Ticker

6/recent/ticker-posts

Special People Vs Common People : खास जनता और आम जनता के बीच नियमों में अंतर है?



हमारे यहां सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन एक जनभावना स्थायी रहती है। सरकारें कोई भी हो, किंतु जनमानस से एक ही शिकायत आती रही है कि संविधान सबके लिए एक है, बस पालन करवाने के तौर तरीके अलग हैं?

एक आदमी गलती से भी ट्रैफिक सिग्नल तोड़ देता है तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है, जबकि देश के संवैधानिक मूल्यों को तोड़ने वाले नेता को मंत्री बना दिया जाता है.... एक चपरासी को निचले स्तर की कही जाने वाली नौकरी के लिए भी अपनी शैक्षिक योग्यता साबित करनी पड़ती है, जबकि सभ्यता व देश के प्रति जवाबदेह बनने के लिए मंत्री को ये नहीं करना पड़ता... शराब पीकर गाड़ी चलाये तो जुर्माना, लेकिन शराब बनाने वालों पर उतनी सख्ती नहीं... नदियां मैली कर दो तो खैर नहीं, लेकिन उसी नदियों में लाखों टन का ज़हरीला कचरा डालने वाली बड़ी बड़ी कंपनियों पर कुछेक जुर्माने के अलावा कुछ नहीं... सीट बेल्ट नहीं लगाया, हेलमेट नहीं पहना तो आपने देश को नुकसान पहुंचाया हो उतनी सख्ती, लेकीन बड़े बड़े घोटालों पर सालों तक मामले चलेंगे... सोशल मीडिया पर नेता के विरुद्ध टिप्पणी कर दो तो जेल, लेकिन संसद में या रैलियों में नेता गालियां तक बक दे तब भी उसको बेल.... किसी नेता का कार्टून बना दो तो जेल में ठूंस दिये जाओगे, लेकिन नेता, जो खूद कार्टूनबाजी करते हैं उन्हें देश की सबसे सस्ती थाली का जायका मिलेगा..... ये वो कुछेक शिकायतें हैं जो देश हमेशा करता है। हर पल करता है, हर साल करता है और हर दफा करता है। ये बात और है कि जिसे वोट किया हो उसकी सरकार बन जाए फिर कुछ तबका ये शिकायत नहीं करता!!! क्योंकि फिर वो देश नहीं रह जाता, वो सत्ता हो जाता होगा!!! जैसे कि महंगाई पर लोग शिकायतें करते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे महंगाई की शिकायत करने वाले लोगों की शिकायतें करने लगते हैं, महंगाई की नहीं करते!!!

खैर... सत्ता प्राप्त और सत्ता से विलुप्त प्रजातियों की बात तो हमने अलग संस्करण में कर ली है। यहां बात हो रही है देश की निरंतर और युग युग से जारी मन की बात की। देश की शिकायत यह नहीं होती कि उनके लिए सख्त प्रावधान क्यों है? उनका मकसद यह भी नहीं होता कि उनके जीवन पर सख्त नियमों का पहरा क्यों है? उनकी शिकायत तो एक ही रहती है कि उस सख्ती में, उस पहरे में, उस पैमाने में... आवाम और राजनेता इन दोनों के बीच अंतर क्यों है? कहने को कहा जा सकता है कि देश का संविधान, कानून या प्रावधान सभी के लिए एक समान है। लेकिन दिल पर हाथ रख कर बताइए कि क्या यह सचमुच सच है? वैसे संविधान, कानून या प्रावधान एक समान है... लेकिन उसका पालन एक समान कतई नहीं रहा। उसमें तो निश्चित ही अंतर है।

यातायात के नियमों को तोड़ने पर सज़ा के जो प्रावधान हैं, दंडित होने के जो प्रावधान हैं उससे लोग उतने नाराज नहीं होते। लेकिन उसका पालन तथा पालन में अंतर पर लोग हमेशा नाराज रहते ही हैं। आजकल मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन की बातें चल रही हैं। लेख पोस्ट होगा तब तक शायद कानून बन भी जाए। संशोधन में जुर्माने की रकम और सज़ा के प्रावधान काफी कड़े कर दिये जाने की बातें हैं। लगभग तमाम नागरिक इन संशोधनों को पहली नजर में अच्छा मान रहे हैं। लेकिन उनका मूल सवाल है प्रावधानों के पालन को लेकर। सीधी बात करे तो, मान लीजिए कि जुर्माने की रकम जो 500 थी उसे 1000 कर दी जाए तो क्या फर्फ पड़ेगा? लोग सीधा सीधा बोल देते है कि पहले 500 के जुर्माने को 200-250 में सेट किया जाता था, अब 500-600 में सेट किया जाने लगेगा। प्रावधान कड़े करने से तथा जुर्माने की रकम बढ़ाने से समस्या का समाधान कतई नहीं आनेवाला। बल्कि इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। लोग इस मामले पर जोर देकर कहते हैं कि भ्रष्टाचार बढ़ेगा और यकीनन बढ़ेगा।
इसका उपाय है सीसीटीवी कैमरे से नजर रखना। लेकिन किस पर? लोगों पर या ट्रैफिक पर नहीं, बल्कि ट्रैफिक दुरूस्त करने में लगे कर्मियों पर? ये वाकई अजीब सा है। ट्रैफिक पर नजर रखने के लिए कर्मचारी और वो सही काम करे उसके लिए उन पर नजर रखने के लिए सीसीटीवी नाम का डिजिटल कर्मचारी!!! वैसे हमारे यहां सीसीटीवी होते हुए भी खबरें आती हैं कि चोर पूरा का पूरा एटीएम मशीन उड़ा कर ही ले जाता है। हादसे होने के बाद मीडिया में खबरें सुनने के लिए मिलती हैं कि इतने इतने कैमरे बंद थे या काम नहीं कर रहे थे।

