इस शख़्स की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि उनके साथ फेंकू, पप्पू या खुजली जैसे
सम्मान कभी नहीं जुड़े। उनकी विरासत यही रही कि उनके अनेकों अनेक प्रशंसक थे, किंतु
भक्त एक भी नहीं था। वो शख़्स बोलता था तो बड़े बड़े विवाद थम जाते थे, जबकि आज ऐसे भी
नेता हैं जिनके बोलने भर से ही शांत पानी में सुनामी उठ खड़ी होती है।
हम तो आम भारतीय नागरिक हैं। हम ना ही राजनीति के विशेषज्ञ हैं और ना ही इतिहास
या वर्तमान के कीड़े हैं। लेकिन इतना तो ज़रूर देखा कि अटल बिहारी वाजपेयी की
सर्वस्वीकार्यता, उनका सम्मान उनके स्वस्थ राजनीतिक जीवन की देन थी। उनकी राजनीतिक
संस्कृति वाक़ई इतनी सुलझी हुई थी कि उसने लोगों को उलझाए रखने का काम नहीं किया।
वरना राजनीति उलझाती ज़्यादा है। कथित सुलझे हुए लोगों को भी अपनी चपेट में लेती है
राजनीति।
वाजपेयी कथित रूप से कट्टर हिंदूवादी छवि वाली पार्टी और संघ से निकले
हुए नेता थे, लेकिन फिर भी अपने उदारवादी चेहरे से उन्होंने कई प्रशंसक कमाए। सबसे
बड़ी विरासत तो यही कि भक्त एक भी नहीं कमाया। वह राजनेता थे, बहुत ही लंबा
राजनीतिक जीवन रहा, लिहाज़ा कई सारे विवाद उनके साथ जु़ड़े होंगे। जुड़े होंगे क्या, बल्कि जुड़े हुए हैं। बहरहाल उन विवादों को साइड में रखे तो वे वाक़ई इस विशाल वैविध्यता वाले राष्ट्र में वैविध्यता से
संपन्न शख़्सियत के रूप में अपनी राजनीति को जीते रहे।
1957 से 1996 तक का लंबा राजनीतिक जीवन, 90 फ़ीसदी हिस्सा विपक्ष की राजनीति में
ही गुज़रा। विपक्ष की राजनीति यानी विरोध की राजनीति। लेकिन कमाल है कि फिर भी इस शख़्स का कोई विरोधी नहीं रहा! उससे भी बड़ा कमाल यह कह लीजिए कि वे ख़ुद किसीके विरोधी नहीं रहे!
अटलजी ने नेहरू, इंदिरा से लेकर तमाम प्रतिपक्षों का विरोध
किया, इतना ही नहीं... वो पल भी आया था जब संघ का भी विरोध किया, सार्वजनिक तौर पर
अपने ही बड़े नेता को राजधर्म निभाने की तीखी सलाह दे डाली, लेकिन फिर भी ऐसी
राजनीतिक संस्कृति, जहां ना वो किसीके विरोधी थे और ना ही उनका कोई विरोधी रहा! लोग कहते हैं कि उनकी खूबी यही थी कि वो जब बोलना पड़े तब
बोल देते थे। किसीने सही लिखा है कि जिस शख़्स ने नेहरू से लेकर नरसिम्हा राव तक के
सामने खड़ा होकर विरोध किया हो, उस शख़्स का कोई विरोधी नहीं है, यह अपने आप में एक सियासी अचरज
है!!!
