मैं जानता हूं कि यह सवाल हम सब उठाए तथा इसके उत्तर भी हम सब ही देते रहे तब
यह तार्किक रूप से ठीक नहीं है। जिनके लिए यह सब किया गया है उनकी सोच या उनके तर्क
भी इसमें शामिल होने चाहिए। इस बात को जनमत के नजरिए से मत सोचिएगा। बहरहाल हम हमारे इस
लेख के सवाल से ही शुरुआत करते हैं। सिम्पल सा सवाल है यह। अगर किसी सत्ता ने अपनी
शक्तियों के आधार पर उस समय के हिसाब से 370 और 35ए को जन्म दिया था, तो फिर कोई
दूसरी सत्ता उसी शक्तियों के जरिए इस समय के हिसाब से उन्हें निष्प्रभावी कर दे तो
उसमें आपत्ति क्या है? दरअसल, अंतिम बात
यही है कि नेहरू काल में जो स्थितियां रही होगी उसे देखते हुए कश्मीर को 370 और 35ए
की सौगात मिली। आज की स्थितियों के हिसाब से कई लोगों को वो सचमुच गैरज़रूरी लगती थी
तो सौगात वापस ले ली गई। उस दौर में स्थितियों के हिसाब से नेहरू ने जो किया वो ठीक
था, आज के दौर में आज की स्थिति के हिसाब से मोदी ने जो किया वो भी ठीक ही तो है।
हां, उसको लागू करने की प्रक्रिया तथा उसको निष्प्रभावी करने की प्रक्रिया पर
जितने सवाल है वो तार्किक ज़रूर माने जा सकते हैं।
370 और 35ए क्या था, क्यों लागू हुए थे, कैसे लागू हुए थे, उसका फायदा क्या
हुआ, उसका नुकसान कितना पहुंचा... यह इतिहास जगजाहिर है। होम मेड हिस्ट्री को छोड़ दे तो नेहरू से लेकर मोदी काल तक का 370 और 35ए का सफर जगजाहिर है। नेहरू ने उस
समय जो किया, मुमकिन है कि वो उस दौर की ज़रूरत होगी। ठीक इसी तरह मोदी ने जो किया,
बहुत हद तक मुमकिन है कि वो इस समय की ज़रूरत थी।
दूसरी बात यह कि कश्मीर का प्रश्न, उसका समाधान तथा समस्या बनने तक का सफर,
370 तथा 35ए, लागू करना, उसे कमजोर करते रहना, उसे निष्प्रभावी करना... इसे लेकर
जितने भी होम मेड इतिहास है उसका कुछ नहीं किया जा सकता। समर्थकों तथा विरोधियों के
हाथों इतिहास को आलू-मटर की तरह छीलना था, छीला और छीलता रहेगा।
रही बात 370 और 35ए की... सत्य के करीब वाली बात यह है कि जिन्होंने (राजनीतिक
दलों ने) इसका विरोध किया या फिर जिन्होंने इसका समर्थन किया, उन लोगों ने कुछ सोचकर
किया होगा। लेकिन इन राजनीतिक दलों के समर्थकों ने बिना सोचे-समझे ही समर्थन या
विरोध किया। बस एक ही चीज़ सोची कि हम जिन्हें मसीहा मानते हैं वो करते हैं तो हमें भी
करना चाहिए। आलम यह रहा कि कुछ सालों पहले तक विरोधी या समर्थक, दोनों में 35ए की
चर्चा कम ही होती थी। इनकी जुबां पर एक ही नाम होता था – 370। 35ए के बारे में खुलकर बातें तो अंत समय में हुई।
हाल तो यह रहा कि आज भी लोगों को पता नहीं कि 370 तथा 35ए में से धारा क्या है,
अनुच्छेद क्या है। यहां ज्यादातर समर्थकों या ज्यादातर विरोधियों का ज़िक्र है, छिटपुट
विशेषज्ञ कृपया नाराज ना हो! दर्ज करे कि
हमारे यहां गार्जियन अख़बार पढ़कर लंदन के विशेषज्ञ बनने का चलन स्थायी है, भले 370
अस्थायी हो!
370 और 35ए के भूतकाल–वर्तमान और भविष्य की बात करे तो, भूतकाल के बारे में यही
अंत निकलता है कि नेहरू ने उस समय स्थितियों के हिसाब से जो करना चाहिए था वो कर
दिया होगा, वर्तमान में मोदी को आज की स्थिति के हिसाब से जो ठीक लगा वो कर दिया...
रही भविष्य की बात, यही आश है कि विरोधी और समर्थक, दोनों ने भविष्य का सोचा होगा।
हमने भूतकाल की बात कर दी, भविष्य के लिए उम्मीद लगा दी, अब बात करते हे
वर्तमान की। जो आज हुआ है उसके बारे में अभी की बात करना अच्छा रहेगा। आज की बात के
लिए कल की और आनेवाले कल की कहानियों को वाट्सएप विश्वविद्यालय में जगह मिलती
रहेगी। हम आज की बात ही करते है।
370 रद्द हुआ है या फिर अभी भी है?
पहले स्पष्ट कर लेते हैं कि 370 रद्द नहीं हुआ है, बल्कि निष्प्रभावी कर दिया
गया है। मैंने यह लिख दिया तो इसमें भी कई लोग कहेंगे कि हमारी सरकार ने तो यह भी
किया, तुम्हारी सरकार ने क्यो नहीं किया। लठैतों की दुनिया ऐसी ही होती है। उन्हें कौन समझाए कि सारी सरकारें हम सबकी होती हैं, मेरी या तेरी नहीं। उन्हें यह भी नहीं समझाया जा सकता कि स्पष्टता वाली बात में केवल स्पष्टता है, धृणा या शिकायत नहीं।
किसी सरकार का समर्थन या विरोध नहीं, बल्कि केवल तकनीकी नजरिये से देखे तो,
संविधान विशेषज्ञों के अनुसार 370 अब भी है। उसके तीन खंडों में से दो खंड नहीं रहें,
पहला तो अब भी स्थायी है। सरल सी भाषा में लिखे तो 370 निष्प्रभावी हो चुका है,
रद्द नहीं। यानी कि भविष्य में कोई सरकार राष्ट्रपति के आदेश के जरिए 370 का पुनर्जन्म करवा सकती हैं। ये बात अच्छी है या बुरी इसके बारे में खुद ही सोच लीजिएगा।
लेकिन वर्तमान में 370 निष्प्रभावी हो चुका है। जम्मू-कश्मीर को मिलनेवाली तमाम
विशेष छूट वापस ले ली गई है। 370 के तहत भारतीय संविधान ने उसे जो छूट दी थी, चाहे
वो संविधान के संबंध में हो, आईपीसी और आरपीसी वाला मामला हो, राष्ट्रपति शासन,
आरटीआई, जमीन धारण करना, विवाह और नागरिकता संबंधित मामले हो या एक राष्ट्र-एक
ध्वज वाला मसला हो, तमाम चीजों में जम्मू-कश्मीर को मिलनेवाली विशेष सहुलियतें समाप्त
हो चुकी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने देश को जो कहा है उसके अनुसार जम्मू-कश्मीर को
केन्द्र शासित प्रदेश बनाना अस्थायी व्यवस्था है, उसे बाद में पूर्ण राज्य बनाया
जाएगा।
गृहमंत्री अमित शाह ने सदन में जो कहा उसके अनुसार 370 का दूसरा और तीसरा खंड
निरस्त हुआ है, पहला नहीं। पहला खंड क्यों निरस्त नहीं हुआ इसका ज्ञान संविधान
विशेषज्ञों को होगा, हम जैसे लोगों को नहीं हो सकता यह स्वीकार कर लेना चाहिए।
विशेषज्ञों के अनुसार पहला खंड ही वो हथियार है जिसके जरिए राष्ट्रपति कश्मीर के
बारे में कोई आदेश दे सकते हैं। अगर पहला खंड समाप्त होता है तो राष्ट्रपति कश्मीर
के ऊपर कोई कानून वगैरह लागू नहीं कर पाएंगे।
2014 में जब मोदी सरकार बनी तब 370 पर काफी चर्चा होती थी। तब भी कई विशेषज्ञ
कहते थे कि 370 को रद्द करना जितना मुश्किल बताया जाता है उतना मुश्किल है नहीं।
उसे एक आदेश के जरिए निरस्त या निष्प्रभावी किया जा सकता है। साथ ही विशेषज्ञ यह भी
कह देते थे कि इस बार (2014 के संदर्भ में) सरकार के लिए यह टेढ़ी खीर है और अपने इस
कार्यकाल में मोदी सरकार यह नहीं कर पाएगी। लेकिन जैसे ही सरकार को दोबारा जनता ने
चुना, सरकार ने अपना अधूरा काम आगे बढ़ाया। जब चर्चा होती थी तब नहीं हुआ, जब चर्चा
ही नहीं थी तब अचानक से हो गया। यह कार्यशैली ऐसे मसलों पर प्रशंसा के पात्र भी है।
संविधान के जानकार
लिखते या बताते हैं कि अनुच्छेद 370 को समाप्त करने
की व्यवस्था अनुच्छेद 370 में ही है। उनके अनुसार उसके खंड 3 में लिखा हुआ है कि राष्ट्रपति इसे पूरी तरह
निष्क्रिय या कुछ संशोधनों या अपवादों के साथ सक्रिय रहने की घोषणा कर सकते हैं लेकिन
उसके लिए उसे (जम्मू-कश्मीर) संविधान सभा की सहमति आवश्यक होगी। लेकिन संविधान
सभा तो उसी वक्त भंग कर दी गई थी। इसी आधार पर कुछ विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है।
अदालतों की टिप्पणियों का भी सहारा लिया जाता है। मामला अदालत में जाएगा और अदालत ही
इसका फैंसला लेगी। हम नागरिकों को इसमें गूगल सर्च के छिटपुट ज्ञान के अलावा कोई
ज्यादा ज्ञान नहीं होता है। वर्ना हम सब अटॉर्नी जनरल होते!!!
