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Modi’s Trend : पहले गठबंधन सरकारें हुआ करती थी, अब की बार विपक्ष को गठबंधन करके जिंदा रहना पड़ रहा है



नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल को लेकर एक बात कही जा सकती है कि 10 साल तक (2004 से 2014 तक) देश साइलेंट मोड पर था, जबकि इनके दौर में वाइब्रेट मोड पर रहा!!! गज़ब है कि महान कहे जानेवाले राजनीतिक विश्लेषकों के लिए नरेन्द्र मोदी अब भी अनसुलझी पहेली से है। मोदी तो पहले ही कह चुके थे कि अब की बार उन राजनीतिक पंडितों को फिर हारना है। एग्जिट पोल आने के बाद भी बड़े बड़े राजनीतिक विश्लेषक एग्जिट पोल की संभावनाओं को मानने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन अब जब नतीजे ही आ चुके हैं, विश्लेषकों के लिए मामला टेढ़ी खीर से भी ज्यादा टेढ़ा हो चुका है। यूपी, बिहार में मोदी की सुनामी इतने जबरदस्त तरीके से चल सकती है यह वो लोग सोच पाए उससे पहले तो उनके लिए पश्चिम बंगाल का नजरिया बाल नोचने के लिए तैयार खड़ा है। भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहली बार है जब कोई गैर-कांग्रेसी सरकार दोबारा बहुमत के साथ सत्ता में लौटी है।

2014 की मोदी लहर 2019 में मोदी सुनामी में तब्दील हो ही चुकी है। नरेन्द्र मोदी फिर एक बार अजातशत्रु बनकर बाहर आए है। इंदिरा गांधी के बाद भारतीय राजनीति में यह पहला मौका था जब किसी सत्ता के सामने समूचा विपक्ष एक हो चुका था। परंपरागत दुश्मनों ने मोदी सत्ता को रोकने के लिए हाथ मिलाए, लेकिन अब जबकि उनके हाथ वो खोल रहे हैं, पता चला कि हाथ में तो कुछ नहीं आया!!! जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अब नरेन्द्र मोदी। नरेन्द्र मोदी ने इतिहास को तीसरी बार दोहरा दिया है, जहां सत्ता पर होते हुए वे दूसरी बार बहुमत के साथ लौट रहे हैं।

बताइए, मायावती मतगणना की अगली शाम सबको बोल आई थी कि मैं प्रधानमंत्री बनना चाहती हूं। अब सवाल यही है कि वो कहां की प्रधानमंत्री बनेगी???!!! मोदी सत्ता से बिनती थी कि आपने शपथ ग्रहण किया उससे पहले मायावती को डेमो करने देना चाहिए था! कांग्रेस का तुरुप का इक्का प्रियंका गांधी कुछ नहीं कर पाई, जितनी उनसे उम्मीद लगाकर कांग्रेसी समर्थक बैठे थे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो राहुल गांधी के लिए है। जहां भाजपा का नारा था – मोदी है तो मुमकिन है, कांग्रेस को नया नारा मिल गया – राहुल है तो नामुमकिन है! कांग्रेस का प्रदर्शन इतना सुधरा है कि यही लगता है कि कुछ नहीं सुधरा! सबसे पुराना राजनीतिक दल असहाय हो चुका है ये तो सतह पर दिख ही रहा है। कई राज्यों में कांग्रेस को लड्डू मिला है! देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के लिए लगातार दो लोकसभा चुनावों में तीन का आंकड़ा छूने की बात तो दूर है, उल्टा 50 तक पहुंचने में ही उसके फेफड़े फट चुके हैं! यह कोई सामान्य सी बात तो है नहीं। जहां क्षेत्रीय दलों को लोकसभा में 30-40 सीट मिल जाते थे, वहीं कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल 44 पर सिमट गया था। उसके बाद अब की बार भी वो महज 52 पर सिमट चुका है। यह कोई सामान्य सी घटना नहीं है कि भारत के संसदीय इतिहास में वो दौर फिर लौट आया है जब पिछले दो लोकसभाओं से सदन में कोई विपक्ष है ही नहीं!!! किसीको इतनी सीटें मिल ही नहीं रही कि वो विपक्ष के तमगे का जो अलिखित नियम है उसे पूरा कर पाए! पंडित नेहरू ने जो अलिखित परंपरा शुरू की थी, आज उनकी पुश्तें उस परंपरा का खट्टा फल भोग रही हैं।

2014 में लहर में डूबी कांग्रेस भले 8 सीटें ज्यादा ले आई, लेकिन अब की बार लहर की बजाय सुनामी में कांग्रेस का तो 2014 से भी बुरा हाल हुआ है। यूपी जैसे प्रदेश में, जहां सोनिया-राहुल और प्रियंका जैसे चेहरे दम लगाते थे, वहीं पर कांग्रेस के 67 में से 63 उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई!!! बड़े से बड़े चेहरे के हारने की बातें तो छोड़ ही दीजिए, अमेठी जैसी परंपरागत सीट से राहुल गांधी हार गए, जिनके बारे में कुछेक लोग अगले पीएम का सपना देखा करते थे!!! लोगों ने कांग्रेस को कह दिया कि चुनाव क्षेत्र को आप अपनी पुश्तैनी संपत्ति ना माने। समूचे देश में कांग्रेस का हाल देख लीजिए। कौन कौन नहीं हारा यही गणना आसान रहेगी, बजाय इसके कि कौन कौन हारा!!!

अगले दिन मायावती कहती है कि उनकी इच्छा प्रधानमंत्री बनने की है, देवगौड़ा या स्टालिन कहने लगते है कि हमें राहुल गांधी बतौर प्रधानमंत्री मंजूर है। कभी ममता – कभी पवार – कभी कोई और...। लेकिन जनादेश आया तो सारे के सारे भावी प्रधान मंत्रियों के इस्तीफे आने लगे!!! ये गज़ब का चुनाव नतीजा था कि राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी जैसे कदावर राजनेता इस्तीफे देने लगे हैं! इसे लहर नहीं सुनामी ही तो कहना चाहिए। चंद्रबाबू नायडू बुलेट ट्रेन सरीखी तेजी से एक राज्य से दूसरे राज्य, एक नेता से दूसरे नेता तक घूम-घूम कर गठबंधन सरकार का फॉर्मूला तैयार कर रहे थे। समूचा विपक्ष इसी आश में था कि आएंगे, हमारे करन-अर्जुन आएंगे! लेकिन जो जनादेश आया, ना किसी का करन आया और ना ही किसी का अर्जुन... बस मोदी दोबारा आ गए!  
आंध्र, तमिलनाडु और केरल को छोड़ दे तो, कोई भी राज्य हो, विपक्षों को मुंह की खानी पड़ी। नरेन्द्र मोदी द्वारा भारतीय राजनीति के इतिहास में तीसरी दफा यह कारनामा करना, जिसमें सत्ता दल दोबारा बहुमत के साथ लौटे, उस जश्न से बड़ा जश्न पश्चिम बंगाल का है। सोचिए, ममता के सामने कांग्रेस या लेफ्ट, किसकी हिम्मत थी अब तक? सारे बंगाल में हारने के लिए ही तो लड़ते थे। ममता जैसे कदावर नाम के आगे सारे दल लड़ने से पहले ही हार जाने में यकीन रखते थे। मोदी-शाह की जोड़ी ने ममता के घर में घुसकर ममता के किले को ढहाना शुरू कर दिया है। उधर कांग्रेस ने पिछले 2 साल में जो कमाया, उसे अब शायद वो गंवा देंगे। क्योंकि राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्णाटक जैसी जगहों पर कांग्रेस कितने दिन तक सत्ता का स्वाद चख पाएगी, कोई नहीं जानता। इतना जानता है कि बहुत दिनों तक नहीं! पश्चिम बंगाल में ममता जैसे तीखे राजनेता के सामने अपना किला बचाने का जोखिम उठ खड़ा हुआ है।

यूपी, जहां सपा-बसपा ने हाथ मिलाया था, जहां बीजेपी के लिए संभवत: सबसे ज्यादा सीटें गंवाने का जोखिम था, वहीं पर मोदी-शाह ने तमाम को चारों खाने चित्त कर दिया! बंगाल में बीजेपी का प्रदर्शन ममता जैसे सख्त प्रशासक के लिए वज्राघात समान है। बिहार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली...। सोचिए, जहां बीजेपी के खिलाफ सबसे ज्यादा गोलबंदी थी, वहीं पर मोदी-शाह ने चक्रव्यूह को भेद दिया। राजनीति, विशेषत: चुनावी राजनीती में इतनी विराट सफलता का दूसरा कोई उदाहरण फिलहाल तो हो ही नहीं सकता।

हमारे एक भाजपाई और चौकीदार मित्र कहते हैं कि मोदी केदारनाथ गए तो समूचा विपक्ष उनके पीछे पीछे चल पड़ा, विरोध करने के लिए। अरे भाई... मोदी के पीछे गुफाओं में मत जाओ, अमित शाह क्या कर रहे है वो देखो!!! लोग नरेन्द्र मोदी के पीछे चल पड़े, उधर अमित शाह ने सोचा चलो अच्छा है, सारा विपक्ष मोदी के पीछे है, मैं अपना काम आराम से कर लेता हूं। राहुल ने कहा चौकीदार चोर है, लेकिन लोगों ने कह दिया कि चौकीदार प्योर है!!! अब तो राहुल गांधी मोदी से मिलकर शायद उसी गुफा का पता भी ले आएंगे!

अब कांग्रेस समेत जितना भी विपक्ष बचा-खुचा है, सारे ईवीएम पर आक्रमण ही कर देंगे। अरे भाई... आपको ईवीएम से लड़ना है या मोदी से? जिनसे लड़ना है उनसे तो लड़ते नहीं, खामखा एक मशीन के पीछे समय बर्बाद किए जा रहे हो! ईवीएम का संक्षिप्त इतिहास तो इतना सा है कि लगभग तमाम राजनीतिक दलों ने कहा है कि ईवीएम हैक हो सकता है, उन सबने यह भी कहा है कि ईवीएम हैक नहीं हो सकता!!! ईवीएम हैक कैसे हो सकता है इस पर बीजेपी नेता ने तो किताब तक लिख डाली थी। विपक्ष में ऐसा कोई लेखक हो तो लिख डालिएगा! लेकिन ईवीएम पर आंदोलन करने भर से जीत नहीं मिलेगी यह बीते पांच बरस का ताज़ा इतिहास विपक्ष को शायद समझ आ चुका है, लेकिन उनके समर्थकों को नहीं।
वैसे 2019 का जनादेश केवल और केवल मोदी की सुनामी के नाम से ही जाना जाएगा। पसंद हो या ना हो, जो सच है वही सच है। ईवीएम के साथ विपक्ष फाइट करता रहा, उधर मोदी-शाह की जोड़ी विपक्षों को ईवीएम के साथ छोड़कर हमेशा आगे निकलती रही। जो यह मानते हैं कि ईवीएम हैक या टेम्पर हो सकता है उनका भी यही कहना है कि उससे 25-50 सीटों का फर्क पड़ सकता था, लेकिन अकेली बीजेपी का 300 के पार पहुंचना, यह ईवीएम नहीं जनता की पसंदगी है। कुछ लोग अब भी ईवीएम में ग़ड़बड़ी ढूंढ रहे हैं। अरे भाई... हुआ तो हुआ होगा, लेकिन तब आपके नेता क्या कर रहे थे? अभी नरेन्द्र मोदी ने बतौर नये पीएम शपथ लिए कुछ घंटे ही बीते हैं, लेकिन संघ और बीजेपी, दोनों आगे जो विधानसभा चुनाव है उनकी तैयारी कर रहे होंगे, उधर विपक्ष महीनों तक साइलेंट मोड में ही रहेगा।

हमारे हिसाब से 2014 में नरेन्द्र मोदी की जो जीत थी, 2019 की यह जीत उससे भी कई गुना बड़ी है। मोदी ने न केवल राजनीतिक विश्लेषकों को, विपक्ष को, बल्कि घर के लोगों को भी अचंभे में डाल दिया है। संघ के कई बड़े और पुराने लोग कहते थे कि 2019 का चुनाव सबसे मुश्किल दौर का सबसे मुश्किल चुनाव है। मोदी हार सकते हैं यह चिंता संघ में जरूर थी। किसीको इससे इनकार है तो है, उसमें कोई दिक्कत नहीं। लेकिन यह चिंता संघ में थी। बीजेपी और एनडीए के कई नेता गठबंधन सरकार की बातें करने लगे थे। बीजेपी भी नये साथियों के ऊपर डोरे डाल रही थी। मोदी ने अपने ही घर को अचंभे में डाल दिया है। सबसे मुश्किल दौर का सबसे मुश्किल चुनाव इस कदर जीतना, ये अपने आप में राजनीतिक विद्यार्थियों के लिए पीएचडी का विषय है।

नोटबंदी, जीएसटी, गरीबी, बेरोजगारी, संस्थाओं पर एकाधिकार, रफाल, एनपीए, महंगाई समेत तमाम चीजों को लोग भूल जाए और एक चेहरे को ही वोट दे दे, यह विपक्ष के लिए करारी शिकस्त है। राष्ट्रवाद, हिंदुत्व इन सबके मुद्दे चल गए यह कहना सही है। किंतु इस चुनाव में कुछ नहीं चला, बस मोदी चले है!!! सोचिए, जहां कांग्रेस की सरकार बने हुए महज कुछ महीने ही हुए हैं, वहीं पर कांग्रेस मुंह की खा रही है! भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे मौके शायद कम ही मिलेंगे, जहां विघानसभा जीतने के महज कुछ महीनों में कोई पार्टी लोकसभा में मुंह की मार खाकर औंधे मुंह गिर पड़े!

सोचिए, दोपहर तक अपने गढ़ अमेठी में राहुल गांधी स्मृति ईरानी से पीछे चल रहे थे। शाम होते होते अंतर बढ़ता गया। नतीजे आने से पहले राहुल गांधी ने हार स्वीकार कर ली थी। समूचे यूपी में जो घर गांधी परिवार के लिए सुरक्षित था, वहीं पर गांधी परिवार के राजकुमार के फेफड़े फूले हुए थे!!! अगर कोई यह कहे कि लोगों को दूसरे नेता पसंद नहीं आए, तब भी ये दलील आधी-अधूरी सी लगती है। यदि लोगों को दूसरे नेता पसंद नहीं आए होते तब उस स्थिति में इतना भारी अंतर नहीं होता दो दलों के बीच। दरअसल, लोगों को मोदी ही पसंद आए है। ये मान लेना चाहिए कि लोगों को उनकी नीतियां पसंद आए या ना आए, मोदी पसंद आए। हारनेवाले यह कहे कि लोगों ने मोदी को बेनिफिट ऑफ डाउट का लाभ दिया है तब भी यह दलील अप्रांसगिक सी है। अरे भाई... कोई बेनिफिट ऑफ डाउट ऐसे शानदार तरीके से थोड़ी न देता है? पिछली बार से भी ज्यादा ताकतवर बनकर मोदी उभरे है।

अब विशेषज्ञ, जो कुछ दिनों पहले कुछ और कहते थे, आज कुछ दूसरा ही कहने लगेंगे। जो पहले कहते थे कि यह जीत सकता है, वो ये कहेंगे कि जो जीत सकता था वो क्यों हारा! मैंने तो तमाम चुनावों में एक कॉमन सी बात देखी है। वो यह कि नतीजों के बाद सबके ज्ञान और तर्क तुरंत बदल जाते हैं!!!
2014 का वो दौर आज भी याद आता है। लोग इल्ज़ाम लगाते है कि भाजपा ने या फिर नरेन्द्र मोदी ने चीजों को कुछ ऐसे पेश करके मोदी लहर या भाजपा लहर नाम की चीज़ का निर्माण किया था। लोगों के इन इल्जामों को सच भी मान ले तब भी राजनीति में इसका सफल उपयोग करना इतना ज्यादा बुरा भी तो नहीं था। इल्ज़ाम लगाते हुए लोग शायद स्वीकार भी कर जाते थे कि लहर नाम की उस चीज़ का निर्माण जरूर हुआ था। 2014 का वो दौर भाजपा के लिए भी ऐतिहासिक था और विपक्षी पार्टियों के लिए भी। विशेषत: कांग्रेस के लिए!