स्वस्थ विरोधनीति और लोकतंत्र के लायक राजनीति, जीवन विरोध की राजनीति में गुज़रा फिर भी किसी के विरोधी नहीं रहे और ना कोई उनका विरोधी रहा
अटल बिहारी वाजपेयी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के
प्रधानमंत्रित्व काल के गवाह रहे। 1957 में जब बलरामपुर से चुन कर पहली बार लोकसभा
पहुंचे तो पंडित नेहरू देश के पीएम थे। 2006 में जब उन्होंने राजनीति से सन्यास लिया
तो मनमोहन सिंह के पास देश की बागडोर थी। अपने सियासी सफर में अटलजी पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी,
मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह,
चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल और मनमोहन सिंह के कार्यकाल का गवाह रहे।
वाजपेयीजी पाकिस्तान के साथ तीन और चीन के साथ हुए एकमात्र युद्ध के भी गवाह रहे। पाकिस्तान
के ख़िलाफ़ 1999 में कारगिल के मोर्चे पर हुए युद्ध के दौरान वाजपेयी ख़ुद देश के पीएम थे। पोखरण
में 1998 में हुए परमाणु परीक्षण के दौरान वाजपेयी ख़ुद पीएम थे। इससे पहले 1974 में
हुए परीक्षण के दौरान इंदिरा गांधी पीएम थीं।
वाजपेयीजी ने हमेशा नीतियों का
विरोध किया, लेकिन नेताओं का नहीं। किसी को व्यक्तिगत रूप से उन्होंने टार्गेट नहीं किया, लेकिन नेता चाहे जितना बड़ा हो, उसकी नीतियों पर वार करने से नहीं चूके। चुनाव
प्रचार हो, सदन के भीतर हो या कहीं और हो, कभी व्यक्तिगत आक्रमण नहीं किए बल्कि
मुद्दों की राजनीति और मुद्दों का विरोध किया। उन्हें सुनने के लिए लोग दूर दूर से
आते थे, जबकि आज सुनाने के लिए लोगों को दूर दूर से लाना पड़ता है।
जब नेहरू की तस्वीर ग़ायब दिखी तो बात खटक गई थी, नीतियों का विरोध किया किंतु
नेताओं का नहीं
आज की सियासत में नेहरू को एक बार नहीं किंतु अनेकों बार या यूं कहे कि हर बार
सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने का चलन पुरजोर में है। जैसे कि नेहरू आज भी ज़िंदा हो, वो चुनाव में खड़े हो और उन्हें हराना हो! लेकिन वाजपेयी का वो दौर देखिए। वो भी नेहरू का विरोध करते
थे, लेकिन नेहरू का नहीं बल्कि उनकी नीतियों का। नीति विरोध के चक्कर में नेहरू के
आभामंडल पर उन्होंने लांछन लगाने का प्रयास किया हो ऐसे वाक़ये बहुत ही कम मिल सकते
हैं। हो सकता है कि ना भी मिले।
नेहरू के सामने उनकी नीतियों के वाजपेयीजी कड़े आलोचक रहे थे। मगर जब जनता सरकार
में पहली बार विदेश मंत्री बने तब गलियारे से नेहरू की तस्वीर ग़ायब देखी तो खटक गया।
अटलजी ने बस इतना पूछ दिया कि वो तस्वीर कहां गई तो किसी ने जवाब नहीं दिया। अगले दिन
नेहरू की तस्वीर वापस उस जगह आ गई। यह मनगढ़ंत कहानी नहीं है। यह
बात स्वयं अटलजी ने लोकसभा में बताई थी।
क्या आज उन्हीं की पार्टी के नेता ऐसा कर सकते
हैं? युग ख़त्म हो गया वाली लाइन बोलने के बजाय उस स्वस्थ राजनीति
के युग को ज़िंदा करने की कोशिश कर सकते हैं? नेहरू, इंदिरा और
राजीव की नीतियों का अटलजी ने ज़बरदस्त विरोध किया था, लेकिन अटलजी ने नेहरू की
तस्वीर ग़ायब देखी तो ख़ुद को रोक नहीं पाए थे। कहानियाँ तो यह भी है कि नेहरू और
इंदिरा से लेकर राजीव तक ने अटलजी को दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर स्वीकार किया था।
15 अगस्त 2018 को उनके ही नेतृत्व में पले बढ़े अरुण जेटली ने स्वतंत्रता दिवस पर
एक पोस्टर के ज़रिए बधाई संदेश ट्वीट किया। उस पोस्टर में गांधी, पटेल, तिलक, रानी लक्ष्मीबाई, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर थी, मगर नेहरू की नहीं थी।
क्या वाजपेयी होते तो यह बर्दाश्त कर लेते? क्या वे नहीं पूछते
कि अरुण इस पोस्टर में गांधी के साथ पटेल हैं मगर नेहरू क्यों नहीं हैं? तब अरुण जेटली क्या जवाब देते?
