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Nationalism over Economics : अर्थतंत्र की मंदी विरुद्ध राष्ट्रवाद की तेज़ी, जीतना तो वाद को ही है, तंत्र को नहीं!




अर्थतंत्र... एक ऐसा विषय जिसे समझने का दावा सबसे ज़्यादा लोग करते हैं और समझते हैं सबसे कम लोग। अर्थतंत्र की गलियाँ बैकिंग सिस्टम के मायाजाल से भी बहुत विकराल हैं। हम सब लाईट बिल को ठीक से नहीं समझ पाते, बैकिंग सिस्टम के पेंच हमें नहीं पता, छोटी-मोटी बात के लिए गूगलीबाबा के पैर पकड़ते रहते हैं, फिर भी इतिहासकार और अर्थशास्त्री घर-घर में मिल जाएँगे! इकोनॉमिक्स शब्द है छोटा सा, किंतु समूचे संसार को यही चलाता है। लेकिन समूचे संसार को चलाने वाले अर्थतंत्र को एक चीज़ आसानी से हराती है। भारत ही नहीं, दूसरी जगहों पर भी राष्ट्रवाद के आगे अर्थ के विशाल तंत्र को झुकना ही पड़ा था। इसीलिए घबराएँ नहीं, राष्ट्रवाद अर्थव्यवस्था को रास्ते पर ले ही आएगा!

अर्थतंत्र की बात करने से पहले ज़िक्र कर लेते हैं राष्ट्रवाद का...
एक लफ्ज़ है - आर्थिक राष्ट्रवाद। किसी देश की आर्थिक विचारधारा तब आर्थिक राष्ट्रवाद कहलाती है जब वह अपने अर्थतंत्र, श्रमशक्ति और पूंजी-निर्माण पर घरेलू नियंत्रण पर बल देता है और आवश्यक होने पर कर तथा अन्य पाबन्दियाँ लगाने से नहीं हिचकता। कई दृष्टियों से आर्थिक राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण एक-दूसरे के विरोधी हैं। आर्थिक राष्ट्रवाद के अन्तर्गत आने वाले प्रमुख सिद्धान्त हैं - संरक्षणवाद, वणिकवाद तथा आयात प्रतिस्थापन। उधर अर्थतंत्र के खिलाफ राष्ट्रवाद वह है जब उस राष्ट्र का अर्थतंत्र, उसकी मूल समस्याएँ, मूल दिक्कतें राष्ट्रवाद के जोर के आगे दम तोड़ती नजर आए और उसका प्रमुख सिद्धान्त है – सिद्धान्तों का गमन!!!

बात कर रहे हैं अर्थशास्त्र की और उसकी बात करने से पहले राष्ट्रवाद का ज़िक्र छेड़ना पड़ जाए यह चीज़ ही राष्ट्रवाद के प्रभाव की ओर इशारा करती है। देशभक्ति और राष्ट्रवाद... इन दो लफ्जों के बीच जो अंतर पनपता गया उसने बहुत कम अंतर वाली दो धाराओं को एकदूसरे से बिल्कुल विपरित धारा बना दिया। राष्ट्रवाद का उद्भव तथा उसके विकास के इतिहास की कई कहानियां है, कई इतिहास है। हमें अर्थतंत्र पर बात करनी है, राष्ट्रवाद पर नहीं। लिहाजा हम देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बीच जो जमीनी अंतर पनपता गया उसका कम लफ्जों में ज़िक्र कर लेते हैं। लव और लाईक, डिबेट और गोसीप... इन सबमें एक बाल जैसी पतली सी रेखा जितना अंतर है, किंतु परिणाम बहुत ही विपरित होते हैं। देशभक्ति और राष्ट्रवाद के मूल रूप को देखा जाए तो उनके बीच भी बाल जैसी पतली सी रेखा जितना अंतर था। लेकिन परिणाम यह हुआ कि एक विचार देश को एकजुट करने की ताकत बनकर सदैव खुद को प्रमाणित करता रहा और दूसरे ने एक देश में किसी दूसरे देश का सृजन कर दिया, जिसे आम भाषा में देश को बांटना भी कहा गया। किसने क्या किया वो अपने तौर पर ही सोच या समझ लीजिएगा।

वैसे राष्ट्रवाद विवादित या खतरनाक नहीं है। दरअसल उसकी व्याख्या को तोड़-मरोड़कर अपने निजी स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करना खतरनाक है। राष्ट्रवाद का वैश्वीकरण कइयों ने सही माना, लेकिन उसका इस्तेमाल राष्ट्र के लिए हो तब ही। राष्ट्रवाद के बारे में भारत के महान विचारक टैगोर ने कहा था कि राष्ट्रवाद नशे की शीशी है। उनके कथन में इशारा उन्हीं चीजों की तरफ हो सकता है, जहा समस्या राष्ट्रवाद नामके गुर को राष्ट्र के बजाय निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने का चलन हो। तभी तो सरदार पटेल जैसे लौह पुरुष कह गए थे कि जो व्यक्ति ##  राष्ट्र (किसी एक धर्म का देश) बनाने की इच्छा रखता हो वो मानसिक रूप से दिवालिया होता है। राष्ट्रवाद नामके गुर में राष्ट्र है, लिहाजा वो बुरा तो नहीं होना चाहिए। आक्रामकता, अतिरेक या कुछ और होगा इनमें, लेकिन राष्ट्र के लिए। अब इस वाद का इस्तेमाल राष्ट्र के बजाय सत्ता, लोलुपता, निजी स्वार्थ, दलवाद के लिए होने लगा तो इससे बदनाम सत्ता या लोलुपता या स्वार्थ या दल नहीं हुए। बदनाम तो हो गया राष्ट्रवाद। अपने आधे अंग देशभक्ति से बहुत दूर जाकर ठहरा दिया गया।