लेकिन नये आदेश में सरकार ने राष्ट्रपति द्वारा जारी एक नए आदेश के द्वारा अनुच्छेद
370 के खंड 3 में लिखे संविधान सभा शब्द का अर्थ बदल दिया है। अनुच्छेद 370 के खंड
1 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार की सहमति से ऐसा आदेश जारी
कर सकता है। अब चूँकि राज्य में कोई चुनी हुई सरकार तो है नहीं। इसलिए राज्यपाल की
सहमति ही काफ़ी है। सो राज्यपाल की सहमति को ही राज्य की सहमति मानते हुए राष्ट्रपति
ने आज की तारीख़ में यह आदेश जारी किया कि अनुच्छेद 370 के खंड 3 में लिखित ‘संविधान सभा’ को ‘राज्य विधानसभा’ कर दिया जाए। (यह सवाल
कि दो दिन पहले राज्यपाल ही बता रहे थे कि 370 और 35ए पर कुछ नहीं होगा, फिर हो गया
तो क्या राज्यपाल को ही पता नहीं था... इसके बारे में राज्यपाल ही बता सकते हैं, मैं नहीं।)
संविधान सभा और राज्य विधानसभा को लेकर भी कुछ तर्क सामने आ चुके हैं। सवाल उठाने वाले
कहते हैं कि संविधान सभा को राज्य विधानसभा में बदलने से क्या फ़र्क पड़ा? राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय घोषित करने के लिए राज्य विधानसभा की
सहमति ज़रूरी होगी ही। क्या जम्मू-कश्मीर की विधानसभा कभी अनुच्छेद 370 को समाप्त करने
के लिए राज़ी होगी? क्या वह सहमति देगी? इसी पेंच को शायद खंड-1 को जिंदा रखकर पार पाया गया हो।
क्योंकि खंड-1 ही राष्ट्रपति को अधिकार देता है। इसीलिए बंटी हुई राय में एक तबके
का मानना है कि जो कुछ हुआ है वह संविधान के हिसाब से ही हुआ है।
समय के हिसाब से उन दिनों वो ठीक होगा, आज परिवर्तन का समय था, इस सच्चाई को
क्यों न स्वीकार किया जाए?
गटरछाप दलीलों और बिना आधार के आरोपों के चक्कर में समय गंवाना ठीक नहीं है। होम
मेड इतिहास के फेरे में क्यों घूमना। नेहरू ने उन दिनों जो किया वो उस समय की ज़रूरत
रही होगी। उस दौर में जो स्थितियां रही होगी, राजनीति ने उस हिसाब से कदम उठाए
होंगे। 370 के जनक माने जाने वाले नेहरू ने ही लिखित रूप से एक पत्र में इशारा किया
था कि मुझे पता है कि इसे भविष्य में कोई न कोई तो बदलेगा। 370 का जो मूल रूप था
उसमें भी सैकड़ों बार संशोधन किए गए। हाल यह था कि आज के दौर में कहा जाता था कि यह आर्टिकल
भारत के चुनाव आयोग जैसा है, यानी कि बिना नाखून वाला शेर। कश्मीर को स्पेशल
स्टेटस मिला था, लेकिन जमीनी सच्चाई यही थी कि वो केन्द्रशासित प्रदेश की तरह ही
अपनी जिंदगी बीता रहा था। 370 के मूल रूप में कई सरकारों ने समय के हिसाब से संशोधन
किए हैं। ओवरऑल देखे तो यही कहा जा सकता है कि 370 को खत्म करने का सफर कई समय पहले
शुरू हुआ और हर सरकारों ने इसे समय समय पर कमजोर करने में अपना बहुमूल्य योगदान
दिया। कभी न कभी तो इसे खत्म होना था। आज की मोदी सरकार के पास अंकगणित था,
राष्ट्रवाद की भावना थी, विरोध के सूर दबे हुए थे, पाकिस्तान-आतंकवाद और सैन्य
कार्रवाई के दृष्टिकोण से सरकार ड्राइविंग सीट पर थी, तो फिर यह मौका इसी सरकार
ने लपक लिया तो इसमें बुराई ही क्या है? किसी न किसी को तो यह करना ही था।
दरअसल हमारे यहां एक बीमारी समर्थकों में स्थायी है। 370 निष्प्रभावी हो चुका है,
लेकिन वो बीमारी अब भी जिंदा है! तमाम समर्थक देश
का भला चाहते है, लेकिन बीमारी यह है कि वे यह चाहते है कि देश का भला उनके मनपसंद
लोग ही करे, कोई दूसरा नहीं! कांग्रेस हो या
बीजेपी हो, तमाम लठैतों में यह बीमारी स्थायी है, और रहेगी भी।
कुछ लोग नेहरू और कांग्रेस के साथ हैं, कुछ लोग मोदी और बीजेपी के साथ हैं,
कश्मीर और कश्मीरियों के साथ कौन है?
