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Hinsha ki Rajneeti : सत्ता को बुलंदी पसंद नहीं आती, बीजेपी ही कांग्रेस है और कांग्रेस ही बीजेपी है, टूथपेस्ट वही नाम नया




नागरिकता कानून संवैधानिक है या असंवैधानिक यह सर्वोच्च न्यायालय को तय करने दीजिए, लिहाजा हम कानून की बात कर ही नहीं रहे। बल्कि हम इस ऐतिहासिक माथापच्ची के बीच भीड़ द्वारा की गई हिंसा को लेकर जिस तरह से अपना-अपना ढोल अपना-अपना ताल चल रहा है उसकी बात ज़रूर कर रहे हैं।

सत्ता चाहे कोई भी हो, इन्हें बुलंदी कभी पसंद नहीं आती। इसमें सरकारों के खिलाफ आवाम की बुलंद आवाज को ध्यान में ले। सत्ता को स्वीकृति पसंद है, अस्वीकृति नहीं। इन्हें चुनाव में तो जनादेश पसंद है, किंतु सरकार चलाने में जनता का आदेश इन्हें कभी नहीं चाहिए। बीजेपी ही कांग्रेस है और कांग्रेस ही बीजेपी है – इस कथन को चुनौती दी जा सकती हैं। चुनौती देने के बाद विचारधारा, कार्यशैली आदि को लेकर अंतर भी साबित किया जा सकता है। किंतु सैकड़ों ऐसे दृष्टिकोण है जिनमें दोनों को सदैव जनता एक ही कटघरे में खड़ा करती है यह बात तो स्वयंभू साबित होती रही हैं उसका क्या?

आंदोलनों या विरोध-प्रदर्शनों के दौरान हिंसा – इस विषय को लेकर हम तो आज से ही नहीं, सालों से लिखित रूप में कहते आ रहे हैं कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है। अंतिम सिरा हमने एक बार लिखा था, जो कुछ यूं था – कई सारे सफल या अर्धसफल आंदोलन तीन व्यावहारिक तथ्यों को सीखा जाते हैं (1) दूसरों को परेशानी ना हो और अशांति पैदा ना हो इस तरह से अपनी मांगों या बातों को रखे, वर्ना सामाजिक सहकार के मामले में पिछड़ते नजर आएंगे (2) आंदोलन किसी भी मुद्दे को लेकर हो, किंतु सरकार-कानून या संविधान को अपनी गलतियों से मौका मत दीजिए, वर्ना वो आपको कही का नहीं रहने देंगे और (3) भागते हुए भूत की चोटी पकड़ना सीख जाइए।

यूपीए के दौरान जब जनलोकपाल को लेकर सोनिया और उनकी मंडली सत्ता के अहंकार की चरमसीमा तक पहुंची, जनलोकपाल को जोकपाल बनाने के क़रीब पहुंची, तब हमने स्पष्ट लिखा था कि – कानून बनाने का विशेषाधिकार संसद का है किंतु संसद को वो कानून अपने लिए नहीं जनता के लिए बनाने होते है और इसीलिए उन कानूनों में जन-भावना का समन्वित होना अति-आवश्यक है। आज एनडीए के समय मोदी और उनका मंडल भूमि अधिग्रहण से लेकर ऐसे कई दूसरे आदेश लाता रहा जिसे बाद में इन्हें ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। अब नागरिकता कानून एक नया विवाद है। यूपीए के समय कांग्रेसी सत्ता वाले नेता एक ही ढोल बजाते थे कि लोगों को भ्रमित किया जा रहा है, आज एनडीए के दौर में बीजेपी सत्ता यही राग आलाप रही हैं! लोग सड़कों पर आते है तब सत्ता और विपक्ष, दोनों के लिए संवाद फिक्स्ड हैं हमारे यहां... ! बस उन संवादों को बोलने वाले मुंह बदलते रहते हैं! कह सकते हैं कि टूथपेस्ट वही, नाम नया!!!

प्रदर्शनों में हिंसा को लेकर हम कई दफा लिख चुके हैं। हमने तो एक दफा इसे लेकर इरोम शर्मिला के ऊपर एक विशेष लेख लिखा था, जिसमें आंदोलन या विरोध के लोकतांत्रिक तरीके तथा आंदोलनों में त्याग व तपस्या का महत्व अंकित किया था। उस दौर में उस लेख को पढ़कर कुछ मोदियाबिंद कहने लगे कि शांति से प्रदर्शन करके सोलह साल बर्बाद करके इरोम शर्मिला को क्या मिला, इस देश में सत्ता के कान तक आवाज पहुंचाने के लिए थोड़ी-बहुत हिंसा ज़रूरी हैं। आज वही लोग कहने लगे हैं और कहते हैं कि आंदोलन शांतिपूर्ण होना चाहिए, जैसा इरोम शर्मिला ने किया था!!! साथ में वो पुराना लेख ढूंढ कर शेयर भी करने लगे हैं!

हमें वो पुराना दौर याद है जब हम लिखते कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हैं तो एक विशेष गैंग हंस देता था, यह कहकर कि बगैर हिंसा के सत्ता के कान नहीं खुलते। आज वही गैंग उसी संवाद को न केवल लिखता है, बल्कि विशेष टिप्पणियों के लिए पुराने लेख ढूंढने में लगा है! (नोट यह भी कर दें कि जब जब हिंसा की आलोचना करते थे तो कई कमजोर समझने लगते। हम उन्हें ऐसा समझने देते। लेकिन जब वो सीमाएं लांघते तो फिर लातों के भूत बातों से नहीं मानते वाला तरीका आजमाते। फिर वो अचानक से सुन्न हो जाया करते। हम कहते कि देख भाई, हम गांधीजी में ही नहीं, भगतसिंह में भी मानते है, गोडसे-वोडसे में नहीं।)

मोदियाबिंदों को मालूम हो कि यहां बात केवल नागरिकता कानून की नहीं हैं, सोनियापापड़ियों (जिन्हें मैं सम्मानपूर्वक सोनपापड़ी भी कहता हूं) को सूचित किया जाता है कि यहां बात सिर्फ जनलोकपाल के जंग की नहीं हैं। दरअसल, सबकी लंपटता-दर्शन का मौका है यह। आंदोलन कैसा होना चाहिए, किन तरीकों से करना चाहिए इसका पैमाना राजनीति और उनके लठैत अपनी अपनी सहुलियत के हिसाब से तय करते है! चलो ठीक है। लेकिन अब तो सरकार एक नया कोण लेकर आई हैं, जिसमें आंदोलन किन चीजों पर नहीं होना चाहिए इसके ही हिसाब तय करने लगी हैं!!!

यह पत्थर गैंग सच है या महज एक अफवाह?
आपने राजनीति के मुंह से टुकड़े-टुकड़े गैंग नाम सुना होगा। राजनीति का यह व्हाट्सएपियां तरीका जोरों पर है। लेकिन यहां जिस 'पत्थर गैंग' के बारे में बात हो रही हैं उसका नाम कोई दल नहीं लेता। नाम कोई नहीं लेता किंतु आज से नहीं बल्कि कई अरसे से पत्थर गैंग के बारे में सुनते आ रहे हैं। मुझे नहीं पता कि यह पत्थर गैंग सच है या महज एक अफवाह?