वैसे पिछले कुछ सालों में सड़क दुर्घटना के प्रमाणित आंकड़े खंगाले तो, 2014 के दौरान 1,39,671 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए। 2015 के दौरान मरनेवालों की संख्या 1,46,000 से ज्यादा थी। यानी कि हर रोज 400 लोगों की मौतें होती हैं। 2015 में घायल होने वालों की संख्या तकरीबन 4,00,000 थी। सड़क दुर्घटनाओं में सड़कें, गाड़ियां इन सबका दोष तो होता ही है, लेकिन स्वयं नागरिक भी कम दोषी नहीं है। कहा जाता है कि लोग लाल सिग्नल देखकर गाड़ी नहीं रोकेंगे, लेकिन बिल्ली रास्ता काट दे तब स्वयं ही रूक जाएंगे! शराब पीकर गाड़ी चलाना, बालिगों का गाड़ियां लेकर सड़क पर निकल जाना, ये सब नागरिकी योगदान ही है। लोग समझते हैं कि सख्ती ज़रूरी है। लेकिन लोगों का मूलत: यह कहना है कि सख्ती प्रावधानों की जगह उसके पालन और प्रक्रिया में ज़रूरी है। जुर्माना बढ़ाने से यदि समस्या का हल हो जाता, तो पिछले जुर्मानों के वक्त यह हल हो जाना चाहिए था, क्योंकि उस वक्त भी कुछेक जुर्मानों की रकम ज्यादा ही लगती थी। सितारों द्वारा यातायात के नियमों का उल्लंघन होता है, उनकी गाड़ियों से टकराकर लोग मारे जाते हैं, नेताओं के काफिले में भी एंबुलेंस फंसती है, मरीज़ मर भी जाता है ऐसे वाक़ये भी हो चुके हैं। बड़े लोगों के बड़े काफिले सड़कों पर नागरिकों के काफिले को रोक देते हैं। कभी कभी किसी को उड़ा भी देते हैं। पर्यावरणीय, वन्यजीवन, पेड़- पौधों के कानून से लेकर हर प्रकार के कानून का सबसे ज्यादा उल्लंघन तो नेताओं या बड़े बड़े लोगों ने ही किया। लेकिन लोग कहते हैं कि प्रक्रिया पालन में बड़े बड़े नामों को काफी सहूलियतें मिल जाती हैं। न्यायालय भी क्या करे, जब शुरू से सब लचक करके वहां पहुंचाया जाता हैं। आखिर फैसले आते है कि सबूत ना होने की वजह से ये फैसला या वो फैसला वगैरह।

