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Fans, Followers, Deewane : दर्शक कहे, प्रशंसक कहे, दीवाने कहे या कुछ और?




दर्शक कहे... प्रशंसक कहे... दीवाने कहे... या कुछ और? वैसे हमारे यहां लोग सेना पर सबसे ज्यादा नाज़ करते हैं, लेकिन जब बात दीवानगी की आये तब बॉलीवुड, क्रिकेट और राजनीति, यह तीनों आगे निकल जाते हैं। आप तय नहीं कर पाते कि यह कौन सा रिश्ता है जो लोगों को इतना निराश या इतना जिंदादिल बना देता है।

वैसे बॉलीवुड के नायक या नायिकाओं को, हमारे क्रिकेट के सितारों को और हमारे राजनेताओं को जिस प्रकार के दर्शक, प्रशंसक या दीवाने मिल जाते हैं, वैसे शायद ही किसी और तबके को मिलते हो। वैसे हमारे यहां लोग सेना पर सबसे ज्यादा नाज़ करते हैं, लेकिन दीवानगी की बात आये तब बॉलीवुड, क्रिकेट और पोलिटिक्स यह तीनों आगे निकल जाते हैं।

आप कुछ साल पहले की ताज़ा खबरें ही पढ़ लीजिए। रजनीकांत की कबाली फिल्म के लिए एक महाशय ने 14,000 रुपये में टिकट खरीदा! चेन्नई के अल्बर्ट सिनेमा के बाहर इतनी लंबी लाइन हो गई कि सिनेमा होल में घुसने के लिए आपाधापी मच गई। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। 17 लोग घायल हुए। ये मत समझिएगा कि अंदर रजनीकांत होंगे! उनकी फिल्म चलने वाली थी! रजनीकांत तो उस वक्त अमेरिका में थे। जिन्हें टिकट नहीं मिल पाया उन्होंने पोस्टर फाड़ दिए और जिन्हें टिकट मिला वे जश्न मनाने से नहीं चुके। किसीने अपना मकान बेचकर चेन्नई में कबाली के पोस्टर लगाने का महान कार्य कर लिया! पता चला कि वो किसी गैस एजेंसी में डिलीवरी बॉय है। किसीने अपने गहने बेचे और अमेरिका के वर्जीनिया में कबाली का पहला शो देखने चले गए! सिनेमा के स्क्रीन पर जैसे रजनीकांत की एंट्री हुई, लोग चिखने-चिल्लाने लगे। कइयों ने फूल की माला अर्पण की! कई घुटने पर बैठकर प्रणाम करने लगे! सड़कों पर लगे पोस्टर पर लोग दूध से तस्वीर को नहलाते नजर आए! पेरों को पकड़ कर चूमते दीवाने नजर आये! कहा जाता है कि इनकी फिल्में महान नहीं होती, फिर भी रजनी महान बन चुके हैं!!!

राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन से लेकर आज-कल के अदाकारों की यही कहानियां है। एक सत्य घटना देख लीजिए। अक्षरधाम गांधीनगर में आतंकी हमला हुआ था, जिसमें सुरजनसिंह नाम के कमांडो को गोलियां लगी थी। वे अस्पताल में महीनों तक जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ते रहे। लोगों को देशप्रेम तभी चढ़ा जब उनकी शहीदी की खबर आई। दूसरी ओर अमिताभ बच्चन को जुकाम भी हो जाए, तब दुआओं में जो दीवानगी होती है वैसी दीवानगी यहां नहीं दिखती। देखिए न, जब अमिताभ कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान घायल हो गए थे तो देशभर में लोग दुआएं, पूजा, प्रार्थना कर रहे थे। उनकी रक्षा के लिए यज्ञ किए गए थे।
सलमान, शाहरुख, रजनीकांत की फिल्मों के लिए लोग रात भर जग जग कर इंतज़ार करते हैं, नेता की रैलियों के लिए लाखों का हुजूम उमड़ता हैं, लोग खंभे पर लटक लटक कर भाषण के एकाध-दो लफ्ज़ सुन लिया करते है, लेकिन ऐसा जुनून फौजियों के लिए नहीं देखने मिलता। शर्त यही है कि आतंकी हमला बड़ा होना चाहिए या बड़ा अधिकारी शहीद होना चाहिए, तभी देशभक्ति जगेगी!!! उधर ऐश्वर्या राय की बेटी का नाम जलसा से कब निकलेगा, दया तारक मेहता में कब वापस आएगी इनकी खबरें यूट्यूब पर देखने के लिए उधार लेकर भी डाटा पेक डलवाते रहेंगे!!!