2014 में भाजपा ने या मोदी ने कमजोर सत्तादल का सामना करके सिंहासन हासिल किया था ऐसा नहीं कहा जा सकता। बल्कि उन्होंने संसाधनों से लैस 130 साल पुरानी और 10 साल से सत्ताधारी कांग्रेस को हराया था। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का 44 सीटों पर सिमट जाना ऐतिहासिक सा मौका भी था। सालों से सत्ता से दूर रही भाजपा का बहुमत के साथ केंद्रीय सत्ता में लौटना भी ऐतिहासिक पल था। शायद ये पल उसके बाद भी नहीं थमा। उसके बाद तो कांग्रेस एक के बाद एक, कई राज्यों में अपनी सत्ता गंवाती रही। सोशल मीडिया पर कांग्रेस पर तंज कसे जाने लगे कि कांग्रेस से ज्यादा जमीन तो अब रॉबर्ट वाड्रा के पास है!

भाजपा लहर या मोदी लहर या सुनामी ने तमाम राजनीतिक पंडितों से लेकर तमाम राजनीतिक दलों को चारों खाने चित्त कर दिया था। उपरांत पिछली यूपीए सरकार की कार्यशैली से अलग कार्यशैली लेकर चल रहे नरेन्द्र मोदी ने खुद को देश के साथ जोड़े भी रखा था। वैसे यहां ये स्पष्ट हो कि जमीनी सच्चाई ये रही है कि तमाम दल चुनावों में या भाषणों में या वादों में जो भी कह ले, या खुद की विचारधारा या नीतियों को दूसरों से जितना भी अलग बता दे, अमूमन आर्थिक नीतियों में तमाम सरकारें लगभग एकसरीखी ही होती हैं। इसी लिहाज से भाजपा का वादों से पलटना, वचनों को तोड़ना, विचारधारा से हटकर काम करना, आर्थिक नीतियों में खुद के स्टैंड बदलकर काम करना, ये सब कुछ हुआ। मतलब कि कार्यशैली अलग उन चीजों में नहीं थी, क्योंकि ये चीजें लगभग तमाम सरकारों में तकरीबन एक सरीखी रहती हैं। लेकिन कार्यशैली किस लिहाज से अलग थी उसकी बातें आगे कर लेते है।

स्टैंड बदलना या वादों से पलटना अमूमन तमाम राजनीतिक दल करते आए हैं। मकसद ये कहना नहीं है कि यह अच्छा है। बल्कि मकसद यह है कि ये सब चीजें सामान्य है यह ज्यादा दुखद है। यह बुरी चीजें हैं और असामान्य ही लगनी चाहिए, सामान्य नहीं। लेकिन स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए कि कोई डेटॉल से नहाया हुआ नहीं है। पार्टी या नेता से मुहब्बत को छोड़ दे तो, एक नागरिक के तौर पर तो यही लगता है कि रेनकोट पहनकर नहाने की कला तमाम नेताओं के पास होती है!!! सीधा कहा जाए तो, सबसे कम खराब चुनना होता है, ना कि सबसे अच्छा! हो सकता है कि वादों या नीतियों से पलट कर काम करने की प्रवृत्ति में मोदी सत्ता ने पुराने इतिहास को ही पलट दिया हो। क्योंकि कई लोग कहते थे और कहते हैं कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने स्टैंड से हटना, वादों को पलटना और नीतियों को उलटना, इन सब चीजों में पिछले काल को भी पीछे छोड़ दिया है। यानी कि शायद वो उन विवादित चीजों को इतनी ऊंचाई पर ले गये थे कि भविष्य में आने वाले सत्तादल के लिए आसान ही होगा। जो सीमाएँ थी उसे पहले लांधा नहीं जाता था, लेकिन इन्होंने उसके पैमाने तोड़ कर उसे बहुत आगे जाकर सेट कर दिया था। ये बात आगे आने वाले सत्तादलों के लिए एक तरीके से या कई तरीकों से आशीर्वाद रूप ही होगी।  
लेकिन नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली पिछली सरकार से आर्थिक तौर पर अलग हो या ना हो, राजनीतिक तौर पर बहुत भिन्न थी। जहां कांग्रेस अमूमन सत्ता प्राप्त करने के बाद शांति से बैठ जाती थी, ये नहीं बैठे। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद भी इनकी राजनीतिक मेहनत कम होती हुई नहीं दिखी। हमने इस कार्यशैली के बारे में एक अलग संस्करण में चर्चा या तारीफ की थी, जिसका टाइटल था “Congress as Opposition : दशकों तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस विपक्ष की कुर्सी की गर्माहट नहीं समझती या फिर कांग्रेस आलसी पार्टी है?”

हर राज्य, हर प्रांत और हर शहर का दौरा इन्होंने किया। तमाम राज्यों के चुनावों में, यहां तक कि कुछेक बार म्युनिसिपल चुनावों में भी इन्होंने माईक संभाला। इसे लेकर इनकी काफी किरकिरी भी हुई। गरिमा या अन्य नजरिये से ये कितना बुरा था या कितना ठीक उसकी चर्चा अलग से हो सकती है, लेकिन जीतने की एक जिजीविषा इन्होंने दिखाई, जो आम तौर पर जीतने वाले दलों में पहले नहीं दिखती थी। जीतने के बाद भी वो बैठे नहीं, बल्कि और ज्यादा जीत उनकी फितरत में रही। 2014 के चुनावों में लोगों ने उन्हें दिल खोलकर वोट दिये थे। कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंच गई थी और भाजपा सबसे अच्छे दौर में। यानी कि लोग नरेन्द्र मोदी से जुड़ गये थे। लेकिन उन्होंने अपनी राजनीतिक चाहत को कमजोर नहीं होने दिया। ये किसी राजनीतिक शख्सियत के लिए अच्छी और प्रभावशाली बात थी। नरेन्द्र मोदी की जादूगरी, मास्टरी या कार्यशैली का ये सबसे बड़ा पहलू ही रहा कि उन्होंने खुद को लोगों के दिलो-दिमाग से एक पल के लिए भी दूर नहीं रखा। इतनी बड़ी जीत के बाद जहां लोग उनसे जुड़ चुके थे, उन्होंने लोगों के दिलों में स्थायी तौर पर रहने के लिए प्रयास तेज कर दिये। मन की बात नाम का प्रयास इसका बड़ा उदाहरण है।

मन की बात नाम के कार्यक्रम को आप कितना भी विश्लेषित करें, लेकिन यह कार्यक्रम या यह प्रयास वाकई सफल राजनीतिक पहलू सा लगता है। अमूमन पिछली सरकारों में प्रधानमंत्री सत्ता संभालने के बाद लोगों में कुछ मौकों पर ही जाता था या चुनावी मौसम के दौरान ही रैलियों में दिखाई देता था। लेकिन नरेन्द्र मोदी मन की बात के जरिये लोगों के दिलो-दिमाग में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाते रहे। रेडियो के जरिये मन की बात कहकर उन्होंने रेडियो और भारतीय लोगों व भारतीय इतिहास का रेडियो के साथ भावनात्मक रिश्तों का दृष्टिकोण भी देखा होगा। साथ में जनजन तक जुड़ने के लिए रेडियो ही बेहतर विकल्प था ये उन्होंने हर तरीके से साबित भी कर दिया। टेलीविजन पर या दूरदर्शन पर भाषण देते तो वो लोग जो घर से दूर हो उनसे वो जुड़ नहीं पाते। शायद उन्हें कॉमन सी चीज़ पता थी कि आजकल किसी के पास उतना वक्त नहीं है कि वो टीवी सेट के साथ चिपके रहे। रेडियो नाम के दूरसंचार यंत्र का, यूं कहे कि पुराने हो चुके इस यंत्र का, 21वीं सदी में उन्होंने सफलतापूर्वक उपयोग किया!

इतना ही नहीं, रेडियो पर मन की बात टेलीविजन पर भी प्रसारित होती रही!!! देश के लिए भी यह एक नया प्रयोग ही था। देश अब तक कहानियों में पढ़ा करता था कि जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर भारत की आजादी की घोषणा की थी। विलुप्त हो चुका रेडियो टेलीविजन पर प्रसारित होने लगा था!!! पिछले 10 सालों से तकरीबन चुप्पी बनाये हुई सरकार और नयी सरकार का नया प्रयोग। लाजमी था कि देश के लिए एक नया अनुभव ही था। रेडियो पर की जा रही मन की बात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी लाइव दिखाई जाने लगी! प्रिंट मीडिया भी सराबोर रहा। खास बात ये रही कि शायद जब जब पीएम को लगा कि मन की बात से लोग ऊब जाने लगे हैं, उन्होंने रेडियो से कुछ ऐसे मुद्दें छेड़ दिये, जिसका मीडिया को ज़िक्र करना पड़ता, या फिर करवाया जाता। रेडियो से बोलकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हैंडल करके लोगों के दिलों में छा जाना... ये वाकई किसी राजनीतिक शख्सियत की मास्टरी ही कही जा सकती है। मन की बात कार्यक्रम को लेकर यह भी आरोप लगे कि उनकी (पीएम मोदी की) यह रणनीति स्वयं को बार-बार या लगातार लोगों के सामने पेश करते रहना और इमेज बिल्ड करते रहना, इसी से जुड़ा हुआ सोचा-समझा प्रयास है। कहा तो यह भी गया कि मन की बात उस धारणा को स्थापित करता है जिसमें कहा गया था कि मोदी केवल अपनी बात को ही मान्यता देते हैं और अपनी ही मान्यताओं को स्थापित करने के प्रयास करते हैं और इसीलिए मन की बात उनके लिए आदर्श जगह है, जहां उन्हें सिर्फ बोलना और सुनाना ही है, दूसरों की सुनना या किसी सवाल का सामना करके जवाब देना जैसा कुछ करना नहीं होता है।
नरेन्द्र मोदी सिर्फ रेडियो पर ही नहीं बोले, वो हर सेमिनार से बोले, हर राज्य से, हर शहर से, हर चुनावी सभाओं से, हर कार्यक्रमों से और हर मंच से बोलते गए। मनमोहन का चुप रहना और नरेन्द्र मोदी का बोलना। फर्क यह रहा कि देश जब हर सुबह जगता या जब हर रात सोता, नरेन्द्र मोदी की बातें मीडिया में कहीं न कहीं आ रही होती। इन्होंने एक दिन के लिए भी खुद को खबरों से दूर नहीं रखा। मन की बात में कई बार गलत आंकड़े पेश करने पर उनकी किरकिरी भी हुई। पर... वो बोलते रहे, जमकर बोलते रहे, गाहे बगाहे बोलते रहे, अच्छा बोलते रहे, बुरा बोलते रहे, विवादित बोलते रहे, लेकिन बोलते रहे। मशखरे अंदाज में कहा जाने लगा कि पहले एक प्रधानमंत्री थे जो बोलते नहीं थे और एक आज है जो किसी की सुनते नहीं है!!!

साथ में देश को या मीडिया को चौंकाने की उनकी आदत भी पिछली सरकारों की तुलना में बिल्कुल जुदा और सफल सी भी थी। जहां पिछली सरकारों के दौर में लोगों को या मीडिया को यकीन रहता था कि शायद ये होगा या ये नहीं होगा या फिर कुछ दिन तक तो ये नहीं होगा... नरेन्द्र मोदी के दौर में कब क्या होगा यही तय नहीं था!!! इन्होंने लोगों को और मीडिया को सदैव चौंकाना जारी रखा। मुझे याद है कि मनमोहन काल में लोग सुबह नेट पर न्यूज़ पढ़ते और फिर शायद शाम को या फिर दूसरे दिन सुबह पढ़ते। क्योंकि उन्हें मालुम था कि देश में या सरकार में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया होगा! लेकिन नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के दौरान मैंने देखा कि कई लोग दिन में अनेकों बार नेट पर न्यूज़ को खंगालते रहे। क्योंकि कब क्या होगा यही पता नहीं होता था!!! इनकी चौंकाने वाली कार्यशैली जुदा थी और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली भी मानी जानी चाहिए। अन्य नजरिए से बुरी थी या बुरी नहीं थी यह चर्चा का विषय है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी रैलियों में एकाध लाइन, भले वो विवादित हो, छोड़ ही जाते। फिर वो देखते कि इसका आम लोगों पर मनचाहा या फायदेमंद प्रभाव हो रहा है या नहीं। अगर हां, तो वो इसे मुद्दा बना देते और गर नहीं, तो फिर इसे वे छोड़ देते!

सीधा कहे तो, यूपीए के दौर में लगता था कि कोई इस देश का पीएम है, जबकि भाजपा के दौर में लगा कि नरेन्द्र मोदी इस देश के पीएम है! समझने वाले आसानी से इस कथन को समझ सकते हैं। मोदी ने खुद को लोगों के दिलो-दिमाग में, अधिकारियों-नौकरशाहों के दिमाग में, राज्यों के दिमाग में, मीडिया के दिमाग में फिट करके रखा था और हर दिन या हर पल वो ऐसा कुछ कह जाते या कर जाते, जिससे लोगों को दिन में अनेकों बार देखना पड़ता कि क्यां और क्यों हो रहा है। पहले तो यकीन जैसा था कि कुछ नहीं हो रहा।

यह भी शायद दशकों के बाद हो रहा था कि जिन राज्यों में चुनाव होते, मोदी के नाम को रोकने के लिए कई सारे विपक्षी दल इक्ठ्ठा हो जाते। ये विपक्षी दलों का हक था, लिहाजा बुरा नहीं है। सत्ता हेतु भाजपा भी 2014 के बाद कई विवादित पार्टियों के साथ गठबंधन कर चुकी है। लेकिन दशकों के बाद इसलिए लिखा, क्योंकि मोदी के नाम को रोकने के लिए एकदूसरे के घोर विरोधियों को इक्ठ्ठा होना पड़ रहा था। ऐसा तो इंदिरा के जमाने में पढ़ा या सुना है। यानी कि मोदी नाम में वो जादू या राजनीतिक काबिलियत जरूर थी, जिसके चलते दुश्मन दोस्त हो रहे थे। लेकिन शायद खुद को सत्ता के केंद्र में रखने की चाह में मोदी स्वयं ही हर चुनावी दौर में रैलियां करने जाने लगे थे। भाजपा के पास जो अन्य मजबूत और जाने माने चेहरे थे वो जैसे कि जानबूझकर साइडलाइन कर दिये जाने लगे। हर रैली या हर भाषण का केंद्र मोदी ही रहते। जिससे हुआ यह कि जो आक्रामक बातें या जो विवादित चीजें एक प्रधानमंत्री को नहीं कहनी चाहिए थी, वो भी उन्हें कहनी पड़ी। इससे उनके पद और गरिमा पर सवाल उठने लगे। अगर दूसरे मंत्री ये चीजें कह देते तो विवाद नहीं होते।
लेकिन मोदी एक मझे हुए राजनीतिज्ञ थे। उन्हें शायद पता होगा कि किन चीजों से विवाद होगा और फिर क्या करना है। यूं कहे कि नरेन्द्र मोदी हर सफलताएँ या हर विवादों में खुद को ही केंद्र में रखने लगे थे। बीजेपी का मतलब नरेन्द्र मोदी हो चुका था। संघ जैसे विशाल संगठन से भी नरेन्द्र मोदी की शख्सियत विराट हो चुकी थी। संगठन या पार्टी से भी बड़ा चेहरा शायद वो खुद ही बन गए थे। जो अब भी इसी भ्रम में जिंदा है कि पार्टी या संगठन ही बड़ा था, व्यक्ति नहीं, उन्हें समझाया नहीं जा सकता। लेकिन स्थितियां यही बनी कि बीजेपी और साथी दलों के बड़े नेताओं को कई दफा कहना पड़ गया कि यह बीजेपी की सरकार है, किसी व्यक्ति की नहीं।

