आधार कार्ड कितना ज़रूरी है, इसके फायदे क्या हैं, नुकसान क्या हैं, कहां इस्तेमाल
होगा, कहां इस्तेमाल नहीं होगा, आधार आएगा, आधार नहीं आएगा, आधार ज़रूरी है, आधार
ग़ैरज़रूरी है, आधार वैकल्पिक है, आधार कुछ चीजों के लिए तो चाहिए ही चाहिए... एक
लफ्ज़ में कहे तो, कभी देश के लिए खतरा, कभी देश के लिए एक मात्र आधार!!! बस यही तो आधार की आधारभूत कहानी है। शायद यह देश का ऐसा पहला
विराट कार्यक्रम होगा, जो संसद में पारित होने से पहले ही देश में लागू किया जा रहा
हो!!!
एनडीए की पिच पर यूपीए ने खेला गेम
आधार योजना वैसे तो यूपीए सरकार से जुड़ी थी। लोगों को तो किसी सरकार से कोई
फर्क नहीं पड़ा। यूपीए सरकार के दौर में भाजपा ने आधार को देश के लिए खतरा बताया और
सत्ता में आने के बाद उसी आधार योजना को अपने सगे बच्चे से भी ज्यादा मुहब्बत देकर
योजना को आगे बढ़ाया! लोग तो वहीं के वहीं रहे, जहां पहले थे। किसी व्यंगकार (हास्य
कवि) का मशहूर व्यंग है कि तुम्हारे वोट से कोई नेता बना, कोई मंत्री बना, कोई
चेयरमैन बना... वोटर बेचारा क्या बना? वैसे इसका उत्तर हर वोटर के पास है। ये बात और है कि कोई
इसका उत्तर दे देता है, जबकि कुछ की मजबूरी होती होगी! नंदन नीलेकणि और कांग्रेस से जुड़ी यह आधार योजना वैसे
कांग्रेस ने भी शायद पूर्व सरकार के खाते से अपने खाते में डाली थी! यह और बात है
कि सदैव योजनाओं का चेहरा या लिबास बदल दिया जाता है।
1999 में हुए कारगिल युद्ध के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के अवलोकन के लिए एक समिति
का गठन किया गया था। इस समिति ने जनवरी 2000 में अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपी। इस रिपोर्ट में सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों
से शुरुआत करते हुए सभी नागरिकों को एक पहचान पत्र जारी करने की बात कही गई थी। इन
सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सरकार ने सभी नागरिकों के पंजीकरण की व्यवस्था शुरू
की।
साल 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी ने मंत्रियों के समूह (जीओएम) की सलाह पर एनपीआर
के आधार पर मल्टी परपज नेशनल आइडेंटिटी कार्ड (एमपीएनआईसी) की शुरुआत की थी।
2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार केंद्र में आई तो उन्होंने एनडीए
सरकार की इस योजना को आगे बढ़ाया और इस प्रोजेक्ट का इस्तेमाल अपनी वेलफेयर स्कीम की सब्सिडी की जांच करने में किया। यूपीए ने एनपीएनआईसी के प्रोजेक्ट को यूआईडीएआई
से बदल दिया। यूपीए ने 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन करते हुए उसमें धारा
14ए को जोड़ दिया। इस धारा ने केंद्र सरकार को यह अधिकार दे दिया कि वह अनिवार्य रूप
से प्रत्येक नागरिक का पंजीकरण करे और उन्हें एक राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करे।
2009 में शुरू हुई योजना, सरकार ने कहा यह वैकल्पिक है,
लेकिन चुपके चुपके अनिवार्य बनाते गए
2006 में यूपीए सरकार ने 'विशिष्ट पहचान परियोजना'
(यूआईडी) की शुरुआत की। इस परियोजना का उद्देश्य
राष्ट्रीय पंजीकरण की तरह सुरक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करना नहीं बल्कि लोगों तक विभिन्न
वित्तीय योजनाओं का लाभ पहुंचाना था। कुछ ही समय बाद इन दोनों योजनाओं को एक साथ जोड़
दिया गया। इसके साथ ही साल 2009 में 'भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण' की स्थापना हुई और यूआईडी को 'आधार' नाम दे दिया गया।
साल 2009 में यूपीए-2 के समय में, जब यह सरकारी योजना शुरू हुई, तब सरकारी तंत्र ने
बार-बार आश्वासन दिया कि यह वैकल्पिक है और इसे अनिवार्य नहीं बनाया जाएगा। फिर धीरे-धीरे
सरकार ने पिछले दरवाजे से इसे नरेगा के तहत काम का अधिकार और पेंशन हासिल करने के लिए
अनिवार्य कर दिया!!! कहते हैं कि जब उच्चतम न्यायालय ने सितंबर 2013 में कहा कि इसकी
वजह से लोगों को उनके हक से वंचित नहीं किया जा सकता, तब ग्रामीण विकास मंत्रालय
के एक होशियार अफसर ने सरकार के लिए रास्ता निकाला। सरकारी आदेशों में पहली पंक्ति
में न्यायालय के आदेश को लिखा जाता और साथ ही दूसरी पंक्ति में लिख दिया गया - यदि
आधार नंबर नहीं है, तो उस व्यक्ति की आधार पंजीकरण में मदद की जाए!!!
कई जगह सुना या पढ़ा कि जैसे सुप्रीम कोर्ट का आदेश मंत्रालय में आते-आते इस तरह
मरोड़ा गया, उसी तरह मंत्रालय का आदेश (लोगों को आधार में पंजीकृत किया जाए), जिले तक पहुंचते-पहुंचते और भी मरोड़ा गया!!! नतीजा यह हुआ कि जिनके पास आधार नहीं था, उनका नाम धीरे-धीरे कटता गया। कहानी यहीं खत्म नहीं होती। जैसे-जैसे लोगों के
नाम आधार ना होने की वजह से, उनकी जानकारी के बिना कटते गए, सरकार ने दावा करना शुरू किया कि यह लोग 'फर्जी' थे जो आधार की वजह से पकड़े गए हैं!!!
सुप्रीम कोर्ट का सवाल, क्यों न आधार योजना को बंद कर दिया जाए?
इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन यूपीए
सरकार से पूछा था कि, “क्यों न आधार योजना को बंद कर दिया जाए?” दूसरी ओर, प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई मंत्रालयों को चिट्ठी
लिख कर आधार योजना में तेजी लाने को कहा था!!! पीएमओ में प्रधान सचिव पुलक चटर्जी ने
लिखा था कि, “मैं आपसे अनुरोध
करता हूं कि नकद योजना पर जल्द काम किया जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि आपके पास योजना
का फायदा पाने वालों का आधार नंबर हो।”
सरकारी योजनाओं के फायदे सीधे बैंक खाते में पहुंचाने की
योजना पर भाजपा और कांग्रेस में ठनी
उस दौर के सबसे बड़े विपक्ष भाजपा ने यूपीए की इस योजना को मतदाताओं को लालच
देने का षड्यंत्र बताया था। भाजपा ने इसकी शिकायत चुनाव आयोग से भी की थी। बीजेपी नेता
सुषमा स्वराज और लालकृष्ण आडवाणी चुनाव आयोग से मिले थे। आडवाणी ने बयान देकर कहा था
कि, "कैश ट्रांसफर का क्रियान्वयन 1 जनवरी से होना है, लेकिन पहले से इसकी घोषणा चुनाव
वाले राज्यों में केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा पहुंचा सकती है। चुनाव आयुक्त
ने हमें भरोसा दिया है कि वो मामले को देखेंगे।" बीजेपी के आरोपों पर कांग्रेस नेता
अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि, "वो लोग जानते हैं कि वो हार जाएंगे इसलिए इस तरह के मुद्दें
उठा रहे हैं। उनके हिसाब से चले तो पूरे पांच साल हमें किसी नीति का एलान करना ही
नहीं चाहिए।"
अब ठीक इसी तरह के दृश्य भाजपा की सरकार बनने के बाद भी दिखे थे। जिसमें बजट की
तारीख बदलने तथा विधानसभा चुनावों के टाइमींग को लेकर सत्तादल भाजपा और विपक्ष
कांग्रेस में ठन गई थी। 2017 के दौर में कांग्रेस का सूर वही था, जो 2012 में इस
योजना को लेकर भाजपा का था! जबकि भाजपा का सूर 2012 की यूपीए सरकार के ताल से ताल
मिला रहा था!
