हमारे
यहाँ जो इतिहास है उसका इतिहास ही ऐसा है कि साबित तो कुछ भी नहीं होगा, लेकिन फिर
भी बहुत-कुछ साबित हो चुका है!!! खैर, सीधी बात तो यह भी
है कि... अगर यह विवाद कांग्रेस शासन के दौरान हुआ होता तब भी यह सीबीआई का आंतरिक
विवाद ही होता, आज यह विवाद भाजपा शासन के दौरान हुआ है, और अब भी यह सीबीआई का
आंतरिक विवाद भर ही है। इश्क नचाए जिसको यार, फिर वो नाचे बीच बाजार टाइप समर्थकों
की कृपा से यही होता और यही हो रहा है। क्योंकि हमारे यहाँ नेता अक्सर लोगों को धोखा दे जाते हैं, लेकिन लोग नेताओं को धोखा नहीं देते।
सीबीआई को लेकर फिलहाल जो
कुछ हो रहा है, उसमें जितने भी किरदार हैं, जितने भी आरोप हैं या कुछ और है,
कांग्रेस- आम आदमी पार्टी- सपा- बसपा समेत दूसरे तमाम विरोधी दलों के लिए ये सारी चीजें स्पष्ट भ्रष्टाचार और देश के खिलाफ स्पष्ट अपराध का मामला है। सत्ता पर विराजमान
भाजपा के लिए यह विरोधियों का षड्यंत्र है। अगर ये सारी चीजें दूसरों के शासन काल के
दौरान हुई होती और उस वक्त भाजपा विरोधपक्ष में होती तो भाजपा के लिए भी यह स्पष्ट भ्रष्टाचार
और देश के खिलाफ अपराध का मामला ही होता। हमारे यहाँ लठैत समुदाय की समझ और उस
समुदाय को संस्कार प्रदान करने वाले राजनीतिक दलों की चालाकी अरसे से इसी तरह देश को
नुकसान पहुंचाते आई है।
देश के सबसे बड़े जांच
संस्थान के भीतर का वो दौर, जो पिछले 70 सालों में पहली बार हुआ। वो दौर... जहाँ किसी
राह चलते ने नहीं बल्कि उस संस्थान के निदेशक और विशेष निदेशक ने ही सीबीआई के कपड़े फाड़ दिए थे!!! निदेशक और विशेष निदेशक ने एक दूसरे पर केवल आरोप ही नहीं लगाए, बल्कि
सीबीआई को करीब करीब बिना कपड़ों का ही कर दिया!!! निदेशक, विशेष निदेशक के उपरांत
सीबीआई के डीजीपी, डीआईजी, सीवीसी से लेकर सचिव स्तर के चेहरों को बेनकाब कर दिया।
पिछले 70 सालों में पहली बार हो रहा था कि सीबीआई का ये ऐतिहासिक विवाद यही नहीं थमा।
जैसे कि कपड़े केवल सीबीआई के ही नहीं, किसी और के भी उतर रहे थे। केंद्रीय मंत्री
से लेकर देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक के नाम सामने आए!!!
किसी के मुजरे पर
नाचने वाला मीडिया और मुजरे की शान माने जाने वाले समर्थक, दोनों की कृपा से देश के
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और केंद्रीय मंत्री तक के ऊपर सुप्रीम कोर्ट में लिखित
आरोप लगना बड़ी बात नहीं बन पाई!!! राजनीतिक दलों के लिए यह ठीक ही था, देश के लिए
कितना ठीक था इसकी चर्चा मुजरों में नहीं हुआ करती यह भी कालीन के नीचे का सच ही था।
सीबीआई... कांग्रेस के दौर
में इसे कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहा जाता था, भाजपा के दौर में इसे
बीबीआई, यानी की भाजपा ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहा जाने लगा। सीबीआई को सरकार का
तोता कहे जाने का वो दौर भी सभी को भली-भांति ज्ञात है। सरकारें बदलती हैं, लेकिन
सीबीआई कभी नहीं बदलती!!! कुछ कहते हैं कि बदलती नहीं लेकिन बिगड़ती ज़रूर है। देश के
सबसे बड़े जांच संस्थान का इस्तेमाल राजनीतिक दांवपेच में ज्यादा होता है यह भी एक
अपुष्ट सच है। नवम्बर 2018 के दौरान सीबीआई के ही डीआईजी एमके सिन्हा ने सीबीआई का
नया नाम दिया –
सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन।
जिस सीबीआई को विरोधियों
को धमकाने या ठिकाने लगाने के लिए कथित रूप से इस्तेमाल किया जाता था उसी संस्थान
में सीबीआई ने सीबीआई के खिलाफ ही सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। यह अक्टूबर 2018 का दौर
था। इसी साल 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट
के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया था और अब अक्टूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट के बाद
सीबीआई में जंग छिड़ गई। जो पिछले 70 सालों में नहीं हुआ था वो सीबीआई ने करके दिखा
दिया था। सोशल मीडिया पर लोग अच्छे दिन व बुरे दिन का पोकेमोन गेम खेल रहे थे, इधर
सीबीआई में दो वरिष्ठ अधिकारियों ने गेम खेलना शुरू कर दिया था।
सीबीआई के इस अत्यंत गंभीर
और विवादास्पद इतिहास का चौंकानेवाला पहलू यह था कि यहाँ किसी राजनीतिक दल,
राजनीतिक विरोधी या राह चलते ने नहीं, बल्कि सीबीआई के संवेदनशील पदों पर बिराजमान
शख्सियतों ने सीबीआई-अपराधीकरण और राजनीतिक मेलजोल की पुरानी काजल की कोठरी खोली!!! नोट यह भी करे कि यह कोठरी अख़बार के सामने नहीं बल्कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के
सामने खोली गई थी, बाकायदा लिखित में और तथ्यों के साथ!!! अब इन सबूतों व तथ्यों को कथित
सबूत या कथित तथ्य ही लिखना होगा, क्योंकि इसे उस ‘विवादास्पद
प्रक्रिया’ से
गुजरना बाकी था।
लेकिन इस ऐतिहासिक विवाद
के कथित किरदार या कथित पीड़ित या कथित अपराधियों की जो हाई-प्रोफाइल सूची थी...
