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Sardar Patel : सरदार आज ज़िंदा होते तो भाजपा और कांग्रेस के कई बड़े बड़े नेताओं के पीछे लठ लेकर दौड़ रहे होते


इस देश ने सरदार वल्लभभाई पटेल के बारे में जितना पढ़ा है, सुना है... इससे एक यक़ीन ज़रूर होता है कि वे अगर आज ज़िंदा होते तो नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी जैसे मौक़ापरस्त नेताओं के पीछे भी लठ लेकर दौड़ रहे होते। यहाँ किसी नेता पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने का मक़सद नहीं है, बल्कि मक़सद यह दर्शाना है कि सरदार जैसा महानायक मोदी या राहुल जैसे बड़े नामों के भी कान खींच लेने का माद्दा रखता था। सरदार पटेल के बारे में इस देश में जितना लिखा-पढ़ा या सुना गया, एक यक़ीन ज़रूर होता है कि वो लौह पुरुष आज मौजूद होते, तो कांग्रेस या भाजपा के कई खोखले बर्तनोंको वो पहले ही खाली कर चुके होते।

सरदार वल्लभभाई पटेल से संबंधित इस लेख को ग़ैर राजनीतिक शख़्सियतेंमें शामिल करने के पीछे भी एक वजह है। जो शख़्स भारतीय राजनीति का शिखरपुरुष कहा जाता है, उसे इस हिस्से में शामिल करना पड़ रहा है। क्योंकि सरदार पटेल किसी दल, किसी राजनीति या किसी ख़ास व्यक्ति के मोहताज नहीं थे। कांग्रेस से जुड़े रहे सरदार पटेल कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल से भी ऊपर थे। वे कांग्रेस के सरदार नहीं रहे, बल्कि देश के सरदार बने हुए हैं। गाँधी के ज़माने का लौह पुरुष महात्मा गाँधी के नाम का भी मोहताज नहीं रहा, बल्कि उन्होंने अपनी एक ऐसी विराट छवि बनाई, जिसका अपना एक अलग आभामंडल था, अपनी एक अलग पहचान थी। राजनीति से देश को बहुत कुछ देने वाले सरदार सिर्फ़ राजनीतिक शख़्सियत नहीं थे, वे उससे भी आगे थे।

सरदार पटेल के बारे में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। सरदार आज ज़िंदा होते तो ये होता, वो होता, जैसी कल्पना कथाएँ भी बहुत बार आती रहती हैं। सोचा कि कल्पना कथा करनी ही है तो सच के क़रीब हो ऐसी कल्पना ज़्यादा अच्छी रहेगी। और इसीलिए उनकी जीवनी, उनकी शैली, उनका अंदाज़, उनके बारे में लेखन... सबसे यही लगा कि ये लौह पुरुष अगर आज ज़िंदा होते, तो वे अपनी ही पार्टी के खोखले बर्तनों को पहले खाली करते। वो बर्तन, जो खनकते बहुत हैं। वो लोटे, जो बिन पानी के हैं।

कल्पना कथा लिखनी ही है तो आइये सच के क़रीब की कल्पनाओं में एकाध लटार मार लेते हैं। दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है समझकर या मानकर।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एक दफा ईंधन के बढ़ते दामों पर कहा था कि - पैसे पेड़ पर नहीं उगते। उन्होंने एक दफा इसी मुद्दे पर कह दिया था कि - मेरे पास जादू की छड़ी नहीं है। गर सरदार होते तो छड़ी ज़रूर बाहर आती, और फिर पेड़ के नीचे तंत्र और अर्थतंत्र का फ़र्क़ भी समझा देते।

वैसे भाजपाई समर्थकों ने जादू की छड़ी वाले बयान का विरोध किया था। आरएसएस से जुड़े मेरे एक मित्र हैं, वो आज भी उस बयान का ज़िक्र करते हैं। लेकिन 2014 के बाद भाजपा के दो दिग्गज मंत्रियों ने इसी जादू की छड़ी वाला हथियार इस्तेमाल किया। वैसे मेरे वो मित्र, जो संघ से हैं, वो ऐसे हर मामलों में यही कहते हैं कि मुझे ज्ञात नहीं है, ऐसा अगर हमारे नेताओं ने कहा था तो वह ग़लत था। लेकिन वो ऐसा मुझे ही कहते हैं, ट्विटर या फ़ेसबुक को नहीं! सरदार की जादुई छड़ी ऐसे समर्थकों के लिए भी काम आ सकती थी।

