बड़ी सीधी सी बात है यह, जिसे स्वयं मोदी और शाह को भी स्वीकार करना ही होगा।
ना ही मोदी महात्मा गांधी है और ना ही शाह सरदार पटेल। हमारे यहां कई नेता हुए हैं और होते रहेंगे जो भटकती आत्मा सरीखे दिखते हैं, किंतु महात्मा तो गांधी ही थे।
गांधी सत्य के साथ प्रयोग करते थे, झूठ के साथ नहीं। लौह पुरुष होना इन नेताओं के बस
की बात नहीं है। शाह राजनीति में असरदार है इसमें कोई दो राय नहीं, किंतु भारत का सरदार
तो वो लौह पुरुष ही थे, जिनके लिए राजनीति भी कहती थी कि यही तो असरदार सरदार है। महात्मा
और सरदार, दोनों यूनिक थे, आज के नेताओं की तरह पैनिक नहीं थे।
“यूनिक” वर्सेज “पैनिक” का मतलब यह है कि वो महात्मा गांधी और
सरदार पटेल थे, जो उस दौर में भी यूनिक थे, इनक्रेडिबल थे और आज भी है। तभी तो आज
की राजनीति को बेमन ही सही किंतु इन दोनों (महात्मा और सरदार) के आगे नत-मस्तक होना
पड़ता हैं। महात्मा और सरदार, ये नाम ही उनके प्रति भारत की जनता का सम्मान और स्नेह
का प्रतीक है। मतलब यह कि वे “सेल्फ-मेड हीरो” नहीं थे, बल्कि वे यूनिक और इनक्रेडिबल थे, जिनके नाम से दुनिया आज के भारत को
जानती है। पैनिक टाइप नेता मोदी भी है, शाह भी है, सोनिया भी है, राहुल भी है,
प्रियंका भी है, केजरीवाल भी है। ये सब सेल्फ-मेड हीरो हैं, जिन्हें अपनी मार्केटिंग
करनी पड़ती है, प्रेजेंटेशन करना पड़ता है, झांसे देने पड़ते हैं, झूठ बोलने पड़ते हैं,
खोखले वादे करने पड़ते हैं, बेहद झूठे सपने दिखाने पड़ते हैं। उधर महात्मा और सरदार
थे, जो यूनिक थे, बाकी सब पैनिक हैं।
हमारे यहां नेतागणों के लठैत अपने अपने मनपसंद नेताओं को भारत के उन महान नामों के साथ जोड़ते रहते हैं।
जिन्हें वे नापसंद करते हैं उन महान नामों के साथ भी मनपसंद नेताओं को जोड़ा जाता है। कोई
अच्छा काम किया नहीं कि अपने नेता को उन महान नामों से जोड़ दिया। यही फैशन है आज-कल।
मजबूरी हो या कुछ और, लेकिन अपने अपने आराध्य देवों को यह लठैत या उनके दल कई मौकों पर उन महान नामों के साथ किसी न किसी प्रकार से जोड़ते रहते हैं। ये बताने-जताने या
मनवाने के लिये कि हमारा नेता भी उस पंक्ति में शामिल है। जमीनी सच्चाई सभी को पता
होती है कि इतिहास को बनानेवाले, इतिहास को बदल देने वाले उन महान नामों के साथ
आजकल के मौकापरस्त और सेल्फ-मेड हीरो टाइप नेताओं की तुलना बिल्कुल असंभव है।
प्रमाणित इतिहास
में दर्ज है कि आजादी के बाद जिस प्रकार के दंगे चल रहे थे, जो मार-काट हो रही थी,
उस वक्त दो शख्स ऐसे थे, जो समूचे भारत में बिना किसी सुरक्षा के, बिना किसी भय के
आने-जाने का माद्दा रखते थे। वो महात्मा गांधी और सरदार पटेल ही थे। भारत का कोई
भी कोना हो, किसी भी प्रकार की गंभीर परिस्थितियां हो, गांधी और सरदार में वो दम था
कि वे किसी भी कस्बे में, मुहल्ले में बिना किसी भय के जा सकते थे। उनके इस दम के
पीछे उनकी इमानदारी, उनकी प्रतिभा और उनका व्यक्तित्व शामिल हो सकता है। उन्हें आज-कल के नेताओं की तरह सैकड़ों अन्वेषण अधिकारी, सुरक्षा जवानों की लंबी-चौड़ी पंक्ति,
पुलिस अधिकारियों का जमावड़ा, बुलेट-प्रूफ काफिला, जैमर कारें आदि की ज़रूरत नहीं होती
थी। महात्मा और सरदार तो कभी भी, कही भी बिना किसी पूर्व तैयारी के जाते थे, वापस
भी आ जाते थे।
महात्मा गांधी और
सरदार पटेल, इन दोनों ने कभी कोई चुनाव प्रचार नहीं किया, झूठे वादे नहीं किए, कोरे
सपने नहीं दिखाये, किसी निजी या सरकारी कंपनी के मॉडल नहीं बने, अपने बड़े बड़े इश्तेहार अख़बारों में नहीं छपवाये। इन दोनों ने अपनी रैलियों के लिए पेड़ नहीं कटवाये,
पौधे नहीं उजाड़े और फिर ऐसा करके उसी मंच से पर्यावरण बचाओ पर भाषण करने के कारनामे भी नहीं किए। गांधी और सरदार ने अपने स्वागत के लिए सैकड़ों टन गुलाब अपने पैर के
नीचे कभी नहीं कुचले और ऐसा करने के बाद विदेश में जाकर गिरे हुए फूल को उठाने की
नौटंकियां भी नहीं की। इन दोनों ने “नारों का भारत” नहीं बल्कि “कर्मशील भारत” की रचना करने में अपना योगदान दिया।
गांधी और सरदार,
दोनों से कई लोग नाराज रहते थे, उनसे भी कइयों को शिकायत रहती थी, उनकी आलोचनाएं तब
भी होती थी और आज भी होती हैं। लेकिन इन दोनों ने सच्चे लोकतांत्रिक राष्ट्र का
निर्माण किया। तभी तो इनकी बुराई करना राष्ट्रद्रोह नहीं माना जाता था। गांधी और
सरदार, दोनों ने एकदूसरे की आलोचनाएं भी की। इनकी आलोचनाएं उस वक्त दूसरे भी लोग किया
करते थे। कई किताबों में ऐसे शिकायती पत्र दर्ज हैं। लेकिन कभी किसी शिकायती या आलोचक
के खिलाफ गाली-गलोच ना ही गांधी समर्थक ने की और ना ही सरदार समर्थक ने। ना ही ऐसे
शिकायती या आलोचकों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह वाला हथियार उठाया गया। ये संस्कृति तो
आजकल के ‘हरखपदूड़े’ नेताओं की हैं, जिनकी बुराई देश की बुराई मानी जाती हैं। अब ऐसे सेल्फ-मेड पैनिक
अदाकार नेताओं को महात्मा या सरदार जैसे यूनिक लीडर्स के साथ देखा भी कैसे जाए?