हर छोटीमोटी चीजों को बड़े ताम-झाम के साथ करने की उनकी शैली ने उन्हें खबरों में भी रखा और लोगों के दिमागों में भी। स्वच्छ भारत अभियान हो, मेक इन इंडिया हो, मेड इन इंडिया हो या कोई भी सामाजिक या सांस्कृतिक चीजें हो, उसे उन्होंने बड़े खूबसूरत राजनीतिक अंदाज में पेश किया और उन तमाम चीजों से खुद को जोड़े रखा। उनकी आर्थिक नीतियां हो, जो यूपीए काल की योजनाएँ थी, उन्होंने लागू किये रखा और हर चीज़ के साथ खुद को जोड़कर उसको प्रभावी ढंग से पेश करते गए। आधार कार्ड से लेकर जीएसटी हो या एफडीआई हो, विवादित गठबंधन हो या अन्य स्थापित विचारों से हटकर काम करना हो, उन्होंने 2014 के पहले के अपने स्थायी स्टैंड से हटकर काम किया। लेकिन कमजोर हो चुके विपक्षी दल, खुद की लोकप्रियता और लोगों के साथ जुड़ने की शैली, इन तीनों का उन्होंने बखूबी फायदा उठाया। आर्थिक नीतियां हो, उद्योग संबंधित चीजें हो या कोई भी पहलू हो, वो इसे शांति से नहीं बल्कि ताम-झाम से लोगों के सामने रखते! उन्होंने अपने स्टैंड से हटकर काम किया, उन्होंने वादों को भुला कर काम किया, मेनिफेस्टो को कई बार ताक पर रखा, कई बार मेनिफेस्टो को थामा, कभी अपनों को कुछ कहा, कभी विरोधियों को, लेकिन उन्होंने हमेशा खुद को केंद्र में रखा। जिससे समर्थक व विरोधी, दोनों के दिलो-दिमाग में वे स्थायी रूप से अंकित हो गए।

वैसे नरेन्द्र मोदी के बारे में एक चीज़ कही जा सकती है कि वे खुद को कुएं में कैद नहीं रखते। उन्होंने अपनी पार्टी या अपने संगठन संघ का जो निश्चित या पारंपरिक दायरा है उसे तोड़कर भी काम किया। गांधी को पूजा, गांधी को नमन किया, भारत को गांधी का देश कहा, विदेशियों को गांधी आश्रम ले गए, स्वच्छता अभियान में गांधी का नाम जोड़ा। ये तो केवल एक ही उदाहरण है, लेकिन गांधी समेत कई सारे मुद्दों पर उन्होंने पार्टी या संगठन की जो प्रस्थापित नीतियां या विचारधारा थी उसे तोड़कर भी काम किया। गोरक्षकों को भी बुरा कहा, गोरक्षकों में गुंडागर्दी का प्रतिशत भी कह दिया, धर्म-जाति या अन्य ऐसे ढेरों विषय थे, जिस पर मोदी ने बेखौफ होकर प्रस्थापित विचारधारा से विपरीत बयान दिए। इजरायल जैसे मुद्दों पर अपनों की नाराजगी भी मोड़ ली। शायद उन्हें पता था कि समूचे देश में और देश की सरहदों के बाहर एक अलग विचारधारा या दायरा है जिसमें उन्हें पैठ जमानी होगी। उन्होंने सीमाओं को तो़ड़कर काम करने में कोई शर्म नहीं दिखाई।

अमूमन होता यह है कि जिन समस्याओं को पिछली सरकार छोड़ कर गई हो, उन समस्याओं को हल किया या नहीं किया इन सवालों के उत्तर नयी सरकारों के लिए सिरदर्द से होते हैं। लेकिन इन्होंने पूर्व सरकारों के गुनाह नयी सरकारों के लिए आशीर्वाद बन जाते हैं वाले राजनीतिक सत्य का जमकर इस्तेमाल भी किये रखा!!! उनकी सरकार के दौरान कई चीजें अच्छी भी हुई, कई बुरी भी हुई। कितनी अच्छी हुई, कितनी बुरी ये एक अलग विषय है, लेकिन उनकी लोकप्रियता, उनकी शैली और विपक्षों की कमजोरी, इन तीनों ने उनकी सरकार को सीना तन के चलने के लिए मौके दिए।
लेकिन पता नहीं क्यों, इनकी लहर या सुनामी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के आगे और बिहार में लालू और नीतिश के आगे नहीं चल पाई। दूसरे राज्यों में भी भाजपा को उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी मोदी लहर से उन्हें उम्मीद थी। दिल्ली में और बिहार में भाजपा ने करारी हार का सामना किया। उसके बाद महीने बदलते रहे, तारीखें बदलती रही। विकास से बात कभी बीफ और मीट पर जाती, कभी बच्चे पैदा करने पर जाती, तो कभी कार्यशैली फिर से पटरी पर लौट आती। विदेश यात्राएं, विदेशी संबंध, अतंरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य या आर्थिक सुधार और विकास पर सरकार लौट आती। लेकिन पता नहीं क्यों, फिर बात पटरी से उतर जाती। मनमोहन सरकार जिन समस्याओं को छोड़कर गई थी वही समस्याएँ सिर उठा रही थी। विकास से बात कभी कहीं जाती, तो फिर घूम फिर के विकास पर लौट आती। पठानकोट और उरी हमलों के बाद सरकार की काफी किरकिरी हुई और सवाल उठने लगे। लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक ने विरोधियों के मुंह बंद कर दिए।

हालांकि विरोधियों के मुंह बंद ही रहते, लेकिन सरकार की ही गलतियों ने विरोधियों के मुंह खोल दिए। सर्जिकल स्ट्राइक को मास्टर स्ट्रोक और आजाद हिन्दुस्तान का इकलौता इतिहास बताने के चक्कर में, यूं कहे कि बढ़ चढ़ कर किये गये दावों ने सरकार की ही किरकिरी करवाई। कभी विरोधी दल हावी हुए, तो कभी सत्ता दल। लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक का जमकर सरकार और विपक्ष, दोनों ने मिलकर राजनीतिकरण किया। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद जिस तरह के फायदे देश को मिलने चाहिए थे, चाहे वो कूटनीतिक हो या अन्य चीजें हो, उसमें सफलता नहीं मिली। सरकार फिर एक बार सवालों के घेरे में आ गई। सर्जिकल स्ट्राइक के मुखिया हुड्डा ने ही सत्ता पर राजनीति के अतिरेक के सवाल उठा दिए। हालांकि इस सैन्य अभियान को मोदी सत्ता ने सदैव अपने ख़ाके में अग्रीम रखा।

लेकिन अचानक ही नोटबंदी के फैसले ने फिर एक बार सरकार को सीना चौड़ा करने का मौका दिया। मोरारजी सरकार के बाद ये आजाद हिंदुस्तान में दूसरा मौका था। सरकार के पास अच्छा मौका था कि वो दूसरे सवालों को छोड़कर अपने इस फैसले के जरिये अपने प्रशासन को उज्जवला योजना के तहत उज्जवलित कर पाए। लेकिन यहां भी अतिउत्साह में किये गए दावे, बढ़ चढ़ कर दिखाये गए सपने और कमजोर तैयारियों ने सरकार को फिर एक बार विवादों में लाकर खड़ा कर दिया। विपक्षों के हाथ में नोटबंदी बड़ा मुद्दा था। विपक्षों ने सरकार को जमकर घेरा और संसद से लेकर सड़क तक देश को हो रही परेशानियों के ऊपर राजनीति होती रही। लेकिन जो आदमी दूसरी सरकारों द्वारा लागू की गई योजना को अपने ख़ाके में बताने से पीछे ना हटता हो, वो अपनी ही सरकार के इतने बड़े फैसले को ऐसे कैसे छोड़ देता!!! नोटबंदी से देश को क्या क्या मिला वो तो नहीं पता, लेकिन इन्होंने क्या क्या मिल सकता है उसकी उम्मीदों वाले भाषण कभी नहीं छोड़े!!! नोटबंदी का सही विश्लेषण करने का मौका इन्होंने ना ही लोगों को दिया और ना ही कमजोर हो चुके विपक्ष को!!! महीने बीतते गए और नोटबंदी बेतुफा फैसला साबित होता गया। हालात यह बने कि 2019 के लोकसभा चुनाव में, जो शायद अब तक का सबसे लंबा चुनाव था, मोदी सत्ता के मुंह से नोटबंदी लफ्ज़ एक बार भी नहीं निकला!!!
कभी कभी लगा कि हर दिन लोगों के या देश के दिलो-दिमाग पर छाने की काबिलियत रखने वाले नरेन्द्र मोदी में कुछ ऐतिहासिक फैसलों के बाद स्थिति को अपनी और मोड़ने की काबिलियत नहीं है क्या। यानी कि वो खुद जिन चीजों को करते, उसीका फायदा वो उठा नहीं पा रहे थे। इसके पीछे वजह शायद वो खुद थे। जिन भाषणों के जरिये नरेन्द्र मोदी देश के सामने उभरे थे और राष्ट्रीय पहचान बनाई थी, उन्हीं भाषणों ने उनकी किरकिरी करवाना शुरू कर दिया था। एक विपक्षी नेता के तौर पर उन्होंने जिस तरह से आक्रामक भाषण दिए थे और जिस तरीके से बिना बंधन बयान दिए थे, उसी लहजे को उन्होंने जारी रखा। किसी देश के प्रधानमंत्री द्वारा उसी प्रकार भाषण दिए जाना लोगों को नागवार भी गुजर रहा था।

भावुक होना या कभी कभार रो देना उनके साथ जुड़ी हुई खबर बनी रही। समर्थकों ने इसे भावुकता माना तो विरोधियों ने स्टंट। लेकिन भारत के लोकतंत्र में उसका प्रधानमंत्री सरेआम रोता रहे, यह बात तो वाकई नया अनुभव था!!जज नियुक्ति से लेकर गंगा सफाई तक, पाकिस्तान नीति से लेकर विदेशों में भारत की पूर्व सरकारों के खिलाफ भाषण तक या फिर स्वच्छता अभियान जैसे प्रशंसनीय प्रयास, बेकार कानूनों के खात्मे से लेकर अन्य कुछेक अच्छे प्रयासों तक, हर धूप या छांव से सरकार गुजरती रही। देशप्रेम, राष्ट्रवाद और तिरंगा शायद इनकी सरकार से जुड़े लोगों का बड़ा हथियार बना रहा। भारत माता की जय, वंदे मातरम्, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस और टीपू सुल्तान या अन्य ऐतिहासिक पात्र जैसे विषय आते-जाते रहे। ये उनका अच्छा राजनीतिक पहलू ही माना जाना चाहिए कि हर विवाद या हर बदले बदले अंदाज को उन्होंने बखूबी हैंडल किये रखा। कहा जा सकता है कि उन्होंने सफलतापूर्वक अपने स्टैंड को संपुर्ण रूप से बदल कर काम किया!!!

विकास की बातें करते करते वो खुद स्मशान-कब्रिस्तान तक पहुंच गए!!! ईद वाली बिजली और दिवाली वाली बिजली का बतौर प्रधानमंत्री उनके द्वारा दिया गया भाषण उनकी गरिमा को काफी चोट पहुंचा गया। गधे, बिजली, तार, स्मशान, कब्रिस्तान, धर्म, जाति में उनके भाषण फंसते रहे। मुझे लात मार कर भगा देना, मुझे गोली मार देना, मुझे मारे जैसे भाषण भी विवादित बने रहे। विकास के नाम पर शुरू हुआ उनका सफर न जाने कौन कौन सी सड़कों पर घूमता रहा। बतौर पीएम उन्हें जिस संयमित भाषा का उपयोग करना था, उन्होंने नहीं किया। बतौर पीएम उन्हें जिस तरह की ठोस बातें करनी चाहिए थी, उन्होंने नहीं की। बतौर पीएम उन्हें जिन जिम्मेवारियों के साथ बयान देने चाहिए थे, उन्होंने नहीं दिए। उनके भाषणों में आंकड़ों पर, हकीकतों पर और इल्जामों पर भी आसानी से सवाल उठते रहे। लगा कि बिना होमवर्क किये कोई नेता भाषण करे वो ठीक है, लेकिन पीएम के बयानों पर इतनी आसानी से सवाल तब ही उठ सकते हैं जब उन्होंने बिना जांचे या परखे चीजें कह दी हो।

हालात यह बने कि जो सितारा 2014 में आश बनकर आया था, 2019 तक वो हर चुनाव में अपनी जाति बदलता रहा!!! कभी पिछड़ा, कभी अति पिछड़ा, कभी पठान, कभी गरीब, कभी चायवाला, कभी चौकीदार, कभी फकीर, कभी ये-कभी वो!!! नेहरू-सरदार की गाथा उनके मुंह से निकलना सामान्य सी बात हो चुकी थी। अंत में इन्होंने राजीव अध्याय भी लोगों को सुना दिया! विकास के नाम पर चुनकर आए पीएम मोदी ने विकास की बातें नहीं की, बल्कि अपना सारा समय कांग्रेस, नेहरू, इंदिरा, राजीव को गालियां देने में ही बिता दिया!!! मोदी सत्ता बन चुके थे, लेकिन विपक्षी अंदाज को छोड़ने को तैयार नहीं थे।
अतीत के सवाल, अतीत का हिंदुस्तान, कमजोर तर्क, गलत आंकड़े, कमजोर तथ्य, इनके भाषणों में यह सब कुछेक बार होता तो ठीक था, लेकिन मोदी भाषण की पहचान ही यही बनती जा रही थी! एक वक्त यह भी आया, जब भी पीएम का भाषण होता, सबको पता होता कि क्या बोला जाएगा!!! विपक्ष ने ये किया था, विपक्ष ने वो किया था, वो मुझे बुरा बोलता है, वो मुझे जान से मारना चाहता है!!! फांसी पर लटका देना, लात मारकर भगा देना, उसे नहीं मुझे मारो, मेरी मां बर्तन मांजती थी, मैंने हिमालय पर तपस्या की, पैंतीस साल तक मैंने भीख मांगी, मैं लाइब्रेरी जाकर किताबें पढ़ता था, मैं भारत में घूमा और भारत को जाना, मेरा यहां से रिश्ता है, वहां से रिश्ता है!!! लोग संघ और बीजेपी के चाहने वालों पर तंज कसने लगे कि पैंतीस साल तक भीख मांगनेवाला आदमी लाइब्रेरी में जाकर किताबें पढ़ता हो ये तो पहली बार देख रहे हैं। राजनीति का स्तर गिरता रहता है, लेकिन इसमें पीएम सरीखे आदमी को हिस्सेदार नहीं होना चाहिए यह बात सत्ता को कोई शायद पसंद नहीं आ रही थी! किसी और से जो चीजें बुलवा सकते थे, पीएम खुद ही बोलते रहे।

लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान इन्होंने मनपसंद मीडिया हाउस को इंटरव्यू देने का पैंतरा भी आजमा लियालेकिन सवाल तो है कि मोदी जैसा नेता ईमेल-डिजिटल कैमरा-बादल और रडार जैसी विवादास्पद बातें क्यों कर गया? उनके इंटरव्यू में इन्होंने मनपसंद मीडिया हाउस को इंटरव्यू दिया, सवाल सेट थे ये सारी चीजें होनी थी, लेकिन उससे भी ज्यादा सुर्खियां उनके जवाबों ने बटौरी। पांच साल तक बिना तथ्यों की बात करनेवाले पीएम के रूप में मशहूर मोदी ऐसा क्यों कर रहे थे यह तो नहीं पता। ईमेल, डिजिटल कैमेरा, बादल और रडार जैसे उनके जवाबों ने उन्हें पीएम कम बल्कि एक मनोरंजक के रूप में ज्यादा पेश किया था। अक्षय कुमार जैसे अभिनेता को प्रयोजित और प्रि-रिकॉर्डेड इंटरव्यू देकर मोदी मीडिया के जरिए प्रचार करना चाहते थे इसमें कोई शक नहीं। लेकिन मोदी आम कैसे खाते है यह विपक्ष को रास आए न आए, लोगों को रास आ गया। लोगों को जो जवाब चाहिए थे, उसके जवाब आम से मिल गए लोगों को!!! मोदी जीते है, लेकिन कहने में कोई गुरेज नहीं कि ऐसी-ऐसी हास्यास्पद प्रवृत्तियां अंत समय में हुई, वो प्रसिद्ध कथन सच लगने लगा जिसमें किसी महापुरुष ने कहा था कि लोग तब तक आपको अपमानित नहीं कर सकते, जब तक आप खुद ना चाहे। पैंतीस साल तक भीख मांगकर कोई डिजिटल कैमरा खरीद सकता हो, बिना तकनीक के ईमेल कर सकता हो, लाइब्रेरी में किताबें पढ़ता हो, तब तो वो दिन ही अच्छे दिन हो सकते थे!!! लेकिन लोगों ने कहा कि हमें तो इससे भी अच्छे दिन चाहिए।