क्या वाजपेयीजी को
जवाब दे पाते या वे चुपचाप दोबारा ट्वीट करते जिसमें नेहरू की भी तस्वीर होती?
एक दौर में 2 सीटों वाली भाजपा के नेता वाजपेयी को उस वक़्त की सरकारें बड़े संसदीय मौक़े दिया करती थी, जबकि आज 50 सीटों वाली कांग्रेस संसदीय परंपरा के
मुताबिक़ प्रतिपक्ष नहीं है ऐसी दलीलें दी जाती हैं। जब दिल्ली में केजरीवाल सरकार बनी
और उसके बाद 15 अगस्त का मौक़ा आया तब दिल्ली के सीएम को लाल किले के उस समारोह में
शामिल होने का आमंत्रण नहीं दिया गया था। क्या अटलजी राजधर्म निभाने का सार्वजनिक
मशवरा देने से चूकते? वैसे केजरीवाल सरकार ने 3 सीटों वाली भाजपा को दिल्ली
विधानसभा में प्रतिपक्ष के तौर पर स्वीकार करके वाजपेयी की परंपरा को ज़रूर निभा
लिया था।
वाजपेयी और नेहरू का विचित्र संबंध रहा है। वाजपेयी का कोई भी सियासी मूल्यांकन
नेहरू के बिना नहीं हो सकता। नेहरू के निधन पर फूट फूट कर रोए थे। उन्होंने नेहरू को
जो श्रद्धांजलि दी थी वो आज भी भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज़
है।
उसीका एक हिस्सा कुछ यूँ था - "महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के संबंध में कहा है
कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडितजी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई
देती है। वह शान्ति के पुजारी किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे। वे अहिंसा के उपासक थे
किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे। वे व्यक्तिगत
स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता
करने में किसी से भय नहीं खाया किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया।"
अंदरूनी कशक या चालाकियों को छोड़ दे और बहानेबाजी को साइड में रख दे तो
सार्वजनिक रूप से स्वस्थ राजनीति की लोगों को ज़रूरत है। लेकिन आज के दौर में जहां
भाषण ही स्वस्थ नहीं हुआ करते तब ऐसे युग में वाजपेयी के जाने से एक युग का अंत हो
ही गया ऐसा मान लेने में कोई बुराई नहीं है।
कट्टर हिंदूवादी छवि वाले दल से आए, लेकिन साधना ऐसी कि ख़ुद के उदारवादी चेहरे
पर कट्टरवाद का छाया आने नहीं दिया
ऐसी साधना वाक़ई ग़ज़ब राजनीतिक साधना कह लीजिए। तभी तो आज भी भाजपा को वाजपेयी
की भाजपा, आडवाणी की भाजपा या मोदी की भाजपा जैसे नामों से अलग किया जाता है। भारत की
राजनीति से अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा उनके निधन से पहले ही समाप्त हो चुकी है।
वे नेहरू युग के आखिरी नेता थे जिनका नेहरू से संबंध भी था और नेहरू से विरोध भी। उन्होंने
विपक्ष की राजनीति की जो परंपरा कायम की थी, आज वो संकट में है।
अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ सत्ता के लिए विपक्ष नहीं थे बल्कि उस पार्टी के भीतर भी
विपक्ष थे जिसकी स्थापना में वे भी शामिल थे। भले ही कई बार वे अपनी पार्टी के भीतर
कमज़ोर विपक्ष रहे हो। मगर जब वे प्रधानमंत्री बने तब बीजेपी के भीतर विरोध की आवाज़