गांधी करीब करीब
अधनंगे रहे और देश के लोगों को कपड़ा पहनाने का सामाजिक कार्य किया। सरदार पटेल ने
कभी अपने मेकअप या कपड़ों के ऊपर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया था। गांधी और सरदार ने
अपने वस्त्र और अन्य श्रृंगार जैसी चीजों पर चलने की कोई चेष्टा की ही नहीं। क्योंकि
इन्हें इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उनका काम ही उनकी पहचान थी, उनके कार्य ही उनके भाषण
थे। फिर इन्हें कपड़ों पर, चेहरे पर लाखों रुपये खर्च करने की ज़रूरत ही क्या थी? मनमोहन हो या मोदी हो, दिन में 10 बार कपड़ें बदलते हैं। अच्छा दिखना आज-कल के
नेताओं की प्राथमिकता है। ऐसे हीरो-टाइप नेता की तुलना महात्मा गांधी या सरदार पटेल
से दूर दूर तक हो ही नहीं सकती, क्योंकि आज-कल के नेता अच्छे दिखना चाहते हैं, गांधी
और सरदार अच्छा काम करते रहने में यकीन करते थे।
महात्मा और सरदार
खुद को भारत देश का रक्षक, संस्कृति का रक्षक कह कर स्वयं को हीरो बनाने के
प्रयास नहीं किया करते थे। और ना ही उनके समर्थकों को इस प्रकार की संस्कृति की भेंट
की। वे दोनों तो बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के भारत के हर गांवों में-गलियों में घूमा
करते थे। उन्हें किसी बंदूक की ज़रूरत नहीं होती थी। उनके आने से पहले कोई वहां का
एरिया सर्च नहीं किया करता था। उनके लिए ट्रैफिक नहीं रोका जाता था। उनकी यात्रा की
वजह से कोई फंस गया हो, कोई मारा गया हो ऐसे वाक़ये भी नहीं होते थे। वे खुद को
गरीब बताकर, अपनी माता या अपने परिवार का राजनीतिक इस्तेमाल करके खुद को पीड़ित
बताने की हल्की चेष्टा नहीं करते थे। गांधी और सरदार ने कभी भी अपनी पारिवारिक
पृष्ठभूमि या अपनी निजी जिंदगी की दिक्कतों का देश में प्रदर्शन नहीं किया था।
महात्मा और सरदार, दोनों को भारतीय लोगों की भावना जीतने के लिए हल्की और निम्न-स्तर
की राजनीति करने की ज़रूरत कभी नहीं रही। बल्कि उन्होंने राजनीति के उच्च मानदंड
स्थापित किए थे।
महात्मा और सरदार,
इन दोनों ने जो सबसे बड़ा काम किया वो यह था कि इन दोनों महानुभावों ने समस्या के
समाधान को धार्मिक कुएं की कैद से दूर ही रखा। पहली बात तो यह कि गांधी और सरदार
के मकसद उनके अपने नहीं थे। उन्हें ना ही नेता बनना था, ना ही किसी विशेष को आर्थिक
लाभ पहुंचाना था। मैं नहीं मानता कि सरदार या गांधी कभी भारत से यह कह देते कि
प्रचार में तो कूछ बातें यूं ही कह दी जाती हैं। गांधी या सरदार कभी यह नहीं कहते कि
ये तो चुनावी जुमला था। उनका मकसद तो देश के तमाम लोगों के मन से निकला हुआ
प्रतिघात था। सोये हुए हिंदुस्तान को जगाने के लिए गांधी-सरदार ने कभी यह नहीं कहा
कि पहले भारत में पैदा होने में भी शर्म आती थी। आवाम को जगाने के लिए इन्होंने कोई
अनैतिक रास्ता नहीं चुना, झूठ नहीं बोले, झांसे नहीं दिये, या किसी की बुराई नहीं की।
तभी तो वो महात्मा और सरदार बने, तभी तो वे यूनिक हैं, पैनिक नहीं।
भले ही गांधी और
सरदार को लेकर अनर्गल प्रलाप होते रहते हो, भले ही होम मेड इतिहास की आधी
सच्ची-आधी झूठी कहानियां वाट्सएप विश्वविद्यालय में घूमती रहती हो। किंतु महात्मा
और सरदार, इन्होंने खुद को आगे रखने के लिए दूसरों को पीछे धकेलने के प्रयास कभी नहीं किए। इन दोनों ने भारत के लिए अपनी जिंदगी दी और इस दौरान कभी यह नहीं कहा कि हमारे
पहले भारत में जो लोग आये इन्होंने भारत को बर्बाद किया है। इन्होंने अपनी लाइन बड़ी दिखाने के लिए दूसरों की लाइन छोटी करने की गटर-छाप राजनीति कभी नहीं की थी।
लोग उनसे स्वयं ही
जुड़ते चले गए, क्योंकि उनके पास सार्वजनिक हित और ठोस नीतियों का मकसद था। उन्हें झूठे वादे नहीं करने पड़े, झांसे नहीं देने पड़े। महात्मा और सरदार, दोनों में से किसी
नेता ने कभी यह नहीं कहा कि भारत गुलाम हुआ उसके पीछे पिछले 70-100 सालों का इतिहास जिम्मेदार
हैं। उन्होंने कभी भारत के भूतकाल को दोष देकर वर्तमान को व्याख्या देने की कोशिशें नहीं की। हां, यह ज़रूर है कि महात्मा और सरदार, इन दोनों ने सदैव आवाम को अपनी
जिम्मेदारियां-जवाबदेही-फर्ज़ आदि के प्रति सचेत और सजग ज़रूर किया। लेकिन जब समस्या
आन पड़ी थी, उसका समाधान ढूंढना था, तब इन्होंने पिछले 70-100 सालों का रोना नहीं रोया। इन दोनों ने कभी समस्या के लिए दूसरों पर दोष मड़ने की हल्की कार्यशैली नहीं अपनाई। इन्हें कभी यह ज़रूरत ही नहीं थी कि वे दूसरों की बुराई करने में ही सालों गुजार
दे। इन्होंने समस्या का हल ढूंढा, समस्या का समाधान पेश किया। लोग उनसे स्वयं जुड़ते
गए।
महात्मा और सरदार
को भी छोड़ दीजिए, अब्दुल कलाम बचपन में अख़बार बेचा करते थे। उस गरीबी और मजबूरी से
आगे बढ़कर वो भारत के मिसाइल मैन बने। आजाद हिंदुस्तान के इकलौते राष्ट्रपति बने,
जिन्हें जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है। लेकिन कलाम ने बचपन में अख़बार
बेचने वाले समय को याद करके लोगों की झूठी सहानुभूति प्राप्त करने का अनैतिक काम
नहीं किया और ना ही खुद को पीड़ित बताकर लोगो की भावनाएँ जीतने का पाप किया। महात्मा
हो, सरदार हो, लाल बहादुर शास्त्री हो या अब्दुल कलाम हो... इन सभी ने कभी अपनी गरीबी-मजबूरियों
का रोना रोकर पीड़ित बनने का अभिनय नहीं किया।
होम-मेड हिस्ट्री को गटर में डाल दे और जो प्रमाणित इतिहास है उस सड़क पर चले तो, गांधी और सरदार के
बारे में हिंदुस्तान सब कुछ जानता था। ऐसा नहीं है कि इन दोनों ने बरसों तक भारत के लिए
काम किया और उसके बाद भारत को पता चला कि दोनों शादीशुदा हैं। गांधी और सरदार ने कभी
