सोशल मीडिया पर एक कड़वा लेकिन सच्चा तंज खूब चला। तंज यह था कि लोकसभा के
चुनाव दो चरणों में होंगे, पहले नेता लोग जनता के चरणों में होंगे, और फिर जनता उनके
चरणों में... !!! राजनीतिक दल कोई भी हो, अमूमन ज्यादातर जनभावना तो यही है। अगर लोग यह मानते
हैं कि वे सरकारें बदलते हैं तो फिर यह सामूहिक भ्रम की स्थिति ही है। दरअसल राजनीति
लोगों के दिमाग और सोच को बदलती है और फिर लोग सरकारें बदलने का गौरव लेते रहते हैं।
ज्यादातर तो यही होता है, इक्का-दुक्का इतिहास की बातें करके आप इस गौरव को जिंदा
ज़रूर रख सकते हैं।
कई जगहों पर कहा गया है कि दरअसल 10-12 मल्टीनेशनल कंपनियां जिस खिलौने में चाबी
भरती है, बस वही खिलौना चल पड़ता है। यह कोई प्रमाणिक सत्य तो नहीं है, किंतु कई
मंचों से इसे हल्के-फुल्के अंदाज में कहा ज़रूर जाता है। यह भी बहुत बार कहा जाता है
कि बिना बड़े उद्योग घरानों की मदद के कोई इतना बड़ा चुनाव भी नहीं लड़ सकता। सच क्या
है या झूठ क्या है वो तो पता नहीं। किंतु लोग सरकार बदलते हैं वाले कथन के सामने कई
तार्किक और तथ्यात्मक चुनौतियां ज़रूर खड़ी पाई जाती है। मल्टीनेशनल कंपनियां, खिलौना,
चाबी, उद्योग घराने आदि को लेकर आप खुद ही संशोधन कर लीजिएगा। हम इस संस्करण के
विषय के इर्द-गिर्द ही घूम लेते हैं।
2014 में नरेन्द्र
मोदी ने कहा कि कांग्रेस ने कुछ नहीं किया हमें वोट दो। 2019 में वे कहते हैं कि
कांग्रेस ने कुछ नहीं करने दिया हमें दोबारा वोट दे दो। बताइए, इससे बड़ा जोक क्या
होगा? दिवंगत प्रधानमंत्री नेहरू आये दिन
नरेन्द्र मोदी को परेशान करते रहते हैं!!! ‘अच्छे दिन’ से भी बड़ा जोक पिछले पांच सालों से इस देश में चल रहा है! वैसे कांग्रेसी लोग परेशान ना हो। उनके लिए इससे भी बड़ा जोक मौजूद है। करीब
47 साल पहले कांग्रेस ने कहा था कि गरीबी हटाओ। 47 साल बाद राहुल गांधी कह रहे हैं
कि अब होगा न्याय, गरीबी हटाएंगे। अच्छे दिन से भी बड़ा जोक!!! अच्छे दिन वाला जोक 5 सालों से चल रहा है, गरीबी और न्याय वाला 47 सालों से!
हाथियों की मूर्ति
पर पैसा उड़ानेवाली राजनेता कहती है कि हम सत्ता में आएंगे तो गरीबों और दलितों को
न्याय मिलेगा!!! और उनके समर्थक मानते भी हैं कि वो
राजनेता न्याय दिलाएगी!!! शायद हाथियों की
मूर्तियों से भारत की मूल समस्याओं के समाधान पर कोई बड़ा मैजिक करने का खुफिया
कार्यक्रम होगा इनके पास! एक और राजनीतिक
दल है, जिनके घर में घमासान है और फिर भी वो कहते हैं कि हम देश को एक करेंगे, भाजपा
देश को तोड़ रही है, हम समाजवादी लोग समूचे देश को एक करेंगे! उधर घर में सारा माजरा तितर-बितर है और वे देश को एक करेंगे!!! खुद का घोंसला बिखरा हुआ है और दूसरों के घर बनाने के सपने दिखाते हैं! कोई झाडू उठाकर दिल्ली में मिली लॉटरी की बदौलत दिल्ली के बाहर घर खरीदने चला
है!