यूपीए के दौर में भाजपा ने आधार का जमकर विरोध किया
2014 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव अनंत कुमार का कहना
था, “यदि भाजपा की सरकार केंद्र में बनती है तो हम आधार योजना को
पूरी तरह से समाप्त कर देंगे। साथ ही इस योजना पर जनता का पैसा बर्बाद करने वालों के
खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी करेंगे।” भाजपा ने साफ साफ कहा कि यह लोगों के 'निजता के अधिकार' का हनन करती है।
बेंगलुरु (तब बैंगलोर) में एक चुनावी सभा के दौरान नरेन्द्र मोदी ने 8 अप्रैल 2014 को कहा था
कि, “मैंने आधार
पर राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल उठाए, कोई जवाब नहीं मिला। यह राजनैतिक नौटंकी है।” हमारे नेता अपने बयान का बचाव यही तर्क के साथ करते आए हैं
कि उनके बयान का गलत मतलब निकाला गया। मोदीजी भी अब कह सकते हैं कि उन्होंने तो आधार
को नहीं लेकिन मनमोहन सरकार की शैली को राजनीतिक नौटंकी कहा था। बहरहाल जो भी हो,
लेकिन वो भी 2014 के बाद आधार को लेकर अपनी राजनीतिक नौटंकी को डंके की चोट पर
सार्वजनिक ही कर रहे थे।
अक्टूबर 2013 के दौरान स्मृति ईरानी का बयान था कि, “संसद की स्थायी समिति ने बिल खारिज कर दिया है। आधार निजता के
संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।”
लेकिन दौर बदला, सरकार बदली और यूपीए की जगह भाजपा सत्ता में आई। बड़ी साफगोई
से उन्होंने अपना स्टैंड बदल लिया। मोदी सरकार के पेट्रोलियम प्रधानमंत्री
धर्मेंद्र प्रधान अब कहने लगे थे कि नागरिकता और पहचान अलग अलग विषय है, हमने दोनों को अलग अलग रखा है। वे कहने लगे कि यूपीए की तैयारी आधी-अधूरी थी। कई सारी दलीलें वे देने लगे थे और बड़ी चालाकी से अपने स्टैंड से पलटने लगे थे। यानी कि अब भाजपा
ये कह सकती थी कि उन्होंने आधार को नहीं बल्कि यूपीए सरकार की आधार को लेकर जो
कार्यशैली थी उस पर टिप्पणियां की थी। भाजपा यह कहकर पल्ला झाड़ सकती है कि उसके
पूरे बयान को पढ़े। यह भी सच है कि हमारे राजनीतिक विरोधों के दौरान विरोध को पढ़े तो
एक खिड़की बंद तो दूजी खिड़की हमेशा खुली रहती है। यानी कि बयान इस तरह दिये जाते
हैं कि समय-समय पर इसके मतलब अलग निकल जाए वैसी सुविधा भी समन्वित रहती है!!!
2017 में नयी सरकार ने भी इसी तरह आंकड़ों का इस्तेमाल करके
आधार को ज़रूरी बताया था
2009 में यूपीए-2 की सरकार ने जिस तरह आधार की वजह से फर्जी लोगों को पकड़ने के
दावे किए और आंकड़े पेश किए, उसी सड़क पर 2014 के बाद एनडीए सरकार भी चल पड़ी।
सरकारें अलग थी, लेकिन शैली एक दिखी। कई नागरिकी वार्ताओं और नागरिकी चिंतन में बार
बार कहा गया कि अदालत और संसद दोनों जगह आधार से बचत के जो आंकड़े हैं उसमें बहुत बड़ी
संख्या में ऐसे लोग हैं जो गलत तरीके से सरकारी हकों से वंचित हो गए हैं। लेकिन
सरकारों ने, चाहे वो अलग अलग दलों की हो, इसी आंकड़ों को आधार बनाकर आधार की वाहवाही
करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसीके चलते सरकार ने 2017 में आदेश निकाल दिया कि आयकर भरते
समय पैन कार्ड को अनिवार्य रूप से आधार नंबर से जोड़ना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया
तो पैन रद्द कर दिया जाएगा और पैन कार्ड बनवाने के लिए भी सरकार ने आधार को अनिवार्य
कर दिया।
सरकार के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। चुनौती देने वाली याचिका की
अप्रैल 2017 में जस्टिस सीकरी और जस्टिस भूषण ने सुनवाई की। जब कोर्ट को बताया गया कि
यह कदम कितना हानिकारक है, तो तुरंत जस्टिस सीकरी ने अटॉर्नी जनरल से इसकी वजह पूछी।
इसके पीछे तर्क क्या है सरकार इसे अदालत में ठीक से नहीं बता पाई।
अटॉर्नी जनरल ने यह कहा कि, “सुप्रीम कोर्ट के आदेश अब लागू नहीं हैं, क्योंकि वो आदेश आधार क़ानून ना होने की
वजह से दिए गए थे।” तब याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट को बताया कि, “आदेश इस वजह से नहीं थे। कोर्ट ने आधार को अनिवार्य नहीं बनाने
का आदेश अन्य कारणों से भी दिया था और सबसे बड़ा कारण ये गिनाया था कि आधार नहीं होने
के कारण कोई भी अपने हक से वंचित न रह जाए।”
सरकार की ओर से कांग्रेस सरकार सरीखा ही तर्क दिया गया। सरकार ने कहा कि, “बड़ी संख्या में जाली पैन नंबर हैं जो आधार से पकड़े जाएंगे।” बताइए, केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के सामने कह रही थी कि
बड़ी संख्या में जाली पैन नंबर है। पहली बात कि ये जाली पैन नंबर जिन वजहों से है
उसका समाधान इन्हें आधार ही लगा, जिसे वे खतरा मानते थे!!! दूसरा सवाल तो यही उठ गया कि यह बड़ी संख्या सचमुख बड़ी संख्या थी? मार्च
2016 में लोकसभा में पेश आंकड़ों के अनुसार, जाली होने की वजह से केवल 0.4 प्रतिशत
पैन कार्ड काटे गए थे। यदि केवल 0.4 प्रतिशत पैन जाली या गलत पाए गए, तो सरकार का पैन को आधार से लिंक करने का प्रस्ताव घर से चूहा भगाने के लिए घर
को आग लगा देने के बराबर था!!! पैन कार्ड में जो गलतियां हुई हैं या जाली पैन कार्ड
वाले जो मामले हैं, कइयों के अनुसार इस पर लगाम लगाने के लिए कई सारे विकल्प मौजूद
थे, आधार ही एक मात्र समाधान नहीं था।
2015 में सुप्रीम कोर्ट का आदेश
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कई जनहित व सरकारी योजनाओं में आधार को गैरज़रूरी माना
था। पीडीएस, एलपीजी गैस, मनरेगा, प्रधानमंत्री जनधन योजना तथा नेशनल सोशल
असिस्टेंस (ओल्ड एज विडो पेंशन) में आधार को गैरज़रूरी बताया गया था। कोर्ट ने
कहा था कि, “अगर किसी
के पास आधार नहीं है तो उन्हें इन योजनाओं के लाभ लेने से रोका नहीं जा सकता।”
संवैधानिक रूप लेता आधार, इसके साथ जुड़ी सबसे बड़ी समस्या के
निपटारे में आगे बढ़ी सरकार
सरकार ने विधेयक पारित कराने का यह शॉर्टकट तरीका इसलिए अपनाया, क्योंकि राज्यसभा में सत्तापक्ष बहुमत में नहीं था। इसी कारण इसे ‘धन विधेयक’ के रूप में पेश किया गया। लोकसभा से विधेयक पारित होने के बाद
राज्यसभा इसमें कोई संशोधन नहीं ला सकती थी। अलबत्ता संशोधन की सिफारिश ज़रूर कर सकती
थी। इसके साथ ही यह अनिवार्यता भी थी कि विधेयक चौदह दिनों के भीतर लोकसभा को लौटा
दिया जाए। इसी कारण कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने विरोध जताते हुए कहा कि राज्यसभा
से बचने के लिए सरकार ने इसे धन विधेयक के रूप में पेश किया है।
पहचान-पत्र ‘आधार’ को अनिवार्य करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय भी केंद्र सरकार
को कई बार दिशा-निर्देश दे चुका था। क़ानूनी वैधता नहीं होने के कारण ही अदालत ने इसका
उपयोग स्वैच्छिक रूप से मनरेगा, भविष्य निधि, पेंशन, जन-धन, पीडीएस और एलपीजी में सब्सिडी तक सीमित कर दिया था। वैसे आधार
के जरिए यूपीए सरकार ने लोक कल्याणकारी योजनाओं की नकद सब्सिडी देने की शुरुआत कुछ राज्यों
के चुनिंदा जिलों से की थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़ कर, आधार को बिना क़ानूनी मान्यता दिलाए, इसकी अनिवार्यता देश की पूरी आबादी पर थोप दी थी!!! आधार के साथ सबसे बड़ी समस्या इसकी क़ानूनी वैधता नहीं होना था।
बावजूद योजना को गतिशीलता देने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 1,200 करोड़ रुपए की मंजूरी
सितंबर 2014 में ही दे दी थी। यह राशि बिहार,
झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर
प्रदेश में नए आधार पहचान-पत्र बनाने के लिए दी गई थी।
मनमोहन सिंह सरकार हर समय संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देती रही, लेकिन 66,000 करोड़ की लागत वाली इस महत्त्वाकांक्षी योजना की संसदीय वैधता को टालती
रही। दूसरी ओर उस दौर का मुख्य विपक्ष भाजपा आधार को ही गैरज़रूरी तथा देश के लिए खतरा बताता रहा। लेकिन अब वही लोग इसे क़ानूनी वैधता दिलवा रहे थे। यानी कि जिसे
देश के लिए खतरा बताया गया था उसे ही क़ानूनी रूप से वैध करवाया जा रहा था!!!