कोई झूठी जानकारी नहीं दी, अपनी शादी को नहीं छुपाया। तभी तो इनकी जन्म तिथि, इनकी
शैक्षिक योग्यता, इन सबके बारे में एक ही प्रकार की जानकारी सार्वजनिक है, अलग-अलग
नहीं। उनकी जन्म-तिथियां, शैक्षिक योग्यता, शादी, निजी जिंदगी आदि के बारे में जो
प्रमाणित इतिहास है वो एक ही प्रकार की कहानियां कहता हैं, अलग-थलग नहीं।
घर बैठकर इतिहास
को आलू-मटर की तरह छिलनेवालों की दुनिया जो भी हो, लेकिन गांधी और सरदार के ऊपर कभी
किसी महिला ने आरोप नहीं लगाया और ना ही उस महिला का परिवार गायब हुआ, जैसा आज-कल
होता है। उनका नाम किसी की फर्ज़ी मुठभेड़ में नहीं आया, उनके बेटे या बेटियों का नाम
किसी स्कैम में, आय से अधिक संपत्ति के मामलों में कभी नहीं आया। ये महान काम तो आज-कल
के सेल्फ-मेड हीरो के जिम्में है।
होम-मेड
इतिहासकारों का दायरा एक गंदे कुएं जितना है, उधर महात्मा गांधी और सरदार पटेल
विशाल और उफनते हुए समंदर के भांति हैं। कुएं में कैद मेंढ़कों को ज्ञात नहीं हो सकता
कि कुएं के बाहर एक समंदर भी है। देखिए न, ना खुद गांधीजी ने, ना सरदार पटेलजी ने,
ना किसी इतिहासकार ने, ना किसी शोधकर्ता ने कभी भी यह दावा किया कि भारत को आजादी
गांधीजी ने या चरखे ने दिलाई थी। ये दावा किसी भी प्रमाणित इतिहास में दर्ज ही नहीं है। लेकिन एक राई को इतना बड़ा पहाड़ बना दिया गया है कि कुएं में कैद मेंढ़क
आजादी-महात्मा गांधी-चरखा-भगतसिंह-सरदार पटेल आदि में जिंदगियां गुजारते रहते हैं। अरे
भाई... आप मेंढ़क लोग जिस मुद्दे पर फेफड़े फाड़ रहे हो वो आप ही के पूर्वज मेंढकों ने
मनघडंत तरीके से उछाला था। जिसका कोई बेसिक ही नहीं है, यही इन मेंढकों के लिए सब कुछ
है। होम-मेड इतिहासकार अपना तो सब कुछ बर्बाद करता ही है, कुआं जिस तालाब में है वहां भी
गंदगी फैला देता हैं।
ये गांधी-सरदार या
भगत सिंह की संस्कृति नहीं थी कि वे देश को गलत गलियों में घूमाते। इन सभी ने एकदूसरे
को कुछ नहीं कहा, लेकिन इन पर कुछ लोग इतना कह जाते हैं कि हंसी आती है।
गांधी-सरदार-भगतसिंह... यही भारत है। लेकिन कुछ मौकापरस्त लोगों ने या संगठनों ने
पहले तो भारत को हिंदू-मुसलमान में बांट दिया, फिर गांधी और भगतसिंह में बांटा, फिर
भगतसिंह का हिंदुत्व और सावरकर के हिंदुत्व में बांटने लगे। गांधी-सरदार-भगतसिंह का
भारत... भले ही थोड़े-बहुत अंतर थे इन तीनों के विचारों में या कार्यशैली में, लेकिन
तीनों का भारत ऐसा तो नहीं बताया जाता जैसा आज है। भगतसिंह पर फेफड़े फाड़नेवालों को भगतसिंह द्वारा लिखित पुस्तक मैं नास्तिक क्यों हूं भी पढ़ना चाहिए और साथ में उनके द्वारा लिखे गए वो लेख भी पढ़ने चाहिए जिसमें वे सुभाष बाबू के बारे में भी अपनी राय रखते थे।
खैर, किंतु जो
राजनीति आपको गांधी या भगतसिंह में से किसी एक को चुनना सिखाती हो... आखिरकार वो
आपको गोडसे बनाकर ही छोड़ती है। सीधा सा सच यह है कि भारत का कोई भी पीएम विदेश में जाकर यह नहीं बोल सकता कि भारत गोडसे का देश है, उसे कहना ही होगा कि भारत गांधी का
देश है। सोचिए, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत और इस देश को दुनिया के मंच पर
गांधी का देश कहकर जाना-समझा जाता है। आजादी के बाद नेहरू से लेकर मोदी तक, जितने
भी नेता हुए इस देश में, इतिहास भारत को नेहरू का-इंदिरा का या मोदी का भारत कहकर
नहीं समझेगा। वो तो गांधी के भारत के रूप में ही विश्लेषित किया जाएगा। तभी तो नेहरू
से लेकर मोदी तक को मन या बेमन से इनके आगे नत-मस्तक होना पड़ता हैं, इनकी याद में कार्यक्रम करने पड़ते हैं, रैलियां निकालनी पड़ती हैं।
दरअसल महात्मां
गांधी से पहले और उनके बाद एक भी ऐसा इंसान नहीं मिलता जिसे दुनिया समूची मानवता
का प्रतिनिधि मानती हो। तभी तो दुनिया के अनेक देशों में गांधी की स्मृतियां विध्यमान हैं। गांधी दुनिया के लिए जीवन-दर्शन सरीखे है, तभी तो उनका नाम व उनका
चिंतन भारत की सीमाओं को लांघता हुआ दिखाई देता हैं। वही तो है जिनका जीवन ही
संदेश है... वर्ना बताइए, (भगतसिंह के अलावा) दूसरा कौन है जिसकी जिंदगी संसार के
लिए संदेश हो। दुनियाभर के लोगों को प्रेरणा, चिंतन, संशोधन, नैतिक ताकत, सत्य के
लिए जिद, आदर्शवाद, आश्चर्य का यादगार ग्रंथ समेत जितने भी दृष्टिकोण से आगे बढ़ना
हो, भारत में महात्मा गांधी ही उनके लिए वो नाम है। दुनिया किसी नेहरू-इंदिरा-मनमोहन-राहुल या नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को लेकर प्रेरणा या चिंतन में उलझती हुई नहीं दिखाई देगी।
वो गांधी थे,
जिनके नाम पर उस जमाने में सिगार निकली तो उन्होंने सिगार का बहिष्कार करने की
सार्वजनिक अपील कर डाली थी, तभी तो वो महात्मा थे... एक आज के नेता है, जिनकी
तस्वीरें कंपनियां इस्तेमाल करती हैं और बदले में करोड़ों-अरबों के साम्राज्य वाली कंपनी
को पांच सौ रुपये का जुर्माना लगा दिया जाता है!!!
असहयोग आंदोलन के दौरान
जब गांधीजी की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई,
तो किसी कंपनी ने महात्मा गांधी छाप सिगरेट ही निकाल दी। यह
खबर जब गांधीजी तक पहुंची, तो उन्होंने बहुत ही कठोर भाषा में 12 जनवरी, 1921 को यंग इंडिया में इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा
कि, “मेरे नाम का जितना
भी दुरुपयोग किया गया है, उनमें से कोई भी मेरे लिए उतना अपमानजनक नहीं है जितना की जानबूझकर एक कंपनी का
अपनी सिगरेटों के साथ मेरा नाम जोड़ दिया जाना। एक मित्र ने मेरे पास एक लेबल भेजा
है, जिस पर मेरी तस्वीर छपी हुई है और सिगरेट का नाम ‘महात्मा गांधी सिगरेट’ रखा गया है। मैंने
