सरकार के समर्थक और सरकार के विरोधी, दोनों नाराज ना हो।
विरोधी नाराज दो वजहों से ना हो। पहली वजह तो यह कि इसमें बड़े यू टर्न को जगह मिली
है, छोटे-मोटे यू टर्न को नहीं। इसलिए छोटे-मोटे यू टर्न को स्पेस ना मिलने की वजह
से सरकार के विरोधी नाराज ना हो। विरोधी इसलिए भी नाराज ना हो, क्योंकि यू टर्न
की यह परंपरा नयी सरकार को पिछली सरकारों की ओर से ही मिली होगी। अब बात समर्थकों
की। समर्थक नाराज ना हो। सरकार विरोधियों को जो दो बातें कही, उसीके आधार पर वे
नाराज ना हो। मैंने सारे यू टर्न को जगह नहीं दी है, इस लिहाज से सरकारी समर्थक थोड़ा सा खुश हो लें। साथ में पिछली सरकारों की यू टर्न की परंपरा नयी सरकार अपना रही थी, इस
लिहाज से मन मना लें कि पहले भी हुआ करता था, नया क्या है। लिहाजा हम सीधे उन
बिगेस्ट यू टर्न की ओर ही चलेंगे।
दूसरी बात यह कि यू टर्न हर सरकारें लेती हैं, लिहाजा विशिष्ट
समर्थक मन मना ले कि यह सभी करते हैं। इन्हीं के यू टर्न की बात क्यों ऐसा सवाल ना
पूछे, क्योंकि सरकार जिसकी होती है बात उसी की होती है। आगे किसी और की सरकार होगी तो
उनके यू टर्न की बात होगी, इनकी नहीं होगी। वैसे तार्किक या अन्य दृष्टिकोण की बात और है, लेकिन कायदे से आप इसे यू टर्न साबित भी नहीं कर पाएंगे!!! क्योंकि भाजपा
हो या कांग्रेस हो या कोई और हो, हमारे यहां नेता अपने बयान इस तरह देते हैं कि इसके
कई हिस्से होते हैं। अब होता यह है कि कई हिस्से वाले बयान में से किसी खास हिस्से
को अपने ही समर्थकों या सरकार के विरोधियों तक पहुंचाया जाता है। उस हिस्से पर ही
सारी चर्चा होती है, विरोध होता है या कुछ और होता है। सालों बाद जब उनसे आप पूछ
ले कि आपने तो ये ये कहा था तो फिर सबसे पहले आप उनका पुराना बयान पूरा पढ़ कर या
जान कर पूछे। क्योंकि राजनीतिक बयान और उसके खास हिस्से को काटना या चमकाना बड़ी
पुरानी और गहरी प्रक्रिया है, जिससे सतही चीजों को हमेशा सतह पर ही रखा जाता है।
इसे एक उदाहरण से देखे तो... मसलन आप जीएसटी को ले लीजिए।
जीएसटी के बारे में नरेन्द्र मोदी या भाजपा ने या अन्य नेताओं ने अनेकों अनेक बयान
दिए। लेकिन उनके बड़े नेताओं के बयान या बड़े मंच से दिए गए बयान ही आपको मिलेंगे,
अनेकों अनेक मुश्किल से मिल जाए या ना भी मिले। अब इसमें पेंच यह होता है कि बड़े नेताओं के बयान या बड़े मंच से बयान मिले तब भी वो एकाध नहीं बल्कि अनेकों अनेक होंगे।
किसी बयान में पूरी चीज़, किसी में आधी-अधूरी तो किसी में कुछ और मिल जाएगा। लिहाजा
आप एक बयान का उल्लेख करेंगे तो सामने दूसरे बयान के सामने आते ही आपको मजबूरन
वापस लौटना पड़ेगा। इन शोर्ट, राजनीतिक बयानों की गहरी रणनीति यूं उलझी हुई होती है
कि आप खुद ही उलझ जाएंगे।
इस उदाहरण को समझे तो, नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के
मुख्यमंत्री के तौर पर कहा था कि, “जहां तक आर्थिक सुधार और जीएसटी का सवाल है, भारतीय जनता पार्टी
और गुजरात का रवैया प्रारंभ से ही साफ है। आज से एक वर्ष पूर्व श्रीमान प्रणब मुखर्जी जी, भारत के वित्त मंत्री उनके साथ मेरी मीटिंग गुजरात में हुई थी।
तब मैंने उनसे कहा था जब तक आप आईटी नेटवर्क खड़ा नहीं करते जीएसटी कभी सफल नहीं हो
सकता और मेरी बात को उन्होंने स्वीकार किया था और मेरी हाजिरी में ही उन्होंने प्रिंसिपल
सेक्रेटरी को सूचना दी थी कि एक स्पेशल टास्क फोर्स बनाया जाए और तत्काल आईटी व्यवस्था
का प्रबंध किया जाए तभी जाकर जीएसटी सफल हो सकता है।” अब इस बयान में भाजपा का विरोध जीएसटी को लेकर नहीं बल्कि
जीसएटी की कमजोर तैयारियों को लेकर था या बेसिक्स पर था।
लेकिन आप तो क्या, उनके समर्थक भी देख ले कि विपक्ष के तौर
पर उनका, उनके छोटे-मोटे नेताओं का, उनके समर्थकों का, कार्यकर्ताओं का हर मंच पर
विरोध जीएसटी को लेकर ही रहा। कभी लगा ही नहीं कि वे बेसिक नेटवर्क का विरोध कर रहे
थे। विरोध को पूरी तरह ऐसे गढ़ा गया कि आज भी आंख बंद करके हर कोई कह सकता हैं कि उस
वक्त उनका विरोध जीएसटी को लेकर ही था। जीएसटी को एक दानव के रूप में पेश किया गया।
अब जब वे खुद जीएसटी को पारित कर चुके हैं, आप उनसे सवाल कीजिए तो उनके पास पूरा
बयान मौजूद होगा और कहेंगे कि हमारा विरोध जीएसटी को लेकर नहीं बल्कि बेसिक्स को
लेकर था। भले पूरा बवाल, पुराने विरोध-प्रदर्शन, विरोध के दौरान पोस्टरों पर जीएसटी
का विरोध जैसी चीजें हो, लेकिन आप हार जाएंगे।
हमारी हर पार्टियां, हर नेता अमूमन इसी तरह की रणनीतिक
बयानबाजी या रणनीतिक विरोध करते होंगे यह मानना पड़ेगा। लेकिन आपको सिर्फ
मानना ही पड़ेगा, आप इसे साबित नहीं कर सकते। ऐसा हो तब भी नहीं। क्यों इसकी चर्चा तो
हमने पहले ही कर ली। लिहाजा यहां जो चीजें लिखी हैं उस पर भी काउंटर अटैक में वही
रणनीतिक प्रक्रियाएँ होगी। और शायद इसीलिए तो राजनीति को सदैव रहस्यों से भरी काजल
की कोठरी के साथ देखा जाता है।
एफडीआई... पहले दानव था अब विकास का रास्ता !!!
एफडीआई...