आप श्रृंगारात्मक
टाइप लेखक है तो आपको भारत के इतिहास से ऐसे मौके ज़रूर मिलेंगे, जहां लोगों ने
राजनीति या सरकारें बदल दी हो। ये होता रहता है और होता भी रहेगा। इससे कोई इनकार नहीं है। इस देश ने इतिहास बदला है, देश ने राजनीति भी बदली है, देश ने सरकारें भी
बदली है। लेकिन बहुत ही ज्यादा मौके ऐसे भी है जहां ये वाला तर्क फिट भी नहीं बैठता।
क्योंकि राजनीति लोगों के दिमाग बदलती रहती है, लोगों की सोच बदलती रहती है और फिर
लोग सरकारें चुनते या बदलते हैं। फिर कोई श्रृंगारात्मक लेख चलता है कि जनता ने बदली
सरकार या देश का जनादेश वगैरह वगैरह। जेपी आंदोलन के बाद देश की जनता को लगता था
कि अब समस्याओं से निजाज मिलेगी। लेकिन उसी जेपी आंदोलन से मुलायम, लालू, शरद यादव
या नीतीश निकले, जिनसे समय समय पर खुद लोग ही निजाज पाना चाहते हैं!!! जनलोकपाल आंदोलन के दौर में युवाओं को लगता था कि भ्रष्टाचार की अब खैर नहीं।
वही युवा क्या क्या सोचने लगे हैं कौन नहीं जानता? रामदेवजी के काला धन आंदोलन के चलते लगा कि अब देश में घी-दूध की नदियां बहने
लगेगी और आज वही रामदेवजी अपने उत्पादों के पीछे मुंह छुपाते फिरते है! काला धन मिस्टर इंडिया हो चुका है! लाठीयोग सीखने के बाद बाबाजी युवाओं को काले धन का पाठ नहीं सीखाते।
किसीको बंगाल की
शेरनी कहा जाता है, किसी को युगपुरुष, किसी को शिखरपुरुष, किसी को विकासपुरुष, कोई
दलितों का मसीहा है, कोई राष्ट्रवादी है, कोई किसी धर्म का रक्षक है... अपने अपने
समर्थकों के जरिये मीडिया की कृपा से यहां हर नेता खुद को एक नारे के रूप में लोगों के
दिमाग में फिट बैठाने की जद्दोजहद में व्यस्त दिखाई देता है। वैसे, चाहे जितने भी
वैविध्यपूर्ण नामों से नेता खुद की पहचान बनाता हो, लेकिन आज जमीनी सच्चाई यही है
कि वही नेता फेंकू, पप्पू या खुजली के नाम से ज्यादा मशहूर है! यही इन नेताओं और हम आम जनता के मेहनत की कमाई है।
राजनीति ने जब जी
चाहा आवाम को भ्रष्टाचार पर ले गए, जब जी चाहा घर्म में घुसेड़ दिया, जब जी चाहा
विकास के तारे दिखाए और जब जी चाहा राष्ट्रभक्ति के तालाब में माथा पकड़कर डूबो-डूबो
कर नहला दिया!!! 1947 के बाद कम
ही मौके हैं जहां चुनाव किसी नेता विरुद्ध जनता का हुआ हो। मौके हैं, लेकिन कम है। और
इन्हीं कम मौकों को किसी लेख में, किसी भाषण में याद कर कर के गौरवगान का फर्ज निभा
लेना, यह जागरूकता कम बल्कि मूर्खता ज्यादा है। एक बात समझ ही लीजिए कि, “राष्ट्रवाद यहां मोदी, राहुल या किसी और की प्रतिबद्धता नहीं है बल्कि मजबूरी है,
क्योंकि कोई विशेष उपबल्धि नहीं है।”
जब भी चुनाव आता
है, हर न्यूज़ पेपर में, हर आर्टिकल में, फेसबुक पर या वाट्सएप विश्वविद्यालय में टीएन
शेषन की गाथा चलती रहती है। टीएन शेषन काल के गौरवपूर्ण अध्याय के पृष्ठ खोलकर
परोस दिए जाते हैं। यह बताने के लिए कि हमारा चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव भी करा
सकता है। कभी कभी यह दिखाने के लिए कि आजकल हमारा चुनाव आयोग पक्षतापूर्ण व्यवहार
करता है। टीएन शेषन का काल सचमुच हर तरीके से लोगों के दिमाग में रहना चाहिए। लेकिन
उसी एक सुनहरे अध्याय को याद करके आज के काले टीके को धोने के प्रयास का मतलब
किसीको जागरूकता लगता है तो यही सही।
साढ़े चार साल अलग
वेशभूषा में घूमने वाली कोई राजनेता चुनाव के वक्त साड़ी और इंदिराजी जैसे परिधान में लोगों के समक्ष आ जाती है और लोगों को लगने लगता है कि यही है जो भारत की तकदीर
बदलेगी! कोई नेता खुद को अचानक से चायवाला
बताकर ढेरों वादें करता है और फिर बड़ी बेशर्मी से सारे वादों को तोड़ देता है, कहता है
कि चुनाव में तो कुछ बातें कह दी जाती हैं, उस पर ध्यान ना दे, ये तो जुमला था! और फिर
भी इस देश का युवा मानता है कि वही आदमी इस देश की तकदीर बदलेगा! तो फिर आप सोचिए कि बेवकूफ कौन है? धर्म और जाति के नाम पर मतदान होता है, पांच साल तो क्या... जिंदगी के हर दिन
का हर एक पल धर्म और जाति पर ही निकलता है, और वही युवा विशेषज्ञ बनने का ढोंग करके
कहता है कि धर्म और जाति के विषचक्र ने देश को बर्बाद करके रख दिया है! आप तय नहीं कर पाएंगे कि नेता और जनता, दोनों में ज्यादा दोगला कौन है!
नारों से चुनावी
इतिहास कितना बदला था और कितना बदलेगा इसका विश्लेषण करने का मतलब ही क्या है? क्योंकि यही लोग दूसरे विश्लेषणों में लिखते हैं कि नारों से जनता का पेट नहीं भरता, नारों से समाधान नहीं होता! ये दोमुखी गंगा
हर जगह बहती रहती है, क्योंकि हम इसीको जागरूकता कहते हैं।
चुनाव प्रचार को
धर्म और जाति से मुक्त करने की कवायद बहुत चली। लेकिन राजनीति इतनी हुशियार निकली
कि धर्म और जाति से चुनाव प्रचार को मुक्त करने की कवायद को ही अस्पताल पहुंचा
दिया और ऊपर से कवायद को भी उन मासूम बच्चों की तरह ऑक्सीजन नहीं मिला... उलट तो यह
हुआ कि सेना, सैनिक और वैज्ञानिक भी चुनावी जीत और हार में अपनी भूमिका खुलकर
निभाने लगे। सवाल पूछे जाने लगे तो छगन और मगन वाला तर्क तैरने लगा। मगन कहने लगा
कि छगन ने भी तो यही किया था!