हमने 4-5 सालों पहले एक लेख लिखा था। लेख था - Tiranga & Patriotism : अब केवल तिरंगा आसमान नहीं छूता, उसके नीचे दबे मकसद भी आसमान चीरकर आगे निकल जाया करते हैं। इस लेख में हमने दुनिया और देश के फलक पर जो कुछ बदलता दिख रहा था उसका ज़िक्र किया था। दुनिया के फलक के ऊपर राजनीति, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र से लेकर अर्थशास्त्र तक बीते कुछ सालों से बदलने लगे हैं। सालों का यह फासला उस वक्त के हिसाब से 10-12 साल का लेकर चले थे हम, आज के हिसाब से 14-17 साल मान लीजिए। केवल भारत ही नहीं, दुनिया के ऊपर अपने विश्लेषण लिखने वाले लोग बताते हैं कि यह सब दुनिया के ज्यादातर देशों में हो रहा है। किसीको नया अमेरिका बनाना है, दीवारें फिर से खड़ी करनी हैं, किसी को नया पाकिस्तान बनाना है फिर भले दो रोटी नसीब ना हो पाती हो, किसीको भारत को विश्वगुरु बनाना है, किसीको नया जर्मनी, किसीको ताकतवर रूस। सीमाएँ लांधकर एकदूसरे के साथ होकर सभी को आगे बढ़ना है और करते भी हैं, लेकिन अजीब है कि लोगों को सीमाएँ बांधकर अपनी तरफ रखने का ट्रेंड कई सालों से व्याप्त होता गया है।
दुनिया की राजनीति और समाजशास्त्र के विशेषज्ञ कहते हैं कि राष्ट्रवाद का वैश्वीकरण एक तरह से अच्छा भी है। क्योंकि इससे आपको अपने राष्ट्र को कई तरीकों से मजबूत करने में मदद मिलती रहती है। कई रूप यानी बहुत ही सारे रूप। राष्ट्रवाद के जरिए नेता अपने देश को कई दिक्कतों से बाहर निकालने में सफल होता है। नेता अपने देश को एकजुट करके कई विपत्तियों से देश को उबार ले जाता है। इसके कई उदाहरण दुनिया में भी है, भारत में भी है। पिछली सदी में भी थे और 21वीं सदी में भी है। हम उस उदाहरणों को छोड़ बात को आगे बढ़ाते हैं। राष्ट्रवाद की ज़रूरत और उसका वैश्वीकरण कई तरीकों से कारगर है, ज़रूरी है, फायदेमंद भी है। इसके ऊपर उन विशेषज्ञों ने बहुत ही विस्तार से लिखा या कहा है। हमें राष्ट्रवाद पसंद ना हो तब भी उन जमीनी तथ्यों को पढ़ना-समझना चाहिए।

लेकिन जब से यह वाद सत्ता-लोलुपता-निजी स्वार्थ-समुदायवाद-दलवाद आदि चीजों में इस्तेमाल होने लगा, तब से राष्ट्रवाद के आलोचक भी मुखर होने लगे और इसे जोखिमवाली श्रृंखला में भी गिना जाने लगा। देशभक्ति और राष्ट्रवाद नामके एक ही अंग दो अलग अलग शरीरों में देखे जाने लगे, जिसमें बहुत अंतर भी दर्शाया जाता था। हमें बात राष्ट्रवाद पर नहीं करनी है, ना ही राष्ट्रवाद और धर्म के मिश्रण के ऊपर। किंतु अर्थतंत्र को इन दोनों वादों से रुबरु तो होना ही है।


नोटबंदी और जीएसटी... फ़ैसले के वक़्त भी विशेषज्ञ कहा करते थे कि शुरुआत में बड़ा फ़ैसला, हिम्मत वाला फ़ैसला वगैरह के साये के तले सब कुछ सुघरता नज़र आएगा, लेकिन अर्थतंत्र के इस फ़ैसले की अच्छी या बुरी असरें डेढ़-दो साल के बाद दिखाई देगी
नोटबंदी के 50 दिनों के बाद सपनों का भारत... ये फिल्मी डायलोग राजनीति में अब भी चल रहा है। बिना रोकटोक के चल रहा है। इतने दिन दे दीजिए, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा, ये होगा, वो होगा टाइप सीन अब भी जारी है और जारी भी रहेंगे। नोटबंदी के समय किसीने बेसिक बात नहीं सोची कि यह नोटबंदी है या फिर नोटबदली? ऐसे में नोटबंदी विफल रही या सफल यह कौन सोच सकता था भला? नोटबंदी वाले फैसले को अब बाकायदा बेतुका फैसला कहा जा चुका है। जीएसटी को आनन-फानन में लागू करने की परमइच्छा और चकाचौंध करके लागू करने की जल्दबाजी ने भी काफी नुकसान पहुंचाया। वोट बैंक के चलते कई ऐसी चीजें हुई जिसने नोटबंदी और जीएसटी के बाद दूसरे धक्के दिए।

नोटबंदी पहले 50 दिनों के अंदर ही विफल होती दिखी तो कैशलेस और डिजिटल का नारा बाज़ार में उतरा। कैशलेस और डिजिटल के नारे के पीछे करोड़ों फूंक दिए गए, जिसकी खबरें भी प्रकाशित हुई। नतीजा यह हुआ कि कैशलेस और डिजिटल का नारा इस कदर पीटा कि हाल ही में प्रकाशित रपटें बताने लगी कि नकद व्यवहार का स्तर पहले के स्तर को दोबारा छू रहा है। पेटीएम तो करोड़ों के नुकसान के साथ पीट ही गई। कैशलेस और डिजिटल का चक्कर भी बिना बेसिक तैयारी के (जीएसटी के समान ही) मैदान में आ गया था, सो नतीजे वैसे नहीं मिलने थे जैसे मिलने चाहिए थे। नोटबंदी ने नकदी और बचत पर आधारित भारत की परम्परागत अर्थव्यवस्था या असंगठित क्षेत्र को तबाह कर दिया। राजनीतिक जल्दबाजी ने जीएसटी को अराजक करव्यवस्था बनाकर रख दिया, जिसके चलते जीएसटी लागू करने के बाद केंद्र को इसमें अनेक बदलाव करने के लिए मजबूर होना पड़ा। कैशलेस को एक ही तरीके से डिफाइन किया जा सकता है – थोपी हुई व्यवस्था।

नोटबंदी से आतंकवाद खत्म होगा वाला गज़ब और मूर्खशिरोमणी वाला तर्क बहुत ऊपर से देश के ऊपर बड़ी आसानी से फेंक दिया गया! दुनिया में पहली दफा होगा जब किसी सरकार ने आतंकवाद की कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी की हो!!! आतंकवाद और नोटबंदी का फिर क्या हुआ सबको ज्ञात है। काला धन खत्म करने का बहाना आगे धर दिया गया, लेकिन सरकार दो हज़ार वाले नोट और काले धन वाली संभावना का कोई जवाब कभी नहीं दे पाई। मीडिया दो हज़ार के नोट में चिप खोजने लगा। जीएसटी पर जो आपा-धापी मची वो अराजक करव्यवस्था का उत्तम नमूना था। असंगठित क्षेत्र को इन दो वारदातों ने गहरे जख्म दिए, जिसके झटके धीरेधीरे संगठित क्षेत्र को भी लगने लगे।

