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Neeti vs Niyat : कुछ जगहों पर उद्योगपतियों के ‘साहस’ लग जाए तो फिर सरकारों का ‘साहस’ सातवें आसमान तक पहुंच जाता है?




हमारे देश में किसी पुल का गिरना कितना आसान है... मुश्किल है तो यह जानना कि वह क्यों गिरा? इसे आतंकवाद और नक्सलवाद, इन तमाम चीजों से जोड़कर भी देखिएगा। वैसे कश्मीर या इसके जैसी जितनी भी समस्याएँ हैं, उसके अनेकों अनेक उपायों में से एक उपाय यह भी है कि राजनीतिक दलों को जो लोग चंदा देते हैं उनके साहस वहां हो, फिर तमाम संभावनाएँ है कि सरकारों में भी साहस आ जाएगा।

आतंकवाद को रंगों में बांटने का देशद्रोह राजनीति करने लगी है। किसने शुरू किया या किसने इस शुरुआत को नया इंजिन लगाकर ताकत दी, यह एक अलग विषय है। लेकिन आतंकवाद और नक्सलवाद, जिसे अलग अलग साँचे में डालकर सोचा जाता है, रंगों के विषय में शायद दोनों एकसरीखे रहे। नक्सलवाद को लाल रंग से लिपटा गया और लाल आतंक का नाम दिया गया। कभी इसे शहरी नक्सलवाद भी कहा गया। पता नहीं, आतंक को रंगों के साथ जोड़ने में राजनीति को कितना मिल जाता होगा। बहरहाल, आतंकवाद हो या फिर नक्सलवाद, इस विषय पर अनेकों अनेक बार अनेकों अनेक लेखों में, संशोधनों में, विचारों में इसे अपने अपने तरीके से ढाला जा चुका है। लेकिन जब जब काले कोट वाले नेताओं को या फिर सफेद कुर्ते वाले सेवकों को आतंक का खात्मा करने का सार्वजनिक आह्वान करते (या करवाते) हुए देखता हूं, सो टच सोने की माफिक सो टच से भी ज्यादा छलावे की चांदी की चमक दिखाई देती है।

भारत हो या दूसरे राष्ट्र हो, हर जगह दशकों से नेता आतंक के खात्मे का सार्वजनिक आह्वान करने की परंपरा निभाते रहते हैं, बावजूद इसके आतंकवाद या दूसरे वाद, धर्म का खेल कम बल्कि काले व्यापार का ब्रह्मांड व्यापी षड्यंत्र ज्यादा लगता है। खैर, आतंकवाद या नक्सलवाद को, उसकी पीड़ा को, उसके खून भरे इतिहास को, उन समस्याओं के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक वगैरह असरों को लेकर कई तरीकों से लिखा जा सकता है। जैसे यह समस्याएँ सर्वव्यापी है, ठीक उसी तरह उसके आकलन भी किसी कमरे में कैद नहीं है। आकलन और रहस्य, दोनों चीजें भी सर्वव्यापी या सर्वव्याप के करीब है। दुनियाभर के खात्मे के लिए सक्षम या फिर अपने दुश्मन देश को पल भर में खत्म करने की क्षमता रखने वाले राष्ट्र इन समस्याओं को दशकों तक क्यों निपटा नहीं सके यह चीज़ आकलन और रहस्य... दोनों तरीके से लिखी जा चुकी है। बचपन से सुनते या देखते आए हैं कि मीडिया नये हथियार को ऐसे पेश करता है जैसे कि उस हथियार से उस देश की तमाम समस्याएँ खत्म हो जानी हो! आ गया फलांना फलांना फाइटर जेट... होगा दुश्मन का खात्मा... विनाश करेगा दुश्मन का नाश... ये सारे मीडियाई रिपोर्ट सुन-सुन कर लोगों के कान थक गए लेकिन दिमाग जाग गया। अब तो लोग कहने लगे हैं कि मीडिया हाउस को ही कुछ मिसाइल खरीद लेने चाहिए, ताकि वे स्टूडियो से दुश्मन पर डिजिटल तरीके से मिसाइल दागने के बजाय सच में ही इसका लुफ्त उठा सके! कहने का तात्पर्य यह है कि हर वाद का (आतंकवाद, नक्सलवाद या माओवाद या दूसरे कोई वाद) का खात्मा पल भर में होना था... लेकिन पल है कि जल्दी से बीतता ही नहीं।