एक राजनीतक दल ने
अपने घोषणापत्र में गुजरात इन्फेंट्री रेजिमेंट और अहीर इन्फेंट्री रेजिमेंट बनाने
का वादा कर दिया। शायद उनके लिए यही देश की मूल समस्याएँ होगी। गज़ब यह है कि वे लोग
खुद कहते हैं कि देश की मूल समस्या रोजगारी, गरीबी वगैरह वगैरह है। लेकिन घोषणापत्र
में वे सरहद पर है, देश की सड़कों पर नहीं! गुजरात में लोग शहीद नहीं होते वाला बेतुका
तर्क भी राजनीति में खूब चलने लगा। सेना में पहचान देश से होती है, राजनीति ने तो
स्टेटवाइज मार्टर लिस्ट बनाने के प्रयत्न शुरू कर दिए।
कहते हैं कि चुनाव
किसी मुद्दों पर लड़ा जाता है। लेकिन जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ा जा रहा है, कोई साफ ही
कह दे कि चुनाव ढकोसलों पर लड़ा जाता है। जिन्हें मुद्दे कहने चाहिए वो सारे मुद्दे तो मुद्दों में है ही नहीं! प्रधानमंत्री
सरीखा बड़ा नाम हो या विपक्षी नेता हो, सारे नेताओं की भाषा फिर एक बार वैसी ही
गटरछाप है जैसी हर दफा होती है। उल्टा यही लगता है कि ये नेता लोग हर नये चुनाव में भाषा के स्तर को ज्यादा से ज्यादा गिराने में यकीन रखते हैं। स्मशान-कब्रिस्तान-शराब-सराब-अली-बजरंगबली...
यही इन नेताओं का दायरा है, तभी तो इन सबको फेंकू-पप्पू या खुजली जैसे महान नामों से
नवाजा जाता होगा।
कोई डराकर वोट
मांग रहा है, कोई फुसलाकर, कोई बहलाकर, तो कोई दूसरी लाइन को छोटी बताकर खुद की
लाइन बड़ी दिखा रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव में जब किसी बड़े नेता ने कह दिया कि
फलाना फलाना पार्टी बिहार में जीतेगी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे... तो यह कई
सालों के बाद रिपीट हो रहा था। बड़ा विवाद हो गया। लेकिन अब राजनीति में इतनी हिम्मत आ
चुकी है कि वे डराकर वोट मांग रहे हैं और धड़ल्ले से बोल रहे हैं कि फलाना फलाना
पार्टी भारत में जीतेगी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। सैकड़ों सालों के इतिहास में
हिंदू कभी खतरे में नहीं था, बस आडवाणी की यात्रा के बाद से हिंदू खतरे में होने लगा
है! हमारे सुनहरे इतिहास के नायकों ने अपने अपने इलाकों के लिए
जंग लड़ी और राजनीति इनके बारे में बता रही है कि उन्होंने राष्ट्रवाद और भारतवाद के
लिए इतनी बड़ी लड़ाईयां लड़ी थी! जबकि उस दौर में राष्ट्र की परिकल्पना तक नहीं होती थी! सबने अपनी अपनी मातृभूमि के लिए जंग लड़ी, लेकिन उस नजरिए को आज के हिसाब से
ढाला जा रहा है। 14वीं या फिर 17-18वीं सदी के दौर को आप 21वीं सदी के नजरिए में कैसे
फिट बैठा सकते हैं? इतिहास को आलू-मटर की तरह छील देने से
राजनीति परहेज नहीं कर रही! पद्मावती और
जोधाबाई इतिहास में थे या नहीं थे इसी पर विवाद है, लेकिन फिर भी इन सब पर अलग-अलग
तरह के इतिहास राजनीतिक कृपा से फल-फूल रहे हैं!
पुराने इतिहास को
छोड़ दीजिए, आज के दौर में न्यायालय का संज्ञान था कि सीबीआई गैरसंवैधानिक संस्थान
है!!! सुप्रीम कोर्ट से सरकार को स्टे मिला और फिर सरकार बदल भी
गई, स्टे वहीं का वहीं है!!! सीबीआई संवैधानिक
है या नहीं इसका ही अता-पता नहीं है, फिर भी सब कुछ जस का तस चल रहा है!!! राम राज्य अलग दृश्य है, ये तो राम भरोसे वाला दृश्य है।
यकीनन, रोजगार - गरीबी - सड़कें - बिजली - पानी - भ्रष्टाचार - स्वास्थ्य जैसी चीजें लोगों के लिए सदैव
प्रथम और महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। लेकिन फिर भी लोग वोट करते समय इन सब चीजों को कम
ही देखते हैं। धर्म-जाति-सतही मुद्दे वगैरह प्रथम आ जाता है, दूसरे मुद्दे पीछे छूट
जाते हैं। पैसे बांटना, शराब का वितरण, लालच, डर दिखाना, पकोड़ा पार्टी से लेकर
पार्टी पोर्टेबिलिटी, क्या क्या नहीं होता कौन नहीं जानता। पहले राजनीति ने मीडिया
को दबोचा, इससे नहीं बना तो राजनीति अब अपने प्राइवेट चैनल ही लॉन्च किए जा रही है।
इससे पेट नहीं भरा तो टेलीविजन धारावाहिकों में प्रचारात्मक संवाद के सीन डलवाकर
मार्केटिंग किए जा रही है। कभी राजनीति में एक नेता ने लोगों को दूसरे नेताओं से दूर
करने के लिए बोबी मूवी चला दी। कभी सैकड़ों मूवी को कथित रूप से डस्टबिन में डाल
दिया। अब तो बॉलीवुड वालों का स्टिंग ही चलने लगा है, जिसमें आसमानी सितारे कह रहे हैं
कि जो पैसा देगा उसके पक्ष में प्रचार करेंगे। सितारे भी कहते होंगे कि पांच सौ रुपये में जनता भीड़ में तब्दील होने को तैयार है, तब तो हम पहले से ही भीड़ सरीखे ही
हैं!