पीएम मोदी ने 370 को निष्प्रभावी करने के बाद देश को संबोधित किया। सीधा सवाल
उठा कि कश्मीर तो ताले में बंद है। इंटरनेट, मोबाइल, पत्रकारिता, केबल नेटवर्क
सब कुछ ऑफ है तो जिन्हें (कश्मीर को) संबोधित करना था वो किस जमाने में जाकर इन्हें लाइव सुनते या देखते होंगे!!! गज़ब था कि सोशल
मीडिया पर कश्मीरविदमोदी ट्रेंड हो रहा था, जबकि वहां सब कुछ बंद था!!! लोग कह रहे थे कि 370 की वजह से कश्मीर में बड़ी इंडस्ट्री नहीं लग रही।
बिहार-यूपी में तो जैसे दुनियाभर का निवेश हो रहा हो!!! नागालैंड समेत कई प्रदेश ऐसे हैं, जहां वही बंदिशें या कमोबेश वैसी ही बंदिशें लागू है, जैसी कश्मीर में थी। नागालैंड वाली इजाज़त तो मोदी सरकार ने ही दी थी।
अपने पूर्व लेखों में कई दूसरे विषयों के जरिए हम समझ चुके हैं कि यहां ज्यादातर लोग
किसी मुद्दे या किसी विषय के साथ खड़े नहीं होते। वो तो अपने अपने मनपसंद दलों या नेताओं के साथ खड़े होते हैं। आज भी कुछ लोग नेहरू और कांग्रेस के साथ खड़े हैं, उधर कुछ लोग मोदी और
बीजेपी के साथ खड़े हैं। यह बात भी सही है कि उस दौर में नेहरू सत्ता के पास बहुमत था
तो भारत का ज्यादातर हिस्सा उनके साथ था यह मान लेना ज़रूरी है, जैसा कि आज मोदी सत्ता
के दौर में है। गृहमंत्री अमित शाह ने भी कह दिया है कि अख़बार पढ़ लो, टीवी देख लो, भारत जश्न मना रहा
है। 'कमजोर मीडिया' के जरिए देश को समझने का आह्वान सदन से हो ये बात मशखरी सी भी
है। खैर, किंतु ढेर सारी बातें सही हैं। लेकिन कश्मीर और कश्मीरी कहां है यह भी एक सवाल
है। भारत के गली-कूचे में जश्न मन रहा है, कश्मीर ताले में बंद है!!! अब इसका मतलब यह मत निकाल लेना कि कश्मीर
में जनमत करवाना चाहिए था वगैरह वगैरह। बात हम नागरिकों की है, जो किसी न किसी दल
और नेता के साथ खड़े हो जाते हैं। 370 उस समय की ज़रूरत थी और उसे हटाना इस दौर की ज़रूरत
थी, उसमें बुरा क्या है? यह बात जब एक मित्र
से कही तो उन्होंने कहा कि जैसा जश्न देशभर में मन रहा है वैसा कश्मीर में भी होना चाहिए।
वहां भी सड़कों पर या गलियों में यही खुशियां होनी चाहिए। उनकी उस बात से पूरी तरह स्वीकृति
तो नहीं थी, लेकिन एक बात सच भी लगी कि ऐसा क्यों है कि देश खुशियां मना रहा है, लेकिन कश्मीर कोठरी
में बंद है? उनके अलगाववादी नेता, उनके मौकापरस्त संगठनों की बात बिल्कुल नहीं है यह विशेष रूप से नोट करे।
हमने भारत के दूसरे हिस्सों में भी देखा है कि हमारे राजनीतिक दल या उनके साथ जुड़े संगठन उनके सतही मकसदों के लिए लोगों को भड़काते रहते हैं, राज्यों को आग में झुलसने
के लिए छोड़ देते हैं। इसमें कांग्रेस भी शामिल रही है, बीजेपी भी और दूसरे दल भी। मुमकिन है कि कि कश्मीर के लोगों को
भी इसी तरह भ्रमित करके स्थितियों को बिगाड़ा जाए यह संभावनाएँ हो। विशेष रूप से उस
प्रदेश में, जहां पाकिस्तान और आतंकवाद का साया हमेशा से रहा है। इसीलिए इतने बड़े फैसले के बाद कुछ तैयारियां, कुछ बंदिशें ज़रूरी हो। लेकिन उस मित्र के सवालों के जवाब
भी मुझे देने हैं। वो कहते हैं कि टीवी और अख़बार देखकर, लोगों का जश्न देखकर
लगता है कि लोग चाहते थे वही मोदी सत्ता ने किया। तो फिर कश्मीर क्या चाहता था? अगर वो वही चाहता था जो देश चाहता है तो फिर वहां भी वही जश्न देखने को यह दिल
चाहता है। उस मित्र की यह बात कई चीजों की तरफ इशारा करती हैं। कई सवालों को, कई तर्कों को खड़ा करती
हैं।
उधर राष्ट्रवाद का एक छोटा सा झरना जो भीतर बहता है वो कहता है कि अखंड भारत-वारत
वाली चालाक राजनीतिक गलियों में घुसे बगैर बात करे तो,
जैसे दूसरे राज्य है,
उनके पास जो अधिकार है,
उनके लिए केंद्र के जो अधिकार है, उस प्रदेश की जो जिंदगी
है, जो प्रगति है वो सारी चीजें कश्मीर को भी मिलनी चाहिए। हम आजाद देश है, कश्मीर हमारा है तो
फिर नेहरुवाले दौर में जो भी हो, आज के समय में कश्मीर को वैसा ही होना चाहिए जैसे दूसरे राज्य है। कुछ चीजों की वजह
से कश्मीर की प्रगति, कश्मीर का भविष्य, कश्मीर का वर्तमान थोड़ा-बहुत प्रताड़ित होता रहता है तो वो चीजें दूर होनी चाहिए।
मोदी सत्ता ने 370 को निष्प्रभावी कर दिया है यह एक सच है। 5 अगस्त 2019 का
दिन और मोदी तथा शाह, सब इतिहास में दर्ज हो चुका है। सत्ता ने यह क्यों किया यह
मुझे सच में नहीं पता। उनकी नियत, उनकी योजनाएँ क्या होगी मैं नहीं जानता। लेकिन हर
भारतवासी की तरह मुझे भी यही लगता है कि कश्मीर और कश्मीरियों के भले के लिए यह
फैसला सही है। लेकिन कश्मीरी क्या सोचते है यह पता नहीं, जैसे कइयों को नहीं पता है! और इसीलिए पहले एक जगह लिखा कि सत्ता और विपक्ष, दोनों को कश्मीर और
कश्मीरियों के बेहतर भविष्य के लिए अपनी अगली योजनाएँ लागू करनी होगी। कश्मीर
की हामीं थी या नहीं थी इस फैसले में, उसके लिए सत्ता ने क्या किया यह सारी चीजें कुछ काम की नहीं है अब। फैसला हो चुका है। बीजेपी और कांग्रेस के नेता क्या सोचते
है यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। उनके अपने अपने लठैत क्या लिखते हैं या मानते हैं वो भी
मायने नहीं रखता। फैसला कश्मीर के ऊपर हुआ है, फैसले का असर कश्मीरियों पर
होने वाला है।
सरकार के प्रितीपात्र बनने को उतावले मीडिया में, प्रितीपात्र नहीं बनने की चाह
रखनेवाले छिटपुट मीडिया में, कई दूसरे माध्यमों में 370 निष्प्रभावी होने के बाद कश्मीर
की आवाज के नाम पर कई कहानियां छपी हैं। कथित रूप से कई बातें कश्मीर के मन के नाम
पर प्रसारित या प्रचारित होने लगी हैं। तमाम में बहुत अंतर भी है। कहीं पर खुशहाल
कश्मीरी की कहानियां हैं, कहीं पर हैरान हो चुके कश्मीरियों की बातें हैं, कहीं पर
खामोश निगाहें हैं। नाराजगी की कहानियां है, जश्न की है, खामोशी की है, हैरानी की
है। उन दिनों की डायरी लिख रहे कश्मीरी युवाओं की बातें भी छपी हैं, जिनमें कश्मीर का