वैसे एक दफा किसीने बड़ी सही बात की थी। उस वक्त मीडिया पर चर्चा हो रही थी कि एक्सीडेंट से सालाना लाखों लोग मरते हैं वगैरह वगैरह। उस इंसान ने कहा कि सरकारी लापरवाही से कितने लोग मरते हैं इसका आंकड़ा भी कह दीजिए। कहीं रोड़ टूटने से, पुल टूटने से या निर्माणाधीन फ्लाईओवर या इमारतें वगैरह टूटने से समूचे परिवार भारत देश से बिदा कर दिए जाते हैं। जी हां, बिदा कर दिए जाते हैं। क्योंकि ये सरकारी लापरवाही की वजह से ही तो होता है। लापरवाही नाम की पुरानी और सबसे बड़ी पीड़ा से इस देश में सालाना जितने लोग मरते हैं, उतने तो शायद किसी युद्ध में भी नहीं मारे जाते होंगे। लेकिन नतीजा क्या? जांच-वांच का एलान, मुआवजे...। जैसे कि सरकारों का काम मुआवजा बांटना ही होता होगा!!!
लापरवाही नामकी समस्या को सरकार लापरवाही से ही लेती है, क्योंकि उसके अच्छे नसीब में लापरवाह भक्तगण भी होते हैं। खैर, हम आगे बढ़ते हैं और चलते हैं नेता समुदाय की सभाएँ और उनकी रैलियों की तरफ। छोटे छोटे गांवों से लेकर बड़े बड़े शहरों में राजनीति की यह सभाएँ या रैलियां होती रहती हैं। सभा की जगह से लेकर उसके अंत तक कई सारे नियमों का उल्लंघन होता है। आम जनता के लिए यातायात की जो सुविधाएँ हो वो वहां पर लगा दी जाती हैं। कभी कभार तो स्कूल की बसें तक रैलियों में लगा दी जाती हैं। फिर भले उस दिन बच्चे स्कूल पहुंच न पाए। और फिर सभा में नेताजी भाषण देते है कि शिक्षा के लिए हमें जी-जांन से बलिदान देना होगा!!! पर नेताजी स्कूल बसों का बलिदान उसी दिन दे चुके होते हैं!!! पर्यावरण जागृति की सभाएँ होती रहती हैं, रैलियां होती रहती हैं। पता चलता है कि नेताजी के लिए सभा करने हेतु वहां सैकड़ों पेड़ पोधों को ही उड़ा दिया जाता है। और फिर वहां मंच से नेताजी भाषण देते हैं कि पेड़ उगाने चाहिए!!! वे ग्लोबल वॉर्मिंग पर अपना ज्ञान सभा-समूह पर फेंक करके निकल जाते हैं। उनका हेलीकॉप्टर कहीं भी उतर जाता है। उनका काफिला कहीं से भी गुजर जाता है। उनकी सभाएँ कहीं पर भी हो जाती हैं। ये सब बातें लोगों के मन में या जेहन में है। यह सब भारत के मन की बातें हैं, जो कभी कभार ही उभरती हैं, लेकिन थमती कभी नहीं।

अगर आप सही सही समझे तो, लोग कानून पर सवाल नहीं उठाते बल्कि कानून के पालन करवाने के तरीकों पर सवाल उठाते हैं। वो स्वीकार करते हैं कि 100 रुपये के जुर्माने के वक्त 20-50 रुपयों में सेटलमेंट किया जाता था। जिसमें कानून के पालन करवाने वाले अधिकारी तथा जिसके लिए कानून बनाए गए थे वो महाशय... इन दोनों की मूकसंमति से यह प्रक्रिया हो जाया करती थी। अब इस प्रक्रिया में आर्थिक बोझ में बदलाव आएगा। यानी कि लोगों को ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे और पालन करवाने वाले ज्यादा फायदे में रहेंगे। अगर आप अपने तौर पर विवेचक है तो इसे आप भ्रष्टाचार में लोगों तथा अधिकारियों की परस्पर संमति वाले संस्करण पर चर्चा कर सकते हैं। लेकिन फिर यही पाएंगे कि इससे नये संशोधन का कोई फायदा नहीं रहेगा। हा, इसका ठीकरा किसके सिर पर फोड़ा जा सकता है उस बात को लेकर आत्मसंतुष्टि ज़रूर मिल जाएगी।

अभी कुछ ही सालों पहले ही में बिहार में नीतीश सरकार ने शराब निषेध विधेयक पारित किया था। आपके घर से शराब मिलती है तो शराब पीने वालों के साथ साथ पूरा परिवार जेल जाएगा। कई बार देखा गया है कि लगभग आधी जिंदगी खत्म होने के बाद पता चलता है कि हमारे परिवार में कोई शराब सेवन भी करता है। ये और बात है कि कई बार लोग सामूहिक रूप से भी करते होंगे। किराये के मकान में किरायेदार शराब पीता है तब मकान सील कर दिया जाएगा और मकान मालिक पर केस होगा। बताइए, जिसके अलग अलग शहरों में मकान हो, खोली हो, वो अपने काम धंधे में व्यस्त रहे या फिर उनके किरायेदारों की जासूसी करता फिरे? किसी घर में अंगूर व गुड़ आदि का मिश्रण भी मिल जाता है, तब भी उसे शराब बनाने की प्रक्रिया मानकर सभी पर केस चलेगा। जो महिलाएँ अपने अपने पति की शराब पीने की आदत छुड़ाने के लिए सरकारों से सख्त प्रावधानों की मांगे कर रही थी, उन्हें ही तोहफा मिलता है कि पति के साथ साथ आप भी जेल जाएगी। इसके अलावा एक प्रावधान यह भी था कि गिरफ्तार पुलिस करती है लेकिन उसके बाद आरोप पुलिस को साबित नहीं करना पड़ेगा, आरोपी को स्वयं ही स्वयं को निर्दोष साबित करना होगा!!! वैसे झूठे केस में फंसाये जाने पर अधिकारियों को तीन साल की सज़ा का प्रावधान था। बताइए, 10-20 की थैली पीने वाले कहां से वकील रोकेंगे और कहां से केस लड़ेंगे। आप के घर का कोई एक सदस्य शराब पीता है, आप को पता भी है कि पीता है, वो जबरन पीता है, आप सालों से उसे रोकने के लिए प्रयत्न करते रहते है, आप चाहते है कि उसे जहां से शराब मिलती है वो जगह बंद कर दी जाए, शराब बेचने वालों पर सख्ती की जाए, लेकिन आप को ही साथ में जेल में ठूंस दिया जाए तो? मजाक में लोग कहते हैं कि इस गम में तो खुद ही शराब पीना शुरू करना पड़ेगा!!!
हालांकि जानकार बताते रहे कि नीतीश कुमारजी का यह विधेयक उन्होंने जानबूझकर इतना सख्त बनाया था, ताकि कोर्ट के सामने टिक ना पाए। इसके पीछे जानकार नीतीशजी का राजनीतिक दिमाग बताते थे। जो भी हो, लेकिन जनलोकपाल के सख्त प्रावधानों पर इतराने वाले नेता लोग आवाम पर सख्त कानून धड़ल्ले से लगा देते है। कहा जाता है कि जनकार्य की फाइलें बेचारी पीछे रह जाती हैं और विधायकजी अपने वेतन इज़ाफ़े की फाइलें जंप करवाके आगे बढ़ा देते हैं!!!