ये लंपट राजनीति
है जहां लोगों को आपातकाल का डर दिखाया जाता है। आपातकाल भारत का काला अध्याय था यह
सब मानते हैं। किसने किया था सभी को पता है। लेकिन इसकी सज़ा किसको कितनी मिली, यह
पता करने का समय किसीके पास नहीं है! कोई श्रृंगारात्मक लेखक लिख देता है कि उसके बाद वो पार्टी चुनाव बुरे तरीके
से हारी, लोगों ने उन सबको हरा दिया। लेकिन इससे क्या हो गया, कौन सा फर्क पड़ा? आपातकाल के खिलाफ महाआंदोलन चला, महागठबंधन भी हुए। कुछ सुधार हुए होंगे,
लेकिन जिन्होंने ये कारनामा किया उसे किसी कानून ने, किसी संविधान ने, किसी सरकार
ने सज़ा तक नहीं दी!
राजमहल सरीखे
चुनावी रथ, जो आज बहुत ही हाईटेक हो चुके हैं, दिख जाना आम बात है। आन्ध्र में
1982-83 में एनटी रामाराव ने रथ यात्रा वाला चैप्टर शुरू किया, जिसे 1990 में आडवाणी
ने लंबी-चौड़ी कथा बना दिया। आरटीओ द्वारा इन रथों का रजिस्ट्रेशन किया जाना, या नहीं किया जाना, दोनों गंभीर चर्चा का विषय है। लेकिन 2019 तक ये बेसिक ही किसी जगह
बेसिक में नहीं है! ऐसे में इन रथ-कथाओं के खर्चे का हिसाब कौन सा बड़ा मुद्दा बनता इस
देश में। नोटबंदी के दौरान हमने लिखा था कि नोटबंदी सफल हुई है या नहीं हुई है इसके
लिए कोई विशेष अर्थशास्त्र की ज़रूरत है ही नहीं। उन दिनों जितने विधानसभा चुनाव हुए,
उनमें कितने उड़नखटोले आसमान में नेताओं ने उडाए, कितने ताम-झाम हुए सभामंडपों में, यह
नंगी आंखों से देखने के लिए किसी विशेष शास्त्र की ज़रूरत थी ही नहीं।
2014 में चायवाले
नरेन्द्र मोदी 2019 मेंं चौकीदार बन गए और फिर पढ़े-लिखे लोग भी डीपी बदलकर लिखने लगे
कि मैं भी चौकीदार। ठीक है, इतने सारे चौकीदार है तो फिर पुलिस थानों में काम कम
होगा। लेकिन मूल बात तो यह है कि 2014 से पहले गुजरात को ही पता नहीं था कि
नरेन्द्र मोदी चायवाले है!!! एवरेस्ट सरीखे
घोटालों में फंसी कांग्रेस सरकार आज कहती है कि हम देश को आगे ले जाएंगे। अरे भाई...
तो फिर आपकी सरकार थी तब किसने रोका था आपको? हमारे साहब मोदीजी को तो स्वर्गस्थ नेहरू हर चीजों में रोक लेते हैं, आपको कौन
रोक गया था यही बता दीजिए। गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा जीती और इंदिराजी का
पोता आज फिर एक बार गरीबी हटाने की बातें करता है! राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी के
साथ खुल्ली चर्चा करने का बहुत शौक है। अरे भाई... मोदी के साथ चर्चा बाद में कर
लेना, पहले खुल्ली चर्चा करके खुद ही बता दो कि 1972 में गरीबी हटा ही दी थी तो फिर
2019 में दोबारा क्यों हटवा रहे हो??? 2019 में मोदी और शाह 370 हटाने की बात कर रहे हैं। अरे भाई.... आपने 2014 में
हटा ही दी थी यह धारा, फिर दोबारा क्यों हटवा रहे हो???
कई दशकों से
कांग्रेस गरीबी हटा रही है, लेकिन गरीबी है कि राम मंदिर जैसी है! बहुमतवाली सरकार
आएगी तो राम मंदिर बनकर रहेगा। बहुमत का स्वाद 5 साल चखने के बाद कहा कि बहुमत
मिलेगा तो राम मंदिर के लिए हर संभावनाएँ तलाशी जाएगी। शायद पिछले 5 सालों में नेहरूजी
ने रोका होगा! अच्छे दिन तो 2014 में ही आ गए थे, 2019
में नारा होना चाहिए था बहुत अच्छे दिन आने वाले हैं। लेकिन सफर चाय से चौकी तक
पहुंच गया। मनमोहनजी के पास जादू की छड़ी नहीं थी, नरेन्द्र मोदी तो खुद ही जादूगर
है!!! मनमोहनजी के समय पैसे पेड़ पर नहीं उगते थे, नरेन्द्र मोदी
को इसकी चिंता ही नहीं, क्योंकि डिजिटल पैसे पेड़ पर थोड़ी न उगेंगे!!!
आधार और ईवीएम, ये
दोनों ही इस देश में सरकारों के प्रिय है। अगर आप आधार कार्ड या ईवीएम है तो फिर ‘सरकारें’ आपके साथ खड़ी रहेगी, अगर आप नागरिक है
तो आप जंतर-मंतर पर जाए! गृहमंत्रालय तक
सुरक्षित नहीं है, वहीं से रफाल की फाइलें कोई उड़ा ले जाता है। सीबीआई से लेकर बड़े बड़े मंत्रालयों के साइट हैक हो सकते हैं, लेकिन आधार और ईवीएम फिर भी सुरक्षित है! प्रधानमंत्री पर खतरा हो सकता है, लेकिन आधार और ईवीएम पर नहीं! हमारा हर नेता कहता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है, लेकिन योजनाएँ स्मार्ट सिटी की आ जाती हैं!!! क्या पता स्मार्ट
सिटी परमात्मा हो!