आज से कहीं ज़्यादा मुखर थी। हर दिन बीजेपी के ही नेता सवाल करते थे। उनके ख़िलाफ़ धर्म
संसद होती थी। दिल्ली के रामलीला मैदान में राममंदिर को लेकर धर्म संसद बुलाई गई थी।
वहाँ जिस तरह से अटल बिहारी वाजपेयी पर प्रहार किया गया वह हैरान करने वाला था। आज
किसी धर्माचार्य में साहस नहीं है कि उस तरह से मौजूदा नेतृत्व के बारे में बोल दे।
बोल भी दिया तो सबको पहले से पता है कि अंजाम क्या होगा। अटलजी के बारे में यही पता
था जितना सुनाना है, उन्हें सुनाओ,
अटल जी सुन लेते हैं।
1960 का वो दशक जब वाजपेयी तेज़-तर्रार हिंदुत्ववादी नेता हुआ करते थे। मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयान दिया करते थे। कई बार भड़काऊ भाषण दिए, उग्र राष्ट्रवाद का सहारा भी लिया। जैसे जैसे भारत की संसदीय राजनीति में मंझते गए वैसे वैसे उन्होंने अपनी उग्र राष्ट्रवादी छवि को ढंकने-दबने का काम किया। बाबरी विध्वंस से पहले अटलजी का वो भाषण, जिसमें उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के
आदेश के बाद कार्यसेवा का इरादा दोहराया था उसे कई लोग याद कर सकते हैं।
लेकिन उसके
बाद सार्वजनिक रूप से वे उस विवाद से ख़ुद को दूर रखते रहे। वैसे यहाँ एक आउटसाइड
सब्जेक्ट को नोट कर लेते हैं। कट्टर हिंदुत्व की छवि को भाजपा या संघ चाहे जितना
ओढ़े या कुछ मौक़ों पर निकाल फेंके, लेकिन शायद शिवसेना और बाल ठाकरे का दौर उस
कट्टरता का सर्वोच्चतम बिंदु था। शिवसेना समेत कई हिंदू संगठन हिंदुओं को एक करने
की बात करते थे, लेकिन मराठा की राजनीति के नाम पर मुंबई में परप्रांतिय हिंदुओं को
प्रताड़ित किया जाता था!!! ग़ज़ब का हाल था यह। शायद इसीलिए बिहार या यूपी के अनेक हिंदूवादी समर्थक ऐसे
हैं जो संघ को पसंद करते हैं, लेकिन शिवसेना को नहीं! यानी कि राष्ट्रवाद या
धर्मवाद को ज़िंदा रखने से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि रोजगारवाद (पेट की ज़रूरतें पुरी
करने) की संतुष्टि हो पाए... उधर राजनीति के लिए उन दोनों को ज़िंदा रखने के लिए
रोजगारवाद पर कम ध्यान जाए उसकी भी ज़रूरत होती है!!!
प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके अपनी ही पार्टी और संघ से कई मतभेद रहे। कई
नीतियों में संघ उनकी शैली से खफा रहता था। राम मंदिर, शिक्षा, विनिवेश, विदेशी
पूंजी समेत कई चीज़ें थी जिनमें मत अलग हुए। लेकिन बंगलूरू में आयोजित पार्टी की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी में 2 जनवरी, 1999 को अटलजी ने कहा कि पार्टी के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत
उचित है और जारी रहनी चाहिए, लेकिन सरकार चलाने के मामलों में प्रधानमंत्री का फ़ैसला ही अंतिम
होगा। तब कुशाभाऊ ठाकरे भाजपा अध्यक्ष थे।
वाजपेयीजी ने एक दफा एक पत्रकार से यहाँ तक कह दिया था कि राम मंदिर मेरा एजेंडा नहीं है। शायद यही वजह रही है कि अपने ही घर
के कुछ लोग उन्हें दिल से पसंद नहीं करते थे। अटलजी एक विराट व्यक्तित्व बन चुके थे,