कभी कभी लगा कि मोदी सत्ता के विभाजनकारी चेहरे को ही मोदी सत्ता सबसे बड़ा सम्मान मानती हो। गोधरा कांड पर उन्होंने कभी माफी नहीं मांगी ये कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन ध्यान से देखिए तो गोघरा कांड को वो और उनके समर्थक किसी मेडल की भांति गले में डालकर घूमते दिखाई दिए। कुछ संवेदनशील मुद्दों पर पीएम सरीखे आदमी ने दो-तीन बार तो यह तक बोल दिया कि वो पुरस्कार वापसी गैंग कहा है। यहां हम पुरस्कार वापसी वाले मुद्दे को नहीं पकड़ रहे, बल्कि आलोचना या विरोध करनेवालों को सत्ता सरेआम 'गैंग' जैसे अपमानजनक शब्द बोल रही थी!!! पीएम मोदी और उनकी सत्ता ने एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया जहां लगने लगा कि या तो आप हमारे साथ हैं या आप हमारे खिलाफ। सरकार की आलोचना तक राष्ट्रद्रोह या सत्ता से द्रोह करार दिया जाने लगा! पीएम का पुरस्कार वापसी गैंग कहा है वाला बयान इशारा करने लगा कि सत्ता अपने विभाजनकारी चेहरे को सम्मान मानती है! 2019 आते आते मीडिया पर सरकार का पूरा नियंत्रण हो चुका था और अब मीडिया, जिसे अरसे से बिकाऊ मीडिया का खिताब मिला हुआ है, वही मीडिया अब गोदी मीडिया या मोदी मीडिया के नाम से जाना जाने लगा। 
वैसे इस दौर में भाषा की शालीनता तमाम नेता और तमाम पार्टियां तोड़ रही थी, लेकिन लगा कि इसकी अगुवाई पीएम ही कर रहे हो! नेताओं के बिगड़े बोल की गाथा अरसे पुरानी है। नेताओं के बिगड़े बोल के बारे में हमने एक अलग संस्करण लिखा हुआ है, जिसमें आप को तमाम पार्टियों के महानुभाव मिल जाएंगे। लेकिन किसी प्रधानमंत्री के मुंह से निकली बातें दूसरे नेताओं या विपक्षों से भी ज्यादा मायने रखती आई हैं। जिन भाषणों के लिए मोदी देश में जाने गए थे, उन्हीं भाषणों ने उनकी छवि अब थोड़ी सी धूमिल भी कर दी थी।

अभी जब 2019 की मतगणना हो रही थी, बीजेपी फिर एक बार वापसी कर रही थी, गिरिराज सिंह जैसा नेता फिर एक बार बोला कि टूकड़े-टूकड़े गैंग हार गया। उत्साह में कोई लिखने लगा कि हिंदुस्तान जीता, पाकिस्तान हारा। क्या पता कल मोदी या शाह भी कुछ कुछ ऐसा ही कह दे। लोकतंत्र में मोदी सत्ता का यह रवैया आलोचना के लायक है। नफ़रत की यह राजनीति, जनादेश तो नहीं हो सकता। लेकिन अभी तो इसका कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि लोगों ने उन्हें पिछली बार से ज्यादा वोट देकर चुना है। आतंकवाद और हेमंत करकरे जैसे विवादों से जुड़ी रही साध्वी को लोगों ने जीता दिया है! अब की बार विकास या नीतियों की बात बीजेपी या मोदी ने की ही नहीं थी! हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, आतंकवाद, धर्म और पिछली सरकारों की बुराई... इन्हीं मुददों पर चुनाव इन्होंने लड़ा! लड़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जीता। पिछली बार जब मोदी बहुमत के साथ आए थे तब कहा गया था कि मुसलमानों ने भी उन्हें वोट दिया था। अब की बार फिर मोदी सरकार है। पिछली बार से भी ज्यादा ताकत के साथ। तो फिर मान लेना चाहिए कि फिर एक बार मुसलमानों ने मोदी पर भरोसा जताया है। चुनाव प्रचार जिन मुद्दों पर हुआ तथा जितना विशाल वोट बैंक इन्हें मिला, जहां जाति और धर्म के दायरे फिर टूटे, विशेषज्ञों के लिए पहले से अबूझ पहेली समान मोदी और बड़ी अबूझ पहेली बन गये होंगे।

वैसे पिछले एकाध दशक से मनमोहन पीएम रहे थे, जो कम बोलने के आदि थे। चुनावी प्रचार में उनको बोलते हुए देखना कभी कभार की घटना होती थी। जबकि नरेन्द्र मोदी संसद में कम बोलते, जबकि चुनावी रैलियों में वो कुछ भी नहीं छोड़ते!!! संसदीय डाटा ही बताता था कि पहले 2 साल को देखा जाए तो मनमोहन संसद में ज्यादा बोले थे और बोलने के आदि नरेन्द्र मोदी संसद में बोलने में उनसे पीछे रहे!!! लेकिन चुनावी सभाएँ या समारंभों में वो धड़ल्ले से बोलते थे। लेकिन अजीब यह था कि अपने भाषणों में वो ज्यादातर वक्त विरोधियों को कोसने में निकाल देते, फिर जो वक्त बचता उसमें से थोड़ा वादों में और बचा खुचा वक्त अपनी सरकार द्वारा किये गए कार्यों के ऊपर खर्च होता। कुछ विधानसभा चुनाव तो ऐसे भी रहे, जहां उन्होंने बचा खुचा वक्त अपने कार्यों पर नहीं, बल्कि लोगों को उम्मीदें देने में ही खर्च किया था!!! लोकसभा चुनाव में तो ये न के बराबर था!
इसके अलावा जिस कार्यशैली से वो तथा उनकी सरकार खबरों में छाये रहने में सफल रहती, उसी कार्यशैली का एक बदनुमा हिस्सा था उनके मंत्रियों की भाषा, बयान या विवाद। आप कह सकते हैं कि ये तो हर पार्टियां करती हैं। लेकिन हमें ये समझना ही होगा कि जो दल सत्ता में हो उसके द्वारा कही गई बातें ज्यादा मायने रखती होती हैं। विपक्ष तो अनियंत्रित ही होता है, स्वयं भाजपा खुद ही तो उस दौर में ऐसी ही थी। लेकिन सत्ता संभाल रहे दल को कई चीजों का ध्यान रखना होता है। सार्वजनिक तौर पर सरकारों को सहिष्णु, मर्यादित, शालीन और जिम्मेवार होना पड़ता है। विरोधियों को जवाब छोटे-मोटे नेताओं के द्वारा दिलवाए जाते हैं, लेकिन नियंत्रित तौर पर। लेकिन इनके नेता या मंत्री अनियंत्रित तौर-तरीकों से खबरों में ज्यादा रहने लगे थे। विकास के नाम पर देश ने जिन्हें सत्ता पर बिठाया था, उसी सरकार के नेता या कुछेक मंत्री देश को ऐसे ऐसे रास्ते ले जाने लगे कि नुकसानदेह उनके लिए ही होने लगा। क्या बोलना है, कितना बोलना है, क्या खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना है, कितने बच्चे पैदा करने है, फ्रिज में क्या रखना है, गाय, भैंस, गोबर, छात्र, कालेज, यूनिवर्सिटी, कैंपस से लेकर हिंदू वाली बिजली, मुसलमान वाली बिजली, कब्रिस्तान, स्मशान, गधा जैसे अनगिनत वाक़ये आते रहे। मंदिर, मस्जिद, जाति, धर्म जैसे कई विवाद पनपते रहे और थमते रहे।

धड़ाधड़ विदेश यात्राओं से शुरू हुआ विकास का दौर स्मशान या कब्रिस्तान पर आकर ठहर गया। अमूमन हर सरकारों पर आरोप लगते हैं, विवाद होते हैं... लिहाजा इन पर भी ये होना स्वाभाविक था। लेकिन इसके उत्तर या इसका सामना जिस शालीनता और साफगोई से करना था, वह नहीं हो पाया। वो कहावत लोगों को सच लगने लगी कि- कांग्रेस कभी नहीं जाती, जो सत्ता में आता है वही कांग्रेस हो जाता है। (इस कहावत में दरअसल कांग्रेस का मतलब अहंकार, सत्ता का नशा, अनियंत्रित वाणी जैसे प्रचलित गुण शामिल है)

ताज्जुब था कि बावजूद इसके मार्च 2017 विधानसभा चुनावी नतीजों ने सबको चौंका दिया। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में मोदी के नाम का सिक्का इतना चला कि विरोधी औंधे मुंह गिर गये। बीजेपी गठबंधन यहां 325 सीटें जीतकर आया। यूपी के इतिहास में ये चोथी बार था जब किसीने 300 का आंकड़ा पार किया हो। खास बात यह थी कि जब जब किसीने तिहरा शतक जड़ा था, उस दौर में विरोधी पक्षों और लोगों से जुड़ने के संसाधनों की खास कमी थी। लेकिन इस दौर में, जब कई बड़े बड़े विपक्ष थे, जो यूपी में राज कर चुके थे, बड़े चेहरे थे, लोगों के साथ जुड़ने के ढेर सारे संसाधन थे, नरेन्द्र मोदी की लहर इतनी चली कि राम लहर से भी ज्यादा सीटें बीजेपी जीत लाई!!! उससे भी बड़ा ताज्जुब यह था कि राम मंदिर वाले इस अखाड़े में मोदी विकास के नाम पर बीजेपी को जीता कर लौटे थे!!!
उत्तराखंड में भी मोदी का जादू चला। हालांकि पंजाब और गोवा में मोदी नामका सिक्का नहीं चल पाया। लेकिन मणिपुर में कांग्रेस को कड़ी टक्कर मिली। हालांकि यूपी की बंपर जीत ने सभी को सकते में डाल दिया। वैसे कांग्रेस के लिए ये चुनाव संजीवनी लेकर आए थे। एक के बाद एक बुरी खबरों से झूज रही कांग्रेस के लिए पंजाब में वापसी अच्छी खबर थी। वैसे कांग्रेस और भाजपा, दोनों के लिए ये जितना अच्छा रहा, आम आदमी पार्टी के लिए उतना ही बुरा रहा। गोवा में आप खाता भी खोल नहीं पाई, जबकि पंजाब में कांग्रेस के हाथों पीट गई।

यूपी जैसे राज्य में बीजेपी की बंपर जीत ने मोदी सरकार के विरुद्ध खड़े कई सवालों को कूड़ेदान में डाल दिया। नोटबंदी से लेकर महंगाई तक की सारी समस्याएँ जैसे कि एक ही दिन में बीजेपी के सामने से हट गई! इन विधानसभा चुनावी नतीजों के बाद देश की 58 प्रतिशत से भी ज्यादा आबादी पर भाजपा का राज था। उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम में भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में थी, जबकि जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश और आंध्र प्रदेश में उनकी गठबंधन सरकारें थी। यानी कि कुल मिलाकर देश के 13 राज्यों में भाजपा काबिज थी। खास बात यह थी कि तमाम जीते हुए राज्यों में सीएम वो ही बनते, जो नरेन्द्र मोदी चाहते। भाजपा नाम का पुरा दल नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व के आगे छोटा सा लगने लगा था। इतना ही नहीं, भाजपा की आत्मा माने जाना वाला आरएसएस भी नरेन्द्र मोदी की साया में बढ़ रहा हो ऐसा लगा। अमूमन संघ की नीतियां या प्रभाव सदैव भाजपाई सरकारों पर रहा करता था। लेकिन लगा कि संगठन या पार्टी से भी बड़ा नाम नरेन्द्र मोदी है।

लगा कि जहां विरोधी दल सो रहे थे, 2017 में ही नरेन्द्र मोदी 2019 का ख़ाका तैयार करने में जुटे थे। शायद उससे पहले ही जुटे थे ऐसा भी कहा जा सकता है। साथ में इसी दौर में संघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी की अंदरूनी खींचतान भी जारी थी। लेकिन विजय और सफलता हर चीजों को बौना कर देती है। यहां भी कुछ कुछ ऐसा ही हो रहा था।

हम चक्र को दोबारा उल्टा करते है। भाजपा, जिसे एनडीए गठबंधन के नाम से भी जाना जाता था, मोदी के नाम के बाद इस गठबंधन से कई लोग निकलते चले गये। नीतीश कुमार की जेडीयू का निकल जाना सबसे बड़ी घटना थी। नरेन्द्र मोदी का नाम पीएम के तौर पर घोषित होते ही नीतीश कुमार ने बिहार में भाजपा से गठबंधन खत्म कर दिया। अन्य कई पार्टियां भी एनडीए गठबंधन से निकल गई।
दावे तो यहां तक हुए कि एलके आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी सरीखे भाजपा के कद्दावर नेताओं को काट कर वो पीएम उम्मीदवार की कुर्सी तक पहुंचे थे। राजनीति में बातें होती रही कि गुजरात से लेकर कई राज्यों के बड़े बड़े भाजपाई प्रतिद्वंदियों से ही इन्होंने लड़ाई लड़ी थी। यानी कि विरोधी दलों से पार पाने से पहले इन्होंने घर के ही विरोधियों से पार पाया था!!! भाजपा के कई बड़े बड़े नेता या अघोषित गुटों को नरेन्द्र मोदी ने हाशिये में घकेल दिया। लगा कि अगर 2014 में भाजपा को ज्यादा सीटें नहीं मिलेगी तो नरेन्द्र मोदी के लिए घर के विरोधी ही भारी पड़ेंगे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावी नतीजों ने भाजपा को इतिहास की सबसे बड़ी चुनावी जीत दी। कांग्रेस जैसा पुराना दल 44 पर सिमट गया और नरेन्द्र मोदी भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत के साथ केंद्रीय सत्ता तक लेकर जा पहुंचे।

राह आसान नहीं थी। सूट बूट की सरकार, सरमुखत्यार और सपनों का सौदागर समेत कई चीजें उनके ऊपर चिटकायी जाती रही, लेकिन फिर भी मोदी विरोधियों को चित्त करने में आगे रहते गये। गुजरात से होते हुए, यूं कहे कि गुजरात मॉडल के आधार पर ही वे देश के पीएम उम्मीदवार तक पहुंचे। लेकिन किसे पता था कि ये सफर, जो गुजरात से शुरू हुआ था वो दिल्ली तक पहुंचकर खत्म नहीं होना था। उन्हीं के दम पर, उन्हीं के नाम पर और उन्हीं के भरोसे भाजपा एक के बाद एक राज्यों में सत्ता तक पहुंचती रही। कहीं बहुमत के साथ, तो कहीं गठबंधन के साथ। नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक जैसे फैसलों का विरोधियों ने जितना लाभ उठाया उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक लाभ नरेन्द्र मोदी ने उठाया। नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक की सफलताएं, असफलताएं, तथ्य, दावें या तमाम चीजें एक दूसरा विषय है। लेकिन इन दोनों मुद्दों में विपक्षी पार्टियों के पास पर्याप्त मौका था कि वो सरकार को घेर सकते थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी फिर एक बार चक्रव्यूह से निकलते नजर आए।

शिवसेना से भाजपा के रिश्ते, दोनों पार्टियों के नेताओं के विषैले बयान, सब कुछ होता गया। लेकिन अपनी लोकप्रियता का मोदी ने जो स्टेज सजा कर रखा था, उसके सामने उद्धव समेत पूरी शिवसेना बौनी सी नजर आती थी। हालात यह हुए कि आखिरकार शिवसेना-भाजपा ने मिलकर कांग्रेस-एनसीपी की जड़े हिला दी।