क्रिकेट टीम विश्वकप जीते इसके लिए दुआओं, पूजा, प्रार्थना, यज्ञ करना... ये सब हम दीवानों की पहचान है। विराट कोहली का अनुष्का के साथ झगड़ा हो जाए तो घर-घर में चिंताएँ ऐसे पसरती हैं, जैसे मौसी के लड़के की शादी खतरे में आ गई हो!!!

किसी नेता का हेलीकॉप्टर गायब हो जाए तब मीडिया समेत हम लोग दिनों तक खाना पीना छोड़ कर जहाज ढूंढने में लग जाते हैं! कुछ लोग वहां ढूंढते हैं और हम खबरों में! गायब हो जाना तो दूसरी बात है, लेकिन इमर्जेंसी लेंड भी करना पड़े तब भी आधा आधा दिन तक हम मीडिया के जरिए यह जानने की कोशिशों में लगे रहते है कि क्यों लेंड करना पड़ा, कौन से पूर्जे में खराबी थी, कबका बना हुआ हेलीकॉप्टर था, ये क्या था, वो क्या था, फलां फलां क्या था? गज़ब की दीवानगी है यह! वहीं दर्जनों फौजियों को लेकर उड़ने वाला भारी हवाई जहाज गायब हो जाए तब भी दिनों तक हमारी भावनाएँ आराम से अंदर कही पड़ी रहती हैं! दिन में दो-चार बार मीडिया से अपडेट लेकर कर्तव्य पालन किया करते है। मीडिया सामने से जितना बताता है उतना जान लेते है। जैसे कि इंतज़ार हो कि कब प्लेन क्रैश की खबर आये और फिर कब हम वही पुराना शहीदों के मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वाला नाटक कर ले! जी हां, नाटक!
क्रिकेट के लिए भी लोगों की दीवानगी मशहूर हैं। किसी सामाजिक मुद्दे के लिए आप सड़क पर उतरे तब एकाध हजार लोगों को जुटाने के लिए भी आप को जमीन-आसमां एक करना पड़ता है। किंतु स्टेडियम में कभी कभार तो आधे लाख या पौने लाख सीटें भर जाती हैं। फिर भी सैकड़ों की भीड़ बाहर लंबी लाइन में इंतज़ार करके बड़ी मायूस होकर घर वापस जाती हैं। जिन्हें हरे हरे मैदान की चमकदार कुर्सियों में बैठने का मौका नहीं मिला होता वे मायूस होकर घर लौटते हैं। जैसे कि भगवान ने आज के दिन अवतार लिया था और वो अवतार दोबारा देखने के लिए नहीं मिलेगा!!!

एक फर्क देख लीजिए। एक मौका था जब 29 एयरफोर्स जवानों के साथ एएन32 नामक विमान गुम हो गया। लोगों ने चिंताएँ ज़रूर की। दिन में दो-चार बार लोग अपडेट भी लिया करते थे कि यान मिला या नहीं। शायद लोगों को इंतज़ार था कि क्रैश की खबर आये और हम शहीदों की मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वाली भावनाएँ फिल करे। वहीं सैकड़ों मैचों पर हम एक दृश्य सर्व सामान्य रूप से देखते हैं। जिन्हें स्टेडियम में जाने का मौका ना मिला हो, जो टीवी पर मैच को देख ना पाए हो, वे कमेंट्री सुन कर बोल-बाय-बोल अपडेट लिया करते है। देश की सांसे थम जाती हैं जब मैच सनसनीखेज मोड़ पर आ जाए। एकाध डोट बोल लोगों को इतना निराश कर देता है, जैसे कि भारत का नाम दुनिया की सूची से निकल जाने वाला हो!!! एकाध सिक्सर या चौका लोगों में इतना जोश भर देता है, जैसे कि देश ने एकाध दूसरा देश खरीद लिया हो!!! भारत मैच हारने वाला हो तब ट्रैफिक भी सुस्त चलने लगता है! जीत जाये तब ट्रैफिक में तेजी आ जाती है! आप कमेंट्री ना भी सुन पा रहे हो, तब भी ट्रैफिक देख कर आप को नतीजा पता चल ही जाता है!