हर हमले के बाद सबसे पहली उंगली खुफिया संस्थाओं पर उठाई जाती है... फिर निशाने पर आती हैं सुरक्षा संस्थाएँ... और अंत में सरकार। लेकिन दूसरे दिन देश के अखबारों में हमले का ब्लूप्रिंट छपता है। क्या अखबारों को ये जानकारी सरकार देती है? अगर हां... तो फिर सरकारों को ये जानकारी किसने मुहैया करवाई होगी? सारा चक्कर आम नागरिक को चक्करों में उलझाए रखता है। वैसे रंग और प्रकार तो नेताओं को दिखाई देते हैं... लोगों को तो बस आवाज आती है... धड़ाम!!! कहते हैं कि जब तक नेता आहत नहीं होते, समस्याओं का जल्द समाधान कभी मिल ही नहीं सकता! उससे भी आगे यह है कि जब तक किसी उद्योगपति का साहस स्थापित नहीं होता... सरकारों में भी साहस नहीं आता!!! किसी इलाके में बरसों तक हमारे जवान शहीद होते रहते हैं, दुश्मन से लड़ते रहते हैं... और इस समय के दौरान वहां नीतियां और नियत, दोनों चीजें अक्सर तो नहीं बदलती। लेकिन अगर वहां किसी उद्योगपति का साहस शुरू होना हो तो वहां नीतियां और नियत, दोनों बदले बदले से नजर आने लगते हैं!!! हमारा मीडिया सालों से देश के दुश्मनों की फोटो दिखाकर उसे धर दबोचने की योजनाओं को भावनात्मक लिबास पहनाकर पेश करता है... लेकिन मीडिया यह चर्चा नहीं करता कि अब तक सरकारों का बम फूस क्यों रहा। वो दुश्मन पर उंगली उठाते हैं... लेकिन सरकारों पर नहीं!!! हर हमले के बाद हमलावर पर उंगलियां उठाकर मीडिया दिनों तक शो करता है, लेकिन उंगली तो हमारी नीतियों पर उठनी चाहिए थी, जिस पर चर्चा ही नहीं होती। धमाके में कितनों की जानें गई, धमाके कराने वाले कायर, बच्चों या महिलाओं की हत्या करानेवाले गुमराह नर पिशाच... वगैरह चलता रहता है, लेकिन चर्चा नहीं होती कि हमला हुआ ही क्यों? हमारे देश में पुल का गिरना कितना आसान है.. मुश्किल है तो यह जानना कि वह क्यों गिरा।


नक्सलवाद पर लिखने बैठे तो कई एंगल से लिखा जा सकता है, कई चीजों पर, कई मसलों पर, कई योजनाओंं पर, कई प्रयासों पर लिखा जा सकता है। उसका इतिहास या फिर वर्तमान... सब पर कई गली-कूचों में घूम कर लिखा जा सकता है। लेकिन एक एंगल यह भी है कि बस्तर या छोटा नागपुर या झारखण्ड के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने सरकार का एक ही चेहरा देखा है टिम्बर माफिया का साथ देने वाला फ़ॉरेस्ट ऑफिसर, खनन कंपनियों का पहरेदार सुरक्षाकर्मी और आदिवासियों के शोषण का साथ देने वाला नेता। इनके लिए सरकार, राजनीती और उद्योग बाहरी जगत है।

दशकों से चले आ रहे इस खूंखार चैप्टर की कई जमीनी हकीकतें है। दरअसल, जमीनी हकीकत की जमीन ही कई चेहरों से लिपटी हुई है। पत्रकार ओनिद्यो चक्रवर्ती की एक रिपोर्ट के अनुसार, ऐसी सामाजिक ज़मीन पर बिसात फ़ैलाते है तीन तरह के तत्व पहले दो हैं इसाई मिशनरी और हिंदूवादी संस्थाएँ, जो समाज सेवा के साथ-साथ आदिवासियों को इसाई बनाना चाहती है या उनका शुद्धिकरण करना चाहती है। 70 के दशक से एक तीसरा खिलाड़़ी पहुंचता है इन आदिवासियों के बीच चरम वामपंथी दल, जो मानते हैं कि बन्दूक की नली से राष्ट्र और सत्ता के पूरे ढांचे को तहस-नहस करके ही आदिवासियों और ग़रीबों को उनका हक़ मिल सकता है।

