एक ज़माने में चरखे को द व्हील ऑफ फॉर्च्यून कहा गया। आधुनिक भारत के इतिहास में
आत्मनिर्भरता की पहली मज़बूत विचारधारा। वह केवल एक यंत्र नहीं था, वह तो ब्रितानी हुकूमत के ख़िलाफ़ भारत का सूक्ष्म राजनीतिक साधन था, जिसने उस समय दुनिया की महासत्ता को नाकों चने चबवा दिए थे। साथ ही चरखा
आत्मसाधना और कर्मसाधना के लिए प्रभावी साधन के रूप में इस्तेमाल होने लगा। इस
चरखे से खादी के केवल सूत ही नहीं काते गए, बल्कि इसने भारत की सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक और आध्यात्मिक रुई भी उधेड़ दी।
अरे भाई, चरखे से आज़ादी मिली थी यह न गाँधीजी ने कभी कहा है और न सरदार पटेल ने। इतना
समझ लीजिए कि जो राजनीति आपको गाँधी या भगतसिंह में से किसी एक को चुनना सिखाती हो...
आखिरकार वो आपको गोडसे बनाकर ही छोड़ती है।
2017 में गाँधीजी के
चरखे के 100 साल पूरे हुए और यह 101वां साल है। यह साल चंपारण सत्याग्रह और साबरमती
आश्रम की स्थापना, दोनों की शताब्दी का वर्ष था। 1917 से पहले भी भारत में चरखा मौजूद था। लेकिन
ये वह दौर था जब गाँधीजी की नजर उस पर पड़ी। फिर चरखे का नया जीवन शुरू हुआ। चरखा अब
गाँधी चरखा बन गया।
अनेक किताबों में जो
ज़िक्र है उसके अनुसार उस दौर को जीने वाले लोगों ने बताया था कि चरखा केवल एक यंत्र
नहीं था, बल्कि क्रांति का प्रतीक बन गया था। आज के दौर में इंडिया शाइनिंग या मेक इन इंडिया
की योजनाएँ या नारे चलते हैं। इन योजनाओं या नारों में भारतीयता, भारतीय लोगों को रोजगार, विदेशों पर निर्भरता कम हो जैसे उद्देश्य
समन्वित हैं। लेकिन आज से 101 साल पहले, यानी कि 1917 के दौर
में चरखा उन तमाम उद्देश्यों की तरफ़ क्रांति का प्रतीक बन गया था। विदेशी मिल, विदेशी निवेश या विदेशी निर्भरता के विरुद्ध चरखा भारतीय प्रयासों का सबसे बड़ा
प्रतीक था।
यह हमारे कमजोर सांस्कृतिक
व राष्ट्रीय द्दष्टिकोण की एक कड़ी ही है कि हम किसी मूवी के 25 साल होने के जश्न को
नहीं भूलते, लेकिन चरखे के 100 साल को लगभग भूल सा गए! हालाँकि सरकार ने 2017 के बजट को पेश करते
समय चंपारण सत्याग्रह और साबरमती आश्रम के 100 साल का ज़िक्र किया और इसके विभिन्न
कार्यक्रम संबंधित घोषणाएँ ज़रूर की थीं।
1917 का साल वो दौर
था जब गाँधीजी को चरखा मिलने की उम्मीद जगी थी। उनके गुजराती मित्र भड़ौच उन्हें शिक्षा
परिषद में ले गए थे। सत्य के साथ प्रयोग में गाँधीजी ने लिखा है कि वो मित्र उन्हें
घसीटकर ले गए थे। इसी जगह पर गाँधीजी की मुलाकात बहन गंगाबाई से हुई। तत्पश्चात गंगाबाई
से गाँधीजी की दूसरी मुलाकात गोधरा की परिषद में हुई। गंगाबाई को गाँधीजी ने साहसी
और घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहने वाली महिला बताया है।
कहते हैं कि गाँधीजी
की ब्रिटीश यंत्र और भारतीय ग्रामोद्योग व रोजगार की चिंताएँ उस वक्त तक पसर गई थी।