कई सूत्रों से पत्थर गैंग के बारे में सुना है। कहते हैं कि यह गैंग किसी भी विरोध-प्रदर्शनों में अलग-अलग प्रकार की हिंसा करने के लिए विशेषज्ञ है! सुना है कि राजनीतिक दल कोई भी हो, प्रदर्शन कोई भी हो, मुद्दा आसमानी हो या जमीनी, यह गैंग अलग-अलग कैटेगरी की हिंसा के लिए अपनी सेवाएँ देती हैं, यानी कि विभिन्न प्रकार की हिंसा के लिए सेवाएँ!!! सुनते-सुनाते बातें यह भी कही गई थी कि इन विशेषज्ञों की सेवा सत्ता पर बिराजमान दल भी लेता है, विपक्ष भी लेता है, राजनीतिक दल भी लेते है और गैरराजनीतिक दल भी लेते है! इन्होंने तो हिंसा के लिए भी अलग-अलग कैटेगरिज बनाकर रखी हुई हैं। कितनी हिंसा करनी हैं, किस प्रकार की हिंसा करनी हैं, किसके ऊपर हिंसा करनी हैं यह सब उनके रेट लिस्ट के ओप्शन होते है यह भी सुना। कहनेवाले कह गए कि इनके पास अलग-अलग कैटेगरिज की हिंसा के अनुसार अलग-अलग आदमी और हथियार होते है। पत्थर भी अलग-अलग तरीके के होते है। मसलन, छोटे - बड़े - तीखे - नुकिले - गोल - चौकोर - खून निकालनेवाले - अंदरुनी चोट पहुंचानेवाले वगैरह वगैरह। कब पत्थर इस्तेमाल करने है, कब ईंटे... यह सब उनके सिलेबस का प्राइमरी बेज है। कहते हैं कि इन्हें ओर्डर देनेवाले लोगों को तय करना है कि हिंसा की कैटेगरी क्या रहेगी! और उसी प्रकार से वे अपने आदमी और अपने टूल्स तैयार करते हैं। सामान्य चोट पहुंचानी हैं, अंदरुनी चोट पहुंचानी हैं, खून निकल जाए ऐसी चोट पहुंचानी हैं, आग लगानी हैं, इमारत जलानी हैं, वाहन जलाने है, सड़कों पर टायर वगैरह से धूंआ उठाना है... न जाने क्या क्या सुना है इनके बारे में। 

अपुष्ट है लेकिन कहानियां तो यह भी है कि पत्थर गैंग के ऊपर पुरी किताब लिखी जा सकती हैं। नाम पत्थर गैंग है, लेकिन समय और ज़रूरत के हिसाब से यह हर तरीके से तैयार है। इन्हें हिंसा करना भी आता है और करवाना भी। भीड़ में युवा या ज़रूरतमंदों के आक्रोश का फायदा किस तरह से उठाना चाहिए इसमें इन्होंने पीएचडी कर रखी हैं। क्योंकि यह बखूबी जानते है कि भीड़ द्वारा की गई हिंसा का दोष ना ही उन पर आता है और ना ही उन्हें ठेका देनेवालों पर। अपुष्ट कहानियों की माने तो नाम पत्थर गैंग है, किंतु 'समय' और 'ज़रूरत' के हिसाब से ज्वलनशील पदार्थ, लोहे के रोड़, तलवार आदि को भी इस्तेमाल करते पाए गए। बंदूक तक पहुंचे है क्या, यह पूछने पर बतानेवाले बताते है कि लंबा इंतज़ार ना भी करना पड़े, क्योंकि तलवार जैसे घातक हथियार तो लहराते ही है, क्या पता बंदूकें और गोलियां भी सड़कों पर दौड़ने लगे। सारी चीजें अपुष्ट है, लेकिन हर दफा कोनों में कोई न कोई कह जाता है, यह बतलाकर कि नाम पत्थर गैंग है, लेकिन कब क्या इस्तेमाल करेंगे यह तो ठेके पर निर्भर करता है। 

कहते हैं कि यह गैंग हिंसा करवाने में प्रत्यक्ष सेवाएँ भी देता है और अप्रत्यक्ष रूप से भी शामिल रहता है। यानी कि टूल्स दे देता है, बाकी का काम ओर्डर देनेवालों को खुद करना होता है। स्पष्ट कहे तो हिंसा करने के लिए टूल्स मुहैया करवाते हैं, हिंसा करने का काम ओर्डर देनेवालों पर निर्भर करता है। कभी कभी टूल्स और हिंसा करने का काम, दोनों सेवाएँ इनसे ही इनके उपभोक्ता ले लेते है! कहा तो यह भी गया कि हिंसा के बाद सरकारी या कानूनी कार्रवाई के दौरान की स्थितियां भी ओर्डर देते समय तय कर ली जाती हैं! इन पत्थर गैंग के बारे में भी बहुत अरसे से सुना है। यानी कि इनका सहारा या इनकी सेवाएँ हर राजनीतिक दल ने ली हुई हैं यह बातें भी अकेले में लोग किया करते है। मुझे नहीं पता कि यह सच है या झूठ, किंतु सत्ता भी और विपक्ष भी, राजनीति हो या गैरराजनीति हो, सरकारी हो या गैरसरकारी हो, पत्थर गैंग के उपभोक्ता हर जगह पाए जाते है यह उनकी बातों से छलकता है। हर हिंसा के बाद हिंसा करवानेवाले लोग, हिंसा की साजिश वगैरह के बारे में तो हम आधिकारिक रूप से पढ़ते आए हैं, किंतु इन पत्थर गैंग का नाम कही पर लिखा हुआ नहीं देखा। बस कही कोने से किसीने सदैव इनकी बात की। मुझे नहीं पता कि यह पत्थर गैंग सच है या महज एक अफवाह। बस इतना पता है कि दंगे हो या हिंसा हो, पीछे कोई न कोई होता ज़रूर है, क्योंकि दंगे या हिंसा होते नहीं, करवाए जाते हैं।

हिंसा या दंगे होते नहीं करवाए जाते हैं, सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक दलों से जुड़े संगठनों के नाम खुलकर आते है हिंसा में... महीनों बाद हिंसा करानेवाला किसी नेता के साथ मंच पर फोटू खींचवा रहा होता है!
हिंसा या दंगे अचानक से नहीं होते, बल्कि वो करवाए जाते हैं। बहुतेरे मौकों पर ये सिद्ध हो चुका सत्य है। देखिए न, नागरिकता विरोध प्रदर्शनों में जो हिंसा हुई वहां सोशल मीडिया की भूमिका से लेकर राजनीतिक दलों या उनके साथ जुड़े संगठनों व लोगों के हिस्से भी यशगाथा साबित होती हुई दिखाई दे रही हैं। कही कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों के लोग, तो कही बीजेपी और उनके संगठनों के लोग हिंसा को भड़काने का काम करते पाए गए। सोशल मीडिया के जरिए लोगों को भड़काया गया, कही पर उक्साने के लिए पत्रिकाएँ तक बांटी गई, कही पर हिंसा करवाने के आयोजन में राजनीतिक दलो से जुड़े लोग लिप्त पाए गए, कही पर इससे भी ज्यादा हो गया।

हिंसा करवाने के मामले तो खुद नेताओं पर दर्ज है!!! कांग्रेस हो या बीजेपी, आपको क्रिमिनल रिकॉर्ड वाले नेताओं की सूची मिल ही जाएगी, जिन पर हिंसा-आगजनी-उक्साना-भड़काना जैसे गंभीर मामले दर्ज हुए हो। शायद हिंसा करवाना किसी राजनीतिक पद के लिए बेसिक क्वालिफिकेशन सरीखा है!