जैसे कि सितम्बर 2016 के दौरान गुजरात में आंतरिक सुरक्षा कानून की कवायद तेज होती हुई दिखी थी। हालांकि, देश में आंतरिक सुरक्षा को लेकर कई सारी घटनाएँ-दुर्घटनाएँ घटित हो रही थी, इस लिहाज से सख्त कानून की आवश्यकता थी। लेकिन, केवल शक के आधार पर गिरफ्तारी की इजाज़त, किसी भी अपराध को गैरजमानती अपराध मानना, आतंरिक सुरक्षा के आधार पर संस्थाओं के प्रति कार्रवाई नहीं की जा सकती, जैसी चीजों ने इसे ज़रूरत से ज्यादा अव्यावहारिक कानून का ढांचा बना दिया। आतंकवादी कृत्यों के अलावा अराजकता पैदा करना, जातिओं के बीच वैमनस्य पैदा करना जैसी चीजों में शक के आधार पर गिरफ्तारियों की इजाज़त को लेकर लोगों में बातें होती रही कि जातियों के बीच वैमनस्य फैलाने का काम नेताओं ने अपने बयानों के जरिये अनेकों बार किए हैं। उधर अराजकता फैलाना क्या है इसको लेकर भी तंज कसे गए। कहा गया कि अराजकता या वैमनस्य भूतकाल में किसने ज्यादा फैलाये हैं या इसके लिए प्रयत्न किये हैं, ये सैकड़ों बार जगजाहिर हो चुका है। यहां पर भी कानून से किसी को परहेज नहीं था, लेकिन जो विवादित प्रावधान थे उसे लेकर टिप्पणियां की गई कि इसके लिए तो सबसे पहले उन लोगों को गैरजमानती धाराओं के तहत उठा लेना चाहिए, जिन पर संबंधित धाराओं को लेकर सैकड़ों मामले चल रहे हैं।

ट्रैफिक संशोधन में भी लोग शिकायतें करते हैं कि शराब पीकर गाड़ी चलाने पर भारी जुर्माना है। यह आवकार्य है। लेकिन सरकार शराब का धंधा करने वालों पर, शराब का व्यापार करने वालों पर क्यों सख्ती नहीं दिखाती? शराब से हो रही आय तमाम सरकारों को चाहिए, लेकिन सरकारी शर्त तो देखिये कि शराब पीना अपराध नहीं है, शराब पीकर गाड़ी चलाना अपराध है!!! इस प्रकार के लचर प्रावधानों को लोग सख्त प्रावधान नहीं मानते, बल्कि इसे लेकर लोग कहते हैं कि यह मजाकिये प्रावधान है, जिसमें सरकारें लोगों के साथ मजाक कर रही हैं।