यह चरम वामपंथी अपने आप को चीन के पहले चेयरमैन माओ-त्से-तुंग के अनुगामी मानते हैं। इसलिए इनको माओवादीकहा जाता है। यह चरमपंथी धारा सबसे पहले बंगाल के नक्सलबारी गांव में उभरा था। इसलिए इनको नक्सलीभी कहा जाता है।

एक एंगल यह मानता है कि नक्सलियों ने आदिवासियों को संयोजित ज़रूर किया और उनको अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की ताक़त ज़रूर दी, लेकिन इसी एंगल के साथ दूसरी जमीनी चीज़ जुड़ी हुई है, और वो यह है कि पिछले 40 सालों से उन्होंने आदिवासियों को बन्दूक का बंदी बना दिया। सरकार की कोई भी विकास परियोजना में बाधा डालने में नक्सली सबसे आगे होते हैं। साथ में नक्सलियों और टिम्बर/कोयला/खनिज/तेंदू पत्ता माफिया के बीच सांठ-गांठ बन गई। कई जगहों पर नक्सली कमांडर इन माफिया और कंपनियों से हफ़्तालेकर उनकी रक्षा करने लगे। कोई गांववाला इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता तो उसे गद्दार बोलकर मार दिया जाता।

बड़ी बात यह कि इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी भारत के सबसे खनिज-समृद्ध क्षेत्रों पर बैठे हुए हैं। 2005 से दुनिया के बाजारों में खनिज पदार्थों की मांग तेज़ी से बढ़ी। बड़ी खनन कम्पनियों के लिए यह एक सुनहरा मौक़ा था भारत के खनिज धन को अपने कब्ज़े में करने का। 2005-06 से मनमोहन सिंह सरकार की लगातार कोशिश रही कि माइनिंग सेक्टर का निजीकरण किया जाए। 2006 में होडा कमिटी ने निजीकरण और खनिज निर्यात बढ़ाने के सुझाव दिए। यूपीए में कॉरपोरेट और मार्केट के हितैषी नेता, मंत्री और अफ़सर सबने मिलकर निजीकरण का जमकर समर्थन किया। लेकिन यूपीए-1 वामपंथी दलों पर निर्भर थी और मनमोहन सरकार को कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अधीन चलना पड़ता था। वामपंथी दल निजीकरण के ख़िलाफ़ थे, इसलिए यूपीए-1 में खनन निजीकरण का मामला ठंड़े बसते में पड़ा रहा।

2009 में जब वामपंथियों दल के बिना यूपीए-2 की सरकार बनी, तो खनन-निजीकरण के समर्थक और भी मुखर हो गए। लेकिन सरकार को यह भी पता था कि खनिज क्षेत्र का उदारीकरण तभी होगा जब नक्सलियों को इन इलाकों से हटाया जा सके। इसके लिए दो रास्ते अपनाये गए। पहला था नक्सलियों के ख़िलाफ़ सुरक्षा ऑपरेशन को तेज़ करना और दूसरा आदिवासियों को मुख्य धारा में लाना। सरकार के लिए आदिवासियों को मुख्य धारा में लाना ज्यादा ज़रूरी था या फिर निजीकरण की योजना, ये अपने अपने तौर पर सोच लीजिएगा। लेकिन दशकों तक जहां खून की होली खेली जा रही थी वहां अब उद्योगपितयों की नजर थी। दशकों की नीति और नियत बदलने लगी!!! 2009-10 में लगातार नक्सलियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन चले, बड़े नक्सली नेता मार गिराए गए, नक्सली कार्यकर्ता सरेंडर हुए और नक्सली हमलों में कई सुरक्षाकर्मी भी मारे गए। हर रोज़ लाल आतंकऔर रेड कॉरिडोरकी कहानियां टीवी और अखबारों में दिखने लगी। मीडिया नक्सवाद के खात्मे और जवानों की जांबाजी की कहानियां सजाने लगा। लेकिन किसी मीडिया हाउस ने व्यापारी साहस और सरकारी साहस... नीति और नियत के बदलने के दौर का ज़िक्र तक नहीं किया।