किसी खिलाड़ी या किसी टीम के जीत का जश्न यहां जश्न के रूप में नहीं मनाया जाता। बल्कि उसे किसी समस्या के समाधान के रूप में मना लिया जाता है! जीत के बाद खिलाड़ी या टीम तो मैदान से निकल जाते है, लेकिन गौरव सेनाएँ मैदान में उतर आती हैं। लगता है कि सदियों से सुनी पड़ी गली में किसी ने पटाखा फोड़ दिया हो!!! सरकारी और सामाजिक योजनाओं के स्लोगन तक ठेल दिये जाते हैं!!!
हार लोगों को सुन्न करती है। जीत आसमान में रोशनी ले आती है। हार से लोग दुबक कर ऐसे बैठ जाते हैं, जैसे आधी दुनिया ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए हो!!! जीत पर पटाखे फूटते हैं, रोशनी दिखती है, ट्रैफिक तेजी से चलता है और होर्न की तीखी आवाजों से सड़कें चिखने लगती हैं। आप तय नहीं कर पाते कि यह कौन सा रिश्ता है, जो लोगों को इतना निराश या इतना ज़िदादिल बना देता है। कभी कभी लगता है कि तय करने से अच्छा है कि खुद ही एक बार दीवाना बन कर देख लिया जाए!!!

कहा जाता है कि जिंदगी के लिए मानवजीवन में कुछ एक्साइटमेंट का, कुछेक मंनोरंजन का होना बेहद आवश्यक है। लेकिन कहा जाता है कुछ का, और दिखता है बहुत कुछ! क्रिकेट को अब पांच दिवसीय मैच की क्षमता परखने वाले या एक दिवसीय मैच की रणनीतियां समझने वाले दर्शक नहीं चाहिए। उन्हें तो बीस ओवरों में झूमने वाले, चिखने वाले, चिल्लाने वाले फैंस चाहिए। जहां स्टम्प रंगीन होते हैं, कपड़े रंगीन होते हैं, मैदान रंगीन होते हैं, कमेंट्री भी रंगीन होती है और चौके-छक्के पर झूमने वाली लड़कियां भी होती हैं। तभी तो स्टेडियम में बैठे दर्शक भी रंगीन ही लगते है। अजीब सी टोपियां पहन कर आने से या तो खिलाड़ियों को उत्साह आता होगा या फिर कैमरामैन को! क्रिकेट को अब दर्शक नहीं चाहिए, बल्कि फैंस चाहिए। तकनीक नहीं बल्कि तड़का चाहिए। विश्लेषण नहीं बल्कि चीखें चाहिए, चिल्लाहट चाहिए। फिल्मों में भी लोग फिल्म देखने कम जाया करते है। कहानी को देखकर लोग फिल्में देखते होते तो कुछ फिल्में पीटती नहीं। या फिर यूं कह लीजिए कि ऑस्कर के लिए जो फिल्में जाती हैं, समीक्षकों के दिमाग में जो फिल्में घुसती हैं, वह फिल्में शायद ही देखनेवालों को पसंद आती हो!

हीरो या हीरोइन की एंट्री किसी भी दिग्दर्शक को शानदार बनानी ही पड़ती हैं। कहानी जैसी भी हो, लेकिन एंट्री ही फिल्म को तय कर जाती हैं! ज्यादातर तो ये खयाल भी रखना पड़ता है कि हीरो को गलती से भी फिल्म में कुछ नहीं होना चाहिए! आप गाना किसी भी दृश्य में डाल दीजिए, दर्शकों को फर्क नहीं पड़ता! भारत के किसी शहर की कहानी में आप हीरो या हीरोइन को दुनिया के किसी भी शहर में ले जाइए, फर्क नहीं पड़ता! नागरिकी जीवन में बुरा काम करने वाले को गुंडा कहा जाता है, लेकिन फिल्मों में तो डोन भी चमकदार सूट-बूट में हीरो बनकर उभर आता है। गले में रुमाल डाल कर सड़कों पर मत घुमिएगा, आप को टपोरी के अलावा और कोई सम्मान मिलना मुश्किल है। लेकिन विश्लेषक भी बता नहीं सकते कि रंग-बिरंगी कपड़े, गले में रुमाल, भड़कीले कपड़े हीरो को क्यों पहनाए जाते होंगे? फिल्मों के किसान भी एरियल से कपड़े धोते होंगे!!! एक बंदा 10-20 बंदों को उड़ा देता है!!! एक छत से दूसरी छत पर पहले हीरो कूदा करते थे, अब तो उनकी गाड़ियां कूदती हैं!!! टेलीविजन का भी इतना प्रभाव है कि आज भी लोग अपने रिश्तेदार की शादी से ज्यादा तो पोपटलाल की शादी का इंतज़ार करते रहते हैं!!!
बॉलीवुड या क्रिकेट में जो दीवानगी थी, वैसी दीवानगी राजनीति में नहीं है ऐसी शिकायतें नेता लोग भी नहीं कर सकेंगे। लाखों की भीड़ वाली रैलियां, खंभे पर लटक-लटक कर भाषण सुनते लोग, मैदान के आसपास पेड़ों पर बिराजने वाले श्रोता राजनेता की रैलियों में ही देखने के लिए मिलते हैं। मौसम चाहे जैसा भी हो, चुनाव का खुमार हमेशा दिमाग पर छाया रहता है। घोषणापत्र पर ना तो लोग ध्यान देते हैं और जीतने के बाद ना ही हमारे नेता!!! लगता है कि घोषणापत्र उन विश्लेषकों के लिए ही बनाये जाते होंगे!!! अपनी मनपसंद पार्टी या मनपसंद नेता के लिए सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करके लोग उनके भाषण सुनने जाया करते हैं। इसका इतिहास बॉलीवुड और क्रिकेट से भी पुराना है। ये बात और है कि तब गाँधी या भगतसिंह थे, जिनकी दीवानगी इतना सर चढ़कर बोली कि लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य तक से टक्कर झेली। लेकिन वे नेता नहीं थे। आजादी के बाद यही दीवानगी नेताओं को विरासत में मिली। कुछेक लोग कहते हैं कि नेताओें ने बड़ी काबिलियत से यह विरासत ले ली थी। जो भी हो, लेकिन दीवानगी का पहला प्रसाद तो नेताओं ने ही ग्रहण किया। क्रिकेट या बॉलीवुड वाले खुद को किस्मतवाले ही समझेंगे। क्योंकि राजनीति में दीवानगी और नफ़रत, यह दोनों चीजें साथ साथ चलती रही। खिलाड़ी या अदाकार की किस्मत थी कि जीते जी उनके पुतले शायद ही जलाए गए होंगे। लेकिन पुतले जलाने वाली विकास पूर्ण प्रक्रिया से वे भी पुरे अछूते नहीं रह पाएं।