मोदी सत्ता को बेशक घोषणाओं की और नारों की सरकार कहा जा सकता है। कई नारें, कई घोषणाएं किंतु परिणाम क्या किसीको जानने का वक्त नहीं मिल पाता। इज ऑफ डूइंग बिजनेस का नारा खूब चला, लेकिन आर्थिक आजादीमें देश पाकिस्तान और नेपाल से भी पिछड़ गया। वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित आर्थिक आजादी के एक सूचकांक में भारत 2017 में पिछड़कर 143वें पायदान पर पहुंच गया। 2016 में इस सूचकांक में भारत 123वें पायदान पर था। चौंकाने वाली बात यह थी कि अमेरिका के एक थिंक टैंक द्वारा तैयार किए जाने वाले इस सूचकांक में इस साल पाकिस्तान सहित अनेक दक्षिण एशियाई पड़ोसी देश भारत से बेहतर स्थिति में थे। भारत के खराब प्रदर्शन के लिए थिंक टैंक की रिपोर्ट में बाजारोन्मुख सुधारों की दिशा समान रूप से प्रगति न हो पाने को जिम्मेदार ठहराया गया। हेरिटेज फाउंडेशन ने अपनी आर्थिक आजादी सूचकांक रिपोर्ट में कहा कि भले ही पिछले पांच साल में भारत की औसत सालाना विकास दर करीब सात फीसदी रही हो, लेकिन विकास को गहराईपूर्वक नीतियों में जगह नहीं दी गई, जो आर्थिक आजादी को संरक्षित करती है। राजनीतिक थिंक टैंक ने भारत को अधिकांश रूप से अस्वतंत्रअर्थव्यवस्था की श्रेणी में रखा और कहा कि बाजारोन्मुख सुधारों की दिशा में प्रगति समान रूप से नहीं हो पा रही।
गज़ब हाल यह रहा कि जब जब भारत में आर्थिक स्थिति की बातें आई, मीडिया और सरकार, दोनों ने पाकिस्तान के आर्थिक हालात की तरफ देश को घुमा दिया!!! यह कहकर कि पाकिस्तान भूख से मर रहा है, वहा प्याज की कीमतें आसमान छू रही है, पाकिस्तान बर्बाद हो चुका है वगैरह वगैरह। बताइए, अमेरिका-जापान की बात करनेवाले भारत की तुलना पाकिस्तान से करने लगे!!! सोचिए, क्या दिन आ गए होंगे कि हमारे विशाल अर्थतंत्र की तुलना पाकिस्तान से की जाने लगी!  

मीडिया दावोस में डंका बजा रहा था, वहीं विश्व आर्थिक सूचकांक में भारत बांग्लादेश से भी पिछड़ गया! तामझाम और चकाचौंध करनेवाले शो (राजनीतिक शो) अब भी जारी है और इस चकाचौंध में कई चीजें छूटती चली गई। नोटबंदी का सही विश्लेषण कभी नहीं हो पाया, जीएसटी की जल्दबाजी में क्या छूटा यह सोचने की हिम्मत कौन कर सकता था भला? पकोड़ा, गाय, गोबर, गौमूत्र इसीके आसपास अर्थतंत्र को घूमना है ऐसा वातावरण कई नेता बनाते चले गए। पशुपालन मंत्री गिरिराज सिंह ने कह दिया कि हम गाय की फ़ैक्ट्री लगा देंगे, सिर्फ़ बछिया पैदा होंगी और क्रांति ला देंगे। यही रिएक्शन होना चाहिए था कि... बड़े आए क्रांतिवीर।

सरकार और मीडिया मंदी को मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उधर राहत देकर कह रहे हैं कि मंदी के ख़िलाफ़ हमने कदम उठाए हैं...!!! इस चक्कर में कई चक्कर छूटे जा रहे हैं, जो भी हो लेकिन कोने में छपे रिपोर्ट्स को संक्षेप में देख ही लेते है
सरकार और मीडिया, दोनों मंदी को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उधर सरकार राहतवाली घोषणाएँ करके कह जाती है कि हमने मंदी से लड़ने के लिए कदम उठाए हैं!!! बताइए, मंदी है ही नहीं तो फिर मंदी के खिलाफ खामखा क्यों लड़ रहे है सरकार? चक्कर इतने हैं कि चक्कर के चक्कर में दूसरे चक्कर छूटे जा रहे हैं! जब जमीनी और आर्थिक दलीलों से मीडिया और सरकारें हारेगी तब कह देगी कि 2008 वाली स्थिति नहीं है। अरे भाई... ऐसे तो दुनिया के तमाम देशों को घोषित कर देना चाहिए कि 193त2 वाली स्थिति नहीं है इसलिए दुनिया में मंदी नहीं है ऐसा माना जाएगा! ये कोई दलील हुई कि 2008 वाली स्थिति नहीं है। क्या मंदी की भी तुलना होगी कि इसकी मंदी बड़ी थी और हमारी छोटी है? गज़ब नहीं बल्कि गज़बनाक मूर्खामी है यह तो।

दरअसल राजनीति के इश्क का भूत इतना गहरा उतर चुका है कि जब बात नोटबंदी की निकलती है तो अनपढ़ भक्त भी नोटबंदी को ऐतिहासिक फैसला बताने से पीछे नहीं हटता। वो ऐतिहासिक फैसला था, इसके अलावा नोटबंदी के ऊपर किसी प्रकार की कोई चर्चा ही नहीं हुई!!! ऐसे में मंदी को लेकर बेतुकी दलीलें या बेतुके प्रयास होना लाजमी है। एक बात यह भी नोट करनी होगी कि मोदी सत्ता के ऊपर आंकड़ों में हेरफेर के अतिगंभीर आरोप लग चुके हैं। जानकारियां छुपाना कांग्रेस का काम था, भाजपा इनसे आगे बढ़कर गलत जानकारियां परोसने के लिए बदनाम है। नोटबंदी हो या जीएसटी, एक ही चीज़ के ऊपर पांच से छह प्रकार के अलग-अलग आंकड़े ले आने का चमत्कार इसी सत्ता ने किया था!!! नोटबंदी वाली हमारी सीरीज में ऐसी अनेक घटनाएँ मिल जाएगी।

फिलहाल सरकार पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात करती है। उधर अर्थव्यवस्था की हालत इतनी ख़राब है कि इसी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर गिरकर 5 फ़ीसदी पर पहुँच गई। बेरोज़गारी दर 45 साल के रिकॉर्ड स्तर पर है। हर सेक्टर में मंदी है। टैक्सटाइल, गार्मेन्ट्स समेत ऑटो सेक्टर की हालत भी ख़राब है। राजनाथ तो पाँच ट्रिलियन से भी आगे जा चुके हैं। उधर संबित पात्रा जैसे जानकार प्रवक्ता को नहीं पता कि ट्रिलियन में कितने शून्य लगेंगे!!! रिजर्व बैंक से सरकार ने विवादास्पद ढंग से पैसे लिए है, लेकिन वित्तमंत्री सीतारमण कहती है कि उन्हें जानकारी नहीं है कि इसका इस्तेमाल कहा और कैसे होगा!!! बताइए... सरकार चल रही है या फिर कार???