किसी को अपने नाम को सिगरेट के साथ जोड़ने की अनुमति नहीं दी है। अगर यह अज्ञात सिगरेट
कंपनी बाजार में पहुंची सिगरेट पर से यह लेबल हटा ले या अगर जनता ऐसी लेबलवाली सिगरेटें
न खरीदे तो मैं आभार मानूंगा।”
गांधीजी जब जिंदा
थे तभी से उनके नाम की ब्रांड के सहारे अन्य निजी या व्यापारिक व राजनीतिक हेतु को
लेकर चलने वाले लोग या समुदाय भी हुआ करते थे। जिन जिन वाक़यों या घटनाओं का गांधीजी
को पता लगा, उन्होंने उस दौर में ही उन सभी की परतों को उधेड़ना शुरू कर दिया था। आज
भी यही चीज़ हो रही है, लेकिन गांधीजी जैसी 56 इंच की छाती किसी में नहीं है। निजी
कंपनियां पीएम तक के फोटो इस्तेमाल कर लेती हैं, बदले में महीनों तक लीपापौती होती
हैं। जिसकी फोटो इस्तेमाल हुई वो तो खुद कुछ नहीं बोलता, बस एकाध मंत्रालय महीनों बाद
हरक्त में आकर करोड़ों-अरबों का व्यापार करनेवाली कंपनी पर पांच सौ रुपये का हास्यास्पद
जुर्माना लगा देता है!!! वो जमाना था जब
गांधीजी के नाम का बतौर ब्रांड इस्तेमाल होता तो गांधीजी सार्वजनिक अपील कर देते
थे... क्या आज कोई नेता यह कह सकता है कि उस निजी कंपनी ने मेरी तस्वीर बिना इजाज़त
इस्तेमाल की है तो उसके उत्पाद का लोग बहिष्कार कर दे। वैसे आज नेता खुद ही खुद को ब्रांड बनाकर पेश करते हैं, ऐसे में वो 56 वाली छाती थोड़ी दिखाएंगे।
तमाम सरकारों को यह
मालूम है कि गांधीजी की प्रासंगिकता कम हो चुकी है, लेकिन उनसे पीछा छुड़ाना
मुश्किल है। आज कम से कम किसी को गांधीजी तो नहीं चाहिए, लेकिन उनका नाम या उनका
ज़िक्र अवश्य करना पड़ता है। बेमन से करे या स्वार्थ से करे, लेकिन करना पड़ता है। आपको
आपकी सरकार चाहे किसी भी कुएं में मेंढक बनाकर रखे... हमारी तमाम सरकारों को यह मालूम
है कि गांधीजी इस देश का सबसे बड़ा प्रतीक हैं। उन्हें इस देश में अपमानित किया जाता
है, नापसंद भी किया जाता है, लेकिन वैश्विक सत्यता यह भी है कि गांधीजी के बिना इस
देश में वो नाम नहीं है जिनके सहारे निवेश लाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय मंच पर जाकर
इस देश का कोई भी नेता किसी और के नाम के सहारे वो जादू नहीं बिखेर सकता, जो गांधीजी
के नाम से बिखेरा जा सकता है। क्योंकि दुनिया के तमाम देशों में, उनके लेखों में,
पुस्तकों में भारत के गांधी का जितना ज़िक्र मिलता है, उतना और किसी शख्सियत का नहीं मिलता। आप कह सकते हैं कि कई देशों ने, उनके कई लेखकों ने अपने लेखों में या पुस्तकों में गांधी का ज़िक्र अवश्य किया हुआ है। दुनिया में कई सड़कें, कई चौराहें, गलियां या जगहें ऐसी हैं जिन्हें गांधीजी का नाम मिला हुआ है। विदेश से कोई बड़ा मेहमान भारत आता है तब उसे किसी गोडसे के घर नहीं ले जाया जाता, उन मेहमानों को साबरमती आश्रम ही ले जाया जाता हैं।
आज की सरकारें मेक
इन इंडिया और मेड इन इंडिया के नारों में देश को उलझाए रखती हैं। उधर देश के ही
मीडियम और स्मोल स्केल इंडस्ट्रीज वाले छोटे छोटे निवेशक बड़ी बड़ी स्वदेशी और विदेशी
कंपनियों के सामने टूटते नजर आते हैं। नारों का देश नारों में ही जिंदगी जीता है,
क्योंकि आजकल के नेता यही प्रवृत्ति करते हैं। वो महात्मा थे, जिन्होंने आज से 100
साल पहले दुनिया के सबसे बड़े अर्थतंत्र को भारत के भूले-बिसरे चरखे नाम के यंत्र
से नाकों चने चबवा दिए थे। विदेशी मिल, विदेशी निवेश या विदेशी निर्भरता के विरुद्ध
चरखा भारतीय प्रयासों का सबसे बड़ा प्रतीक था। बिना इंटरनेट, बिना अख़बारी इश्तेहार
और बिना किसी तामझाम और सरकारी कार्यक्रमों के, महात्मा ने एक यंत्र को क्रांति का
प्रतीक बना दिया।
चरखा किस कदर
ब्रिटिश ताकत के विरुद्ध एक हथियार बन चुका था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा
सकता है कि ब्रिटिश हुक़ूमत ने कई बार चरखों को जब्त भी किया और तोड़ा भी। चरखा
ब्रिटिशरों के लिए खतरे की पहचान सा बन गया था, जिन्हें जब्त किया जाता और फिर नाश
किया जाता। गांधीजी ने खादी के केवल सूत ही नहीं काते थे, उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक रूई भी उधेड़ी थी। यही आत्मनिर्भरता और सर्वसुलभ रोजगार खाली समय में अतिरिक्त आय के
रूप में एक आर्थिक ताकत भी मुहैया कराता था। एक वैकल्पिक रोजगार के रूप में इसमें वह
क्षमता थी की अकाल और भयंकर गरीबी के समय किसी को भी तात्कालिक राहत मुहैया करा सकें।
एक उद्योग के रूप में इसमें वह आर्थिक ताकत भी थी जिससे केवल व्यापारिक हितों के लिए
शासन करनेवाली विदेशी सरकार की बुनियाद हिल जाए। और इस तरह चरखा अहिंसक और सूक्ष्म
राजनीतिक साधन भी था।
इसमें कोई संदेह नहीं
है कि स्वदेशी और खादी ने किसी समय इंग्लैंड में बैठे सूती मिल-मालिकों के कान खड़े
कर दिए थे और गोरे व्यापारियों की नींद में भी खलल पड़ा था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान
जब केवल 9 महीनों में ही 1 करोड़ 60 लाख गज खादी कपड़ा तैयार कर लिया गया तो एक ग्रामीण
उद्योग के रूप में इसकी ताकत का अंदाजा भी हो गया था। यही कारण था कि खादी की जब्ती
से लेकर उसके भंडारों को जलाने तक की कोशिश बरतानवी हुक़ूमत ने की थी।
आज के युग में गांधी से लेकर भगतसिंह को कोसने वाले संकुचित विचारधारा लेकर चलते होंगे। क्योंकि गांधी
हो या भगतसिंह हो, ये लोग आज से दशकों पहले भारत की गरीबी और रोजगारी पर सोचते ही
नहीं थे, बल्कि जी-जान लगाकर प्रयत्न भी करते थे। जबकि आज के नेता गरीबी या रोजगारी
पर नारे देते हैं, जी-जान से प्रयत्न तो सरकारें बनाने या बचाने में ही होता है!