इसे लेकर दो तरह के दृश्य देखने को मिले। सरकार बनने से पहले इनके नेता और समर्थक,
दोनों एफडीआई को महाभारत या रामायण काल के राक्षस सरीखा मानते थे। यूपीए शासन के
दौरान मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने एफडीआई को किसी दानव के रूप में पेश किया था। एफडीआई
को हर क्षेत्र में देशविरोधी बताया गया था। विरोध करने में माहिर भाजपा ने सड़क से
लेकर संसद तक एफडीआई को घेर कर रखा था।
लेकिन
फिर सत्ता मिली और बहुत आसानी से तथा जल्द ही, सूर बदल गए! एफडीआई के क्षेत्र और
उन क्षेत्रों के तर्क आने लगे और ज्ञान बांटा जाने लगा! एफडीआई की अहमियत के बयान
आने लगे! वैश्विक परिप्रेक्ष्य में उसकी ज़रूरत जैसे विषयों पर चर्चा होने लगी! यूपीए
के दौरान एफडीआई के ऊपर भाजपा या उनके समर्थकों ने कभी लंबी चर्चा तक नहीं की थी। बस
एफडीआई एक नाम भर था, जिसे देश के लिए दानव समान बताया जाता था। सभी को पता है कि
उस दौर में विरोध करते वक्त किसी और चीजों की चर्चा कम ही होती थी। जितनी भी होती,
लिखना पड़ेगा कि नहीं होती थी ऐसा ही माहौल था। लेकिन अब एफडीआई में क्या क्या होता
है, किस चीज़ में कितना एफडीआई, उसमें किस चीज़ को लेकर विरोध था, क्यों था, किस चीज़ में विरोध नहीं किया था आदि आदि विवरण आने लगे!!! जिस एफडीआई को देशविरोधी कहा जाता था,
सत्ता मिलने के बाद बताया जाने लगा कि उनका विरोध तो फलांने फलांने को लेकर था,
एफडीआई को लेकर नहीं था!
कांग्रेस के शासन के दौरान भाजपा
ने बाकी दलों के साथ मिलकर एफडीआई का कड़ा विरोध किया था। नरेंद्र मोदी ने कहा था कि, “कांग्रेस
देश को विदेशियों के हाथों में सौंप रही है।” बीजेपी ने
2012 में इस मुद्दे पर सरकार को पीछे धकेलने के लिए महाबंद भी बुलाया था। उस दौरान
नितिन गडकरी ने कहा था, “ये एक शुरुआत
है हम तब तक संघर्ष करेंगे जब तक सरकार कदम वापस नहीं खींच लेती।”
लेकिन जब भाजपा सत्ता में आई तो सरकार
का कहना था कि, “एफडीआई से विकास के रास्ते खुलेंगे।” अब प्रधानमंत्री
बन चुके मोदीजी का कहना था कि भारत अब दुनिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे
खुली अर्थव्यवस्था है। मोदी अब 49 प्रतिशत के कैप को भी भूल चुके थे। 10 जनवरी
2017 के दिन कैबिनेट ने एयर इंडिया समेत भारतीय एयर लाइन कंपनियों में 49 फीसदी विदेशी
निवेश का रास्ता साफ कर दिया। इसीके साथ सिंगल ब्रांड रिटेल ट्रेडिंग में 100 फीसदी
विदेशी निवेश को हरी झंडी दे दी।
कमाल की बात यह थी कि संसदीय
समिति ने अपनी रिपोर्ट में एयर इंडिया में विनिवेश नहीं करने की सिफारिश की थी,
लेकिन सरकार ने यू-टर्न का जैसे कि फैसला ही ले लिया था। उसने संसदीय समिति की
रिपोर्ट को भी नहीं माना था!!!
एफडीआई को लेकर 2014 से पहले
भाजपा का जो प्रचार-प्रसार रहा उसे सच मानकर चले तो आज भाजपा देश को नुकसान पहुंचा
रही थी। और अगर भाजपा का 2014 से पहले का वो पुराना स्टैंड गलत माने तो फिर शायद
उस वक्त भाजपा एफडीआई को रोक कर देश को नुकसान पहुंचा रही थी। कुल मिलाकर, कांग्रेस
एफडीआई के जरिये देश को विदेशियों के हाथों में सौंप रही थी... और इसीको सच माने तो
भाजपा ने देश को विदेशियों के हाथों में सौंपने का काम पूर्ण किया होगा!
जीएसटी... पहले खतरनाक प्रवृत्ति थी और फिर लागू करने के लिए आधी रात को संसद भवन खोला गया !!!
शुरुआत में ही हमने बयानबाजी वाली
पुरानी और प्रसिद्ध रणनीति को समझने के लिए जीएसटी तथा उस पर एक बयान का उदाहरण
लिया था। उस उदाहरण से जिन्हें जो समझना था समझ गए होंगे। ये भी दर्ज करे कि
यूपीए-2 के दौरान जब जीएसटी बिल पेश किया गया तब नरेन्द्र मोदी शासित गुजरात सरकार
के वित्तमंत्री सौरभ पटेल ने विरोध किया था।
जीएसटी। इस विषय पर मोदीजी और
एनडीए का यू टर्न जगजाहिर यू टर्न है। जीएसटी को गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए
वे “देश को बर्बाद करने वाली टैक्स प्रथा” बता
चुके थे। इसके वीडियो भी यूट्यूब पर मौजूद है, जब उन्होंने गुजरात से जीएसटी विषय
पर इंटरव्यू दिए थे। उन्होंने जीएसटी को “गैरज़रूरी” और “देश के
लिए खतरनाक टैक्स प्रवृत्ति” बताया था। इतना ही नहीं भाजपा ने जीएसटी
का सरेआम विरोध किया हुआ था। जो कोई इसे मानने से इनकार करता है उन्हें सोशल मीडिया
से हट कर घर के कोने में बैठे बैठे तंबूरा बजाना चाहिए। मोदी के जीएसटी पर बयान तथा
भाजपा का जीएसटी विरोध जगजाहिर है। भाजपा ने कई बार जीएसटी के मुद्दे पर संसद
बाधित करके काम रोके रखा। लेकिन आज बड़ी बेशर्मी से जीएसटी को देश में ऐतिहासिक
परिवर्तन बता रहे थे। भक्तों की बात नहीं हो सकती। क्योंकि वे बेशर्मी के गोल्ड मेडल
जीत सकते हैं। लेकिन आज जीएसटी के गुणगान गा कर उसका श्रेय लेने की चेष्टा वाकई बेशर्मी के ट्रिपल गोल्ड मेडल का हक़दार बना देती है।
वैसे जीएसटी का इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है। यूपीए सरकार के साथ जीएसटी का नाम जुड़ा रहा, लेकिन इसकी चर्चा इससे
पूर्व एनडीए सरकार में शुरू हुई थी। आप हमारी राजनीति का यह बदनूमा ट्रेंड कह सकते
हैं, जिसमें चर्चा एनडीए सरकार (वाजपेयी काल) में शुरू हुई, कदम उठने शुरू हुए यूपीए (मनमोहन काल) में, इसी दौर में
एनडीए ने तथा एनडीए के बड़े दल भाजपा ने जीएसटी का जबरदस्त विरोध किया, फिर उनकी (मोदी काल) सरकार आई और उन्होंने इसे लागू किया!!! राजनीति के ये यू-टर्न आपको अपने अपने नेताओं की
बंदरबाजी को समझने का मौका देते हैं... अगर आप चाहे तो।
खैर.. लेकिन जीएसटी की चर्चा सन
2000 में शुरू हुई थी, जब वाजपेयी सरकार सत्ता में थी। वाजपेयी सरकार ने जीएसटी को
लेकर पश्चिम बंगाल के तत्कालीन वित्तमंत्री असीम दास गुप्ता की अध्यक्षता में एक
कमेटी भी बनाई थी। 2002-04 में केलकर टास्क फोर्स ने जीएसटी को लेकर अपने सुझाव
दिए। इसके बाद यूपीए सरकार के दौर में, यानी कि मनमोहन काल में 2006-07 के बजट भाषण
में वित्तमंत्री ने पहली बार जीएसटी का प्रस्ताव पेश किया था। उसके बाद जीएसटी को
लेकर सत्तादल तथा विपक्ष के बीच तनातनी, आशंकाएं, आरोप, विरोध, समर्थन से गुजरता हुआ
यह दौर 2017 में खत्म हुआ, जब जीएसटी लागू हो गया!