जेएनयू हिंसा में तो एक दल ने हिंसा की ज़िम्मेदारी ही ले ली, जैसे हमलों के बाद आतंकी गुट लेते थे। गुजरात के अहमदाबाद में हुई हिंसा हो या यूपी, दिल्ली, असम समेत अन्य जगहों पर हुई आगजनी हो, सबकुछ यूंही नहीं हुआ, बल्कि इसके पीछे कइयों का हाथ रहा होगा यह अलग-अलग रिपोर्ट पढ़कर समझ आ ही जाता है। दंगाइयों ने हिंसा की, पुलिस ने भी बेकसूर लोगों पर बर्बरता की हदें फिर एकबार लांध दी। लेकिन अंत में क्या होगा? सोचने की ज्यादा ज़रूरत नहीं, वही होगा जो होता आया है। वक्त गुजरेगा और कथित अपराधी नेताओं के साथ मंच पर फोंटू खींचवा रहा होगा!!! हमारे यहां पुल का गिरना बहुत आसान है, मुश्किल है तो यह समझना कि पुल गिरा ही क्यों?

पत्थर गैंग का पता नहीं किंतु हिंसा में सभी दलों के कार्यकर्ता पकड़े जाते हैं, क्यों न कार्यकर्ताओं की पार्टी से नुकसान वसूल हो
पत्थर गैंग का तो पता नहीं लेकिन देश ने अनेकों बार यह साबित होते हुए ज़रूर देखा है कि हिंसा में ज्यादातर किसी न किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता ही शामिल पाए जाते हैं। कांग्रेस या उनके संगठन, बीजेपी या उनसे जुड़े संगठन या दूसरे बागड़बिल्ले, सारे हिंसा में पकड़े गए हो ऐसे मामलें अनेकों बार सामने आ चुके हैं और आ भी रहे है। नागरिकता विरोध के दौरान हिंसा का जितना भी मंजर सामने आया, कही से सत्ता दल के लोग शामिल पाए गए तो कही से विपक्षी दल के लोग। संघ के या बीजेपी के लोग बुर्के पहनकर हिंसा करते हुए पाए गए। कांग्रेसी या दूसरे दलों के लोग भी हिंसा में शामिल रहे। क्यों न इन सबकी पार्टी से ही नुकसान वसूला जाए?

अभी बीजेपी सत्ता में हैं तो उसकी बात कर ले। इनके लोग केवल नागरिकता विवाद में ही नहीं, इससे पहले भी हिंसा में लिप्त पाए गए थे। वो भी अजीब से हथकंड़े आजमाकर। कभी टोपी-लूंगी पहनी, कभी बुर्के पहने, कभी किसी धर्म विशेष का स्वांग रचा, कभी दूसरी पार्टी के झंडे थामे। मोदियाबिंदों को यह फेक न्यूज़ लगेगा, क्योंकि इनके ऊपर आरोप है। लेकिन सच तो यही है। अनेक राज्यों में हुई हिंसा में दूसरे दलों के साथ साथ बीजेपी और उनके संगठनों के लोग भी समान रूप से शामिल पाए गए। पुराने मामलों की तह तक जाए या ताज़ा मामलें ऊपर-ऊपर से देख ले, सभी जगह बीजेपी और उनके संगठनों के लोग यही चीजें करते नजर आए। अब सवाल यह है कि ऐसा करनेवाले अपने है तो फिर शीर्ष नेतृत्व शेष भारत को हिंसा-अहिंसा का उपदेश क्यों बांट रहा है???!!! बजाय इसके क्यों न अपनो को ही एक मैदान में बुलाकर उपदेश दे दिया जाए!

वैसे शीर्ष नेतृत्व भी कमाल के कंकड़ फेंकता है। गुजरात के सीएम रुपाणी एक सभा में (जनवरी 2019) कह गए कि, अब आपको पुलिस को पैसे नहीं देने पड़ेंगे, मेरी सरकार ने हाटेल संचालकों को लाइसेंस से मुक्ति दिला दी है। अब आपको पुलिस को पैसे नहीं देने पड़ेंगे – इस कथन का मतलब मैट्रिक पास आदमी को पता चल सकता है। लेकिन गजब देखिए, दिसम्बर 2019 में मोदीजी देश के युवाओं से बुलवा रहे थे, पुलिस का अपमान करोगे? बोलो करोगे?” जाहिर है नहीं बोलकर भाषण-प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था। लेकिन सामने सीएम रुपाणी होने चाहिए थे, युवा नहीं!!! पीएम मोदी तो एक दफा कह गए थे कि, फिल्मों ने पुलिस की छवि खराब की हैं। अरे बॉलीवुड वालों, सिँघम को कोपी-पेस्ट करते रहो, पुलिस की छवि मत खराब करो यारो! शीर्ष नेतृत्व का ये फिल्मी अंदाज है जो आसमान में अलग होता है और जमीं पर भी जुदा। देखिए न, इसी पुलिस को दिल्ली में वकीलों ने पीट दिया, दिल्ली पुलिस पूरा दिन सड़कों पर आकर आंदोलन करने को मजबूर हुई, लेकिन वकीलों को पुलिस का अपमान वाला उपदेश नहीं दिया। नहीं दिया तो ठीक है, लेकिन दिल्ली पुलिस के लिए एक ट्वीट भी नहीं आया! कैसे आता भला? इन्होंने जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिकों के लिए भी ट्वीट नहीं किया था! सैनिकों को तो दिल्ली पुलिस ने ही पीट दिया था!!! जाहिर है कि ऊपर से आदेश आने के बाद पीटा होगा। पुलिस-पूर्व सैनिक... दोनों के लिए देशभक्ति के नारे शीर्ष नेतृत्व के पास है, लेकिन समय हरभजनसिंह-विराट कोहली-अनुष्का शर्मा-अक्षय कुमार या नीता अंबाणी के लिए ही निकाला जाएगा!