हम अक्सर कहते हैं कि भारत गांधी और भगत सिंह का देश है। लेकिन आज के दौर में वही देश चमचों और कड़छों की
भूमि है यह सच कालीन के नीचे डालने में ही हमारी जागरूकता साबित होती होगी। जो लोग
भगत सिंह के नाम के सहारे देशभक्ति की बातें करते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि
भगत सिंह के लिए सिद्धांत बड़े थे, संगठन या व्यक्ति नहीं। सिद्धांत से सोच पाए तो
इसका मतलब समझ ही जाएंगे। गांधी हो या भगतसिंह हो, उन सबमें ‘देशभावना’ थी, जबकि हमारे में ‘द्वेषभावना’ ज्यादा दिखती है।
21वीं सदी के
आधुनिक भारत की जनता इतनी ज्यादा आधुनिक है कि वो इसी चर्चा में व्यस्त रहती है कि
कौन भगवान है और कौन नहीं है। अरे भाई... ऐसी गधापंति छोड़ो और अपने अपने नेताओं को
भगवान मानना छोड़ दो, आधी समस्या तो यूं ही खत्म हो जाएगी। मातृभूमि यही चाहती है
कि यहां कोई भक्त ना हो, बल्कि देशभक्त हो। राजनीति चाहती है कि कोई देशभक्त ना हो,
बस सारे भक्त ही हो! वैसे आज-कल भक्त
नाम का एक फैशन सा हो चला है। अजीब यह है कि दूसरों को भक्त बतानेवाले खुद ही किसी
न किसी के भक्त तो होते ही है!!! मूवी हो या
राजनीति हो, फैन्स प्रजाति कभी कहानी के बारे में नहीं सोचती। और ऐसी जनता राजनीति
के लिए आर्शीवाद समान है। खुद ही सोचिए... आप स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया में बिजी है और उधर कोई दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश कंधों पर ढो कर हमारे बेडरूम के
टीवी स्क्रीन पर आ पहुंचता है। कोई भाषा की राजनीति कर रहा है, लेकिन भाषा
अनिवार्य करने के बजाय भाषा सुधारने की ज़रूरत है यह सच किसीको कैसे दिखेगा?
पहले काला धन
विदेश जाया करता था, अब देश इतना आगे बढ़ चुका है कि धन के साथ साथ आदमी भी जाने
लगा है!!! भारत में कितना कहा जाता है कि काला धन
विदेशों में है और फिर कानून लाकर उन्हीं से पूछा जाता है कि बता दीजिए कितना है!!! कांग्रेस काल में भी काला धन की नौटंकी खूब चली, अब इतना ज्यादा विकास हो चुका
है कि काला धन बहुत ज्यादा काले रंग का होने की वजह से उसे मिस्टर इंडिया घोषित
किया जा चुका है! हमारा मीडिया नेताओं की बाॅडी लैंग्वेज के
ऊपर विशेष विश्लेषण वाला शो चलाता है, उधर आम जनता की डेड बाॅडी गंगा में बहती मिल
जाती है। कहीं दब जाए तो 1 साल बाद भी मिल जाती है! हम इतने महान भारत का निर्माण कर चुके हैं जहां किसी पुल का गिरना बहुत आसान
है, मुश्किल है तो यह जानना कि क्यों गिरा!!! नेताओं से ज्यादा तो लोग दोगले हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि व्यापार नहीं बल्कि लोगों का स्वास्थ्य ज़रूरी है, और वही लोग दो दिनों में कंपनियों को जमकर
व्यापार करवा देते हैं! हम कितनी प्रगति
कर चुके हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे यहां एड में वाहन
कितना मजबूत है यह ठूंसने के लिए गड्ढों को ही दिखाया जाता है!
जो लोग यह मानते
हैं कि भाजपा ही भारत है या कांग्रेस ही इंडिया है, वो लोग इस देश की मूल समस्याओं पर कभी भी संजीदगी से सोच नहीं पाएंगे। सोच भी कहा से पाएंगे, क्योंकि यहां लोग सुबह
अख़बार पढ़कर देश के बुरे हालात पर चिंताएँ व्यक्त करते हैं और फिर दिनभर किसी से अपना
काम करवाने के लिए 10-20 का नोट थमाते रहते हैं!!! हां भाई... 10-20 में कुछ नहीं होता तो
100-200 ही थमाते रहते होंगे!!! किसी सोसायटी के
बाहर दिनभर थक कर मिलने बैठे लोग भी देश को सुधारने की वकालत करते रहते हैं, लेकिन
उसी सोसायटी की समस्याओं पर कभी भी बात नहीं करते। वैसे भारत देश महान है, जो कुछ
समस्या है वो हम भारतीय आवाम में है यह मान लेने में बुराई ही क्या है? आप खुद ही सोच लीजिए। हमारे यहां माता-पिता को सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता
है... और सबसे ज्यादा गालियां इन्हीं पर बोली जाती हैं।
हम दंगों के बारे
में पढ़ते हैं। पढ़ते हैं कि दंगा हो गया। लेकिन समझने को तैयार नहीं है कि दंगे कभी
होते नहीं, बल्कि करवाए जाते हैं। हम खुद इस देश के लिए कुछ नहीं कर पाते, लेकिन पूरी
जिंदगी उन्हीं लोगों को गालियां देते रहते हैं, जिन्होंने देश के लिए कुछ किया था। 1947
से पहले की बात का ज़िक्र इसमें शामिल है, जो अभी अभी आगे लिखा है। खैर, किंतु कोई
हादसा या घोटाला कैसे हुआ ये जानने में हमें बड़ी दिलचस्पी रहती है, लेकिन हुआ ही
क्यों यह हमें पता ही नहीं करना होता। देशभक्ति हम कम ही दिखाते हैं, देशभक्ति से
ज्यादा मानसिक दिवालियापन में ज्यादा यकीन करते होंगे हम शायद।
एक अधूरी और
पुरानी कहानी है कि एक आम आदमी चाहता था कि सभी को ज्यादा पढ़ा-लिखा होना चाहिए, ताकि
रोजाना जो ज्यादती हो रही है उसे रोका जा सके। फिर वो आम आदमी नेता बन गया। अब वो
चाहता है कि किसी को ज्यादा पढ़ना-लिखना नहीं चाहिए, ताकि आम आदमी उनसे लड़ ना सके। इसीलिए तो ईवीएम के एक सबसे बड़े झोल को हम देख नहीं सकते। ईवीएम की आखिरी कहानी तो यही
है कि ईवीएम हैक हो सकता है यह लगभग तमाम राजनीतिक दलों ने कहा हैं, और इन्हीं सब ने
यह भी कहा है कि ईवीएम हैक नहीं हो सकता!!!