गाँधीजी ने लिखा है कि, “अपना दुख मैंने उनके सामने रखा। दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थीं, उसी प्रकार चरखे की खोज़ में भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हल्का
कर दिया। गुजरात में अच्छी तरह भटक चुकने के बाद गायकवाड़ के बीजापुर गाँव में गंगा
बहन को चरखा मिला। वहाँ बहुत से कुटुंबों के पास चरखा था, जिसे उठाकर उन्होंने छत पर रख दिया। गंगा बहन ने मुझे ख़बर भेजी। मेरी खुशी का
पार न रहा।”
सन 1908 तक गाँधीजी
चरखा के बारे में नहीं जानते थे। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद तक चरखे
के दर्शन नहीं किए थे। 1917 वह साल है जब गाँधीजी को चरखा मिला और अब उस साल के सौ
साल हो गए हैं। चरखे की यह कहानी भाई उमर सोबानी और मगनलाल गाँधी के बिना पूरी नहीं
होती है। भाई उमर सोबानी ने ही चरखे पर कातने के लिए रुई की गुच्छी यानी पूनी दी। कुछ
समय बाद गाँधीजी को लगा कि उमर भाई के मिल से पूनी लेना ठीक नहीं, क्योंकि चरखे की सोच तो मिल के ख़िलाफ़ है। इसके बाद पूनी बनाने वाले की खोज हुई।
गंगा बहन ने काम एकदम बढ़ा दिया। बुनकरों को लाकर बसाया और कता हुआ सूत बुनवाना शुरू
किया। बीजापुर की खादी मशहूर हो गई।
बहन गंगाबाई की मदद
से न सिर्फ गाँधीजी ने चरखा खोज लिया, जिसे भारत ने भुला
दिया था, बल्कि उनके कारण खादी बनने भी लगी। इस चरखे में साबरमती आश्रम के मगनलाल गाँधीजी
ने कुछ सुधार किए। गाँधीजी ने लिखा है कि, “गंगाबाई ने अवंतीका बाई, रमी बाई, शंकरलाल बैंकर की
माताजी और वसुमती बहन को कातना सीखा दिया। मेरे कमरे में चरखा गूंजने लगा।” सत्य के प्रयोग में गाँधीजी एक जगह लिखते
हैं, “लक्ष्मीदास लाठी गाँव
से एक अंत्यज भाई रामजी और उनकी पत्नी गंगा बहन को आश्रम ले आए।” हम महिला प्राथमकिता की बातें करते हैं तो कायदे से चरखा के सौ साल पूरे होने पर
इन महिलाओं का ज़िक्र अवश्य होना चाहिए। गाँधीजी ने बहन गंगाबाई और भाई उमर सोबानी
को इसके असली नायक के रूप में देखा था।
साल 2017 चरखा के सौ
साल पूरे होने का वर्ष था। चंपारण सत्याग्रह के भी सौ साल पूरे हो रहे थे। चंपारण सत्याग्रह
के दौरान ही गाँधीजी से एक महिला ने कहा था कि वह कपड़े नहीं बदल सकती हैं, क्योंकि
उसके पास दूसरी साड़ी नहीं है। उसके बाद गाँधीजी भारत के कपास की यात्रा और किसानों
की गरीबी के बारे में सोचने लगे। गाँधीजी भारत की गरीबी का हल खोज रहे थे। उन्हें जवाब
चरखे से मिला।
आज के युग में गाँधी
से लेकर भगत सिंह को कोसने वाले संकुचित विचारधारा लेकर चलते होंगे, क्योंकि ये लोग (गाँधी और भगतसिंह) आज से दशकों पहले भारत की गरीबी और बेरोजगारी
के समाधान पर सिर्फ सोचते ही नहीं थे, बल्कि जी-जान लगाकर
प्रयत्न भी करते थे। जबकि आज के नेता गरीबी या बेरोजगारी पर नारे देते हैं, जी-जान से प्रयत्न तो सरकारें बनाने या बचाने में ही होता है!