इस देश ने सरदार
वल्लभभाई पटेल के बारे में जितना पढ़ा है, सुना है... इससे एक यकीन ज़रूर होता है कि
वे अगर आज जिंदा होते तो नरेन्द्र मोदी या राहुल गांधी जैसे तकवादी नेताओं के पीछे
भी लठ लेकर दौड़ रहे होते। यहां किसी नेता पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने का आशय नहीं है,
बल्कि आशय यह है कि सरदार जैसा शख्स मोदी या राहुल जैसे बड़े नामों के भी कान खींच लेने
का माद्दा रखता था। सरदार पटेल के बारे में इस देश में जितना लिखा-पढ़ा या सुना गया,
एक यकीन ज़रूर होता है कि वो लौह पुरुष आज मौजूद होता, तो कांग्रेस या भाजपा के कई ‘खोखले बर्तनों’ को वो पहले ही खाली कर चुका होता।
सरदार पटेल किसी
दल, किसी राजनीति या किसी खास व्यक्ति के मोहताज नहीं थे। कांग्रेस से जुड़े रहे
सरदार पटेल कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल से भी ऊपर थे, उस दल से सरदार पटेल कोसों ऊपर थे। वे कांग्रेस के सरदार नहीं रहे, बल्कि देश के सरदार बने हुए है। गांधी के
जमाने का लौह पुरुष महात्मा गांधी के नाम का भी मोहताज नहीं रहा, बल्कि उन्होंने
अपनी एक ऐसी विराट छवि बनाई, जिसका अपना एक अलग आभामंडल था, अपनी एक अलग पहचान
रही। राजनीति से देश को बहुत कुछ देनेवाले सरदार सिर्फ राजनीतिक शख्सियत नहीं थे,
वे उससे भी आगे थे।
पूर्व
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एक दफा इंधन के बढ़ते दामों पर कहा था कि – पैसे पेड़ पर नहीं उगते। उन्होंने एक दफा इसी मुद्दे पर कह दिया था कि – मेरे पास जादू की छड़ी नहीं है। गर सरदार होते तो छड़ी ज़रूर बाहर आती, और फिर पेड़ के नीचे तंत्र और
अर्थतंत्र का फर्क भी समझा देते। वैसे भाजपाई समर्थकों ने जादू की छड़ी वाले बयान का
विरोध किया था। आरएसएस से जुड़े मेरे एक मित्र है, वो आज भी उस बयान का ज़िक्र करते
हैं। लेकिन 2014 के बाद भाजपा के दो दिग्गज मंत्रियों ने इसी जादू की छड़ी वाला
हथियार इस्तेमाल किया था। वैसे मेरे वो मित्र, जो संघ से हैं, वो ऐसे हर मामलों में यही कहते हैं कि मुझे ज्ञात नहीं हैं, ऐसा अगर हमारे नेताओं ने कहा था तो वो गलत था।
लेकिन वो ऐसा मुझे ही कहते हैं, ट्विटर या फेसबुक को नहीं। सरदार की जादूई छड़ी ऐसे
समर्थकों के लिए भी काम आ सकती थी।
मंदी नहीं है यह
साबित करने के लिए मोदी सत्ता के मंत्री जिस तरह के अनर्गल प्रलाप करते हैं, क्या
सरदार चुप रहते? निर्भया मामले पर पूर्व पीएम
(मनमोहन सिंह) ने देश को कहा था – समाज को बदलने की ज़रूरत है। सरदार होते तो वे
कहते – पीएम को पादरी नहीं होना चाहिए, बल्कि जिसकी ज़रूरत है उस दिशा में काम करना
चाहिए। वैसे आज के पीएम भी हर रविवार पादरी के कैरेक्टर में दिखाई देते हैं। सरदार
पटेल इस सरदार को क्या कहते मुझे नहीं पता।
अपनी ही पार्टी की
अध्यक्षा के मुंह से किसी राज्य के सीएम के लिए मौत का सौदागर लफ्ज़ सुनने के बाद
वाजपेयी से पहले राजधर्म निभाने की सलाह सरदार पटेल सोनिया गांधी को ही दे देते।
लेकिन फिर लगता है कि नेताओं के बिगड़े बोल की पूरी सूचि है यहां पर। पैसे पेड़ पर
नहीं उगते, मेरे पास जादू की छड़ी नहीं है, मौत का सौदागर... और उसके बाद... सोनिया
गांधी कायर महिला है (सुब्बु स्वामी), पहले भारत में पैदा होने में शर्म आती थी
(नरेन्द्र मोदी), मोदी कायर और मनोरोगी है (केजरीवाल), मैं कन्फ्यूज हो गया था
(राहुल गांधी)। कितने बच्चे पैदा करने चाहिए और सारे भारतवासी किसकी संताने हैं...
नेताओं के बिगड़े बोल के ऊपर हमने एक अलग संस्करण लिखा हुआ है। सरदार पटेल होते तो
सामूहिक रूप से इन बयान-बहादुरों को झाड़ते ज़रूर। क्योंकि सरदार चुप रहनेवाली
शख्यिसयत नहीं थी।
सीबीआई सरकारी
तोता है (कांग्रेस काल) से लेकर सीबीआई, न्यायपालिका, आरबीआई, ईडी तक में आज के दौर
में (भाजपा काल) जो स्थिति विद्यमान है, सरदार चुपचाप अपना काम करते रहते ये तो
मुमकिन नहीं लगता। 'स्वायत्त संस्थाओं के समर्थक' सरदार पटेल वित्तमंत्री अरुण जेटली
का क्या हाल करते जब आरबीआई ने सरकारी नियंत्रण की शिकायत की और बदले में वित्तमंत्री ने कहा कि आरबीआई ने कांग्रेस काल में जमकर लौन बांटे। सरदार कान पकड़कर पूछते कि
फेसबुक और वाट्सएप इस्तेमाल करते करते आप वाट्सएपिया हो गए है क्या, जो संस्थाओं को
भी कांग्रेस-कांग्रेस और बीजेपी-बीजेपी कहकर जवाबदेही से बच निकलना चाहते हैं।
भारत-पाकिस्तान की
शांति के लिए यज्ञ करना चाहिए, दुश्मन का नाश करने के लिए मंत्र जाप करना चाहिए...
लोग ये कहते तब भी सरदार चुप नहीं रहते, जबकि ये विचित्र तर्क तो खुद को सांस्कृतिक, सामाजिक या राष्ट्रवादी बतला रहे संगठनों से आये थे।
सैन्य बल का सफल इस्तेमाल करने वाले सरदार ऐसे लोगों की समझ को ठीक करने का प्रयत्न
ज़रूर करते।
चुनाव प्रचार,
गालियों वाली राजनीति, नफ़रत की राजनीति, ज़रूरत से ज्यादा राष्ट्रवाद, किसानों की
खुदकुशी, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, लंपटता से सराबौर कमतर राजनेताओं का यह नया
दौर... लगता नहीं कि देश का नकशा बना लेने के बाद सरदार पटेल कोने में बैठकर ये सब
चुपचाप देखते रहते। वो गांधी यूग के नेता थे, लेकिन गांधी नहीं थे। वो किसी जगह कुछ
लिखकर संतोष प्राप्ति करने वाली शख्सियत नहीं थे।
अपनी मूर्ति का इस
कदर अनावरण भी सरदार को यकीनन नागंवार गुजरता। सरदार पटेल को जिस रूप में समूचा
हिंदुस्तान जानता है, सौ फिसदी से ज्यादा भरोसा है कि वे इसका कड़ा विरोध कर देते।
सरदार पटेल गांधी तो थे नहीं कि वे किसी लेख में आपत्ति जताते, बल्कि वे नरेन्द्र
मोदी और राहुल गांधी, दोनों के पीछे लठ लेकर दौड़ रहे होते। सरदार पटेल का जो विशाल
आभामंडल है उसमें देश का नकशा, देश की एकता, सैन्य के प्रति उनका भाव... आदि चीजें ज्यादा प्रसिद्ध हैं। अगर उन्हें पता चलता कि उनके सैनिकों को उनके देश की कांग्रेस व
भाजपा सरकारें सालों से ओरोप पर बाबा का ठूल्लू पकड़ा रही हैं तो क्या वे चुप बैठते? उन्हें पता चलता कि महज 6000 करोड़ के बजट को विशाल राशि बताकर कांग्रेस और
भाजपा, दोनों उनके देश के सैनिकों को ठग रहे हैं, तो क्या वे शांत बैठे रहते? नोट करे कि ओरोप को कांग्रेस ने लटका कर रखा, जबकि भाजपा ने लागू करने के बाद
भी लटका दिया है, क्योंकि ओरोप लागू नहीं करने के इल्ज़ाम स्वयं सैनिक ही भाजपा पर
लगा रहे हैं। ऐसे में क्या सरदार अपने कमरे में ही बैठे हुए पाए जाते? सरदार पटेल का गुस्सा सातवें आंसमान पर तब पहुंच जाता जब उन्हें पता चलता कि जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी किया करते हैं उस राज्य में 3500 करोड़ की मूर्ति बन
रही है तथा उनके ही गृहराज्य में, जहां प्राथमिक शिक्षा से लेकर हर प्राथमिक
सुविधाओ में कैग ने पर्ते उधेड़ दी हैं, वहां उनकी 3000 करोड़ की मूर्ति बनी है, तो
क्या वे मोदी या राहुल गांधी को हार पहनाते? वो ये ज़रूर सोचते कि दो मूर्तियों के पीछे ये देश 7000 करोड़ बहा रहा है, वहीं
सैनिकों को बाबा का ठूल्लू दे रहा है, तो क्या ऐसे में सरदार घर से लठ उठाकर सत्ता
के गलियारों में चल रहे इस व्यर्थ व्यय को रोकने के लिए उठ खड़े नहीं होते?
