एनएसए। यानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार। यह ओहदा ही अपने आप
में इसकी अहमियत बयां कर जाता है। राष्ट्र की सुरक्षा के विषय में सलाह देने वाला
शख्स ही जब सबसे बड़े आरोपों में उलझा नजर आए तो फिर उस अहमियत वाले ओहदे की देश के
लिए क्या और कितनी अहमियत रह जाती है यह मैट्रिक पास आदमी भी समझ सकता है। एनएसए सरीखे शख्स पर भारत की नयी डी-कंपनी का तमगा लगाया गया है! इसके अलावा सीबीआई के
ही बड़े अधिकारी ने कुछ चौंकाने वाले दावे किए हैं। लेकिन विपक्ष से लेकर मीडिया, सब
जगह इतना सन्नाटा क्यों है?
नोट – सरकारें कोई भी हो, हर गंभीर मामलों में एक तबके की हवाई
मान्यता यही होती है कि यह व्यक्ति विशेष को बदनाम करने की विपक्षी साज़िश है। कई
दफा ये हवाई मान्यता जमीन पर सच भी साबित होती है। अगर यह कोई साज़िश है तो षड्यंत्र
रचने वालों को सज़ा मिले, अगर साज़िश नहीं है तो फिर सज़ा जिन्हें दी जानी चाहिए उन्हें मिले।
भारत
की कारवां पत्रिका ने अजीत डोभाल को भारत की नयी डी कंपनी कह दिया है!!! एनएसए,
विशेषत: अजीत डोभाल जैसा एनएसए, उन पर कारवां पत्रिका के उपरांत
सीबीआई के ही बड़े अधिकारी ने लिखित में संगीन इल्ज़ाम लगाए हैं!!! दोनों ने जो इल्ज़ाम
लगाए हैं वो एक-दूसरे से जुदा हैं। यानी कि दो अलग अलग और दो गंभीर प्रकार के
इल्ज़ाम। देश के एनएसए के ऊपर। लेकिन फिर भी इतना सन्नाटा क्यों है? सत्ता पक्ष चुप हो वो लाजमी है। लेकिन विपक्ष भी इस विषय को
लेकर चुप है। सरकार कोई भी हो, मीडिया सदैव सरकार का प्रिय बने रहना पसंद करता है।
सो, मीडिया चुप हो वह स्वाभाविक है। सीबीआई के बड़े अधिकारी के लिखित और सनसनीखेज
खुलासे पर भी सभी जगह चुप्पी है, उधर कारवां पत्रिका के चौंकाने वाले खुलासे के बाद भी
हर जगह मौन व्याप्त है। शायद आरोप लगने के तुरंत बाद सभी को किसी प्रकार की विशिष्ट
जांच से पता चल चुका है कि सारे इल्ज़ाम गलत है! लेकिन कोई यह भी नहीं बता रहा कि उन्हें सच-झूठ का पता इतनी
जल्दी कैसे चला?