आगजनी, हिंसा, दंगे... इसका कांग्रेस का भी अपना एक भद्दा इतिहास है और बीजेपी का भी। लेकिन दोगलापंति की चरमसीमा है कि दोनों धड़ल्ले से देश को मानवता के उपदेश भी झाड़ देते हैं! हिंसा के अपने प्रकार पर गौर करे तो राजनीति केवल सड़कों पर आकर हिंसा नहीं करती। यह लोग इससे भी बड़े षडयंत्र बनाते नजर आते रहे हैं। फेक न्यूज़, प्रोपेगेंडा, अफवाहें, उक्साना, उन्माद जगाना... यह नागरिकों की कमाई नहीं हैं बल्कि इन कांग्रेसियों और भाजपाइयों की प्रॉपर्टी हैं! इनके अनेक नेताओं के ऊपर हिंसा के लिए लोगों को उक्साने, धार्मिक उन्माद फैलाने के मामले दर्ज हो चुके है। यहां तो ऐसे लोग सीएम तक बन जाते हैं जिन पर देश के तमाम असंवैधानिक और गैरकानूनी मामले दर्ज हो और वही लोग संविधान या कानून की दुहाई देने लगे तो फिर इन्हें दोगलापंति का ऑस्कर मिलना चाहिए। अरे भाई... सारे देश को उपदेश देने की मूर्खता करने के बजाय घर में ही संस्कार चैनल शुरु कर दो आप लोग।

पीएम कभी यह जवाब नहीं देंगे कि वो हिंसा को जायज माननेवालो लोगों को क्यों फॉलो करते हैं? सोनिया, राहुल, प्रियंका, मोदी, शाह, पवार, ठाकरे, ममता, मायावती, मुलायम, अखिलेश... बहुत लंबी सूची हैं, लेकिन इनमें से कोई यह जवाब नहीं देगा कि इनके मंच पर हिंसा के ठेकेदार क्यों दिखते रहते है? ये लोग तो अंडरवर्ल्ड वालों के रिश्तेदारों तक के लिए प्रचार कर जाते है। अरे भाई, आप लोगों को सचमुच देश की चिंताएं हैं तो पहले घर में ही स्वच्छता अभियान चला दो। नौ सौ चूहे खाकर कांग्रेसी-बीजेपी बिल्लियां मंदिर-मस्जिद को निकल लेती हैं!!!

नागरिकता कानून लोकतांत्रिक तरीके से ही बना है, बावजूद इसके कई समुदाय के लोगों का विरोध क्या दर्शाता है?
नागरिकता कानून लोकतांत्रिक तरीके से ही तो बना है। लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत से पास हुआ। राष्ट्रपति ने दस्तखत किए। बावजूद इसके केवल मुसलमान ही नहीं अन्य समुदायों के सैकड़ों लोग इसके विरोध में सामने आए, यह सब क्या दर्शाता है?

दरअसल, संसद में लोकतांत्रिक तरीके से पास होनेवाला हर कानून संविधान की कसौटी पर खरा उतरता ही होगा ऐसा सोचना ज़रूरी नहीं हैं। कांग्रेस के समय भी और अटल बिहारी वाजपेयी के शासन के समय भी ऐसे कानून को लेकर बवाल हो चुके है। कई मामलों में दोनों सदनों से पास हुए कानून को राष्ट्रपति ने वापस लौटाया, कही पर सारी प्रक्रियाएँ निभाई गई तो न्यायालय ने कानून को ख़ारिज कर दिया। हमारे यहां ऐसे उदाहरण भी मौजूद है। हमने कांग्रेस शासन के दौरान लिखे गए हमारे पुराने लेख का एक पैरा ऊपर लिखा, जो इस प्रकार है - कानून बनाने का विशेषाधिकार संसद का है किंतु संसद को वो कानून अपने लिए नहीं जनता के लिए बनाने होते है और इसीलिए उन कानूनों में जन-भावना का समन्वित होना अति-आवश्यक है।

लोकतंत्र का लंगड़ाता हुआ एक सच देखिए। लोकसभा या विधानसभाओं में पारित होनेवाले कानूनों के ऊपर चर्चा होती हैं। लेकिन चर्चा का रंग और रूप देश ने अनेकों बार देखा है। चर्चा में एकदूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशें होती हैं, मुद्दों के ऊपर सार्थक चर्चा कभी नहीं होती। जितनी भी होती हैं, उसको कौन देखता है भला? हजारों-लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाला शख्स सदन में जो कहेगा वो उस प्रदेश के लोगों की बहुमत आधारित भावना होगी यह संविधान की भावना हैं। लेकिन होर्स ट्रेडिंग, सवाल पूछने के लिए पैसे, चुप रहने के लिए प्रलोभन, गुनाहखोर इतिहास आदि समस्याओं को कौन नहीं जानता? चुनाव लड़ते है किसी दूसरे दल से और फिर जिसकी सरकार हो उसमें पद आदि लेकर दल बदल लेते हैं!!! जिन गठबंधनों को आप वोट करते है वे बाद में अलग होकर आपको चौंकाकर सरकार बना लेते हैं या गिरा देते हैं! बड़ा लंबा चैप्टर है यह, जिसे सब जानते है। पेंच तो कई सारे है।

किंतु लोकतांत्रिक तरीके से कोई कानून पास हो और फिर उसका अनेक जगहों पर अनेक समुदायों द्वारा विरोध हो, तो फिर बात जन-भावना के नजरअंदाज होने की भी होती हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो पूर्व में ऐसे कानूनों को ख़ारिज नहीं होना पड़ता या फिर सरकारों को ऐसे प्रस्ताव वापस खींचने नहीं पड़ते। किसी कानून का मर्यादित जगहों पर मर्यादित लोगों द्वारा विरोध होना एक अलग दृश्य है, किंतु सामूहिक रूप से अलग अलग जगहों पर विरोध होना बिल्कुल उल्टी ही कहानी है।

नागरिकता बिल के विरोधी हो या समर्थक, बहुत ही ज्यादा लोग ऐसे हैं जो किसी बिल के नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के समर्थक या विरोधी है
यह बात स्वयंभू सिद्ध हो चुकी बात है। कांग्रेस और सोनपापड़ियों का इतिहास तो मोदीगाथा में दर्ज है और मोदी का इतिहास उनकी यू-टर्न गाथा में दर्ज है! सोनपापड़ियों का तो सर्वविदित है, किंतु यदि मोदियाबिंदों को मुद्दों की चिंता होती तो मोदी-1 के दौरान एफडीआई, जीएसटी, आधार, न्यूक्लियर डील, बांग्लादेश भूमि सौदा, भूमि अधिग्रहण, रेल किराया, रसोई गेस के दाम, महंगाई, मनरेगा, ईपीएफ टैक्स, काला धन, लोकपाल, गौरखालेंड समेत अन्य सैकड़ों मुद्दों में जिस तरह से यू-टर्न लिया गया उसका विरोध होता। लेकिन लोगों को मुद्दों से नहीं व्यक्तियों से मतलब होता है यह सोनपापड़ी और मोदियाबिंद, दोनों समुदायों ने स्वयं ही सिद्ध कर दिया है।

यहां बहुत ही ज्यादा यानी बहुमत की बात है। छिटपुट तबका जानकार है इसमें कोई दो राय नहीं, किंतु बात बहुमत की हो रही हैं। हम कई दफा लिख चुके है कि यहां लोग किसी मुद्दे के समर्थक या विरोधी नहीं होते, बल्कि किसी व्यक्ति या दल के समर्थक या विरोधी होते हैं। देश का भला हर कोई चाहता है लेकिन मोदियाबिंद या सोनपापड़ी वालों की मानसिक विकलांगता यही है कि वे चाहते हैं कि उनका ही नेता देश का भला करे, दूसरा नहीं!!! दरअसल, भला-बुरा में कोई नहीं मानता। बात यही है कि अपना करे तो अच्छा, दूसरे करे तो बुरा! आई मीन, अपना कुत्ता टोमी, दूसरों का कुत्ता कुत्ता!!!