यूपीए के दौर में योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और सूचना
तकनीक विशेषज्ञ नंदन नीलेकणि के आग्रह पर संसद के दोनों सदनों को दरकिनार कर ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण’ को मंजूरी दे दी गई और तत्काल देशभर में आधार पहचान-पत्र बनाने
का काम भी युद्धस्तर पर शुरू हो गया!!! बाद में जब इसे संवैधानिक दर्जा देने की पहल शुरू
हुई तो यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली स्थायी संसदीय समिति ने इसे खारिज कर दिया था।
समिति ने अपनी दलील को पुख्ता बनाने के लिए सुरक्षा को आधार बनाया था। समिति का
तर्क था कि इसके तहत व्यक्ति, मूल दस्तावेजों और उसकी स्थानीयता की जांच-पड़ताल के बगैर कार्ड
प्राप्त करने में सफल हो जाता है।
लगा कि आधार के मामले में सरकारें अपने अपने तरीके से जनता को गुमराह करती रही
या फिर जनता के सामने जब जो जी चाहा वैसा स्पष्टीकरण देती रही। आधार में कुछ तो ऐसा
था कि सरकारें इतनी बड़ी पल्टीबाजी करने में भी कोई शर्म नहीं दिखा रही थी।
बताइए... मिड डे मील के लिए भी चाहिए आधार !!!
मार्च 2017 के प्रथम सप्ताह में यह नया आदेश आसमान से आ टपका। सफेद कुर्ते वालों से सजे मंत्रालय की ओर से आदेश आया कि 30 जून 2017 के बाद आधार कार्ड बैंक खाते से
जुड़वाने वाले बच्चों को ही मिड-डे मील का लाभ मिल सकेगा। मध्याह्न भोजन योजना (मिड
डे मील) में गड़बड़ी रोकने के लिए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने यह कदम उठाया।
बताइए, जिस आधार को देश के लिए खतरा माना जा रहा था, अब वही लोग आधार को
एकमात्र आधार मान रहे थे!!! मान रहे थे तो ठीक है, जबरन लोगों को मनवा भी रहे थे!!! इसके लिए निर्देश भी जारी कर दिए गये थे। फरमान सुनाया
गया कि रसोइयों को भी अपना आधार कार्ड बनवाना पड़ेगा, उनका मानदेय भी बैंक खाते में आएगा। इसके लिए उन्हें आधार कार्ड अपने बैंक खाते
से लिंक कराना होगा। लगा कि यह सरकार अपना मेनिफेस्टो चुनावी सभा के
किसी मैदान में भूल आई है और ये लोग पिछली सरकार के कामों को लागू करवाने के लिए ही सत्ता में आए होंगे!!!
वैसे आपको यह मानने के लिए भी तैयार रहना होगा कि मिड डे मील वाली ये योजना
भी पहले ही सोची गई होगी और हो सकता है कि यूपीए के समय इसे लागू करवाने के लिए कोई कार्रवाई की गई हो और अब नयी सरकार भी उसी सड़क पर चलने लगी हो। यह मुमकिन है,
क्योंकि ज्यादातर चीजों में यही ट्रेंड दिखा था।
मिड डे मील योजनाओं में धांधली की शिकायतें आ रही थी। जांच के दौरान रजिस्टर पर बच्चों
के नाम अधिक मिलते थे और बच्चे नहीं, जबकि सभी के लिए मिड-डे मील बनने की बात सामने आती थी। गड़बड़ी
रोकने और पात्र को ही लाभ मिले इसके लिए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने नया निर्देश
जारी किया। यानी कि सरकार के पास आधार कार्ड ही तमाम समस्याओं का एकमात्र समाधान बचा होगा, जिसे वे देश के लिए खतरा बताया करते थे!!!
आदेश में कहा गया कि अगर कोई बच्चा आधार कार्ड से लिंक नहीं होता है तो उसे मिड
डे मील नहीं मिलेगा। यानी कि बच्चा अपनी तमाम जानकारी किसी संस्था को सुप्रत कर
दे, बायोमेट्रिक डाटा मुहैया करा दे, फिर उसे भोजन मिल सकेगा। फिर चाहे आधार
कार्ड में ही धांधली की खबरें क्यों न आती हो!!! एक ही व्यक्ति के एक से अधिक आधार कार्ड बन जाते थे,
जानकारी अदला-बदली हो जाया करती थी, आधार की सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा थी, निजता और
जानकारी कंपनियों को पैसे लेकर बेचने का मुद्दा था, जैसे भगवान के इलेक्शन कार्ड
बनाए जाते थे वैसे आधार भी किसी देवी-देवता के बन जाते थे... यानी कि आधार में ही
धांधली हो रही थी और इसे ही धांधली रोकने का हथियार माना जा रहा था!!!
रिटर्न के लिए ज़रूरी हो गया आधार, सरकारी गलतियों का
खामियाजा भुगत रहे थे लोग
अब मसला यह हुआ कि जिनके पैन कार्ड में स्पेलिंग एरर थी, उनके लिए आधार कार्ड
को पैन कार्ड से जोड़ा जाना संभव नहीं था। केंद्र सरकार ने दोनों कार्डों को जोड़ने के
लिए 1 जुलाई, 2017 आखिरी तारीख तय की थी। ऐसे में इस काम को देख रही एजेंसी के पास
नाम की स्पेलिंग ठीक कराने के लिए बड़ी संख्या में आवेदनों की बरसात होने लगी थी। नेशनल
सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड ने पैन कार्ड आवेदन के प्रबंधन का काम कम्प्यूटर एज
मैनेजमेंट सिस्टम सर्विसेज को दिया हुआ था। कंपनी की वाइस प्रेसिडेंट (बिजनेस डेवलपमेंट)
कमला राधाकृष्णन ने बिजनेस टुडे को बताया कि पैन कार्ड में नाम की गलतियां ठीक कराने
के लिए आने वाले आवेदनों में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी।
इंडिया.कॉम के मुताबिक उन्होंने कहा कि इस तरह के नाम की गलतियों वाले पैन कार्ड
ब्लॉक न हो इसके लिए आवेदनकर्ता को अपनी पहचान ठीक करानी होगी, चाहे वह आधार कार्ड में हो या पैन कार्ड में। अगर दोनों में से कोई भी कार्ड ब्लॉक
होता है, तो ये इसी कारण से होगा। इसके बाद आवेदनकर्ता इस साल अपना इनकम
टैक्स रिटर्न फाइल नहीं कर पाएगा। हालांकि देश से बाहर रह रहे प्रवासी भारतीयों को
दोनों कार्डों को एक दूसरे से जोड़ने में छूट मिली हुई है।
हालांकि कागजी और तकनीकी तौर पर पैन कार्ड में बदलाव करवाना आसान था, लेकिन
सरकारों का कछुआ प्रेम और कागजों को एक जगह से दूसरी जगह घुमाना आवेदनकर्ताओं के लिए पहले से ही सिरदर्द बना हुआ था। कहते थे कि आधार सुरक्षित है, लेकिन सुरक्षित बताए
जा रहे आधार में ही कई गलतियां हो रही थी!!!
डेथ सर्टिफिकेट के लिए भी लागू कर दिया गया आधार
हमने यहां लागू करना या ज़रूरत लफ्ज़ इसलिए लिखे हैं, क्योंकि केंद्र सरकार ने
यह ज़रूर कहा था कि डेथ सर्टिफिकेट के लिए आधार अनिवार्य नहीं है। सरकार ने कहा कि
अगर मृतक का आधार नंबर नहीं है तो डेथ सर्टिफिकेट मांगनेवाले को यह प्रमाणपत्र देना होगा
कि मृतक के पास आधार नंबर नहीं है ऐसा मेरी जानकारी में है। अब इसमें भी पेंच देखिए।
यानी कि जिनके पास आधार हो वो अगर मर जाए तो उसके परिजनों को आधार नंबर देना होगा,
वर्ना वो मरा नहीं है यह माना जाएगा!!! गजब का सिस्टम बन रहा था यह। और अगर नहीं है
तो आधार नंबर नहीं है यह परिजन को लिख कर देना होगा।
कांग्रेस का आधार भाजपा ने तो ऐसे थाम लिया था कि अब तो बिना आधार आप निराधार
ही हो चुके थे!!! गजब की
स्थिति तो यह थी कि रेलवे टिकट का बुकिंग करना है तो आधार ज़रूरी नहीं था, लेकिन
मरने के बाद मरने का सबूत चाहिए तो आधार का लफड़ा ज़रूरी था!!!