शायद यह सूची इतनी हाई-प्रोफाइल थी कि लो-प्रोफाइल हो चुका भारतीय मीडिया भी लोगों की समझ से बच नहीं पाया। इस मामले की रिपोर्टिंग को लेकर लोगों ने लिखना शुरू कर
दिया कि पहले अख़बार छपते थे और फिर बिकते थे... लेकिन आज अख़बार बिकते हैं और फिर
छपते हैं। वैसे यह पहले भी हुआ करता था। क्योंकि मीडिया शायद बिकाऊ ही होता है, बस
ख़रीददार बदलते रहते हैं। लेकिन उस ग्राफ की तेजी या मंदी में यह दौर तेजी का दौर था।
हमने सीबीआई के इस विवाद
को लेकर एक अलग संस्करण देखा। यहाँ हम देखते हैं इस विवाद के प्रमुख चेहरों को, जो
इतने हाई-प्रोफाइल थे कि लो-प्रोफाइल मीडिया तेजी के दौर की तरफ चल पड़ा था। कई सारे
किरदार है, छोटे-मोटे, कथित रूप से छुपे-बचे, फंसे हुए या फंसाए गए...। लेकिन
धारणाओं के ऊपर चलने के बजाय हम वही बात करते हैं जो अब तक हुई है।
अजीत
डोभाल
यह नाम अंजाना नहीं है।
भाजपा हो या इससे पहले कांग्रेस हो, जासूसी दुनिया के इस किरदार को लोग अपना हीरो
मानते रहे हैं। कथित रूप से पाकिस्तान में सालों तक खुद को छिपाकर भारत देश के लिए
काम करने वाले अजीत डोभाल को तेज-तर्रार जासूस के तौर पर जाना गया। पाकिस्तान,
आतंकवाद, जासूसी आदि को लेकर उनकी पकड़ उनकी पहचान थी। पीएम नरेन्द्र मोदी ने
इन्हें देश का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाया। मोदी के विरोधियों के लिए डोभाल
को एनएसए बनाना मोदी का एकमात्र अच्छा काम माना गया था। वैसे बड़े पद और बड़े लोगों को लेकर विवाद होते ही है। लिहाजा डोभाल को लेकर भी इसके बाद एकाध-दो विवाद हुए।
पठानकोट हमले के दौरान हद से ज्यादा हस्तक्षेप या मनमानी करना तथा डोभाल के पुत्र
शौर्य को लेकर कथित आर्थिक हेराफेरी के विवाद हुए, जिसका कोई अंतिम सिरा नहीं मिला।
वक्त रहते ये सारी चीजें खुद-ब-खुद सिमट गई। दौर तो वो भी आया जब अजीत डोभाल देश के
सबसे पावरफुल ब्यूरोक्रेट बने। उनके पास वो सारे अधिकार थे, जो किसी और के पास नहीं थे।
बीच में डोभाल का सरकार
कैसी बननी चाहिए उस पर दिया गया भाषण उनका अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा या नरेन्द्र मोदी
के लिए किया गया छुपा प्रचार बना। कह सकते हैं कि ये उनके विचार थे, सरकारें कैसी
होनी चाहिए उस पर। लेकिन इतने बड़े अधिकारी का इस तरह से दिया गया भाषण सरकार के
पक्ष में प्रचार सरीखा बनकर उभरना स्वाभाविक ही था। लेकिन डोभाल की मीडियाई छवि और
मंदिर-मस्जिद जैसे महत्वपूर्ण मसलों के सामने कई सारी चीजें बिना चर्चा के दम तोड़ गई।
नवम्बर 2018 का महीना था।
देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरीखी शख्सियत, जो देश का सबसे शक्तिशाली
अधिकारी था, जो देश के पीएम के सबसे नजदीक माना जाता था, उस पर एक ऐसा आरोप लगा,
जिसने आम लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। वैसे 'भारतीय मीडिया की तत्काल कृपा' से
इसे न्यूज़ या डिबेट में स्थान नहीं मिला, जिससे लोगों की मान्यताएँ ज्यादा प्रताड़ित नहीं हुई थी। आगे लिखा वैसे बड़े लोगों पर आरोप लगना गंभीर नहीं होता। लेकिन यहाँ अतिगंभीर मसला
ही था। क्योंकि देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पर आरोप लगाने वाला कोई राह चलता
शख्स या कोई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं था। अजीत डोभाल पर सनसनीखेज इल्ज़ाम
लगाने वाला शख्स था सीबीआई का डीआईजी!!! देश की सबसे बड़ी जांच संस्थान का डीआईजी
स्तर का बड़ा शख्स था, जिसने यह इल्ज़ाम लगाए!!! उससे भी बड़ी बात तो यह थी कि यह
इल्ज़ाम बोलकर नहीं बल्कि लिखकर लगाए गए थे!!! उससे भी बड़ी बात यह थी कि यह लिखित आरोप
कहीं और नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट में दिए गए थे!!! ब्रेकिंग न्यूज़ का धंधा चलाने वाला
मीडिया क्यों ब्रेक हो गया होगा यह आसानी से समझ आ जाता है। क्योंकि इन दिनों
भारतीय मीडिया इस समझ को समझाने के लिए कई सारे उदाहरण पेश किए जा रहा था।
सीबीआई के डीआईजी एमके
सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने लिखित आरोप लगाए। उस दिन सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ उसका एक दिलचस्प पहलू भी था। एमके सिन्हा ने अदालत में कहा था कि मेरे पास ऐसे तथ्य हैं जिससे आप (अदालत) चौंक उठेंगे। अदालत ने कहा कि हम कभी नहीं चौंकते। इस
छोटे से वार्तालाप का दिलचस्प मतलब बड़ा दिलचस्प है।
सीबीआई का बड़ा अफसर
तत्कालीन सरकार के मंत्री और एनएसए जैसे संवेदनशील पदों पर बैठी हुई शख्सियतों पर
बाकायदा लिखित आरोप सुप्रीम कोर्ट जैसे प्लेटफॉर्म पर जाकर लगाता है तो यह कोई
सामान्य सी बात तो है नहीं। एमके सिन्हा ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल पर बाकायदा लिखित रूप में अपनी याचिका
में आरोप लगाए। इस केस में दखल देने और प्रभावित करने के लिए। किसी हाई प्रोफाइल
केस में दखल देना और केस को प्रभावित करने का मतलब क्या हुआ यह मैट्रिक पास आदमी की
समझ में आ सकता है, यदि चाहे तो। मनीष सिन्हा ने कहा कि जिस अस्थाना केस को वो देख
रहे थे, उससे हटाकर उनका तबादला नागपुर इसलिए किया गया क्योंकि पीएमओ के इशारे पर
शक्तिशाली लोगों को बचाया जा रहा था। सबूतों से छेडछाड़ की जा रही थी। मनीष सिन्हा
निरव मोदी और मेहुल चोकसी का भी केस देख रहे थे।
सीबीआई का डीआईजी स्तर का बड़ा अधिकारी अदालत में लिखित बयान देकर आरोप लगाता है
तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने
अस्थाना की जांच में दखल दी थी? क्या किसी अपराधी को बचाने के लिए अस्थाना के यहाँ छापेमारी से लेकर फोन ज़ब्त
करने से रोका था? सिन्हा ने अपनी याचिका में लिखा कि अस्थाना के खिलाफ जांच
में कई स्तरों पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने गतिरोध पैदा किया। इस केस में
शामिल दो मिडिलमैन (बिचौलिये) अजीत डोभाल के करीबी थे। दुबई के मिडिलमैन मनोज के
ज़रिए ही अस्थाना को पैसे देने का आरोप लगा था। गिरफ्तारी के बाद मनोज ने हैरानी
जताई थी कि उसे सीबीआई कैसे पकड़ सकती है जबकि वो अजीत डोभाल का करीबी है। उसके भाई
सोमेश और रॉ के अधिकारी सामंत गोयल ने एक पर्सनल केस में अजीत डोभाल की मदद की थी।
अस्थाना के खिलाफ जांच से लेकर एफआईआर के स्तर पर अजीत डोभाल दिलचस्पी ले रहे थे।
ये सब सिन्हा के आरोपों से निकलकर आ रही बातें हैं।
याचिका में लिखा गया कि 5 अक्टूबर को अस्थाना के खिलाफ एफआईआर हुई थी जिसकी
सूचना आलोक वर्मा ने अजीत डोभाल को 17 अक्टूबर को दी। याचिका के जरिए सवाल उठाया
गया कि आलोक वर्मा अजीत डोभाल को क्यों बता रहे थे कि अस्थाना के खिलाफ एफआईआर हुई
है और अजीत डोभाल अस्थाना को क्यों बता रहे थे कि तुम्हारे खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई
है। क्या अस्थाना ने अजीत डोभाल से गुज़ारिश की थी कि उनकी गिरफ्तारी नहीं होनी
चाहिए और अजीत डोभाल ने अस्थाना को गिरफ्तार होने से बचा लिया, यह सब याचिका में लिखा गया था। केवल खंडन से तो बात नहीं बन सकती, क्योंकि यह
मामला अब जांच से भी आगे का हो गया है। याचिका में लिखा गया था कि अजीत डोभाल के
दबाव में अस्थाना के घर सर्च करने की अनुमति नहीं मिली और उनके मोबाइल फोन को ज़ब्त
नहीं किया गया। जांच अधिकारी एके बस्सी ने भी कुछ कुछ ऐसे ही आरोप लगाए थे। एमके