यहां नेताओं को राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का फर्क पता नहीं होता, पता होता है तो पूरा गा नहीं पाते, जीएसटी का फुल फॉर्म याद नहीं... और ऐसे ही लोग समर्थन या विरोध के लिए कूद जाते हैं। हमारे यहां गूगल पर गार्डियन अख़बार पढ़कर लंदन के विशेषज्ञ बनने का चलन तेजी में है, वहां मंदी नहीं हैं! पाकिस्तान के साथ कुछ दिक्कतें होती है तब लगता है कि सेना को युद्ध करना नहीं आता होगा, इतने सारे रक्षा विशेषज्ञ मीडिया पैनलों पर खिल उठते है! इसरो में जितने वैज्ञानिक नहीं होंगे उतने तो व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में देखने को मिलेंगे! सर्जिकल स्ट्राइक के समय देश मेजर बन जाता है, नोटबंदी के समय अर्थशास्त्री, जीएसटी के समय सीए और अब नागरिकता कानून पर संविधान विशेषज्ञ!!! बताइए, आर्टस करनेवाला लठैत भी यहां जीएसटी और आर्थिक हालात पर विशेषज्ञ बनने का ढोंग कर लेता है और कॉमर्स पढ़नेवाले को अनपढ़ भी साबित कर लेता है! साइंस करनेवाले को भी कॉमर्स या आर्टस वाले लठैत यहां रसायणों का ज्ञान बांट देते है! इतिहासकार को भी यह लोग पाठ पढ़ाते है, फिर भले उसे अपने शहर से 20-30 किमी दूर बसे किसी दूसरे शहर का इतिहास पता ना हो! व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ इनमें आगे है। किसी कुएं में कैद मेंढ़कों को यह नहीं पता होता कि कुएं के बाहर समंदर भी हैं।

कोई 370 के बारे में नहीं सोचता, बल्कि कुछ लोग नेहरू और कांग्रेस के साथ खड़े होते हैं, कुछ मोदी और बीजेपी के साथ, कश्मीरियों के साथ कोई नहीं होता! रामभक्त पार्टी के ही नेता राम के परम भक्त हनुमानजी पर महाभारत खड़ा कर देते हैं, लेकिन तब धर्मरक्षा पर फेफड़े फाड़नेवालों को चुप रहना भी आता है, कोई दूसरा कर रहा होता तो धुआं और आग...। दूसरे गठबंधन करे तो पाप, अपनेवाले करे तो बैकुंठ उत्थान! पुल गिरे, बच्चे अस्पतालों में मरते रहे, दुष्कर्म हो, चोरी हो, खून हो, हिंसा हो... कुछ भी हो, समर्थक और विरोधियों के दोगलेपन को देख लीजिएगा। वेलंटाइन वाली हिंसा हो, फिल्मों के विरोध की हिंसा हो, आश्रमों की हिंसा हो या मदरेसा वालों की हिंसा हो, लठैतों को अच्छी या बुरी हिंसा के वर्गीकरण का ज्ञान पहले ही दे दिया जाता है! सत्ता भी कमाल की दोगली होती है, चाहे कांग्रेस की हो या फिर बीजेपी की। फिलहाल तो बीजेपी की हैं, सो इसीका उदाहरण सामने आएगा। देखिए न... संविधान और कानून की रक्षा करने की कसमें आज जो खा रहे हैं उन्होंने तीन तलाक के मामले में अदालत का आदेश माना लेकिन सबरीमाला पर कह गए कि हम अदालत का आदेश नहीं मानेंगे!!! बेचारी दिल्ली पुलिस को आंदोलन करना पड़ा न्याय मांगने के लिए, पुलिस की बड़ी महिला अधिकारी को सरेआम वकीलों ने पीट दिया, वकीलों ने जमकर तोड़-फोड़ और आगजनी कर दी, लेकिन तब हिंसा और पुलिस का सम्मान मुदा ही नहीं बना, कितुं आज पीएम लोगों को पुलिस का सम्मान करने की कसमें खिलाते है! कुल मिलाकर, बीजेपी ही कांग्रेस है और कांग्रेस ही बीजेपी है। कांग्रेस के सारे अवगुण, दोगलापंति को बहुत कम समय में बीजेपी ने अर्जित करने में सफलता हासिल कर ली हैं।

शुक्र है कि आंदोलन को कवर करनेवाले न्यूज़ चैनलों में कुछ पत्रकार भी है, सारे कलाकार नहीं है। कलाकारों को डालो डिक्की में, पत्रकारों की बात करते हैं। इन पत्रकारों ने जब मौका मिला तब दोनों पक्षों से बेसिक सवाल पूछा कि आप सड़कों पर क्यों है? समर्थक और विरोधी, दोनों के पास मजबूत तर्क नहीं थे! नागरिकता बिल के बारे में विरोधियों और समर्थकों, दोनों को उतना ही पता है, जितना सबको पता है! फायदे गिनानेवाले या नुकसान बतानेवाले, दोनों को शायद एक ए4 साइज पेपर में कुछ मुद्दे दे दिए गए है, जिनका रट्टा हर दफा मारा जाने लगा है! सोचिए, जिन्हें संविधान की प्रस्तावना याद नहीं है वे लोग संविधान का ज्ञान बांटते फिर रहे हैं!!! नोट करे कि इनमें विरोधी और समर्थक, दोनों को शामिल किया गया है। विरोधियों की अपनी चिंताएँ हैं, समर्थकों की भी अपनी चिंताएँ हैं। लेकिन इन चिंताओं को तार्किक रूप से पेश करने की जहमत कम दिखाई दी। या तो इसमें मीडिया की कमजोर भूमिका हो सकती हैं या फिर आवाम की।

हिंसा का कोई भी रूप मंजुर नहीं है, किंतु हिंसा की राजनीति और राजनीति की मैली गंगा... दोनों का कोई ऊपाय सरकारें निकालना ही नहीं चाहती
हिंसा का कोई भी रूप मंजुर नहीं है। हां, विरोध के हर शांतिपूर्ण तरीके लोकतंत्र की आत्मा है। कई दफा देखा गया है कि शांतिपूर्ण आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकारें खुद ही हिंसा करवा देती हैं। हिंसा होने के बाद आंदोलनों को कुचलना आसान है। लेकिन जितनी दफा यह देखा उतनी ही दफा यह भी देखा कि आंदोलनकारी खुद ही हिंसा का सहारा ले लेते है। दोनों प्रक्रियाएँ एक साथ चलती रही हैं। इन चीजों से नुकसान पहुंचता है मुद्दों को।