उन्हें जब पता चलता
कि उनकी मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम के चलते अहमदाबाद, गांधीनगर समेत कई इलाकों में
स्कूल-कॉलेज में बच्चों को छूट्टिय़ां दी गई है, उधर आदिवासी समुदाय जो गंवाया उसके
लिए इस दिन बंद पर है, तो कमसे कम सरदार पटेल के बारे में जितना सुना-पढ़ा है, लगता
नहीं कि वे घर पर योग कर रहे होते। बल्कि वे इस भोग को लेकर अपने देश के इन वोटबाज
नेताओं का क्लास ले रहे होते। क्लास से ये नेता समझने वाले नहीं, तब तो नेता आगे दौड़ रहे होते और सरदार पीछे लठ लेकर दौड़ रहे होते।
ठीक है कि हमें हमारे इतिहास से नजदीक रहना चाहिए, हमारे पूर्वजों और हमें बनानेवाले लोगों के पास
होना चाहिए, उनके स्मृति-स्थल होने चाहिए। लेकिन सरदार होते तो कहते कि ये सब तब
होना चाहिए जब देश के भूखे-नंगे लोगों के लिए, खुदकुशी कर रहे किसानों को देने के
लिए राजनीति के पास कुछ बचा हो।
सरदार पटेल के
जीवनकाल के कई प्रसिद्ध प्रसंग हैं। इनसे सरदार का जो विराट चरित्र उभरता है इससे
तो यही महसूस होता है कि सरदार भले गांधी से प्रभावित थे, लेकिन वे गांधी नहीं थे।
मतलब यह कि वे गांधीजी की तरह किसी लेख में विरोध नहीं करते, बल्कि ऐसे तकवादी नेताओं को वे अपनी भाषा में समझाते। वो भाषा जो उन्होंने उन राजाओं व रजवाड़ों के साथ इस्तेमाल
की थी, जो विभाजन के समय जिद पर अड़े हुए थे।
हिंदूवाद को लेकर
सरदार पटेल का स्पष्ट मंतव्य आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था, "जो लोग हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हैं वे मानसिक रूप से दिवालिये होते हैं।" उन्होंने इस थ्यौरि को 'पागलपन' भी कहा था। क्या किसी भी व्यक्ति में हिम्मत है कि वे
सरदार पटेल के इस कथन के सामने किसी प्रकार का तर्क कर सकें?
अपने कर्तव्य
निर्वाहन को लेकर भी सरदार सदैव सचेत रहे। राष्ट्र की घूरी बनने से पहले वे
अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन को संभाल चुके थे। एएमसी (अहमदाबाद म्युनि
कॉर्पोरेशन) में उनके यादगार कार्यों को लेकर कई पुस्तकों में लिखा गया हैं, कई लेखों में इसे संजोया गया हैं। सभी जगह ज़िक्र मिलता है कि अपने कर्तव्य निर्वाहन के दौरान
सरदार ने शहर या लोगों की सुविधाओं पर काम किया तथा प्राथमिक विकास कार्यों को तवज्जो
दी। इसके लिए उन्होंने शहर में कई या यूं कहे कि अनेक आस्था स्थलों को हटाने से
कभी परहेज नहीं किया था। किसी भी धर्म का या किसी की भी आस्था का कोई प्रतीक होता,
जो बीच में आ रहा होता, उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया था कि उसे हटा दो। कहते हैं कि तब
भी धार्मिक जगहों को तोड़कर हटाने के लिए सरदार का लोग विरोध किया करते थे। लेकिन
सरदार ने इन विरोधों को तवज्जो ही नहीं दी और मंदिर हो या मस्जिद हो, दूसरे धर्मों के
आस्था प्रतीक हो, सभी को उस समय के बुलडोजर से लेकर फावड़ों तक का इस्तेमाल करके
उन्होंने हटा दिया था। क्या आज की राजनीति ये कर रही हैं? सरदार के गुणगान करके कांग्रेस और भाजपा, दोनों वोट की राजनीति में जुटे हैं,
लेकिन क्या सरदार की तरह जुटे हैं?
आज नेताओं के बेटे व बेटियां, कौन नहीं जानता कि उनके बारे में क्या क्या छपता है। उद्योग से लेकर
ठेके, आय में छप्पर फाड़ इज़ाफ़ा, क्या कुछ नहीं हुआ नेताओं के संतानों को लेकर। एक वो
सरदार थे जिन्होंने अपने संतानों को कहा था कि मेरा नाम इस्तेमाल नहीं होना चाहिए,
बल्कि उन्होंने बाकायदा सभी को कहा था कि उनका नाम लेकर उनके घर का कोई भी सदस्य आता
हैं, तब भी काम वैसे ही होना चाहिए जैसा आम जनता के साथ होना है। क्या सरदार आज
जिंदा होते तो वे कांग्रेस या भाजपा के इन नेताओं की यह लंपटता नहीं समझ पाते? इससे बड़ा सवाल यह कि वे क्या इस लंपटता को चला लेते? यकीनन नहीं। बल्कि शायद वे ऐसे नेताओं को कहते कि अपना ये तामझाम लेकर देश छोड़ दो या फिर देश में रहना है तो यह सब छोड़ दो।
सरदार पटेल का एक
यादगार कथन हे कि, "यह हर एक नागरिक की ज़िम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे कि उसका
देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। हर एक भारतीय
को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है,
एक सिख या जाट है। उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय
है और उसे इस देश में हर अधिकार है पर कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं।" लेकिन आजकल ज्ञातिवाद
ही जीत की कूंची है। भारतीय नहीं बल्कि दूसरी पहचान लोगों में उफान पर है। कांग्रेस
में भी यह व्याप्त है और भाजपा में भी। लेकिन कहते हैं कि राजनीति बेशर्म शख्सियतों का
व्यवसाय है, और इसीलिए सरदार पटेल के इस कथन के विरुद्ध चलकर दोनों राजनीतिक दल
सरदार पटेल को नमन करने की कोरीयोग्राफी सफलता से निभा लेते हैं।
सरदार पटेल ने कहा
था कि, "बोलने में मर्यादा मत छोड़ना, गालियाँ देना तो कायरों का काम हैं।" कांग्रेस हो या भाजपा हो, दोनों जगह
मर्यादाएँ लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के भांति हैं। गालियां नयी राजनीतिक संस्कृति
हैं। बिना गाली के बड़े से बड़ा नेता खाना हज़म नहीं कर पाता। सरदार पटेल के प्रसिद्ध
कथनों में से एक कथन है कि, "कठिन समय में कायर बहाना ढूंढ़ते हैं, बहादुर व्यक्ति
रास्ता खोजते हैं।" अब आज का हाल देखिए। भाजपा को कुछ बोलो तो वे कांग्रेस का बहाना
लेते हैं। कांग्रेस को कुछ बोलो तो वे भाजपा का। सरदार पटेल ने कहा था कि बहाना
कायर ढूंढते हैं। अगर सरदार पटेल सभी दलों के लिए सचमुच पूजनीय है तो फिर सारे दल के
सारे नेता कायर ही माने जाए।
सरदार पटेल ने कहा
था, "जो तलवार चलाना जानते हुए भी तलवार को म्यान में रखता है, उसी की अहिंसा
सच्ची अहिंसा कही जाएगी। कायरों की अहिंसा का मूल्य ही क्या। और जब तक अहिंसा को
स्वीकार नहीं जाता, तब तक शांति कहाँ।" अब आजकल कौन से राजनीतिक हालात है, समर्थक से लेकर छिटपुट
नेता, बड़ा नेता, दल का मुखिया तक, सारे कौन सी राजनीतिक संस्कृति का अवतरण करवा