मन टटोलने की कोशिशें हैं। डोभाल और आम कश्मीरियों का वीडियो (एडिटेड वीडियो) घूम
मचा रहा है, वहीं उसकी दूसरी चौंकानेवाली कहानियां भी छप रही हैं।
इतिहास तो बन चुका है। कश्मीर में जितनी भी नाराजगी होगी, भले ही वो ज्यादा हो
या कम हो, उस नाराजगी को उनकी तरक्की, उनकी प्रगति से ही दूर किया जा सकता है।
मोदी सत्ता ने कम से कम इस मसले पर बहुत अच्छे होमवर्क के साथ काम किया है अब तक। सेना,
सत्ता, संविधान, अंकगणित, लोकप्रियता, हिम्मत, अन्वेषण, संभावनाएं सब कुछ अब तक के
दिन तक सही तरीके से संतुलित अवस्था में दिख रहा हैं। भीतर बहुत सारी उथल-पुथल है,
अंदर ढेर सारा धुंआ भी है। अदालत में सरकार भी कह गई कि स्थिति बहुत संवेदनशील है। उम्मीद
है कि कश्मीर और कश्मीरियों के भविष्य के बारे में भी वही संतुलित योजनाएँ क्रियान्वित की जाएगी, जो अब तक दिख रही हैं।
हम एक अलग लेख में लिख चुके हैं कि कश्मीर केवल समस्या ही नहीं है, वो एक सोच भी
है। हम उस लेख में यह भी लिख चुके हैं कि कश्मीर हमारा अंदरूनी मामला है और इसीलिए
जब हम पाकिस्तान के साथ कश्मीर की बात करते हैं तब वो समस्या है, किंतु जब हम हमारे
अंदरूनी मामले कश्मीर पर बात करते हैं तब वो एक सोच है। वहां अभी क्या चल रहा है,
लोग क्या सोचते हैं, कितनी खुशी है, कितनी नाराजगी है, कौन सी उम्मीदें हैं, कौन सी
आश है, वो क्या चाहते थे और क्या चाहते हैं, सारी चीजें उनकी तरक्की के साथ ही जुड़ी हुई हैं। किसी एक इंटरव्यू से जमीनी मिजाज कभी पता नहीं चल सकता। मैं किसी राजनीति
की बात नहीं करता किंतु परम सत्य यही है कि विकास ही हर समस्या का समाधान है। मोदी
सत्ता बहुत बड़ा फैसला ले चुकी है, इतिहास को नये सिरे से लिख चुकी है। आगे जितनी
भी नकारात्मक संभावनाएँ है उसका एक ही समाधान है – कश्मीर और कश्मीरियों की तरक्की।
फैसला बड़ा ही नहीं, कड़ा भी है। किसने विरोध किया, किसने समर्थन किया, सिर्फ
इसी बात पर इस इतिहास को परखा नहीं जा सकता। इसे इतिहास इसलिए नहीं कहा जा रहा,
क्योंकि ये बड़ा फैसला था। इससे जो कुछ बदलनेवाला है इसके बारे में हमें अंदाजा तक
नहीं है। घाटी की फिजा, घाटी का जीवन, घाटी की संस्कृति, घाटी की सोच, घाटी की
राजनीति... सब कुछ एक झटके में बदल चुका हैं। इसे लफ्जों में ढाला नहीं जा सकता। उस
बदलाव को वो जिंदगियां महसूस कर सकती हैं, जो अभी वहां पर है। राजनीति बदलना कोई
छोटी-मोटी बात नहीं है। इसका असर बहुत सारे मसलों पर होता है। भौगोलिक स्थिति बदलना
केवल बड़ी बात नहीं है, बल्कि इतिहास के लिए नींव का पत्थर है।
गृहमंत्री ने 370 के नुकसानों को गिनाया। भले ही वो तर्क, तथ्य या आंकड़े अघूरे
थे, लेकिन आधे सच तो थे ही। जैसे नोटबंदी से आतंकवाद खत्म होगा ये वाला तर्क बेतुका
था, वैसे ही भ्रष्टाचार - महिला सुरक्षा - सम्मान - शिक्षा - स्वास्थ्य को लेकर जो आंकड़े पेश किए गए, सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देखे तो बिहार या यूपी उससे ज्यादा चिंताजनक
अवस्था में हैं! पूर्ण राज्य होने के बाद भी!!! भ्रष्टाचार के मामलों में दूसरे राज्य जम्मू-कश्मीर से बहुत आगे हैं!!! भ्रष्टाचार
हो, सरकारी या निजी लापरवाहियां हो, दुष्कर्म के मामले हो, पोषण या कुपोषण का विषय
हो, सरकारी आंकड़े कश्मीर से भी आगे दूसरे प्रदेशों को जगह देते हैं! लेकिन आगे बढ़ना तो था ही। मोदी सत्ता ने बड़ा फैसला लेकर एक कदम आगे बढ़ाया
है। गृहमंत्री अमित शाह के दावों को चुनौती दी जा सकती हैं। किंतु ऐसी बातों में समय
बर्बाद करने का कोई मतलब नहीं है।
कश्मीर को रोजगार देने के वादे हो रहे हैं। इससे ज्यादा बड़े वादे भी होंगे। कश्मीर को रोजगार देना है, उधर भारत में ही नौकरियां नहीं है!!! उत्पादन ठप्प है, मंदी आनेवाली है। ऐसे में यह वादे कोरे सपनों की ताज़ा ट्रेन ना बने यह भी एक कोण है। जो लोग अभी कश्मीर में प्लॉट लेने की बातें कर रहे हैं वो दरअसल हर महीने अपने ईएमआई के जुगाड़ में रहनेवाले वाट्सएप विश्वविद्यालय के महानुभाव है, जो कुछ महीनों बाद ही मंदी की आग में अपने ईएमआई को लेकर ज्यादा परेशान होनेवाले हैं। जमीनी इतिहास बदला है, किंतु जमीनी तौर पर काम करने में राजनीति को दिक्कत होती ही है। किंतु कुछ मसलों पर आसमानी सितारों से कही अच्छा है जमीनी गड्ढों से बचाकर लोगों को निकालना। नोटबंदी या जीएसटी या दूसरी ऐसी सैकड़ों योजनाएँ, जो पिछली मोदी सत्ता की कल्पना-कथा में दर्ज हो चुकी हैं उसको नयी मोदी सत्ता दरकिनार करे यही कामना।
हमें याद रखना होगा कि हम बात कश्मीर की कर रहे हैं। भारत में कर रहे हैं, भारत के साथ कर रहे हैं। पाकिस्तान के साथ नहीं। इसीलिए हमारे लिए कश्मीर कोई समस्या नहीं है, किंतु एक सोच है। यह मुमकिन है कि इस फैसले से लोगों से ज्यादा खुशी तो जमीन खरीदनेवाले उद्योगपतियों में व्याप्त होगी!!! भौगोलिक संपदा की बात करे तो कश्मीर दूसरे राज्यों की तरह नहीं है। इसीलिए जमीन खरीद-फरोख्त के लिए वहां बहुत संभल कर चलने की आवश्यकता होगी। कश्मीर स्वर्ग था, उस स्वर्ग को दोबारा स्वर्ग बनाना है। फैसले के बाद तरक्की के लिए उसी रास्ते चलना है, जिस रास्ते दूसरे प्रदेश चले। निवेश, उद्योगपति, कंपनियां... इसी सड़क पर चलना है। यह सड़क भ्रष्टाचार से नहायी हुई है, जहां राजनीति से भी बड़ी गंदी नीतियां होती है। पहाड़ों-जंगलों को निजी लोगों के हाथों में देकर आगे बढ़ने का जोखिम होता है। कृषि से लेकर दूसरे तमाम मूल विषयों में कई सारी संभावनाएँ है, जोखिमों के साथ। मोदी सत्ता ने एक कदम आगे बढ़ाया है। आगे जो भी सरकारें आए या फिर वर्तमान मोदी सरकार हो, जन्नत के लिए क्रियान्वित होने वाली योजनाएँ इतिहास को निश्चित रंग और रूप देगी।