सिन्हा ने अपनी याचिका में यह सब लिखा कि आलोक वर्मा ने पूछने पर कहा कि राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार ने सेल फोन ज़ब्त करने की अनुमति नहीं दी। 22 अक्टूबर को आलोक वर्मा से औपचारिक दरख्वास्त किया गया मगर
फिर अनुमति नहीं मिली। पूछने पर बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने अनुमति
नहीं दी। यही नहीं याचिका में सिन्हा ने आरोप लगाया कि जब 20 अक्टूबर को डिप्टी एसपी देवेंद्र कुमार के घर सर्च चल रही
थी तब सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा की तरफ से सर्च रोकने का निर्देश आया। पूछने पर
जवाब मिला कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने ऐसा करने को कहा है।
हरिभाई
पार्थीभाई चौधरी
अजीत डोभाल जैसी बड़ी शख्सियत पर सुप्रीम कोर्ट के सामने बाकायदा लिखित आरोप सीबीआई के ही डीआईजी ने
लगाए। इन्होंने अजीत डोभाल के साथ साथ एक और बड़ी शख्सियत का नाम लिखा। वो थे
तत्कालीन मोदी सरकार के मंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी। ये मंत्रीजी गुजरात से थे। जब
उन पर सीबीआई डीआईजी ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित आरोप दागे, तब वे कोयला खनन मंत्री
(राज्य स्तर) थे। उसके बाद भी बने रहे!!! क्योंकि लाल बहादुर शास्त्रीजी का दौर कबका
चला गया है। (गांधी या सरदार पटेल का दौर तो भूल ही जाइए)
वे 2014 में मंत्री बने थे। पहले गृह राज्य मंत्री बने, फिर लघु व मध्यम
उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री बने और फिर कोयला व खनन राज्य मंत्री बने। हरिभाई पार्थीभाई गुजरात के बनासकांठा से कई बार लोकसभा का चुनाव लड़ चुके थे। 2014
में लोकसभा में ही विवादित बयान दिया था कि जिस राज्य में ज़्यादा मुस्लिम रहते हैं
उस राज्य में ज़्यादा क़ैदी होते हैं। तब वे गृह राज्य मंत्री थे। एमके सिन्हा ने
अपनी याचिका में लिखा कि अस्थाना केस के शिकायतकर्ता सतीश सना ने बताया था कि
राज्य मंत्री को कई करोड़ की रिश्वत दी गई है। 20 अक्टूबर की दोपहर अहमदाबाद के
विपुल के मार्फत यह पैसा दिया गया। डीआईजी सिन्हा ने लिखा कि सतीश सना ने ये सारी
बातें बताई थीं जो उन्होंने आलोक वर्मा और सहायक निदेशक एके शर्मा को बता दी थी।
कह सकते हैं कि बताई गई बातों का न्यायालय में स्थान नहीं होता, वहां तथ्यों व सबूतों को ही जगह मिलती है। जैसे कि टूजी स्पेक्ट्रम में हुआ था। लेकिन इसका ज्यादा खयाल
डीआईजी स्तर के अधिकारी को होगा ही। तथ्यों और सबूतों के अभाव का इतिहास हमारे यहाँ बहुत पुराना है।
मनीष कुमार सिन्हा सीबीआई में कई महत्वपूर्ण केस देख रहे थे। अनुभवी अफसर माना
जाता था इन्हें। सीबीआई में इन दिनों डीआईजी थे और हाल ही में 23 अक्टूबर की रात
इनका भी दिल्ली से नागपुर तबादला कर दिया गया था। मनीष कुमार सिन्हा ने 19 नवंबर 2018 को
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर ये सारे आरोप लगाए। एक आईपीएस अफसर ने सरकार के
मंत्री पर कई करोड़ की रिश्वत लेने का आरोप लगाया!!! जून 2018 के पहले 15 दिनों में
कभी यह पैसा मोदी सरकार के मंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी को दिया गया ऐसा इल्ज़ाम
लगा। इससे जुड़ा आरोप तो और भी ख़तरनाक था। आरोप था कि यह रिश्वत मोइन कुरैशी केस
में जांच कर रहे अधिकारी वसूली का रैकेट चला रहे थे, उसी के सिलसिले में
पैसा दिया गया था!!!
एमके सिन्हा की याचिका को पढ़ेंगे तो दिमाग चक्कर खा जाएगा। जिस मंत्री पर कई
करोड़ रिश्वत लेने के आरोप है उन पर यह भी आरोप है कि वे कार्मिक मंत्रालय के ज़रिए
सीबीआई के अफसरों के मामले में दखल देते हैं! कार्मिक मंत्रालय में उनके ज़रिए ये
सब हो रहा है, जिन्हें सीबीआई के निदेशक रिपोर्ट करते हैं! कार्मिक मंत्रालय, जिसके
मंत्री जितेंद्र सिंह हैं, वहां आलोक वर्मा किसे रिपोर्ट करते हैं ये दिमाग को
चकराने वाला सवाल है!
सोचिए, मीडिया ने एक ही लाइन पकड़ कर रखी थी कि सीबीआई के दो वरिष्ठ अधिकारियों
के बीच खुली जंग। लेकिन इस खुली जंग में कितने खुल गए उसका ज़िक्र करने से मीडिया
बचता नजर आ रहा था!!! जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में लिखित आरोप लगाए वो सिन्हा सीबीआई
के एंटी करप्शन यूनिट के डीआईजी है। सुषमा स्वराज के लफ्जों में - कुछ तो बात रही
होगी, वर्ना यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।
हरिभाई चौधरी, जिन पर डीआईजी सिन्हा ने 2 करोड़ की रिश्वत का सनसनीखेज इल्ज़ाम
लगाया, वे केंद्रीय राज्य मंत्री थे... और अब तक है!!! स्थानिक मीडियाई रिपोर्ट के
मुताबिक वे संघ परिवार के नजदीकी आदमी है और इसीलिए उन्हें लोकसभा के लिए टिकट
मिलते रहे। बतौर बनासकांठा सांसद ये उनकी चौथी पारी थी। 1998, जब वाजपेयी सरकार 13
दिनों तक चली थी, उस 12वीं लोकसभा के दौरान वे पहली दफा चुनकर आए। मई 2014 तक उनकी
विजय यात्रा चल रही है। गुजरात के स्थानिक मीडिया रिपोर्ट की माने तो वे हीरा
व्यापार से जुड़े हुए हैं। अपने इलाके में शिक्षा संकुल भी है इनका, जहाँ संघ के शिविर
आयोजन होते रहे हैं।
पिटीशन में सिन्हा ने आरोप लगाया कि जून 2018 के पहले पंद्रह दिनों के अंदर
हरिभाई चौधरी को कुछेक करोड़ रुपये बतौर रिश्वत दिए गए। सिन्हा का दावा है कि उन्हें ये जानकारी सतीश बाबू सना ने दी थी। सतीश सना के हवाले से सिन्हा ने लिखा है कि
हरिभाई चौधरी ने भरोसा दिलाया था कि वे इस मामले में सीबीआई के उच्चाधिकारी से लेकर
मिनिस्ट्री ऑफ पर्सनेल, पब्लिक ग्रीवांस एंड पेंशन ऑफिस, तमाम जगहों से मामले को
सुलटा लेंगे। सिन्हा के मुताबिक रिश्वत के पैसे हरिभाई को ही दिए गए थे। सिन्हा
ने आगे लिखा कि 20 अक्टूबर, 2018 के दिन सना ने उन्हें बताया था कि अहमदाबाद के
विपुल नामक किसी शख्स के हवाले से हरिभाई को रिश्वत के पैसे दिए गए थे। सिन्हा ने
कहा कि उन्होंने ये जानकारी सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक, दोनों को दी थी और इस
मामले की जांच शुरू की। उन्होंने ये दावा तक किया है कि जांच के दौरान उन्होंने
हैदराबाद के विधायक के लक्ष्मा रेड्डी तथा सना के बीच फोन पर बातचीत के जरिए पाया
था कि एक से दो करोड़ बतौर रिश्वत भेजे गए थे। कोल इंटरसेप्ट को लेकर सिन्हा ने
अन्य केंद्रीय एजेंसी का ज़िक्र भी किया।
राकेश
अस्थाना
सीबीआई के इस विवाद के दो
मुख्य चेहरे थे। उसमें से यह एक थे। वे सीबीआई में विशेष निदेशक थे। पीएम मोदी के खास
कहे जाने वाले ये अधिकारी गुजरात से सीधे ही सीबीआई में लैंड हुए थे। उनकी नियुक्ति
के वक्त ही काफी बवाल हुआ था। सांडेसरा वाले मामले में डायरी में कथित तौर पर इनका
नाम आना इनकी पहली राष्ट्रीय पहचान थी! गोधरा जांच के लिए बनी एसआईटी के वो मुखिया
थे, जिन्होंने तत्कालीन मोदी सरकार को क्लीन चिट दी थी। इनके बारे में आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से अपनी शिकायत
में कहा था कि यह आदमी अफ़सरों के बहुमत के फैसले के ख़िलाफ़ जाकर काम करता है और
केस को कमजोर करता है। आलोक वर्मा ने कहा कि वह ऐसे केस की डिटेल दे सकते हैं।
अस्थाना को विशेष निदेशक बनाए जाने के दौर में आलोक वर्मा विरोध में उतरे थे और
वर्मा ने सीवीसी को अस्थाना के खिलाफ नोट भी भेजा था। सब मुश्किलों से पार पाते हुए
अस्थाना विशेष निदेशक बन गए!!!