जनहित स्कीम के लिए आधार को अनिवार्य नहीं बना सकती सरकार :
सुप्रीम कोर्ट
गौरतलब है कि इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह आदेश दिया जा चुका था कि
आधार कार्ड किसी के लिए अनिवार्य नहीं किया जा सकता। आधार कार्ड न होने पर किसी लाभार्थी
को योजना के लाभों से वंचित नहीं रखा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम फैसले
में 27 मार्च को कहा कि कल्याणकारी योजनाओं के मामले में आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं
किया जा सकता, हालांकि इनकम टैक्स या किसी तरह नॉन-बेनिफिशियल योजनाओं के
मामले में सरकार आधार कार्ड मांग सकती है।
आधार कार्ड की अनिवार्यता से जुड़े मामले में देश के प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर
ने कहा कि फिलहाल इस मामले की सुनवाई नहीं की जाएगी और सुनवाई सामान्य तरीके से आने पर ही होगी। कोर्ट ने याद दिलाया कि आधार कार्ड
के संबंध में संविधान पीठ पहले ही आदेश जारी कर चुकी है कि अगर बेनिफिशियल योजना का
मामला है, तो आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। यानी, सरकार पेंशन या अन्य किसी तरह के लाभ देने के मामले यह नहीं कह सकती कि ये लाभ
इसलिए नहीं मिलेंगे, क्योंकि आपके पास आधार कार्ड नहीं है। लेकिन अगर इनकम टैक्स या दूसरे नॉन-बेनिफिशियल
भुगतानों से जुड़ा मामला है, तो सरकार आधार कार्ड मांग सकती है।
दरअसल, याचिकाकर्ता का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक
आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता,
और यह स्वैच्छिक है, लेकिन अब केंद्र सरकार इनकम टैक्स से जुड़ी योजनाओं में आधार कार्ड मांग रही है, जो सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन है,
इसलिए सुप्रीम कोर्ट इस मामले की जल्द सुनवाई
करे।
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसे स्पष्ट किया आदेश, सामाजिक
कल्याण योजनाओं के लिए ज़रूरी नहीं, गैर-लाभकारी योजनाओं में आधार पर आदेश नहीं दिया जा
सकता
सुप्रीम कोर्ट ने 27 मार्च 2017 को सुनवाई के दौरान कहा कि, “जनहित स्कीम के लिए आधार कार्ड ज़रूरी नहीं है।” सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़
और जस्टिस संजय किशन कौल की सदस्यता वाली पीठ ने यह फैसला दिया। वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम
दीवान ने सरकार द्वारा जारी किए गए विभिन्न आदेशों को चुनौती दी थी, जिनमें विभिन्न योजनाओं के तहत लाभ उठाने के लिए आधार को अनिवार्य बताया गया
था। कोर्ट ने कहा कि आधार को लेकर हमारा पिछला आदेश पूरी तरह से अपडेट था। साथ ही कोर्ट
ने आधार संबंधी याचिका पर तुरंत सुनवाई से साफ इनकार कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि, “सरकार को 12 अंकों की इस पहचान संख्या को गैर-लाभकारी योजनाओं में अनिवार्य किए
जाने से रोका नहीं जा सकता।”
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जेएस खेहर ने कहा कि, “आधार जनहित स्कीम के लिए अनिवार्य नहीं है, लेकिन गैर-लाभकारी योजनाओं (जैसे बैंक
खातों के खोलने या टैक्स रिटर्न करने से जोड़ने) के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता
है।”
सुप्रीम ने केंद्र को पूछा, आधार को वैकल्पिक रखने के आदेश
का उल्लंघन क्यों किया?
21 अप्रैल 2017 के दिन सर्वोच्च न्यायालय ने आयकर रिटर्न तथा पैन कार्ड
निकलवाने के लिए आधार को ज़रूरी बनाने को लेकर केंद्र को आड़े हाथों लिया। कोर्ट ने
केंद्र से पूछा कि, “जब हमने सरकारी योजनाओं के लिए आधार कार्ड को वैकल्पिक करने का आदेश दे दिया है
तो आप इसके लिए आधार कार्ड को अनिवार्य कैसे बना सकते हैं?” गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 27 मार्च 2017 को सुनवाई के
दौरान कहा था कि जनहित स्कीम के लिए आधार कार्ड ज़रूरी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के
जस्टिस एके सीकरी की अध्यक्षता वाली बेंच ने अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी द्वारा
पैन कार्ड को लेकर दी गई दलीलों से नाराज होकर पूछा कि, “क्या आपके पास कोई विकल्प ही नहीं था?” सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “सरकार द्वारा आधार को अनिवार्य बनाने की मंशा लोगों के निजता
के अधिकार का उल्लंघन है।”
गाय का आधार कार्ड, यह भी यूपीए की ही योजना थी, जिसे मोदी
सरकार ने आगे बढ़ाया
बताइए, जो सरकार आधार को खतरा मानती थी वही सरकार इंसानों के साथ साथ
मवेशियों के लिए भी आधार की सिफारिश करने लगे तब क्या माना जाए। अप्रैल 2017 के
दौरान केंद्र ने मवेशियों की तस्करी के मामले में कोर्ट को एक रिपोर्ट सोंपी।
रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार गायों के लिए भी आधार कार्ड जैसी योजना लागू करना चाहता
था!!! सरकार यूआईडी जैसी व्यवस्था के जरिए गायों को लॉकेट और ट्रैक करना चाहती थी।
वैसे यह ज्ञात हो कि गायों के आधार कार्ड वाली व्यवस्था मोदी सरकार के दिमाग की उपज
नहीं थी, बल्कि यूपीए काल में ही यह कार्यक्रम तय हो चुका था!!! सन 2012 में यूपीए ने
भारत के कुछ राज्यों को इस बारे में बाकायदा पत्र भेजकर कार्यक्रम शुरू करने के लिए भी कहा था। कुछ गायों के पहचान-पत्र बन भी चुके थे!!!
आधार पर मोदी सरकार ने कुछ यूं बदला था अपना स्टैंड
आधार कार्ड शुरू से भाजपा के निशाने पर रहा था। आधार कार्ड के माध्यम से गैस सब्सिडी
बैंक खाते में जमा कराने का पार्टी ने जबरदस्त विरोध किया था। यूपीए सरकार के दौर
में अपने एक बयान में भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने कहा था कि, “आधार का कोई क़ानूनी आधार नहीं है, क्योंकि इसे संसद ने नहीं बनाया। सरकारी योजनाओं का लाभ देने
के लिए विशिष्ट पहचान संख्या को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस
पर सवाल उठाया है।” इसी तरह चुनाव के दौरान पार्टी नेता अनंत कुमार ने कहा था
कि, “आधार कार्ड बंद किया जाएगा।”
लेकिन सरकार बनने के बाद सरकार ने आधार कार्ड को बढ़ावा देना शुरू कर दिया!!! टैक्स
रिटर्न फाइल करने के लिए आधार को पैन कार्ड से लिंक करना अनिवार्य किया गया।
मिड-डे मिल से लेकर बैंक खाते, ड्राइविंग लाइसेंस या फिर मोबाइल नंबर को भी आधार
कार्ड से जोड़ा जाने लगा। इसके अलावा कई और योजनाओं के लिए भी इसे ज़रूरी किया जा रहा
था। यहां तक कि जनहित स्कीमों के लिए आधार को वैकल्पिक रखने के मुद्दे पर सर्वोच्च
न्यायालय को भी सरकार को निर्देश देने पड़ रहे थे।
शुरूआती दौर में पूर्व की यूपीए सरकार द्वारा शुरू की गई आधार कार्ड योजना का
विरोध करनेवाली बीजेपी सरकार ने अब यू-टर्न ले लिया था। आधार कार्ड से होने वाले फायदे
और इसके व्यापार पहलूओं से परिचित होने के बाद गृह मंत्रालय अब पूरी तरह से इसके समर्थन
में आ चुका था। मंत्रालय का मानना था कि इस कार्ड द्वारा देश के सभी नागरिकों को काफी
सुविधाएँ मिल सकती हैं। गृह मंत्रालय ने आधार कार्ड से होनेवाले फायदों की चर्चा करते
हुए राज्य सरकारों को निर्देश दिए कि किसी व्यक्ति विशेष की पहचान के लिए इससे अच्छा
साधन कुछ नहीं हो सकता तथा एक आदमी एक नंबर की तर्ज पर काम करने वाले इस कार्ड के प्रयोग
से जालसाजी जैसे कामों को आसानी से रोका जा सकता है। मंत्रालय का यह भी कहना था कि
इस कार्ड के प्रयोग से बैंकिंग जैसी सेवाओं का लाभ उठाने में भी देश की जनता को काफी
सहूलियत मिलेगी। काला बाजारी को रोकने के लिए भी यह कार्ड फायदेमंद है। अभी जो लोग गृह
मंत्रालय में थे उन्होंने पहले इस कार्ड पर सवालियां निशान लगाते हुए कहा था कि यह कार्ड
उतना आवश्यक और फायदेमंद नहीं है जितना कि बताया जाता है।
पैन कार्ड और आधार कार्ड मामले में केंद्र ने कहा, काले धन
के खात्मे के लिए पैन के लिए आधार अनिवार्य, सुप्रीम में सरकार ने कहा- आधार पूरी तरह सुरक्षित
पैन कार्ड जारी करने के लिए आधार को अनिवार्य बनाने के फैसले का बचाव करते हुए
केंद्र सरकार ने 2017 को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि, “ऐसा फर्जी पैन कार्ड के इस्तेमाल पर अंकुश लगाने के लिए किया
गया है।” साथ ही सरकार
ने कहा कि, “इस फैसले से काले धन और आतंकी फंड पर लगाम लगाने में भी मदद
मिलेगी।” सरकार ने कहा
कि, “आधार फुल प्रूफ
है।” केंद्र सरकार की ओर
से पेश अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने न्यायमूर्ति एके सिकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण
की पीठ के समक्ष कहा कि, “फर्जी पैन कार्ड
बनाया जा सकता है, लेकिन आधार पूरी तरह से सुरक्षित है। इससे छेड़छाड़ नहीं हो
सकती।” उन्होंने कहा
कि, “आधार कार्ड फर्जी तरीके से नहीं बनवाया जा सकता।” अटॉर्नी जनरल ने बताया कि, “आधार से गरीबों को सरकारी लाभ पहुंचाने में मदद मिली है। पेंशन योजनाओं को बेहतर
तरीके से अंजाम देने में भी सफलता मिली है।” उन्होंने कहा कि ऐसा कर सरकार ने करीब 50 करोड़ रुपये बचाए
हैं।
अटॉर्नी जनरल ने पीठ को बताया कि अब तक करीब 10 लाख पैन कार्ड रद्द किए जा चुके
हैं। वहीं 113.7 करोड़ आधार कार्ड बनाए जा चुके हैं। अब तक सरकार को आधार में किसी
तरह के फर्जीवाड़े का पता नहीं चला है। साथ ही उन्होंने कहा कि काले धन और आतंकी फंड
पर लगाम लगाने में आधार बेहद कारगर है। बताइए, नोटबंदी से काला धन नहीं निकला और
अब आधार काला धन और आतंकी फंड के लिए ज़रूरी बन चुका था!!!