निर्भया मामले पर मनमोहन सिंह ने देश को कहा था - समाज को बदलने की ज़रूरत है। सरदार होते तो वे कहते - पीएम को पादरी नहीं होना चाहिए, बल्कि जहाँ ज़रूरत है उस दिशा में काम करना चाहिए। वैसे आज के पीएम भी हर रविवार पादरी के कैरेक्टर में दिखाई देते हैं। सरदार पटेल इस सरदार को क्या कहते हमें नहीं पता।

अपनी ही पार्टी की अध्यक्षा के मुँह से किसी राज्य के सीएम के लिए मौत का सौदागर लफ्ज़ सुनने के बाद वाजपेयी से पहले राजधर्म निभाने की सलाह सरदार पटेल सोनिया गांधी को ही दे देते। लेकिन फिर लगता है कि नेताओं के बिगड़े बोल की पूरी सूची है यहाँ। पैसे पेड़ पर नहीं उगते, मेरे पास जादू की छड़ी नहीं है, मौत का सौदागर, और उसके बाद... सोनिया गांधी कायर महिला है (सुब्बु स्वामी), पहले भारत में पैदा होने में शर्म आती थी (नरेंद्र मोदी), मोदी कायर और मनोरोगी है (केजरीवाल), मैं कंफ्यूज़ हो गया था (राहुल गांधी)। कितने बच्चे पैदा करने चाहिए, सारे भारतवासी किसकी संतान हैं...। सरदार पटेल होते तो सामूहिक रूप से इन बयान बहादुरों को झाड़ते ज़रूर। क्योंकि सरदार चुप रहने वाली शख़्सियत नहीं थे।

सीबीआई सरकारी तोता है (कांग्रेस काल) से लेकर सीबीआई, न्यायपालिका, आरबीआई, ईडी तक में आज के दौर में (भाजपा काल) जो स्थिति विद्यमान है, सरदार चुपचाप अपना काम करते रहते ये मुमकिन नहीं लगता। स्वायत्त संस्थाओं के समर्थक सरदार पटेल वित्त मंत्री अरुण जेटली का क्या हाल करते जब आरबीआई ने सरकारी नियंत्रण की शिकायत की और बदले में जेटली ने कहा कि आरबीआई ने कांग्रेस काल में जमकर लोन बाँटे। सरदार उनका कान पकड़कर ऐसे पास आउट पर पूछ लेते। एक दूसरे को बॉल पास कर ज़बावदेही से बचने के ऐसे प्रयत्न सरदार पटेल को पसंद नहीं थे।

भारत-पाकिस्तान की शांति के लिए यज्ञ करना चाहिए, दुश्मन का नाश करने के लिए मंत्र जाप करना चाहिए... ये कहा गया तब भी सरदार चुप नहीं रहते। जबकि ये विचित्र तर्क तो उन संगठनों से आए थे, जो भारत भारत खेला करते हैं। सैन्य बल का सफल इस्तेमाल करने वाले सरदार ऐसे लोगों की समझ को ठीक करने का प्रयत्न ज़रूर करते।
चुनाव प्रचार, गालियों वाली राजनीति, नफ़रत की राजनीति, ज़रूरत से ज़्यादा राष्ट्रवाद, किसानों की ख़ुदकुशी, ग़रीबी, बेरोजगारी, महंगाई, लंपटता से सराबोर कमतर राजनेताओं का यह नया दौर... लगता नहीं कि देश का नक्शा बना लेने के बाद सरदार पटेल कोने में बैठकर ये सब चुपचाप देखते रहते। वे गाँधी युग के नेता थे, लेकिन गाँधी नहीं थे। वे किसी जगह कुछ लिखकर संतोष प्राप्ति करने वाली शख़्सियत नहीं थे।

अपनी मूर्ति का इस कदर अनावरण भी सरदार को यक़ीनन नागँवार गुजरता। सरदार पटेल को जिस रूप में हिंदुस्तान जानता है, सौ फ़ीसदी से ज़्यादा भरोसा है कि वे इसका कड़ा विरोध कर देते। सरदार पटेल गाँधी तो थे नहीं कि वे किसी लेख में आपत्ति जताते, बल्कि वे नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी, दोनों के पीछे लठ लेकर दौड़ रहे होते।