2017 में पांच राज्यों के चुनाव का रण काफी दिलचस्प रहा। यहां भाजपा भले उत्तराखंड और यूपी में ही जीत पाई, लेकिन गोवा और मणिपुर में हारकर भी राजनीतिक फैसलों की क्षमता और तेजी की वजह से वहां भी भाजपा ने ही सरकार बना ली। यहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, बावजूद इसके वो मोदी-शाह के सामने हार गई। पंजाब में ये जरूर रहा कि भाजपा के हाथ कुछ खास नहीं आया। लेकिन यूपी चुनाव वाकई अजीब पहेली थे। जहां भाजपा पिछड़ गई वहां भी कांग्रेस को छोड़कर बुलेट ट्रेन से तेज गति से भाजपा ने ही सरकार बना ली थी। कांग्रेस के ढीले-ढाले माने जा रहे युवराज राहुल गांधी को तो लगा होगा कि... अइला, बुलेट ट्रेन शुरू भी हो गई क्या!!!
जिस भाजपा ने मंदिर के सहारे अपनी पैठ जमायी थी उसी भाजपा ने विकास और उदारता के नाम पर तथा अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर शासन किया था। वहीं जिस नरेन्द्र मोदी ने हिंदुत्व के नाम पर अपनी पैठ बनायी थी, उसी मोदी ने विकास के नाम पर सत्ता हासिल की!!! विकास के नाम पर सरकार बनी और चलती रही। मंदिर का मुद्दा गायब हो गया। लेकिन यूपी चुनावों में मोदी और भाजपा ने हिंदुत्व का पत्ता साइलेंटली खेल लिया। मोदी सत्ता के कार्यकाल का यही वो टर्निंग पॉइंट था, जब विकास के नाम पर आगे बढ़ रही भाजपा और मोदी धर्म की उसी पुरानी गलियों में दोबारा प्रवेश कर रहे थे। किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट ना देकर इन्होंने शांत तरीके से अपनी हिंदुत्व की छवि को फिर खड़ा करने की चेष्टा की। योगी आदित्यनाथ जमकर हिंदुत्व की भाषा बोलते रहे और वो ही यूपी के सीएम बनाए गए। जीतने के बाद वो खुद बिगड़े बोल से बचने की सलाह देते नजर आए! लेकिन कुछ चीजें वाकई संयोगित रूप से सेट हो रही थी। किसी भी मुस्लिम को टिकट ना देना, योगी आदित्यनाथ के बयान, फिर यूपी को जीतना, आदित्यनाथ का सीएम बनना और इसी दौर में सुप्रीम कोर्ट का राम मंदिर पर समाधानकारी रवैये का निर्देश देना... सभी चीजों ने फिर एक बार भाजपा और मोदी को हिंदुत्व के चश्मे से देखने के लिए लोगों को प्रेरित किया।

कभी पीडीपी को आतंकवादी पार्टी कहनेवाली मोदी सत्ता उन्हीं के साथ कश्मीर में बैठ गई थी!!! मीडिया से लेकर भक्त लोग सवाल तो करनेवाले नहीं थे। हाल यह रहा कि महबुबा मुफ्ती के शपथ समारोह में, जहां पीएम मोदी भी मंच पर थे, बाकायदा कह दिया गया कि इस सफल चुनाव के पीछे अलगाववादी संगठनों की भी भागीदारी है। विवाद हुआ तो बीजेपी को पतली गली से निकलना पड़ा। लेकिन जिस टर्निग पॉइंट की बात हमने ऊपर के पैरा में की, उसी दौर के बाद बीजेपी और पीडीपी ने रिश्ता तोड़ लिया।

इसी धुरी में केंद्र में मोदी विकास की, गरीबों की और आर्थिक सुधार की बात करते रहे। यानी कि इन्होंने लोगों के चश्मे में दो कांच बिठा दिए थे!!! जो लोग जिस तरह से उनको देखना चाहते देख सकते थे। किसी ने विकास के नजरिये से देखा, किसी ने हिंदुत्व के नजरिये से। विकास और हिंदुत्व, इन दोनों मुद्दों का वे प्रचार और प्रसार कर रहे थे। एक का खुलकर, तो दूजे का किसी और तरीकों से। लेकिन इन्होंने खुद को एकमात्र विकल्प के तौर पर स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

जिस नरेन्द्र मोदी का नाम पीएम पद के लिए घोषित होते ही एनडीए का कुनबा बिखरने लगा था, उसी नरेन्द्र मोदी के नाम पर कई सारे नये गठबंधन स्थापित होने लगे!!! नरेन्द्र मोदी के नाम पर इतने सारे कांग्रेसी नेता भाजपा में आये कि कहा जाने लगा कि कांग्रेस मुक्त भारत की जगह कांग्रेस युक्त भाजपा होने लगा है। यानी कि जिस नरेन्द्र मोदी के नाम से लोग एनडीए को छोड़ते थे, उन्हीं के नाम पर हर दल से नेता अपने समर्थकों के समेत भाजपा में आने लगे थे। इसे लेकर दो तरह की बातें हुई। एक तबका यह कहने लगा कि इससे भाजपा के वो लोग जिन्होंने सालों से अपना पसीना बहाया है वो नाराज होंगे।
वैसे हम इस संस्करण में भावनात्मक नजरिये को छोड़कर राजनीतिक नजरिये से चर्चा कर रहे हैं। इसी लिहाज से कांग्रेस मुक्त तथा कांग्रेस युक्त दोनों को एक दूसरे प्रस्थापित नजरिये से भी देखा जा सकता है। वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह के लफ्जों में, किसी भी राजनीतिक दल को दो तरह से ग्रोथ मिलती है। पहला तरीका है ऑर्गेनिक ग्रोथ का। दस-बीस साल कार्यकर्ता तैयार करो, वे पार्टी के विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और अध्यक्ष बनें। दूसरा तरीका है अनऑर्गेनिक ग्रोथ का। यानी आप दूसरे दलों से तैयार नेता लेकर आए। आपकी पार्टी का मूमेंटम बना हुआ है। उनके सहारे जीत हासिल करिए। पूरी दुनिया में किसी भी राजनीतिक दल के विकास में ऐसी चीजेंं होती रहती हैं। यह पहली बार नहीं हो रहा है। किसी ज़माने में कांग्रेस इस तरह से जीत हासिल करती थी। बाद में जनता दल-जनता पार्टी के साथ ऐसा हुआ। आज भाजपा के साथ यही हो रहा है। संसद में आपातकाल का विधेयक लाने वाले जगजीवन राम बाद में जनता सरकार में उप प्रधानमंत्री बने थे।

रही बात पुराने नेता या कार्यकर्ताओं की नाराजगी की, कहते हैं कि सत्ता या कुर्सी मिलना सबसे बड़ी खुशी होती है। जिन राज्यों में नेता या कार्यकर्ता दशकों से भाजपा को जीत नहीं दिला पा रहे थे ऐसे राज्यों में भाजपा ने दलबदलू नेताओं के सहारे सत्ता हासिल की! अब इससे कार्यकर्ताओं को खुशी ही मिलेगी। वर्ना ऐसे तो अगले 15 सालों तक वो सत्ता में नहीं आ पाते और कार्यकर्ता हर चुनावों में मेहनत करके हार की समीक्षा कर रहे होते। दूसरी सरकारों की लाठियां खा रहे होते। दूसरी बात तो यह भी होती है कि चाहे पुराने नेता या कार्यकर्ताओं को पद ना मिले, लेकिन उनकी सरकार बनने के बाद कई तरह की सुरक्षाएँ और सहूलियतें जरूर मिलती है। कई तरह की सुरक्षाएँ और कई तरह की सहूलियतें... इन दोनों लफ्जों को काफी बड़े नजरिये से सोचिएगा। क्योंकि सरकार बदलती है तो केवल सरकार नहीं बदलती, बल्कि विभाग, पद, जिम्मेदारियां, नीतियां, अधिकारी, मंत्री, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष से लेकर छिटपुट नेतृत्व भी बदल जाता है!  

खास बात तो यह थी कि कांग्रेस मुक्त या कांग्रेस युक्त, जो भी आरोप लगते रहे, लेकिन मोदी नई नई जगहों पर सत्ता दिलवा रहे थे। जहां भाजपा मजबूत नहीं थी वहां दूसरे नेताओं को खींच रही थी और जीतने के बाद अपने नेताओं को छोड़कर दलबदलू नेताओं को मंत्रीपद दे रही थी। अब इससे नाराजगी वाले नजरिये को अलग तरीके से हमने देखा कि इससे कौन से फायदे होते हैं। साथ में यह भी होता है कि पार्टी मजबूत ही होती है। एक प्रदेश में सत्ता मिलने से पूरे देश में पार्टी के पक्ष में माहौल बनता है। तीसरा पहलू यह भी कि इस माहौल से देश में विपक्ष कमजोर दिखाई देने लगता है।
जहां विधानसभा चुनावों के बाद विरोधी ईवीएम का गाना गा रहे थे, मोदी और उनकी टीम 2019 की तैयारियों में जुटी हुई नजर आ रही थी। इतना लंबा ना भी सोचे तब भी ये टीम अगले राष्ट्रपति के चुनाव की तैयारियों में लगी थी। यूं भी कह सकते हैं कि ये टीम गुजरात से लेकर अन्य विधानसभा चुनावों का स्टेज सजाने में भी लगी थी। जबकि दूसरी तरफ लग रहा था कि विरोधी अब भी यूपी हार के बाद ईवीएम के साथ ही कुश्ती खेल रहे थे!!! यानी की विरोधियों को ईवीएम के साथ छोड़कर मोदी-शाह की टीम आगे चल पड़ी थी!!!

2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे हो या फिर उसके बाद विधानसभा चुनावों के नतीजे हो, ये तो साफ दिखाई दे रहा था कि हर नतीजे के बाद लोगों के बीच, सड़कों पर या समारंभों में भाजपाई नेता ज्यादा दिखाई देते थे। यहां तक कि राज्यों में जीत के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर उनके तमाम मंत्री अपने अपने मंत्रालयों से बाहर लोगों के बीच दिखाई देते। उधर हारनेवाले जैसे कि इतना विशेष आत्मचिंतन करते होते कि महीनों तक वे सड़कों पर तो क्या, मीडिया के सामने भी कभी-कभार ही दर्शन देते थे!!! साफ कहे तो, जीतने के बाद भी मोदी ब्रिगेड और ज्यादा जीतने की कोशिशों में लगी रही, जबकि विपक्षी पार्टियों में ये जीजिविषा कम दिखाई दी।

जहां निकाय चुनावों को टेलीविजन पर कवरेज नहीं मिलती थी, वहीं अप्रैल 2017 के दिल्ली नगरनिगम के चुनावों को बीजेपी ने राष्ट्रीय मीडिया पर चमका दिया। इसमें आम आदमी पार्टी का भी हाथ था, जिन्होंने सीधा नरेन्द्र मोदी के नाम से इस निगम वाले चुनावी जंग को जोड़ दिया था। नतीजा यह हुआ कि भाजपा लगातार तीसरी बार एमसीडी में विजयी हुई। भाजपा को 270 में से 181 सीटों पर जीत मिली, जबकि दिल्ली विधानसभा चुनावों में शानदार जीत के साथ दिल्ली राज्य की गद्दी पर बैठी आम आदमी पार्टी महज 48 सीटों पर जीत पाई।

पिछले 6 महीनो के निकाय चुनाव को देखा जाए तो, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, चंदीगढ़ तथा उडीसा में भाजपा ने विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया था। और अब बारी दिल्ली नगर निगम की थी। अब देश के 15 राज्यों में भाजपा स्वयं या गठबंधन सरकारों के साथ काबिज थी। उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, असम, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गोआ तथा मणिपुर में भाजपा सत्ता में थी।
एक के बाद एक राज्यों में भाजपा सत्ता की सीढ़ियों तक पहुंच रही थी। कहीं पर जनादेश के साथ, कहीं पर बिना जनादेश के!!! अरुणाचल तथा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन मामले में उसकी काफी किरकिरी हुई थी, लेकिन भाजपा ने सत्ता के लिए हर विवादित सड़कों का दौरा कर लिया था। जहां जनादेश उन्हें नहीं मिला वहां भी भाजपा ने बुलेट ट्रेन की स्पीड से तेज चालें चलकर सत्ता प्राप्त कर ली थी। जैसे कि गोवा या मणिपुर। पूरा पैटर्न साफ दिख रहा था। जहां भाजपा सत्ता में नहीं थी उन प्रदेशों में कुछ न कुछ ऐसा चल रहा था कि सारे तर्क इसी तरफ इशारा कर रहे थे कि वहां की प्रदेश सरकारों को भाजपा चैन से बैठने देने के मूड में नहीं। आप धड़ल्ले से यह नहीं कह सकते कि वहां की सरकारों को भाजपा केंद्र में बैठे बैठे अस्थिर कर रही थी। लेकिन तार्किक या दलील वाली चर्चा इसी रास्ते जाती दिखी।

बिहार, दिल्ली और पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए थे। बिहार में लालू यादव की सड़क की राजनीति भाजपा को परेशान कर सकती थी। भारत में जो सड़कों की राजनीति में माहिर हो वही सत्ता के समीकरणों को पलट देता है। लालू यादव चाहे विवादित हो, चाहे उन पर ढेरों सारे मामले चल रहे हो, लेकिन भाजपा को समझ थी कि यह शख्स सड़क की राजनीति में माहिर है और पुराना राजनीतिक खिलाड़ी भी है। केंद्र में भाजपा काबिज थी। सारी ताकतें उसके पास थी। लालू टिकते कब तक और कैसे। क्योंकि लालू का बदनुमा इतिहास भाजपा के लिए वरदान बननेवाला था! लेकिन लालू ने भी नहीं सोचा होगा कि अबकी बार तो पूरा परिवार फंसेगा!

लालू समेत उनका पूरा परिवार सीबीआई और ईडी के रडार में आया और एक के बाद एक छापे तथा घोटालों में उनके खिलाफ नये नये मामले दर्ज होने लगे। सीबीआई या ईडी ने केंद्र के इशारे पर काम किया था ऐसे राजनीतिक आरोप भी लगे तथा कइयों का ऐसा दृढ़तापूर्वक मानना भी था। लेकिन मान्यताओं या दावों के सामने सबूत मांगे जाए तब ऐसे दावे टिक कहां पाते हैं! लिहाजा सीबीआई या ईडी का दुरुपयोग वाला आरोप कांग्रेस के दौर में भाजपा लगाती थी और अब भाजपा के दौर में कांग्रेस और अन्य दल लगाने लगे। इस पूरे कानूनी घटनाक्रम के बीच भाजपा ने बिहार में अपने नेता सुशील मोदी को शायद पूरी तरह से काम पर लगा दिया था। तमाम कानूनी घटनाक्रम से उठे विवादों को सुशील मोदी ने पूरी राजनीतिक ताकत के साथ इस्तेमाल किया और लालू पर जमकर हमला बोला। तेजस्वी यादव के मामले पर राजनीतिक शतरंज की चालें कुछ ऐसी बिछ गई कि नीतीश ने अचानक ही इस्तीफ़ा देकर चेक एंड मेट कर दिया!!! लालू या राहुल गांधी कुछ समझ पाते उससे पहले तो उसी शाम इस्तीफ़ा देने के बाद मिनटों में भाजपा के साथ समर्थन से नीतीश सरकार बनाएंगे ये लगभग तय हो गया!!! दूसरे दिन सुबह नीतीश ने सीएम तथा सुशील मोदी ने डिप्टी सीएम के तौर पर शपथ ले ली।
यानी कि लालू यादव, जो सड़क की राजनीति में माहिर थे उनका विकट भाजपा ले चुकी थी। उपरांत नीतीश कुमार जैसा साफ-सुथरा चेहरा फिर एक बार उनके खेमे में आ चुका था। बचा-खुचा काम लालू के दागदार इतिहास और ईडी-सीबीआई जैसी संस्थाओं ने संपन्न कर दिया। कांग्रेस से शायद भाजपा को उतना भय नहीं रहा था। अब दो विकटें बची थी। दिल्ली में केजरीवाल की और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की। केजरीवाल की कथित इमानदार छवि को भाजपा धूमिल करने में बहुत हद तक सफल हो चुकी थी। ममता बनर्जी को भी वे शायद सड़क की राजनीति की माहिर खिलाड़ी मानते थे। इन दोनों के लिए भी भाजपा पहले गेंदबाजी कर चुकी थी। दिल्ली में केजरीवाल सरकार पिछले एक साल से विवादों में घिरी हुई थी। उनके विधायक, मंत्री और खुद केजरीवाल इतने चक्करों में फंस चुके थे कि दिल्ली की सरकार किसी कार सरीखी ही चल रही थी! उधर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार को सांप्रदायिक हिंसा या दंगों में झुलसना पड़ रहा था। ममता की छवि को मुस्लिम परस्त बनाने में भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ रही थी। ताज्जुब तो यह कि जहां जहां भाजपा की सरकार नहीं थी उसी प्रदेशों में सारी चीजें हो रही थी। बाकी राज्य तो बिल्कुल शांत लग रहे थे!!!