कांग्रेस अपने शासनकाल में गुड्स
एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लागू करना चाहती थी। भाजपा ने संसद और उसके बाहर इसका
जमकर विरोध किया। यहां तक कि भाजपानीत सभी राज्य सरकारों ने इसे अपने यहां लागू करने
से साफ मना कर दिया था!!! इसके उलट सरकार में आते ही भाजपा ने इस बिल को मानसून सत्र में
लोकसभा से पास करवा लिया। और फिर 2017 में यह पूरे देश में लागू भी हो गया!!! नरेन्द्र
मोदी के पुराने बयान के मुताबिक “गैरज़रूरी” और “देश के
लिए खतरनाक टैक्स प्रवृत्ति” अब कानूनी और संवैधानिक रूप से वे पूरे
देश में लागू कर चुके थे!!!
भारतीय राजनीति की
फ्लेक्सिबिलिटी, या यूं कहे कि भारतीय राजनीति की बंदरबाजी का यह उत्तम नमूना था,
जिसमें एक दौर में जीएसटी के लिए संविधान से लेकर व्यवस्थाओं में मूलभूत ढांचा बनाकर
उसे पारित करने के लिए उतावली कांग्रेस (यूपीए) अब जीएसटी के लाॅचिंग का विरोध कर
रही थी, दूसरी ओर जीएसटी को देश के लिए खतरनाक टैक्स प्रवृत्ति बताने वाली भाजपा
(एनडीए) उसे छाती फूला फूला कर लॉन्च कर रही थी!!! अब
इससे बढ़िया उदाहरण आपको कहां मिलेगा भारतीय राजनीति की बंदरबाजी का। केंद्रीय वित्त
राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने अगस्त 2017 में जीएसटी की तुलना घर में आई नई बहू
के साथ कर दी थी, जिसे घर के अन्य
सदस्यों के साथ सामंजस्य बैठाने में वक्त लगता है। उन्होंने आगे कहा था कि जीएसटी अभी
एक नया कानून है जिसे सरकार ने देश की तरक्की के लिए लागू किया है। बताइए, तो
पहले सरकार देश को बर्बाद के लिए ही सब ला रही थी और ये लोग लाएंगे तो तरक्की के
लिए। मतलब कि अपने कुत्ते को टोमी कहना और सामने वाले के कुत्ते को कुत्ता।
इस संस्करण के शुरुआत में हमने
राजनीतिक बयानबाजी की गहरी रणनीति की संक्षेप में चर्चा की थी। जिसमें जीएसटी को
लेकर नरेन्द्र मोदी का पूरा बयान पढ़ा। अब इस बयान के आधार पर बचाव के तर्क या वार
क्या होने थे या होंगे ये समझना लाजमी है। लेकिन तब भी पूछा तो जा सकता है कि अगर उस
बयान को (जो हमने पहले ही उदाहरण के तौर पर इस संस्करण की शुरुआत में देखा) देखे तो
अगर जीएसटी की तैयारियों को लेकर विरोध था तो फिर आपकी ही सरकार के दौरान जीएसटी
को संपूर्ण तैयारी के बिना ही लागू किया गया था। क्योंकि हर दिन इसके नियम को लेकर
बयान जारी करने पड़ रहे थे, अधिकारियों और व्यवसायी तक को ट्रेनिंग या जानकारी कानून
पारित होने के बाद दी गई थी, पहले नहीं!!! दिनों तक असमंजस ही था कि क्या करना है, कैसे करना है, कैसे होगा। बेसिक्स पर तो आपने भी
पूरा काम नहीं किया और कानून पारित कर लिया था।
जीएसटी देश का कथित सबसे बड़ा या
सबसे पहला सुधार होगा, लेकिन यह भी एक सच ही था कि जीएसटी पर इस कदर पलटी मारना
भी देश के सबसे बड़े यू टर्न में प्रमुख पंक्तियों में होगा। क्योंकि यही सोच कर हंसी
आती है कि जो सरकार और उसका मुखिया देश के सामने जीएसटी को लेकर अपनी नीतियां
स्पष्ट कर चुके थे उन्होंने उससे पलटी तो मार ही ली, बल्कि बाकायदा आधी रात को
संसद खुलवा कर जश्न और तामझाम के साथ इस यू-टर्न का उत्सव भी मनाया। वैसे यहां यह
भी खयाल रखे कि संसद ऐसी चीजों के लिए ही आधी रात को खुलेगा, दूसरी चीजों के लिए आप दिन-रात, धूप-बारिश में जंतर-मंतर पर फेफड़े फाड़ते रहिए।
आधार... तब देश के लिए खतरा था और अब भारत का एकमात्र आधार !!!
आधार को देश के लिए खतरा बताने वाली बीजेपी ने इसे लगभग तमाम
जगहों पर लागू किया!!! यहां तक कि मिड-डे मील के लिए बच्चों को आधार अनिवार्य करने का
वाक़या भी हुआ, जिसमें विवाद होने के बाद उसे रोका गया! डोमेस्टिक फ्लाइट में टिकट
के लिए भी आधार या पासपोर्ट ज़रूरी बनाने की कवायद तेज होने लगी। अप्रैल 17 में तो
निर्देश दिए गए कि 30 अप्रैल तक अपने बैंक खाते आधार से लिंक कर दीजिए, वर्ना
खाता ब्लॉक कर दिया जाएगा!