ऐसे रिपोर्ट हैं कि अर्थतंत्र में यह गिरावट माँग में कमी आने के कारण है और लोगों की ख़रीदने की क्षमता कम हुई है। बहुत सारे लोगों की नौकरियाँ गईं हैं और जो लोग नौकरी में हैं वह भी पैसे ख़र्च नहीं करना चाहते हैं। व्यापार में लगे लोग भी पैसे बाज़ार में लगाने से डरते हैं। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी हाल ही में कहा था कि देश में 70 साल में ऐसा नकदी संकट नहीं आया। ये बात कहने के बाद उपाध्यक्ष साहब को दूसरे दिन यू-टर्न लेना पड़ गया। बीच में रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी ऐसा यू-टर्न लेना पड़ा था। सोचना तो यह भी है कि इनको यू-टर्न लेना पड़ गया इतना दबाव क्यों?
शेयर बाज़ार का तो क्या है, कभी ऊपर चढ़ेगा तो कभी नीचे गिरेगा। कभी पांच सौ पॉइंट ऊपर जाने पर तेजी होती है तो इतने ही पॉइंट नीचे गिरने पर मंदी नहीं होगी यह मीडिया ने स्वयं ही घोषित कर दिया है! मोदी-2 के दौर में 96 प्रतिशत कंपनियों को स्टॉक मार्केट से नुकसान हुआ यह रिपोर्ट भी छपी थी। अर्थतंत्र में सब कुछ ठीक है वाला बहाना करते हुए वित्तमंत्री ने मार्केट को ऑक्सीजन देने के कई प्रयास भी कर लिए। बताइए, सब कुछ ठीक है तो फिर इतनी सारी राहतें क्यों? 10 बैंकों का विलय करके 4 बैंक बना दिए, लेकिन वित्तमंत्री ठोस रूप से इसके फायदे और आगे की आर्थिक योजनाओं के ऊपर कुछ नहीं बोल पाई!!! दरअसल रिजर्व बैंक के बाद सरकार ने भी अपने कदमों से मान लिया है कि मंदी है, लेकिन पतली गली से बचने का प्रयास यही है कि वे मंदी के प्रकार गिनाने का काम शुरू कर चुके हैं!!!

सब कुछ ठीक ही था तो फिर सरकारी बैंकों में पूंजी निवेश का फैसला, बैंकों के विलय का फैसला, कॉर्पोरेट रेट को कम करने की प्रस्तावित योजना, रियल एस्टेट सेक्टर के लिए योजना, ऑटोमोबाइल सेक्टर के लिए उठाये जानेवाले कदम, जीएसटी में सुधार, ब्याज दरों में कटौती... इतनी माथापच्ची एक ही साथ की क्यों? कही कोनों में छपनेवाली खबरें बताती है कि मारुति पार्किंग का हाल ऑटो सेक्टर की स्थिति को बयां कर जाता है। गुजरात में मोरबी-सूरत-कच्छ समेत कई जगहों पर कर्मियों को कई दिनों की छुट्टियां, स्टाफ कम करना, नये ऑपरेशन स्थगित करना, ट्रांसपोर्ट में लगे हजारों ट्रकों के चक्के स्थिर हो जाना, यह चीजें भी कोने में छपी हैं। मारुति पार्किंग पर छपा लेख बताता है कि यहां सन्नाटा पसरा है, गाडियों की आवाजाही बंद है, ट्रकों के ड्राइवर पेड़ के साये में ताश के पत्तों में मशगूल हैं, कोई खाना बना रहा है तो कोई ख़ुद की साफ़ सफ़ाई में व्यस्त है। मारुति पार्किंग वाली रपट में ट्रक ड्राइवरों से लेकर कई अन्य व्यवसायियों के दर्द छपे थे, लेकिन कश्मीर को आगे ले जाने के चक्कर में इन सबके रूक जाने का चक्कर छूटा जा रहा था।

ट्रक ऑपरेटर एसोसिएशन कह चुका है कि वे अपनी गाड़ियों की किस्त नहीं चुका पा रहे हैं इसलिए उनकी ईएमआई को आगे बढ़ा दिया जाए। लेकिन कॉर्पोरेट टैक्स कम होने की बातें जोरों पर है, इनकी कौन सुनेगा भला? ऑटो सेक्टर के बुरे हालात का असर इससे जुड़े दूसरे कई सेक्टर और कई व्यवसायी व कर्मियों या मजदूरों पर पड़ा ही होगा। सियाम के अनुमान की माने तो इससे देशभर में कम से कम 3.5 लाख लोगों की नौकरियां चली गई है। 3.5 लाख लोगों की नौकरियां चले जाने का आंकड़ा इस सेक्टर का है जिसकी बात हम इस पैरा में कर रहे है यह नोट करे। इसमें दूसरे सेक्टर शामिल नहीं है।

ऐसा भी नहीं है कि यह गिरावट एकदम से आ गई है। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी और गैर बैंकिग वित्तिय संस्थाओं के संकट ने कई लोगों को बेरोजगार बना दिया। इन तीन झटकों ने असंगठित क्षेत्र को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया और संगठित क्षेत्र भी इसकी चपेट में आ रहा है। संगठित क्षेत्र चपेट में आया तो सरकार जागी, लेकिन अब तक असंगठित क्षेत्रों को जो नुकसान पहुंच चुका है उसकी भरपाई करने की जरा सी कोशिश सरकार ने नहीं की। कोशिशें की होती तो नौबत यहां तक नहीं आती। 
सीएमआई का एक आंकड़ा चौंकाता है, जिसके मुताबिक देश में कर्मचारियों की संख्या 45 करोड़ थी, जो घट कर 41 करोड़ हो गई है, यानी चार करोड़ रोज़गार में कमी आई। सुस्ती के यह संकेत हरियाणा के गुरुग्राम, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल औद्योगिक क्षेत्र में पिछले दो साल में देखे जा सकते थे। ऐसे कई बेरोजगारों की कहानियां कोनों में छपती रही जिसमें वे बताते कि कंपनी यह कहकर निकाल रही है कि कोई काम नहीं है। छिटपुट छपी रपटें कुछेक बार एकसाथ संजोकर भी छपी और बुरे आर्थिक हालात के प्रति इशारा किया गया। लेकिन क्या करे, क्योंकि उस दौर में संसद के भीतर कोई आंख से इशारे कर रहा था और जिसे इशारा किया गया था वो भी हाथों से मिमिक्री करके संसद को मजेदार सीन दे रहा था!!!