बॉलीवुड में नक्सलवाद के उपर फिल्में बनने लगी। सुरक्षा बलों के ऑपरेशन, उनकी जांबाजी, शहीदी से लेकर कुछ फिल्में जमीनी सच्चाई के करीब करीब कहानियों पर भी बनी। मीडिया लाल आतंक के खात्मे में बिजी हो गया। निजीकरण, माइनिंग सेक्टर, व्यापार, उद्योग, सालों के बाद बदली बदली सी नीतियां... सारे एंगल राष्ट्रीय स्तर पर खत्म हो गए। कुछ स्तर पर जिंदा ज़रूर थे। वैसे भी हमारे यहां विकास का मतलब ज्यादातर तो यही समझा जाता है कि सरकार योजनाओं की घोषणा करे और फिर उस योजना को लागू करने के यत्न शुरू हो उसे ही विकास कहते है!

मई 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नक्सलवादी हिंसा भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है। मुझे नहीं पता कि इसमें नया क्या कहा गया था। सोचा तो यह भी गया कि इतनी देर क्यों कर दी थी कहने में। लेकिन मीडिया में बड़ा खतरा वाला चैप्टर ही चला। उससे कुछ दिन पहले गृह मंत्री चिदंबरम ने कहा कि माओवादियों से लड़ने के लिए एयरफ़ोर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है। नक्सवाद का खात्मा ज़रूरी था इसमें कोई शक नहीं, शायद इसीलिए दूसरे चैप्टर कालीन के नीचे दब गए। हालांकि यह एक संयोग मात्र है कि 2004 में वित्त मंत्री बनने से कुछ ही दिनों पहले तक चिदंबरम माइनिंग और एलुमिनियम कम्पनी वेदांत रेसोर्सज़के बोर्ड में निदेशक थे!

इधर कांग्रेस का एक तबका खनन-निजीकरण के साथ-साथ आदिवासी हितों की भी बात करने लगा। खनन क्षेत्र के उदारीकरण के प्लान में क़बाब में हड्डी बन गए खनन मंत्री बी के हैंडीक। जून 2010 में हैंडीक ने एक नए क़ानून का प्रस्ताव दिया जिससे खनन से होने वाले मुनाफ़े का 26% खनन प्रोजेक्ट से प्रभावित आदिवासियों को देना पड़ता। उस वक़्त सरकार को प्रति टन खनिज से 300 रुपये रॉयल्टीके तौर पर मिलता था। हैंडीक का प्रस्ताव क़ानून बन जाता तो प्रति टन खनिज पर आदिवासियों के खाते में 1100-2000 रुपये जाते। हैंडीक सोनिया गांधी के क़रीबी माने जाते थे। इसलिए उनके प्रस्ताव से ख़लबली मच गई। माइनिंग कम्पनी, फिक्की, प्लानिंग कमीशन के डिप्टी चेयरमैन मोंटेक सिंह अहलूवालिया, अशोक चावला कमेटी - सबने इसका विरोध किया। सबसे ज़्यादा विरोध तो पिंक पेपर यानी बिज़नेस अखबारों में पत्रकारों और पंडितों ने किया।

हाल यह हुआ कि सोनिया भी बी के हैंडीक को बचा नहीं पाईं। 6 महीने के अन्दर कैबिनेट फेरबदल में उनकी नौकरी गई और उनकी जगह आए बिज़नेस फ्रेंडली चेहरा गुजरात के कांग्रेस नेता दिनशा पटेल। पटेल के आते ही हैंडीक के प्रस्तावों को कोल्ड स्टोरेज में डाल दिया गया। वैसे कांग्रेस के कई बड़े नेताओं व कार्यकर्ताओं की नक्सलवादियों द्वारा सामूहिक हत्या की घटना भी देश को झकझोर नहीं पाई।