एफडीआई और जीएसटी की तरह आधार में भी बीजेपी ने बड़े गर्व के
साथ पलटी मार ली थी। जीएसटी की तरह आधार का इतिहास भी दिलचस्प था।
1999 में हुए कारगिल युद्ध के बाद
राष्ट्रीय सुरक्षा के अवलोकन के लिए एक समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने जनवरी
2000 में अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपी। इस रिपोर्ट
में सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से शुरुआत करते हुए सभी नागरिकों को एक
पहचान पत्र जारी करने की बात कही गई थी। इन सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सरकार ने
सभी नागरिकों के पंजीकरण की व्यवस्था शुरू की। साल 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी ने
मंत्रियों के समूह (जीओएम) की सलाह पर एनपीआर के आधार पर मल्टी परपज नेशनल आइडेंटिटी कार्ड (एमपीएनआईसी) की शुरुआत की थी। 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार
केंद्र में आई तो उन्होंने एनडीए सरकार की इस योजना को आगे बढ़ाया और इस प्रोजेक्ट
का इस्तेमाल अपनी वेलफेयर स्कीम की सब्सिडी की जांच करने में किया। यूपीए ने एनपीएनआईसी
के प्रोजेक्ट को यूआईडीएआई में बदल दिया। यूपीए ने 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन
करते हुए उसमें धारा 14 ए को जोड़ दिया। इस धारा ने केंद्र सरकार को यह अधिकार दे दिया
कि वह अनिवार्य रूप से प्रत्येक नागरिक का पंजीकरण करे और उन्हें एक राष्ट्रीय पहचान
पत्र जारी करे।
भले इसकी शुरुआत वाजपेयी काल से
हुई हो, लेकिन भाजपा ने यूपीए के दौर में शुरुआत से ही आधार योजना का विरोध किया था! भाजपा का मानना था कि यह योजना लोगों की निजता का उल्लंघन करने के साथ ही कई अवैध अप्रवासियों
को भी फायदा पहुंचा सकती है। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के राष्ट्रीय
महासचिव अनंत कुमार का कहना था, “यदि भाजपा
की सरकार केंद्र में बनती है तो हम आधार योजना को पूरी तरह से समाप्त कर देंगे। साथ
ही इस योजना पर जनता का पैसा बर्बाद करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी करेंगे।” भाजपा ने साफ साफ कहा कि यह लोगों के 'निजता के अधिकार' का हनन करती है।
बैंगलोर (बेंगलुरु) में एक चुनावी सभा के
दौरान नरेन्द्र मोदी ने 8 अप्रैल 2014 को कहा था कि, “मैंने आधार
पर राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल उठाए, कोई जवाब
नहीं मिला। यह राजनैतिक नौटंकी है।” हमारे नेता
अपने बयान का बचाव यही तर्क के साथ करते आये हैं कि उनके बयान का गलत मतलब निकाला
गया। मोदीजी भी अब कह सकते हैं कि उन्होंने तो आधार को नहीं लेकिन मनमोहन सरकार की
शैली को राजनीतिक नौटंकी कहा था। बहरहाल जो भी हो, लेकिन वो भी 2014 के बाद आधार
को लेकर अपनी राजनीतिक नौटंकी को डंके की चोट पर सार्वजनिक ही कर रहे थे।
अक्टूबर 2013 के दौरान स्मृति ईरानी
का बयान था कि, “संसद की स्थायी समिति ने बिल खारिज कर दिया है। आधार
निजता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।” यूपीए सरकार के
दौर में अपने एक बयान में भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने कहा था कि, “आधार का कोई कानूनी आधार नहीं है, क्योंकि इसे संसद ने नहीं बनाया। सरकारी
योजनाओं का लाभ देने के लिए विशिष्ट पहचान संख्या को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम
कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाया है।”
लेकिन दौर बदला, सरकार बदली और
यूपीए की जगह भाजपा सत्ता में आई। फिर क्या था, बड़ी साफगोई से उन्होंने अपना
स्टैंड बदल लिया। अगस्त 2017 में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि देश के
विकास में आधार का बड़ा योगदान है! मोदी सरकार के पेट्रोलियम प्रधानमंत्री धर्मेंद्र
प्रधान अब कहने लगे थे कि नागरिकता और पहचान अलग अलग विषय है, हमने दोनों को अलग
अलग रखा है! वे कहने लगे कि यूपीए की तैयारी आधी-अधूरी थी। कई सारी दलीलें वे देने
लगे थे और बड़ी चालाकी व बेशर्मी से अपने स्टैंड से पलटने लगे थे।
यहां तक कि आधार को देश के लिए खतरा, निजता के लिए खतरा बताने वाली भाजपा ने अपनी सत्ता के दौरान सुप्रीम कोर्ट
में यहां तक कह दिया था कि, “नागरिकों का अपने शरीर के अंगों पर संपूर्ण
अधिकार नहीं है”.... “आधार न बनवाना
अपराध है”... “'निजता का अधिकार' भारतीय नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों
में शामिल ही नहीं है” ये सारी चीजें बीजेपी सरकार ने सुप्रीम
कोर्ट में कही थी!!! एक लफ्ज़ में कहे तो, कभी देश के लिए खतरा, कभी देश के लिए एक
मात्र आधार!!! बस यही तो आधार की आधारभूत कहानी रही। आगे
की कहानी तो ज्ञात ही होगी।
भूमि अधिग्रहण
यूपीए सरकार ने साल 2013 में पारित
किए भूमि अधिग्रहण बिल के अधीन अधिग्रहित होने वाली जमीन में किसानों की सहमति को अनिवार्य
कर दिया था, लेकिन मोदी सरकार
ने इसमें संशोधन करते हुए सहमति को पूरी तरह खत्म कर दिया!!! साथ ही कई अन्य संशोधन विधेयक
में कर डाले। इसका विपक्ष ने जोरदार विरोध किया, लेकिन सरकार ने अध्यादेश लाकर इसे पारित करवाने का फैसला किया।
हालांकि बाद में किसानों व विपक्ष के भारी विरोध के चलते सरकार ने इस मामले पर भी यू
टर्न ले लिया और इस बिल के छह बड़े संशोधन वापस लेने को राजी हो गए। इसमें सहमति संबंधी
प्रस्ताव भी शामिल था। इस तरह 2013 का कानून जस का तस ही रहेगा। सरकार इस विवादास्पद
विधेयक पर फिर से अध्यादेश नहीं लाने को भी तैयार हो गई।
भूमि सौदा
जब यूपीए सरकार ने बांग्लादेश के
साथ ज़मीनों की अदला-बदली पर बात आगे बढ़ाई थी,
तो भाजपा ने ममता बनर्जी के साथ मिलकर खूब हंगामा मचाया था। लेकिन सरकार बनते ही
भाजपा को इस सौदे में अच्छाई नज़र आने लगी!!! सरकार ने बांग्लादेश के साथ यह सौदा कर
भी दिया और इसे ऐतिहासिक समझौता करार दे दिया! मोदी ने 6 जून के अपने ट्वीट में कहा, “भूमि समझौते को मंजूरी प्रदान करने के दस्तावेजों
के आदान-प्रदान से इतिहास रच गया है।” जबकि
इससे पहले इसी इतिहास के खिलाफ वे ममता बनर्जी के साथ मिलकर विरोध कर रहे थे।
वैसे अब सौदा हो चुका था, विरोध सिर्फ ममता का ही हो रहा था!!!