महिला शक्ति की बात
करने वाले इस देश ने बहन गंगाबाई और तमाम महिलाओं को भुला दिया, जिनके कारण चरखे का पुनर्जन्म हुआ। खादी घर-घर पहुंची। गाँधीजी ने चरखा संघ बनाया, जो कांग्रेस से अलग संगठन था। तिलक फंड के तहत जमा पैसे को चरखे के वितरण और प्रसार
में लगा दिया।
चरखा किस कदर ब्रिटिश
ताक़त के विरुद्ध एक हथियार बन चुका था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि
ब्रिटिश हुकूमत ने कई बार चरखों को जब्त भी किया और तोड़ा भी। चरखा ब्रिटिशरों के लिए
ख़तरे की पहचान सा बन गया था, जिन्हें जब्त किया जाता और फिर नाश किया
जाता।
1917 के चरखे में वक्त
रहते कई परिवर्तन भी किए गए। गाँधीजी ने यरवदा जेल में रहते हुए चरखे का स्वरूप भी
बदला, ताकि ज्यादा बारीक सूत की कताई हो और उसे लेकर कहीं आने-जाने में असुविधा न हो।
अभी जिस खादी की बिक्री के आंकड़े दिए जा रहे हैं वे गाँधीजी के चरखे से काते हुए सूत
के नहीं है। बिजली से चलने वाले मशीनी चरखों और करघों से बनी खादी है। आज के दौर में
भी कई लोग इसे असली खादी के रूप में स्वीकार नहीं करते।
एक बार महात्मा गाँधी
ने चरखा चलाने वालों के लिए दो उदाहरण सामने रखे थे। पहला उदाहरण उन्होंने रखा था मुग़ल
बादशाह औरंगज़ेब का, जो अपनी टोपियाँ खुद ही बनाता था। दूसरा उदाहरण था कबीर का, जिन्होंने गाँधी के मुताबिक इस कला को अमर बना दिया था। उन्होंने औरंगज़ेब और
कबीर, दोनों की याद दिलाई। औरंगज़ेब जो केवल बादशाह थे, और कबीर जो स्वयं गाँधी के शब्दों में ‘उससे भी बड़े बादशाह’ थे।
21 जुलाई, 1920 को यंग इंडिया में छपे अपने इस लेख में गाँधीजी ने लिखा कि, “जब यूरोप शैतान के चंगुल में नहीं फँसा था, उन दिनों वहाँ की
रानियाँ भी सूत कातती थीं और इसे एक अच्छा काम मानती थीं।” दरअसल गाँधीजी ने यह बात मदन मोहन मालवीय
के प्रयासों के संदर्भ में कही थी, जो भारत के राजा-महाराजा और रानी-महारानियों को
भी चरखे पर बिठाकर सूत कतवाना चाहते थे।
प्रथम दृष्ट्या ऐसा
ज़रूर लगता है कि गाँधीजी चाहते थे कि भारत के राजा-महाराजा या रानी-महारानियां सूत
काते, लेकिन खादी और चरखे के बेजा इस्तेमाल से भी गाँधी बेखबर नहीं थे। उन्होंने खादी
के केवल सूत ही नहीं काते थे, उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक रूई भी उधेड़ी थी।
चरखे की सामाजिक ताक़त
यह थी कि कोई भी इस पर सूत कात सकता था। राजा से लेकर रंक तक, वृद्ध से लेकर किशोर तक और किसी भी जाति, संप्रदाय और लिंग
के लिए इसमें कोई भेदभाव नहीं था। हां, चरखा यह अवसर ज़रूर
देता था कि जिसे अपनी जाति और विद्वता आदि का अभिमान हो, वह बढ़ई, लोहार और बुनकर से विनम्रतापूर्वक चरखे और तकुए की बारीकियाँ सीखे। वह अपने किताबी
ज्ञान को एक किनारे रखकर लोढ़ाई, पिंजाई, ताना मारना, मांड़ लगाना, रंगाई और बुनाई भी सीखे। दूसरी तरफ अनपढ़ से अनपढ़ और गरीब से गरीब भी बिना किसी
पूंजी के ठीकरी और बांस की खपची, यानी तकली पर भी कताई कर सकता था।
यही आत्मनिर्भरता और
सर्वसुलभ रोजगार खाली समय में अतिरिक्त आय के रूप में एक आर्थिक ताक़त भी मुहैया कराता