लिहाज़ा मजबूरी में पसंद करना भी एक मजबूरी रही होगी। जब जब ज़रूरत पड़ी, अटलजी ने ख़ुद को एक अलग ही जगह पर खड़ा किया। इतने विशाल देश में सभी लोगों को, सभी दलों को, उनकी
आशाओं को, उनकी मान्यताओं को साथ लेकर चलना ज़रूरी है, इसके बिना वसुधैव कुटुम्बकम की
भावना सार्थक नहीं हो सकती – यह उनके ही लफ्ज़ थे। भले यह उनकी राजनीतिक मजबूरी थी,
लेकिन एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए यही तो ज़रूरी राजनीति थी।
वो ग़ज़ब दौर जब अटलजी ने संघ को ही नसीहत दे दी थी
यह ग़ज़ब दौर ही कह लीजिए, जब अटलजी ने सार्वजनिक रूप से संघ को तीखी नसीहत दे
डाली थी। 2015 में जब अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिया गया तब उस मौक़े पर उनके पूर्व सहयोगी सुधींद्र कुलकर्णी ने एक लेख लिखा था। इस लेख में अटल बिहारी
वाजपेयी के एक लेख का हवाला दिया गया था जो उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था।
इस लेख में उन्होंने अपनी शैली में आरएसएस को नसीहत दी थी कि वह राजनीति से दूर रहे।
एक हिस्सा कुछ यूँ था - "आरएसएस सामाजिक और सांस्कृति संगठन होने का दावा करता है। संघ
को यह साफ करना चाहिए कि वह कोई राजनीतिक भूमिका नहीं चाहता है। ऐसे प्रेस को संरक्षण
देना जो सत्ता की राजनीति में किसी का पक्ष लेता हो, राजनीतिक दलों के युवा संगठनों में शामिल होना, ट्रेड यूनियनों की
प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना, जैसे पानी की सप्लाई काट कर दिल्ली के लोगों को कष्ट पहुंचाना, इन सबसे दूर रहना चाहिए।
इससे आरएसएस को ग़ैर राजनीतिक साख कायम करने में मदद नहीं मिलती है।"
क्या आज कोई संघ को ऐसी सख़्त हिदायत दे सकता है? अटलजी ने अपने इस लेख में ऐसे प्रेस को संरक्षण देने की भी आलोचना
की थी जो सत्ता के खेल में किसी का पक्ष लेता हो। आज भारत के प्रेस की पहचान ही यही
हो गई है। वह सत्ता के पक्ष में खड़ा होकर खेल कर रहा है। सवाल करने वालों पर हमला कर
रहा है। उस परंपरा पर हमला कर रहा है जिसकी बुनियाद अटल बिहारी वाजपेयी और राम मनोहर
लोहिया जैसे नेताओं ने डाली थी।
जब गुजरात जाकर नरेन्द्र मोदी को राजधर्म याद दिलाया
राजधर्म, अटलजी और नरेन्द्र मोदी... यह सार्वजनिक ही नहीं बल्कि अद्भुत दृश्य था। भले ही नरेन्द्र मोदी के समर्थक उस दृश्य को अपने-अपने तौर पर प्रस्तुत
किया करते हो, किंतु प्रधानमंत्री अटलजी का गुजरात जाकर नरेन्द्र मोदी को राजधर्म
सिखाने का वो दौर भारतीय राजनीति का वो पन्ना था जिसके लिए लोकतंत्र सदैव तरसता रहेगा।
मनमोहन काल हो या मोदी का दौर, उनके बड़े बड़े मंत्री-मुख्यमंत्री राजनीति को निचले स्तर पर ले
गए, किंतु किसी ने ऐसा उदाहरण पेश नहीं किया, जैसा अटलजी ने कर दिखाया था।
हिंदुस्तान में राजनीति लफ्ज़ काफी प्रचलित रहा, किंतु राजधर्म का ज़िक्र
करके अटलजी ने लोकतंत्र और भारतवर्ष की बुनियादी ज़रूरतों का नजरिया उस मंच पर पेश कर
दिया, जिस मंच से आमतौर पर राजनेता बचाव और आक्रमण की मुद्रा में दिखते
रहे हैं।