रेल किराया
यूपीए सरकार के कार्यकाल में रेल
यात्री किराए में हर बढ़ोतरी का भाजपा ने जमकर विरोध किया। उस दौरान उसे ऐसे तर्क
तर्कहीन लगते थे कि रेलवे को पटरी पर लाने के लिए किराया बढ़ाना ज़रूरी है। तब सरकार
द्वारा किराए में 2 रुपए के इज़ाफ़े का भाजपा ने रेल रोको आंदोलन चलाकर विरोध जताया था।
सरकार में आते ही मोदी सरकार ने रेल
यात्री और भाड़ा दोनों किरायों में वृद्धि कर दी। इस पर सफाई देते हुए वित्त मंत्री
अरुण जेटली ने कहा था, “रेलवे तभी
जीवित रह सकती है जब यात्री मिलने वाली सुविधाओं
के लिए भुगतान करें, ये कठिन लेकिन सही
फैसला है।” जबकि मनमोहन
सरकार के ऐसे तर्कों पर वे रेल रोको आंदोलन चला देते थे। बाद में तो रेल किरायों के
साथ साथ प्लेटफॉर्म टिकट से लेकर दूसरे तमाम दरों में वृद्धि होती रही।
मनरेगा को असफलता
बताया, फिर खुद अपनाया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा
गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को कांग्रेस सरकार की असफलता का
जीता जागता स्मारक बताया था। मगर बाद में खुद के बजट में इस योजना के लिए सरकार ने
38,500 करोड़ रूपए आवंटित कर दिए!!! यही नहीं,
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना को राष्ट्रीय गौरव का कार्यक्रम तक बता
दिया!!!
ईपीएफ पर टैक्स, विरोध हुआ तो पलटी
सरकार ने बजट के दौरान ईपीएफ़ से
पैसा निकालते समय उसके 60 फ़ीसदी हिस्से पर कर लगाने की घोषणा की थी। इसका व्यापक विरोध
हुआ। सरकार की तरफ से कहा गया था कि 1 अप्रैल,
2016 के बाद ये कर कर्मचारियों की तरफ़ से जमा कराए गए पैसे के 60 फ़ीसदी हिस्से
पर मिलने वाले ब्याज पर लागू होगा। बाद में विरोध के बाद सरकार ने यू टर्न ले लिया।
वित्त मंत्री ने कहा कि वह इस नीति की समीक्षा करेंगे।
नोटबंदी
नवम्बर 2016 के दौरान भाजपा
सरकार ने नोटबंदी लागू की और इसे काले धन के खिलाफ बड़ी जीत करार दिया। लेकिन यूपीए
सरकार ने जब ऐसा करने का प्रयास किया था तो भाजपा को ये रास नहीं आया था। आरबीआई ने
जब 2005 से पहले के नोट बंद करने की बात कही थी, तो भाजपा ने इसे गरीब विरोधी कदम बताते हुए कहा था कि इसका काले धन
से कोई लेना देना नहीं है। उस वक़्त भाजपा प्रवक्ता रहीं मिनाक्षी लेखी ने कहा था, “यह काले धन के मुद्दे से ध्यान हटाने की
साजिश है। सरकार गरीब और ऐसे लोगों को निशाना बना रही है जिनके पास बैंक खाता नहीं
है।” लेकिन जब खुद
उन्होंने ही यह कर दिया तो उनका कहना था कि इस कदम ने काला धन जमा करने वालों के साथ-साथ
टेरर फंडिंग पर भी चोट की है। पार्टी के जो नेता पहले नोटबंदी शब्द सुनते ही हल्ला
करने लगते थे अब वही इसे देशहित करार देने में लगे रहे।
जनलोकपाल
जनलोकपाल का वो दौर सभी को याद होगा। उस दौर में संसद में नेताप्रतिपक्ष के तौर पर सुषमा स्वराज ने कहा था कि लोगों में यह भाव है कि हम
(सदन) लोग और जनलोकपाल के बीच राक्षस के तौर पर खड़े हैं, हमें ये भाव बदलकर आगे बढ़ना
होगा। अब 2014 से 2018 तक वे लोग कितना आगे बढ़े यह सभी को भली-भांति ज्ञात है।
सर्वोच्च न्यायालय तक ने कुछेक बार एनडीए शासित मोदी सरकार को याद दिलाया, लेकिन इनका
भी दिल कांग्रेस सरीखा हो गया कि अब तक माना नहीं है! उस दौर की यूपीए सरकार और अब
की एनडीए सरकार, दोनों जैसे कि जनलोकपाल को सचमुच जोकपाल बनाकर ही लागू करना चाहते
हो ऐसा हाल है। हाल में नयी मोदी सरकार बहाना बनाती रही कि कांग्रेस के पास उतनी सीटें नहीं है और इसीलिए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का स्थान रिक्त है, लिहाजा जनलोकपाल
पर आगे बढ़ना संभव नहीं है। उधर वही मोदी सरकार सारे विवादित बिल अध्यादेश के जरिए लागू किए जा रही थी, लेकिन जनलोकपाल पर संसदीय नैतिकता को आगे किए जा रहे थे! सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल 2017 के दिन साफ लफ्जों में कहा कि, “लोकपाल की नियुक्ति को ठंडे बस्ते में डालने
का कोई कारण नजर नहीं आता है। यह मौजूदा परिस्थितियों में भी काम कर सकता है।” सुप्रीम
कोर्ट ने केंद्र की उस दलील को अपर्याप्त माना जिसमें नेता विपक्ष के रिक्त
स्थान का हवाला दिया गया था। बावजूद इसके जनलोकपाल जैसे कि जोकपाल बनकर रह गया है।
कहा जा सकता है कि... कांग्रेस कभी नहीं जाती, जो सत्ता में आता है वही कांग्रेस बन
जाता है।
महंगाई... पहले सरकार बढ़ाती थी अब महंगाई खुद ही खुद से बढ़ती है !
महंगाई...