जब आज बुरा हो तो
राजनीति हमें बीते कल पर ले जाती है। ऐसे में आनेवाले कल के संवरने की उम्मीदें ना के
बराबर ही होती है। आवाम की जिंदगी तो बस इतनी है कि उसे स्कूल-कॉलेज में भविष्य
संवारने के नाम पर वर्तमान का बजट उलट पुलट करना होता है और अस्पताल में वर्तमान बचाने
के नाम पर भविष्य का बजट उलट पुलट करना होता है।
आपमें से ज्यादातर
लोगों ने कहा होगा कि कोई गरीब चुनाव नहीं लड़ सकता। आपने कहा है, लेकिन ऐसा क्यों है
यह कब सोचना शुरू करना है? वैसे कोई गरीब
अपना न्यूज़ चैनल भी नहीं खोल सकता! यह दोनों चीजें जिस
दलदल के दर्शन कराती है उससे परहेज क्यों? वर्ना सोचिए, एकाध ठिकाने की तलाश में पूरी जिंदगी खत्म हो जाती है हमारी, उधर
नेताओं के पास इतने ठिकाने होते हैं कि किसी को रेड करने में ही जिंदगी खत्म हो जाए!!! जीडीपी से हमारा बीपी कितना ऊपर-नीचे होता है किसीको नहीं पता। यहां बिजली के बिल
का पूरा नॉलेज ना हो ऐसे लोग भी जीएसटी बिल पर विशेषज्ञ बन जाते हैं!!!
हमारे यहां हर
सरकारें दुश्मन देशों को ठिकाने लगाने के जुमले फेंकती है, लेकिन वही सरकारें हमारी
ही जेलों से दुश्मन देशों में हो किए जा रहे संपर्क-व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर पाई
है!!! कोई कहता है कि हम भारत को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचा
देंगे, सरकार जाने के बाद पता चलता है कि यहां तो किसी पुलिस थाने का टेलीफोन भी
ढंग से नहीं चलता!!! देश इतना आधुनिक हो चुका है कि एक जमाने
में नेताओं के पास अपने चमचे हुआ करते थे, आज-कल कड़छे होते हैं!!! देखिए न, कितना कमाल का सिस्टम है। गर्मी का सीजन होता है तब दो राज्य आपस में लड़ते हैं और कहते हैं कि हम आपको पानी नहीं दे सकते। जब मानसून आता है तो वही लड़ते
हुए कहते हैं कि हमारा पानी आप आगे जाने से नहीं रोक सकते!!! यह सब इसलिए चलता है, क्योंकि हमारे यहां नेता जनता को धोखा देते हैं, लेकिन
जनता नेता को नहीं! यहां पीएचडी पास बंदा मैट्रिक पास आदमी
को वोट देकर विश्वगुरु बनने का सपना देखता है!!!
रैली के लिए पेड़ काट दिए जाएं और फिर वहीं से नेता पर्यावरण बचाओ के भाषण दे तब भी चल जाता है, हम
इतने समझदार और जागरूक नागरिक है। वो भारत था, जहां पाप का घड़ा हुआ करता था। यह इंडिया है, यहां पाप के ड्रम होते हैं!!! धर्म और राष्ट्र... इन दोनों के अर्थ तय करने के चक्कर में इन दोनों के होने का
अर्थ ही हम भूल चुके होते हैं। राजनीति के लिए यह वरदान ही तो है। सत्ता के लिए तो
सत्ता ही धर्म होता है, हिंदू-मुसलमान-सिख-ईसाई तो आवाम के बीच होता है।
यहां नियम आपने
तोड़े हैं तो फिर आप गुनहगार है, लेकिन नियम किसी नेता ने तोड़े हैं तो ढेरों नियमों को
दिखाकर समझाया जाता है कि नियम तोड़े नहीं गए हैं! नियम से याद आया कि कमाल का नियम है कि किसी प्राकृतिक आपदा के समय विदेशी सहाय
नहीं ली जा सकती, लेकिन पार्टी फंड के लिए विदेशी राशि मोस्ट वेलकम है!!! चुनावी फंड का फंडा तो धड़ल्ले से चलता रहता है। एक ही उद्योगपति कइयों को
चंदा दे आता है। चंदा होता तो आसमान में है, लेकिन इन राजनीतिक दलों को बहुत काम आता
है। चंदे का हिसाब कोई नहीं देता, लेकिन आसमान में चंदा हर कोई दिखा देता है!