अब तो एक के बाद एक राज्य में भाजपा प्रत्यक्ष आ अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता तक पहुंचती जा रही थी। मीडिया अपने विश्लेषणों में भाजपा की जहद में कितने राज्य आये उसके आंकड़ों का ख़ाका अपडेट किये जा रहा था। उधर कांग्रेस के लिए हालात इतने खराब थे कि गुजरात में उसे अपने 44 विधायकों को बेंगलुरु ले जाना पड़ा। शायद वहां उन्होंने कोई सेफ वोल्ट बनाया होगा! लेकिन कांग्रेस भूल रही थी कि जनादेश जो आये, बिहार की तरह दूसरे चैप्टर से वो कैसे निपटेगी!

अब तक एक कहावत स्थापित हो चुकी थी कि वोट किसी को भी करिये, जैसे तैसे भाजपा सरकार बना लेगी वाला दौर खत्म हो चुका। अब तो सरकार कोई भी बनाए, जैसे तैसे भाजपा उसीके साथ मिलकर अपनी सरकार बना लेगी!!! जो वाकई निष्पक्ष नागरिक थे वे भी इस बात से सहमत होने लगे थे कि एक दिन ऐसा ना आए कि आपको वोट डालने जाने की जरूरत ही ना पड़े। वो लोग आपस में तालमेल बनाकर सरकार बना लेंगे!!!

ममता और केजरीवाल का विकट बाकी था, लेकिन उससे पहले शायद भाजपा शरद पवार, मुलायम सिंह और तमिलनाडु वाला चैप्टर भी अपने तरीके से लिखना चाहती थी। 2014 में केंद्र में सत्ता मिलने के बाद जहां कांग्रेस ठीक से संभल भी नहीं पाई थी, भाजपा उसी दिन से शायद 2019 वाला ब्लू प्रिंट लागू करने में जुट चुकी होगी। महाराष्ट्र में अपनी राजनीतिक विरासत खड़ी करने वाले एनसीपी के बोस शरद पवार पर भाजपा की नजरे गड़ी हुई थी। सालों पहले कांग्रेस से अलग हुए शरद पवार के जरिये महाराष्ट्र में अपनी मजबूत स्थिति को और मजबूत करने का लक्ष्य था। महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा का साझेदार था, लेकिन हररोज सामना मुखपत्र में या माईक पर अपने मुख से ही उद्धव ठाकरे भाजपा की कई नीतियों पर वार करते रहते थे। शरद पवार के जरिये भाजपा महाराष्ट्र की तमाम संभावनाएँ अपने हिस्से में मोड़ना चाहती थी। उधर यूपी में मुलायम और मायावती नाम के दो निशान भी थे, जिनके लिए तीर की धार निकाली जा रही थी। शरद पवार पर खूब डोरे डाले गए। कभी एनसीपी को नेचुरल करप्ट पार्टी कहने वाले मोदी ही शरद पवार को अपने पाले में लाने के लिए मेहनत करते दिखे! लेकिन आखिरकार एक-दूसरे को गालियां देनेवाले शिवसेना और बीजेपी को एक होना पड़ा, उधर एनसीपी और कांग्रेस एक कार में बैठ गए।
एक दफा मायावती को लेकर एक खबर यह भी आई कि 16 संगठन उन्हें पार्टी की अध्यक्षा नहीं देखना चाहते और इसके लिए एकजुट होकर प्रयत्न भी कर रहे हैं। इसे लेकर दलित, मुस्लिम तथा ओबीसी संगठनों की दिल्ली में एक बैठक भी हुई थी। बिहार में जेडीयू का साथ देकर दोबारा सरकार बनाने के बाद अमित शाह अब यूपी की यात्रा के लिए निकल चुके थे। अमित शाह के लखनऊ पहुंचते ही यूपी के सियासी माहौल में घमासान शुरू हो गया। उसी सुबह सपा के दो एमएलसी बुक्कल नवाब और यशवंत सिंह ने सभापति को अपना इस्तीफ़ा सौंप‌ दिया। सपा के मधुकर जेटली के इस्तीफे की भी अटकलें लगाई जा रही थी। बुक्कल नवाब वही नेता थे जिनका नाम गोमती रिवर फ्रंट घोटाले में उछला था। बुक्कल, यशवंत सिह तथा मधुकर मुलायम सिंह के करीबी माने जाते थे।

अमित शाह का यूपी दौरा सपा के लिए ही नहीं, बल्कि मायावती की बसपा के लिए भी मुश्किलें लेकर आया। सपा के दो एमएलसी के बाद बसपा के जयवीर सिंह ने भी अपना इस्तीफ़ा दे दिया। यूपी में अचानक खलबली मची और मायावती को आधिकारिक बयान जारी करना पड़ा। मायावती ने कहा कि बीजेपी की सत्ता की भूख अब हवस में तब्दील हो चुकी है, जिसे पूरा करने के लिए वह सरकारी मशीनरी का जमकर दुरुपयोग कर रही है। मायावती को नींद से उठना पड़ा और कहने लगी कि मणिपुर, गोवा, बिहार के बाद अब उत्तरप्रदेश मेंं भी लोकतंत्र की हत्या का खेल भाजपा ने शुरू कर दिया है। अखिलेश यादव भी भाजपा पर जमकर बरसे।

जब अमित शाह से बागी विधायकों के भाजपा से जुड़ने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इससे इनकार करते हुए कहा कि ऐसी कोई जानकारी उन्हें नहीं है और बागी विधायकों के त्याग पर कोई रिटर्न गिफ्ट की व्यवस्‍था नहीं है। लेकिन अमित शाह जुमला वाले लफ्ज़ से मशहूर हो चुके थे। अमित शाह के बयान के कुछ घंटे बाद ही बुक्कल नवाब, यशवंत सिंह और जयवीर सिंह ने भाजपा का हाथ थाम लिया था। यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या ने इन तीनों को भाजपा ज्वाइन करवाई। सोचिए कि अमित शाह बेचारे कितने अंजान थे कि उन्हें इतने बड़े नेता के इतने बड़े कदम के बारे में जानकारी नहीं थी!!!
 
उधर बिहार के बाद तमिलनाडु पर भी भाजपा की निगाहें थी। भाजपा चाहती थी कि तमिलनाडु में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव में कम से कम 120 सीटें जीत ले, ताकि राज्य में उसकी पैठ बन सके। एम करुणानिधि के रिटायरमेंट तथा जयललिता के निधन के बाद वहां कोई ऐसा जादुई चेहरा नहीं था जो भाजपा को उसका लक्ष्य पाने में रोकता नजर आए। जयललिता का निधन और सियासी खेल का दौर संस्करण में हमने उस प्रदेश की राजनीति को भी देखा। भाजपा के लिए इस सियासी खेल के बाद अपना कुनबा बढ़ाना आसान था वो उस संस्करण से समझ आ ही जाता है।
लेकिन कोई नहीं जानता था कि बिहार-यूपी या तमिलनाडु से भी बड़ा काम तो बंगाल में हो रहा था। करीब 35 साल पुराने लेफ्ट के शासन को उखाड़ कर फेंकने वाली ममता बनर्जी को बंगाल की शेरनी कहा जाता था। ममता के सामने बंगाल में कोई नहीं था जो उन्हें चुनौती दे सके। कांग्रेस की एक फितरत रही है कि वो जीतती है तो अहंकार में लिप्त होती है और हारती है तो कही ठिठूर कर बैठ जाती है। जबकि भाजपा हारे या जीते, वो कभी मैदान नहीं छोड़ती। बंगाल की शेरनी ममता को मोदी-शाह की रणनीतियों से रुबरु होना था।

2 अगस्त 2017... वैसे तो यह दिन भाजपा समर्थकों के लिए उतना खास नहीं होगा, जितना भाजपाई नेताओं के लिए होगा, या फिर कांग्रेस के लिए भी। यह वो दिन था जब कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए राज्यसभा में भाजपा अब सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई। ऊपरी सदन के लिए मध्यप्रदेश के उपचुनाव में निर्वाचित भाजपा सांसद संपतिया उइके ने इस दिन सदन की सदस्यता ग्रहण की। राज्यसभा की यह सीट केंद्रीय मंत्री अनिल माधव दवे के निधन के कारण खाली हुई थी। भाजपा अब 58 सीटों के साथ राज्यसभा में पहले क्रम पर पहुंच चुकी थी, जबकि कांग्रेस 57 सीटों के साथ दूसरे पायदान पर थी। हालांकि एनडीए अब तक पहले क्रम पर पहुंचा नहीं था, लेकिन भाजपा के लिए यह वो दिन था जब वो पहली दफा राज्यसभा में सबसे आगे पहुंची थी।

भाजपा के लिए ये सुवर्णकाल था। देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस अपने इतिहास में पहली दफा इतनी गैरजरूरी बनी हुई थी कि राज्यों तक में उसे आशरा नहीं मिल रहा था। कांग्रेस पहले भी सत्ता से दूर रही थी, लेकिन इस दफा तो कांग्रेस के लिए अस्तित्व का सवाल पैदा हो चुका था। वैसे हम यह नहीं कहना चाहते कि कांग्रेस पार्टी बंद हो जाएगी वगैरह वगैरह। लेकिन 135 साल पुरानी पार्टी अब राज्यों में चंद सीटों के लिए तरस रही थी। उधर 35 साल पुरानी भाजपा 2 से 280 तक जा पहुंची थी और अब उसका लक्ष्य 300 के पार जाना था। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष समेत चार महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर भाजपा का कब्जा था। जिस संघ को एक दफा प्रतिबंधित करने की बातें होती थी उसी संघ के लोग देश के सर्वोच्च पद पर काबिज थे!

भाजपा के लिए यह सचमुच सुवर्णकाल था। उन दिनों लिख सकते थे कि क्या पता, इससे भी बढ़िया सुवर्णकाल आगे हो। क्योंकि इन दिनों अमूमन तमाम विश्लेषकों का यही मानना था कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा फिर एक बार जीतनेवाली है तथा नरेन्द्र मोदी ही दोबारा पीएम बनने वाले है। इसकी अपनी वजहें थी, कोई कोरा विश्लेषण नहीं था।  
लेकिन इस बीच एक बात भी खुलकर उभर रही थी। वैसे इस बात से भाजपाई समर्थक सहमत नहीं होंगे यह स्वाभाविक है। नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि कांग्रेस ने 70 सालों में जो नहीं किया वो हम 5 साल में करके दिखा देंगे। और नरेन्द्र मोदी अपनी कथनी में सही साबित भी होते दिखाई दिए। समर्थक सहमत इसलिए नहीं होंगे, क्योंकि कांग्रेस की कमजोरियां या कांग्रेस के दूषण भाजपा में बहुत जल्द ही प्रवेश कर चुके थे।

जिन दो चेहरों ने भाजपा को बनाया, लोगों के बीच पहुंचाया और पहली बार केंद्रीय सत्ता तक पहुंचाया उन्हें भाजपा लगभग लगभग दरकिनार कर चुकी थी। वाजपेयी जैसी शख्सियत को भी खास मौकों पर कभी-कभार याद कर लिया जाता था। जो स्थितियां बनी उससे तो आप यही कह सकते हैं कि वाजपेयी को उनके निधन के बाद ही याद किया गया। यूं कहे कि उनकी छवि का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए उनके अस्थियों के विसर्जन वाली राजनीतिक यात्राएँ भी खूब निकली। आडवाणी के हालात तो यह थे कि राहुल गांधी के बाद आडवाणी के चुटकुले मशहूर हो चुके थे। कांग्रेस में जिस तरह से सत्ता की धुरी दो लोगों के हाथ में थी, भाजपा में भी ऐसा ही हो चुका था। भाजपा राज्यों में भरती मेले लगा रही थी, लेकिन जो भर्ती हो रहे थे वे सत्ता प्राप्ति के हेतु हो रहे थे, विचारधारा या दूसरे आधार पर नहीं। कांग्रेस से इतने नेता भाजपा में आ चुके थे, जीत चुके थे और मंत्री बन चुके थे कि कई जगहों पर भाजपा को दूसरा ही नाम दिया जा चुका था। राष्ट्रपति शासन, राज्यों में सत्ता हथियाना, सरकारें गिराना, सरकारें बनाना... इन तमाम में कांग्रेस ने जो किया था, भाजपा भी उसी रास्ते चल रही थी। राज्यपाल या जांच संस्थाओं के इस्तेमाल से लेकर कई विषयों पर भाजपा की कार्यशैली कांग्रेस का ही प्रतिबिंब थी। हादसों पर गैरजिम्मेदाराना बयान से लेकर जिम्मेदारी से भागना, विवाद खड़े करना समेत सारी चीजें भाजपा में चंद सालों में दिखाई देने लगी थी। भ्रष्ट आचार, संवैधानिक संस्थाएं, महत्वपूर्ण पदोन्नति, जरूरी कानून या प्रस्तावित संस्थाओं के गठन का लटक जाना, झूठी जानकारी देना, भ्रमित स्थितियां पैदा करना, तथ्यों को छुपाना समेत कई मुद्दे लिखे जा सकते हैं। उसकी चर्चा अलग संस्करण में हो सकती है। किंतु, लोगों ने जिन दूषणों को कांग्रेस में सालों बाद देखा उसे भाजपा में तुरंत देख रहे थे!!!

अगस्त 2017 के मध्य में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो बाकायदा एलान ही कर दिया कि हम 2019 की तैयारियां कर रहे हैं। उन्होंने अगली बार के लिए 350+ का लक्ष्य निर्धारित किया। अभी देश नई सरकार की ठीक से समीक्षा भी नहीं कर पा रहा था कि इन्होंने तो लगभग आधा कार्यकाल बीतने के बाद बाकायदा अगले चुनाव का एलान ही कर दिया!!! ये बात और है कि विरोधियों में अमित शाह जुमला मैन के नाम से मशहूर हो चुके थे। इन्होंने दूसरे दिन ही एक बयान जारी कर कहा कि भाजपा ने 2019 के लिए 350+ का लक्ष्य निर्धारित ही नहीं किया है!!! अब दो दिन में बाकायदा दो अलग अलग बयानों को आप जिस तरह लेना चाहे, ले सकते हैं।

इघर बिहार में नीतीश की जेडीयू भाजपा केंद्रीत एनडीए में शामिल हो गई। सालों बाद दोनों फिर एक बार मिले। नरेन्द्र मोदी के नाम पर एनडीए से बाहर निकलने वाले और लालू या राहुल गांधी के साथ मिलकर सरकार बनाने वाले नीतीश ने बाकायदा एनडीए का दामन थाम लिया। उधर तमिलनाडु में भी भाजपा को एंट्री मिलना लगभग तय हो चुका था। जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक के पलानीस्वामी और पन्नीरसेल्वम धड़े का आखिरकार छह महीने तक चली जोर आजमाइश के बाद विलय हो गया। इसके साथ ही भाजपा को दक्षिण के सबसे महत्वपूर्ण सूबे में दमदार प्रवेश का बड़ा सियासी मौका हाथ लगा।
दिसम्बर 2017 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव आयोजित हुए। वैसे पुरे प्रचार, मीडिया कवरेज और चुनावी परिणाम, बेचारे हिमाचल को उतनी जगह नहीं मिली, जितनी गुजरात को मिल पाई। लाजमी था कि पीएम मोदी का गृहराज्य होने की वजह से यहां के चुनाव ज्यादा मायने रखते थे। पिछले कुछ सालों में गुजरात के अंदरूनी हालात व समस्याओं के चलते यहां कांग्रेस के पास अचानक ही लड्डू खाने का पूरा मौका था। लेकिन नरेन्द्र मोदी के धुंआधार प्रचार तथा अमित शाह की रणनीति के आगे कांग्रेस उतना नहीं कर पाई जितनी उम्मीद थी। 1995 के बाद पहली दफा यहां भाजपा विरोधी माहौल था, लेकिन अंत में जीत तो भाजपा की हुई। वैसे यह भी सच था कि 1995 के बाद पहली बार सबसे कम सीटें भाजपा ने जीती और आंकड़ा 100 के नीचे पहुंच गया। भाजपा के बड़े प्रत्याशियों के जीत का अंतर भी उतना मजेदार नहीं रहा, जितना मोदी के नाम से पहले हुआ करता था। लेकिन भाजपा ने बाजी तो मार ही ली थी।