विशेष निदेशक राकेश
अस्थाना सेल्फ मार्केटिंग एक्सपर्ट भी है यह इन दिनों पता चला। उनका एक वीडियो खूब
चला, जिसमें वे खुद की मार्केटिंग करते दिखाई दिए। और वो भी सरदार पटेल, नेताजी और
राम मनोहर लोहिया जैसे महापुरुषों के साथ! पहले इन महापुरुषों की तस्वीरें आती हैं और
फिर आता है महान अस्थाना का चमकता हुआ जूता! पर्दे पर पुलिस की वर्दी, सरकारी गाड़ी और तमाम रौफ व तामझाम के साथ उनकी वो वीडियो खूब चली।
आलोक वर्मा ने अदालत में आरोप लगाया कि विशेष निदेशक राकेश अस्थाना कई
महत्वपूर्ण मामलों में सभी से असहमत होते थे। एक तरीके से उन्होंने कहा कि वे सरकार
की मर्जी के अनुसार चलते थे। एक वरिष्ठ जांच अधिकारी एके बस्सी ने भी अदालत में राकेश अस्थाना के विरुद्ध आरोप लगाए। ये वही बस्सी थे जिनका रातोरात अंडमान
तबादला कर दिया गया था। बस्सी ने दावा किया था कि अस्थाना के खिलाफ 3.3 करोड़ रुपये की घूस केस में पुख्ता सबूत है!!! बस्सी ने
अस्थाना के खिलाफ एसआईटी जांच की मांग की थी। राजनीतिक दल होते और नेता ऐसी मांग
करते तो शायद हम नजरअंदाज कर देते, लेकिन सीबीआई का वरिष्ठ जांच अधिकारी सीबीआई के
ही विशेष निदेशक को एसआईटी के लपेटे में लेने की याचिका करता है यह असामान्य सी
घटना तो ज़रूर है।
सीबीआई के एडिशनल एसपी एसएस गुरम भी दिल्ली हाईकोर्ट में अपनी याचिका में कह
चुके हैं कि अस्थाना के खिलाफ 15 अक्टूबर को सीबीआई में दर्ज एफआईआर बिल्कुल सही है। एडिशनल एसपी ने कहा कि
अस्थाना अदालत को गुमराह कर रहे है। इन्होंने भी अस्थाना के खिलाफ पुख्ता सबूत और
रॉ के सामंत गोयल का ज़िक्र किया था।
आलोक
वर्मा
सीबीआई विवाद के दो मुख्य
चेहरे, जिसमें से एक थे आलोक वर्मा। सीबीआई के निदेशक। कहते हैं कि रफ़ाल के कथित
घोटाला मामले में तत्कालीन मोदी सरकार के खिलाफ शिकायतकर्ताओं से 45 मिनट तक इन्होंने
अपनी ऑफिस में बातचीत की थी और सरकार इससे नाराज थी। कहते हैं कि सीवीसी के पास आलोक
वर्मा के खिलाफ शिकायत दर्ज थी। राकेश अस्थाना के अनुसार आलोक वर्मा भ्रष्ट थे और
कुरैशी मामले में लिप्त थे। सोचिए, निदेशक को विशेष निदेशक भ्रष्ट कहता है और विशेष
निदेशक को निदेशक!!! लगा कि भारत ने अपनी सेना के लिए जो नये हथियार खरीदे थे उसका पहला प्रयोग तो
सीबीआई में अफसर एक दूसरे पर कर रहे थे!!! आलोक वर्मा पर सरकार का एक इल्ज़ाम यह भी था
कि वे गंभीर मुकदमों की फाइलें देने में असह्योग कर रहे थे।
जनवरी 2017 में आलोक वर्मा को एक कॉलेजियम से दो साल के लिए सीबीआई का चीफ़
बनाया गया था। आलोक वर्मा का कार्यकाल अगले साल फ़रवरी तक था। आलोक वर्मा को जबरन
छुट्टी पर भेजना, राकेश अस्थाना के साथ उनका विवाद वगैरह को लेकर यहाँ रफ़ाल का कथित
घोटाला भी लैंड कर गया। कहा जाने लगा कि आलोक वर्मा रफ़ाल मामले को लेकर आगे बढ़ रहे
थे। हालांकि सीबीआई ने इन खबरों को मनगढ़ंत खबरें कहा था। आलोक वर्मा पर सरकार द्वारा
लिए गए एक्शन के बाद उनके घर के बाहर एक सुबह जो एक्शन हुआ, वो भी सुर्खियों में छाया रहा।
आलोक वर्मा निदेशक है और उनके खिलाफ विशेष निदेशक ने मोर्चा खोला है, यह बात
इतनी सीधी तो होगी नहीं। आलोक वर्मा आनन-फानन में अदालत तो पहुंच चुके हैं, लेकिन
अदालत से उन्हें अब तक कोई बड़ी राहत नहीं मिली है। उनके खिलाफ सीवीसी में कुछ शिकायतें हैं। क्या है, कितनी संगीन हैं, कितने तथ्य हैं, ये सारी चीजें फिलहाल जांच के अधीन
है।
सीबीआई के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने जो चीजें अदालत में कही या लिखी हैं, उनके
अनुसार आलोक वर्मा को कई सारी चीजें पता थी। फिर सवाल उठता है कि कई अधिकारियों ने
अस्थाना या एनएसए या मंत्री के खिलाफ लिखा-कहा, लेकिन आलोक वर्मा ने इतने सनसनीखेज
नाम अब तक क्यों नहीं लिए होंगे? अस्थाना मामला, एनएसए पर आरोप, मंत्री पर घूसखोरी का आरोप, इन सबमें अदालत में
जो लिखा या कहा गया उसको देखे तो सवाल यही उठता है कि तो अब तक आलोक वर्मा केवल
अपनी छुट्टी और अस्थाना के खिलाफ मोर्चा, इन दोनों पर ही क्यों कायम है? उन्होंने ये सारी चीजें क्यों नहीं कही? या फिर कही है किंतु अदालत में विचाराधीन है? कई सारे सवाल अनुत्तर है फिलहाल।
रिश्वत के मिसाइल एक दूजे पर दागने के इस खेल में पेंच तो देखिए। सना अस्थाना
को रिश्वत देने के मामले में आरोपी है। लेकिन एक खबर कहती है कि सना ने ही आरोप
लगाया था कि उसने टीडीपी के सांसद सीएम रमेश के ज़रिए सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा
को 2 करोड़ दिया था। राकेश अस्थाना सना को हिरासत में लेकर पूछताछ करना चाहते थे
जिसकी अनुमति आलोक वर्मा ने नहीं दी, यह आरोप है। हालांकि सना ने जो बयान दर्ज
कराया वो इससे बिल्कुल उलटा था, जिसके बाद अस्थाना के ऊपर शिकायत दर्ज हुई थी।
इसका ज़िक्र आगे है। लेकिन दिमाग को चकराने वाला यह चक्कर वाकई चक्रधारी है।
मोइन कुरैशी
सीबीआई के इस ऐतिहासिक विवाद के दौरान मीडिया ने हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद
पर वक्त गुजारना ज्यादा अच्छा समझा होगा!!! तभी तो इस विवाद के बड़े बड़े किरदारों की
बातें अखबारों में या मीडियाई पैनलों पर कम ही दिखी!!! उसमें भी सीबीआई के इस विवाद के
मुख्य किरदार मोइन कुरैशी की बातें जैसे कि गायब ही थी!!!