जानकारों का डर-डर कर यह भी कहना है कि चूंकि सरकार ने बुनियादी उपाय नहीं किए इसलिए यह सुस्ती लंबी खींचती चली गई, वर्ना नौबत यहां तक नहीं आनी थी। कॉर्पोरेट सेक्टर में कर-छूट की योजनाओं के बारे में भी सुनाई दे रहा है। लेकिन वहां भी जानकार बताते है कि संगठित क्षेत्र को राहत देना बुनियादी हल नहीं होगा, क्योंकि समस्या असंगठित क्षेत्र से आई है। अब जबकि असंगठित क्षेत्र को समस्या नोटबंदी और जीएसटी जैसे धक्कों ने दी, लेकिन उसकी सही चर्चा सरकार होने ही नहीं दे रही तो फिर बुनियादी हल को न अपनाने की गलती की भी चर्चा आगे नहीं होगी, जब सरकार कॉर्पोरेट टैक्स वाला कदम उठाएगी।

जानकार डर-डर कर यह भी बताते हुए सवाल करके ही कुछ कह जाते है कि भले इसे मंदी ना कहे, लेकिन फिर 40 साल का रिकॉर्ड टूटना, 70 सालों का रिकॉर्ड टूटना, यह सब क्या है? वे तो इस स्थिति को मैन मेड कह रहे हैं। कुछ रपटें बताती है कि जो दिखाया जा रहा है, स्थिति उससे भी बड़ी गंभीर हैं। जैसे कि जीडीपी के 5 प्रतिशत वाले आंकड़े को भी चुनौती दी जा रही है, यह कहकर कि वास्तविक आंकड़ा और नीचा आता अगर सरकार गणनप्रक्रिया को नहीं बदलती या फिर असंगठित क्षेत्रों के आंकड़े भी इसमें शामिल होते, जोकि पांच साल में आते हैं।

दूसरे सेक्टरों में भी यही स्थिति विद्यमान हैं। साबुन, तेल, शैंपू, मसालें, चायपत्ती, डिटर्जेंट से लेकर बिस्कुट तक पीट रहे हैं। असंगठित क्षेत्र में स्थिति बहुत ज्यादा बिगड़ी हुई हैं। बुनियादी हल ना अपनाना इसको लंबा खींच रहा है। जिससे अपराध समेत दूसरी भी समस्याएँ पैदा हो रही हैं। 700 जगहों पर 7 लाख लोग एप्लीकेशन कर रहे हैं जोब के लिए। इसे उस वाहियात दलील से हल नहीं किया जा सकता जिसमें कहा जाता है कि पहले की सरकार में भी यह हुआ था। तो क्या उसने किया था तो आप भी करेंगे? रोजगार पर बहुत लंबी सीरीज करके एक पत्रकार मैग्सेसे अवार्ड ले गया लेकिन फर्क कुछ नहीं पड़ा। भर्तियां निकलती हैं, मेरिट में नाम आता है, लेकिन लोग कई समय से अपनी नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं! भर्तियां होना बंद नहीं होता, लेकिन साला नौकरी मिलती नहीं है किसीको!!! ऊपर से डाटा यह बताता है कि उल्टा नौकरियां जा रही हैं।
एफएमसीजी सेक्टर का दर्द कई सालों से कोनों में छपता आ रहा है, लेकिन कांग्रेस हो या बीजेपी, सबको कोटवालों की आवाज सुनाई देती है, इन लोगों की नहीं। सरकार कहती है कि यह मंदी नहीं है, ग्रोथ में स्पीड ब्रेकर आया है। अरे भाई... तो मंदी की व्याख्या क्या अब यह होने लगेगी कि ग्रोथ गड्ढे में चला जाए तब ही मंदी मानो???!!! स्पीड ब्रेकर का आना ही तो मंदी है। लेकिन मंदी की व्याख्या ही बदल दी गई है, जैसे कुछ आंकड़ों की गणना का पैमाना ही बदल दिया।

नोटबंदी ने ग्रामीण भारत को रुलाया और जीएसटी ने शहरी भारत को। कुछ दलील देते हैं कि ग्रामीण और शहरी, दोनों भारत ने मोदी सत्ता को पिछले लोकसभा चुनाव में तीहरा शतक तो पार करवा दिया। अरे भाई, इसे राजनीतिक दलील कहते है और इसकी असरें राजनीतिक होती है। अर्थतंत्र भले राष्ट्रवाद के सामने हार रहा है, किंतु किसीका जीतना और हारना अर्थतंत्र के लिए टॉनिक नहीं होता, बल्कि नीतियां ही इलाज़ होती हैं। वर्ना 2014 और 2019, दोनों समय सारी चीजें ठीक होनी चाहिए थी। उल्टा हुआ यह कि राजनीति के सामने अर्थ का तंत्र धीरे धीरे सिकुड़ता चला गया।

वित्तिय सुधार के नाम पर जो कुछ हुआ उसका ज्यादा लाभ विदेशी निवेशकों को मिलता है। छोटे व्यापारी और छोटे उद्योग अभी भी राज्यों के जटिल कानून और भ्रष्ट नौकरशाही की गिरफ्त में हैं। कोने में छपी पुष्ट खबरों को भी देख ले। एनएसएसओ का डाटा बताता है कि भारत अब उच्चतम बेरोजगारी दर से पीड़ित है। क्रेडिट सुइस रिपोर्ट के अनुसार भारत पिछले 50 सालों की सबसे बड़ी आर्थिक असमानता से झूज रहा है। डब्लयूपीआई के मुताबिक किसानों को पिछले 18 सालों में सबसे खराब कीमतों का सामना करना पड़ रहा है। मार्केट डाटा बताता है कि भारत का रुपया एशिया में सबसे कमजोर मुद्रा प्रदर्शन कर रहा है। ढेरों रिपोर्ट कोने में छपे हैं, अनेक सेक्टरों पर। असंगठित क्षेत्र बुरी तरह से झुलस रहा है यह बात लगभग तमाम रिपोर्टो में दर्ज नजर आती है। बजट में घोषणाएँ होती हैं, लेकिन पैसे नहीं है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर गड्ढे में है, जिसके लिए मेक इन इंडिया की घोषणा हुई थी।