यहां लोग अपने नेता
को शेर मानते हैं। यकीन नहीं होता कि चालाक लोमड़ी जैसे नेताओं को शेर भी कह दिया जाता
है! आतंकवाद को रंगों में बांटने की नीति ही राजनीति है। आतंक का
शिकार बने लोग कहेंगे कि रंग और प्रकार तो नेताओं को दिखाई देता है, हमें तो बस आवाज
आती है... धड़ाम। वो यही कहेंगे कि सरकार आप चुनते होंगे, लेकिन वो हमेशा आपकी नहीं होती। वो तो उन्हींं की होती है जिन्होंने चंदा दिया था।
तमाम राजनीतिक दल
अपने भाषणों में, विचारधारा में या नीतियों में अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन अध्ययन
करेंगे तो पाएंगे कि आर्थिक नीतियों में तो अमूमन सारे एक ही होते हैं। भाई... चंदा
जिसका होगा उसका ही तो आसमान होगा। रही बात जमीन की, जमीन पर रहनेवाले आसमान की तरफ
ही देखते नजर आएंगे। इन राजनेताओं के पास जितनी एकता है उसका थोड़ा सा भी हिस्सा हम
आवाम में नहीं है। वो सारे एकदूसरे के घोटालों को सड़कों पर लाकर सत्ता तक पहुंचते हैं,
लेकिन उन घोटालों में अंतिम फैसला आना अकल्पनीय है। या फिर टूजी की तरह सारे के
सारे बाइज्जत बरी!!! सड़कों पर
चीखनेवाला, चिल्लानेवाला, खुद को आग के हवाले करनेवाला, खून बहानेवाला, खंभे पर
लटक लटक कर भाषण सुननेवाला... ये सारे लोग कौन है? इनमें से कोई नेता का बेटा नहीं होता, कोई उद्योगपति की औलाद नहीं होता। वे सारे
तो विदेश जाकर अपने अपने घरानों को संभालने की नेट प्रैक्टिस में लगे होते हैं।
इन नेताओं की
बयानबाजी का ट्रिक वाकई काबिल-ए-तारीफ है। आपत्तिजनक बयान कोई एक नेता देता है, उसका
अर्थ कोई दूसरा समझाता है और तीसरा आकर कहता है कि बयान का गलत मतलब निकाला गया है!!! राजनीति कमाल की चीज़ है ऐसा मानना ज़रूरी नहीं है, कमाल के साथ साथ माल की भी
चीज़ है!!! नेता अपने आप को बचाने के लिए गरीबी की
ही बातें करता रहता है और मीडिया नेता को बचाने के लिए हमेशा गरीबी की बात नहीं करता... वो तो सास-बहू के शो में भी दिन निकाल
देता है!!!
एक भी राजनीतिक दल
आरटीआई के दायरे में नहीं आता, कोई भी जनलोकपाल को उसके मूल रूप में लागू करने के लिए
फेफड़े नहीं फाड़ता, कोई कालेधन वालों का नाम नहीं बताता। कोई तो बता दे कि ये सारे फिर
अलग कैसे हुए? कौन नहीं जानता कि चुनावी मौसम में पकोड़ा पार्टी से लेकर पार्टी पोर्टेबिलिटी का सीजन कैसे कैसे चल जाता है। आज-कल तो शपथ समारोह भी 100 करोड़ का आंकड़ा छू लेता
है। बताइए, जिस देश में राजनीति के हिसाब से 5 रुपये में भरपेट खाना खाया जा सकता
है, वहीं पर कसम खाने के लिए 100 करोड़!!!
गांव गोद लेने का
तो आज-कल फैशन ही चल पड़ा है। एक ही शख्स या एक ही दल एक ही गांव दो-चार बाद गोद ले
लेता है!!! एकाध गांव की चमक-दमक वाली कहानी दिखाकर
बाकियों की गोद का हिसाब लगाने को बोल दिया जाता है। जनता हिसाब भी लगा लेती है! नेता लोग तो खुल्लम खुल्ला बोल देते हैं कि भाई चार काम हम उनके (विरोधी दलों के) करते हैं, चार काम वो हमारे करते हैं। इधर जनता को लगता है कि कुछ तो काम हुआ,
हमारा न सही उनका!!! तभी तो चुनाव से
पहले जो एकदूसरे के खिलाफ खड़े होते हैं वे चुनाव के बाद एकदूसरे के साथ हो जाते हैं। जनता इसे बैकुंठ उत्थान का प्रयास मानकर मन मना लेती है।
राजनीति कितना भी
बड़ा कुतर्क कर ले, जनता उसे आसानी से पचा लेती है। राजनीति कह दे कि भाई 1991 में बड़ी बेटी पूजा भट्ट की मूवी आई थी सड़क और अब छोटी बेटी आलिया भट्ट की मूवी आई है
हाईवे, हमने आपको सड़क से हाईवे तक तो पहुंचा दिया! तब भी जनता इसे बड़े आराम से पचा लेती है!!! हम जागरूक आवाम है, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति या दुनिया के सबसे बड़े मेले का
गौरव लेते रहेंगे, इलाज की या पढ़ने की ज़रूरत होगी तो विदेश चले जाएंगे! जो नहीं जा पाए उनके लिए राजनीति हर पांच साल के लिए लोकतांत्रिक उत्सव के नाम
पर ऐसे ही ढकोसले लॉन्च करती रहेगी।
राजनीति में ब्रांड बड़े काम की चीज़ है, लेकिन कभी कभी लगता है कि ब्रांड भी बेचारी होती है। टूथपेस्ट वही
होता है, बस डिजाइन बदल जाता है!!! लोगों के लिए भी यही है कि टूथपेस्ट तो वही
रहेगा, हर बार आप मॉडल ही बदलते है। वर्ना इन सबके घोषणापत्र देखे तो अब तक भारत
10-12 अमेरिका जितना आगे बढ़ चुका होता!!! वैसे बात अमेरिका की निकली है तो हमारी
राजनीति अमेरिका - जापान - चीन वगैरह की बातें तो करती ही है, लेकिन अंत तो
पाकिस्तान - हिंदू - मुसलमान - स्मशान - कब्रिस्तान - शराब - सराब पर ही हो जाता है!!!
