। अपने यशस्वी कार्यों के लिए उन्हें पद्मभूषण दिया गया, बैंक
बोर्ड ब्यूरो का चेयरमैन बनाया गया, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बीसीसीआई की प्रशासकीय
समिति में भी रखा। क्या विनोद राय की 2जी को लेकर रिपोर्ट गलत थी? या
फिर रिपोर्ट सही थी लेकिन उसको सरकारें या जांच संस्थाएँ सही अंजाम तक नहीं पहुंचा
पायी थी? सवालों के जवाब शायद ही मिल पाए।
फर्स्ट पोस्ट में उस समय सीएजी
के अध्यक्ष रहे विनोद राय का एक इंटरव्यू छपा था। उस वक्त उनकी किताब आई थी। उनसे 1
लाख 76 हज़ार करोड़ की गिनती के बारे में पूछा गया कि आप इस पर कैसे पहुंचे, तो उनका
जवाब था कि, “हमारा तर्क सरल है। 2008 में नीति थी पहले आओ पहले पाओ।
आप को मिला X राशि,
2010 में आपने ही नीति बदल कर नीलामी ले आए और आपको मिली Y राशि। और Y में से X घटाने पर होता है
1.76 लाख करोड़। हमने बस इतना किया और कुछ नहीं। हमने तीन और आंकड़े भी दिए थे लेकिन
पब्लिक इमेजिनेशन ने 1.76 लाख करोड़ पकड़ा। हां यह बड़ी रकम थी।”
एक्स और वाय वाला सीधा सा जवाब रफाल के कथित घोटाले में भी लागू किया जा रहा है। नीति बदल देना, आंकड़े का बढ़ जाना, रफाल में भी इसी सड़क पर एक निश्चित या मर्यादित इमेजिनेशन बन रहा है। लेकिन ये सब कुछ उसी पब्लिक इमेजिनेशन में हो रहा है। बहरहाल हम टूजी पर डटे रहते हैं। विनोद राय का टूजी के मामले में यह जवाब कैग की साख
पर भी सवाल उठाता है। वो जवाब के आखिर में कहते हैं कि बड़ी रकम थी। लेकिन आंकड़ों में
एक्स और वाय जैसे उदाहरण देते हैं!!! क्या गजब का जवाब है यह। क्या उन्होंने
हिसाब इस तरीके से लगाया था कि जवाब में एक्स और वाय को लाना ज़रूरी हो जाए? एक्स
और वाय वाले पुलाव के बाद वो यह भी कहते हैं कि यह बड़ी रकम थी। तो फिर इतनी बड़ी रकम
के बाद भी सीबीआई के पास कोई सबूत नहीं और कोई आरोपी भी नहीं!!!
वैसे बाद में ए राजा ने अपनी
पुस्तक का विमोचन भी किया और विनोद राय सरीखी व्यक्ति पर बड़े गंभीर आरोप भी लगाए।
अपने पुस्तक के विमोचन के मौके पर राजा ने विनोद राय को ‘भाड़े का हत्यारा’ करार दिया और कहा
कि, “विनोद राय को शक्ति के दुरुपयोग तथा देश के साथ धोखाधड़ी
के लिए सजा मिलनी चाहिए। वह भाड़े के हत्यारे थे। उनके कंधे का इस्तेमाल यूपीए-2 सरकार
को खत्म करने के लिए किया गया।” ए राजा ने जब ये इल्ज़ाम लगाए, ठीक उसी
दिनों भारत के दिग्गज पद्मश्री इतिहासकारों
में से एक और करीब चार महीने तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित सीसीआई के क्रिकेट प्रशासकीय
कमेटी (सीएसी) का हिस्सा रहे लेखक रामचंद्र गुहा ने भी विनोद राय पर एक दूसरे
मामले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि, “सीएसी के चेयरमैन विनोद राय ने विराट कोहली के व्यक्तित्व के
आगे अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को समर्पित कर दिया।” उन्होंने कहा था कि विनोद
राय समेत बड़े बड़े लोग विराट कोहली से घबरा गए और संस्था को व्यक्ति विशेष के अधीन
कर दिया। वैसे गुहा की टिप्पणी खेल की दुनिया को लेकर थी।
विनोद
राय पर चौतरफा हमले हुए, और उन्होंने एक छोटी सी प्रतिक्रिया दी। राय ने कहा कि, “मैंने किसी
से भी बात नहीं की और इसके पीछे बहुत सारे कारण थे।” उनकी यह छोटी