अटलजी की सरकार के दौरान अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार का विरोध करते हुए सोनिया
गांधी ने संसद के अंदर एक भाषण दिया। इस भाषण में सोनिया गांधी ने सरकार के लिए जिन लफ्जों का प्रयोग किया उससे खफा होकर अटलजी ने उनके भाषण पर तीखा वार किया। आहत
होते हुए उन्होंने कहा कि लगता है कि आप शब्दकोश खोलकर शब्द ढूंढ़ने बैठी होगी। अटलजी
ने कहा कि इतने बड़े देश में मतभेद हो सकते हैं लेकिन मेरी सरकार के लिए आपका
ये मूल्यांकन है? मतभेदों को प्रक्ट करने का ये तरीक़ा है? अटलजी का कहना था कि विरोध कीजिए लेकिन मर्यादा में रहकर
कीजिए।
सोनिया गांधी ने इस नसीहत पर कितना अमल किया यह पता नहीं। हो सकता है कि संसद
के भीतर अमल किया हो। लेकिन गुजरात में जाकर नहीं किया और नरेन्द्र मोदी को मौत का
सौदागर बोल आई! बाद में तो नरेन्द्र मोदी ने भी लफ्जों से लिहाज़ नहीं किया और कई दफा
व्यक्तिगत आलोचना करके निम्न टिप्पणियां करते रहे! शायद वाजपेयी गलत लोगों को नसीहत
देने की गलती कर चुके थे।
परमाणु परीक्षण के दौरान विरोध कर रही कांग्रेस को अटलजी ने संसद के भीतर आईना
दिखाया
1998 का साल, पीएम वाजपेयीजी के दौर में भारत ने परमाणु परीक्षण किया। सन 1974
के बाद यह दूसरा ऐतिहासिक मौक़ा था। लेकिन सदन के भीतर और बाहर विपक्षी दल कांग्रेस
इस परीक्षण पर सवाल उठाने लगा। पूछा जाने लगा कि इसकी ज़रूरत क्या थी। तब संसद के
भीतर अटलजी ने कांग्रेस को स्वस्थ राजनीति का आईना दिखाया। उन्होंने विरोध कर रहे
कांग्रेसी नेताओं को 1974 का वह दौर याद दिलाया जब उन्होंने इंदिरा सरकार के परमाणु परीक्षण
का समर्थन किया था।
वैसे 1998 के परमाणु परीक्षण की बात निकली है तो एक बात का ज़िक्र कर लिया जाए।
पूर्व राष्ट्रपति और भारत के रक्षा वैज्ञानिक अब्दुल कलाम ने अपनी किताब में एक बात
का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार 1998 में किया गया परमाणु परीक्षण कांग्रेस की
नरसिम्हाराव सरकार की योजना थी। लेकिन राव सरकार चली गई और तब राव ने कलाम साहब को
जिम्मा सौंपा था और नई बनी वाजपेयी सरकार को इसके बारे में सार्थक बातचीत करने के
लिए कहा। अटलजी की स्वस्थ राजनीति ही थी कि उन्होंने राव सरकार के इस राष्ट्रहित
सरीखे कार्य को पूरी गोपनीयता से आगे बढ़ाया। उनकी सरकार गिर गई, फिर सरकार बनी,
फिर गिरी, लेकिन अटलजी ने इस कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न करवाया।
सोचिए, कांग्रेस की राव सरकार की योजना, और अटलजी के कार्यकाल में कार्य
संपन्न हुआ तो ख़ुद कांग्रेस ही विरोध करने में जुट गई!!! कमाल की राजनीति ही कह
लीजिए। तो फिर राव का ही विरोध कर लेते उस वक़्त। खैर, किंतु ऐसी राजनीति यही नहीं थमती। आज के दौर में मोदी सरकार की राजनीति ही देख लीजिए, जहां उन्होंने जीएसटी,
एफडीआई, नोटबंदी, मनरेगा से लेकर तमाम कांग्रेसी प्रयासों का ऐतिहासिक विरोध किया
और फिर इन्हीं चीज़ों को ऐतिहासिक रूप से इतराकर लागू किया!!! खैर, सोनिया से भाजपा की
नयी पीढ़ी काफी कुछ सीखी होगी, जबकि सीखना था अटलजी से!!!