अब जाकर महंगाई के पीछे की वजहें, वैश्विक परिप्रेक्ष्य, अंतरराष्ट्रीय
परिस्थितियां जैसा ज्ञान बांटकर महंगाई का बचाव करना किसी गेलसप्पाई के अलावा और
कुछ नहीं है। उस वक्त बैलगाड़ी लेकर सड़कों पर उतरना, ट्रेन रोकना, बीच बाज़ार वरिष्ठ
राजनेताओं का नाचना, पुतले जलाना और फिर आज बचाव के लिए अर्थतंत्र का ज्ञान बांटते
फिरना... शायद विपक्ष में रहते हुए उनका धर्म हर चीज़ का विरोध करना ही था, और आज हर
चीज़ का बचाव करना है।
सब्जियां, ईंधन में पेट्रोल और डीजल, केरोसिन, रुपये का स्तर, फल, धान, खाने-पीने की चीजें, पार्किंग से लेकर स्टेट ट्रांसपोर्ट के किराए... यूं कह लीजिए कि लगभग तमाम चीजों के दाम आसमान छूते नजर आए। 2014 से पहले टीवी चैनल पर आकर अनाज के दाम कैसे कम किए जा सकते हैं इसकी रूपरेखा देने वाले सीएम मोदी पीएम बनने के बाद रूप और रेखा दोनों भूल गए! भारतीय राजनीति की वही छलावा वाली तस्वीर नजर आई और कहा जाने लगा कि विकास के लिए कड़वी दवाई ज़रूरी है! जीतने के लिए मीठी गोली का इस्तेमाल और फिर कड़वी दवाई का डोज...!!! जब भी दाम बढ़े तो दाम क्यों बढ़ाना ज़रूरी था इसके ज्ञान बांटे जाने लगे। यूपीए के दौरान महंगाई पर भारत बंद करने से विकास होता था और अब दाम बढ़ाने से विकास होता था। जहां मनमोहन सरकार के दौर में रुपये का गिरना सरकार के स्तर का गिरना माना जाता था, अब रुपये का गिरना बैकुंठ उत्थान माना जाने लगा।
सब्जियां, ईंधन में पेट्रोल और डीजल, केरोसिन, रुपये का स्तर, फल, धान, खाने-पीने की चीजें, पार्किंग से लेकर स्टेट ट्रांसपोर्ट के किराए... यूं कह लीजिए कि लगभग तमाम चीजों के दाम आसमान छूते नजर आए। 2014 से पहले टीवी चैनल पर आकर अनाज के दाम कैसे कम किए जा सकते हैं इसकी रूपरेखा देने वाले सीएम मोदी पीएम बनने के बाद रूप और रेखा दोनों भूल गए! भारतीय राजनीति की वही छलावा वाली तस्वीर नजर आई और कहा जाने लगा कि विकास के लिए कड़वी दवाई ज़रूरी है! जीतने के लिए मीठी गोली का इस्तेमाल और फिर कड़वी दवाई का डोज...!!! जब भी दाम बढ़े तो दाम क्यों बढ़ाना ज़रूरी था इसके ज्ञान बांटे जाने लगे। यूपीए के दौरान महंगाई पर भारत बंद करने से विकास होता था और अब दाम बढ़ाने से विकास होता था। जहां मनमोहन सरकार के दौर में रुपये का गिरना सरकार के स्तर का गिरना माना जाता था, अब रुपये का गिरना बैकुंठ उत्थान माना जाने लगा।
काला धन... वो तो जुमला था !!!
काला धन
मामले में यूपीए को घेरते हुए भाजपा ने वादा किया था कि अगर उसकी सरकार बनती है तो
100 दिनों के अंदर काला धन विदेशों से भारत लाया जाएगा। यह भी कहा था कि केंद्र में
अगर वो सरकार बनाती है तो 100 दिनों के अंदर विदेशों में रखा गया काला धन वापस भारत लाएगी
और हर गऱीब को 15-20 लाख रुपए तो यूं ही मिल जाएंगे। हालांकि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बाद
में इसे महज एक चुनावी जुमला बता दिया!!!
काला
धन 100 दिनों में वापस लाएंगे ---- सत्ता में आने के तुरंत बाद सरकार ने काले धन पर
खास समिति बना दी थी। हालांकि एक साफ तथ्य यह भी था कि सुप्रीम कोर्ट इस प्रकार की
समिति गठित करने का आदेश दे चुकी थी और इस आदेश की अवधि समाप्त हो रही थी, इसलिए समिति का गठन संवैधानिक नजरिये से ज़रूरी बन गया था। मतलब कि काले धन पर समिति गठित
करना किसी भी सरकार की मजबूरी ही होती, वर्तमान सरकार कोई भी होती, उन्हें सुप्रीम
कोर्ट के आदेश के कारण यह कदम उठाना ही पड़ता। लेकिन चुनाव से पहले उनके पास काले धन वालों की जो सूची और आंकड़े थे उन्हें भुला दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के
बाद समिति बनाने के इस प्रशंसनीय कदम के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि
काले धन को वापस लाना मुश्किल है!!! उनके ही सांसद ने बाकायदा लोकसभा में कहा कि इस
जन्म में तो काला धन वापस नहीं आ सकता!!! चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के काले धन
के आंकड़े बदल दिए गए और पहले जो सूची दर्शायी जाती थी उसे भुला दिया गया। सरकार
ने नाम जाहिर करने में असमर्थता दिखाई और अंतरराष्ट्रीय संधियों का हवाला दिया था,
लेकिन सरकार के इस दावे की खुद सुप्रीम कोर्ट ने हवा निकाल दी थी जब कोर्ट ने
सरकार को आदेश दिया कि संधि का भंग हो या ना हो किंतु नाम की सूची जाहिर करना
सरकार की जिम्मेदारी है।
एनसीटीसी पर
बदल दिया स्टैंड
कहा गया कि इस प्रस्ताव में एनसीटीसी
के तहत विभिन्न स्रोतों से मिलने वाली खुफिया सूचनाओं को एक जगह एकत्र करने, इन पर जांच करने और कार्रवाई करने की समूची
प्रक्रिया को समाहित करने की बात शामिल होगी। प्रस्तावित एनसीटीसी को सीधे गृह मंत्रालय के मातहत
करने की बात शामिल होगी। पिछले प्रस्ताव में इसे खुफिया ब्यूरो यानी आईबी के अंतर्गत
गठित करने का प्रस्ताव शामिल था।
दरअसल राज्य सरकारों को आईबी पर भरोसा
है, इसलिए वो इसका विरोध कर रही हैं। अक्टूबर 2016 के दौरान चिदंबरम की अध्यक्षता वाली
संसद की स्थायी समिति ने गृह सचिव राजीव महर्षि से एनसीटीसी के भविष्य को लेकर सरकार
की योजना के बारे में पूछताछ की थी। वैसे चिदंबरम के बाद साल 2013 में तत्कालीन गृह
मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी एनसीटीसी के गठन के प्रस्ताव पर राज्यों के बीच सहमति
कायम करने की कोशिश की थी लेकिन कामयाबी नहीं मिल सकी थी।
मवेशियों की
अधिसूचना पर अपनों से ही घिरी सरकार, अधिसूचना को बदलने के सरकार ने दिए संकेत
केंद्र अपनी अधिसूचना में बदलाव
के संकेत दिए जा रही थी, वहीं 30 मई के दिन मद्रास हाईकोर्ट की मदुराई बेंच ने इस
अधिसूचना पर रोक लगा दी। हाईकोर्ट ने चार सप्ताह के लिए रोक लगाई और केंद्र तथा
राज्य सरकार से जवाब मांगा। 11 जुलाई 2017 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के
नोटिफिकेशन पर देशभर में रोक लगाने के मद्रास हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगाई।
सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार ने अधिसूचना को लेकर जो कहा वो सरकार की
कमजोर तैयारियों को स्पष्ट कर गया। सरकार ने कहा कि इन नियमों को लेकर राज्य सरकारों
ने कई सुझाव दिए हैं और आपत्ति जताई है जिन पर विचार किया जा रहा है। केंद्र सरकार फिलहाल नियमों
को लागू नहीं कर रही है और इनमें बदलाव करने में करीब तीन महीने का वक्त लगेगा।
गोरखालैंड पर यू-टर्न, अलग राज्य
के पक्ष में नहीं दिखी अब भारतीय जनता पार्टी!