मैच हारे तो लोगों ने खुद के टेलीविजन तोड़ दिए। फिर शायद उन्हें अहसास हुआ होगा कि इसमें तो खुद का ही नुकसान है! लिहाजा वे खिलाड़ियों के घर तोड़ने लगे! कुछेक ने इसे हिंसक प्रवृत्ति माना होगा। इसलिए वे पुतले जलाने की राजनीतिक प्रवृत्ति को कॉपी-पेस्ट करके खेल की दुनिया में ले आए। फिल्म के नायक व नायिकाओं को भी यही दौर देखना पड़ा। जब जब उन्होंने अपने दायरे से बाहर जाकर देश के अन्य विषयों पर अपनी राय रखनी चाही, उन्हें दीवानगी का यही चेहरा देखना पड़ा।

शशि कपूर की मृत्यु, राजेश खन्ना का निधन या श्रीदेवी की मौत लोगों को इतना सुन्न कर देती है कि मीडिया वालों को दिनों तक इस पर शो करने पड़ते हैं। जबकि 1971 वॉर के हीरो रहे कुलदिप सिंह चांदपुरी का निधन दिन में दो-पांच मिनट की खबर बन कर रह जाता है। कइयों को तो दिनों बाद पता चलता है कि लोंगेवाला का नायक अब हमारे बीच नहीं रहा। लेकिन उनका अभिनय निभाने वाले सन्नी देओल को कब्ज़ भी हो जाए तो दीवानों की सुबह खराब हो जाती हैं!!! मैरी कोम ने पसीना बहाकर जितना पैसा नहीं कमाया होगा उतना तो प्रियंका उनका किरदार निभाकर कमा लेती हैं! ये सच है कि सेना पर तो लोग मरते है, नाज़ करते है, किंतु सेना के हीरो मरते हैं तब उन्हें वो स्पेस नहीं मिलती, जितनी बॉलीवुड के स्टार निधन के समय मिलती है, यह भी एक सच ही है। राजेश खन्ना के निधन पर तो कुछ लोग इतने सुन्न हो जाते है, लगता है कि इन्हें अस्पताल ले जाना पड़ेगा। जबकि वॉर हीरो के निधन पर इन्हें वाट्सएप के जरिए चार-पांच दिनों बाद पता चलता है। लोग भी राजनेताओं की तरह शत-शत नमन करके खुद के देशभक्त होने का सबूत दे देते हैं। ये उस दीवानगी का ही नतीजा है कि ठुमके लगाने वाले अभिनेताओं को तिरंगा नसीब होता है, जबकि तिरंगे के लिए जान देनेवाले सच्चे हीरो को क्या नसीब हुआ ये लोग जानना ही नहीं चाहते।
मेरे एक मित्र है उन्होंने एक बात कही थी। वो मूल रूप से बिहार से थे, जिन्होंने लालू प्रसाद यादव का शासन काल झेला हुआ है। मैंने झेला हुआ लिखा है, देखा हुआ नहीं। देखना और झेलना, दोनों में फर्क तो है। खैर... लेकिन उनकी ये बात, जो दरअसल उनके धर्मपत्नी ने कही थी, कई सारी चीजें समझा देती है, अगर चाहे तो। उन दिनों अभिनेत्री श्रीदेवी का निधन हुआ था। लगभग पूरा भारत सन्न था उन दिनों! शायद मीडिया ने सुन्न कर दिया था भारत को। कुछ दिनों तक श्रीदेवीजी को लेकर ही पूरा दिन गुजरता रहा। उनका शव भारत में कैसे लाया जाएगा यही बेचैनी दीवानों में व्याप्त थी! फिर शव आया, विशाल अंतिमयात्रा निकली। तिरंगे में लिपटी हुई अभिनेत्री!!! गूगल