नवाज़ शरीफ़ ने कहा- वाजपेयी जी,
आप तो पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं
अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता ने उन्हें भारत में 12 बार संसदीय चुनाव जीतने
में मदद की। जबकि उनकी वाकपटुता, शब्दों में जुनून और संदेश देने में निष्ठा ने उन्हें पाकिस्तान
के लोगों के दिलों में भी बसा दिया।
साल 1999 में वाजपेयी ने अपनी लाहौर यात्रा के
दौरान एक भाषण में शांति की जोरदार अपील की थी, जिसके बाद पाकिस्तान
के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने टिप्पणी की थी, “वाजपेयी जी, अब तो आप पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं।” पाकिस्तान टेलीविज़न ने इस भाषण का सीधा प्रसारण किया था। ये बात और है कि कारगिल युद्ध, जिसमें भारतीय फौज की भारी हानि हुई थी उसे कई विश्लेषक उस घटना
से भी जोड़ते हैं, जब नेहरू काल के समय चीन पर भरोसा करने के बाद भारत ने चीन का
हमला झेला था।
संख्याबल के सामने सिर झुकाने वाले वाजपेयी, जबकि कई दफा संख्याबल न होने के
बाद भी सरकारें बना ली जाती हैं
संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान वाजपेयीजी का वो भाषण, सदन के भीतर उनके
वो सीधे बयान, इन सब चीज़ों को एक युग के तौर पर याद ज़रूर किया जाता है, किंतु
कांग्रेस तो क्या स्वयं भाजपा भी आज उन भाषणों पर नहीं चलती। कांग्रेस का तो अपना एक
बदनूमा इतिहास रहा है, किंतु भाजपा भी आज कांग्रेस सरीखी बनती नजर आती है। वह
अटलजी का संसद के भीतर एलान था, जिसमें उन्होंने मुख्य रूप से दो बिंदु पेश किए थे।
उनके लफ्जों में – “यह पार्टी कोई चुनाव
के समय कुकुरमुत्ते की तरह खड़ी होने वाली पार्टी नहीं है…” तथा “हम संख्या बल के
सामने सिर झुकाते हैं…”
"ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा..." वाजपेयीजी का सदन के भीतर यह भाषण कई पहलूओं को स्पष्ट कर देता है। जैसे पहले कहा वैसे कांग्रेस का तो अपना एक बदनाम इतिहास है, किंतु सदन के
भीतर इन दो-तीन बिंदुओं को स्पष्ट करनेवाले वाजपेयी की पार्टी भाजपा भी आज उसी बदनाम
इतिहास का हिस्सा बनकर इतराती है। संख्याबल के सामने सिर झुकाने की वाजपेयी की बात
उन्हीं के लोगों को पसंद नहीं आ रही। जिन प्रदेशों में वे सबसे बड़ी पार्टी भी नहीं बन
सके हो वहां अनैतिक रूप से सरकारें बना ली गई या ऐसे अविफल और विवादित प्रयास भी
हुए! बचाव करने वाले बचाव कर ही लेंगे, क्योंकि आज वो आवाज खामोश है जो उन्हें आईना
दिखा देती थी।
जब अपनी ज़िंदगी के लिए राजीव गांधी का धन्यवाद किया
यह उस स्वस्थ राजनीतिक युग का एक उदाहरण है, जिसका ज़िक्र स्वयं अटलजी ने किया
था। राजीव गांधी का ज़िक्र
करते हुए वाजपेयी ने वर्ष 1991 में पत्रकार करण थापर से बातचीत में कहा था, “राजीव गांधी की असमय मौत मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति भी है। राजीवजी ने कभी भी राजनीतिक
मतभेदों को आपसी संबंधों पर हावी नहीं होने दिया। मैंने अपनी बीमारी की बात ज़्यादातर