वैसे
हमारे यहां जो इतिहास है उसका इतिहास ही ऐसा है कि साबित तो कुछ भी नहीं होगा, लेकिन
फिर भी बहुत-कुछ साबित हो चुका है!!! वाकई गजब का हाल है इन
दिनों। सुप्रीम कोर्ट में चार वरिष्ठ जज सरेआम प्रेस वार्ता करते हैं। सुप्रीम कोर्ट
कहता है कि हेल्प अस!!! फिर उन्हीं जजों से आश लगाकर बैठे हुए कहते हैं कि नाउ हु विल
हेल्प अस? सुप्रीम कोर्ट का संकट अभी सुलझा नहीं है या तो और ज्यादा
उलझ गया है और तभी देश की सबसे बड़ी जांच संस्थान अपने सबसे बड़े संकट में उलझ जाती है।
सीबीआई के कपड़े खुद सीबीआई ही फाड़ देती है!!! उधर आरबीआई का हाल भी बेहाल है। ईडी में
भी थोड़ा-बहुत सीन चल जाता है। पीएमओ और सीवीसी पर भी रफाल और सीबीआई के सबसे बड़े संकट का दाग लग चुका है। अच्छा है कि जनलोकपाल है ही नहीं, वर्ना उसका भी जोकपाल
बनते हुए देश देख लेता! कुल मिलाकर, इतिहास से सीख लेकर वर्तमान यह साबित कर रहा
है कि कांग्रेस कभी नहीं जाती, जिसे सत्ता मिलती है वही कांग्रेस बन जाता है।
कोई
कहेगा कि इल्ज़ाम गलत हो सकते हैं। कथित आरोपों पर शोरगुल करना ठीक नहीं है। लेकिन
इल्ज़ाम गलत हो सकते हैं यह समझ ही सही है तो फिर तमाम राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, तमाम
राजनीतिक दलों, तमाम घटनाओं, तमाम कथित घोटालों, संस्थाओं, अफसरशाही... तमाम जगहों पर
इसी समझ के अनुसार चुप्पी का ही एकछत्र राज होना चाहिए। यह समझ इसी मुद्दे पर
क्यों? और दूसरे मुद्दों पर इतनी नासमझी क्यों? एक सीधी सी बात है। जब भी किसी संवेदनशील ओहदे पर इतने
ज्यादा गंभीर प्रकार के इल्ज़ाम लगते हैं तब चुप्पी सीधी बात को भी संदिग्ध बना देती
है। छोटे-मोटे इल्ज़ाम और इतने ज्यादा गंभीर प्रकार के इल्ज़ाम, दोनों में बहुत अंतर
है।
'कारवां' की रिपोर्ट पर सन्नाटा... राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेटे का विदेशों में
काले धन का कारखाना?
एनएसए, कोई
छोटा-मोटा ओहदा है नहीं। काला धन का विदेश में कारखाना होना भी छोटा-मोटा इल्ज़ाम है
नहीं। एनएसए के दोनों पुत्र, भाजपाई नेता और काले धन का कारखाना, तीनों को मिलाकर
देखे तो कारवां की रिपोर्ट भी कोई आम रिपोर्ट नहीं है। कौशल श्रॉफ नाम के एक खोजी
पत्रकार ने अमेरिका, इंग्लैंड, सिंगापुर और केमैन आइलैंड से दस्तावेज़ जुटाकर डोभाल के बेटों के काले को सफेद
करने और भारत के पैसे को बाहर भेजने के कारोबार का खुलासा कर दिया है। कारवां और
कुछ एकाध-दो मीडिया हाउस ने इसे अपने यहां छापा है। इस खुलासे के बाद छोटी-मोटी
चीजों को लेकर दिनभर विशेषज्ञों और प्रवक्ताओं को बुलाकर शो करनेवाले मीडिया की
चुप्पी स्वाभाविक है। यह भी कोई असामान्य बात नहीं है!!!