लोगों को यह भी अजीब सा ही लगता होगा कि गाड़ी चलाते समय लाइसेंस ना रखा, कागजात नहीं है, गाड़ी की कोई भी लाइट तक बंद है, तो फिर आप को जुर्माना भरना होगा। किसी वक्त गाड़ी छुड़ाने कोर्ट तक जाना पड़ेगा। बहुत ज्यादा उतावले ना बनिए। लोगों को यह अजीब नहीं लगता। बल्कि अजीब यह लगता है कि उसी गाड़ी को बनाने वाली कंपनियां कोई गलती करे, तय किये गये पैमाने को तोड़े, नियमों का उल्लंघन करे, प्रदुषण के घोटाले करे, तब उसे बड़ी शिद्दत से कारें वापिस खींचने का मौका दिया जाता है। उनकी एक भी कार जब्त नहीं होती। जुर्माना भी उन्हें मुहब्बत से अदा करवाया जाता है। कभी कभी तो कंपनियां दलील भी दे देती हैं कि जुर्माना बहुत ज्यादा है। उनकी ये बात भी सुनी जाती है!!!
यही हाल खाद्य पदार्थों को लेकर है। लोग तो यह सोच कर खाने से डरते हैं कि क्या पता इसमें कौन सा पदार्थ अधिक मात्रा में डाल दिया गया हो। कुछ तो यह सोच कर धड़ल्ले से खा लेते हैं कि मानव शरीर कुछ भी हजम कर सकता है!!! कभी कोई चीज़ खतरनाक बताई जाती है, कभी दूसरी चीज़ नुकसानदेह बन जाती है। सैंपल फेल होते हैं। इसके एवज में आदेश के नाम पर आदेश दिया जाता है कि उत्पाद बाज़ार से वापिस खींच लो। फिर महीनों बाद सैंपल का स्वास्थ्य भी ठीक हो जाता है!!! और दोबारा कंपनियां बाज़ार में कूद जाती हैं। नेता लोग अपने बयान को तो अन-डू करते ही हैं, उत्पादों को भी अन-डू की सुविधाएँ मिलती हैं!!!

यातायत के नियम तोड़ दो तब नहीं छूटेंगे, लेकिन आप स्वास्थ्य नियमों को तोड़ दो, लोगों की जिंदगियां खतरे में डाल दो तब आप को अपना उत्पाद वापिस खींचने का मौका ज़रूर मिल जाएगा! अपने सर पर छत बनाने के लिए लोन ले रखा है तब आप से तो क्या, आप ना भी रहे तो आप के बच्चों से पैसा वसूला जाएगा... लेकिन यदि आपने कम पैसों की लोन ली है तभी!!! करोड़ों रुपये लिये हो, अलग अलग बैंकों से लिये हो, उस हालात में आप विदेश में बैठे होंगे और सरकार आपसे मिन्नतें कर रही होगी!!! कुछेक हज़ार के लोन की किस्त ना चुका पाए तब जेल जाओगे, करोड़ों चुका ना पाए तो किस्तों में चुकाने की मिन्नतें मिलेगी!!! मानसून कमजोर हो और आप का जीना मुहाल हो जाए तब भी नियम दिखाया जाएगा कि पूरे प्रदेश का जीना मुहाल हो तभी आगे बढ़ा जा सकता है। लेकिन आप की एविएशन कंपनी घाटे में चली गई तो आपको सामने से मदद मिलेगी। आप छोटा-मोटा धंधा करते है तो आप को आपके जोख़िम पर करना पड़ेगा। आप सरकार से कहेंगे कि मुझे धंधे में नुकसान हो रहा है तब सरकार कहेगी कि बंद करके घर चले जाओ। लेकिन बड़ा धंधा करते है और आप नुकसान की शिकायत करे तब आप को नुकसान न हो इसके लिए खुद सरकार प्रयत्न में लग जाएगी!!!

आरबीआई जैसा जवाबवदेह संस्थान करेंसी को भी गलत छाप देता है। जैसे कि जनवरी 2016 में 30,000 करोड़ के नोट गलत छाप दिये गये थे, जिनमें से 10,000 करोड़ के नोट तो बाज़ार में चले भी गये थे! 2000 के नये नोट में भी लिखापढ़ी में कुछ गलती थी। लोग इस पर तंज कसते हुए कहते हैं कि हमने गलती से ट्रैफिक सिग्नल भी तोड़ा होता तो नियमों के और जुर्माने के पुलिंदे लाद दिये जाते, लेकिन यहां गलती किसी संस्थान ने की और उस गलती का भुगतान लोगों ने किया। क्योंकि नोट छापने में जो आर्थिक बोझ आता है वो आखिरकार लोगो के कमजोर हो चुके कंधों पर ही तो जाता है।
मामले तो यहां तक है कि आपने करोड़ों-अरबों का गोलमाल किया है तब सरकार आपके नाम देश के सामने ना आ जाए इसके लिए अदालत तक से लड़ पड़ेगी, लेकिन कुछ लाख के लोन का किस्त न चुका पाए तो तामझाम के साथ आप का नाम अख़बारों में छाप दिया जाएगा!!! घरेलू लोन के लिए तो बैंक रिक्वरी एजेंट तक रखते हैं, जो कहीं पर भी आकर आप का गला पकड़ सकते हैं, लेकिन करोड़ों-अरबों का खेल करने वालों के तो पैर पकड़े जाते हैं!!!