था। एक वैकल्पिक रोजगार के रूप में इसमें वह क्षमता थी कि अकाल और भयंकर गरीबी के समय
किसी को भी तात्कालिक राहत मुहैया करा सके। एक उद्योग के रूप में इसमें वह आर्थिक ताक़त
भी थी जिससे केवल व्यापारिक हितों के लिए शासन करनेवाली विदेशी सरकार की बुनियाद हिल
जाए। और इस तरह चरखा अहिंसक और सूक्ष्म राजनीतिक साधन भी था।
इसमें कोई संदेह नहीं
है कि स्वदेशी और खादी ने किसी समय इंग्लैंड में बैठे सूती मिल-मालिकों के कान खड़े
कर दिए थे और गोरे व्यापारियों की नींद में भी खलल पड़ा था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान
जब केवल 9 महीनों में ही 1 करोड़ 60 लाख गज खादी कपड़ा तैयार कर लिया गया तो एक ग्रामीण
उद्योग के रूप में इसकी ताक़त का अंदाजा भी हो गया। यही कारण था कि खादी की जब्ती से
लेकर उसके भंडारों को जलाने तक की कोशिश बरतानवी हुक़ूमत ने की थी। हालाँकि गाँधीजी
ने 8 दिसंबर,
1921 को यंग इंडिया में अपने लेख में लिखा था कि, “चरखा व्यापारिक युद्ध की नहीं, बल्कि व्यापारिक शांति
की निशानी है।”
लेकिन चरखे की साधना
में गाँधीजी जैसे ही गहरे उतरे, वैसे ही वह उनके लिए एक आध्यात्मिक साधन
भी बन गया। 16 मई, 1926 को ‘नवजीवन’ में अपने एक लेख में वे कहते हैं, “मैं चरखे को अपने लिए
मोक्ष का द्वार मानता हूं।” ऐसे ही कई स्थानों पर उन्होंने चरखे के लिए मूर्तिरूपी ईश्वर, अन्नपूर्णा और यज्ञ जैसे रूपकों का भी इस्तेमाल किया।
जब रविन्द्रनाथ टैगोर
ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘दी कल्ट ऑफ चरखा’ में चरखे से जुड़े कई पहलुओं की जोरदार आलोचना की, तो बिना व्यक्तिगत हुए जवाबी चिट्ठी में गाँधीजी ने लिखा कि, “मैं तो भगवद्गीता में भी चरखे को ही देखता हूँ।” दरअसल गाँधीजी के अर्थशास्त्र में खादी किसी मिल से प्रतिस्पर्धा
करनेवाला उद्योग न होकर बेरोजगार और निरुद्यमी लोगों के लिए एक वैकल्पिक और तात्कालिक
रोजगार का स्रोत भर था।
जाहिर है इस पर कई
सवाल उठे। लोगों ने गाँधीजी को चिट्ठियाँ लिखकर आलोचनात्मक सवालों की झड़ी लगा दी।
ऐसे ही सवालों का बिंदुवार जवाब देते हुए एक लेख में गाँधीजी ने कहा कि, “जितना (वैचारिक) बोझ बेचारा चरखा उठा सकता है, उससे कहीं अधिक बोझ
इस पर पर डाल दिया जाता है और जब वह इसे उठा नहीं पाता तो उस पर दोष लगाए जाते हैं, जबकि असल में तो वह दोष उस बोझ के रखनेवाले का होता है।”
गाँधीजी के प्रयासों
से जब खादी और चरखे की लोकप्रियता भारत के संभ्रांत तबकों से लेकर यूरोपीय लोगों तक
में फैलने लगी तो मीडिया के जरिए भी छल, बल, कल का सहारा लिया गया। इतना कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अख़बार में एक ऐसा लेख छपवाया गया, जिसमें बिना मोटरकार
के खादी बेचने निकल पड़े पंडित मोतीलाल नेहरू के लिए ‘गधा बनने’ जैसे अपशब्दों का इस्तेमाल किया गया। इतना ही नहीं इस लेख में खादी को ‘कांग्रेस का कफ़्न’ करार दिया गया। 15 अप्रैल, 1926 को यंग इंडिया में एक जोरदार लेख लिखकर
गाँधीजी ने इस अपमानजनक लेख का माक़ूल जवाब दिया।