सी प्रतिक्रिया टूजी के बड़े आंकड़े के सामने कितनी बड़ी थी यह पता ही नहीं चल पाया।
क्या
सीबीआई ने कैग जैसी संस्था की साख दाव पर लगा दी थी? जिस कैग पर कोई टिप्पणियां नहीं होती थी उस पर अब सवाल क्यों उठ रहे थे? अपने कार्यों से लोगों के मन में खास जगह बनाने वाले विनोद राय
हमलों के बाद भी कैग की साख को लेकर चुप क्यों थे? या फिर राजनीति के दांवपेचों ने
संस्था की ऐसी तैसी कर दी थी? किसी को पता नहीं है कि आखिर क्या हुआ।
यह सच है कि कैग ने केवल 1 लाख
76 हज़ार करोड़ वाला आंकड़ा नहीं दिया था। उसने दो-तीन आंकड़े और दिए थे। लेकिन आप
देखेंगे तो सारे के सारे आंकड़े महाघोटाले की तरफ ही ले जा रहे थे। लेकिन फिर भी
कोई सबूत नहीं, सारे आरोपी बरी!!! ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसकी वजह से
हुआ, दो अलग-अलग सरकारें और फिर भी कोई भी जांच संस्था एक भी सबूत कैसे पेश नहीं कर
पाई, न जाने कितने कितने सवाल थे। क्या उस वक्त कैग ने गलत रिपोर्ट पेश कर दी थी? क्या
कैग अपने आकलन में चूक गई थी? कैग जैसी संस्था ऐसे आकलन में गलती कैसे
कर सकती है? कैग चूक तो नहीं कर सकती, तो फिर क्या हुआ? क्या
ये चूक थी, गलती थी या कैग का रिपोर्ट सही था, लेकिन घोटाले की जांच में ही बड़ा
घोटाला हो गया था? दो अलग-अलग सरकारों के बावजूद ऐसा कैसे हो सकता है?
फैसले के बाद कई लेखों में कथित
विश्लेषक अब नयी वजह बताते दिखे कि कैग ने अपनी रिपोर्ट में कई सारे आंकड़े दिखाए
थे और एक से अधिक आकलन किए थे। लेकिन एक बड़े आंकड़े को कुछ यूं पेश किया गया कि
पूरी कथा उलट गई। फैसला आने के बाद मीडिया नया विश्लेषण पेश करता दिखा!!! जबकि उसे
अपनी ये पत्रकारिता उस दौर में कर लेनी चाहिए थी जब वे लोग पैनलों पर ‘मुर्गों
की लड़ाई’ को पूरा दिन दिखाते रहते थे। ये वो दौर था जब
मीडिया ने ही 1 लाख 76 हज़ार करोड़ वाला आंकड़ा खूब पकड़ा, हेडलाइन में खूब दिखाया और
उनके उस दौर के विश्लेषण कैग रिपोर्ट को लेकर कम, बल्कि इस आंकड़े को लेकर ज्यादा
होते थे। किसी कल्पना कथा सरीखी रिपोर्ट में उस दौर में यही चलता था कि इतने सारे
पैसों से भारत का कितना भला हो सकता था, कितने गरीबों को घर, खाना वगैरह मिल सकता
था, इतने स्कूल बनाए जा सकते थे...। अदालत का यह फैसला मीडिया की गधापंथी को
उजागर करता था, जबकि आज मीडिया कैग रिपोर्ट के पहलूओं को विश्लेषित करने में लगा था! जो काम पहले करना चाहिए था, मीडिया 7 साल बाद कर रहा था!!! बताइए,
इसे मीडिया कहे या गुजराती भाषा में राडिया? स्पष्ट हो कि
गुजराती भाषा के अनुसार राडिया का मतलब होता है हर चीज़ पर कुछ भी सोचे बिना, कुछ
भी समझे बिना, जांचे बिना... सदैव चिल्लाने वाला एक बददिमाग इंसान।
कैग की उस रिपोर्ट के बारे में किसी
के पास कोई जवाब नहीं था। ना यूपीए सरकार के पास, ना एनडीए सरकार के पास, ना सीबीआई
के पास और ना ही स्वयं विनोद राय के पास। भारत की वो एकमात्र विश्वसनीय संस्था, जो
तमाम सरकारों की नीतियां और योजनाओं की कमियां देश के सामने रखती है, उस रिपोर्ट का ऐसा हाल क्यों हुआ? 1,552 पन्नों का फैसला, लेकिन आरोपी एक
भी नहीं???!!! विश्वास नहीं होता कि इस देश ने 7 सालों
तक जो देखा वो महज एक काल्पनिक कथा थी या फिर कोई हकीकत थी?