इस मसले पर कारवां
ने तथा एकाध-दो छिटपुट जगहों पर थोड़ा-बहुत छापा है। वहीं से देखे तो, कारवां की
रिपोर्ट की माने तो, 'डी' कंपनी का अर्थ अभी तक दाऊद इब्राहीम का गैंग ही होता था, लेकिन भारत में एक
और 'डी' कंपनी आ गई है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनके बेटों विवेक और
शौर्य के कारनामों को उजागर करने वाली 'कारवां' पत्रिका की रिपोर्ट में यही शीर्षक दिया गया है। एक वक्त था जब साल दो साल
पहले हिन्दी के चैनल दाऊद को भारत लाने के कई ‘प्रोपेगेंडा प्रोग्राम’ करते थे। अब तो
सोशल मीडिया में तंजपूर्ण भाव में लिखा जाता है कि दाऊद को ला रहे थे, लेकिन बीच में
उसका चप्पल टूट गया इसलिए देरी हो रही है! दाऊद को लाने के
उस ‘डिजिटल श्रृंगार’ वाले कार्यक्रमों में अजीत डोभाल को नायक की तरह पेश किया जाता था। जज लोया की
मौत पर 27 रिपोर्ट छापने वाली 'कारवां' पत्रिका ने 2019 के साल के पहले ही माह में मीडियाई हीरो डोभाल को 'डी' कंपनी का तमगा दे
दिया है।
कुछेक मीडिया
रिपोर्ट की माने तो, कौशल श्रॉफ नाम के एक खोजी पत्रकार ने अमेरिका, इंग्लैंड, सिंगापुर और केमैन
आइलैंड से दस्तावेज़ जुटाकर डोभाल के बेटों के काले को सफेद करने और भारत के पैसे
को बाहर भेजने के कारोबार का खुलासा कर दिया है। इस गोरखधंधे को हेज फंड और ऑफशोर
कंपनियां कहते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि नोटबंदी जैसे कथित ऐतिहासिक फैसले के
महज कुछ दिनों के बाद के दौर का खोफनाक सच सामने लाया गया है। पीएम मोदी ने देश से
50 दिन मांगे थे। कहा था कि 50 दिनों बाद आपके सपनों का भारत होगा। लेकिन कारवां की
रिपोर्ट की माने तो, नोटबंदी के ठीक 13 दिन बाद 21 नवंबर, 2016 को टैक्स
चोरी के गिरोहों के अड्डे केमैन आइलैंड में विवेक डोभाल अपनी कंपनी का पंजीकरण
कराते हैं!!! 'कारवां' के एडिटर विनोद होज़े ने ट्वीट किया है कि नोटबंदी के बाद विदेशी निवेश के तौर
पर सबसे अधिक पैसा भारत में केमैन आइलैंड से आया था। 2017 में केमैन आइलैंड से आने
वाले निवेश में 2,226 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। जी हां, 2,226 प्रतिशत।
इसे लेकर सवाल भी
उठे हैं। 17 सालों के बाद जहां से एफडीआई भारत में आता था, उसी जगह से महज कुछ दिनों के
भीतर इतना सारा निवेश आता है तो फिर सवाल उठने लाजमी है। कारवां की रिपोर्ट के बाद
सवाल उठा है कि नोटबंदी के बाद टैक्स हैवेन से भारत में एफडीआई का 17 सालों का
रिकॉर्ड अचानक ही कैसे टूट गया? लाजमी है इन सवालों का उठना। मनी लॉन्ड्रिंग एक संगीन अपराध है, क्या इसे संस्थागत अपराध बना दिया
गया है?
नोट करे कि राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के बेटे विवेक डोभाल भारत के नागरिक नहीं हैं, इंग्लैंड के
नागरिक हैं और सिंगापुर में रहते हैं। कारवां की रिपोर्ट की माने तो वे GNY ASIA Fund के निदेशक हैं।
केमैन आइलैंड टैक्स चोरों के गिरोह का अड्डा माना जाता है। कौशल श्रॉफ ने लिखा है
कि विवेक डोभाल यहीं 'हेज फंड' का धंधा करते हैं। दूसरा चौंकाने वाला खुलासा यह है कि एक भाजपाई नेता और