रहे हैं कौन नहीं जानता।
सरदार पटेल और
नेहरु के बीच का अंतर जगजाहिर है, उनके मतभेद कई किताबों में लिखे जा चुके हैं।
किताबों में जो है वो पढ़े तो आप समझ सकते हैं कि कैसे वो लोग एकदूसरे के विचारों को
काटने के बाद भी एकदूसरे के स्पेस की रक्षा किया करते थे। नेहरू ने सरदार के लिए
या सरदार ने नेहरू के लिए जो लिखा था (मतभेद व भिन्न विचारों को लेकर), क्या आज
राजनाथ नरेन्द्र मोदी के बारे में या नरेन्द्र मोदी राजनाथ के बारे में लिख सकते हैं? क्या मनमोहन सोनिया के बारे में या सोनिया मनमोहन के बारे में लिख सकती हैं? इसका जवाब है नहीं। और क्यों नहीं, ये सोचे व समझे तब जाकर आपको महान भारत और
आज के कमतर नेताओं के दौर वाले भारत का फर्क समझ में आएगा।
गांधी और सरदार के
बारे में भी बहुत सारी चीजें चली और चलती रहेगी। गांधीजी ने सरदार को प्रधानमंत्री
नहीं बनने दिया। और इस बात को लेकर आजकल घर में बैठे बैठे नया इतिहास लिखनेवाले लोग
गांधी और नेहरू को बहुत कुछ सुना देते हैं। जबकि स्वयं सरदार ने गांधी या नेहरू को
कभी कुछ नहीं सुनाया। सरदार ने कुछ नहीं कहा, लेकिन आजकल के होम-मेड इतिहासकार कहने
में कुछ बाकी नहीं रखते!!! जिस गांधी की वजह
से सरदार स्वातंत्र संग्राम में कूदे, जिस नेहरू के साथ वे रहे, मतभेदों के बाद इन
सबने एक दूसरे का स्पेस नहीं छीना और सम्मान व मर्यादाओं का सदैव पालन किया। ऐसे अनेक प्रसंग है, मौके है, राजनीति में, आर्थिक नीति में, सामाजिक नीतियों में तथा दूसरे कई सारे मसलों पर भी, कई दफा वे सभी एक दूसरे से भिन्न विचार रखते थे,
बावजूद इसके स्तर गिराने की नीतियां नहीं चलती थी उस दौर में। क्योंकि वे सभी एक
दूसरे के पूरक थे, प्रतिस्पर्धी नहीं थे। आजकल समर्थकों की बात तो छोड़ दीजिए, मोदी
या राहुल गांधी जैसे बड़े बड़े नेता तक कितने स्तर तक गिर जाते हैं, कौन नहीं जानता।
सरदार पटेल दो
झंडो की मान्यता के आस-पास नहीं दिखते थे, और आज इसीलिए वे तिरंगा और साथ में दूसरे
झंडो को थामकर चल रहे देशभक्तों को सार्वजनिक नसीहतें ज़रूर देते। कोई हरा झंडा थामता
है, कोई भगवा, तो कोई दूसरा। ये सारे लोग तिरंगे को अपनी जान कहते हैं और अपने अपने
पर्सनल झंडो को अपनी शान। सरदार होते तो कहते कि तिरंगा ही इस देश की आन-बान-शान
और जान है। बाकी के सारे झंडे अपनी अपनी व्यक्तिगत व मर्यादित सी पहचान हैं।
दरअसल, महात्मा
गांधी और सरदार पटेल सिर्फ नेता नहीं थे, वो इससे आगे थे। आजकल बरसाती पानी से साहब
के पैर गिले ना हो जाए इसलिए साहब को
पुलिसवाले गोद में उठाकर चलते है, एक सरदार थे जिन्होंने प्रेसिडेंट होते हुए भी
मुलाकातियों को चपरासी बनकर घुमाया था। ताज़ा सालों में मध्यप्रदेश के तत्कालीन
मुख्यमंत्री को पुलिसवाले गोदी में उठाकर पानी से बचाते हुए निकाल रहे थे, इस
तस्वीर ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। बरसाती पानी से साहब के पैर गिले ना हो जाए इसलिए साहब को दो-चार पुलिसवाले करीब करीब गोदी में उठाकर ले जाते हैं... आईएएस और आईपीएस अधिकारी नेताओं के पैरों में गिरे हुए दिखाई
देते हैं... जज सरीखा आदमी गुनाहगार धार्मिक व्यक्ति के सामने सरेआम सर झुका देता
है... ये उस नये भारत की नयी तस्वीरें हैं, जो बिना एडिट किए भारत दर्शन करवाता हैं।
उधर सरदार पटेल
समेत उस दौर के आइकन सचमुच देश को ऐसे उदाहरण पेश कर जाते थे। तभी तो उन्हें राजपुरूष कहते होंगे, नेता नहीं। सरदार पटेल के जीवन का वो प्रसंग सार्वजनिक है, जब सरदार पटेल भारतीय लेजिस्लेटिव असेंबली के प्रेसिडेंट हुआ करते थे। एक दिन वे असेंबली के कार्यों को खत्म करके घर जाने को ही थे कि एक अंग्रेज दम्पत्ति वहां
पहुंच गया। ये दम्पत्ति विलायत से भारत घूमने आया हुआ था। पटेल की बढ़ी हुई दाढ़ी और
सादे वस्त्र देखकर उस दम्पत्ति ने उनको वहां का चपरासी समझ लिया। उन्होंने पटेल से असेबंली में घूमाने के लिए कहा। पटेल ने उनका आग्रह विनम्रता से स्वीकार किया और
उस दम्पत्ति को पूरे असेंबली भवन में साथ रहकर घुमाया। अंग्रेज दम्पति बहुत खुश हुए
और लौटते समय पटेल को एक रूपया बख्शिश में देना चाहा। परन्तु पटेल ने बड़े
नम्रतापूर्वक मना कर दिया। अंग्रेज दम्पति वहां से चला गया।
दूसरे दिन असेंबली
की बैठक थी। दर्शक गैलेरी में बैठे अंग्रेज दम्पत्ति सभापति के आसन पर बढ़ी हुई
दाढ़ी और सादे वस्त्रों वाले शख्स को सभापति के आसन पर देखकर हैरान रह गया। और मन
ही मन अपनी भूल पर पश्चाताप करने लगा कि वे जिसे यहाँ का चपरासी समझ रहे थे, वह तो लेजिस्लेटिव असेंबली के प्रेसिडेंट निकले। वो सरदार पटेल की सादगी और उसके सामने उनके (दंपत्ति) द्वारा गलती से हो गये आचरण पर शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे। लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की सादगी, सहज स्वभाव और नम्रता के सामने आजकल के हीरो-टाइप नेताओं को रखकर देख लीजिए। आज-कल
के नेता विजन के बजाय टेलीविजन में ज्यादा यकीन करते हैं। आप मजाक में कह सकते हैं कि
सरदार पटेल ने तो सादगी, सहजता और नम्रता के साथ उन मुलाकातियों को असेंबली में घुमाया था, उधर हमारे हीरो-टाइप नेता दूसरों के बजाय भारत के लोगों को ही घूमाते
रहते हैं। “घूमाते रहते हैं” का सही मतलब आप समझ ही लेंगे यह यकीन है।
गांधी हो या सरदार
हो, समर्पण-नियत-सादगी-विनम्रता-ज़िम्मेदारी-जवाबदेही-सत्य जैसे गुर इनके साथ जुड़े हुए हैं। उधर हमारे आज कल के सेल्फ-मेड और हीरो-टाइप नेताओं के साथ
झांसा-झूठ-घोटाले-अनैतिकता-लालच-लोलुपता-चालाकी जैसे गुर खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। गांधी
या सरदार अपनी भाषा में, अपने भाषणों में उच्चतम स्तर तक पहुंचा करते थे। इधर हमारे
आज-कल के नेताओं के भाषण और उनकी भाषा निम्न स्तर से भी नीचे जाकर गटर-छाप हो चुकी
हैं। तभी तो भाषा सुधारने की ज़रूरत किसीको महसूस नहीं होती, फेफड़े तो किसी भाषा को
अनिवार्य करने के लिए ही फाड़े जाते हैं!!!