2जी का दौर वो दौर था जिसने न
केवल राजनीतिक इतिहास को, सरकार को, बल्कि मीडिया तक को बदल दिया था। आंदोलनों का
वो दौर चला जिसके चलते केंद्र में एक सरकार बेआबरू होकर चली गई। ये वो दौर था जब
ऐंकरों का खुद ही जज बनना जमकर शुरू हुआ। पहले से शुरू हुआ होगा, लेकिन इस दौर में
जमकर उस दिशा में विकास हुआ था। एंकर सवाल पूछने लगे थे, मीडिया डिबेट करवाने लगा,
अखबारों में इसके अलावा कुछ और था ही नहीं। मीडिया ने जितनी मेहनत की थी, उतनी तो
शायद सीबीआई ने भी नहीं की होगी!!! लेकिन आज मीडिया भी सवालों के घेरे में है। उसकी
कार्यशैली, एंकरों के वो मुर्गे की लड़ाई सरीखे डिबेट, पैनलों पर एंकरों से लेकर
पार्टी प्रवक्ताओं का चिल्लाना... एक फैसले ने सारी कथा को पटकथा बना दिया।
सीबीआई के बारे में कोर्ट की टिप्पणी
दिलचस्प है। जज ओपी सैनी ने लिखा कि, “सीबीआई ने इस केस
की बड़ी अच्छी कोरीयोग्राफी की। ऐसा कोई रिकॉर्ड या सबूत नहीं जिससे अपराध साबित होता
हो। आरोप पत्र में आधिकारिक दस्तावेज़ों की गलत और संदर्भ से हट कर व्याख्या की गई है।
गवाहों की मौखिक गवाही के आधार पर आरोपपत्र दायर किया गया। जबकि कोर्ट में गवाहों ने
यह सब नहीं कहा। आरोप पत्र में कई तथ्य ग़लत हैं। अभियोजन पक्ष आरोप पत्र साबित करने
में नाकाम रहा।” सोचिए, अदालत में एक जज बाकायदा सीबीआई के तरीके को 'कोरीयोग्राफी', यानी कि आम भाषा में नौटंकी, कहता है।
जज सैनी ने फैसला लिखते वक्त
कहा कि एक भी व्यक्ति सबूत लेकर नहीं आया। ये टिप्पणी उन सभी की तरफ भी इशारा है जो
उस लंबे दौर में बड़े बड़े लेख, दावे, आंकड़े और तथ्यों को सजा-धजा कर पेश किया करते
थे। ना ही सीबीआई सबूत लेकर आई, ना उसे किसीने सबूत दिए, ना सरकारों ने, ना
विभागों ने, ना अन्य जांच संस्थाओं ने, ना मीडिया ने, ना खोजी पत्रकारों ने... किसी
ने नहीं! और आखिरकार जज ने लिखा कि कोई भी सबूत लेकर नहीं आया, जबकि वो सालों तक हर
दिन इंतज़ार करते रहे। गर कोई सबूत ही नहीं था, तो फिर क्या ये सारा इतिहास घारणाओं
पर आधारित था? गर हा... तो फिर ये नागरिकों से लेकर समूचे भारत की
व्यवस्थाओं पर जन्नाटेदार थप्पड़ है। और अगर ना... तो फिर एक भी व्यक्ति सबूत लेकर
क्यों नहीं पहुंचा? क्या अफवाह, अटकलें और धारणाओं के इर्द गिर्द ही भारत
विश्वगुरु बनने का सपना देखता है?