वैसे गृह्मंत्री अमित शाह ने सदन में बड़े शानदार अंदाज में कह दिया कि हम कश्मीर के लिए जान भी दे सकते हैं। हम से उनका मतलब क्या रहा होगा यह तो आसानी से समझा जा सकता है। किंतु शानदार अंदाज की अजीब बात यह थी कि कश्मीर के लिए किसी नेता को जान देने की ज़रूरत दशकों से थी ही नहीं और है भी नहीं, तो फिर यह अंदाज क्यों? यह अंदाज क्यों इसका अंदाजा भी आसानी से समझा जा सकता है। अमित शाह हो या राहुल गांधी हो या कोई दूसरा हो, किसीको कश्मीर के लिए जान देने की ज़रूरत है ही नहीं!!! फिर भी सारे कश्मीर के लिए जान देने को तैयार दिख जाएंगे! ये बात और है कि सिक्योरिटी हटवाकर ख्वाहिशों को पंख ज़रूर लगाए जा सकते हैं। वैसे भी हमारे भारत में खुद को देश या धर्म का रक्षक बतानेवाला ही सैकड़ों कमांडों के बीच घुसा रहता है!!! नेता तो नेता, बाबा जैसे लोग भी साइकिल चलानी चाहिए यह कहकर खुद ही कार से निकल जाते है!!! लोग मुद्दों के साथ नहीं, व्यक्तिओं के साथ खड़े रहते हैं, इसका दूसरा प्रमाण क्या चाहिए अब।
गृहमंत्री अमित शाह ने सदन में जो कहा वो भले ही आधा सच हो या अप्रमाणित हो,
उनके आंकड़े या दावों को भले ही चुनौती दी जा सकती हो, किंतु बीजेपी ने वही तो किया
है जो उनकी बहुत पुरानी सोच थी, संविधान के हिसाब से किया है या नहीं किया है वो
अदालत को तय करने दीजिए
देश के गृहमंत्री अमित शाह ने 370 और 35ए के बारे में, उसे रद्द करने के एवज
में जितनी भी दलीलें दी, जितने तर्क पेश किये, जो आंकड़े पेश किये... संमत हूं कि
उसमें पूरा सच नहीं था। उनके दो दिन चले भाषणों में आधा सच था, अप्रमाणित बातें भी थी,
आंकड़े और दावों को तथ्यों के साथ चुनौती दी जा सकती हैं। किंतु वो पूरा झूठ भी तो नहीं बोले। आधा सच तो ज़रूर छलकता था। भले ही विपक्ष तैयार नहीं था, विपक्ष के पास
होमवर्क नहीं था, किंतु सत्ता होमवर्क करके मैदान में उतरी थी। 370 को निष्प्रभावी
करना वाकई अच्छा कदम लगता है। तो फिर इस कार्य के लिए मोदी सत्ता की प्रशंसा
अवश्य होनी चाहिए। नियत, प्रक्रिया, कश्मीर के लोग, बंदिशें, आगे का समय... आदि
चीजों के लिए सवाल है और स्थायी रहेंगे। किंतु आगे चलने के लिए भी कोई कदम उठाना
चाहिए था। वह कदम मोदी सत्ता ने उठाया है तो फिर उस कदम को समर्थन देने में परहेज
ही क्या? हां, संविधान का उल्लंघन हुआ है या नहीं हुआ है आदि चीजों के लिए अदालत है। वो चीजें अदालत को तय करने दीजिए। हमें अपने बिजली के
बील के बारे में पता नहीं होता तो फिर संविधान विशेषज्ञ बनने का ढोंग करके किसी पक्ष
को सही या किसी दूसरे पक्ष को गलत ठहराने की गधापंति करने का कोई फायदा नहीं है।
बीजेपी ने वही किया है, जिसको वो तब से चाहती थी, जब वो बीजेपी नहीं जनसंघ थी।
एक तरीके से देखे तो बीजेपी ने अपनी उस खुली और स्पष्ट विचारधारा को लागू किया
है। उसने कम से कम इस मामले में कोई यू-टर्न नहीं लिया है। उसने वही किया, जो उसकी
पुरानी सोच थी, उसका बहुत पुराना एलान था। बीजेपी सरेआम इसे घोषणापत्र में कह चुकी
थी। उसने वही किया, जो उसने देश से वादा किया था। ये बात और है कि गृहमंत्री सदन
में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की वकालत करते दिखे, जबकि खंड 2 और 3 ही निरस्त
हुए।
इतिहास विविध रंगों से सराबोर होता है, उसके कई रंग और रूप होते हैं
इतिहास किसी एक रंग से ही लिपटा हुआ कोई सामान नहीं होता। विविध रंगों से सराबोर
वो नींव होता है जिसके आधार पर कई सारी चीजें बनती और बिगड़ती हैं। इतिहास के कई रंग
होते हैं, कई रूप होते हैं। अक्सर हम किसी एक विचारधारा से प्रेरित होकर उसके एकाध रंग और एकाध रूप को देखने या समझने में समय बिताते हैं। इतिहासकार उस समय या उस दौर
की विविधता समझता है, उसके अनेक रूप के साथ मथता रहता है। इतिहास के कई कोण
होते हैं। किसी एक कोण में आपकी मान्यताएँ उभरती है, कोई दूसरा कोण आपको नाराज भी
करता होता है।
कश्मीर, 370, 35ए, नेहरू, सरदार, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, शेख अब्दुल्ला,
हरिसिंह समेत इस मसले पर जितने भी अनेक कोण है, उसके कई रंग हैं और कई रूप
हैं। इतिहास को आप जस्टिफाई नहीं कर सकते। बल्कि इतिहास के किसी एक निश्चित रंग के
जरिए हम अपनी मान्यताओं को जस्टिफाई करने की चेष्टा ज़रूर करते होते है।
अमित शाह ने सदन में जो कहा उसमें आधा सच तो है ही। मतलब कि उन्होंने 370 के
नुकसानों के बारे में जो बात की थी उसका ज़िक्र यहां है। उन्होंने जो कहा वो पूरी तरह
सच नहीं था, लेकिन आधा सच तो है ही। हमने ऊपर देखा वैसे, उनके द्वारा पेश किए गए
आंकड़े, दावें, बातें, दलीलें चुनौती के लायक है। पूरा झूठ नहीं है तो पूरा सच भी नहीं है। भ्रष्टाचार, रोजगारी, गरीबी, कुपोषण, महिला सुरक्षा, अपराध, फलांना इंडेक्स,
ढिमका इंडेक्स... कई चीजों पर विरोधाभासी आंकड़े पहले भी प्रकाशित हो चुके हैं। अमित
शाह की कई बातों को स्वीकृति देनी होगी, कई बातें चुनौतियां मोड़ लेती हैं।
भले उन्होंने टीवी या अख़बार के जरिए खुशी को महसूस करने की 'अतार्किक बात' कही
हो, लेकिन एक दौर में कश्मीर के सबसे बड़े आदमी शेख अब्दुल्ला ने ही कहा था कि 1975
तक का समय कश्मीर के लिए काला दौर था। शेख अब्दुल्ला ने ही कांग्रेस सत्ता पर इल्ज़ाम लगाते हुए कहा था कि 370 का सबसे ज्यादा दुरूपयोग कांग्रेस ने किया है। साथ
ही अब्दुल्ला ने कांग्रेस सत्ता पर 370 को कमजोर करते रहने का इल्ज़ाम भी लगाया
था। इन घटनाओं को कई नजरिए से देखा जा सकता है। 370 का कांग्रेस ने कैसे दुरूपयोग
किया यह भी मसला है। साथ ही 370 को कमजोर करते रहने का काम कांग्रेस ने किया यह
इल्ज़ाम भी है।
देश के गृहमंत्री
अमित शाह ने सदन के भीतर कह दिया कि सरदार पटेल को कश्मीर मामले से दूर रखा गया।
दो दिनों के शानदार भाषण में गृहमंत्री द्वारा की गई यह गलती कांग्रेस के अधीर रंजन
सरीखी है। कश्मीर - 370 - नेहरू - सरदार को लेकर कई दृष्टिकोणों से कई पुस्तकें लिखी गई
हैं। इतिहास, किताबें, लेख, चिठ्ठियां से लेकर अनेक जगहों से स्पष्ट होता है कि
कश्मीर मामला बिना सरदार पटेल के आगे बढ़ा ही नहीं था। कश्मीर पर सरदार पटेल की सोच