भारत में हिंसा की राजनीति और राजनीति की मैली गंगा... इसका इतिहास सार्वजनिक है। दंगे, हिंसा, आगजनी-तोड़फोड़... इसका रंग और रूप हम सभीने देखा है। हमने यह साबित होते हुए देखा है कि अहिंसक तरीका सदैव सफल रहा और हिंसक तरीका विफल। हिंसा की राजनीति, राजनीति की मैली गंगा, दंगों की राजनीति, भारत में हिंसा, दंगे आदि को लेकर कई शोधकर्ताओं ने अपनी शोध किताबें लिखी है। उनके सारे विश्लेषण भले ही सही ना हो, ज्यादातर तो सही ही होते हैं। इन किताबों को पढ़ने के बजाय समझने से उस मैली गंगा का चहरा खुद-ब-खुद उजागर हो जाता है।

हो सकता है कि पुराने डाटा ना हो, किंतु 21वीं शताब्दि में हिंसा से देश को जो नुकसान हुआ उसका कच्चा चिठ्ठा देखे तो यही नतीजा निकलता है कि हमने खुद ही हमारे पैरों पर कुल्हाड़ी चला दी हो। वैसे कुछ पुराने डाटा इतने सार्वजनिक है कि उन्हें डाटा के रूप में ढालने की ज़रूरत ही नहीं! कांग्रेस ने सबसे ज्यादा समय सत्ता को भुगता है और इनके दौर में कितने कितने बड़े जन-आंदोलन हुए, कितने बड़े बड़े दंगे हो गए, आगजनी से लेकर सामूहिक हत्याकांड तक हुए। संविधान की रक्षा करने पर आज जो कांग्रेस आमादा है उसीने संविधान पर इंदिरा के समय कुठाराघात कर दिया था!!! राजीव के समय धर्म विशेष का कत्ल-ए-आम और फिर राजीव का भद्दा वाणीविलास। रक्तरंजित भारत के दर्शन कांग्रेस के समय भी हो चुके हैं। भारत की बदनसीबी यही है कि इसीलिए आज जब भाजपा के गुनाहों पर कांग्रेस बोलती हैं तो भाजपा कांग्रेस के गुनाह गिनवा देती हैं और बच निकलती हैं। कह सकते हैं कि कांग्रेस सत्ता में थी तब भी देश का नुकसान किया और आज विपक्ष में है तब भी देश का नुकसान ही कर रही हैं!!! जिसके पीछे उसका काला भूतकाल जवाबदेह है। क्योंकि उसीके सहारे आज की सत्ता अपने गुनाह छिपा लेती हैं। हमने एक दफा लिखा था कि – पिछली सरकारों के गुनाह वर्तमान सरकारों के लिए आर्शीवाद होते हैं।

हर हिंसक आंदोलन के समय और उसके पश्चात कानूनन कार्रवाई ज़रूर होती हैं। आंदोलन के समय कानून-व्यवस्था के नाम पर कार्रवाई होती हैं और आंदोलन के पश्चात किसी दूसरे मुद्दे पर। लेकिन हिंसा है कि कभी रुकती नहीं। पंचकुला हिंसा, जिसे राम-रहीम हिंसा भी कहते है, अदालत ने आदेश दिया था कि डेरा से सारा नुकसान वसूला जाए। आज कोई नहीं जानता कि नुकसान वसूलने की बात कहा तक पहुंची हैं। राम-रहीम हो या रामपाल हो, हिंसा का वो दौर ताज़ा है, जिसमें नुकसान आरोपियों का नहीं बल्कि सरकारी या जनसंपत्ति का ही हुआ था। मामला गायब हो चुका है अब। नागरिकता कानून के बवाल पर भी यही होता दिखाई दे रहा है।

आंदोलन हिंसक होना चाहिए या अहिंसक यह सत्ता के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि आंदोलन किन मुद्दों को लेकर होना चाहिए यही चीज़ सत्ता तय करना चाहती है!
दरअसल, आंदोलन हिंसक होना चाहिए या अहिंसक यह सत्ता के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं। सत्ता तो यह तय करने में लगी हैं कि आंदोलन किन मुद्दों पर होना चाहिए और किन मुद्दों पर नहीं!!! भीड़ द्वारा की गई हिंसा के खिलाफ जब लोकतांत्रिक तरीके से आवाज उठी तब सवाल पूछनेवालों के ऊपर मुकदमे दायर कर दिए गए थे, फिर जब भीड़ ही हिंसा करने लगी तो हिंसा करनेवालों के खिलाफ मुकदमे!!!

भीड़ द्वारा की गई हिंसा, जिसे मोब लिचिंग कहते है उसकी तुलना आज के समय में जिस प्रकार की भीड़ हिंसा चल रही है उससे नहीं की जा सकती यह आधा सच-आधा झूठ है। लेकिन हिंसा तो दोनों में हुई। इस लिहाज से दोनों या तो गलत है या दोनों सही। दोनों गलत है तो फिर लिचिंग वाली समस्या को लेकर सत्ता का ढूलमूल रवैया असंवैधानिक था, दोनों अगर सही है तब आज की हिंसा के प्रति सत्ता का रवैया असंवैधानिक साबित होता है।  

लोकपाल आंदोलन के दौर में बहुत कुछ लिखा था सोनपापड़ी गैंग के विरुद्ध। कांग्रेसी मंत्रियों का अहम, अमर्यादित भाषा, निहायती हल्के तर्क, खुद को राजा समझ लेने की गलती...। वो आंदोलन अहिंसक था, किंतु उनके दौर में भी सैकड़ों आंदोलन हुए, जो हिंसा-आगजनी की भेंट चढ़े। हमने उनके समय उसी मसले को लिखा था, जो लोकतंत्र में महत्वपूर्ण था और है भी। उस समय की सत्ता का जनता के प्रति असंवेदनशील रवैया, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कई गैरराजनीतिक संगठनों के प्रति हिटलरछाप कार्यशैली, इसे लेकर हमने उस वक्त भी सवाल उठाए थे। लेकिन तब जो लोग साथ थे वे आज दूसरे छौर पर खड़े है! कांग्रेस के समय भी छात्र-किसान-समाज के अलग अलग वर्गों को सड़कों पर पीटा गया था। आज सत्ता बदली हैं लेकिन वो सारे लोग आज भी सड़कों पर पीटे जा रहे हैं। जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिकों को पीटने का दुस्साहस भी इसी सत्ता ने कर दिखाया! शायद कांग्रेस ने जो नहीं किया था वो इन्हें करना था इसलिए! कांग्रेस हो या बीजेपी, इनके दौर में हुए तमाम आंदोलनों की तस्वीरें देख लीजिए। आकलन बता ही देगा कि टूथपेस्ट वही है, नाम नया है!