सरदार पटेल का जो विशाल आभामंडल है उसमें देश का नक्शा, देश की एकता, सैन्य के प्रति उनका भाव, आदि चीज़ें ज़्यादा प्रसिद्ध हैं। अगर उन्हें पता चलता कि देश के सैनिकों को कांग्रेस व भाजपा सरकारें सालों से ओरोप पर बाबा का ठुल्लू पकड़ा रही हैं, तो क्या वे चुप बैठते? उन्हें पता चलता कि महज़ 6000 करोड़ के बजट को विशाल राशि बताकर कांग्रेस और भाजपा, दोनों देश के सैनिकों को ठग रही हैं, तो क्या वे शांत बैठे रहते? नोट करें कि ओरोप को कांग्रेस ने लटका कर रखा, जबकि भाजपा ने लागू करने के बाद भी लटका दिया है। क्योंकि ओरोप लागू नहीं करने के इल्ज़ाम स्वयं सैनिक ही भाजपा पर लगा रहे हैं। ऐसे में क्या सरदार अपने कमरे में ही बैठे हुए पाए जाते?

सरदार पटेल का गुस्सा सातवें आसमान पर तब पहुंच जाता जब उन्हें पता चलता कि जहाँ किसान सबसे ज़्यादा ख़ुदकुशी किया करते हैं, उस महाराष्ट्र राज्य में 3500 करोड़ की मूर्ति बन रही है तथा उनके ही गृहराज्य में, जहाँ प्राथमिक शिक्षा से लेकर हर प्राथमिक सुविधाओं में कैग ने पर्ते उधेड़ दी हैं, वहाँ उनकी 3000 करोड़ की मूर्ति बनी है, तो क्या वे मोदी या राहुल गांधी को हार पहनाते? वो यह ज़रूर सोचते कि दो मूर्तियों के पीछे ये देश 7000 करोड़ बहा रहा है, वहीं सैनिकों की मांगों को ठेल रहा है, तो क्या ऐसे में सरदार घर से बाहर निकल सत्ता के गलियारों में चल रहे इस व्यर्थ व्यय को रोकने के लिए उठ खड़े नहीं होते?

उन्हें जब पता चलता कि उनकी मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम के चलते अहमदाबाद, गांधीनगर समेत कई इलाकों के स्कूल-कॉलेज में बच्चों को छुट्टिय़ाँ दी गई हैं, उधर आदिवासी समुदाय जो गँवाया उसके लिए इस दिन बंद पर है, तो कम से कम सरदार पटेल के बारे में जितना सुना-पढ़ा है, लगता नहीं कि वे घर पर योग कर रहे होते। बल्कि वे इस भोग को लेकर अपने देश के इन वोटबाज नेताओं का क्लास ले रहे होते। क्लास से ये नेता समझने वाले नहीं, तब तो नेता आगे दौड़ रहे होते और सरदार पीछे लठ लेकर दौड़ रहे होते।
ये ठीक है कि हमें हमारे इतिहास से नज़दीक़ रहना चाहिए, हमारे पूर्वजों और हमें बनाने वाले लोगों के पास होना चाहिए, उनके स्मृति-स्थल होने चाहिए। लेकिन सरदार होते तो कहते कि ये सब तब होना चाहिए जब देश के भूखे नंगे लोगों के लिएख़ुदकुशी कर रहे किसानों को देने के लिए राजनीति के पास कुछ बचा हो।

सरदार पटेल के जीवनकाल के कई प्रसिद्ध प्रसंग हैं। इनसे सरदार का जो विराट चरित्र उभरता है इससे तो यही महसूस होता है कि सरदार भले गाँधी से प्रभावित थे, लेकिन वे गाँधी नहीं थे। मतलब यह कि वे गाँधीजी की तरह किसी लेख में विरोध नहीं करते, बल्कि ऐसे मौक़ापरस्त नेताओं को अपनी भाषा में समझाते। वह भाषा जो उन्होंने उन राजाओं व रजवाड़ों के साथ इस्तेमाल की थी, जो विभाजन के समय ज़िद पर अड़े हुए थे।

हिंदूवाद को लेकर सरदार पटेल का स्पष्ट मंतव्य आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था-  जो लोग हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हैं वे मानसिक रूप से दिवालिये होते हैं। उन्होंने इस थ्योरी को पागलपन भी कहा था। क्या किसी भी व्यक्ति में हिम्मत है कि वे सरदार पटेल के इस कथन के सामने किसी प्रकार का तर्क कर सके?