पहले अलग थी, फिर एक घटना के बाद उनकी सोच बिल्कुल दूसरी धारा की तरफ मुड़ी यह
इतिहास भी जगजाहिर है।
इतिहास तो श्यामा
प्रसाद मुखर्जी को लेकर यह भी बतलाता है कि उन्होंने 370 का समर्थन किया था। सच है
कि श्याम प्रसाद मुखर्जी ने संविधान सभा में 370 के पक्ष में वोट किया था। इतिहास के
कुछ तथ्य बताते हैं कि अनुच्छेद 370 को तैयार करने और
लागू करने में वह पूरी तरह जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ थे। मुखर्जी का
मानना था कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिलना ही चाहिए, क्योंकि इससे वहाँ के लोगों
में देश से जुड़ने की भावना प्रबल होगी और देश की अखंडता मजबूत होगी। जम्मू-कश्मीर
को विशेष दर्जा देने के मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और गृह मंत्री बल्लभ
भाई पटेल ने हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विश्वास में लिया
था। मुखर्जी शुरू से ही उनके संपर्क में थे और लगभग हर मुद्दे पर उनकी सलाह ली जाती
थी। अनुच्छेद के खिलाफ एक ही वोट पड़ा था और वह था मौलाना हसरत मोहानी का।
लेखक और पत्रकार सुभाष गताडे ने अपनी किताब 'हिन्दुत्वाज़ सेकंड कमिंग' में इस बारे में विस्तार से बताया है। उन्होंने
लिखा है कि किस तरह नेहरू ने पटेल और मुखर्जी दोनों को ही अपनी टीम में शामिल किया
था। इस अनुच्छेद के मुख्य पैरोकार पटेल थे। कांग्रेस के कुछ लोगों ने जब इसका विरोध
किया, वह पटेल ही थे, जिन्होंने एन गोपालस्वामी
अयंगर और कांग्रेस के दूसरे सदस्यों को समझा बुझा कर मामला सलटाया था। शेख
अब्दुल्ला का 17 फरवरी 1953 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को लिखा गया पत्र भी
कई चीजों को उजागर करता है। वहीं अयंगर-नेहरू तथा पटेल के बीच तीखी नोंकझोंक और नेहरू तथा पटेल के विवाद (कश्मीर को लेकर) भी कई किताबों में दर्ज हैं। कई जगह लिखा
है नेहरू ने पटेल के विरोध को दरकिनार कर अयंगर की बातें मानी थी।
वोही श्यामा
प्रसाद मुखर्जी यह भी मानने लगे थे कि एक देश में दो
विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चल सकते। फिर उन्होंने 370 का भी
विरोध किया था। हिन्दू महासभा से श्यामा प्रसाद मुखर्जी का मोहभंग, महात्मा गांधी
की हत्या और फिर जनसंघ की स्थापना। कह सकते हैं कि उसके पश्चात श्यामा प्रसाद
मुखर्जी ने 370 के मामले में वही रुख अपनाया, जो आज बीजेपी अपनाती है।
370 कांग्रेस की ऐतिहासिक गलती थी या नहीं इस चर्चा का कोई अंत नहीं, बीजेपी
नोटबंदी जैसे बेतुके फैसले पर गलती स्वीकार नहीं कर सकती तो फिर कांग्रेस से ऐसी
उम्मीद लगाना भी बेईमानी है
कश्मीर, यूएन, 370, 35ए... आदि चीजें कांग्रेस या जवाहरलाल नेहरू की ऐतिहासिक
गलती थी। भारत में एक बड़े पक्ष का यह मानना है। सिर्फ मानना ही नहीं, उनके पास इस
मान्यता के पक्ष में कई तार्किक तथ्य भी हैं। लेकिन इस चर्चा का कोई अंत हो ही नहीं सकता। क्योंकि ऐतिहासिक गलती वाली मान्यता के विरुद्ध दूसरे भी तार्किक तथ्य खड़े हैं। इनमें से कौन से तथ्य विकराल है इसका कोई अंतिम नतीजा निकल ही नहीं सकता।
क्यों? इसका एक सीधा सा और सिम्पल सा जवाब है।
क्या नरेन्द्र मोदी सरकार नोटबंदी जैसे अपने बेतुके फैसले की विफलता को स्वीकार कर
सकती है? क्या मोदी सरकार ये मान सकती है कि
नोटबंदी बेतुका और अधूरी तैयारी के साथ लागू किया गया फैसला था? क्या मोदी सरकार ये मान सकती है कि नोटबंदी लागू करते समय जो तर्क दिए गए वो
सारे धराशायी हो चुके है? यकीनन, कोई भी
सत्ता अपनी गलती को स्वीकार नहीं कर सकती। राजनीति के हिसाब से ऐसी सार्वजनिक
स्वीकृति देना उस गलती से भी बड़ी गलती हो यह लाजमी है। अगर नोटबंदी को सत्ता
बेतुका फैसला नहीं मान सकती तो फिर कश्मीर से जुड़े उस मसले को भी दूसरी कोई सत्ता ऐतिहासिक गलती के रूप में स्वीकार बिल्कुल नहीं करेगी।
आप कहेंगे कि नोटबंदी और कश्मीर व 370 जैसे विषयों को कैसे जोड़ा जा सकता है? आप कहेंगे कि नोटबंदी बड़ा फैसला था, लेकिन उतना बड़ा नहीं था जितना कश्मीर या
370 को माना जा सकता है। जी, बिल्कुल सही है। और मैं यही तो कह रहा हूं। अगर
नोटबंदी जैसे कथित रूप से छोटे व्यापवाले फैसले की विफलता को कोई सत्ता स्वीकार
नहीं कर सकती तो फिर दूसरी सत्ता से किसी बहुत बड़े व्यापवाले फैसले की विफलता पर इकरारनामा लिखवाना, यह तो उन दोनों फैसलो से भी ज्यादा बड़ी बेतुकी उम्मीद पालना ही
है। इसीलिए एक सिम्पल सा अंत पहले ही नोट कर दिया कि नेहरू ने उस दौर में उस समय
की जो ज़रूरत थी उस हिसाब से किया होगा, मोदी ने इस दौर में इस समय की जो ज़रूरत थी
उस हिसाब से किया। इसमें जो अच्छाइयां या बुराइयां है, पक्ष-विपक्ष के जितने भी तर्क
हैं उनको समन्वित करे तो नेहरू और मोदी दोनों ने उतना ही अच्छा या बुरा किया है,
जितना उनके समर्थक मानते या मनवाते हैं!
आखिरी बात यह कि कांग्रेस या बीजेपी को छोड़ दीजिए। वे अपनी गलती स्वीकार करे यह
मान्यता भी छोड़ दीजिए। हम क्या यह स्वीकार करते है कि हमें ही कुछ नहीं पता। अपने
ड्राइंग रूम में बैठे बैठे गूगल सर्च करके हम कश्मीर मामले के विशेषज्ञ बन जाते हैं! कश्मीर तो क्या, हमारे बैंकिग सिस्टम में कौन से नियम है यह तक हमें नहीं पता
होता! बिजली के बील का पता नहीं होता और फिर भी हम
जीएसटी बिल के विशेषज्ञ बन जाते हैं!!! क्या हमने कभी स्वीकार किया कि हमें तो अपने बैकिंग सिस्टम तक का नोलेज नहीं है
तो कश्मीर और संविधान का भी नहीं है। नहीं किया न? हम अपनी अज्ञानता को स्वीकार नहीं करते, तो फिर दूसरों से ऐसी उम्मीद रखना भी जगहंसाई सरीखी प्रवृत्ति ही है।
हमें अपने शहर से 20-30 किलोमीटर दूर बसे किसी दूसरे शहर की जिंदगी का पता नहीं,
तो फिर सैकड़ों किलोमीटर दूर बसे कश्मीर की सही पहचान फेसबुक, वाट्सएप या गूगल से
कैसे कर लेते होंगे हम?