इस शख्स का पुरा नाम है
मोइन अख्तर कुरैशी। इस आदमी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि इसने तीन-तीन सीबीआई
निदेशकों को कथित तौर पर भ्रष्ट बना दिया था!!! साथ में एक विशेष निदेशक भी शामिल कर
लीजिए!!! छोटे से बूचड़खाने से भारत के सबसे बड़े मीट व्यापारी तक का सफर तय करने वाला
कुरैशी कई कंपनियों का मालिक था। कई अन्य धंधे भी हैं उसके। पाकिस्तान कनेक्शन से
लेकर तमाम गंभीर आरोपों में शामिल मीट का यह व्यापारी कांग्रेस की सीबीआई को भी
सरेआम घूस दे रहा था, और अब भाजपा की सीबीआई को भी!!! सोचिए, इस आदमी में इतना साहस
कैसे आया होगा? सरकार बदल जाने के बाद भी
कुरैशी की हिम्मत ने दाद नहीं दी!!! कांग्रेस की सत्ता के दौरान सीबीआई चीफ
रंजित सिन्हा और एपी सिंह। अब की बार आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना!!!
2011 से मोइन कुरैशी के
खिलाफ जांच शुरू हुई थी। उस वक्त कांग्रेस सत्ता में थी और प्रधानमंत्री थे
मनमोहन सिंह। 2018 खत्म होने को आया, लेकिन जांच का क्या हाल है किसी को पता नहीं। इस
आदमी और इस मामले ने कांग्रेस का दामन दागदार कर दिया था, और अब मोदी सरकार के ही
मंत्री तक इस मामले में कथित रूप से भ्रष्ट बताये जाने लगे थे! मोइन कुरैशी मामला,
जिसमें अपराध- भ्रष्टाचार- राजनीतिक सांठगांठ से लेकर दिल्ली की सत्ता के गलियारों के
हर रंग और रूप पर कोई खोजी व्यक्ति बड़ी किताब तक लिख सकता है, ने दो-दो सरकारों के
कपड़े फाड़ कर रख दिए थे!!! दो-दो सरकारों को नंगा कर दिया था लिखना अच्छी भाषा नहीं है,
लिहाजा कपड़े फाड़ कर रख देना अच्छा शब्दप्रयोग ही होगा।
राहत फ़तेह अली ख़ान मोइन कुरैशी की बेटी की शादी में आए थे। लौटते वक्त
एयरपोर्ट पर 56 लाख कैश के साथ पकड़े गए। इस मामले को लेकर लोकसभा चुनाव में मोदी
ने कांग्रेस पर आरोप भी लगाए। उनकी सरकार आने के तीन साल बाद सीबीआई ने केस दर्ज
किया!!! मगर इसकी जांच ने सीबीआई को भीतर से उलट दिया। सीबीआई के दो-दो निदेशकों के
नाम जांच के दौरान आ गए। और अब इसी केस के सिलसिले में आलोक वर्मा और राकेश
अस्थाना आमने सामने थे। निदेशक एपी सिंह सीबीआई से रिटायर होकर यूपीएससी के मेंबर
बन गए थे, जहाँ से इन्हें हटाना पड़ा था।
सतीश
बाबू सना
बिजली विभाग का द्वितीय
श्रेणी का यह पूर्व कर्मचारी अनेक राजनीतिक दलों के लिए कथित रूप से बिचौलिये का काम
करता था। उसकी भी कई कंपनियां थी, जिन पर काले धन को सफेद करने के इल्ज़ाम थे। मोइन
कुरैशी मामले में 2015 में उसका नाम ईडी की जांच में सामने आया। राकेश अस्थाना ने
आलोक वर्मा पर इसीसे रिश्वत लेने का आरोप सीवीसी के सामने रखा था, जो 2016 में लिखा
गया था। सीबीआई के पूर्व निदेशक एपी सिंह मामले में भी इसीका नाम सामने आया था।
सतीश बाबू सना ही वो शख्स था जिसने कथित तौर सीबीआई को राकेश अस्थाना को पांच करोड़ की रिश्वत देने के सेटिंग की बात की थी, जिसमें से कुछ हिस्सा भी दे दिया गया था।
निदेशक, विशेष निदेशक,
डीआईजी... सभी की बातों में इसी आदमी का ज़िक्र आता है। कहते हैं कि हैदराबाद के इस
व्यापारी ने 2011 में मोइन कुरैशी की कंपनी में निवेश किया था। इसी व्यवहार को लेकर
सीबीआई उसे पूछताछ के लिए बुलाने लगी थी। दावे के मुताबिक सीबीआई की परेशानी से
बचने के लिए सना ने दुबई स्थित मनोज प्रसाद और सोमेश प्रसाद से संपर्क किया और उन
दोनों को जरिए इस मामले में पांच करोड़ की कथित रिश्वत के सहारे खुद को बचाने का
प्रयत्न शुरू किया। कथित रूप से यह रिश्वत सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना
को दी जानी थी। पहले 3 करोड़ देने थे, चार्जशीट फाइल हो जाने के बाद बाकी की राशि
दी जानी थी। जितने भी दावे आए, उसकी माने तो बाकी की राशि चार्जशीट फाइल हो जाने
से पहले ही दिए जाने का दबाव सना पर बढ़ने लगा, जिसके बाद उसने सीबीआई के एंटी
करप्शन यूनिट में शिकायत दर्ज करवाई। कथित रूप से यह महीना अक्टूबर 2018 था। हर
किसी के दावे में यह बात तो आती ही है। डीआईजी सिन्हा ने भी सुप्रीम कोर्ट वाली
याचिका में यही लिखा था। सिन्हा के मुताबिक जब सना से पूछा गया कि केंद्रीय मंत्री
हरिभाई चौधरी इसमें शामिल थे, तो फिर उनका नाम शिकायत में क्यों नहीं था। जवाब मिला
कि मैं (सना) सीबीआई के अधिकारियों के खिलाफ ही मामला दर्ज करवाना चाहता था, मेरे
वकील ने हरिभाई से दूर रहने की सलाह दी थी।
सतीश बाबू सना के हवाले से
ही आईएएस अधिकारी रेखा रानी, केंद्रीय कानून सचिव सुरेश चंद्रा, निरव मोदी मामला,
केंद्रीय केबिनेट सचिव पीके सिन्हा, लंदन स्थित शख्स चामुंडेश्वरनाथ समेत कई बड़े बड़े नामों का ज़िक्र हुआ था!!! रॉ के सेवानिवृत्त अधिकारी दिनेश्वर प्रसाद, सोमेश
प्रसाद, रॉ के स्पेशल सेक्रेटरी सामंत गोयल भी इस सूची में शामिल थे!!! क्या गजब का
चक्रव्यूह था यह!!! साफ था कि साबित तो कुछ होने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी बहुत कुछ
साबित हो चुका था।
नितिन संदेसरा
एमके सिन्हा की याचिका में एक और एंगल आता है और वो है नितिन संदेसरा। दुबई के
व्यापारी मनोज प्रसाद को अस्थाना मामले में गिरफ्तार किया था। उस मनोज प्रसाद ने
बताया था कि लंदन में स्टर्लिंग बायोटेक के नितिन संदेसरा से मुलाकात की थी। नितिन
संदेसरा भी गुजरात का एक हीरा व्यापारी है और संदेसरा-अस्थाना वाली स्टोरी आपको
पता होनी चाहिए।
नितिन संदेसरा पर 5300 करोड़ रुपये के
बैंक फ्रॉड का आरोप है। गुजरात के वडोदरा में इसकी एक कंपनी है। अगस्त में ही
संदेसरा सऊदी भाग गया था। 24 सिंतबर 2018 के टाइम्स ऑफ
इंडिया ने खबर लिखी थी कि उसने नाइजीरिया की नागरिकता ले ली है जिसके साथ भारत का
प्रत्यर्पण का करार नहीं है। 25 सितंबर को यही खबर इंडियन एक्सप्रेस में छपी।
दूसरे हिन्दी या अंग्रेजी अखबारों में या मीडियाई पैनलों पर भगोड़ा सूची में एक और
किरदार की बातें कम ही हुई। राकेश अस्थाना और संदेसरा वाली डायरी का किस्सा भी कभी
कभी बाहर आता है, फिर कहीं चला जाता है।
नितिन संदेसरा पूरे खानदान के साथ भागा था। भाई भाभी सब नाइजीरिया चले गए। इस
मामले में आंध्र बैंक के पूर्व निदेशक अनूप गर्ग के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज हुआ
था। संदेसरा पर आरोप है कि इसने 300 शेल कंपनियां बनाई। इनके ज़रिए करीब पांच हज़ार
करोड़ की हेराफेरी की। अब देखिए, बैंकों का लाखों करोड़ किस किस ने कर्ज़ लेकर नहीं