अगर आर्थिक सुधार को मोदी सत्ता ने क्रोनी कैपिटलिज्म और भ्रष्टाचार के नज़रिये से देखा तो उस व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए समानांतर कोई दूसरी व्यवस्था खड़ी क्यों नहीं की? दरअसल पहले से चली आ रही व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए कोई नई समानांतर व्यवस्था खड़ी न करने से ही संकट शुरू होता है। राजनीतिक अर्थवाद के जरिए असंगठित क्षेत्र के बजाय संगठित क्षेत्र को संभालना, बेरोजगारी और असंगठित क्षेत्र के लिए राष्ट्रवाद जगाना राजनीतिक उपाय है। अर्थव्यवस्था राजनीतिक उपाय नहीं चाहती, वो ठोस नीतियां चाहती है।

मंदी है ही नहीं यह साबित करने के प्रयत्न सरकार से लेकर उनके लठैत कर रहे हैं, दलील और तर्क ऐसे है कि हंसने का नहीं बल्कि ऐसे तर्क फेंकने वालों को पीटने का मन होता है... मंदी या कमज़ोर आर्थिक हालात पर चर्चा करने का क्या मतलब जब भारत विश्वगुरु है यह मान्यता खाली भूसों में घर चुकी है
मंदी को दूर करने के लिए सत्ता कौन से प्रयास कर रही है इसकी चर्चा होनी चाहिए, लेकिन सत्ता इसी प्रयासों में लगी है कि मंदी है ही नहीं यह साबित कर दिया जाए। एक के बाद एक प्रेस वार्ता करके मीडिया का सह्योग लेकर देश को यकीन दिला दो कि मंदी नहीं है। आर्थिक व्यवस्था में गिरावट से बचने का तरीका अर्थतंत्र में नहीं मिला तो राजनीति ने अपना मंत्र आजमा लिया।

कई जगहों पर गज़ब के तर्क और गज़ब की दलीलें देखी हैं। हम तो 2014 से पहले कांग्रेस की भी आलोचना किया करते थे, आज भाजपा की कर रहे है। लेकिन कांग्रेसी समर्थकों को भक्त क्यों नहीं कहा जाता था और भाजपाई समर्थकों को भक्त क्यों कहा जाता हैं, इस सवाल के उत्तर स्वयं भाजपाई समर्थक अपनी मूर्खामी से, बेतुकी दलीलों से और हास्यास्पद नहीं बल्कि पीटना ज़रूरी टाइप तर्कों से दे रहे हैं। मीडिया भले उन मंत्रियों के बयानों या दलीलों को न्यूज़ ना बनाता हो, लेकिन मोदी सत्ता के केंद्रीय से लेकर राज्य स्तर के मंत्रियों के अनेक मामलों में तर्क या दलीलें उन्हें हास्यापद और मनोरंजक टाइप जीव बता चुके हैं। गज़ब के नहीं बल्कि गजबो के शहँशाह को भी शर्म महसूस हो ऐसी दलीलें उनके कई मंत्री या नेता भारत को दे चुके हैं। दे चुके है नहीं बल्कि अपनी बेतुकी दलीलें फेंक चुके हैं। सीधा कहा जा सकता है कि जब नेता ही ऐसी हास्यास्पद और मनोरंजक टाइप दलीलें देते रहेंगे, तो फिर उनके लठैत हास्यास्पद नहीं बल्कि पीटना ज़रूरी टाइप तर्कों से ही जिंदा रहने की कोशिशें करते दिखेंगे न।

बताइए, बात केंद्र की है उधर गुजरात से वहां के सीएम चिंतित है। मंदी को लेकर नहीं मोदी की प्रतिष्ठा को लेकर!!! कह रहे है कि मंदी है ही नहीं, मंदी की हवा फैलाई जा रही है, ग्रोथ कम होना केवल झूठी बातें है। क्या पता शायद उन्हें वहां से भारत के अर्थतंत्र की हवा लगती हो, तभी तो उन्हें पता होगा कि मंदी की हवा कोई फैला रहा है। गडकरी गुरु बनकर ज्ञान बांट गए कि कभी खुशी होती है, कभी गम होता है, कभी आप सफल होते हैं और कभी आप असफल होते हैं, यही जीवन चक्र है। नोट करे कि वह परिवहन मंत्री है और ज्ञान बांट रहे है वित्त मंत्रालय का!!! शायद इसलिए क्योंकि वित्तमंत्री को नहीं पता कि रिजर्व बैंक से निकाला गया पैसा कहां इस्तेमाल करना है!!! गडकरी पूरा जीवन चक्र समझा गए, पता नहीं अब विश्वविद्यालयों में अर्थतंत्र के साथ साथ जीवन चक्र और समय चक्र का ज्ञान कब सिलेबस में शामिल होगा! उधर वित्तमंत्री कह रही है कि ओला-उबर ऑटो सेक्टर में मंदी की मुख्य वजहों में से एक है!!! तब तो सोचना यही होगा कि जिस देश के आर्थिक हालात को दो टैक्सी कंपनियां तबाह कर दे तो फिर वित्तमंत्रालय में बैठे महानुभावों का लेवल क्या होगा? तब तो आगे यह भी स्वाभाविक माना जाएगा कि ओला-उबर की वजह से मंदी हो सकती है तो फिर भूकंप के झटकों की वजह से स्टॉक मार्केट भी गिर सकता है!!!
हमारे यहां गूगल पर गार्डियन अख़बार पढ़कर लंदन के विशेषज्ञ बनने का चलन तेजी में है, वहां मंदी नहीं है! पाकिस्तान के साथ कुछ दिक्कतें होती है तब लगता है कि सेना को युद्ध करना नहीं आता होगा, इतने सारे रक्षा विशेषज्ञ मीडिया पैनलों पर खिल उठते हैं। इसरो में जितने वैज्ञानिक नहीं होंगे उतने तो व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में देखने को मिलेंगे। सर्जिकल स्ट्राइक के समय देश मेजर बन जाता है, नोटबंदी के समय अर्थशास्त्री, जीएसटी के समय सीए!!! बताइए, आर्टस करनेवाला लठैत भी यहां जीएसटी और आर्थिक हालात पर विशेषज्ञ बनने का ढोंग कर लेता है और कोमर्स पढ़नेवाले को अनपढ़ भी साबित कर देता है!!! साइंस करनेवाले को भी कोमर्स या आर्टस वाले लठैत यहां रसायणों का ज्ञान बांट देते है!!! इतिहासकार को भी यह लोग पाठ पढ़ाते है, फिर भले उसे अपने शहर से 20-30 किमी दूर बसे किसी दूसरे शहर का इतिहास पता ना हो!!! व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ इनमें आगे है। किसी कुएं में कैद मेंढकों को यह नहीं पता होता कि कुएं के बाहर समंदर भी है।