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेटे शौर्य और विवेक का बिज़नेस एक दूसरे से जुड़ा
हुआ है। यह भाजपाई नेता कौन है इस पर कारवां ने इशारा किया हो तो मुझे समझ नहीं आ
रहा है। मतलब कि जिन 50 दिनों में सपनों का भारत बनाया जा रहा था, उन्हीं 50 दिनों में भारत
का सपना बन रहा था या टूट रहा था यह भी सोचने लायक एंगल है। नोटबंदी के दिनों को आम
आदमी ने सबसे ज्यादा झेला था। पीएम मोदी के आश्वासनों और आसमानी दावों को आम आदमी ने
भरोसा करके झेला। कुछ की जिंदगियां चली गई। वो भी कतारों में खड़े रहने की वजह से।
लेकिन दूसरी ओर यह भी हो रहा था।
अजीत डोभाल के
पुत्र शौर्य डोभाल भारतीय जनता पार्टी के नेता है यह तथ्य नोट करने लायक क्यों नहीं हो सकता? शौर्य थिंक टैंक इंडिया फाउंडेशन के प्रमुख है, जो मोदी सरकार के बहुत करीब रहनेवाली संस्था है। रिपोर्ट
में दावा है कि डोभाल के बेटों से इस खुलासे के बारे में उनका पक्ष जानने के लिए संपर्क किया गया था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। कारवां के पास कथित रूप से जो
दस्तावेज़ है उससे दावा तो यह भी हुआ है कि संघ के नेता राम माधव, जो फिलहाल भाजपा
के महासचिव है, वे शौर्य डोभाल की एक कंपनी के निदेशक है!!! शौर्य की एक कंपनी मोदी
सरकार बनने के बाद अपने अच्छे दिनों में प्रवेश कर गई। उस कंपनी ने विदेशी राजदूतों
और गणमान्य अतिथियों के साथ बैठकों का आयोजन किया, पीएम मोदी की विदेश यात्राओं में होने वाले कार्यक्रमों का आयोजन किया, न्यूयॉर्क की हाई प्रोफाइल रैली का आयोजन
किया।
2011 में अजीत डोभाल ने एक रिपोर्ट लिखी थी कि टैक्स चोरी के
अड्डों पर कार्रवाई करनी चाहिए और अब उनके ही बेटे की कंपनी का नाम हेज फंड और ऐसी
जगहों पर कंपनी बनाकर कारोबार करने के मामले में सामने आता है!!! भाजपा ने 2011 में एक समिति गठित की थी। चार सदस्यों की इस समिति ने बीजेपी की तरफ से एक रिपोर्ट दी
थी। रिपोर्ट का शीर्षक था- इंडियन ब्लैक मनी अब्रोड। बताया जाता है कि रिपोर्ट को
तैयार करने में अजीत डोभाल की भूमिका थी। इस रिपोर्ट को तैयार करने में संघ के
विचारक एस गुरुमूर्ति की भी भूमिका थी, जो अभी आरबीआई के निदेशक है।
काला धन को लेकर
बड़ा अभियान चला था इस देश में। कई सारे दावे, सपनें और वादे किए गए। 100 दिनों के
भीतर काला धन आएगा, पंद्रह-पंद्रह लाख मिलेंगे, काला धन न आया तो मुझे फांसी पर
चढ़ा देना... फिल्मी संवाद सरीखे दृश्य भी देखे थे इस देश ने। नोटबंदी जैसी
त्रासदी को भी इसीलिए देश ने मजबूरन झेल लिया। इसी आश में कि चलो कुछ दिन बदहाल हो
जाते हैं, सपनों के भारत के लिए। लेकिन फिर नोटबंदी के बाद करोड़ों-अरबों के एक नहीं किंतु अनेकों अनेक घोटाले सामने आए, जिनमें से किसी एक का भी सही विश्लेषण कभी नहीं हुआ। कोई पकड़ा नहीं गया। कार्रवाई के नाम पर कार्रवाईयां हुई, जैसे प्रतिबंधित चीजों को लेकर नौटंकियां होती है वैसे ही। अब कारवां ने एक और झटका दिया है, यह कहकर कि इतने
बड़े लोगों ने नोटबंदी के महज 13 दिन बाद काले धन का कारखाना खोल दिया था!!!