गाँधीजी के खादी संबंधी
विचारों के बारे में कई भ्रांतियाँ स्वयं गाँधी-विचार से जुड़े लोगों में भी पाई जाती
हैं। गाँधीजी के अर्थशास्त्र में खादी किसी मिल से प्रतिस्पर्धा करने वाला उद्योग न
होकर बेरोजगार और निरुद्यमी लोगों के लिए एक वैकल्पिक और तात्कालिक रोजगार का स्रोत
भर था।
इसे स्पष्ट करते हुए
उन्होंने लिखा कि, “मैंने कताई उद्योग को विकसित करने के लिए किसी भी अन्य पोषक उद्योग को त्यागने
की कल्पना तक नहीं की है। हिंदुस्तान में करोड़ों लोग बेरोजगार रहते हैं, इसी आधार पर चरखे का प्रचार-प्रसार आरंभ किया गया है। मुझे स्वीकार करना चाहिए
कि जिस दिन भारत में ऐसे बेरोजगार लोग नहीं रहेंगे, उस दिन इस देश में
चरखे के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। मैं जिन मध्यम वर्ग के लोगों से यज्ञार्थ चरखा चलाने
के लिए कहता हूँ, वह भी बचे हुए समय में ही। चरखे की प्रवृत्ति किसी उद्योग की विनाशक नहीं, बल्कि पोषक प्रवृत्ति है। इसलिए मैंने उसे अन्नपूर्णा की उपमा दी है।”
हालाँकि गाँधीजी को
मालूम था कि चरखा चलाने और उस पर खुद से बुने हुए खादी को धारण करने का आध्यात्मिक
आनंद जो समझ लेगा, वह इसे छोड़ेगा नहीं। उन्होंने चरखे से निकलने वाली घर्र-घर्री आवाज को ‘चरखे के संगीत’ का नाम दिया।
इसी शीर्षक से 18 जुलाई, 1920 को ‘स्वदेशी’
और 21 जुलाई, 1920 को यंग इंडिया
में लिखे अपने लेख में उन्होंने कहा कि, “मैं जानता हूँ कि कुछ
लोग चरखा चलाने की इस कला के पुनरुद्धार की कोशिश पर हंसते हैं। वे कहते हैं कि मिलों, सिलाई मशीनों या टाइपराइटरों के इस युग में कोई पागल ही चरखा जैसे दकियानूसी यंत्र
का पुनुरुद्धार सफल होने की आशा कर सकता है। लेकिन ये मित्र भूल जाते हैं कि सिलाई
मशीन के आ जाने पर भी घर में सुई रखने का चलन उठ नहीं गया है और न ही टाइपराइटर आ जाने
से हाथ से लिखने की कला का अंत हो गया है। यदि होटलों के रहते भी लोग घर में खाना बनाकर
खा सकते हैं, तो मिलों के साथ-साथ चरखे क्यों नहीं चल सकते?”
इसलिए यह आज भी सच
है कि असली खादी का आनंद उसे खुद कातकर पहनने वाले ही जानते हैं। भले ही बाज़ार की
भाषा में आज महंगी खादी का इस्तेमाल ‘एक्सपेंसिव टेस्ट’ और ‘एक्सक्लूसिव आइडेंटिटी’ के तौर पर खुद को अलग, श्रेष्ठ और पवित्र दिखाने के लिए भी हो रहा हो, लेकिन ऐसा केवल आज
ही नहीं हो रहा है। गाँधीजी के समय भी होता था और गाँधीजी इससे बेखबर भी नहीं थे।
इस पवित्रतावादी और
दिखावटी पाखंड पर टिप्पणी करते हुए 4 दिसंबर, 1921 के ‘नवजीवन’ में उन्होंने कहा,
“गेहूं पवित्र खाद्यान्न
है, लेकिन उसे संन्यासी और चोर दोनों ही खाते हैं। इसी तरह पवित्र खादी पाखंडी भी
पहनते हैं और पुण्यवान भी। यह सच है कि इस संधिकाल में खादी में अन्य अनेक गुणों का
आरोपण किया जाता है और पाखंडी लोग खादी पहनकर अपने पाखंड का पोषण करते हैं। लेकिन ऐसा
अधिक समय तक नहीं चल सकता।”
खादी कातने, उसका प्रचार करने, बेचने और उसे पहनने वाला हर व्यक्ति अपने गाँधीपने का दावा करने लगे, तो हमें गाँधीजी की इस बात को याद रखने की ज़रूरत होगी। इस विचित्र राजनीतिक दौर