उस मामले ने भारत के टेलीकॉम इतिहास को भी बदल दिया, मीडिया के चरित्र को भी। लेकिन एक फैसले ने तमाम के
(राजनेता, उनके राजनीतिक दल, मीडिया, संस्थाएँ और नागरिक) चरित्र को सरेआम खुला
करके रख दिया है।
अदालत के इस फैसले ने 2010 से
2014 के उस इतिहास को ही झूठा इतिहास साबित कर दिया। सबके सब सवालों के कटघरे में
खड़े थे। अदालत ने कहा सबूतों के अभाव में अपना फैसला सुनाया। लेकिन भारत में घोटालों का अपना एक नागरिकी इतिहास रहा है। वो इतिहास यह है कि यहां घोटालों के अदालती
फैसलों का इंतज़ार किसी को नहीं होता, क्योंकि उन्हें यकीन होता है कि घोटाले यकीनन
किए ही गए होंगे! इसी नागरिकी इतिहास की मेहरबानी से
घोटाला नहीं हुआ था ये बात आसानी से हलक के नीचे नहीं उतरती। हां, कांग्रेसी समर्थकों की बात और है। यूं कह लीजिए कि समर्थकों की बात ही और होती है। चाहे वो किसी भी दल
के हो। समर्थकों के बारे में तो एक ही राय है कि फेंकने में कोई ऑस्कर मिलता होता तो
हमारा एकाध नेता ज़रूर ले आता, जबकि दोगलेबाजी के सम्मान पर गृहयुद्ध ही छिड़ जाता!!!
लेकिन किसी पार्टी के चश्मे से
नहीं बल्कि आम नागरिक के रूप में सोचे तो सब के सब कटघरे में खड़े थे। कैग, सीबीआई, सीवीसी,
यूपीए, एनडीए, भारत का मीडिया... तमाम एक ही लाइन में खड़े दिखाई दिए। कोई सबूत
नहीं, कोई आरोपी नहीं, तो इतना बड़ा घोटाला कैसे हुआ? फैसले के बाद
कांग्रेस कहती है कि देखिए घोटाला हुआ ही नहीं था, भाजपा कहती है कि इसे
सर्टिफिकेट ना समझे करप्ट प्रैक्टिस ज़रूर हुई थी, मीडिया अपनी पुरानी गधापंथियों पर बात करने के बजाय कही और लड़ रहा है, सीबीआई कहती है कि हम अपील करेंगे, कैग के वो
मुखिया चुप है। देखा जाए तो फैसले के बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों करीब करीब चुप
ही है। थोड़ा-बहुत जो हो रहा है या होगा वो राजनीतिक वाली मुर्गे की लड़ाई होगी,
जिसमें डिबेट में ना कोई सवालों को सुनेगा, ना जवाबों को!
सीबीआई सरकारों की कठपुतली है
वाली थ्योरी खूब चलती है। हर दल के समर्थक और नेता इसे सच मानते हैं, बशर्ते वो
विपक्ष में हो तब!!! अगर सीबीआई सरकारों की कठपुतली है तो फिर दो-दो सरकारों के सत्ता में
होने के बावजूद सीबीआई का बम फूस कैसे हो गया होगा? यह सवाल वाकई
टटोलने लायक विषय है। सीबीआई ने पूर्व सरकार के दौरान भी केस कमजोर किया, तो क्या
नयी सरकार के दौरान भी केस कमजोर हो गया? पुरानी सरकार
तो इतना बड़ा जोखिम ले सकती थी, क्योंकि उनके नेता और उनकी छवि दांव पर लगी थी,
लेकिन नयी सरकार ने क्या इतना बड़ा जोखिम सचमुच लिया होगा और क्यों लिया होगा? यूपीए
के दौरान उनकी सरकार ने सीबीआई को तोते की तरह इस्तेमाल किया होगा, लेकिन पिछले 3
साल से इस कथित तोते का इस्तेमाल किसने किया होगा? अब इस्तेमाल
वाली बात राजनीतिक दलों को या उनके समर्थकों को ठीक से ना करनी हो तो उसे छोड़ देते
हैं। कदम तो वहीं पर रुक जाते हैं कि आखिरकार ये सब था क्या?