अब इन सब मामलों को लेकर सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है। अर्थतंत्र के विशेषज्ञ बड़े बड़े लंबे चौड़े भाषण सुना सुना कर व्यवस्था ज्ञान बांट सकते हैं। वैसे भी जीडीपी जीडीपी बहुत चलता रहता है, लेकिन फिर भी किसी का बीपी कम नहीं होता!!! शेयर बाज़ार ऊपर भी जाता है, नीचे भी गिरता है। पर शाम की खिचड़ी का जुगाड़ करने वालों का बाज़ार तो वहीं का वहीं रह जाता है।

देखिए न, बताया गया था कि भारत में सिर्फ 57 लोग ऐसे हैं, जिनके पास बैंकों के 85,000 करोड़ बकाया है। ऊपर से भारतीय रिजर्व बैंक ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि इनके नाम पब्लिक को न बताए! कमाल की सुविधा है यह!!! कई वित्तमंत्रियों के कई बयान मिल जाएंगे कि बैंक पैसे वसूलने के लिए आजाद है, बैंकों को किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है। लगता है कि इस आजादी का लाभ बैंकों से ज्यादा तो उन लोगों ने उठाया है। अगर ये सभी किसान होते तो अकेला तहसीलदार इन पैसों को वसूल के ले आता!!! पॉजिटिव बात यह कि इन 57 में से किसी ने आत्महत्या नहीं की है!!!

एक कंपनी का गैस लाखों को मार देता है। फैसला आता है तब लगता है कि गैस खुद-ब-खुद लीक हो गया होगा!!! चिंकारा ने भी स्वयं ही आत्महत्या कर ली थी!!! तोपें भी खुद-ब-खुद पैसे खा गई थी!!! कफन ने खुद-ब-खुद अपने दाम बढ़ा दिये थे और क्वालिटी कम कर दी थी!!! टूजी घोटाला स्वयं स्पेक्ट्रम डिवाइस ने किया था, किसी नेता या अधिकारी ने नहीं!!! बड़े लोगों की गाड़ियां खुद ही फूटपाथ पर चढ़ जाती होगी। लोग कहते हैं कि कुछेक मामलों को बता बता कर व्यवस्था संतुष्टि प्राप्त करवाने के प्रयत्न किये जाते हैं। किसान कहता है कि मुझे तो इंतज़ार है कि मुझे भी 1 रुपये में जमीन मिल जाए। मैंने क्या बिगाड़ा है इस देश का? दूसरा किसान कहता है कि सपने मत देख, मिलेगी नहीं, लेकिन देनी ज़रूर पड़ेगी!!!
वैसे भी हमारे नागरिकों को बैंक में पैसे जमा करने पर या पैसे उठाने पर नियमों की बड़ी बड़ी सूची थमा दी जाती है। एक-एक पैसे के लिए नागरिकों को हिसाब देना पड़ता है। चाहे पैसे डाले या अपने पैसे उठाए हो। कई बार किसी विशेष सरकारी फैसलों के दौरान नियमों का ये पुलिंदा सख्ती के साथ लंबा भी हो जाता है। वही राजनीतिक दलों को विशेष छूट है। बीस हज़ार तक के फंड का नियम सालों तक चला, फंड में टैक्स छूट का मामला आदि इसके जीवंत उदाहरण है। इधर बीस हज़ार से दो हज़ार किया जाता है, उधर आय के स्त्रोत को और कमजोर किया जाता है। नागरिकों से एक एक पैसे का हिसाब मांगा जाता है या कभी कभार कैशलेस के नाम पर मजबूरन नियम लगा दिये जाते हैं। लेकिन राजनीतिक दलों से सदस्यता के नाम पर लिये जाने वाले 10 रुपये का हिसाब मांगा जाये उस दौर का इंतज़ार नागरिकों को आज भी है। उनके 75 फीसदी फंड गुप्त जरिये से आते है, बीस हज़ार तक तो उन्हें सालों तक जमकर भांगड़ा करने की छूट रही! लोग इन्हीं अंतरों को लेकर चर्चा करते हैं।

हमारे यहां सभी राजनीतिक दल और उनके नेता आर्थिक असमानता की बातें बहुत करते हैं। आर्थिक असमानता की तो छोड़ दीजिए, जिन नियमों या कानूनों के लिए कहा जाता है कि फलांना फलांना कानून या नियम सबके लिए एक है, उनमें समानता मैग्नीफायर ग्लास से ढूंढनी पड़ती है!!! देखिये न, आम नागरिक पांच हज़ार जमा करवाने जाए तो पूछा जाता था... क्यों देर से आये? पहले क्यों नहीं आये? ये कागज लाओ, वोह कागज लाओ, जबकि उसे पहले बताया गया था कि आराम से आइएं, काफी वक्त है!!! वहीं, काला धन घोषित करने की योजना (आईडीएस) में आखिरी दिन तक किसी महानुभाव (सॉरी, काले महानुभाव) को पूछा नहीं गया था कि देर क्यों हुई? और तो और, कुछ बड़े डिफॉल्टर भी सामने आये थे। उनसे पूछा गया हो कि कितनों का पैसा लेकर आये हो, ऐसे मामले कम ही होंगे। गुजरात के सूरत से एक मामला था, जिसमें डिफॉल्टर ने खुद कहा कि कइयों के पैसे हैं। दिनों तक गुम रहने के बाद बाकायदा स्थानिक मीडिया के सामने वो सनसनीखेज तरीके से हाजिर हुआ, कई खुलासे किए। लेकिन बाद में पता ही नहीं चला कि कितनों कितनों की साझेदारी थी इसमें। उधर सरकारें काले धन और काले कारोबारी को ढूंढने के नाटक करती रहती है, इधर बंदा सामने आता है, फिर पता नहीं काले मामले में टोटल काला (ब्लैक आउट) क्यों हो गया था।