राजनीतिक दल सत्ता मिलने के बाद यू टर्न तो लेते ही है, लेकिन
इतने सारे विषयों पर, इतनी प्रमुख ‘पूर्व निर्धारित नीतियों’ पर सत्ता मिलने के बाद यू टर्न लेते रहना वाकई हिम्मत या
फिर लंपटता का ही काम हो सकता था। अब बारी थी गोरखालैंड की। जून 2017 के दौरान
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) का आंदोलन
हिंसक हो गया। दरअसल ममता सरकार ने पूरे राज्य में बंगाली भाषा पढ़ना अनिवार्य कर
दिया था। इसीके खिलाफ जीजेएम अपना विरोध दर्ज कर रहा था। 8 जून के दिन यह विरोध
हिंसक हो उठा, जो दिनों तक अलग अलग हिंसक गलियों से गुजरता रहा। लगे हाथ मांग अलग
गोरखालैंड की भी निकल आई तथा इसे लेकर भी प्रदर्शन हुए। तत्कालीन भाजपा शासित
केंद्र सरकार ने ममता बेनर्जी सरकार को कटघरे में भी खड़ा किया। जीजेएम को लगा होगा
कि केंद्र साथ है तो अब मंजिल दूर नहीं। ऐसा इन्हें इसलिए लगा होगा, क्योंकि
केंद्रीय कुर्सी पर बिराजने से पूर्व भाजपा अलग गौरखालैंड के पक्ष में थी। वैसे नोट यह भी करे कि ममता बंगाल में बंगाल की मातृभाषा पढ़ना अनिवार्य कर रही थी, जिसका विरोध केंद्र की बीजेपी सरकार कर रही थी, वहीं कुछ पुष्ट खबरें तो यह भी बता रही थी कि दूसरी तरफ बीजेपी सरकार मातृभाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जानी चाहिए इस संबंध में केंद्रीय शिक्षा नीति में संशोधन करने के लिए आगे बढ़ रही थी!!! यानी कि ममता करे तो हो-हल्ला और खुद करे तो अच्छे पिता का लल्ला!!!
खैर, किंतु वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा
ने अपने आप को छोटे राज्यों का हिमायती करार देते हुए अलग गोरखालैंड का ना सिर्फ समर्थन
किया था, बल्कि पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में भी अलग गोरखालैंड के मुद्दे को
शामिल किया था और पार्टी ने दार्जिलिंग से जसवंत सिंह को चुनावी मैदान में उतारा था।
तब जीजेएम के समर्थन से जसवंत लोकसभा में जीतकर पहुंचे थे। 16 जून 2009 को भाजपा के
नेतृत्व में जीजेएम नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर तत्कालीन
गृहमंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात कर उन्हें ज्ञापन सौंपा था। 9 अप्रैल 2014 में भाजपा
ने अपने चुनावी घोषणापत्र में मुद्दे को भुला दिया था। तब जीजेएम की ओर से आवाज उठी, तो पार्टी ने घोषणापत्र में गोरखालैंड मुद्दे
को जोड़ते हुए अलग से विज्ञप्ति जारी की और एसएस अहलूवालिया को अपना उम्मीदवार बनाया।
जीजेएम के समर्थन से अहलूवालिया लोकसभा में दार्जिलिंग से सांसद बने।
एक दौर में बाकायदा अपने
घोषणापत्र अलग गोरखालैंड के मुद्दे को शामिल करने वाली भाजपा ने जून 2017 के दौरान
अपने स्टैंड से पलटी मार ली। अलग गोरखालैंड के मुद्दे पर पलटी मारते हुए भाजपा महासचिव
एवं पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि, “हम अलग
गोरखालैंड राज्य के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन हम चाहते हैं कि गोरखालैंड की पहचान और
संस्कृति बरकरार रहे।” अपने बयान में उन्होंने वर्तमान आंदोलन
में विदेशियों का हाथ होना जैसे मुद्दे को उठाया, लेकिन अलग गोरखालैंड से मुकर गए!!! यह सर्वविदीत है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा ने अलग गोरखालैंड के दम पर ही अपने पैर
जमाए थे। लेकिन अब भाजपा को यह सौदा राजनीतिक नुकसान लग रहा था। दिल्ली में कई
नेताओं को तलब कर यह भी बताया गया कि वे अलग गोरखालैंड के पक्ष में बयान ना दे!!! यही
वजह थी कि एक दौर में बाकायदा अलग गोरखालैंड को घोषणापत्र में शामिल करने वाली भाजपा
ने इन दिनों गोरखालैंड के ऊपर बयान देने में भी कंजूसी दिखाई थी। अब उन्हें लग रहा था
कि महज कुछेक सीटों के लिए पूरे प्रदेश के वोट बैंक को नाराज नहीं किया जाना चाहिए,
वहीं अलग प्रदेश होने के बाद चीन से खतरा भी सता रहा था। लेकिन पैर पसारने से पहले
उन्होंने इनमें से कुछ भी सोचा नहीं। ना ही पूरे प्रदेश की संप्रुभता या संस्कृति का
सोचा, ना ही चीन के खतरे के बारे में सोचा। लेकिन अब ये सारी चीजें आगे करके वे अलग
प्रदेश के मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए थे। जीजेएम को भी वही कहावत याद आई होगी कि – सत्ता
के लिए केवल सत्ता ही धर्म होता है।
नरेन्द्र मोदी
ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का कोई वचन दिया ही नहीं था –
केंद्रीय कृषि मंत्री
लोकसभा में किसानों के बदतर हालात
तथा खुदकुशी के मामले पर चर्चा के दौरान 20 जुलाई 2017 को केंद्रीय कृषि मंत्री
राधामोहन सिंह ने कहा कि पीएम मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के वक्त किसानों को
न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का कोई वचन दिया ही नहीं था। उन्होंने
कहा कि 2014 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान किसानों को कृषि उत्पाद के मुनाफ़े के
तौर पर इनपुट खर्च की जो राशि है उसे 50 फीसदी तक बढ़ाने की बात कही गई थी। उन्होंने
आरोप मड़ते हुए कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भाजपा ने ऐसा कोई वचन दिया था ऐसा झूठ
फैलाकर विपक्ष किसानों को भ्रमित कर रहा है। अब आप कृषि मंत्री को गलत ठहरा नहीं सकते, क्योंकि बहुत हद तक मुमकिन है कि वो जो बात कर रहे थे वो सच भी हो। लेकिन
हमने पहले ही सरकारों या राजनीतिक दलों की बयान वाली परंपरा को देख लिया कि कैसे वो
लंबे-चौड़े भाषणों से किसी एक विशेष मुद्दे को हवा देते हैं और उसीके दम पर मतदाता को
रिझाते हैं। फिर कुर्सी पर बैठने के बाद जब उसी मुद्दे को लेकर सवाल उठे तब
लंबे-चौड़े भाषणों का टेप दोबारा देखने के लिए कह दिया जाता है!