गौर से देखे तो
यहां किसी एक दल की कामयाबी इतनी सी है कि दूसरे नेता और उनकी सरकारें भी फेल रही
हैं। आवाम जागरूक है या नहीं ये बहस का विषय है, नेता लोग जागरूक है इस पर बहस करने
की ज़रूरत ही नहीं। जागरूक नेता चुनावी मौसम में सोई हुई जनता को जगाकर बताता है कि
देखिए दूसरे नेता और दूसरे दल फेल हुए हैं। मसलन, सारे फेल हुए हैं लेकिन एक बच्चा जो
फेल हो गया है वो यही कहता है कि दूसरे फेल हो गए हैं। वो अपना अंकपत्र किसीको नहीं दिखाता। जागरूक नेता की बात नींद से उठी हुई जनता के दिमाग में ऐसे जाती है, जैसे
दूसरे फेल हुए है यह कहनेवाला बच्चा पास हो गया हो!!! चुनावी मौसम में इतनी ज्यादा जागरूकता दिखाई देती है कि सारे के सारे नतीजे की
बात करते हैं, समस्याओं की नहीं!!!
दरअसल नारों से ही
चुनाव जीता जाता है यह सच है। लेकिन इससे जुड़ा एक दूसरा सच यह भी है कि नारों से ही
राजनीति मुद्दों की हत्या करती है। हमसे चीनी चीजों का बहिष्कार करवाया जाता है और
हम चाइना मेड मोबाइल से ही चीनी चीजों के बहिष्कार का राष्ट्रवाद फैला देते हैं!!! इतनी सहूलियत तो मिलती ही है जनता को। आचार संहिता को देखकर लगता है कि यह
व्यवस्था केवल और केवल नौकरशाहों के लिए ही होती होगी, राजनेताओं के लिए नहीं। राजनीति
अपना नया चैनल खोल सकती है, पहले से चल रहे चैनलों के प्रसिद्ध धारावाहिक में अपने
चुनावी प्रचार के संवाद फिट करवा सकती है, कुछ भी बोल सकती है। इतनी छूट नौकरशाहों को नहीं है, क्योंकि शायद आचार संहिता उन पर ही लागू होती होगी, राजनीति पर नहीं।
वैसे बोल भी दिया
और विवाद हो भी गया तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? चेतावनी देकर छोड़ दिया जाएगा। जैसे कि किसी राज्यपाल ने किसी को सरकार बनाने
का न्योता दे दिया, सरकार बनवा दी और फिर अदालत में ये सब संविधान के खिलाफ निकला तो
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? सरकार गिर जाएगी,
राज्यपाल तो वहीं का वहीं रहेगा!!! संविधान सबके लिए
एक है, बस पालन करवाने के तौर-तरीके अलग है??? वैसे हम जनता को ट्रैफिक सिग्नल नहीं तोड़ना चाहिए, वर्ना बच नहीं पाएंगे। चुनावी आचार संहिता तोड़ने से ज्यादा गंभीर विषय
है सिग्नल तोड़ देना!!!
चुनावी सभा...
इसकी इजाज़त, इसके लिए तयशुदा नियमों का पालन। कौन नहीं जानता कि सारे नियम कुचल कर
रख देती है राजनीति। चुनावी सभाओं का दूसरा विकल्प है रोड शो। इसमें तो पहले से
कुचले गए नियमों को अंडरग्राउंड गटर में डाल दिया जाता है। बाइक रैलियों का नजारा
देखकर लगता है कि सारे कानून और नियम रद्द कर दिए होंगे। आचार संहिता... इतने बड़े नाम आचार संहिता के साथ सामूहिक दुष्कर्म हर दफा होता है, जमकर होता है। बताइए, वे
खुद आचार संहिता का पालन नहीं करते और फिर भी देश को कहते हैं कि हम संविधान का पालन
करने वाली सरकार देंगे!!! जितने भी
प्रत्याशी मैदान में उतारे जाते हैं, बहुत बहुत बहुत ही ज्यादा तादाद में दागी और
क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले होते हैं, फिर भी देश को यकीन होता है कि ये लोग
गुनाहमुक्त समाज का निर्माण करेंगे!!! चुनावी मौसम में पार्टी-पोर्टेबिलिटी जोरों पर होती है। कौन कब किस पार्टी में आएगा और फिर चला जाएगा, बड़े से बड़ा ज्योतिषी बता नहीं सकता। राजनीति में वे लोग एक
दूसरे पर भरोसा नहीं करते और फिर भी देश को यकीन होता है कि यह सरकार भरोसे के लायक
होगी!!! वो कहते हैं कि हम
देश की समस्याओं को सुलझाएंगे, और ऐसा कहनेवाले खुद ही सीटों के बंटवारे में उलझे हुए पाए जाते हैं!!! सोचिए, इसमें
राजनीति की चालाकी ज्यादा काम करती है या फिर आवाम की बेवकूफी???
मतदान करना हर
नागरिक का फर्ज है, लेकिन किसी राजनेता की मुहब्बत में फंसना बेवकूफी ही है। शासक
पूर्णतया प्रामाणिक, नेक और सिद्धांतवादी हो यह नामुमिकन है। लेकिन शासक देश के
प्रति जवाबदेह ज़रूर होना चाहिए, नेक और सिद्धांतवादी तो आवाम को होना होता है। जिस
नजरिए से हम देश को देखते हैं, नेता लोग हमारे देश को उस नजरिये से नहीं देखते। उनके
लिए देश वो देश नहीं होता, जो हमारे लिए होता है। वैसे एक बात समझ लीजिएगा कि चुनाव
प्रचार के दौरान सारे नेता जमकर बोलते हैं, दिलचस्प यह है कि वो तमाम नेता एकदूसरे
के लिए सच ही बोल जाते हैं!!!
(इंडिया इनसाइड,
एम वाला)
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