हिमाचल में भी कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी। एक और सूबा अब भाजपा के खेमे में था। गुजरात तो वैसे भी पहले से था ही। वैसे हिमाचल की जनता ने भाजपा को बेशक सत्ता का ताज सौंपा था, किंतु भाजपा के वीआईपी उम्मीदवारों को उसने नकार दिया। सूबे में मुख्यमंत्री पद का चेहरा रहे प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सती भी ऊना से चुनाव हार गए। देहरा से पांच बार के विधायक रविन्द्र रवि चुनाव हार गए। इसके अलावा जोगिंदर नगर सीट से निर्दलीय उम्मीदवार ने भाजपा उम्मीदवार को चुनाव में हराया। लेकिन आखिरी परिणाम तो यही रहा कि भाजपा ने हिमाचल कांग्रेस से छीन लिया था।

हालांकि वोटशेयर, जीतने का अंतर, कम हो रही सीटें, आदि चीजों ने गुजरात में भाजपा को नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया। पूरा यकीन है कि भाजपा ने इसके बारे में बहुत जल्दी से सोचा भी होगा। क्योंकि मोदी-शाह की जोड़ी चुनाव जीतने में यकीन रखती है और चुनाव जीतने के बाद पूरा पोस्टमार्टम करने में भी इनका यकीन उतना ही ज्यादा है।

गुजरात में कांग्रेस ने भले हार देखी हो, लेकिन इस दफा कांग्रेस ने धमाकेदार बढ़त जरूर बनाई थी। लेकिन आलस्य का कांग्रेस से पुराना रिश्ता होगा ऐसा हमारा व्यक्तिगत रूप से मानना है। लिहाजा ऐसा ही लगा कि एक तरह से भले हारे हो, लेकिन संजीवनी बुट्टी सरीखी बढ़त मिलने के बाद भी कांग्रेस के नेता और उनके मुखिया राहुल गांधी गुजरात में जनसंपर्क वाला रामबाण इस्तेमाल करना जारी नहीं रखेंगे। जनसंपर्क का सौ प्रतिशत इस्तेमाल मोदी-शाह जरूर करेंगे ये भी तय ही था।

लेकिन मध्यप्रदेश तथा राजस्थान में भाजपा की स्थायी सत्ता चली गई। मोदी की लहर यहां नहीं चल पाई। हालांकि वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी से कोई बैर नहीं वाली लाइन खूब चली। लेकिन मोदी के होते हुए भी भाजपा अपने दो किलों को बचा नहीं पाई। छत्तीसगढ़ में तो भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। इसी दौर में उत्तरप्रदेश के उपचुनावो में भी बीजेपी ने सीटें खो दी। एक आंकड़े के मुताबिक 283 सीटों के साथ 2014 की शुरुआत करनेवाली बीजेपी 2019 तक एक दर्जन के करीब सीटें उपचुनावों में गंवा चुकी थी। मोदी माहौल तथा दूसरे अनाप-शनाप मुद्दों के बीच बीजेपी ने अपनी विफलता छुपा दी।
गुजरात में 100 के नीचे पहुंचना, मध्यप्रदेश-राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ को गंवा देना, उपचुनावों में हार तथा यूपी में सपा-बसपा गठबंधन के आगे सीएम योगी के गढ़ में ही भाजपा का हारना... वो सब कुछ हो रहा था जो मोदी-शाह की जोड़ी को पसंद नहीं था। लेकिन इसी दौर ने विपक्ष को संजीवनी दे दी। जो माहौल था उससे विपक्ष उभरने लगा। मोदी को हराया जा सकता है – यह सोच इसी दौर में पनपी। विपक्षी राजनीति में यही टर्निंग पॉइंट था, जिसने विपक्षों को जीतने के लिए लड़ने की ताकत दी। वर्ना अब तक सारे लड़ने के लिए लड़ते दिखाई देते थे, जितने के लिए नहीं!

इस बीच वो भी हुआ जो चौंकाने वाला था। भाजपा की राजनीति के हिसाब से चौंकाने वाला। तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में आवाज उठाने वाली मुस्लिम महिला इशरत ने बीजेपी ज्वाइन कर ली। इशरत ने कोलकाता में बीजेपी की हावड़ा ऑफिस में शामिल होने की प्रक्रिया को पूरा किया। यह ममता का गढ़ था, जहां ममता का वोट बैंक बीजेपी के साथ खड़ा हो रहा था। इशरत बीजेपी की हावड़ा यूनिट का हिस्सा बनी। मुस्लिम विरोधी छवि वाली पार्टी भाजपा के लिए बंगाल जैसी जगह पर ये वाकई बड़ी राजनीतिक जीत थी। लेकिन 2019 में कुछ खबरें ऐसी भी आई कि इन्होंने भाजपा का दामन छोड़ दिया।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद, या यूं कहे कि नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद सबसे बड़ा परिवर्तन दो चीजों में नजर आया। एक तो स्वयं भाजपा में व दूसरा कांग्रेस में!!! भाजपा स्वयं भी बदली बदली सी नजर आई, प्रस्थापित सिद्धांत व पैमानों से हटकर दिखी... और उधर कांग्रेस में भी यही चीज़ मजबूरन नजर आने लगी। भाजपा कब कब बदली ये तो हमने देखा। कांग्रेस तब तब बदली जब जब हिंदू-मुस्लिम वाला चैप्टर उठता नजर आया।

एक बड़ी और सीधी बात यह रही कि भाजपा शासित मोदी सरकार ने अपने वादों, सिद्धांत, प्रस्थापित नीतियों से हटकर काम किया। यूं कहे कि पलटकर सरकार चलाई। लेकिन जैसे हमने आगे लिखा वैसे, नरेन्द्र मोदी दो नावों में पैर रखकर समंदर की सवारी करते नजर आ रहे थे। लेकिन इस बीच मुस्लिमों पर भाजपा सरकार के चार बड़े फैसलों ने भाजपा के नये खेमे को कट्टर या जक्की के साथ साथ सुधारवादी भी बना दिया। मुस्लिमों के बारे में ये चार बड़े फैसले हिंदूओं को तो खुश कर ही गए थे, साथ ही मुस्लिम समाज में भी कुछेक मुद्दों को लेकर भाजपा की प्रशंसा हुई।
केंद्र में सत्तासीन भाजपा सरकार ने अपने अब तक के कार्यकाल में एफडीआई, नोटबंदी, जीएसटी समेत कई फैसले लिए थे, जो 2014 के बयानों के खिलाफ थे। कई फैसलों पर भाजपा सरकार को कड़ी आलोचनाएँ झेलनी पड़ी, कई पर तारीफ भी मिली। लेकिन सरकार के मुस्लिमों के संदर्भ में लिये गये फैंसलों ने उसे एक अलग आयाम जरूर दिया। एक धारणा बनी थी कि कांग्रेस सरकार अपने मुस्लिम वोट बैंक वाले एंगल के चलते सामाजिक नजरिये से सुधारवादी कदम नहीं उठाती, भले आर्थिक सुधार के इतिहास उसने दिये हो। लेकिन भाजपा सरकार ने बहुमत के फायदे के चलते आर्थिक सुधार के साथ साथ सामाजिक सुधार के फैसले लेकर कांग्रेस के लिए राजनीतिक मुश्किलें खड़ी कर दी थी।

निर्विवाद तथ्य है कि बीजेपी, विशेषत: मोदी-शाह की जोड़ी ने कांग्रेस की छवि मुस्लिम पार्टी की बनाकर रख दी थी। तभी तो नयी कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन थामना पड़ा। मोदी-शाह की जोड़ी ने चुपके-चुपके हिंदुत्व का कार्ड ऐसे खेला कि समूचे विपक्ष को मुस्लिम समुदाय के चौखट पर जाने से डर लगने लगा। हर कोई सोचने लगा कि किसी मुस्लिम का वोट मांगने जाएंगे और मीडिया में आ जाएंगे तो बचा-खुचा हिंदू वोट भी छिटक जाएगा। यह मोदी-शाह के सायलंट परशेप्शन का ही नतीजा था कि हर नेता मंदिर मंदिर घूमने लगा। सोशल मीडिया पर एक लाइन थी - कांग्रेस और भाजपा में अन्तर... कांग्रेस मुख्यालय अकबर रोड पर है, भाजपा मुख्यालय अशोक रोड पर है। परशेप्शन का आक्रमण कितना बड़ा होगा खुद ही सोच लीजिए।

मुस्लिमों को लेकर भाजपा सरकार ने चार ऐसे बड़े फैसले लिए जो सुर्खियां बनें और सत्ता के गलियारों से होकर देशभर में चर्चा का विषय बने रहे। मोदी सरकार ने एक अहम फैसले के तहत हज यात्रा पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म कर दी। आजादी के बाद यह पहला अवसर था जब हज यात्रियों को हज यात्रा के लिए सब्सिडी के रूप में मिलने वाली सरकारी मदद हासिल नहीं हुई। सब्सिडी के रूप में खर्च होने वाली 700 करोड़ की रकम खास तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय की लड़कियों की शिक्षा पर खर्च करने का एलान करके भाजपा सरकार ने बाजी मार ली थी। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2012 में वर्ष 2022 तक चरणबद्ध तरीके से हज सब्सिडी खत्म करने का आदेश दिया था। कांग्रेस इससे बचती नजर आ रही थी, लेकिन भाजपा सरकार ने वाकई बड़ा फैसला ले लिया था।

इसके अलावा तीन तलाक का मुद्दा सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा। साल 2017 के अगस्त माह में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक को गैरकानूनी घोषित कर ऐतिहासिक फैसला दिया। तीन तलाक पर मोदी सरकार को ऐतिहासिक फतह हासिल हुई। लोकसभा में कई संशोधन प्रस्ताव खारिज होने के बाद केंद्र का 'मुस्लिम वीमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज बिल' पास हुआ। हालांकि राज्यसभा में अभी तक यह तीन तलाक बिल पास नहीं हो सका था, जिसकी वजह से यह अभी कानून की शक्ल नहीं ले पाया था। इसके अलावा सरकार ने नई हज नीति के तहत अकेली महिला को बिना मेहरम (पुरुष रिश्तेदार) के हज यात्रा की इजाज़त देने का पहला बड़ा फैसला लिया। 
लेकिन इसी बीच कुछ ऐसा हो रहा था, जो मोदी सत्ता के खिलाफ कई स्तर पर नाराजगी बढ़ा रहा था। सुप्रीम कोर्ट के जजों का सरेआम प्रेस कोन्फरन्स करके लोकतंत्र बचाओ की दुहाई लगाना। 70 सालों में यह पहला दृश्य था जब सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान के चार वरिष्ठ जज लोगों के सामने थे और कह रहे थे कि न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। मामला जैसे-तैसे समेटा तो सीबीआई के अंदर ही 70 सालों की सबसे बड़ी जंग छिड़ गई। आधी रात को सीबीआई मुख्यालय घेरा गया और एक तरीके से सीबीआई में सत्ता ने आधी रात को तख्तापलट को अंजाम दिया। नोटबंदी और जीएसटी के बाद का अनुकूल समय खत्म हो चला था। अब रोजगार और अर्थतंत्र की समस्याएँ खुलकर सिर उठा रही थी। किसानों की कर्जमाफी और उद्योगपतियों की कर्जमाफी के मसले पर सरकार बराबर घिरती दिखाई दी। किसानों की नाराजगी इतनी बढ़ी कि कई राज्यों के किसान दिल्ली तक पहुंचे।

मीडिया मैनेजमेंट इतना जबरदस्त था कि लोगों को मोदी सत्ता का वही चेहरा दिखाया जाता था, जो मोदी-शाह चाहते थे। एक वक्त वो भी आया जब बातें होने लगी कि क्या मोदी का जादू खत्म हो चुका है? लेकिन मोदी हारे नहीं। मोदी सत्ता नये नये नारे देती रही, चकाचौंध करनेवाला प्रचार करती रही। विपक्ष ने समस्याओं की बात करनी चाही, लेकिन मजबूत मोदी के सामने मजबूर विपक्ष कुछ नहीं कर पाया! बैंकों को करोड़ों-अरबों का चूना लगाकर भागने वाले लोग मोदी सत्ता में इतने बढ़ गए कि मनमोहन काल का रिकॉर्ड टूट गया। उधर बेरोजगारी का स्तर पिछले 40 सालों के सबसे महत्तम स्तर तक पहुंच गया। अर्थतंत्र के हाथ-पांव फूलने लगे। बेटी बचाओ बेटी पढाओ का नारा मीडिया में चमकता, लेकिन राज्यों में बेटियां छला हुआ महसूस करने लगी थी। जो योजनाएँ ताम-झाम के साथ शुरू हुई थी उसका कोई डाटा ही देश के पास नहीं था। हर साल नयी-नयी योजनाएँ शुरू होती थी, लेकिन उस पर काम कितना हुआ कोई नहीं जानता था।

उधर रक्षा मंत्रालय, सड़क परिवहन मंत्रालय, रेल मंत्रालय या बिजली मंत्रालय तक ने गलत (फेक) तस्वीरें देश के सामने रखी, जो चंद घंटों में सत्ता के लिए ही सिरदर्द बन गई। इन मंत्रालयों को बाकायदा माफी मांगनी पड़ी थी!!! साफ लगने लगा था कि 2019 में मोदी सत्ता के पास ऐसा कोई मुद्दा है ही नहीं जिसके सहारे वो लोगों से वोट मांगेंगे। जनवरी 2019 तक मीडिया भी यह दर्शाने लगा कि समूचा एनडीए गठबंधन 225 के आसपास सिमट जाएगा।
लेकिन मोदी अंत तक हार माननेवाले नहीं थे। फरवरी 2019 में पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर पिछले दो दशक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ। 40 के करीब जवान शहीद हो गए। अगले दिन ही रक्षामंत्री देश को बतला रही थी कि मोदीजी के आने के बाद कोई धमाके नहीं हुए। वैसे उसी दिन, जिस दिन रक्षामंत्रीजी यह दावा कर रही थी, लोग अमरनाथ से लेकर उरी हमलों तक को याद कर रहे थे। रक्षामंत्री के करीब करीब झूठे बयान के दूसरे दिन ही पुलवामा में बहुत बड़ा आतंकी हमला हो गया। मोदी सत्ता के खिलाफ नाराजगी बढ़ने लगी। पहली बार हो रहा था कि मोदी सत्ता पर ही इल्ज़ाम लगा कि उन्होंने जान-बूझकर हमला करवाया है, ताकि सत्ता के खिलाफ जो सवाल है उसे दूसरी राह पर ले जाया जा सके। लोग कहने लगे कि अब सर्जिकल स्ट्राइक होगा और देशभक्ति के सहारे मोदी वोट मांगने निकलेंगे। यह सारे आरोप थे, ये नोट करे। लेकिन हुआ भी वही। महज कुछ दिनों बाद भारतीय सेना ने 1971 के बाद का सबसे बड़ा फौजी कदम उठाया और पाकिस्तान में घुसकर एयर स्ट्राइक कर दिया।

अब मोदी सत्ता के पास छाती चौड़ी करने की वजह थी। सरकार की विफलता और सत्ता के खिलाफ नाराजगी, सब कुछ हवा हो गया। आज से ढाई साल पहले से ही कहा जा रहा था कि जब लोकसभा चुनाव आएगा तब मोदी सत्ता देश को सरहद पर ले जाएगी। हुआ भी यही। यकीनन बड़ा मौका था। सत्ता ने इसे खूब भुनाया। बालाकोट एयर स्ट्राइक ने मोदी सत्ता को वजह दी। एक आकलन बताता है कि इस घटना ने मोदी सत्ता को कम से कम 45-50 सीटों का फायदा करवा दिया। लेकिन आकलन भी गलत साबित होता दिखाई देता है। बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद जिस तेजी से मोदी सत्ता का ग्राफ ऊपर चढ़ा, समूचे विपक्ष के तमाम मुद्दे तथा सत्ता की तमाम समस्याएँ खत्म होने लगी। पुलवामा हमले के बाद सत्ता का चुनावी प्रचार और सेना का राजनीतिकरण बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद सीमाएँ जरूर लांध गया।