वर्ष 2000 से 2017
तक भारत को कैमेन आईलेंड से एफडीआई के रूप में करीब 8,300 करोड़ मिले थे। 17 सालों में 8,300 करोड़। जबकि अप्रैल 2017 से लेकर मार्च 2018 तक, महज एक साल में 8,300 करोड़ मिल गए!!! जो एफडीआई 17 सालों में आता है, वही महज एक साल में आता है यह चौंकाने वाली
और संदिग्ध बात नहीं है? यह इतनी सीधी बात
तो है नहीं।
रिपोर्ट के
मुताबिक, विवेक डोभाल की कंपनी के निदेशक हैं डॉन डब्ल्यू ईबैंक्स और मोहम्मद
अलताफ मुस्लियाम। आप हिंदू-मुस्लिम करते रहिए, ये लोग उन्हीं के साथ मिलकर कारोबार चलाते रहेंगे। ईबैंक्स वो बदनाम नाम है जिसका ज़िक्र पैराडाइज़ पेपर्स में किया
जा चुका है!!! पनामा पेपर्स में भी इस महाशय का नाम आ चुका है। ऐसी कई फर्ज़ी
कंपनियों के लाखों दस्तावेज़ जब लीक हुए थे,
तो 'इंडियन एक्सप्रेस' ने भारत में पैराडाइज़ पेपर्स के नाम से छापा था। उसके पहले इसी तरह फर्ज़ी
कंपनियां बनाकर निवेश के नाम पर पैसे को इधर से उधर करने का गोरखधंधा पनामा पेपर्स
के नाम से छपा था। पैराडाइज़ पेपर्स और पनामा पेपर्स दोनों में ही वॉकर्स कॉरपोरेट
लिमिटेड का नाम है, जो विवेक डोभाल की कंपनी की संरक्षक कंपनी है!!! जिसका नाम पनामा और पैराडाइज़ में है, वो देश के एनएसए के बेटे की कंपनी में निदेशक है!!! इस चक्रव्यूह पर भी
सन्नाटा छाया है।
'कारवां' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि विवेक डोभाल की कंपनी में काम करने वाले कई
अधिकारी शौर्य डोभाल की कंपनी में भी काम करते हैं। मैट्रिक पास आदमी भले काले धन
का काला कारखाना चला नहीं सकता, लेकिन इतनी सीधी बात समझ सकता है कि इन चक्करों का
सिम्पल सा मतलब यह होता है कि कोई बहुत बड़ा फाइनेंशियल नेटवर्क चल रहा है। इनकी
कंपनी का नाता सऊदी अरब के शाही खानदान की कंपनी से भी है!!! भारत की गरीब जनता को हिंदू-मुस्लिम
परोसकर सऊदी मुसलमानों की मदद से धंधा हो रहा है!!! है न गजब का नेटवर्क!
कारवां की रिपोर्ट
को महज आरोप मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक पत्रकार ने लिखा है कि हिन्दी के
अख़बार ऐसी रिपोर्ट सात जन्म में भी नहीं कर सकते। क्योंकि उनके यहांं संपादक चुनावी
और जातीय समीकरण का विश्लेषण लिखने के लिए होते हैं। 'कारवां' की इस रिपोर्ट का
विशेष अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि एनएसए और काला धन के कारखाने का खुलासा है। हर
शाम मीडिया की महफिलों में कोई नवाब अपने अपने मुर्गों को मीडियाई पैनलों पर लड़ाता
है, लेकिन इस विषय पर सन्नाटा है!!!