पर लोग सर्च करने लगे कि इन्होंने भारत के लिए कौन सा तीर मारा था कि इन्हें तिरंगे में लिपटा जा रहा था। जवाब नहीं मिला। मिला तो यही मिला कि काटे नहीं कटते दिन और रात, कहनी थी जो दिल की बात, लो आज कहती हूं... वगैरह वगैरह। खैर, बड़े लोग हैं। मौत की खबर पर देश सुन्न तो होना ही था। लेकिन मेरे उस मित्र के धर्मपत्नी ने अंतिमयात्रा का दृश्य टेलीविजन पर देखा। राजनीति और देश की रोजाना घटनाओं से बेखबर, अपने परिवार के लिए अपना सब कुछ समर्पित करनेवाली उस भारतीय महिला नागरिक ने अपने पति से एक ही सवाल किया – क्या लालू प्रसाद यादव को भी इसी तरह तिरंगे में लपेटा जाएगा? लिखनेवाले सब कुछ नहीं लिखते, समझनेवाले सब कुछ नहीं समझते। सवाल में क्या कुछ था ये जिन्हें समझना हो समझ लेंगे।

अपनी सोसायटी में कचरे के निकाल के लिए या किसी और व्यवस्था के लिए संबंधित सरकारी कचहरी में सौ-डेढ़ सौ लोगों को ले जाने का कार्यक्रम बनाइए... दस को इकठ्ठा करने में दिन में तारे दिखाई देने लगते है। लेकिन जब पता चले कि शहर में कोई नायक या नायिका आए हैं या आने वाले हैं, फिर तो शरीर के अंदर कोने में छुपी हुई सारी अभिलाषाएँ जागृत हो उठती हैं! पैर टूट जाए या माथा फूट जाए, नायक या नायिका के एक दिदार के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं! कचरे निकाल वाली चीज़ के दौरान लगता है कि भारत में जनसंख्या कम है क्या? लेकिन नायक-नायिका के मामलों में लगता है कि नहीं... जनसंख्या के बारे में कोई परेशानी नहीं हैं!
मंदी हो या तेजी हो, नोटबंदी हो या नोटबंदी ना हो, आईपीएल की चकाचौंध में शायद ही फर्क पड़ा हो। राजनीति और उनके समर्थक इसका अपने बचाव में भी इस्तेमाल किया करते हैं। मंत्री तक दीवानों के शुक्रगुजार हैं। क्योंकि वित्त मंत्रीजी के पास कुछ भी बचा ना हो कहने के लिए तब वे कह देते हैं कि फिल्में भी अच्छा व्यापार कर रही हैं, कहा है मंदी? स्टेडियम लबालब भरे दिखाई देते हैं और हर चौके या छके के बाद दर्शकों का शोर और उत्साह आसमान की बुलंदी पर जा पहुंचता है। कभी कभी लगता है कि या तो ये आसमानी शक्ति हैं जो हमें हर गम से और हर दिक्कतों से दूर रखती हैं और हम हर तकलीफों के बीच भी खुलकर जिंदगी का मजा उठाते हैं। तो कभी कुछ और भी लगता है।

क्रिकेट, बॉलीवुड और राजनीति... ये तीनों वाकई खुशकिस्मत हैं कि इन्हें इतना प्यार मिलता है, जहां लोग दर्शक, प्रशंसक या दीवाने नहीं रहते, बल्कि उससे आगे निकल जाते हैं। पता नहीं चलता कि बावजूद इसके खुशी सूचकांक में भारत को कम नंबर क्यों दिये जाते हैं!!!

(इंडिया इनसाइड, एम वाला)