अपने कर्तव्य निर्वाहन को लेकर भी सरदार सदैव सचेत रहे। राष्ट्र की धुरी बनने से पहले वे अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (एएमसी) को संभाल चुके थे। एएमसी में उनके यादगार कार्यों को लेकर कई पुस्तकों में लिखा गया है, कई लेखों में इसे संजोया गया है। सभी जगह ज़िक्र मिलता है कि अपने कर्तव्य निर्वाहन के दौरान सरदार ने शहर या लोगों की सुविधाओं पर काम किया तथा प्राथमिक विकास कार्यों को तवज्जो दी।

इसके लिए उन्होंने शहर में अनेक आस्था स्थलों को हटाने से कभी परहेज़ नहीं किया। किसी भी धर्म का या किसी की भी आस्था का कोई प्रतीक होता, जो बीच में आ रहा होता, उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया था कि उसे हटा दो। कहते हैं कि तब भी धार्मिक जगहों को तोड़कर हटाने के लिए सरदार का लोग विरोध किया करते थे। लेकिन सरदार ने इन विरोधों को तवज्जो ही नहीं दी और मंदिर हो या मस्जिद हो, दूसरे धर्मों के आस्था प्रतीक हो, सभी को उस समय के बुलडोजर से लेकर फावड़ों तक का इस्तेमाल करके उन्होंने हटा दिया। क्या आज की राजनीति ये कर रही है? सरदार के गुणगान करके कांग्रेस और भाजपा, दोनों वोट की राजनीति में जुटी हैं, लेकिन क्या सरदार की तरह जुटी हैं?

आज नेताओं के बेटे व बेटियाँ, कौन नहीं जानता कि उनके बारे में क्या क्या छपता है। उद्योग से लेकर ठेके, आय में छप्पर फाड़ इज़ाफ़ा, क्या कुछ नहीं हुआ नेताओं के संतानों को लेकर। एक वो सरदार थे, जिन्होंने अपने संतानों को कहा था कि मेरा नाम इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। बल्कि उन्होंने बाक़ायदा सभी को कहा था कि उनका नाम लेकर उनके घर का कोई भी सदस्य आता है, तब भी काम वैसे ही होना चाहिए जैसा कि आम जनता के साथ होना है।
क्या सरदार आज ज़िंदा होते तो वे कांग्रेस या भाजपा के इन नेताओं की ये लंपटता नहीं समझ पाते? इससे बड़ा सवाल यह कि वे क्या इस लंपटता को चला लेते? यक़ीनन नहीं। बल्कि शायद वे ऐसे नेताओं को कहते कि अपना ये तामझाम लेकर देश छोड़ दो, या फिर देश में रहना है तो यह सब छोड़ दो।

सरदार पटेल का एक यादगार कथन है, "यह हर एक नागरिक की ज़िम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे कि उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है। उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है, और उसे इस देश में हर अधिकार है पर कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी हैं।"

किंतु आजकल ज्ञातिवाद ही जीत की कूची है। भारतीयता नहीं बल्कि दूसरी पहचानें लोगों के भीतर उफ़ान पर है। कांग्रेस में भी यह व्याप्त है और भाजपा में भी। राजनीति बेशर्म शख़्सियतों का व्यवसाय है, और इसीलिए सरदार पटेल के इस कथन के विरुद्ध चलकर दोनों राजनीतिक दल सरदार पटेल को नमन करने की कोरियोग्राफी सफलता से निभा लेते हैं।


सरदार पटेल ने कहा था, "बोलने में मर्यादा मत छोड़ना। गालियाँ देना तो कायरों का काम है।" कांग्रेस हो या भाजपा हो, दोनों जगह मर्यादाएँ लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के भांति है। गालियाँ नयी राजनीतिक संस्कृति है। बिना गाली के बड़े से बड़ा नेता खाना हजम नहीं कर पाता।

सरदार पटेल के प्रसिद्ध कथनों में से एक कथन है, "कठिन समय में कायर बहाना ढूंढ़ते हैं, बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं।" अब आज का हाल देखिए। भाजपा को कुछ बोलो तो वो कांग्रेस का बहाना लेती है। कांग्रेस को कुछ बोलो तो वो भाजपा का। सरदार पटेल ने कहा था कि बहाना कायर ढूंढते हैं। अगर सरदार पटेल सभी दलों के लिए सचमुच पूजनीय हैं, तो फिर सारे दल के सारे नेता कायर ही माने जाए।