लोगों को नहीं बताई थी लेकिन राजीव गांधी को किसी तरह से इस बारे में पता चल गया। उसके
बाद उनकी मदद के कारण ही मैं स्वस्थ हो पाया।”
दरअसल, अटलजी ने जिस घटना के बारे में बताया था, वह 1987-88 के आसपास की है। तब अटलजी सांसद हुआ करते थे। उनके पेट में हल्का हल्का
दर्द हो रहा था। मेडिकल चेकअप के दौरान डॉक्टरों ने उनकी किडनी में इंफेक्शन बताया था। उस समय भारत का मेडिकल
क्षेत्र इतने एडवांस स्टेज में नहीं था। उन्हें अमेरिका में इलाज कराने की सलाह
दी गई जो बेहद खर्चीला था।
अटलजी की इस बीमारी के बारे में पता चलते ही राजीव
गांधी ने एक योजना के तहत उन्हें अमेरिका भेजने की व्यवस्था की। अटलजी ने बताया
था कि राजीव गांधी ने उनको
अपने दफ्तर में बुलवाया। उन्होंने वाजपेयी से कहा कि अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र
संघ के एक कार्यक्रम में आपको भारतीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनना है। उसके बाद राजीव
ने कहा कि आप न्यूयॉर्क जाएंगें तो मुझे अच्छा लगेगा। मुझे उम्मीद है कि आप इस अवसर
का लाभ उठाएंगे और वहां अपना इलाज कराएंगे। मैंने विदेश विभाग के अधिकारियों को बता
दिया है और वे आपका इलाज करा कर हीं भारत लौटेंगे। उसके बाद अटलजी अमेरिका से इलाज
कराकर स्वस्थ होकर भारत लौटे थे।
अटलजी ने कहा था कि राजीव गांधी ने यह बात किसी को सार्वजनिक रूप से नहीं बताई
थी और ना ही किसी जगह इसका ज़िक्र किया था। उनकी मृत्यु के बाद अटलजी ने स्वयं इसका
ज़िक्र किया। इस राजनीतिक घटना में आपसी संबंध और स्वस्थ विरोध के दौर को आप अपने
अपने तरीक़े से सोच सकते हैं। लेकिन आज के दौर में दूसरे दलों के नेता को तो छोड़ दीजिए, अपने ही नेता को मरवाने का चलन है यह आप अंदर ही अंदर, कहीं कोने में महसूस
करेंगे।
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने अरुण जेटली और जसवंत सिंह से कहा था- अब पूछने से क्या
फ़ायदा?,
दोनों चुपचाप कमरे से बाहर चले गए
राजनीति कवर करने वाले कई पत्रकार एक किस्सा बताते हैं। जब बीजेपी के संगठन ने
वेंकैया नायडू को पार्टी अध्यक्ष बनाने का फ़ैसला लिया उस वक़्त की यह घटना बताई
जाती है। कथित रूप से फ़ैसला लेने से पहले पीएम रहे वाजपेयी को नहीं बताया गया था। जब
यह तय हो गया कि पार्टी के अध्यक्ष अब वेंकैया नायडू होंगे तो जसवंत सिंह और अरुण जेटली यह बताने के लिए अटलजी से मिलने पहुंचे। ऐसा माना जाता है कि वाजपेयी इस फ़ैसले
से खुश नहीं थे। वाजपेयी ने जसवंत और अरुण जेटली के लिए जूस मंगवाया और दोनों से पार्टी
के फ़ैसले के बारे में सुना। वाजपेयी आंखें मूंदे सुनते रहे लेकिन कहा कुछ नहीं।
इसी बीच जसवंत सिंह ने जूस पीने के बाद वहां गिलास लेने आए कर्मचारी से पूछा कि
क्या जूस ताज़ा था? अपनी वाकपटुता के
लिए मशहूर वाजपेयी ने जसवंत की बात सुनकर तुरंत जवाब दिया, “अब पूछने से क्या फ़ायदा?” वाजपेयी ने बातों ही बातों में अपनी असहमति जता दी थी।
(इनसाइड इंडिया, एम
वाला)
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