यह विशेष प्रजाति है, जो कश्मीर या पंजाब की सरहदों पर कुछ लिखते हैं। विषय के विरुद्ध कमेंट आती है तो लिखनेवाला कमेंट करनेवाले को झाड़ता है और लिखता है कि कभी कश्मीर गये हो? कभी सरहद पर खड़े रहकर तनाव को झेला हैं? कमेंट लिखने वाले को तो यही लगता है कि लेखक (उसे झाड़ने वाला शख्स) शायद बटालियन कमांडर होंगे। जबकि लेखक कभी अपने राज्य से बाहर गया ही नहीं होता!!! तफ्तीश करें तो पाया जाता है कि कमेंट लिखने वाला एक फौजी था जो उन दिनों सरहद पर तैनात था। जबकि लेखक अपने राज्य से बाहर कभी गया ही नहीं था। ये लोग उसको भी नहीं छोड़ते और उनसे भी कह देते है कि सरहद पर जाकर तनाव झेलो और फिर लिखो!!! एक एनडीआरएफ अफसर उत्तराखंड पर अपनी राय रखते है। लोग उसे यह भी कह देते है कि तुम रेस्क्यू को क्या जानो!!! यह प्रजाति स्वयं को परिपूर्ण मानती हैं और सोचती हैं कि लोगों को जमीनी जानकारी रखनी चाहिए। जबकि वो तो कभी राज्य से बाहर गये नहीं होते।

मंदी को नहीं... मोदी को देखो... अर्थतंत्र भले राष्ट्र और दुनिया को चलाता हो, लेकिन उस तंत्र को राष्ट्रवाद के मंत्र के आगे सिमटना ही है, जीडीपी क्या होती है यही नहीं पता तो फिर वो गिर कर टूट भी जाए तो क्या?
घबराएँ नहीं, राष्ट्रवाद अर्थव्यवस्था को रास्ते पर ले ही आएगा! मंदी को नहीं मोदी को देखो... भारत का मीडिया ही लोगों को मंदी से उबारने के लिए यह कॉकटेल पिला रहा है तो फिर मंदी भला हम सबका क्या बिगाड़ लेगी? मंदी से लड़ने का, मंदी को हराने का हमारा यह हिट फॉर्मूला है। हमने शुरुआत में राष्ट्रवाद का ज़िक्र किया था। राष्ट्रवाद राष्ट्र को ही नहीं, सरकारों को भी बड़ी बड़ी विपत्तियों से बाहर निकाल ले आता है यह तो परमसिद्ध सत्य है।

हम एडवांस बन जाए या डिजिटल या कुछ और... किंतु आप ही नोटिस कर लीजिएगा। बाहर के देशों को हममें से ज्यादातर लोगों ने देखा नहीं है, सिर्फ सुना या पढ़ा है। उन बाहरी देशों को जितना सुना-पढ़ा हम सबने, यही पाया कि वहां कोई किसी काम में विफल होता है तो उसको कहा जाता है कि दोबारा प्रयत्न करो, सफल ज़रूर होंगे, रुको मत। भारत में विफल होने पर कहा जाता है कि फलांना फलांना देवी या देवता की मन्नत रख लो!!! मैं यह कहना नहीं चाहता कि हमारे देश में ऐसा हर जगह और हर समय है, किंतु है तो सही। इस प्रकार की स्थिति से एक विश्लेषक के रूप में आप उस सभ्यता को कई दृष्टिकोण से देख सकते हैं, समझ सकते हैं। राष्ट्रवाद जहां व्याप्त हो, वहां यह मंदी का क्या काम हो सकता है भला???!!! जिस देश में 2000 रुपये में धनवर्षायंत्र मिलता हो वहां मंदी कैसे आ सकती है?! उपरांत हम सबको यह व्यक्तिगत रूप से पता ही है कि हममें से आधे से ज्यादा लोगों को जीडीपी क्या है उसका अता-पता नहीं, तो फिर जीडीपी गिर कर टूट भी जाए तो क्या फर्क पड़नेवाला है? पिछले छह सालों से महंगाई क्या होती है देश को या मीडिया को नहीं पता, ऐसे में खरीदशक्ति की व्याख्या का कोई मतलब नहीं है।

यहां पकोड़े का अर्थतंत्र चल सकता है तो फिर यह जीडीपी, फलांना इंडेक्स, ढिमका इंडेक्स किस कामका। कोई विकास की बात करे तो कह देना कि भाई हम पाकिस्तान से बहेतर है!!! क्या हो गया जो अर्थतंत्र सुस्त है, राष्ट्रवाद में तेजी तो है। जम्मू-कश्मीर पहले किसी दूसरे देश का हिस्सा था अब अखंड भारत का अंग है फिर भले अटलजी ने 20-22 सालों पहले संसद में प्रस्ताव पारित किया हो। बैंक ताकतवर बन चुके हैं और उपभोक्ता की जेब काटने का मौका नहीं छोड़ रहे हैं। कॉर्पोरेट को छूट तो दी ही जा रही है, इंसानी जान बचाने के लिए ट्रैफिक रूल्स आसमान से उतरनेवाले हैं, शेयर बाज़ार को भी कभी अपर सर्किट वाला शॉक दे देंगे, प्याज-व्याज भिंडी-विंडी के दाम ऊपर-नीचे होना प्राकृतिक है उससे घबराएँ नहीं! इंधन के दाम ईरान वाली समस्या खत्म होते ही 30-40 तक ले आएंगे हम! रविशंकरजी रुपए के सामने डॉलर को गिराने का जाप जप रहे है इंतज़ार किजीए! रामदेवजी महाराज योग के जरिए शांति तो फैला ही रहे है, अब इसमें मंदी-वंदी का क्या काम हे भाई।
केंद्रीय वित्तमंत्री की क्या भूमिका होती है पता नहीं, क्योंकि उन्हें ही नहीं पता कि रिजर्व बैंक से निकाला गया पैसा कहा इस्तेमाल करना है!!! किंतु परिवहन मंत्री अर्थतंत्र के उपर प्रेस कॉन्फ्रेंस तो कर ही रहे है!!! ऐसा थोड़ी न होता है कि वित्तमंत्री को ही वित्त व्यवस्था पर बोलना होता है। परिवहन मंत्री क्यों नहीं बोल सकते भाई? क्योंकि मंदी आएगी तो सड़क से ही आएगी न? आसमान से आई तो परिवहन मंत्री को एविएशन मंत्रालय वाले बता देंगे!!! वित्तमंत्री रक्षा मामलों पर देश को जानकारी देते है तो फिर परिवहन मंत्री रुपये पर क्यों नहीं बोल सकते? रक्षा मंत्री खुद ही तो बोल रहे है कि 10-20 ट्रिलियन वाली इकोनॉमी बना लेंगे। रुपये की रक्षा तो करनी ही होगी न, इसीलिए तो रुपये पर रक्षा मंत्री भी बोल ही तो सकते हैं!!!