जब सीबीआई के डीआईजी स्तर के अधिकारी ने अदालत में लिखित रूप
से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को कटघरे में खड़ा किया
अजीत डोभाल... ये नाम अंजाना नहीं है। भाजपा हो या इससे पहले कांग्रेस हो, जासूसी दुनिया
के इस किरदार को लोग अपना हीरो मानते रहे हैं। 'कथित रूप' से पाकिस्तान में सालों तक
खुद को छुपाकर भारत देश के लिए काम करनेवाले अजीत डोभाल को तेज-तर्रार जासूस के
तौर पर जाना गया। पाकिस्तान, आतंकवाद, जासूसी आदि को लेकर उनकी पकड़ उनकी पहचान
थी। पीएम नरेन्द्र मोदी ने इन्हें देश का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाया। मोदी के
विरोधियों के लिए डोभाल को एनएसए बनाना मोदी का एकमात्र अच्छा काम माना गया था।
वैसे बड़े पद और बड़े लोगों को लेकर विवाद होते ही हैं। लिहाजा डोभाल को लेकर भी इसके
बाद एकाध-दो विवाद हुए। पठानकोट हमले के दौरान हद से ज्यादा हस्तक्षेप या मनमानी
करना तथा डोभाल के पुत्र शौर्य को लेकर कथित आर्थिक हेराफेरी के विवाद हुए, जिसका
कोई अंतिम सिरा नहीं मिला। वक्त रहते ये सारी चीजें खुद-ब-खुद सिमट गई। दौर तो वो भी
आया जब अजीत डोभाल देश के सबसे पावरफुल ब्यूरोक्रेट बने। उनके पास वो सारे अधिकार
थे, जो किसी और के पास नहीं थे।
बीच
में डोभाल का सरकार कैसी बननी चाहिए उस पर दिया गया भाषण उनका अप्रत्यक्ष रूप से
भाजपा या नरेन्द्र मोदी के लिए किया गया छुपा प्रचार बना। कह सकते हैं कि यह उनके
विचार थे, सरकारें कैसी होनी चाहिए उस पर। लेकिन इतने बड़े अधिकारी का इस तरह से
दिया गया भाषण सरकार के पक्ष में चुनावी प्रचार सरीखा बनकर उभरना स्वाभाविक ही था। लेकिन डोभाल
की मीडियाई छवि और मंदिर-मस्जिद जैसे महत्वपूर्ण मसलों के सामने कई सारी चीजें बिना
चर्चा के दम तोड़ गई।
नवम्बर
2018 का महीना था। देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरीखी शख्सियत, जो देश का
सबसे शक्तिशाली अधिकारी था, जो देश के पीएम के सबसे नजदीक माना जाता था, उस पर एक ऐसा आरोप लगा, जिसने आम लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। वैसे 'भारतीय मीडिया की
तत्काल कृपा' से इसे न्यूज़ या डिबेट में स्थान नहीं मिला, जिससे लोगों की मान्यताएँ
ज्यादा डिगी नहीं थी। आगे लिखा वैसे बड़े लोगों पर आरोप लगना गंभीर नहीं होता! लेकिन
यहां अतिगंभीर मसला ही था। क्योंकि देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पर आरोप लगाने
वाला कोई राह चलता शख्स या कोई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं था। अजीत डोभाल पर
सनसनीखेज इल्ज़ाम लगाने वाला शख्स था सीबीआई का डीआईजी!!! देश की सबसे बड़ी जांच
संस्थान का डीआईजी स्तर का बड़ा शख्स था, जिसने यह इल्ज़ाम लगाए!!! उससे भी बड़ी बात तो
यह थी कि यह इल्ज़ाम बोलकर नहीं बल्कि लिखकर लगाए गए थे!!! उससे भी बड़ी बात यह थी कि
यह लिखित आरोप कहीं और नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट में दिए गए थे!!! ब्रेकिंग न्यूज़ का
धंधा चलानेवाला मीडिया क्यों ब्रेक हो गया होगा यह आसानी से समझ आ जाता है।