इसी लेख में पहले लिखा वैसे, हमारे यहां एक-दो दिन गार्जियन अख़बार पढ़कर लंदन के
विशेषज्ञ बनने की चेष्टा करना एडवांस ट्रेंड है। गूगल सर्च करके हम ऐसी कई चीजों के विशेषज्ञ बनने का ढोंग करते हैं, जिनके बारे में हमें कुछ सालों पहले पता भी नहीं होता था!!! इतिहास को
आलू-मटर की तरह छील देने का कृत्य हमारे यहां निरंतर चलता रहता है। हर फेसबुक अकाउन्ट धारक यहां इतिहासकार दिखता है! सबके अपने अपने इतिहास है, अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार। यहां तो जोधाबाई या
रानी पद्मिनी पर भी लोग फेफड़े फाड़ लेते हैं, उधर जिसे सही में इतिहास कहा जाए वो इतिहास यह बतलाता है कि ऐसे किरदार हुए ही नहीं!!! हमें अपने शहर से 20-30 किलोमीटर दूर बसे शहर का इतिहास तक पता नहीं होता, फिर
भी हजारों किलोमीटर दूर बसी किसी जगह का इतिहास हम गूगल से सर्च करके पता लगाने
में माहिर है!!! हम यह समझ नहीं पाते कि इतिहास किसी एक
नजरिए का मोहताज नहीं है, उसके कई रंग होते हैं-कई रूप होते हैं।
हमारे एक स्वजन ने बहुत समय पहले एक बात बताई थी। उन्होंने एक कहानी कही थी, जो
शायद थी काल्पनिक, किंतु जमीनी हक़ीक़त को बयां करने का सबसे अच्छा जरिया थी। उस
कहानी में होता यह है कि एक इतिहासकार होता है। अपनी पूरी जिंदगी उसने
किस्सों-कहानियों, उसे जांचना, परखना, उसके विभिन्न दृष्टिकोणों को समझना, उसे लेखों में ढालना, इन्हीं चीजों में बिताई होती है। उस इतिहासकार ने सदैव यह खयाल रखा था कि वो जो
लिखता है वह सच के करीब हो। एक दिन वो किसी विषय पर अपने घर पर बैठे बैठे अध्ययन
कर रहा होता है। तभी घर के बाहर उसे शोर सुनाई पड़ता है। शोर की वजह से उसके
अध्ययन-कार्य में विक्षेप उत्पन्न होता है। वो घर की 'खुली खिड़कियां' बंद करता है
और अपने कार्य में दोबारा जुट जाता है। लेकिन बाहर का शोर धीरे धीरे ज्यादा होता
जाता है। शायद कोई वाद-विवाद या कोई झगड़ा चल रहा था बाहर। धीरे धीरे शोर इतना
ज्यादा होता है कि 'बंद खिड़कियों' को चीरकर उस इतिहासकार के कानों में जाता रहता है।
आखिरकार वो इतिहासकार अपना अध्ययन छोड़कर घर के अहाते में आता है। देखता है कि घर के
बाहर जो सड़क थी वहां दो गुट खड़े थे और बीच में एक लाश पड़ी हुई थी। एक गुट दावा कर
रहा था कि हत्या सामने जो गुट खड़ा है उसने की है। सामने जो गुट खड़ा था वो भी यही
दावा कर रहा था कि हत्या उन्होंने नहीं बल्कि सामने वालों ने की है। बहस और
आरोप-प्रत्यारोप का दौर बढ़ता जाता है। इधर इतिहासकार कुछ सोचता है, घर में वापस आता
है। अपने अध्ययन-कार्य के आखिरी पन्ने पर एक नोट लिखता है। नोट यह था कि- “मेरे घर के बाहर ही चंद मिनटों पहले एक हत्या हुई है। चंद मिनटों पहले मेरे घर
के बाहर ही जो हत्या हुई है वो किसने की उसका मुझे ज्ञान नहीं है। तो फिर सैंकड़ों सालों पहले मेरे घर से बहुत दुर कहीं पर कोई चीज़ हुई होगी उसका सही ज्ञान मुझे कैसे
मिल सकता है। मैं अपना अध्ययन समाप्त करता हूं।”
सिर्फ कश्मीर ही नहीं, हम तो लंदन तक को गूगल सर्च से समझ लेते हैं!!! कोई फैसला सही था या गलत, इसका अंतिम सिरा कभी नहीं मिल सकता। क्योंकि इस
विषय में कई सारे दृष्टिकोण होते हैं। नेहरू गलत थे या सही थे, मोदी सही है या गलत
है इस सबके फेरे में पड़ने का कोई मतलब नहीं। फैसला हो चुका है तो उसकी बात होनी
चाहिए। जो होना था वो उस समय भी हो चुका था और आज के दौर में भी हो चुका है। बात
आगे की होनी चाहिए। इतिहास अच्छा या बुरा नहीं होता, इतिहास तो इतिहास होता है। वो
भी एक इतिहास था, यह भी तो एक इतिहास ही है। हम अपने ड्राइंग रूम में बैठे बैठे
गूगल सर्च करके किसी इतिहास को, किसी फैसलों को समझ नहीं सकते यह समझ होना ज़रूरी
है। हमें पता होना चाहिए कि हमें नहीं पता कि वो क्या था और क्यों था... या फिर यह
क्या है और क्यों है। इसीलिए उम्मीद यही होनी चाहिए कि भविष्य में उन लोगों को लाभ
हो, जिनके लिए यह फैसलें लिए जाते रहे हैं।
2014 के बाद मोदी सरकार का यह तीसरा ऐसा फैसला है, जिसके पीछे अच्छा सा
होमवर्क है
बहुत हद तक मुमकिन है कि मोदी सरकार का यह फैसला उनके पूर्व फैसलों की तरह
आनन-फानन में किया गया फैसला नहीं है। इसके पीछे बहुत लंबा होमवर्क है। कई
तैयारियां की गई होगी, कई सारी चीजें देखी गई होगी। नोटबंदी जैसा बेतुका फैसला नहीं है यह, जहां हर दिन समीक्षाएँ करनी पड़ी थी। जीएसटी जैसी जल्दबाजी नहीं है यह, जहां हर
माह चालें बदलनी पड़ रही थी। मोदी-1 का पांच सालों का कार्यकाल कैसा रहा सबको पता
है। यह वो सरकार थी, जिसके मत्थे यू-टर्न सरकार का स्थायी तमगा लग चुका है। 370
स्थायी है या अस्थायी इसकी चर्चा उन दिनों कभी नहीं हुई, बल्कि यू-टर्न सरकार और फेक
न्यूज़ वाला स्थायी लेबल ही उन पांच सालों में छाया रहा। इसके पीछे नेहरू, इंदिरा,
केजरीवाल, ममता या पवार नहीं थे, बस मोदी और शाह ही थे। 2014 से 2019 तक का मोदी
सरकार का कार्यकाल उन फैसलों का गवाह रहा, जिसने अर्थ से लेकर अनर्थ तक में अपना
पूरा योगदान दिया। कई फैसले ऐसे रहे (जीएसटी, एफडीआई, आधार) जिसको उन्होंने
यू-टर्न लेकर लागू किया, जिसका वे पहले विरोध किया करते थे। कुछ ऐसे फैसले थे जो
आनन-फानन में और बिना तैयारी के लागू कर दिए गए, जिससे योजना या फैसलों का अंतिम
लाभ देश को मिल नहीं पाया।
बिना राजनीतिक इश्क के देखे तो, 2014 से लेकर 2019 तक, मोदी सरकार के दो ऐसे
फैसले हैं जो वाकई अच्छे होमवर्क के साथ किए गए हैं। जिसके पीछे तैयारियां हैं,
जिसके पीछे बैकअप प्लान्स हैं। पहला फैसला था पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के किले के अंदर घुसकर
किले को ढहाना। यह एक राजनीतिक योजना थी, लेकिन इसके पीछे भी होमवर्क था,
तैयारियां थी। आप कहेंगे कि ऐसे देखे तो बीजेपी ने ऐसी कई राजनीतिक योजनाएँ लागू की
और सफलता भी पाई। लेकिन हम बड़े फैसलों की बात कर रहे हैं, जो वाकई ‘अभूतपूर्व’ वाली श्रृंखला में शुमार किए जा सकें।
बंगाल में ममता के किले को ढहाना अभूतपूर्व राजनीतिक पहल थी, जिसमें बीजेपी ने बाजी
मारी। दूसरा फैसला है 370 और 35ए का। इसके पीछे कोई एक रात की मेहनत नहीं है। कम
से कम एक साल की तैयारियां है। बहुत बड़े स्तर पर किया गया होमवर्क है।
संघ के कई वरिष्ठ कार्यकता या लोगों की कुछ शिकायतें थी। बीजेपी एंड आरएसएस आफ्टर
2014 वाले लेख में हमने वो सारी चीजें देखी थी। संघ नामक संगठन बड़ा है या मोदी शाह,
यह भाव भी उभरने लगा था। फिलहाल तो संघ का जो बड़ा सपना था, उसे बीजेपी सत्ता ने
पूरा कर दिया है। कई शिकायतें फिलहाल 370 की तरह ही निष्प्रभावी हो चुकी है!!! अपने पुराने एजेंडे पर चलना, यह विषय बुरी बात तो है नहीं। बीजेपी और संघ,