माता 2 हज़ार के
लिए लाइन में लगी हो और भतीजी 56 हज़ार पर्स में नकद लेकर सड़कों पर घूमती हो, वो भी
कैशलेस पर करोड़ों फूंक देने के बाद!!! ये गांधी या सरदार की संस्कृति नहीं थी। अपनी पहचान बनाने के लिए इन्हें किसी
प्रकार के प्रदर्शन करने की ज़रूरत नहीं थी। इन्हें अपने माता-पिता या परिवार के किसी
व्यक्ति को बार-बार सार्वजनिक करके खुद को पीड़ित बताने की चेष्टा करने की भी ज़रूरत
नहीं थी। गांधी और सरदार अपने परिवार से मिलते तो बिना कैमरे के ही मिलते। उसे
नेशनल न्यूज़ बनाने की ज़रूरत भला गांधी और सरदार को क्यों हो? क्योंकि उन्हें कर्मशील भारत का निर्माण करना था, नारों वाले हिंदुस्तान का
नहीं। गांधी हो या सरदार हो, उन्होंने कभी अपने भाषणों में देश को यह नहीं बताया कि मैं फलांना फलांना जाति से हूं, मैं पिछड़ा हूं। उन्हें अपनी जातियां बार-बार बदलने की
ज़रूरत भी नहीं पड़ी। उन्हें अपनी तकलीफें, दिक्कतें, परेशानियां देश के सामने रखने की
ज़रूरत नहीं थी। क्योंकि उन्हें पीड़ित बनने का अभिनय करना ही नहीं था।
कांग्रेस हो या
बीजेपी हो, मनमोहन हो या मोदी हो, दोनों के पास कथित
भ्रष्टाचारियों-बलात्कारियों-अपराधियों-करोड़पतियों की भरमार हैं। इस कार्यशैली की
तुलना महात्मा या सरदार की कर्मशील संस्कृति से कैसे हो सकती हैं? आलिशान सरकारी बंगले, उन बंगलों पर कब्ज़ा जमाना, आम जनता के पैसों को बर्बाद
करते रहना, एकदूसरे के लिये निम्नस्तर की भाषा बोलना, गाली-गलोच करनेवालों को खुद के
साथ जोड़ना, महिला सम्मान के भाषण देना किंतु महिला से जुड़े अपराध करनेवालों को अपने
साथ रखना, यह सब महात्मा या सरदार की शैली नहीं थी। सत्ता के लिए महात्मा या सरदार
को वो काम करने ही नहीं पड़े, जो नेहरू से मोदी तक के नेताओं ने किये। 100 करोड़ के उड़नखटोले में उड़कर, 5 करोड़ की बीएमडब्ल्यू कार में बैठकर, लाखों रुपये के पंडाल में खड़े होकर खुद को सेवक कहना सेल्फ-मेड हीरो की शैली है, महात्मा या सरदार की नहीं।
प्रचार-प्रसार और
प्रदर्शन यही आज की सरकारों के काम हैं। इसके लिए देश का पैसा पानी की तरह बहाने में कोई नेता पीछे नहीं हटता। उधर गांधी और सरदार थे, जो इस शैली के बिल्कुल खिलाफ थे। सरदार
पटेल ने बाकायदा कह दिया था कि मेरे परिवार का कोई भी सदस्य सरकारी काम के लिए
सरकारी दफतरों में आए तो उनका काम उसी तरीके से किया जाए, जैसे आम लोगों का होता हैं।
आज-कल क्या चलता है मैट्रिक पास आदमी तक को पता है। नेता-पुत्रों के नाम
गैरसंवैधानिक और अनैतिक कामों में खूब उछलते रहते हैं। चाहे वो कांग्रेसी नेताओं के
पुत्र हो, चाहे भाजपाई नेताओं के हो। शाह पुत्र इसकी अग्रीम कड़ी है। महात्मा और
सरदार बनना तो छोड़ दीजिए, अपने बेटे के नाम-काम को लेकर कोई सवाल उठे तो बेटे से जवाब नहीं मांगा जाता, उल्टा सवाल पूछनेवाले मीडिया के खिलाफ ही कार्रवाई कर दी जाती है।
गांधी और सरदार,
दोनों सत्ता के विकेन्द्रीकरण के हिमायती थे। संविधान में इसकी झलक भी देखी जा सकती
हैं। लेकिन आजादी के बाद बनी कांग्रेस की सरकारें हो या वाजपेयी-मोदी की बीजेपी
सरकार हो, सत्ता का केंद्रीकरण ही इन ताज़ा नेताओं की कार्यशैली है। गांधी या सरदार
के पुत्र-पुत्री-भतीजे-भतीजी-फूफा-फूफी-साला-साली आदि स्वजनों को किसी सरकारी पद
पर, निगम में, खेल संस्थानों में सेट किए गए हो ऐसी प्रमाणित घटनाएं दर्ज ही नहीं हैं।
उल्टा सरदार पटेल तो कह चुके थे कि मेरे स्वजनों के सरकारी काम वैसे ही किए जाए
जैसे आम जनता के होने हैं। जबकि आज? आज तो नेताओं के स्वजन किस किस पद को हथिया लेते हैं कौन नहीं जानता? बेटे-बेटियां-पत्नी-भाई-भतीजे-फूफा-चाची निगम में, बीसीसीआई
में, फलांने में ढिमके में। अब ऐसे नेताओं की तुलना गांधी-सरदार से कैसे हो सकती है
भला?
गांधी और सरदार का
नाम जिस राजनीतिक दल कांग्रेस से जुड़ा है, अगर कांग्रेस सही में उन दोनों को पूजती
होती तो कांग्रेसी नेताओं के नाम करोड़ों-अरबों के घोटालों से जुड़े हुए ना होते। अगर
कांग्रेस की सरकारें सही में गांधी या सरदार जैसी होती तो देश दूसरी सरकारें ही क्यों पसंद
करता? इंदिरा द्वारा लागू किया गया आपातकाल ना
गांधीजी को पसंद आता और ना ही सरदार पटेल को। इंदिरा का पुत्र प्रेम (संजय गांधी
संस्करण) गांधी या सरदार की विचारधारा में कही फीट नहीं बैठता। अमित शाह और जय शाह
का कथित घोटाला, आय से अघिक संपत्ति का मामला, भाजपाई नेताओं और अजित डोभाल भारत की
नयी डी कंपनी है वाला संस्करण हो, शाह से जुड़े फर्जी मुठभेड़ के मामले हो, पी चिदंबरम और कार्ति के साथ नीरा राडिया हो... आप 1947 के बाद के कौन कौन से मामले गिनेंगे? कितने घोटाले गिनेंगे? कांग्रेस की
सरकारेें हो या भाजपा की, नेहरू हो, इंदिरा हो, वाजपेयी हो, मनमोहन हो, सोनिया हो या
नरेन्द्र मोदी या अमित शाह हो, रक्षा से लेकर खाद्य, उद्योगपतियों से लेकर
किसान-राशन-बिजली-पानी-सड़क हो, घोटालों का लंबा-चौड़ा महाभारत है। किस मुंह से यह
लोग अपने नेताओं को महात्मा या सरदार के करीब रखते होंगे?
नेहरू या इंदिरा
को कांग्रेस पूजती है और पूजती रहेगी। वाजपेयी या मोदी को भाजपा पूजती है और पूजती
रहेगी। किंतु पहले जो सरकारें थी, आज जो सरकार है और आगे जो भी सरकारें आएगी...
महात्मा गांधी और सरदार पटेल को मजबूरी में ही सही, लेकिन उन सबको इन दोनों
महानुभावों को पूजना ही होगा। महात्मा और सरदार, ये नाम दुनिया के लिए भारत की
पहचान है। जिन्हें भी अपनी पहचान भारत की सीमाओं के बाहर बनानी होगी, उन सभी को इस समंदर
में खुद को मिलाना ही होगा। दरअसल, पप्पू... फेंकू... खुजली... यही आज के राजनेताओं
की कमाई हैं। महात्मा और सरदार तो मोहनदास और वल्लभभाई की कमाई थी।
(इंडिया इनसाइड,
एम वाला)
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