फैसले के बाद कांग्रेस और
भाजपा, दोनों एकदूजे के ऊपर वार किए जा रहे थे। लेकिन दोनों में से कोई भी ठोस बातें नहीं कर रहे थे, बल्कि ‘मुर्गे वाली लड़ाई’ का
सीन रिपीट ही हो रहा था। कोर्ट के फैसले को भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम
स्वामी ने एक बुरा फैसला करार दिया। उन्होंने कहा कि, “फैसले
के खिलाफ ऊपरी कोर्ट में अपील की जानी चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई में
सही वकील नहीं चुने गए। यही नहीं केस को गंभीरता से नहीं लड़ा गया।”
स्वामी ने ही केस में जनहित याचिका दायर की थी जिसकी जांच सीबीआई को सौंपी गई थी।
इससे पहले वित्त मंत्री अरुण
जेटली ने फैसले पर सरकार का पक्ष रखा। उन्होंने कहा कि, “टूजी
आबंटन में गड़बड़ी हुई है, कोर्ट के फैसले को सर्टिफिकेट न समझें। कोर्ट ने भी नीलामी
की प्रक्रिया को गलत माना है।” उन्होंने कहा कि, “बिना
नीलामी के स्पेक्ट्रम के लाइसेंस दिए गए। हमने नीलामी की तो ज्यादा पैसे मिले।
2008 में 2001 की दर से लाइसेंस दिए गए।”
बताइए, आम नागरिक के नजरिये से
ये भी अजीब था। अदालत ने कहा कि कोई सबूत नहीं है, लिहाजा सभी को बरी किया जाता है। ऐसे में सवाल तो दोनों सरकारों पर उठ रहे थे कि दोनों अब तक कौन से बागीचे में घूम
रहे होंगे? ऐसे में अरुण जेटली कहते हैं कि इस फैसले को
सर्टिफिकेट ना समझे। तो क्या समझे जेटलीजी? तो क्या आप
जैसे नेता (चाहे भाजपा के हो या फिर कांग्रेसी हो) के बयानों को ये देश सर्टिफिकेट
समझे? क्या आम नागरिक न्यायालय के फैसलों को महज हवाबाजी
माने और आप नेताओं के बयानों को ही ब्रह्मवाक्य मान लिया जाए? पिछले
3 सालों से आप सत्ता में थे तो फिर आज सर्टिफिकेट पर ज्ञान बांटने के बजाय एकाध ठोस
सबूत का इंतज़ाम भी कर लेते। कांग्रेस वालों को तो क्या कहे, क्योंकि जो कुछ कहना था
उन्हें उस दौर में कह चुके थे। अब तो नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली थी।
बहुत कम बोलने वाले मनमोहन सिंह
ने कहा कि, “टूजी मामले में खराब नियत से आरोप लगाए गए थे। यह
सारा आरोप राजनीतिक प्रोपेगेंडा और यूपीए सरकार को बदनाम करने की साजिश थी।”
अब मनमोहन सिंह से तथा कांग्रेस
से सवाल पूछा जा सकता है कि क्या महज एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा के चलते इतनी सारी
कानूनी माथापच्ची हो सकती है? क्या महज बदनाम करने की साजिश से इतने
बड़े मंत्रियों व उद्योगपतियों को सालों तक जेल में ठूंसा जा सकता है? ठीक
है कि सबूतों के अभाव में कोर्ट ने फैसला सुनाया था। वो इसे भाजपा का खेल बता रहे
थे और उस खेल को झूठा भी बता रहे थे, लेकिन आम नागिरक के रूप में शायद सभी को पता
है कि अदालती प्रक्रिया किन अंदरुनी खेलों के चलते फैसले को बनाती या बिगाड़ती है।
कांग्रेस को लगे हाथ साफ कर लेना चाहिए कि ये सारा खेल झूठा था तो फिर झूठ की
बुनियाद पर यहां बड़े बड़े मंत्री और उद्योगपतियों को इतनी आसानी से जेल के भीतर कैसे
रखा जा सकता है? अमित शाह गुजरात के गृहमंत्री थे। यूपीए के दौर में
एक राज्य के गृहमंत्री तक को सीबीआई ने उठा लिया था। फिर वो बरी हो गए। सीबीआई ने
कहा कि अपील करेंगे। बरी होने के 3 साल बाद भी सीबीआई अपील करना गलती से भूल गई
होगी! लेकिन क्या अमित शाह बरी हो गए तो ये
कांग्रेस का महज झूठा खेल था? क्या एक सूबे के गृहमंत्री सरीखे आदमी
को बिना किसी वजह के तड़ीपार तक किया जा सकता था? कुछ दूसरी
चीजें मैंने मिला दी इसमें। लेकिन सारी चीजें देखे तो... ताली एक हाथ से नहीं बजती यह मैट्रिक पास तक आदमी को पता होता है। घोटाले का फैसला कांग्रेस के लिए छाती
फूलाने का अवसर ज़रूर था, बिलकुल वैसे जैसे सोहराबुद्दीन को लेकर अमित शाह के पक्ष
में दिए गए फैसले के वक्त था। लेकिन फिर तो मूल सवाल यही है कि क्या इस देश में