जीडीपी क्या होती है या क्या होता है नहीं पता तो फिर वो टूट कर गिर भी जाए तो क्या फर्क पड़ जाएगा? कौन कहता है कि रुपया गिरा है? सड़क पर कही भी तो नहीं मिला गिरा हुआ, फिर ऐसी अफवाहें कौन फैला रहा है? बेईमानी के दौर में अर्थव्यस्था के फेफड़े फाटे जा रहे थे अभी ईमानदारी के समय अर्थव्यवस्था को ऑक्सीजन टेबल पर लेटना पड़ रहा है तो उसमें क्या हो गया भाई? इंडिया डिजिटल तो बन रहा है न? चुनाव आयोग के साइट पर वोटर आईडी का ऑनलाइन वेरिफिकेशन करवाने जाओ और ओटीपी ना आए तो उसमें क्या हो गया? ओटीपी का ना आना थोड़ी न भारत को नुकसान पहुंचा देगा? डिजिटल होने में साइट्स तो क्रिटिकल हो ही जाते है। भाई, अर्थव्यवस्था सरपट पटरी पर भाग रही थी तो भागते-भागते सांसे तो फूलेगी ही न? इसमें क्या हो गया? तुम्हारे समय नहीं फूली थी क्या???!!!

जब तक कोई उद्योगपति प्रताड़ित नहीं होता, उसे आर्थिक विपत्ति नहीं कहा जाएगा, सरकारें कोई भी हो उनका जगराता कॉर्पोरेट के लिए होगा किसानों के लिए नहीं
एक देश एक टैक्स...। यह सपना देश के लिए है और देश उसे मानता भी है। लेकिन जब आर्थिक हालात बिगड़ते नजर आए तो कॉर्पोरेट को 22-23 फीसदी और नौकरीपेशा को वही का वही 30 फीसदी। एक देश एक टैक्स कहां है, कहां नहीं है उसको पूछने का अधिकार लोगों को नहीं है। एक दौर वो था जब देश की पीएम एक निजी कंपनी की स्वयंभू ब्रांड एंबेसडर बन बैठी थी। यह वो दौर है जब भारत में एक निजी कंपनी अपने उत्पाद का ब्रांड एंबेसडर किसी और को नहीं, देश के पीएम को ही बना देती है और वो पीएम स्वयंभू ही उसकी अप्रत्यक्ष इजाज़त दे देता है।

एक उदाहरण देखिए। कई साल पहले दिल्ली में अनेक शॉपिंग मॉल तो बन गए, पर उनमें दुकानदारों और ग्राहकों की भारी कमी थी। लेखक और एडवोकेट विरार गुप्ता लिखते है कि मॉल के बिल्डरों की शक्तिशाली लॉबी ने राजनेताओं और जजों के बच्चों को अपना पार्टनर बना लिया। उसके बाद अदालती फैसले के नाम पर दिल्ली में सीलिंग का सिलसिला शुरू हो गया। तीर निशाने पर लगा और मॉल्स में दुकानदार और ग्राहक दोनों आ गए। अब देश के असंगठित क्षेत्र और छोटे उद्योगों के सामने डिजिटल कंपनियों की पावरफुल लॉबी है। ऐसी अनेक कंपनियों ने विशाल वित्तीय डाटा को हासिल करके भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में ले लिया है।  

कांग्रेस हो या बीजेपी.. मंदी आती है-जाती है। मंदी जब जब आती है उद्योगपतियों के लिए सरकारें रातभर जागती हैं। लेकिन अगर मानसून फेल हो जाए तो किसान यूं ही मर जाएंगे। सरकारें शिखर धवन के अंगूठे के पीछे लगी रहेगी, किसानों के लटकते शव के नीचे खड़ी नहीं होगी। देश के जवान जंतर-मंतर पर महीनों तक भूखे मरते रहेंगे, सरकारें तो स्टार क्रिकेटर की शादी के भोज-समारोह को चार चांद लगाती रहेगी। आजादी के बाद नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक की सरकारें आई, किसीने किसी सरकार में देखा है कि किसी उद्योगपति ने सड़कों पर आकर अपने हक़ के लिए भूख हड़ताल की हो या प्रदर्शन करके लाठी-डंडे खाए हो? सरकारें कोई भी हो, किसीने किसी भी उद्योगपति के संतान को सड़कों पर आकर किसी चीज़ के लिए सरकारों से लड़ते देखा है? कुछ लाख रुपये के लोन न चुकाने पर किसानों के नाम बहुत आसानी से सार्वजनिक होते रहेंगे, कॉर्पोरेट के नाम सार्वजनिक होने चाहिए या नहीं होने चाहिए इसका फैसला मशक्कतों के बाद भी अदालतों में नहीं हो पाता। खास नोट यह करे कि जब तक कोई कॉर्पोरेटवाला बंदा आर्थिक रूप से प्रताड़ित नहीं होगा तब तक उस स्थिति को आर्थिक विपत्ति नहीं कहा जाएगा। सरकारें कोई भी हो, उनका जगराता चुनाव के समय वोट के लिए होगा और चुनाव के बाद चुनाव में चंदा देने वालों के लिए होगा।

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)