अब सरकार का 2017 में यह स्टैंड और 2014 से पहले विपक्ष में होते हुए आधार पर
कायम स्टैंड, दोनों का फर्क तो साफ दिखता है। क्योंकि यहां भाजपा का यूपीए सरकार के
दौरान क्या स्टैंड था वह हमने पहले ही देख लिया। लगा कि सरकार कोई भी हो, आर्थिक
नीतियां एकसरीखी रहेगी इसकी गारंटी है। वैसे 2016 में नोटबंदी को लागू करते वक्त भी
सरकार ने काला धन, आतंकवाद का खात्मा आदि आदि चीजें गाहे-बगाहे कही थी। फिर इस विषय
पर क्या हुआ सरकार ने कभी बताना ज़रूरी नहीं समझा!!! वैसे बताने की ज़रूरत थी नहीं,
क्योंकि नोटबंदी के बाद ही जाली नोट, आतंकवाद और काला धन वाले विषय देश के सामने
मुंह फाड़े अपनी गवाही दे ही रहे थे। अब सरकार आधार को भी काला धन और आतंक से जोड़ रही थी। जहां लाखों आधार नंबर वेबसाइट पर लीक हो रहे थे, सरकार धड़ल्ले से कह रही थी
कि सब सुरक्षित है!!!
बीजेपी अपने यू-टर्न को नयी ऊंचाइयों पर ले जा रही थी? आधार को बचाने के लिए सुप्रीम में सरकार ने कहा था- लोगों को
अपने शरीर के साथ मनमर्जी की छूट नहीं,
क़ानून की है रोक
9 मई 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि, “नागरिकों का अपने शरीर के अंगों पर संपूर्ण अधिकार नहीं है।” इसके साथ ही उन्होंने कहा कि सरकार आधार कार्ड पर लिए गए उनके
फिंगर प्रिंट और आइरिस के सैंपल के डिजिटल सैंपल नहीं देगी। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी
ने जस्टिस एके सिकरी और अशोक भूषण के बेंच से कहा कि, "एक व्यक्ति का अपने शरीर पर संपूर्ण अधिकार की धारणा एक मिथक है और इसे रोकने के
लिए कई क़ानून भी बनाए गए हैं।"
दरअसल आधार और पैन कार्ड की एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में एक वकील ने
दलील देते हुए कहा था कि, “मेरी उंगलियों और आंखों की पुतलियों पर किसी और का हक़ नहीं हो सकता। इसे सरकार
मुझे मेरे शरीर से अलग नहीं कर सकती।” इसके बाद मुकुल रोहतगी ने वकील के साथ साथ समूचे देश को
सुना दिया कि आप के शरीर के अंगों पर आपका संपूर्ण अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि,
''आपको अपने शरीर पर
पूरा अधिकार है, लेकिन सरकार आपको अपने अंगों को बेचने से रोक सकती है। मतलब स्टेट आपके शरीर पर
नियंत्रण की कोशिश कर सकता है।''
वैसे इस दौर में एक कहावत सच लगी। कहावत थी कि कांग्रेस कभी नहीं जाती... जो सत्ता
में आता है वही कांग्रेस बन जाता है!!! इनकम टैक्स एक्ट के सेक्शन 139AA को चुनौती देती याचिका के जवाब में सरकार ने कोर्ट में यह जवाब दिया था। इस याचिका
ने आयकर भरने और पैन कार्ड के लिए आधार को अनिवार्य बनाने के सरकारी आदेश को चुनौती
दी थी। इसके अलावा केंद्र ने कहा कि आधार एक्ट लागू होने के बाद हर नागरिक के लिए आधार
कार्ड अनिवार्य है। अब सरकार खुलकर आधार को अनिवार्य बता रही थी!!! लगा कि आधार में कुछ तो ऐसा है कि तमाम सरकारें जैसे कि आम जनता को उल्लू बनाते हुए चुपके चुपके
अपनी योजनाओं पर चली थी। आधार को लाते समय वैकल्पिक का गाना गाने वाली सरकारें धीरे
धीरे इसे तमाम योजनाओं में लागू करती रही और मामला कोर्ट तक पहुंचा तो योजनाबद्ध
तरीके से इसका बचाव करती रही। अब तो वक्त ऐसा आया था कि आधार अनिवार्य है का आदेश
दिया जा रहा था!!!
मई 2017 में अहमदाबाद में आधार और स्ट्रीट वेंडर को लेकर एक खबर सुर्खियों में छाई रही। यहां केंद्र सरकार के स्ट्रीट वेंडर एक्ट -2014 के तहत राज्य के स्ट्रीट
वेंडर का सर्वे किया जा रहा था। एजेंसी भी नियुक्त हो चुकी थी। लेकिन स्ट्रीट वेंडर
के लिए भी रजिस्ट्री के लिए आधार अनिवार्य बताया गया। गलियों की खाक छानने वालों
ने सोचा ना होगा कि आधार का चक्कर उनके सिर पर इतनी जल्दी आएगा।
आधार शायद सरकारों का गोद लिया हुआ बच्चा होगा। इसी वजह से आधार को यूपीए के
बाद अब बीजेपी भी लागू करवाने की हर मुमकिन कोशिशों में लगी थी।
आधार न बनवाने वालों को अपराधी नहीं कह सकतेः सुप्रीम कोर्ट
यूपीए के दौर में आधार को खतरा बताने वाले एनडीए ने अपनी सत्ता के दौरान
सुप्रीम कोर्ट में यहां तक कह दिया था कि आधार न बनवाना अपराध है!!! 3 मई 2017 को आधार कार्ड के मसले पर
सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई। आधार पर सुनवाई
के दौरान सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी
ने कहा कि, “आधार न बनवाना
अपराध है।” इस पर सुप्रीम
कोर्ट ने कहा कि, “आधार कार्ड न बनवाने वालों को अपराधी नहीं कह सकते हैं।”
एक दौर में आधार को निजता के अधिकार पर हमला बताया, अपनी
सत्ता के दौरान कह दिया- निजता का अधिकार भारतीय
नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों में शामिल ही नहीं है
मोदी शासित एनडीए सरकार के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में इस योजना
को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह लोगों के 'निजता के अधिकार' का हनन करती है। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि आधार योजना के
लिए लोगों की निजी जानकारी जुटाने का काम निजी कंपनियों को सौंपा गया है, लिहाजा यह
जानकारी गलत हाथों में भी जा सकती है। इस तर्क के खिलाफ 'आधार योजना' का बचाव करते हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने न्यायालय में
तर्क दिया कि, 'निजता का अधिकार' भारतीय नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों में शामिल ही नहीं
है। रोहतगी ने कहा कि 1954 में आठ जजों की पीठ ने यह फैसला दिया था कि 'निजता का अधिकार' कोई मौलिक अधिकार नहीं है। इसके बाद से कभी भी इस फैसले को इससे
बड़ी पीठ ने ख़ारिज नहीं किया है।
बताइए, आधार सुरक्षित है या नहीं... इसकी चर्चा छूट गई और नया शिगूफा आ गया
कि निजता का अधिकारी मौलिक अधिकार है या नहीं। हालांकि इस मामले की सुनवाई कर रही पीठ
ने अटॉर्नी जनरल रोहतगी के तर्कों से असहमत होते हुए उनसे सवाल किया कि, “भारतीय संविधान के अनुछेद 21 में दिए गए 'जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार'
में से यदि 'निजता के अधिकार' को पूरी तरह से हटा दिया जाए तो इस अधिकार का औचित्य ही क्या
बचता है?”