सदन में हाजिरी को लेकर भी बड़े तंज कसे जाते हैं। बच्चा स्कूल न जा पाए तब उसे चिठ्ठी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। या तो पहले से सूचित करना पड़ता है। उसकी स्कूल में हाजिरी उसके परफॉर्मन्स का आधार बनती है। सांसद कहते हैं कि शुक्र है हमारे यहां ऐसा नहीं है! आप समझ तो गये ही होंगे। बड़ी प्रचलित और पुरानी चर्चा है यह। लोग तंज कसते हैं कि बच्चा अगर ना जाए तब उसे समझा-बुझा कर या डरा कर स्कूल भेजा जा सकता है, लेकिन 75-75 साल के बुढ्ढे सांसदों को समझा कर या डरा कर संसद भेजा भी कैसे जाए? वैसे स्कूल का खाना और संसद कैंटीन का खाना... इन दोनों की तुलना भी अरसे से होती आ रही है। मिड डे मील का खाना, खाने में जंतुओं का निकलना, बासी अनाज वाला खाना खाकर सैकड़ों मासूमों का अस्पतालों तक पहुंचना... काफी खबरें आती रहती हैं। वहीं संसद की कैंटीन की थाली। कहा जाता है कि कुछेक समय पहले यह थाली देश की सबसे सस्ती थाली थी। 2 रुपये की थाली थी। और उस वक्त गांवों तक की होटलों में आम थाली का दाम 50 रुपये तक था। तंज कसा जाता है कि संसद के कैंटीन में एकाध बार मिड डे मिल का खाना परोसा जाना चाहिए। ताकि वे खुद को देश के साथ जोड़ सकें।

वहां पर सांसदों के बोल-वचन, मर्यादाएँ लांधती भाषा, माईककुर्सी तक का तोड़ना... कई सारे काले-पीले या नीले टिके हैं, जो सांसदों ने देश को अर्पण किये हैं। अपने हक़ के लिए आंदोलन के दौरान सरकारी संपत्ति को नुकसान मत पहुंचाना, ये बात और है कि जनसंपत्ति को वे संसद में तोड़ फोड़ के रख देंगे!!! वैसे मानहानि को लेकर कानून है, ये मामला जनहानि का ज़रूर बनता है। क्योंकि संसद की संपत्ति जनसंपत्ति तो है।  
वैसे सोशल मीडिया की धारा 66ए को हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। वर्ना इसे सैकड़ों बार आम नागरिकों पर आजमाया गया था। किसी ने नेता का कार्टून बनाया तो वो जेल भेज दिया गया। किसी ने नेता के विरुद्ध टिप्पणी कर दी तो उसे जेल भेज दिया गया। प्रचलित या वायरल हो चुकी खबरों के अलावा भी सैकड़ों ऐसे मामलें मिल जाएंगे जहां पर ऐसी चीजें घटित हुई हो।

ट्रैफिक सिग्नल तोड़ने पर जुर्माना भरना पड़ता है, लेकिन राज्यपाल सरीखा आदमी संविधान, कानून, नीति, नियमों को गढ्ढे में दफना भी दे, उसे कुछ नहीं होता!!! आप समझ ना पाए हो तो सीधे ही बात कर लेते है। हमारे यहां राष्ट्रपति शासन लगना कई दफा असंवैधानिक करार दिया जा चुका है। ताज़ा इतिहास में ऐसी दो घटनाएँ हुई थी। सुप्रीम कोर्ट तक ने राज्यपाल को झाड़ दिया था। राज्यपाल ने जो किया वह गलत था यह साबित होने के बाद भी राज्यपाल को कोई सज़ा नहीं होती!!! बस, राज्यपाल ने गलत काम किया, राष्ट्रपति शासन लगना गलत था। फैसला हो गया। गलत था, गलती किसने की ये भी पता है, लेकिन सज़ा नहीं!!! क्योंकि ट्रैफिक सिग्नल थोड़ी न तोड़ा है, संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया है! इसमें शायद सज़ा नहीं होती होगी। राज्यपाल सरीखा आदमी संविधान के खिलाफ भी कुछ कर दे तब भी कोई कानून उसे कुछ नहीं कर पाता। लोगों में ये चर्चा भी होती रहती हैं।