सरदार पटेल ने कहा था, "जो तलवार चलाना जानते हुए भी तलवार को म्यान में रखता है, उसीकी अहिंसा सच्ची अहिंसा कही जाएगी। कायरों की अहिंसा का मूल्य ही क्या। और जब तक अहिंसा को स्वीकार नहीं जातातब तक शांति कहाँ।" अब आजकल कौन से राजनीतिक हालात है, समर्थक से लेकर छिटपुट नेता, बड़ा नेता, दल का मुखिया तक, सारे कौन सी राजनीतिक संस्कृति का अवतरण करा रहे हैं, सबको पता है।
सरदार पटेल और नेहरू के बीच का अंतर जगज़ाहिर है। उनके मतभेद कई किताबों में लिखे जा चुके हैं। किताबों में जो है वह पढ़े तो आप समझ सकते हैं कि कैसे वह लोग एकदूसरे के विचारों को काटने के बाद भी एकदूसरे के स्पेस की रक्षा किया करते थे।

नेहरू ने सरदार के लिए या सरदार ने नेहरू के लिए जो लिखा था (मतभेद व भिन्न विचारों को लेकर), क्या आज राजनाथ नरेंद्र मोदी के बारे में या नरेंद्र मोदी राजनाथ के बारे में लिख सकते हैं? क्या मनमोहन सोनिया के बारे में या सोनिया मनमोहन के बारे में लिख सकती हैं? इसका जवाब है नहीं। यह चीज़ें उस महान भारत और आज के कमतर नेताओं के दौर वाले भारत का फ़र्क़ समझा जाती हैं।

गाँधी और सरदार के बारे में भी बहुत सारी चीज़ें चलीं और चलती रहेगी। गाँधीजी ने सरदार को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। और इस बात को लेकर आजकल घर में बैठे बैठे नया इतिहास लिखने वाले लोग गाँधी और नेहरू को बहुत कुछ सुना देते हैं। जबकि स्वयं सरदार ने गाँधी या नेहरू को कभी कुछ नहीं सुनाया। सरदार ने कुछ नहीं कहा, लेकिन आजकल के होम मेड इतिहासकार कहने में कुछ बाकी नहीं रखते!!!


जिस गाँधीजी की वजह से सरदार स्वातंत्र्य संग्राम में कूदे, जिस नेहरू के साथ वे रहे, मतभेदों के बाद भी इन सबने एक दूसरे का स्पेस नहीं छीना और सम्मान व मर्यादाओं का सदैव पालन किया। ऐसे अनेक प्रसंग हैं, मौक़े हैं। राजनीति में, आर्थिक व सामाजिक नीतियों में तथा दूसरे कई सारे मसलों पर भी, कई दफा वे सभी एक दूसरे से भिन्न विचार रखते थे, बावजूद इसके स्तर गिराने की नीतियाँ नहीं चलती थीं उस दौर में। क्योंकि वे सभी एक दूसरे के पूरक थे, प्रतिस्पर्धी नहीं थे। आजकल समर्थकों की बात तो छोड़ दीजिए, मोदी या राहुल गांधी जैसे बड़े बड़े नेता तक किस स्तर तक गिर जाते हैं, कौन नहीं जानता।

सरदार पटेल दो झंडों की मान्यता के आसपास नहीं थे। और इसीलिए वे आज तिरंगा और साथ में दूसरे झंडों को थामकर चल रहे देशभक्तों को सार्वजनिक नसीहत ज़रूर देते। कोई हरा झंडा थामता है, कोई भगवा, तो कोई दूसरा। ये सारे लोग तिरंगे को अपनी जान कहते हैं और अपने अपने पर्सनल झंडों को अपनी शान। सरदार होते तो कहते कि तिरंगा ही इस देश की आन, बान, शान और जान है। बाकी के सारे झंडे अपनी अपनी व्यक्तिगत व मर्यादित सी पहचान है।

एक परम मित्र कहते हैं कि सरदार आज ज़िंदा होते तो वे भी आज कल के इन नेताओं से थक गए होते। हो सकता है यह। इनकार नहीं है इससे। लेकिन ऐसा होता तो फिर यह ख़ुद ही प्रमाणित हो जाता कि आज का ये दौर कमतर राजनेताओं का दौर है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)