आखिरकार नयी सरकार ने स्पष्ट कर ही दिया, सुप्रीम में केंद्र
का जवाब- 30 जून से आधार अनिवार्य होगा
आधार स्वैच्छिक है वाली दलीलों से शुरू हुआ 'सरकारी खेल' सरकार बदलने के बाद नहीं थमा और स्वैच्छिक तथा अनिवार्य के इस खेल में कहीं आधार स्वैच्छिक बताया गया था, तो
कहीं अनिवार्य। लेकिन आखिरकार मई की तपती गर्मी में एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के
सामने स्पष्ट कर दिया कि 30 जून 2017 से आधार अनिवार्य होगा। तत्कालीन मोदी सरकार
ने 19 मई के दिन कोर्ट के सामने कहा कि, “समाज कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आधार अनिवार्य
बनाने संबंधित 30 जून की सीमा को अब आगे तक खींचा नहीं जा सकता।”
जस्टिस एएम खानविलकर तथा जस्टिस नवीन सिन्हा की बेंच के सामने अटॉर्नी जनरल
मुकुल रोहतगी ने कहा कि, “कल्याण योजनाओं के लिए आधार को अनिवार्य करने के पीछे सरकार का मकसद इतना है
कि जिन लोगों का अस्तित्व ही नहीं है उन तक योजनाओं के लाभ ना पहुंचे।”
यानी कि... आधार स्वैच्छिक होगा इस सरकारी दलील से अब सरकार की दलील आधार
अनिवार्य होगा तक पहुंच चुकी थी!!! कह सकते हैं कि तमाम सरकारों ने योजनाबद्ध तरीके से
जनसमुदाय के साथ किसी प्रकार का कोई खेल खेला था, जिसे अब खुला किया जा रहा था।
यूपीए के दौरान कई निष्पक्ष लोगों द्वारा जो इल्ज़ाम लगाए जाते थे कि सरकार
चोरी-चोरी चुपके-चुपके एक के बाद एक योजनाओं में आधार को अनिवार्य करती जाएगी और
यही सरकार की मंशा है, इस इल्ज़ाम को नयी सरकार ने सच साबित कर दिया था।
सुप्रीम ने लोगों को दी थोड़े दिनों की राहत, कहा - आईटी रिटर्न में आधार अभी
अनिवार्य नहीं
9 जून 2017 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान पीठ के अंतिम फैसले तक आयकर
रिटर्न के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी
कहा कि, “जिनके पास आधार
कार्ड नहीं है, सरकार उन्हें पैन कार्ड से जोड़ने पर जोर नहीं दे सकती है, लेकिन
जिनके पास आधार कार्ड है उन्हें इसे पैन कार्ड से जोड़ना होगा।” इस मसले पर न्यायमूर्ति एके सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण
की पीठ ने 4 मई 2017 को याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इन याचिकाओं में आयकर अधिनियम की धारा 139 एए को चुनौती दी गई थी, जिसे इस साल के बजट और वित्त अधिनियम, 2017 के जरिए लागू किया गया था। सरकार के कदम का विरोध करते
हुए भाकपा नेता बिनॉय विश्वम समेत याचिकाकर्ताओं ने पीठ के समक्ष दावा किया था कि केंद्र शीर्ष अदालत के 2015 के उस आदेश का 'महत्व नहीं घटा' सकता जिसमें आधार को स्वैच्छिक बताया गया था।
आधार की अनिवार्यता पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा- सरकार लोगों को
सेवाओं से वंचित नहीं कर सकती, हालांकि अधिसूचना पर रोक लगाने से किया इनकार
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उन्होंने 30 सितंबर 2017 तक डेडलाइन बढ़ा दी
है। कोर्ट में सरकार ने डेडलाइन वाली दलील देते हुए कहा कि यह कहना ठीक नहीं है कि
आधार ना देने पर किसी को योजनाओं से वंचित किया जाएगा। याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया
कि ये छूट सिर्फ उनके लिए है जिनके लिए आधार कार्ड नहीं है। ये छूट सभी के लिए होनी
चाहिए, क्योंकि आधार अनिवार्य नहीं है बल्कि स्वैच्छिक है। ऐसे में बच्चों व अन्य को
योजनाओं का लाभ रोका नहीं जा सकता। वहीं कोर्ट ने कहा कि अगर 30 जून के बाद आधार कार्ड के
ना होने पर किसी को योजनाओं का लाभ लेने से रोका जाता है तो कोर्ट को इसकी जानकारी दी जाए।
यानी कि अगर लाभ रूकता है तो कोर्ट को जानकारी याचिकाकर्ता को देनी पड़ेगी और फिर
दलीलें, वाद-विवाद के बाद तय होगा कि लाभ रूका था या नहीं!!! यह तो बीच खाई में लटकने
जैसा ही था। हालात तो यह थे कि अगर आधार स्वैच्छिक था, तो फिर अनिवार्य भी था!!!
क्या आधार 'राइट टू प्राइवेसी' का उल्लंघन करता है? सुनवाई को सीजेआई ने दी मंजूरी
12 जुलाई 2017 के दिन कोर्ट में सुनवाई पर चीफ जस्टिस जेएस खेहर ने केंद्र और याचिकाकर्ता
के आग्रह पर पांच जजों की बेंच में सुनवाई को मंजूरी दी। सीजेआई ने कहा कि दो दिनों
में ही बहस पूरी हो जाएगी इसलिए सारे पक्ष अपनी तैयारी कर लें। सुप्रीम कोर्ट की पांच
जजों की संविधान पीठ दो दिन सुनवाई करने वाली थी। यह सुनवाई 18 और 19 जुलाई को होनी
थी। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने कहा था कि आधार को लेकर निजता
के हनन समेत जो मुद्दें आ रहे हैं, उनका हल 5 जजों की संविधान पीठ ही कर सकती है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता
और केंद्र को कहा कि वो मामले को चीफ जस्टिस के पास ले जाएं और संविधान पीठ के गठन की
गुहार लगाएं।
आधार के मामले में सुप्रीम में संविधान पीठ ने की निजता के
अधिकार पर सुनवाई
आधार की कहानी वैसे भी अजीब रही है। यूपीए के दौर में एनडीए ने आधार को निजता
के अधिकार पर हमला बताया और जब अपनी सरकार आई तो निजता के अधिकार की व्याख्या
करनी पड़े यह नौबत तक आन पड़ी!!!