में खादी की ब्रांडिंग को गाँधीजी से जोड़ने में कई खतरे भी हैं। आज गाँधी के ब्रांड
और तस्वीर का इस्तेमाल रेस्तरां और कलम से लेकर बीयर और चप्पल तक में हो रहा है। और
यह केवल आज की बात नहीं है। गाँधी के नाम और ब्रांड का हास्यास्पद दुरुपयोग उनके जीवित
रहते ही शुरू हो गया था।
इस पर एक दिलचस्प वाक़या
यह है कि असहयोग आंदोलन के दौरान जब गाँधीजी की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई, तो किसी कंपनी ने महात्मा गाँधी छाप सिगरेट ही निकाल दी। यह ख़बर जब गाँधीजी तक
पहुंची, तो उन्होंने बहुत ही कठोर भाषा में 12 जनवरी, 1921 को यंग इंडिया
में इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा, “मेरे नाम का जितना
भी दुरुपयोग किया गया है, उनमें से कोई भी मेरे लिए उतना अपमानजनक नहीं है जितना की जानबूझकर एक कंपनी का
अपनी सिगरेटों के साथ मेरा नाम जोड़ दिया जाना। एक मित्र ने मेरे पास एक लेबल भेजा
है, जिस पर मेरी तस्वीर छपी हुई है और सिगरेट का नाम ‘महात्मा गाँधी सिगरेट’ रखा गया है। मैंने किसी को अपने नाम को सिगरेट के साथ जोड़ने की अनुमति नहीं दी
है। अगर यह अज्ञात सिगरेट कंपनी बाज़ार में पहुंची सिगरेट पर से यह लेबल हटा ले या
अगर जनता ऐसी लेबल वाली सिगरेटें न खरीदे तो मैं आभार मानूंगा।”
यानी कि गाँधीजी जब
जिंदा थे तभी से उनके नाम की ब्रांड के सहारे अन्य निजी या व्यापारिक व राजनीतिक हेतु
को लेकर चलने वाले लोग या समुदाय भी हुआ करते थे। जिन जिन वाक़यों या घटनाओं का गाँधीजी
को पता लगा, उन्होंने उस दौर में ही उन सभी की परतों को उधेड़ना शुरू कर दिया था।
आजकल कुछ लोग
गाँधीजी को भला-बुरा कहते हैं और दूसरी तरफ़ वही चाटुकार लोग अपने अपने नेता को गाँधी
सरीखा मनवाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। आजकल कोई निजी कंपनी उस नेता का नाम तो
क्या, तस्वीर तक इस्तेमाल भी कर ले तो काफी विवाद होने के बाद कुछ रुपये का जुर्माना
लगाकर औपचारिक चेतावनी दी जाती है। इन सब माथापच्ची में जिसकी तस्वीर या नाम इस्तेमाल
किया गया हो वह नेता तो कुछ बोलता ही नहीं!!! आपको हर पार्टी में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे।
प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर और रिलायंस जियो का मार्केटिंग ताज़ा इतिहास ही है।
आज तो खुद को ही ब्रांड
बनाकर खुद ही नेता पेश करने लगे हैं। जबकि उस दौर का सिगार का वाक़या हमने ऊपर ही देखा, जिसमें व्यक्ति खुद ही कड़ी आपत्ति जताकर कंपनी के उत्पाद को नकारने की सार्वजिनक
अपील कर देता है। क्या आज कोई नेता यह कह सकता है कि उस निजी कंपनी ने मेरी तस्वीर
बिना इजाज़त इस्तेमाल की है तो उसके उत्पाद का लोग बहिष्कार कर दे।
खादी और गाँधीजी, इन
दोनों की मुश्किल यह है कि उन्हें पूर्णत: कोई भी पार्टी स्वीकार नहीं करती। या फिर