जंतर-मंतर पर शांतिपूर्ण तरीके से भूख-हड़ताल कर रहे पूर्व सैनिकों को सरकारी पुलिस ने सरेआम पीट दिया था
सत्ता का काम (चाहे कांग्रेस की हो या बीजेपी की) मांगों या आंदोलनों के दौरान समूह के साथ वार्तालाप करने का कम ही रहा है। सत्ता कोई भी हो, वो उठी हुई आवाज को कुचलना चाहती हैं, दबाना चाहती हैं। इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दे तो बहुतेरे समय में सत्ता की यही कार्यशैली दिखाई देती हैं। मोदी-1 के समय ओरोप आंदोलन के समय पूर्व सैनिकों को जंतर-मंतर पर पीटा गया था, जबकि वे हिंसा कर ही नहीं रहे थे! वो तो महीने भर से शांतिपूर्ण तरीके से भूख-हड़ताल पर थे। पीटा इसलिए गया था, क्योंकि दूसरे दिन 15 अगस्त का पर्व था। उस दिन लाल किले पर साहब का भाषण हो रहा हो और इधर इस देश के पूर्व सैनिक ही भूख हडत़ाल पर बैठे हो यह दृश्य ठीक नहीं लगा होगा! उन्हें खदेड़ने की कोशिशें हुई, सैनिकों ने मना किया। फिर क्या था। जिन मेडलों पर हम नाज़ किया करते है वे सड़कों पर बिखरे पड़े मिले। पूर्व सैनिकों के कपड़े तक फाड़ दिए थे सरकारी पुलिस ने।

पूर्व सैनिकों का आंदोलन महीनों तक चला, लेकिन राष्ट्रवादी सरकार से कोई नहीं गया उनके साथ बात करने के लिए!!! लेकिन इन्हीं दिनों क्रिकेटर हरभजनसिंह की शादी थी, जिसमें पीएम मोदी ज़रूर चले गए थे!!! और यही नेता देशभक्ति की मार्केटिंग किया करते हैं!!! शिखर घवन के टूटे अंगूठे पर पीएमओ से ट्वीट आ जाता है, लेकिन सैनिकों की मांगों और अस्पतालों में मारे गए बच्चों को यह नसीब नहीं होता। देखिए न, खराब खाने और खराब रवैये को लेकर जिन्होंने पीएम से शिकायत की थी वो सारे सैनिक अनुशासनहिनता का दंड झेल गए।

भीड़ हिंसा को लेकर जब पीएम को पत्र लिखा तो लिखने वालों के खिलाफ मुकदमा क्यों दायर कर दिया गया था? क्या पत्र लिखना भी हिंसा माना जाता है?
भीड़ द्वारा की गई हिंसा को लेकर काफी बवाल हो चुका है। इस मसले पर कई बड़े लोगों ने पीएम को खुला पत्र लिखा। फिर क्या था। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश पर 50 से ज्यादा हस्तियों पर मुकदमा दर्ज हो गया!!! एफआईआर दर्ज करने का आदेश आ गया!!! पत्र लिखा तो सत्ता ने कह दिया कि पत्र से देश की छवि खराब हुई हैं और पीएम की उपलब्धियों को हानि पहुंची हैं!!! अरे भाई... कौन कहता है कि बीजेपी और कांग्रेस अलग है। उपलब्धियां भी बड़ी नाजुक हैं इनकी, जो पत्र लिखने भर से बौनी हो जाती हैं!!! बताइए, बोलकर सवाल करे या लिखकर सवाल करे, सत्ता इसे देश से जोड़ देती हैं। सवाल तो सरकार से था, लेकिन चालाकी से सरकार ने खुद को ही देश घोषित कर दिया! गनीमत है कि फिर मुकदमा वापस लेने का आदेश आ गया।

पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को डिटेन कर सरकार साबित क्या कर रही है? जबकि उपद्रवियों और हिंसा के लिए बदनाम लोग तो पहले से ही सरकार-प्रशासन और पुलिस की नजर में होते हैं!
वैसे यह सवाल नेताओं से पूछना बेवकूफी है। क्यों? क्योंकि जिनके ऊपर धार्मिक उन्माद जगाने के, भीड़ को उकसाने व भड़काने के, हिंसा करवाने के मामलें दर्ज हुए वे सारे ही तो तमाम राजनीतिक दलों में नेता बने हुए है!!! अब इन्हीं से ऐसे सवाल पूछना बेवकूफी ही हैं। लेकिन मोदियाबिंदों और सोनपापड़ियों, आप दोनों जिन्हें अपने माता-पिता से भी ज्यादा महत्व देते हो उन नेताओं से ही पूछ लेते है। सरकार-प्रशासन और पुलिस, इन सबके पास बदनाम और क्रिमिनल हिस्ट्रीशीटरों की सूची होती हैं, जानकारी होती हैं। हमने कई दफा देखा है कि ऐसे लोगों को कुछ संवेदनशील मौकों पर डिटेन भी किया जाता है। हिंसा होती हैं तो इन्हें ही तो गिरफ्तार किया जाना चाहिए। लेकिन बजाय इसके सत्ता उन्हीं को डिटेन किए जा रही हैं जो सवाल पूछते है, मौलिकता और तर्कों के तीर चलाते है। सत्ता को सवाल और तर्क पसंद नहीं होते। तभी तो इंदिरा के जमाने में इंदिरा ने गैरलोकतांत्रिक तरीका आजमाया और आज मोदी सत्ता उसी राह पर कायम हैं।

बताइए, पत्रकारों को पुलिस नागरिकता बिल विरोध हिंसा के बाद गिरफ्तार कर रही थी! कही पर पत्रकारों को फूटेज लेने से रोका गया। किसीने फूटेज ले लिया तो कैमरा छीन कर डिलीट कर दिया गया! एक जगह तो बीजेपी दफतर के पास होटेल में बैठे पत्रकार को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। पत्रकार द हिंदू से था, वही अख़बार जिसने रफाल के कथित घोटाले पर सिलसिलेवार रपटें छापी थी। गिरफ्तारी के बाद बात बिगड़ी तो सीएमओ की दखल के बाद पुलिस ने छोड़ दिया। न्यूज़ रिपोर्ट का संकलन करे तो पता चला कि पुलिस ने हिंसाखोरों और बलवाइयों को कम, सामाजिक कार्यकर्ता-बुद्धिजीवी आदि को ज्यादा निशाने पर लिया। देखिए न, जेएनयू में कॉलेज की लाइब्रेरी तक में पुलिस घुस आई। जेएनयू हिंसा में सप्ताहभर बाद भी हमलावरों को पुलिस ने नहीं पकड़ा था, उधर सरकार के कानून का तार्किक, अहिंसक और लोकतांत्रिक विरोध कर रहे लोगों को डिटेन करने की सैकड़ों खबरें सामने आ रही थी। यहां तक कि सोशल मीडिया में कानून का विरोध कर रहे लोगों को भी पुलिसियां कहर ढाया गया।