स्वयं पीएम मोदी ने ही समूचे लोकसभा चुनाव प्रचार में यही रणनीति अपनाई। पुलवामा और बालाकोट के जरिए खुलकर राष्ट्रवाद का प्रचार मतदाताओं के ऊपर फेंका जाने लगा। साथ ही कांग्रेस को कोसना, नेहरू-राजीव को अपमानित करना, पिछली सरकारों की बुराई करना, हास्यास्पद इंटरव्यू देना, रडार-बादल से लेकर केदारनाथ यात्रा वाला प्रयोजित शो चला। लेकिन नोटबंदी-जीएसटी-योजनाएं-नीतियां-रोजगार-गरीबी-महंगाई समेत तमाम वो मुद्दे, जो लोगों के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते थे, सत्ता ने उसको बादल के नीचे छुपा दिया। वो सारे मुद्दे प्रचार में थे ही नहीं।
मोदी का प्रचार नेगेटिव ही था, लेकिन जनादेश ने बता दिया कि कुछ भी नेगेटिव नहीं था, सब कुछ पॉजिटिव ही था। हर रैली में उनकी जाति बदलने लगी! अंत में वो चायवाले से चौकीदार बन गए! टैक्स सुधार जैसे मौकों पर आधी रात को संसद जाना, मिशन शक्ति जैसे गौरवान्वित संस्करण के दौरान वैज्ञानिकों को कैमरे के पीछे धकेलकर खुद ही आधे घंटे तक टेलीविजन के ऊपर चिपक जाना। कई मौके ऐसे थे जिससे मोदी सत्ता को "जश्नबाजों का गैंग" या "विज्ञापनों की सरकार" जैसे उपनाम मिले। लेकिन बालाकोट एयर स्ट्राइक, पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब, आतंकवाद के नासूर को लेकर मोदी सत्ता से लोगों की उम्मीद... इन सब चीजों ने गोबर से कोहिनूर, नाली से गैस, बतख से ऑक्सीजन, पकोड़ा से रोजगार जैसे तमाम विवादों को मोदी सत्ता के खिलाफ विपक्ष द्वारा अपमान ही माना गया। अंत समय तक वो बादल और रडार, भीख-ईमेल और डिजिटल कैमरे, आम खाने जैसी बातों ने मीडिया और देश, दोनों को चर्चा के लिए सब्जेक्ट दिए। लोगों को पांच बरस का हिसाब नहीं चाहिए था, क्योंकि मोदी कांग्रेस का 70 सालों का हिसाब दे ही रहे थे!!! लोगों ने राहुल को कहा कि हमें ना 15 लाख चाहिए, ना 72 हजार, हमें तो मोदी ही चाहिए।

मोदी सत्ता को सबसे ज्यादा शानदार पहचान उसी आक्रामकता ने दिला दी, जो उन्होंने बतौर सत्ता अपनाए रखा। लोकतंत्र में विपक्ष आक्रामक होना चाहिए, सत्ता नहीं। लेकिन सत्ता ने तो हर सवालों को, हर आलोचना को देशद्रोह तक बता दिया। किसी योजना, किसी नीति के खिलाफ, किसी मंत्री के खिलाफ छोटी सी आलोचना होती तो पूरा गैंग उसे देशद्रोह तक ले जाता। मीडिया का एक पूरा तबका, करीब 90 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा तादाद में मीडिया का पूरा समूह, जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया भी कहते हैं, सरकार के कदमों में नतमस्तक था। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस काल में यह नहीं होता था। पुराने दौर में भी होता था, सोनिया काल में भी हुआ। उस वक्त भी सोनिया के सामने मीडिया नतमस्तक था, सरकार की मनपसंद खबरें चलाता था। आज भी वैसा या उससे अधिक हुआ। उस पुराने फिकरे की तरह यूं कह ले कि उसे झुकने को कहा गया और वो रेंगने लगा। भक्त लफ्ज़ 2014 से पहले अस्तित्व में अगर होगा तब भी वो कही कूड़ेदान में होगा। लेकिन 2014 के बाद भक्त लफ्ज़ का जमीन पर अवतरण हुआ। 'गैंग' लफ्ज़ भी खूब छाया रहा। प्रधानमंत्री जैसे सम्मानीय, जिम्मेदार, संवेदनशील ओहदा धारण करनेवाले नरेन्द्र मोदी ने ही 'अवार्ड वापसी गैंग' लफ्ज़ का इस्तेमाल कर लिया!!! एक ही घर में लोग एकदूसरे से झगड़ते हुए नजर आते थे। अगर कोई इन योजनाओं की छोटी-मोटी खामियां तक गिनाता तो उसे 'गैंग' जैसे अपमानजनक लफ्जों से नवाजा जाता था। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने एक दफा एक रैली से कह दिया था कि नोटबंदी की आलोचना करनेवाला विपक्ष आतंकवादियों का संरक्षक है, देश विरोधी मानसिकता रखता है!!! मोदी सत्ता ने खुद को भगवान से भी ऊंचा बना दिया था, जहां भगवान की आलोचना हो सकती थी, सत्ता की नहीं!!! राम की राजनीति करते करते मोदी सत्ता के लोगों ने तो हनुमानजी का जाति निर्धारण करके धर्म को लांछित कर दिया! लेकिन नतीजों ने बतला दिया कि लोगों के लिए यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। भारत जैसे लोकतंत्र में यह एक बड़ा परिवर्तन था।

विपक्ष की गैरमौजूदगी भाजपा को फिर से सत्ता पर काबिज करेगी यह लगभग लगभग मुमकिन लग रहा था। कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि वो जीतती है तब अहंकार से लबालब होती है, वो हारती है तो कहीं दिखाई नहीं देती। 2014 हारने के बाद 2017-18 तक तो यही लगा कि बीजेपी और मोदी ही चुनाव लड़ रहे हैं, कांग्रेस कहीं नहीं है। लेकिन जैसे ही नोटबंदी, जीएसटी और दूसरी नीतियों से लोग मोदी सत्ता से नाराज होने लगे, कांग्रेस रजाई से बाहर निकलने लगी। हालांकि यह जरूर कहा गया कि जिस तरह से बीते पांच बरस में मोदी सत्ता ने काम किया, अगर विपक्ष में मोदी होते तो सत्ता दल को अपना चेहरा बदल लेना पड़ता! इन शोर्ट, विपक्ष अब भी उलझा हुआ था।

ये सच है कि हिंदुत्व हो, पाकिस्तान से भीड़ना हो, आतंकवाद हो, देश की रक्षा हो, तमाम मुद्दों पर एक ही नैरेटिव बनाया गया था कि मोदी ही इसका उपाय है। दूसरे मुद्दे तो थे ही नहीं। लेकिन क्या नैरेटिव से मोदी जीते यह एक बहाना नहीं है? इतना बड़ा देश, इतने पढ़े-लिखे लोग, इतनी जानकारियां, इतनी तकनीक... क्या इतना बड़ा देश सिर्फ और सिर्फ नैरेटिव की जाल में फंस गया ये कहना सही है? बिलकुल सही नहीं है। मीडिया मैनेजमेंट, बीते पांच बरस में मोदी सत्ता का मायाजाल, सब कुछ सही है, लेकिन मोदी सिर्फ और सिर्फ उन आधार पर ही जीत पाए हो, यही अंतिम और एकमात्र छोर नहीं हो सकता। यह सच क्यों नहीं हो सकता कि देश ने मोदी को पहले से भी ज्यादा पसंद किया है? यह सच क्यों नहीं हो सकता कि देश ने सिर्फ और सिर्फ मोदी पर ही भरोसा किया, दूसरों पर नहीं।
अब विशेषज्ञ टीवी पर आएंगे या यू-ट्यूब चैनलों पर अपने अपने विश्लेषण लिखकर बताएंगे कि इन-इन चीजों के चलते मोदी जीते। अरे भाई... तो पहले ही बता देते कि इन चीजों को लेकर मोदी जीतेंगे यह उनको पता था। लेकिन पहले तो कोई नहीं बोलता। यह विशेषज्ञ कमाल की कौम है, पहले बोलते हैं कि इन वजहों से यह हार सकता है। फिर वो जीत जाता है तो इन्हें शर्म नहीं आती यह बोलने में कि इन वजहों से वो जीता। कुछ विशेषज्ञों को इनमें से छोड़ दे। हम तो यहां "रंग बदलने वाले विशेषज्ञों" की बात कर रहे हैं।

यहां ये लिखना होगा कि नरेन्द्र मोदी ने बड़ी मेहनत करके चीजों को पाया है। वो विवादित बयानों वाली शख्सियत है, वादों-वचनों और नीतियों में विवादित है, लेकिन राजनीतिक रूप से भारत के मास्टर पॉलिटिशियन्स में शुमार है। नियत, इतिहास, वर्तमान, सरकार की सफलता के स्थायी पैमाने, विफलता के स्थायी पैमाने आदि को छोड़कर केवल राजनीतिक शख्सियत के दृष्टिकोण से ही यह लिखा है। विपक्षों द्वारा थोड़ा सा मौका मिलता है, वो बाजी मार लेते हैं। वो विपक्षों को मौका नहीं देते। आज का जो विपक्ष है, उससे मोदी-शाह की जोड़ी कई गुना सतेज, चालाक और मेहनती साबित हुई है। नरेन्द्र मोदी सरप्राइज देने वाले नेता है। इस बार उन्होंने विपक्ष को ही सरप्राइज दे दिया! सरप्राइज का आदान-प्रदान राजनीति में चलता रहता है। मोदी की ये सफलता सरप्राइज से भी कुछ ज्यादा है इसमें कोई दो राय नहीं। हम तो दो-तीन दफा लिख भी चुके हैं कि जब तक नरेन्द्र मोदी सरीखा कोई दूसरा उनके सामने नहीं आता, तब तक वो केंद्रीय सत्ता से चले जाए ये मुमकिन भी नहीं। वैसे इतनी बड़ी जीत की आशंका तो हमें भी नहीं थी। मोदी हे तो मुमकिन है का नारा इस कदर चला कि उनके चेहरे के सामने जैसे कि लोगों ने किसी दूसरे को पसंद ही नहीं किया। आगे क्या होगा वह राजनीतिक पंडितों का विषय है। लेकिन ये पंडित हर बार चुनावों के बाद हारते भी हैं ये भी नयी बात उभर कर आई है। लहर सुनामी में तब्दील हो चुकी है। सुनामी का पानी अब आगे कौन से मोड़ पर जाता है ये पंडितों पर या वक्त पर छोड़ देते हैं।

हम इस लंबे-चौड़े आर्टिकल के समापन की तरफ बढ़ते हैं। यह मोटेमोटे तौर पर आम नागरिकी भाषा की बातें हैं। ना ही कोई राजनीतिक पंडित की भाषा है और ना ही विशेषज्ञ वाला अंदाज। कई मुद्दे ऐसे भी है जो छूट गए होंगे। मोदी-शाह तथा बीजेपी-संघ फिर एक बार क्यों सफल हुए यही एकमात्र नजरिया नहीं है। नजरिया यह भी है कि विपक्ष फिर एक बार फिसड्डी साबित क्यों हुआ? 2019 का चुनाव सचमुच सबसे मुश्किल दौर का सबसे मुश्किल चुनाव था, जिसमें मोदी-शाह ही जीते, बाकी सब हार गए!!! अब विशेषज्ञों या पंडितों को भी अपने पेट का इंतज़ाम करना होता है, सो उन्हें यह काम करने दीजिए।

हालांकि ये राजनीति है, भारतीय राजनीति है। यहां कब कौन शहंशाह बने और कब कौन ताज गंवा दे इसका कोई भरोसा नहीं। आम आदमी पार्टी जैसी नयी नवेली पार्टी इतने नंबर लायेगी किसे पता था? सोचा तो ये भी नहीं गया था कि 2014 में कांग्रेस 44 पर सिमट जाएगी। उस वक्त सोचा तो यह भी नहीं गया था कि भाजपा इतनी सफलता के साथ केंद्र में आएगी। पुराने काल में किसी ने नहीं सोचा था कि इंदिरा गांधी हार सकती है। हारने के बाद जब लगा कि इंदिरा युग खत्म हुआ, वह फिर से जीती थी। 2014 में कांग्रेस के हालात के ऊपर भले सोशल मीडिया में स्टेटस डाले जाते हो, लेकिन ये तो नहीं माना गया था कि कांग्रेस खत्म हो चुकी है। आम आदमी पार्टी के दिल्ली में जीतने से ये भी नहीं माना जा सकता था कि अब हर राज्यों में वो बंपर ड्रॉ जीतेगी। मोदी लहर के बाद भी ये सोचना नाइंसाफी ही था कि अब बाकी सारी पार्टियां खत्म हो जाएगी। राजनीति में शायद खत्म होने की प्रक्रिया होती ही नहीं होगी। बात इतनी होगी कि कुछ चीजें कुछ पल के लिए ठहर जाती है। ठहरने वाली चीजें वक्त के साथ फिर लौटती है। लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी बैठने वाली जोड़ी नहीं है ये उनकी राजनीति का सच है। जब तलक मोदी-शाह मैदान में हैं, कोई चमत्कार ही विपक्षों को जीता सकता है। 2014 में विपक्ष बिखरा हुआ था, 2019 में विपक्ष करीब-करीब एक था। मोदी-शाह ने सिर्फ जीत नहीं दर्ज की, बल्कि समूचे विपक्ष को, क्षेत्रीय दलों तक को, करारी हार दी है।
अगर मोदी हारते तब भी सवाल था, मोदी जीते हैं तब भी सवाल तो है ही। अब देश कौन सी तरफ जाएगा? बीते पांच बरस में जो कुछ हुआ है, बीजेपी या संघ कौन सी सड़क पकड़ेंगे? विपक्ष क्या गुल खिलाएगा? किसी मोदी या राहुल जैसों के होने या ना होने की वजह से इस देश के आसपास के समंदर सूख नहीं जानेवाले। क्या बीजेपी और संघ उसी चौखट पर जाकर खड़े होंगे, जहां वो पहले थे? भगत सिंह की देशभक्ति चलेगी या सावरकर का उग्र हिंदुत्व? वाजपेयी की भाजपा उभरेगी या मोदी की बीजेपी? सवाल विपक्ष पर भी है। वो बीते पांच बरस से विपक्ष है, अब अगले पांच बरस भी रहना है, लेकिन क्या वे देश के लिए जरूरी हो ऐसा विपक्ष बन पाएँगे? मीडिया का क्या रोल रहेगा? उसे किसी न किसी का गुलाम तो होना ही है, लेकिन क्या वो आदर्श गुलाम फिर एक बार बनेगा? विपक्ष विरोध की सबल राजनीति करेगा? जो विपक्ष चुनावों में ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा, क्या वो जनता की समस्याओं पर ठीक से खड़ा हो पाएगा? हमारे राजनीतिक दल सही में संगठन बनेंगे या फिर एक-दो लोगों की संपत्ति बनकर रह जाएंगे?

एक बात बड़ी दिलचस्प रही। यह चुनाव बहुत लंबा और थकानेवाला था। लेकिन नतीजे बड़ी जल्दी आ गए। मतलब कि सुबह से जो रुझान निकले, फिर वो उसी दिशा में ऊपर तक बढ़ते गए। चुनाव बड़ा लंबा चला, लेकिन नतीजे चंद घंटों में ही निश्चित हो गए। दिलचस्प यह भी है कि एक दौर था जब गठबंधन सरकारें होती थी, आज विपक्ष को गठबंधन करके जिंदा रहना पड़ रहा है!!!

अब विशेषज्ञ, जो कुछ दिनों पहले कुछ और कहते थे, आज कुछ दूसरा ही कहने लगेंगे। जो पहले कहते थे कि यह जीत सकता है, वो ये कहेंगे कि जो जीत सकता था वो क्यों हारा। मैंने तो तमाम चुनावों में एक कॉमन सी बात देखी है। वो यह कि नतीजों के बाद सबके ज्ञान और तर्क तुरंत बदल जाते हैं!!!

(इंडिया इनसाइड, एम वाला)