यूँ कह ले कि कोई पार्टी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहती। उसके पीछे वजह है क्या? लंबी चर्चा करने के बाद इसका साफ़ उत्तर यही आता है कि इसकी वजह है नियत, नीति, निस्वार्थ मन, त्याग और समाज या राष्ट्र के लिए समर्पित विचारधारा। आजकल कोई भी पार्टी ये चीजें
लेकर नहीं चलती। वर्ना खेती और किसानी को लेकर इस देश में बड़े बड़े कार्यक्रम हो रहे
होते।
अगर राजनीतिक पार्टियां
इन सबको लेकर चलती तो ग्रामोद्योग, बेरोजगारी, गरीबी तथा मूलभूत व्यवस्थाओं को आज बहुत ज्यादा अहमियत मिल रही होती या फिर वो
चीजें केवल नारों का शोर नहीं होता। टिकट बंटवारे को लेकर या अन्य सतही मकसदों को लेकर
दलबदलू प्रजाति वाले नेताओं की तादाद उतनी नहीं होती या फिर गाँधीजी पर अपना एकाधिकार
जमाने वाली पार्टी करोड़ों या अरबो के घोटालों के नीचे दबी ना होती।
गाँधीजी ने तो चरखा
और उसकी संस्था को कांग्रेस संगठन के साये से दूर ही रखा था। आजादी मिलते ही कांग्रेस
का विसर्जन करने की बात कही थी। आज सभी मिलकर गाँधी का ही विसर्जन करने पर आमादा है।
उनका ग्रामोद्योग और आत्मनिर्भरता का सपना कमजोर तत्व बन चुका है। गाँधी चरखा और चरखे
का वो दौर एक प्रकार का राष्ट्रवाद भी था तथा आत्मनिर्भरता के संयुक्त सामाजिक प्रयास
का प्रतीक भी था।
गाँधीजी और उनके चरखे
से कोई नारा जुड़ा हुआ नहीं था। कोई सूत्र नहीं था। लेकिन वो एक ताबीज था, दृष्टि था या पगडंडी थी। सूत कांतना, संगीत सुनना और यह
सब करते हुए रोजगार, आत्मनिर्भरता, विदेशी मशीनरी व व्यवस्था का मुकाबला, एकसूत्रता, समभाव सभी चीजें इसने भारतीय समाज में प्रसारित कर दी थी।
हमारी तमाम सरकारों
को यह मालूम है कि गाँधीजी इस देश का सबसे बड़ा प्रतीक है। उन्हें इस देश में अपमानित
किया जाता है, नापसंद भी किया जाता है, लेकिन वैश्विक सत्यता यह भी है कि गाँधीजी
के अलावा इस देश में कोई दूसरा नाम नहीं है जिनके सहारे निवेश लाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय
मंच पर जाकर इस देश का कोई भी नेता किसी और के नाम के सहारे वो जादू नहीं बिखेर सकता
जो गाँधीजी के नाम से बिखेरा जा सकता है। क्योंकि दुनिया के तमाम देशों में, उनके लेखों में, पुस्तकों में भारत के गाँधी का जितना ज़िक्र मिलता है, उतना किसी और शख्सियत का नहीं मिलता। आप कह सकते हैं कि कई देशों ने, उनके कई लेखकों ने अपने लेखों में या पुस्तकों में गाँधी का ज़िक्र अवश्य किया
हुआ है। दुनिया में कई सड़कें, कई चौराहे, गलियाँ या जगहें ऐसी हैं जिन्हें गाँधीजी का नाम मिला हुआ है।
तमाम सरकारों को यह
मालूम है कि गाँधीजी की प्रासंगिकता कम हो चुकी है, लेकिन उनसे पीछा छुड़ाना
मुश्किल है। आज कम से कम किसी को गाँधीजी तो नहीं चाहिए, लेकिन उनका नाम या उनका ज़िक्र अवश्य करना पड़ता है। बेमन से करे, स्वार्थ से
करे, लेकिन करना पड़ता है। अब इसके पीछे वजहें जो भी हो, वो चर्चा का एक अलग सिरा है। लेकिन चरखा उस इतिहास का ऐसा पहलू है, जिसने खुद को इतिहास के उन पन्नों में सदैव के लिए अंकित कर दिया है।
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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