गुजरात चुनाव,
मनमोहन पर पीएम मोदी का विवादित बयान, चुनाव खत्म होने के बाद कहा- हमें मनमोहन की
देशभक्ति पर संदेह नहीं !!!
दिसम्बर 2017 के गुजरात विधानसभा
चुनाव प्रचार के दौरान पीएम मोदी से लेकर कांग्रेस के दिग्गज, सारे के सारे चुनाव
प्रचार को गजब के निचले स्तर तक ले गए। इसी दौरान पीएम मोदी ने मनमोहन पर विवादित
बयान दिया, जिसमें मनमोहन की देशभक्ति पर सवाल उठाया गया। गुजरात चुनाव, मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के साथ मिल कर साजिश की सनसनीखेज कहानी को गढ़ा गया। चुनाव के नतीजे आने के
बाद कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर दिए गए विवादित बयान को लेकर
सदन में खूब हो-हल्ला किया। दिनों तक सदन शोरगुल से सराबोर होता रहा। लेकिन स्टोरी
में गजब का यू टर्न तब आया, जब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सदन से कहा कि हमें
मनमोहन सिंह की देशभक्ति पर कोई संदेह नहीं है!!! बताइए, दोनों दलों के समर्थकों ने
फेफड़े फाड़े और अंत में एक हल्के-फुल्के बयान ने सारा कीचड़ साफ कर दिया!!!
प्रति माह रसोई
गैस के दाम बढ़ाने की घोषणा सरकार ने वापस खींच ली
केंद्र सरकार ने 1 जून 2016 से
सरकारी ओयल कंपनियों को प्रति माह एलपीजी सिलेंडर के दामों में 4 रुपये का इज़ाफ़ा करने की छूट दी थी। इसके पीछे सरकार की मंशा रसोई गैस की सब्सिडी कम करने की थी।
लेकिन अपनी ही दूसरी योजनाओं में यह योजना आपत्ति बनती जा रही थी, साथ ही कुछ जगहों पर राजनीतिक विरोध भी झेलना पड़ रहा था। लिहाजा दिसम्बर 2017 के आखिरी सप्ताह में
केंद्र सरकार ने अपनी इस योजना को वापस खींच लिया। योजना को वापस लेते समय बताया
गया कि ये योजना सरकार की दूसरी योजना, जिसका नाम उज्जवला योजना था, को बाधित कर
रही थी।
रक्षा मंत्रालय
ने सैन्य अधिकारियों के रैंक और स्टेटस में कमी से जुड़ा विवादित आदेश वापस लिया
5 जनवरी 2018 के दिन रक्षामंत्री
निर्मला सीतारमण ने एक बड़े फैसले के तहत सशस्त्र बलों से जुड़े सरकार के एक विवादित
आदेश को वापस लेने की घोषणा की। इस विवादित आदेश को दो साल पहले सैन्य अधिकारियों और
उनके असैन्य समकक्षों के बीच समान दर्जा करने को लेकर जारी किया गया था। यह आदेश सशस्त्र
बलों की रैंक और स्टेटस में कमी करने को लेकर था। 2016 के आदेश के मुताबिक, सशस्त्र बल सिविल
सेवा के एक प्रधान निदेशक को ब्रिगेडियर बनाए जाने के बजाय एक मेजर जनरल के बराबर की
रैंक पर लाया गया था। उस वक्त ही मंत्रालय के इस कदम से सशस्त्र बलों में व्यापक रोष पैदा
हो गया था। सैन्य अधिकारियों में इस बात को लेकर असंतोष बढ़ रहा था कि मौजूदा समान
दर्जा त्रुटिपूर्ण है और सरकार को अवश्य ही उनकी चिंताओं का हल करना चाहिए।
5 जनवरी 2018 को रक्षा मंत्रालय ने
कहा कि, “सशस्त्र बल अधिकारियों और सशस्त्र बल मुख्यालय असैन्य
सेवा (एएफएचक्यू सीएस) अधिकारियों के बीच समानता के मुद्दे पर रक्षा मंत्रालय के 18
अक्टूबर 2016 की तारीख वाले पत्र को वापस ले लिया गया है।” मंत्रालय
ने यह भी कहा कि, “केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एएफएचक्यू सीएस के
कैडर पुनर्गठन की जो मंजूरी दी है उसे पूरी तरह से लागू किया जाएगा। पदों को कैबिनेट
द्वारा मंजूर अतिरिक्त पदों के अनुरूप सृजित किया जाएगा।”
नारंगी
पासपोर्ट का विवादित फैसला महीने भर में सरकार ने वापस खींचा
जनवरी 2018 के अंतिम दिनों में केंद्र
सरकार ने नारंगी पासपोर्ट जारी करने का फैसला वापस ले लिया। सरकार की यह योजना थी कि
जिन्होंने 10वीं की परीक्षा पास नहीं की है, उन्हें नारंगी रंग का पासपोर्ट दिया जाएगा।
इसमें पासपोर्ट के आखिरी पन्ने को खत्म करने का प्रावधान था, जिसमें धारक का
पता जैसी तमाम जानकारियां होती हैं। सरकार के इस फैसले का विपक्ष और विशेषज्ञों ने
विरोध किया था और इसे भेदभावपूर्ण नीति करार दिया था। लेकिन जनवरी माह के आखिरी
दिनों में विदेश मंत्रालय ने नया बयान जारी कर नारंगी पासपोर्ट वाले पुराने फैसले
को वापस लेने की जानकारी दी। सरकार के इस फैसले का यह भी अर्थ था कि पासपोर्ट का अंतिम
पन्ना पहले की ही तरह छापा जाएगा।
घोषणापत्र में
कहा और फिर अदालत में 2015 में शपथ पत्र देकर एमएसपी डेढ़ गुना करने से किया इनकार,
फिर 2018 के बजट के दौरान इसी फैसले को लागू करने की बात कही
भाजपा ने लोकसभा 2014 के चुनावी घोषणापत्र
में उपज की लागत का डेढ़ गुना लाभकारी मूल्य देने की बात की थी। लेकिन इसी केंद्र सरकार
ने वर्ष 2015 में न्यायालय में शपथ पत्र देकर लागत मूल्य से डेढ़ गुना ज्यादा एमएसपी
देने से इनकार किया था!!! इसके बाद 2018 का बजट पेश करते वक्त वित्तमंत्री ने कहा कि
हम लागत मूल्य से डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने की घोषणा करते हैं!!! इतने सारे मोड़ क्यों यह उन्हें पता होगा। हालांकि बजट 2018 में यह बात कही गई कि
नीति आयोग और राज्य आयोग चर्चा करके इस पर निर्णय लेंगे!!! नोट करे कि बजट में इसके
लिए राशि का प्रावधान नहीं किया गया था!!!
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 3
मार्च 2017, एम वाला)
Social Plugin