इतनी आसानी से इतने बड़े बड़े महाभारत खड़े किए जा सकते हैं? क्या
ये सब इतना आसान है? यानी कि क्या ताली एक हाथ से बज सकती है??? भाजपा
और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास इसके सीधे, सटीक और सही के करीब
उत्तर हो यह नामुमकिन सी चीज़ है।
इस फैसले के बाद तत्कालीन एनडीए
सरकार के पूर्व सॉलिसिटर जनरल मुकुल रोहतगी का बयान आया था। मुकुल रोहतगी ने कहा था
कि, “आप जिस भी तरह से देखिए, आपराधिक
मामला नहीं बनता है। 1 लाख 76 हज़ार करोड़ के नुकसान का जो बवंडर पैदा किया गया वह सही
नहीं है।” इस पर भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने
कहा कि, “मैंने पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अटॉर्नी जनरल
के पद पर उनकी नियुक्ति का विरोध किया था क्योंकि वह आरोपी कंपनियों के लिए पेश हो
चुके थे।” स्वामी के इस आरोप पर रोहतगी ने पलटवार करते हुए कहा
कि, “झूठे और निराधार आरोप लगाना सुब्रमण्यम स्वामी की पुरानी
आदत है। मैं 2012 में इन आरोपी कंपनियों से जुड़े लोगों के लिए पेश हुआ था, लेकिन जब
में अटॉर्नी जनरल बना तो उसके बाद से मेरा इस केस से कोई लेना-देना नहीं। इस तरह के
निजी आरोप लगाना अर्थहीन है।”
सीबीआई के पूर्व निदेशक तथा टूजी
स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच करने वाले दल के प्रमुख रहे एपी सिंह ने कहा, “मैं इस
फैसले को नहीं समझ पा रहा हूं।” कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीसी चाको ने 22
दिसम्बर 2017 को दावा किया कि भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह ने टूजी
मामले में जेपीसी की जांच बंद करने का सुझाव दिया था। उन्होंने कहा कि, “जसवंत एक
प्रख्यात राजनेता हैं। संसदीय समिति के पूर्व सीएजी विनोद राय समेत कई लोगों से पूछताछ
करने के बाद सिंह ने मुझसे कहा, आप प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह) से इस जांच को बंद करने के लिए
क्यों नहीं कहते। भारत में जो कुछ हुआ है, वह टेलीकॉम क्रांति है।”
इससे पहले सीबीआई अदालत में ए
राजा को झूठा बता चुकी थी और दावा कर चुकी थी कि राजा ने मनमोहन सिंह को गुमराह
किया था। पूर्व ट्राई चेयरमैन प्रदीप बैजल पर भी घोटाले का आरोप लगा था। बैजल ने
अपनी किताब में दावा किया था कि मनमोहन सिंह को 2जी के घोटाले के बारे में पता था। उन्होंने
तो अपनी किताब में बड़े सनसनीखेज आरोप लगाए थे। बताइए, उन पर आरोप लगा था, उन्होंने
किताब में दावे किए, लेकिन 7 सालों तक अदालत में कुछ भी पेश नहीं किया!
कुल मिलाकर, इन सालों में न जाने
क्या क्या हुआ, कानूनी नजरिया, नैतिकता का नजरिया, सामाजिक नजरिया, मीडिया की
दुनिया, राजनीतिक दुनिया, आंदोलनों का दौर... आजाद हिंदुस्तान के महाघोटाले ने सब
कुछ बदल के रख दिया। लेकिन अंजाम तो देखिए, एक फैसले ने इन सब चीजों को एक ही
झटके में बदल कर रख दिया था!!!
सीबीआई ने टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन
घोटाला मामले को हाई प्रोफाइल बताया लेकिन यह दलील विशेष सीबीआई अदालत को प्रभावित
नहीं कर पाई। अदालत ने कहा कि, “किसी केस की प्रकृति
के आधार पर बिना साक्ष्य किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।” जज ओपी
सैनी ने फैसले में कहा कि, “केस के हाई प्रोफाइल होने व मीडिया में मचे
शोर का हवाला देकर स्पष्ट व ठोस साक्ष्य पेश करने की जिम्मेदारी से सीबीआई नहीं बच
सकती। किसी मामले में बड़ा घोटाला होने की बात केस की अंतिम जिरह में काम नहीं आती, उस समय केवल कानूनी
रूप से साक्ष्य की ज़रूरत होती है।” अजीब बात है
कि सीबीआई के पास हाई प्रोफाइल के अलावा कोई सबूत नहीं था और मीडिया तथा राजनीतिक
शोर के अलावा टूजी के कथित घोटाले का कोई तथ्य नहीं था!!!