खैर, किंतु एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बना और 2011 तक निजीकरण के नए प्रस्ताव पेश किये गए। सिर्फ कोयला खनन (जो सिर्फ़ सरकारी कम्पनी कोल इंडिया करती थी) में 26% प्रॉफिट-शेयरिंग का मॉडल आया। बाक़ी के खनिज पदार्थों में रॉयल्टी को दुगना करने का प्रस्ताव दिया गया। इन सब प्रस्तावों को एमएमडीआरए बिल का रूप दिया गया। आदिवासियों के हक़ की बातें बोलने वाले अल्पमत में पड़ गए। दिलचस्प बात यह है कि इस अल्पमत में ख़ुद राहुल गांधी भी थे। 2010 में राहुल गांधी ओडिशा के नियमगिरि में खनन के ख़िलाफ़ आन्दोलन के हिस्सा बने थे और अपने आप को दिल्ली में आदिवासियों का सैनिक कहा था। लेकिन यूपीए-2 सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और जैसे-जैसे नक्सल-विरोधी ऑपरेशन ने तूल पकड़ा, सुरक्षाबलों द्वारा आदिवासियों पर अत्याचार के कई आरोप लगे। एक तरफ़ बन्दूक धारी सुरक्षाकर्मी, तो दूसरी तरफ़ बन्दूकधारी नक्सली। इन दोनों के बीच पिसते गए आदिवासी।

ऐसे में समाज-सेवक और मानवाधिकार के लिए लड़ने वाले जो एक्टिविस्ट आदिवासियों के साथ काम करते थे उनको भी नक्सली का नाम दे दिया गया। इनमें से कुछ आदिवासियों के लिए दवाखाना चलाते थे, कुछ उनको क़ानूनी सलाह और मदद पहुंचाते थेकुछ उनको अपनी ज़मीन से बेदख़ल करने की साजिशों की बात कोर्ट तक पहुंचाते थे।

अगर शक्तिशाली कॉरपोरेट और नेताओं को भी नक्सलियों के साथ समझौता करना पड़ता है तो आम समाज-सेवक या छोटे-मोटे एक्टिविस्टों को तो और भी दिक्कतें झेलनी पड़ती है। इसलिए उनका नक्सली तत्वों के साथ कनेक्शन निकालना बहुत आसान है। 2010 से ऐसे एक्टिविस्ट्स के ख़िलाफ़ कार्रवाई तेज़ी से बढ़ी और कई समाज-सेवकों को नक्सलियों से सहानुभूतिरखने के जुर्म में जेल भेजा गया। कई तो ऐसे भी हैं जिन्हें पूर्व सरकारों ने जेल भेजा और तब तत्कालीन विपक्षी दलों ने सरकार का विरोध किया, फिर जब विपक्ष वाले खुद ही सरकार बन कर सत्ता में आए तो उन्होंने भी ऐसे लोगों को जेल भेजा और उधर कभी सरकार रहे और अब तत्कालीन विपक्ष बने दलों ने भी विरोध कर लिया!!! इसे वर्तमान घटनाओं से ना जोड़े यही याचना है, वर्ना नक्सलवाद-योजना-विकास-निजीकरण-उद्योगपतियों का साहस व सरकारों का साहस... इस विषय से बुलेट ट्रेन भटक जाएगी।

नक्सलवाद, सरकारी नीतियां, सुरक्षा बलों के बलिदान और अंत में कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए तमाम चीजें पलट जाना... इस पर बहुत लंबा लिखा जा सकता है, साथ ही संक्षेप में बहुत ज्यादा समझा नहीं जा सकता। लेकिन भारत हो या दुनिया के दूसरे राष्ट्र हो, दो चीजें साफ देखी गई है। पहली यह कि जब तक कोई नेता आहत नहीं होता, किसी भी समस्या का तत्काल समाधान नहीं निकलता। दूसरी यह कि जब तक उद्योगपति का साहस मौजूद नहीं होता, सरकारों में समस्याओं के समाधान का भी साहस कम दिखाई देता है।