दोनों 370 को लेकर अपनी विचारधारा एक बार नहीं किंतु अनेकों बार स्पष्ट कर चुके हैं।
उन्होंने बेहतरीन समय का चुनाव करके इतिहास और भूगोल, दोनों में बाजी मार ली है। राजनीति
को हम और आप जैसे लोग समझ नहीं सकते। हम जितना सोचते हैं, जितना समझते हैं, जितना
देखते हैं, राजनीति उससे हजारों गुना ज्यादा सोचती, समझती और देखती है।
उपरांत, बीजेपी सत्ता ने इस बिल को पहले राज्यसभा में ही रख दिया। लोकसभा में दूसरे दिन रखा। यह राजनीतिक या रणनीतिक संदेश भी समझने लायक है। अमित शाह ने
लगातार दो दिनों तक मोर्चा संभाले रखा। उनके भाषण भले ही चुनौती के लायक हो, लेकिन
उन्होंने हर सवालों के जवाब देने के प्रयत्न किए। उन्होंने होमवर्क के साथ मोर्चा
संभाला था। उधर विपक्ष को पता ही नहीं था कि करना क्या है। कांग्रेस जैसा बड़ा दल
विचार के लिहाज से बंट गया। सदन में भी विपक्ष ढंग के सवाल उठाने में नाकामयाब रहा।
सतह पर ज्यादातर भारत खुश दिख रहा था। विपक्ष को समझ ही नहीं आया कि लोगों में जो नयी
सोच है उसके साथ खड़े हो या पुरानी विचारधारा के साथ चले! इसी असमंजस में पहले से कमजोर विपक्ष को अकेले अमित शाह मात दे गए। मोदी सत्ता
ने बेशक हर प्रकार की तैयारियां की थी। नोटबंदी, जीएसटी जैसे बड़े फैसलों से ज्यादा
परिपक्वता, ज्यादा होमवर्क मोदी सत्ता में दिख रहा था।
अमित शाह ने दो दिनों तक सदन के भीतर आंकड़े, तर्क, दलीलें चाहे कमजोर दी हो,
लेकिन उनमें आत्मविश्वास साफ छलक रहा था। वहीं विपक्ष के खेमे में केवल असमंजस था,
हताशा थी। शाह की कमजोर दलीलों को, अधूरे तर्कों को काटने तक की तैयारी विपक्ष के
पास नहीं थी। क्योंकि मोदी सत्ता इस फैसले के लिए पूरे होमवर्क के साथ मैदान में थी। शायद मोदी सत्ता की कम से कम इस मामले में सबसे बड़ी सफलता यही थी कि उन्हें पूरा
अंदाजा था कि वो क्या करने जा रहे हैं। उन्हें पता था कि वो जो करने जा रहे हैं वो
क्या है। कानून, नीति, नियम, इतिहास, संविधान, संविधान के पेंच से लेकर कश्मीर की
नाराजगी, गुस्सा, उनकी सोच, वहां की संस्कृति, जमीनी स्थितियां, परिणाम, संभावनाएं, अशांति
की आशंका... उससे भी बहुत ही ज्यादा सोचा गया था। तभी तो अब तक पूरा मामला
नियंत्रण में दिख रहा है। आगे कौन सा वक्त आएगा मुझे नहीं पता। सारी चीजें सही रहेगी
या कुछ उल्टा होगा, मुझे नहीं पता। लेकिन होमवर्क तो पूरा था, यह तो साफ है।
फैसला लागू करने के एक माह पहले से जो चीजें उलट-पुलट की जा रही थी, फैसले का
दिन नजदीक आने लगा तो जिस तरह से एक सप्ताह के भीतर कई सारी चीजें यहां से वहां हुई,
हजारों सुरक्षा कर्मियों को उतारना हो, अमरनाथ यात्रा से लेकर दूसरी ऐसी ही कई
अग्रीम तैयारियां हो... सरकार ने जता दिया था कि जो होनेवाला है वो बहुत बड़ा होगा।
बहुत बड़ा करने के लिए तमाम तैयारियां भी बहुत ही बड़े स्तर पर थी। स्पष्ट है कि
मीडिया जो दिखा रहा है, कह रहा है, हम जो देख रहे हैं, पढ़ रहे हैं, समझ रहे हैं...
दरअसल बात उससे भी आगे की है। जिसे हम जैसे नागरिक परख नहीं सकते, देख नहीं सकते।
लेकिन इस राजनीतिक फैसले के लिए मोदी सत्ता ने अशांति और कश्मीर के लोगों के
गुस्से को संभालने के लिए बड़े स्तर पर होमवर्क तो किया ही है। इसे लेकर आप कह सकते
हैं कि शायद सत्ता को भी एहसास है कि टेलीविजन या सोशल मीडिया में फैल रही जश्न की
तस्वीरें कश्मीर की जमीनी हक़ीक़त से जुदा है। लेकिन मोदी सत्ता ने राजनीतिक तथा
कश्मीर के विरोध की परवाह किए बगैर फैसले को अब तक सफलतापूर्वक लागू करवाया है।
फैसला लेना उससे ज्यादा मोदी सत्ता को नंबर मिलने चाहिए फैसला लागू करवाने की जिम्मेदारी
में।
जन्नत के लिए बड़ा और कड़ा फैसला हो चुका है, बीते कल और आज के बाद उम्मीद
आनेवाले कल को लेकर ही है
370 को रद्द करने की दिली ख्वाहिश मुझमें बसी होगी। उसे निष्प्रभावी किया गया
है वो मुझे अच्छा लगा होगा। लेकिन मुझे इतना पता है कि जो मैं सोचता हूं वो भारत की
सोच होगी यह मानना अच्छा दृष्टिकोण नहीं है। इसीलिए इस लेख में कई सवालों को, कई तर्कों को, कई संभावनाओं को शामिल किया। गलती किसने की थी... या फिर आज जो हुआ है वो गलती
है या नहीं... इस माथापच्ची का कोई मतलब नहीं है। कश्मीर और कश्मीरियों के लिए
इतिहास बदला है, भूगोल बदला है। उम्मीद यही करते हैं कि आनेवाला कल उनके लिए बेहतर समय
लाए। हम पूर्ण राज्यों को जिस तरह का नर्क सरकारें वक्त-बेवक्त दिखाती रहती हैं, उम्मीद
है कि जन्नत को जन्नत ही मिले। कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है, हमारा अविभाज्य अंग
है। हमारे शरीर के उस शिश को सदैव चमक मिलती रहे यही उम्मीद है।
विकास के लिए हम सिर्फ उद्योगों को ही देखते हैं। उद्योगों की बात आती है तो
अनमोल भौगोलिक संपदा चंदा देनेवालों को मुफ्त में बांटने के दौर याद आते हैं।
भ्रष्टाचार और अरबों के घोटालों की संस्कृति याद आती है। जो लोग सरकारों को चंदा देते
हैं उनके लिए उस प्रदेश के लोगों को दिन में तारे और चंदा, दोनों दिखा देने की
प्रवृत्तियां याद आती हैं। आज से करीब कोई 7-8 महीने पहले हमने एक अलग लेख में लिखा
था कि हमारे यहां कश्मीर समेत जितनी भी दूसरी समस्याएँ हैं, उसका एक समाधान यह भी है
कि जो लोग सरकारों को चंदा देते हैं उनके साहस वहां हो, फिर देखिए कि सरकारों में कितना
साहस आता है। रातोरात सारी दिक्कतें, सारी समस्याएँ हट जाएगी। हमारी राजनीतिक
संस्कृति को हम तमाम जगहों पर देखते रहते हैं।
उम्मीद करते हैं कि कश्मीर, जिसके पास अपार भौगोलिक संपदा है, अपार सौंदर्य है,
उसको उद्योग और प्रगति के नाम पर उसी तरह लूंटने का लाइसेंस किसीको ना दिया जाए,
जैसा उत्तराखंड-हिमाचल आदि भुगत रहे हैं। 370 निष्प्रभावी होते ही मजाक में-आनंद के
लिए या खुशी का इज़हार करने के लिए एक ही जरिया ज्यादा इस्तेमाल हुआ। वो था कश्मीर
में प्लॉट खरीदने वाला जरिया। बताइए, खुशी का इज़हार करने के लिए कोई दूसरा जरिया
ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते हम लोग! बस,
जमीन-प्लॉट-स्किम!!! हम आम लोग यह
जरिया इतना इस्तेमाल करते हैं, तब तो वो लोग हमसे भी ज्यादा इस्तेमाल करेंगे,
जिन्होंने शायद जन्म ही इसी कार्य के लिए लिया होगा! जन्नत को जन्नत नसीब हो यह कामना करना बेतुका है। जन्नत को जन्नत नसीब हो यह
देखना फर्ज है। क्योंकि हम ही चिल्लाते रहे हैं कि कश्मीर के लिए जान देंगे। बस अब
तो यही नारा होना चाहिए कि जन्नत को जन्नत ही रहने देंगे।
(इंडिया इनसाइड,
एम वाला)
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