लौटाया इसका नाम बताने में किसी को क्या दिक्कत है। केंद्रीय सूचना आयुक्त
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और प्रधानमंत्री कार्यालय की खिंचाई करता रहता है, लेकिन
नाम सार्वजनिक नहीं हो रहे अब भी। लेकिन धर्म के इस विशिष्ट दौर में किसी को इससे
फर्क नहीं पड़ता।
सीवीसी
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त केवी चौधरी को राकेश अस्थाना और
आलोक वर्मा के मामले में जांच की बात कही थी। वैसे सीवीसी को खुद ही इस मामले को
अंजाम तक ले जाना था, मगर एमके सिन्हा की याचिका में सीवीसी की भूमिका पर भी सवाल
उठाए गए! आरोपों के मुताबिक अस्थाना मामले में शिकायतकर्ता सतीश सना ने सीवीसी केवी
चौधरी से मुलाकात की थी। उस समय केवी चौधरी के रिश्तेदार के साथ मिलने गया था,
जिनका हैदराबाद में डीपीएस स्कूल है। यह मुलाकात दिल्ली में हुई थी। चौधरी ने
अस्थाना से पूछा था कि सतीश सना के खिलाफ क्या क्या सबूत है। अस्थाना ने कहा कि
सना के खिलाफ बहुत सबूत नहीं हैं। यह उन आरोपों से निकलकर आ रही बातें हैं।
सोचिए, देश की सबसे बड़ी जांच संस्था है सीबीआई। उस पर निगरानी रखने के लिए
सीवीसी है। किंतु सीवीसी की भूमिका भी संदिग्ध हो जाए तो कैसे कोई भरोसा करे कि
अस्थाना और आलोक वर्मा में जांच किसी हस्तक्षेप से प्रभावित नहीं हुई होगी। अगर
सीवीसी ने अपने रिश्तेदार के साथ दिल्ली में कहीं सतीश सना से मुलाकात की थी तो यह
बेहद गंभीर आरोप है।
सवाल उस सीवीसी से भी हो सकता है जिसके पास अस्थाना और राव की शिकायतें थीं।
धीमी गति के समाचार की तरह काम करने से सवालों से बचने का मौक़ा मिल जाता है। स्पष्ट
था कि सीवीसी अपने कर्तव्य के निर्वाहन में फ़ेल रही थी। बावजूद इसके वो दूसरों को
बर्खास्त कर रहे थे!!! कीचड़ साफ करने का दावा इतना ही साफ था तो फिर सबसे पहले केवी
चौधरी को बर्खास्त करना चाहिए था। मगर चौधरी ने चौधरी की लाज रख ली थी! इंडियन एक्सप्रेस के
सुशांत सिंह की रिपोर्ट के मुताबिक जब अस्थाना ने आलोक वर्मा की शिकायत की तो
सीबीआई से दस्तावेज मांगे गए। सीबीआई ने कहा कि अस्थाना ने क्या शिकायत की वो तो
बताइए, मगर सीवीसी ने नहीं बताया!!! रिपोर्ट के मुताबिक सीबीआई के जॉइंट डायरेक्टर
ने 9 अक्टूबर 2018 को सीवीसी को पत्र लिखकर पूछा था।
सुप्रीम कोर्ट में लिखित याचिका देने वाले डीआईजी सिन्हा ने सीवीसी के बारे में लिखा था कि सतीश बाबु सना ने उन्हें (सिन्हा को) बताया था कि सीवीसी केवी चौधरी और
उनके रिश्तेदार तथा हैदराबाद के डीपीएस के मालिक गोरन्थाला रमेश को वो (सना) मिला
था। सिन्हा ने इस मुलाकात की जगह या समय का ब्यौरा नहीं दिया, लेकिन दावा किया कि
गोरन्थाला ने बेची हुई जमीन के पैसों में से 50 लाख मोइन कुरैशी को भेजने के लिए अलग
रखे थे। सिन्हा ने लिखा कि 50 लाख के व्यवहार के बाद केवी चौधरी ने राकेश अस्थाना
को अपने घर बुलाया था और बातचीत या पूछताछ की थी। इस पूछताछ में अस्थाना ने केवी
चौधरी को भरोसा दिलाया था कि सीवीसी के खिलाफ कोई सबूत नहीं है और इसलिए वे
परेशान ना हो। बताइए, अगर यह सच है, तो फिर सीवीसी सीबीआई की जांच करती है, लेकिन
इधर सीवीसी सीबीआई के विशेष निदेशक से बेगुनाही का आश्वासन लेती है!!!
पीएमओ
कहीं पर पीएमओ का नाम खुलकर
सामने नहीं आया है इस मामले में। मीडिया में तो किरदारों पर ही चर्चा नहीं होती, तो फिर
पीएमओ नाम का लफ्ज़ भी कहां से सुनने के लिए मिल सकता है। लेकिन सीधी सी बात है।
कांग्रेस हो या भाजपा हो, दोनों की सरकारों के दौरान नियम एक ही है कि सीबीआई सरकार
के नीचे ही आती है। उनके जांच रिपोर्ट पीएमओ में ही जाते हैं, सूचनाएँ वहीं से मिलती
हैं। इस मामले में सीबीआई के निदेशक, विशेष निदेशक, जांच अधिकारी, डीआईजी समेत हर
किसीने एक दूसरे पर जितने भी आरोप लगाए, सारे आरोपों में एक ही बात आती है कि ऊपर से
दबाव था। अब सीबीआई के ऊपर कौन है यह किसी से छुपा नहीं है। जिस संस्था का निदेशक
पीएमओ के हस्तक्षेप के बाद चुना जाता है, वहां पीएमओ का हस्तक्षेप नहीं होता यह बात
तो हलक के नीचे से नहीं उतरेगी। राहुल गांधी कहते तब भी नहीं, मोदी कहते तब भी नहीं।
सचिव स्तर से लेकर तमाम
स्तर के अधिकारियों पर उंगलियां उठी है। बदले में सारे लोग कहते हैं कि मनगढ़ंत आरोप
है। उधर आरोप लगानेवाले कॉल रिकॉर्डिंग, तारीख, समय सारी चीजें सामने ला रहे हैं।
लेकिन फिर भी अजीब सी चुप्पी है।
आखिर यह केस क्या है? इसके तार कहां तक जाते हैं कि इस सिलसिले में सीबीआई के चार-चार आईपीएस
अफसरों का करियर दांव पर लगा!!! राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का नाम आया!!! एनएसए का सीबीआई
से क्या लेना-देना है? वो क्यों दखल दे रहे हैं? केंद्रीय राज्य मंत्री का नाम आता है, उनका क्या लेना-देना है? अभी विधि सचिव और कैबिनेट सचिव का भी नाम आ सकता है। अपनी
याचिका में एमके सिन्हा ने आरोप लगाया था कि रॉ के अफसर सामंत गोयल का फोन टैप
किया गया, तो एक रिकॉर्डिंग में सामंत कह रहा है कि इस केस को पीएमओ यानी
प्रधानमंत्री कार्यालय मैनेज कर रहा है!!! जिस दिन की यह बातचीत है, याचिकाकर्ता के अनुसार उसी रात अस्थाना के केस से जुड़े सभी जांच अधिकारियों का
तबादला कर दिया गया था!!! एमके सिन्हा ने लिखा कि अस्थाना केस के शिकायतकर्ता सना
सतीश बाबू ने मोइन कुरैशी केस में सीवीसी चीफ के वी चौधरी से मुलाकात की थी। 11
नवंबर को विधि सचिव सुरेश चंद्रा ने भी सतीश सना से संपर्क किया था और वे उस समय
केस को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे थे जब सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी को इस मामले
की जांच के आदेश दिए थे!!! अस्थाना मामले में दुबई के व्यापारी मनोज प्रसाद को जब
अरेस्ट किया गया तब बस्सी को स्पेशल सेल के डीसीपी से फोन आता है। बस्सी फोन नहीं
उठाते हैं। बाद में एक अन्य इंस्पेक्टर का फोन आता है जो मनोज की गिरफ्तारी के
बारे में पूछता है और कहता है कि कैबिनेट सचिव ने पूछने के लिए कहा था। वरिष्ठ
जांच अधिकारी एके बस्सी ने भी दावा किया था कि इस केस में रॉ के विशेष सचिव सामंत
गोयल भी शामिल हैं। एडिशनल एसपी एसएस गुरम ने भी सामंत गोयल को कड़ी माना था। ये
सारे बड़े अधिकारी पीएमओ से ही तो ताल्लुक रखते हैं। याचिका में भी पीएमओ का ज़िक्र
है। यानी कि इसमें एक किरदार पीएमओ भी है। क्या पता कि ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए
तरसनेवाला मीडिया इसीलिए इससे दूर भागता हो!!!