उच्चतम न्यायालय की 9 न्यायधीशों की संविधान पीठ ने 19 जुलाई 2017 को दलीलें सुननी
शुरू कीं, जिनके आधार पर यह तय किया जाना था कि निजता का अधिकार संविधान के तहत मौलिक
अधिकार है या नहीं। 9 न्यायधीशों की पीठ में चीफ जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस एसए बोबडे, संविधान पीठ में जस्टिस आरके अग्रवाल, जस्टिस रोहिंगटन फली नरीमन, जस्टिस अभय मनोहर सप्रे,
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल थे। यह पीठ निजता के अधिकार
के सीमित मुद्दे पर विचार कर रही थी। आधार योजना को चुनौती देने वाले अन्य मुद्दों
को लघु पीठ के पास ही भेजा जाना था। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में कुल 21 याचिकाएँ
थीं। दरअसल 1950 में 8 जजों की बेंच और 1962 में 6 जजों की बेंच ने कहा था कि राइट
टू प्राइवेसी मौलिक अधिकार नहीं है।
वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ
के समक्ष बहस शुरू की और कहा कि जीने का अधिकार और स्वतंत्रता का अधिकार पहले से मौजूद
नैसर्गिक अधिकार हैं। पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने कहा कि, “संविधान में राइट टू प्राइवेसी नहीं लिखा है, लेकिन इसका मतलब
यह नहीं कि यह है ही नहीं। दरअसल प्राइवेसी हर मानव व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है।” श्याम दीवान ने एक दलील में कहा कि, “राज्यसभा में आधार बिल पेश करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली
ने कहा था कि प्राइवेसी शायद एक मौलिक अधिकार है।” दीवान ने कहा कि, “जेटली ने 16 मार्च 2016 को कहा था कि अब ये कहने में कि प्राइवेसी
मौलिक अधिकार नहीं है या है, काफी देरी हो चुकी है। प्राइवेसी शायद एक मौलिक अधिकार है।”
इस दिन जो बहस हुई उसमें कुछ टिप्पणियां दिलचस्प रही। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट
ने कहा कि, “सरकार को वाजिब
प्रतिबंध लगाने से नहीं रोक नहीं सकते। क्या कोर्ट निजता की व्याख्या कर सकता है? आप यही कैटलॉग नहीं बना सकते कि किन तत्वों से मिलकर प्राइवेसी
बनती है।” कोर्ट ने कहा,
“निजता का आकार इतना
बड़ा है कि ये हर मुद्दें में शामिल है। अगर हम निजता को सूचीबद्ध करने का प्रयास करेंगे
तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे। निजता सही में स्वतंत्रता का एक सब सेक्शन है।”
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि, “अगर मैं अपनी पत्नी के साथ बेडरूम में हूं तो ये प्राइवेसी का
हिस्सा है। ऐसे में पुलिस मेरे बेडरूम में नहीं घुस सकती। लेकिन अगर मैं बच्चों को
स्कूल भेजता हूं तो ये प्राइवेसी के तहत नहीं है। क्योंकि ये राइट टू एजुकेशन के तहत
आता है।” उन्होंने कहा
कि, “आप बैंक में
अपनी जानकारी देते हैं, मेडिकल इंश्योरेंस और लोन के लिए अपना डाटा देते हैं। ये सब क़ानून द्वारा संचालित
है, यहां बात अधिकार की नहीं है। आज डिजिटल जमाने में डाटा प्रोटेक्शन बड़ा मुद्दा है।
सरकार को डाटा प्रोटेक्शन के लिए क़ानून लाने का अधिकार है।” सुनवाई के दौरान टिप्पणी यह भी हुई कि, “संविधान आर्टिकल 19 के तहत प्रेस की आजादी का अधिकार नहीं देता, लेकिन इसे अभिव्यक्ति की आजादी के तहत देखा जाता है जिस पर कोर्ट ने भी यही माना
है।”
सुनवाई के दूसरे दिन, यानी कि 20 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “एप्पल जैसी कंपनियों के पास भी उनके उपभोक्ता के निजी डाटा
होते हैं। अगर उपभोक्ता कंपनियों को निजी डाटा दे सकते हैं तो सरकार को क्यों नहीं दे
सकते?” न्यायालय ने सरकार से पूछा कि, “इन दोनों में अंतर क्या है?” जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, “99 प्रतिशत लोगों को यह पता भी नहीं होता कि डाटा क्यों
इक्ठ्ठा किया जाता है। उनके अंगूठे के निशान या आंखों की पुतलियों के जरिये आईफोन या
आईपैड एक्सेस होते हैं। उसका मतलब यह है कि लोग उनके निजी जिंदगियों की ढेरों जानकारियां ऑनलाइन कर चुके हैं।” याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने इसके विरुद्ध दलील देते हुए कहा, “निजी पक्षकारों के साथ एक करार होता है। अगर निजी पक्षकार
जानकारी लीक करता है तो उसके खिलाफ क़ानूनी मामला दर्ज हो सकता है और कार्रवाई की
जाती है। लेकिन सरकार के साथ ऐसा करार नहीं होता।”
सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि, “निजता को मौलिक अधिकार कहा जा सकता है लेकिन यह पूरी तरह से
अनियंत्रित नहीं है यानी शर्त विहीन नहीं है। ऐसे में निजता के अधिकार को पूरी तरह
से मौलिक अधिकार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।”
उधर गैर बीजेपी प्रशासित 4 राज्यों ने आधार कार्ड की डाटा शेयरिंग के खिलाफ सुप्रीम
कोर्ट का रुख किया। चारों राज्यों ने राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकार मानने की अपील
करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि डाटा शेयरिंग से निजता का उल्लंघन होगा। सुप्रीम
कोर्ट में जो 4 राज्य राइट टू प्राइवेसी का मामला लेकर पहुंचे, वो सभी गैर बीजेपी शासित राज्य थे। इनमें कर्नाटक और पंजाब में कांग्रेस की सरकारें थी। इन राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की कि राइट टू प्राइवेसी को नागरिकों का मौलिक
अधिकार माना जाए। पंजाब और कर्नाटक के अलावा टीएमसी शासित पश्चिम बंगाल और कांग्रेस
शासित पुडुचेरी ने भी सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
हालांकि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि राइट टू प्राइवेसी को मूल अधिकारों
की श्रेणी में नहीं शामिल किया जा सकता। यानी कि केंद्र सरकार ने अपना रुख स्पष्ट
कर दिया कि वे निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानने के पक्ष में नहीं है!!! एक दौर
में आधार और निजता को लेकर खूब हो-हल्ला मचाने वाली सरकार अब निजता के अधिकार को
लोगों का संवैधानिक हक़ नहीं मान रही थी!!!
गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा – नागरिकों की निजी जानकारी निजता के अधिकार का हिस्सा नहीं मानी जा सकती
बताइए, इतना लंबा और सुंदर जवाब यूपीए के दौर में इन्हें नहीं सूझ रहा था और अब
जाकर सूझा!!! वैसे जनहितयाचिका दायर करने वालों को आंखों की पुतलियां, अंगुलियों के
निशान वगैरह भी देना पड़ता है ये तो इस वरिष्ठ अधिवक्ता की दलील के बाद ही पता चला।
मौलिक नाम का कोई इंसान हो वह भी परेशान होकर मना ही कर देगा कि मुझे नहीं चाहिए
मौलिक अधिकार... आप कार की तरह सरकार चलाते रहो, अब भी कुछ बाकी हो तो वह भी ले लो
साथ में।
निजता का अधिकार... अलग अलग मुद्दों पर सरकारों की अलग अलग
राय
आप खुद ही पुराने चैप्टर खोल कर देख लीजिएगा, काला धन की सूची सार्वजनिक करने
की बात हो, एनपीए वाला चैप्टर हो, डिफॉल्टर की सूची की बात हो, जुर्माना जिन पर
लगा है ऐसी कंपनियों के नाम लोगों के सामने रखने की बात हो या ऐसे अनगिनत व ढेरों मुद्दें हो, निजता का अधिकार सभी को बचा लेता था!!! बैंकों में किन कंपनियों या
उद्योगपतियों के किस्त लंबित है उनकी सूची जाहिर नहीं की जा सकती, डिफॉल्टरों के नाम
जाहिर नहीं किए जा सकते, जुर्माने अदा करने में विफल रहे उद्योगघरानों के नाम सार्वजनिक
नहीं किए जा सकते...!!! आप एकाध दफा किन-किन के नाम कौन-कौन से मोड़ पर सार्वजनिक किए
नहीं जा सकते उसका पुराना इतिहास खोल लीजिएगा, पूरा का पूरा चैप्टर उसी से भर जाएगा
यह गारंटी है।
और आज निजता का अधिकार कुछ नहीं था!!! शायद आम नागरिकों का निजता का अधिकार तथा
खास नागरिकों का निजता का अधिकार अलग अलग चीजें होती होगी। या तो आप ईवीएम मशीन बन
जाइए... या फिर आधार कार्ड का अवतार ले लीजिए, तभी सरकारें आपके लिए लड़ेगी, वर्ना
आप खुद ही जंतर-मंतर पर जाकर लड़ते रहिए, मरते रहिए!!! यही तो कड़वी सच्चाई है, जिसे
सरकारें और उनके समर्थक हमेशा से झूठलाते हैं और विपक्ष उसे मानता है। ज्ञात रहे कि
सत्ता बदलती है तो तमगे और मान्यताएँ भी बदल जाती है।
निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया ऐतिहासिक
फैसला, सालों पुराने अपने ही फैसले को अदालत ने पलटा, केंद्र सरकार की तमाम दलीलें
खारिज, कहा – निजता का अधिकार मौलिक अधिकार ही है
सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार, यानी राइट टू प्राइवसी को मौलिक अधिकारों, यानी