क्योंकि इन दिनों भारतीय मीडिया इस समझ को समझाने के लिए कई सारे उदाहरण पेश किए जा
रहा था।
सीबीआई
के डीआईजी एमके सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने लिखित आरोप लगाए। उस दिन
सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ उसका एक दिलचस्प पहलू भी था। एमके सिन्हा ने अदालत में कहा
था कि मेरे पास ऐसे तथ्य हैं जिससे आप (अदालत) चौंक उठेंगे। अदालत ने कहा कि हम कभी
नहीं चौंकते। इस छोटे से वार्तालाप का दिलचस्प मतलब बड़ा दिलचस्प है।
सीबीआई
का बड़ा अफसर तत्कालीन सरकार के मंत्री और एनएसए जैसे संवेदनशील पदों पर बैठी हुई
शख्सियतों पर बाकायदा लिखित आरोप सुप्रीम कोर्ट जैसे प्लेटफॉर्म पर जाकर लगाता है
तो यह कोई सामान्य सी बात तो है नहीं। एमके सिन्हा ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल पर बाकायदा लिखित रूप में अपनी याचिका
में आरोप लगाए। इस केस में दखल देने और प्रभावित करने के लिए। किसी हाई प्रोफाइल
केस में दखल देना और केस को प्रभावित करने का मतलब क्या हुआ यह मैट्रिक पास आदमी की
समझ में भा सकता है, यदि चाहे तो। मनीष सिन्हा ने कहा कि जिस अस्थाना केस को वो देख
रहे थे, उससे हटाकर उनका तबादला नागपुर इसलिए किया गया क्योंकि पीएमओ के इशारे पर
शक्तिशाली लोगों को बचाया जा रहा था। सबूतों से छेड़छाड़ की जा रही थी। मनीष सिन्हा
नीरव मोदी और मेहुल चोकसी का भी केस देख रहे थे।
सीबीआई का डीआईजी
स्तर का बड़ा अधिकारी अदालत में लिखित बयान देकर आरोप लगाता है तो फिर सवाल उठने
स्वाभाविक है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अस्थाना की जांच
में दखल दी थी? क्या किसी अपराधी
को बचाने के लिए अस्थाना के यहां छापेमारी से लेकर फोन ज़ब्त करने से रोका था? सिन्हा ने अपनी याचिका में लिखा कि अस्थाना के खिलाफ जांच
में कई स्तरों पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने गतिरोध पैदा किया। इस केस में
शामिल दो मिडिलमैन (बिचौलिये) अजीत डोभाल के करीबी थे। दुबई के मिडिलमैन मनोज के
ज़रिए ही अस्थाना को पैसे देने का आरोप लगा था। गिरफ्तारी के बाद मनोज ने हैरानी
जताई थी कि उसे सीबीआई कैसे पकड़ सकती है जबकि वो अजीत डोभाल का करीबी है। उसके भाई
सोमेश और रॉ के अधिकारी सामंत गोयल ने एक पर्सनल केस में अजीत डोभाल की मदद की थी।
अस्थाना के खिलाफ जांच से लेकर एफआईआर के स्तर पर अजीत डोभाल दिलचस्पी ले रहे थे।
ये सब सिन्हा के आरोपों से निकलकर आ रही बातें हैं।
याचिका में लिखा गया
कि 5 अक्टूबर को अस्थाना के खिलाफ एफआईआर हुई थी जिसकी सूचना आलोक वर्मा ने अजीत डोभाल को 17 अक्टूबर को दी। याचिका के जरिए सवाल उठाया गया कि आलोक वर्मा अजीत डोभाल को क्यों बता रहे थे कि अस्थाना के खिलाफ एफआईआर हुई है और अजीत डोभाल
अस्थाना को क्यों बता रहे थे कि तुम्हारे खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई है। क्या अस्थाना
ने अजीत डोभाल से गुज़ारिश की थी कि उनकी गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए और अजीत डोभाल
ने अस्थाना को गिरफ्तार होने से बचा लिया, यह सब याचिका में लिखा गया था। केवल खंडन से तो बात नहीं बन सकती, क्योंकि यह