पीएमओ से लेकर बड़े बड़े अधिकारीगण आखिरकार जांच को आगे बढ़ा रहे थे या फिर कांग्रेस का इतिहास ही दोहरा रहे थे?
सवाल उठना स्वाभाविक है कि सीवीसी केवी चौधरी, विधि सचिव सुरेश चंद्रा और कैबिनेट
सचिव पीके सिन्हा, ये लोग किसकी तरफ से पूछताछ कर रहे थे, जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की नज़र में सब कुछ हो ही रहा था तब। क्या अजीत
डोभाल से भी अलग कोई इस केस में दिलचस्पी ले रहा था। क्या उसका भरोसा अजीत डोभाल
पर नहीं था। कौन है वो। एक राज्य मंत्री के लिए तो यह सब नहीं हो सकता है।
अब तक हर किसी ने एक दूसरे के खिलाफ जो लिखा या बोला वो सब आरोप हैं। आरोपों का
इतिहास सबूतों और तथ्यों के अभाव से भरा पड़ा है। मगर इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ जॉइंट डायरेक्टर मनीष कुमार सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी यह बात उतनी
सीधी तो नहीं है। संस्था का निदेशक विशेष निदेशक के खिलाफ और विशेष निदेशक निदेशक
के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं यह सामान्य बात नहीं है। जांच अधिकारी बड़े बड़े अधिकारियों को गलत ठहरा रहे है यह सोचनीय पहलू है। सीवीसी के ऊपर भी इल्ज़ाम
है। देश के सबसे ताकतवर शख्स प्रधानमंत्री मोदी के कार्यालय और उनके मंत्री, सुरक्षा
सलाहकार, कैबिनेट सचिव... सोचिए आरोपों की सूची में अब कौन बचा होगा? आखिर यह खेल है क्या? क्या अब भी कोई संस्था बची है जो सच को सामने ला सके? लोग कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट है। लेकिन सबूतों और तथ्यों का
अभाव, सुनी-सुनाई बातें, अदालत को संतुष्ट कर सकें ऐसे तथ्य व सबूत यह सब भी मायने
रखते हैं। काले हिरण को किसने मारा कोई नहीं जानता। देश के सबसे बड़े कथित घोटाले
टू-जी स्पेक्ट्रम का क्या हाल हुआ सबको पता है, भले कोई उस मामले की चर्चा से बचता
हो। अदालत स्वयं तो कोई जांच संस्था है नहीं। उसे तो जांच संस्थाओं की जांच के बाद
फैसला देना होता है। टू-जी मामले में सीबीआई जज ओपी सैनी ने कहा था कि मैं सुबह से
लेकर शाम तक बैठा रहा, लेकिन कोई भी सबूत लेकर नहीं आया, जांच संस्थाओं ने अपनी बातें साबित नहीं की। जबकि ये मामला तो टू-जी से भी आगे है। सबसे बड़ी जांच संस्थान के
भीतर ही सारी आग लगी हुई है तो फिर उसकी जांच कौन करेगा? जबकि अदालतें तो फैसला सुनाती है। फैसलों में न्याय नहीं होता, केवल फैसला होता है।
एक बात का ज़िक्र भी करना पड़ेगा, जो इसी विषय के पहले संस्करण में विस्तार से किया
था। सीबीआई के निदेशक या विशेष निदेशक की चयन प्रक्रिया में चीफ जस्टिस से लेकर
पीएमओ और विरोध पक्ष के नेता, सभी शामिल होते हैं। फिर ऐसा क्या था कि...? आगे का माझरा खुद ही समझ लीजिए।
मीडिया
–
जिसके बारे में कहा जाने लगा कि पहले अख़बार छपते थे फिर बिकते थे, आज बिकते हैं और
फिर छपते हैं
मीडिया को लेकर हमने एक
अलग संस्करण लिखा है, जिसमें मीडिया और राजनीति को लेकर विस्तार से चर्चा की थी।
मीडिया पहले भी बिकता था, उस दौर में यह हुआ था, वो हुआ था... सारे तर्क के लिए वो
संस्करण था, जो पहले लिख दिया गया है। फिलहाल तो... फिलहाल की ही बात करते हैं। इन
दिनों नोटबंदी की नकारात्मक असरें, नोटबंदी पर नकारात्मक रपटे, जस्टिस लोया मामला,
अमित शाह मामला, फर्जी मुठभेड़ों पर जांच अधिकारियों के सनसनीखेज खुलासे, सुप्रीम
कोर्ट में विवाद का दौर, सीबीआई के ऐतिहासिक विवाद का मामला, किसान, बेरोजगारी, विफल
योजनाएं... कई सारी चीजें ऐसी थी जिससे मीडिया उस तेजी-मंदी वाले दौर में तेजी की ओर
जाता साफ साफ दिखाई दे रहा था।
सीबीआई विवाद को लेकर कब
कौन सी खबर पहले पन्ने पर होगी, कौन सी अंदर के पन्ने पर होगी, कौन सी होगी और कौन
सी नहीं होगी, जैसे कि ज्यादातर सभी ने यह मिलजुल कर तय किया था!!! इस मामले में जिन
जिन बड़े लोगों के नाम सामने आए, अदालत में जो जो लिखित आरोप लगे... प्रिंट या
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसके ऊपर जैसे कि स्पष्ट रूप से मैनेज वाला पहलू साफ दिख
रहा था। आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना... मीडिया में अस्थाना पर कम लिखा गया, कम
बातें हुई। आलोक वर्मा ही लाईमलाईट में छाए रहे!!! सीबीआई के डीआईजी एमके सिन्हा ने
कहा कि सीबीआई यानी सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन... तब भी मीडिया में शांति ही थी!!! एमके सिन्हा ने कहा कि सीबीआई में फिरौती और वसूली का धंधा चलता है... तब भी मीडिया हिंदू-मुस्लिम टॉपिक पर ही
व्यस्त था!!! कोई दीपिका-रणवीर की शादी में चला गया था, कोई अयोध्या में था, तो कोई
सास-बहू या जंगल न्यूज़ में दिन गुजार रहा था!!! सीबीआई के वरिष्ठ अफसर खुलकर सीबीआई
और राजनीति के कपड़े उतार रहे थे, लेकिन मीडिया तो शायद अपने कपड़े कहीं भूल चुका था!!! मीडिया के स्टूडियो में इतनी शांति थी, जैसे कि दिवाली के बाद होली और होली के बाद
मकरसंक्राति की छुट्टियां अभी से ले ली हो!!!