फंडामेंटल राइट्स का हिस्सा करार दिया। 9 जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में
दिए गए फैसलों को पलटते हुए कहा कि, “राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकारों के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के अधिकार का ही हिस्सा
है। राइट टू प्राइवेसी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आती है।” पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि, “आधार की सूचना लीक नहींं कर सकते, साथ ही निजता की सीमा तय करना संभव नहीं है।”
दो दिन पहले ट्वीट कर अभिनंदन कहने वाले इस फैसले पर ट्विटर
पर लॉग इन करना ही भूल गए
ट्वीट वाली चिड़िया दिनभर नहीं उड़ी, लेकिन शाम को सौ चूहे
खाकर बिल्ली हज को चल दी
आधार का मामला 5 जजों की बेंच के पास भेजा
आधार कार्ड को लेकर अदालत ने अब तक कोई फैसला नहीं दिया था। निजता के अधिकार पर
फैसले के दौरान आधार कार्ड का मसला 5 जजों की बेंच के पास भेज दिया गया। संविधान
के जानकारों की माने तो निजता के अधिकार का यह फैसला अन्य योजनाएं, नीतियां या मसलों पर भी असर डालनेवाला था। यानी कि यह केवल आधार के मसले तक सीमित नहीं होना था।
आधार निकलवाना तो अनिवार्य है ही, उसे इस्तेमाल करना भी
अनिवार्य
आधार निकलवाना तो अनिवार्य था ही, साथ ही नियमों के तहत आधार का इस्तेमाल करना
भी अनिवार्य था। पहले पहल तो यह चीज़ कइयों को पता नहीं थी। नियमों के मुताबिक अगर आपने
अपने आधार कार्ड का लगातार तीन सालों तक इस्तेमाल नहीं किया तो आधार नंबर को जारी करने
वाली संस्था यूआईडीएआई इसे ब्लॉक कर सकती है। आधार नंबर के ब्लॉक होने की स्थिति में
आपको फिर से आधार केंद्र पर जाना होगा, जहां आपको दोबारा सारी प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। 5 साल की
उम्र पार करने वाले बच्चों के आधार कार्ड भी ब्लॉक कर दिए जाते हैं, यदि उनके अभिभावकों ने दो साल का ग्रेस पीरियड बीत जाने के बाद भी इनको अपडेट नहीं
कराया हो। अगस्त 2017 में ही सरकार की तरफ से इलेक्ट्रॉनिक और आईटी मंत्री पीपी चौधरी
ने राज्यसभा को यह जानकारी दी थी कि आधार एक्ट के सेक्शन 27 और 28 के तहत केंद्र सरकार
ने करीब 81 लाख से ज्यादा आधार कार्ड डिएक्टिव कर दिए थे।
आधार को लेकर सरकारों पर जताए गए ये संदेह, किये गए हैं यह
दावे
आधार कार्ड और उसके दावे को लेकर कई संदेह और सवाल किये गए हैं। सबसे बड़ा संदेह आधार की सुरक्षा को लेकर है। इसके अलावा अन्य संदेह भी जताए जाते हैं, जो इस
प्रकार है।
👉 संसद में आधार का
क़ानून तक नहीं है, तो फिर करोड़ों कार्ड क्यों
अजीब स्थिति तो यह थी कि संसद में यूआईडी को लेकर बिल लंबित रहा और इधर कार्ड बनने
लगे थे!!! कांग्रेस शासित यूपीए सरकार हो या भाजपा शासित एनडीए सरकार हो, हर किसी ने
इसे सुरक्षित बताया। ऐसे में सवाल था कि अगर यूआईडी की पूरी प्रक्रिया बिल्कुल सटीक
है तो अब तक क़रीब एक करोड़ कार्ड बेकार कैसे हो गए? किसी में पता गलत, तो किसी में पहचान गलत!!! ऊपर से इस गलती की जवाबदेही भी
एक-दूसरे के ऊपर थोपी जाने लगी। मंत्रालय अधिकारियों की गलती बता रहे थे, अधिकारी
लोगों पर बिल फाड़ रहे थे!!! शायद यह देश का ऐसा पहला विराट कार्यक्रम होगा, जो संसद में पारित होने से
पहले ही देश में लागू किया जा रहा हो!!! असलियत यह थी कि यूपीए सरकार इस क़ानून को संसद में पास भी नहीं
करा सकी, क्योंकि संसदीय कमेटी ने इस योजना पर ही सवाल खड़ा कर दिया था।
संसदीय कमेटी ने कहा था कि आधार योजना तर्कसंगत नहीं है।
👉 डाटा प्रोटेक्शन का क़ानून ही नहीं था और डाटा इक्ठ्ठा किया
जाने लगा था
जैसे आधार क़ानून था ही नहीं और आधार अनिवार्य होने लगा, ठीक वैसे ही डाटा को
लेकर जंजाल था। सरकार नागरिकों के डाटा इक्ठ्ठा किये जा रही थी। यूं कहे कि नागरिकों को जबरन डाटा देने को कहा जा रहा था और उधर निजता के अधिकार पर सुनवाई के दौरान
केंद्र सरकार ने अपने बयान में कहा था कि हम डाटा प्रोटेक्शन का क़ानून लाने जा रहे
हैं। यानी कि अब तक सरकार ने कोई क़ानून नहीं बनाया था इसे लेकर!!! अजीब सी स्थिति ही
कही जा सकती है कि बेसिक्स क्लीयर नहीं थे और बिल्डिंग बनाई जा रही थी!!! वैसे
बेसिक्स क्लीयर किये बिना आप अपना मकान बनाएंगे तो गैरक़ानूनी है, लेकिन यहां सरकार
ही बेसिक्स क्लीयर किये बगैर क़ानूनी तौर पर आगे बढ़ रही थी!!!
👉 अमेरीका के 'सोशल सिक्योरिटी नंबर' जैसा नहीं
अमेरीका में नागरिकों को पेंशन की सुविधा के लिए 'सोशल सिक्योरिटी नंबर' देने की पहल हुई थी और फिर उस नंबर को अन्य सुविधाओं से जोड़ा
गया। इस नंबर और आधार नंबर में सबसे बड़ा फ़र्क ये रहा कि अमेरीका में क़ानून ने यह तय किया हुआ था कि उस नंबर को कौन मांग सकता है और उसका क्या इस्तेमाल होगा। आधार कार्ड
के बारे में आधे रास्ते तक ऐसा कुछ भी निश्चित नहीं था।
👉 बेघरों के लिए नई पहचान नहीं
सरकार का दावा रहा कि देश की वयस्क जनता का 98 फ़ीसदी हिस्सा आधार कार्ड बनवा चुका
है। लेकिन सूचना के अधिकार से मांगी गई जानकारी में पता चला था कि 99.99 फ़ीसदी लोगों
ने आधार कार्ड अपने मौजूदा किसी आईडी के आधार पर ही बनवाया है। आधार बनवाने के लिए
आपको अपना 'पहचान पत्र' और घर के पते का 'आईडी प्रूफ़' लेकर जाना होता है। यानी यह ग़लतफ़हमी ही थी कि आधार कार्ड
के ज़रिए उन लोगों को पहचान पत्र मिल रहा है जिनके पास कोई भी और पहचान पत्र नहीं है।
👉 चोरी रोकने में भूमिका नहीं
एक दावा यह भी होता रहा कि आधार की तकनीक बहुत कारगर नहीं है। अक़्सर 'सर्वर' या इंटरनेट ना चलने से या मशीन के सही 'फ़िंगरप्रिंट' ना पहचान पाने से यह परेशानी की वजह ही बनती है। मसलन आप अधिकारी
के सामने हो, पूरा गांव आपकी पहचान कर रहा है, पर मशीन आपकी पहचान नहीं करती
तो आप अपने हक़ के राशन से वंचित हो जाते है!!! कई राज्यों में तकनीक के अलग इस्तेमाल
से चोरी रोकने के अन्य कारगर तरीके ढूंढ़े गए हैं। यह वाकई अजीब सी स्थिति है कि अलग अलग सरकारें यही दावे करे कि इस देश में जो कुछ समस्याएँ है, वो सारी आधार से ही
सुलझ सकती है। जैसे कि समस्याओं को हल करने का कोई और तरीका हो ही नहीं, जबकि तरीकें मौजूद भी है।
👉 दस्तावेजों में ब्रिटन का उदाहरण, हैरानी की बात यह कि ब्रिटन इस योजना को बंद कर चुका था
इसे लेकर पहले से ही लोगों में खूब बातें होती हैं। मीडिया में ऐसे ढेरों रिपोर्ट
मिल जाएंगे, जिसमें लिखा जाता है कि लोगों की जानकारी कैसे कुछ उद्योगपतियों को बेची
जा सकती है। कहते हैं कि देश में एक विशिष्ट पहचान पत्र के लिए विप्रो नामक कंपनी ने
एक दस्तावेज तैयार किया था। इसे योजना आयोग के पास जमा किया गया था। इस दस्तावेज का
नाम था - स्ट्रैटेजिक विजन ऑन द यूआईडीएआई प्रोजेक्ट। मतलब यह कि यूआईडी की सारी दलीलें, योजना और उसका दर्शन इस दस्तावेज में था। बताया जाता है कि यह दस्तावेज अब ग़ायब
हो गया है। विप्रो ने यूआईडी की ज़रूरत को लेकर 15 पेज का एक और दस्तावेज तैयार किया
था, जिसका शीर्षक था - डस इंडिया नीड ए यूनीक आइडेंटिटी नंबर। इस
दस्तावेज में यूआईडी की ज़रूरत को समझाने के लिए विप्रो ने ब्रिटेन का उदाहरण दिया
था। इस प्रोजेक्ट को इसी दलील पर हरी झंडी दी गई थी। हैरानी की बात यह है कि ब्रिटेन
की सरकार ने अपनी योजना को बंद कर दिया था!!! उसने यह दलील दी थी कि यह कार्ड खतरनाक
है, इससे नागरिकों की प्राइवेसी का हनन होगा और आम जनता जासूसी का
शिकार हो सकती है। इन सब चीजों के आधार पर लोगों के बीच सवाल यह उठता रहा है कि जब इस
योजना की पृष्ठभूमि ही आधारहीन और दर्शनविहीन हो गई तो फिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी
है कि वह इसे लागू करने के लिए सारे नियम-क़ानूनों और विरोधों को दरकिनार करने पर आमादा
है। अब इन सवालों के उत्तर सरकारों से या विभागों से नहीं मिलते और जवाब नहीं मिलने पर
लोग खुद ही जवाब तय करने लगते हैं। जैसे कि विदेशी ताकतों और मल्टीनेशनल कंपनियों
के इशारे पर काम करना वगैरह वगैरह। सरकार ऐसी दलीलों को ठुकरा तो सकती है, लेकिन
याद रखना होगा कि सरकारों से सवाल पूछे गए, लेकिन जब जवाब नहीं मिले तभी लोगों ने
खुद जवाब ढूंढे थे।
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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