मामला अब जांच से भी आगे का हो गया है। यह तर्क भी हलका-फुलका है जिसमें यह कह दिया जाए कि एनएसए को सब जानकारी रखनी चाहिए होती है इसीलिए उन्हें इस मामले में कूदना पड़ा होगा। याचिका में लिखा गया था कि अजीत डोभाल के
दबाव में अस्थाना के घर सर्च करने की अनुमति नहीं मिली और उनके मोबाइल फोन को ज़ब्त
नहीं किया गया। जांच अधिकारी एके बस्सी ने भी कुछ कुछ ऐसे ही आरोप लगाए थे। एमके
सिन्हा ने अपनी याचिका में यह सब लिखा कि आलोक वर्मा ने पूछने पर कहा कि राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार ने सेल फोन ज़ब्त करने की अनुमति नहीं दी। 22 अक्टूबर को आलोक
वर्मा से औपचारिक दरख्वास्त किया गया मगर फिर अनुमति नहीं मिली। पूछने पर बताया कि
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने अनुमति नहीं दी। यही नहीं याचिका में सिन्हा ने आरोप
लगाया कि जब 20 अक्टूबर को डिप्टी एसपी देवेंद्र कुमार के घर सर्च चल रही थी तब सीबीआई के
निदेशक आलोक वर्मा की तरफ से सर्च रोकने का निर्देश आया। पूछने पर जवाब मिला कि
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने ऐसा करने को कहा है।
महज कुछ महीनों
पहले अजीत डोभाल की जो छवि थी वैसी आज नहीं रही। इसके पीछे किसी का आरोप लगाना वजह
नहीं बनी, बल्कि आरोपों के बाद सर्वव्यापी मौन वजह बन गया है। सीबीआई कोई छोटी-मोटी
संस्था है नहीं। सीबीआई का डीआईजी कोई छोटा अधिकारी होता नहीं। इतनी बड़ी संस्थान के
इतने बड़े अधिकारी का अदालत जैसी जगह पर लिखित में अजीत डोभाल का नाम लेना इतनी छोटी
सी बात तो थी नहीं। फिर भी इतना सन्नाटा वाकई गजब का माहौल ही था। पठानकोट हमले के
बाद एनएसजी यूनिट की हेरफेर को लेकर भी विवाद हुआ था। लेकिन फिर भी अजीत डोभाल की
छवि धूमिल नहीं हुई। फिर उनके बेटे पर काले धन को लेकर आरोप लगे। आरोप राजनीतिक
पार्टी से आए, इसलिए लोगों ने अपने हीरो अजीत डोभाल पर उंगली नहीं उठाई। लेकिन फिर
जो हुआ उससे अब अपने हीरो को लोग मीडियाई हीरो मानने लगे हैं। सीबीआई ने अजीत डोभाल
का फोन टेप किया यह शायद गैर संवैधानिक काम होगा। कसूरवारों पर सख्त कदम भी उठाए
जाएंगे। लेकिन फोन टेपिंग से जो सनसनीखेज चीजें उभरी उन चीजों का फोन टेपिंग की
गैरकानूनी प्रवृत्ति के सामने कोई मोल नहीं है। क्योंकि फोन टेपिंग गैरकानूनी है,
और इसीलिए गैरकानूनी प्रवृत्ति से निकलने वाली कथित परिस्थितियों को गटर में डालना
कानूनन मान्य होता होगा हमारे यहां!!!
हमारे यहां पनामा और पैराडाइज़ को भी देश के लोगों ने झेला है।
जिन महानुभावों के इन कथित गोरखधंधों में नाम थे उन्हें किसी ने कुछ नहीं कहा, किसी ने
कुछ नहीं किया है अब तक। काले धन का कारखाना, सीबीआई के डीआईजी द्वारा लिखित
आरोप... शायद आरोप लगने के तुरंत बाद सभी को किसी प्रकार की विशिष्ट जांच से पता
चल चुका है कि सारे इल्ज़ाम गलत है। लेकिन कोई यह भी नहीं बता रहा कि उन्हें सच-झूठ
का पता इतनी जल्दी कैसे चला?
(जनवरी 2018, इंडिया इनसाइड)
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