मीडिया का हाल क्या है यह मंदिर-मस्जिद वाले टॉपिक पर देखा। भाजपाई समर्थक से
लेकर संघ के कार्यकर्ता तक के मन में एक बात होती थी कि पीएम इस मुद्दे पर क्यों
कुछ नहीं बोलते, जबकि देश में सारे हिंदू संगठन गर्म तवे जैसे उबल रहे हैं। धर्मसभाएँ होती रही, धर्मादेश आते रहे, लेकिन जहाँ से आश थी वहां मनमोहनजी की आत्मा घुस चुकी
थी। एकाएक 25 नवम्बर 2018 की दोपहर लगभग तमाम चैनलों पर एक ब्रेकिंग न्यूज़ चली। हर
चैनलों पर बड़े बड़े अक्षरों से लाइन आई – पीएम मोदी ने मंदिर को लेकर दिया बड़ा बयान।
मेरे जैसे लोग तो चिपक गए। बड़ा बयान... मंदिर पर... इतने सालों के बाद... कुछ तो
होगा... कई खयाल दौड़ रहे थे। पीएम मोदी ने मंदिर को लेकर दिया बड़ा बयान, वाली लाइन
चार-पांच बार मीडियावाले चलाते रहे। फिर वो बड़ा बयान दिखाया गया। बड़ा बयान था –
कांग्रेस मंदिर निर्माण में टांग अड़ा रही है। इस 'बड़े बयान' को लेकर एक ही खयाल
आया... खयाल यही था कि - !!!!!!!!!?????? कई सारे आश्चर्य और कई सारे सवालियां निशान। मीडिया को
लेकर एक ही विचार आया- अबे गधों... क्या हमें इतने बड़े गधे समझते हो? फिर विचार आया कि दूसरे महत्वपूर्ण मसलों पर वे जिस तरह से
हैं, इस पर भी उसी तरह से रहेंगे। अपने इतिहास का सबसे बुरा दौर देखनेवाली
कांग्रेस, जिसके पास अपने जीजा से भी कम जमीन बची है, जिसको आसानी से दरकिनार कर मोदी सरकार हर अध्यादेश को कानून में तब्दील कर रही है, वो कांग्रेस राम मंदिर को लेकर
बहुमतवाली- मजबूत- छप्पन इंच वाली- सबसे लोकप्रिय सरकार को बाधित कर रही है, यह पीएम
के हवाले से मीडिया देश को बता रहा है, तो फिर ऐसा ही होगा। और फिर शाम का वक्त उस
मुर्गे की लड़ाई वाले डिबेट में गुजरेगा, जहाँ देश का महत्वपूर्ण सवाल होगा – क्या
टांग अड़ा रही है कांग्रेस? मूल चर्चा यह कि मीडिया इसी तरह मुल मुद्दों से हटकर अनाप-शनाप चीजों पर देश को
‘समाचार-दर्शन’ करवाता रहेगा, चाहे वो मंदिर हो या मंत्रालय हो।
इस मामले में सीबीआई के ही अधिकारियों ने अदालत में लिखित रूप से
सीबीआई-अपराधीकरण-राजनीति और भ्रष्ट तंत्र का पुराना मेलजोल बाकायदा खोला है। मोइन
कुरैशी, विजय माल्या, निरव मोदी से लेकर कई सारे संवेदनशील मामलों में लीपापौती के
तार भी इन आरोपों के बीच उभर रहे थे। जिन चीजों से देश बनता है, आगे बढ़ता है उन चीजों को हमारे यहाँ सिलेबस में जगह ही नहीं दी जाती!!! अब तक नेता, कार्यकर्ता या आम नागरिक इल्ज़ाम
लगाते थे, अब बाकायदा लिखित रूप से अदालतों में उन संस्थानों को चलाने वाले लोग ही
संस्थाओ के कपड़े उतार रहे हैं!!! लेकिन नागरिकी सिलेबस में ऐसे चैप्टर ज़रूरी नहीं है,
क्योंकि ज़रूरी क्या है यह ज़रूरत के हिसाब से तय होता है!!!
इस विवाद में केवल सीबीआई की साख का ही सवाल नहीं है, सुप्रीम
कोर्ट की इज्जत भी दाव पर लगी है
इस ऐतिहासिक विवाद का एक और पहलू है, जो महत्वपूर्ण भी है। शायद सबसे ज्यादा
महत्वपूर्ण। सीबीआई के इस विवाद में सिर्फ और सिर्फ सीबीआई की साख का ही सवाल नहीं है, उधर देश के सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत भी दाव पर लगी है। जैसे सब लोग
पुलिसियां जांच से नाराज होकर सीबीआई तक पहुंचते हैं, ठीक वैसे ही अलग-अलग अदालतों से थक कर लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंचते हैं। उधर सीबीआई की साख मिट्टी में मिल रही है,
इधर सुप्रीम कोर्ट की इज्जत भी दाव पर लगी है। इज्जत से ज्यादा कहे तो देश के
सर्वोच्च न्यायालय पर लोगों का भरोसा दाव पर लगा है। मामला यह नहीं है कि कौन दोषित
है और कौन निर्दोष। मामला यह है कि सीबीआई के इस विवाद को सुप्रीम कोर्ट किस ढंग
से निपटाता है।
सीबीआई के इस विवाद से जुड़े एक मामले की सुनवाई दौरान सुप्रीम कोर्ट के जज
केएम जोसेफ ने वरिष्ठतम वकील से एक सवाल पूछा था। सवाल था – जब मेड़ ही खेत को खाने
लगे, तो किसान क्या करे? सवाल तो यह भी है कि यदि सीबीआई का चीफ ही घूसखोर हो, तो फिर जज क्या करे? सवाल करने वाले जज केएम जोसेफ बड़ा नाम है। अपने बेधड़क और
सख्त फैसलों के लिए जानामाना नाम। यह वही जज है जिन्होंने बतौर उत्तराखंड के चीफ
जस्टिस वहां राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया था। यह बड़ा सख्त फैसला था, जिसमें कई
तिखी टिप्पणियां उन्होंने की थी। लेकिन केएम जोसेफ को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
शायद केएम जोसेफ को ही नहीं, देश को भी। केंद्र सरकार ने जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट के
जज बनाने में कई बाधाएँ उत्पन्न की!!! वो जज तो बने, लेकिन आखिरकार वरिष्ठता क्रम में नीचे हो गए!!!
बात केएम जोसेफ की भी नहीं है। लेकिन अदालतों की काली कहानियां किसी से छुपी नहीं है। इसी साल आजाद हिन्दुस्तान में पहली दफा सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने
प्रेस कॉन्फरन्स करके चीफ जस्टिस पर धावा बोला था!!! सुप्रीम कोर्ट में बेंच फिक्सिंग वाली कोठरी का ज़िक्र तक हुआ था!!! उस प्रेस वार्ता में जितने सवाल
उठे उनका क्या हुआ कोई नहीं जानता। मेडिकल काउंसिल में भ्रष्टाचार का मामला, जिसमें
हाईकोर्ट के जज कटघरे में खड़े थे, में भी कोई प्रगति नहीं हुई!!! भ्रष्टाचार के प्रमाण
होने के बाद भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज के सामने कोई कार्रवाई नहीं हो पाई!!! कई
सारी कहानियां हैं अदालतों के भीतर की। कांग्रेस काल की भी और भाजपा के दौर की भी।
लेकिन यहाँ मूल सवाल यह है कि हाल ही में (ताज़ा इतिहास को देखे तो) सीबीआई के दो
पूर्व निदेशकों पर अतिगंभीर सवाल उठे थे। दोनों मामले सुप्रीम कोर्ट में ही थे, लेकिन
उसका कोई सख्त परिणाम अब तक नहीं आया है। उल्टा... परिणाम तो यह आया कि एक और
निदेशक और साथ में विशेष निदेशक का गंभीर मामला सामने आ चुका है। सीवीसी से लेकर
सीबीआई के इन तमाम विवादों की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में हो रही है। फैसला जो
आएगा वो सिर्फ सीबीआई की साख से नहीं जुड़ा होगा, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया के
सर्वोच्चतम मंदिर में लोगों की आस्था से भी जुड़ा होगा।
इस मामले का अंत क्या होगा यह सभी जानते हैं। अंतिम फैसला
क्या होगा यह सभी को ज्ञात है। लेकिन अंतिम फैसले के वक्त लोग यही पूछते हैं कि
सारे निर्दोष थे तो फिर इतने बड़े महाभारत में दोषित कौन था? क्या हमारे यहाँ इतने बड़े महाभारत आसानी से खड़े किए जा सकते
हैं? क्या इतने बड़े महाभारत का कोई बेसिक ही नहीं होता? वैसे अदालतों में जो भी साबित होता हो, उससे पहले बहुत कुछ
साबित हो जाता है!!!
(नवम्बर 2018, इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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