जनवरी 2019 में देश की सबसे बड़ी जांच संस्थान के अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव अवमानना के दोषी साबित हुए। सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरपुर शेल्टर होम सरीखे गंभीर मामले में कहा था कि जांच अधिकारी का ट्रांसफर नहीं होना चाहिए। वाबजूद इसके अंतरिम निदेशक ने ट्रांसफर पर दस्तखत कर दिए। सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें अवमानना का दोषी पाया। अदालत ने कहा कि अब तो आपको भगवान ही बचाए। फिर उन्हें सज़ा दी गई। सज़ा थी 1 लाख रुपये जुर्माना और पूरे दिन अदालत चले तब तक कोने में बैठना। बैठना था उन्हें... मुर्गा नहीं बनना था स्टूडेंट की तरह। बैठने के लिए बाकायदा कुछ दिया गया होगा उन्हें। बताइए, इतने गंभीर मामले में इतने बड़े आदेश का इतना बड़ा उल्लंघन। लेकिन सज़ा क्या? यही कि पूरा दिन कोने में बैठे रहो। इससे बड़ी सज़ा तो नेता लोग उन इमानदार अधिकारियों को दे देते हैं जो सही जांच करते होते है।

बड़ी शिद्दत से लोग हमारी लचर हो चुकी व्यवस्थाओं का चरित्र उजागर करते हुए कहते हैं कि चार हज़ार रुपये जमा करने जाए तब भी पेन कार्ड या आधार कार्ड बताना पड़ता है, लेकिन राजनीतिक दलों को लाखों-करोड़ों के चंदे में चुनाव आयोग को ये नहीं बताना पड़ता!!! माहिती अधिकार अधिनियम सभी जगह लागू है, वहीं नहीं लागू जहां के लोग देश को बदलने का दावा करते हैं!!! अपने घर में आप कुछ भी करो तो कानून लागू है, लेकिन यह कैसी व्यवस्था है जहां लोकसभा, राज्यसभा या विधानसभाओं के भीतर कानून की पहुंच नहीं होती।
अरे भाई... सब कुछ सुधारना ही है तो सबसे पहले एक काम कर दो। नियम बना दो कि जो पार्टी अपने घोषणापत्र के वादे अपने तय कार्यकाल में पूरे ने कर पाए उसे कुछ टर्म तक चुनाव में लड़ना प्रतिबंधित ही कर दिया जाए। जिन्हें सुधरना है वो खुद नहीं सुधरते, ऊपर से वो दावा करते है कि वो देश को सुधारेंगे!!! नियम ही बना दो कि पहला बजट आने के बाद अगले साल दूसरा बजट नहीं आएगा, बल्कि पहलेवाले बजट की योजनाओं का स्टेटस रिपोर्ट ही देना होगा। आम जनता के लिए इतने कड़े कानून लाए जाते हैं, एकाध कानून मेनिफेस्टो को लेकर भी तो आना चाहिए!

आवाम में एक बड़ा प्रचलित तंज है। तंज कहो, निराशा कहो या शिकायत। लेकिन सोशल मीडिया में बहुत बार पढ़ने के लिए मिलता है कि... "गरीबों को दिए फायदे को सब्सिडीऔर उद्योगपति को दिए गए पैसे कोइंसेंटिव कहा जाता है, गरीब बैंक का कर्ज न चुका पाए तो डिफॉल्टर, उद्योगपति न चुका पाया तो ‘अनेबल टू अचीव टारगेट’!!!" हमारे यहां लोग कई दफा कह जाते हैं कि जितने भी कानून है उसका सख्ती से पालन नेताओं पर करवाया जाए तो ज्यादा फायदा होगा देश का। 

आप यह मत सोचिएगा कि लोगों के इन मंतव्यों के पीछे हद से ज्यादा सख्ती या भारी जुर्माना आदि आदि कारण समन्वित होंगे। सचमुच गंभीर रूप से सोचे तो, राजनेताओं, विधायकों, सांसदों, बड़े बड़े खिलाड़ियों या सितारों पर कानून व नियमों के पालन का तरीका और आम नागरिक पर कानून पालन का तरीका... इन दोनों में जो बड़ा अंतर है इसकी वजह से लोग सरकारों तथा उनके प्रावधानों को शक की निगाहों से देखकर अपनी राय रखते हैं। हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं... लोगों को शायद ही इन कानूनों से उतना परहेज होगा। वो देर से सही, किंतु उसे स्वीकार ज़रूर करेंगे। लेकिन, जहन में एक ही आश होगी कि मंत्री साहब, ऐसा भी एक कानून बनाओ कि अगर रोड़ पर गड्ढे हैं तो टैक्स नहीं!!!

(इंडिया इनसाइड, एम वाला)