यह फैसला, फैसले के पहले की
माथापच्ची, उस दौर की राजनीति, टेलीविजन चैनलों की कथाएं, बड़ी बड़ी जांच संस्थाओं की
जांच, उसे अदालत में कोरीयोग्राफी का नाम मिलना, 2010 से लेकर 2017 तक का इस मामले
से जुड़ा हर एक पहलू... बिना किसी राजनीतिक दल का चाटुकार बनकर सोचा जाए तो ये फैसला
वाकई एक सदमे के बराबर है। बरी होने के बाद कांग्रेस खेमे में उत्साह का माहौल था।
पूर्व पीएम मनमोहन सिंह से लेकर उनके तमाम नेता भाजपा पर आक्रामक होकर टूट पड़े थे। वे
इस पूरे मामले को भाजपा के द्वारा रचा गया राजनीतिक प्रपंच करार दे रहे थे। दूसरी
ओर, भाजपा कांग्रेस को नसीहत दे रही थी कि इस फैसले को सर्टिफिकेट ना समझे। ए
राजा आरोप लगा रहे थे कि यूपीए सरकार को गिराने के लिए एक प्लॉट रचा गया था,
जिसमें कैग, सीवीसी और सीबीआई जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल किया गया।
जैसे पहले लिखा वैसे, इतनी बड़ी
और ऐतिहासिक माथापच्ची के बाद अदालती फैसले को देखे तो... जैसे कि उन दिनों आजाद
हिंदुस्तान का सबसे बड़ा घोटाला हुआ था, बहुत बड़ा आंकड़ा था, मीडिया से लेकर तमाम
राजनीतिक पार्टियां देश को बचाने के लिए मैदान में उतर चुके थे, लेकिन साला... कोई
जज के पास जाकर ये बताना ही भूल गया कि इतना बड़ा घोटाला हुआ है!!! पांच
बड़े बड़े आंकड़े थे, जो हजारों-लाखों करोड़ के थे। आज देश को पता नहीं है कि इतना पैसा
कौन खा गया। कोई कहता है कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था। कोई कहता है कि कुछ तो हुआ था।
अदालत ने कहा था कि धारणाओं और मिथक को अदालत में जगह नहीं है, कानूनी तौर पर मान्य
हो ऐसे तथ्य चाहिए। सारे लोग देश बचाने में इतने ज्यादा बिजी हो गए थे... कि इन
तथ्यों या सबूतों का किसी को खयाल ही नहीं रहा था!!!
वैसे फैसले के बाद कांग्रेस,
भाजपा और मीडिया में कुछ दिनों तक उबाल रहा। लेकिन उस लंबे दौर की माथापच्ची को देखा
जाए तो यही कहा जा सकता है कि अदालती फैसले के बाद कांग्रेस, भाजपा और मीडिया,
तीनों जगहों पर अजीब सा सन्नाटा था, अजीब सी चुप्पी थी। सब शांत थे। कोई पिछले 7
सालों का सही हिसाब देने के लिए तैयार नहीं था। अजीब सी और अशांत सी शांति के पीछे
क्या था इसका जवाब शायद ही मिल पाए।
कुछ लोग इसका जवाब जनलोकपाल के
हालिया इतिहास में ढूंढ लेते हैं। क्या खूब दौर था वो, आजादी का दूसरा आंदोलन, दिल
दिया है जान भी देंगे ए वतन तेरे लिए, होठो पे गंगा हो हाथों में तिरंगा हो...
लेकिन आज लोकपाल तो क्या रामपाल जैसों का भी कुछ अधिक नहीं हुआ है!!! 2जी
के कथित घोटाले के बाद एक चीज़ ज़रूर बदली है। और वो यह कि अब कुछेक करोड़ के घपलों को
तवज्जो नहीं देते हैं लोग!!!
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 24
दिसम्बर 2017, एम वाला)
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