परिणीति चोपड़ा या सुशांत सिंह वाला मामला भी हुआ। अंत में दीपिका पादुकोण जेएनयू हिंसा के बाद विश्वविद्यालय पहुंची तो बीजेपी के नेता और उनके समर्थकों ने बोयकोट दीपिका ट्रेंड करवा दिया। यहा तक कि अभिनेत्री को टुकड़े-टुकड़े गैंग कह दिया। उनकी आनेवाली फिल्म का विरोध करने के मूर्खतापूर्ण आहवान होने लगे। फिर शाम को मंत्रीजी ने कह दिया कि हम उनकी फिल्म का विरोध नहीं करेंगे, लोकतंत्र में सबको अपनी अपनी बात रखने का हक्क है। मैं तो कहता हूं कि अगर दीपिका पादुकोण जेएनयू विजिट को सत्ता के पक्ष में बता दे तो दिनभर फेफड़े फाड़नेवाले लोग इनकी फिल्म सुपर-डुपर हिट करवा देंगे। वैसे बॉलीवुड वाले लोग 2019 के चुनाव से पहले बोल चुके है कि हमें जो पैसा देगा उनके पक्ष में बोलेंगे या प्रचार करेंगे। लिहाजा बॉलीवुड वाले दोगलों की बात छोड़ देते हैं, लेकिन बात राजनीतिक दोगलों और उनके मेंढकों की ज़रूर हैं। दिनभर फिल्मों का विरोध करो और रात के शो में उसी फिल्म को देखने चले जाओ – इस प्रकार की लठैतपंति से ही देश विश्वगुरु बन पाता होगा!!!

पुलिस सरकारी आदेश के बाद बुद्धिजीवियों को दबोचने में लग गई। सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल भेजा जाने लगा। यह सब तो पाकिस्तान जैसे कमजोर देशों में होता है। दरअसल, कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक की सरकारों का यह नायाब तरीका है, जिसमें सरकारें उनको फायदा करानेवाले संगठनों या एनजीओ को छूट देती हैं, लेकिन जिस किसीने सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई उनको बैन वाले लिस्ट में डाल दिया जाता हैं। देश को यह बता दिया जाता है कि फलांने फलांने नियम का भंग हुआ था या इनसे देश को ख़तरा था। सोचिए, कांग्रेस के जमाने से जाकिर नाईक जैसा कट्टरवादी मुंबई से लेकर देश के कई शहरों में आतंकवादियों के समर्थन में प्रवचन देता रहा। मुंबई पुलिस ने छानबीन में आगाह भी किया। फिर सरकार बदली और बीजेपी सत्ता में आई। नयी सत्ता भी मुंबई पुलिस की पुरानी रिपोर्ट के सहारे सख्ती से आगे नहीं बढ़ी। फिर नाईक देश छोड़कर चला गया और उसके पश्चात नयी सरकार विदेशों से बिनती करने लगी कि हमें सोंप दीजिए, हमारा गुनाहगार है। जो स्पष्ट अपराधी है वो आराम से देश छोड़कर भाग जाते हैं, जो समाज के लिए लड़ते हैं उन्हें सरकार पकड़-पकड़ कर जेलों में ठूंस देती हैं!!!

जब देश का सर्वश्रेष्ठ विपक्ष ही सत्ता पर हैं तब उसकी मंशा या नीतियों के खिलाफ विरोध कितना टिक पाएगा यह भी सवाल हैं
जब असम से नागरिकता बिल का विरोध देशभर में फैलने लगा और छात्र स्वयंभू सड़कों पर आने लगे तो कइयों ने लिख दिया कि क्या यह छात्र-आंदोलन की शुरुआत है? बहुत कुछ लिखा गया। किंतु व्यक्तिगत रूप से लगता है कि जब देश का सर्वश्रेष्ठ विपक्ष ही आज सत्ता पर हैं तो फिर उनकी मंशाओं या नीतियों के खिलाफ विरोध ज्यादा टिक नहीं सकता। जिस दल ने हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा विरोध प्रदर्शन किए या फिर कराए उनको इससे टकराना आता ही होगा। जिस दल ने अनेकों बार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आंदोलनों में सह्योग दिया हो उन्हें आंदोलनों से निबटना आता ही होगा। राष्ट्रवाद जिनका हथियार है, धर्म जिनका सहारा है, मीडिया जिनके इशारे पर जगता-सोता है, उनसे तर्कों-मुद्दों-दलीलों की लड़ाई लड़ना फिलहाल तो असंभव सा काम लगता है। मैं ना आशावादी हूं, ना निराशावादी, मैं तो हकीकतवादी हूं यह ज़रूर नोट करें।

हमने देखा कि केवल मुस्लिम ही नहीं, गैर-मुस्लिम लोगों ने भी नागरिकता कानून के विरोध में हिस्सा लिया। लेकिन सरकारी और निजी संसाधनों का इस्तेमाल करके इसे केवल एक धर्मविशेष का विरोध जताने की सफल कोशिशें हुई। हिंसक प्रदर्शनों से ज्यादा तादाद अहिंसक आंदोलनों की रही, लेकिन फलक पर हिंसा की तस्वीरें सजाई गई, जिससे मुल मुद्दे मर जाए। गैर-मुस्लिम लोगों ने, सैकड़ों हिंदू लोगों ने, छात्रों ने, बुद्धिजीवियों ने, कार्यकर्ताओं ने मोदी सत्ता के नागरिकता कानुन के पीछे संविधान को नुकसान पहुंचाने की मंशा वाला एंगल उभारने की कोशिशें की और संविधान बचाओ के नारे के साथ कानून का विरोध किया। बदले में सत्ता खुद ही सड़कों पर उतर आई और बीजेपी-संघ ने खुद ही संविधान बचाओ वाली रैलियों का आयोजन कर दिया! गजब था कि सत्ता से जुड़े लोग ही संविधान बचाओ वाला प्रदर्शन करने लगे, जैसे कि बीजेपी-संघ विपक्ष में हो, सत्ता में कोई और हो तथा सत्ता देश के संविधान को खतरे में डाल रही हो! उनसे सवाल पूछा कि भाई संविधान किससे बचाना है, आप खुद ही तो सत्ता में हो। वे व्हाट्सएप टाइप जवाब देने लगे, जिसका कोई मतलब ही नहीं था। सत्ता के सामने लोग सड़कों पर उतरे तो सत्ता ने अपने संसाधनों और संगठनों को ही सड़कों पर उतार दिया।

सत्ता के सामने जो स्वयंभू विरोध आंदोलन शुरु हुआ वो चलेगा कितने दिन? समय राजनीति के पास हैं, आंदोलनकारियों के पास नहीं हैं। ऊपर से पिछले छह सालों से राजनीति में विपक्ष नामक कोई तत्व दिखता तो है नहीं। उधर बीजेपी-संघ और उनके संगठनों का पूरा जीवन ही विरोध में बीता है, उनका ही विरोध कितना चल पाएगा? उपरांत इनके काम करने का तरीका पूरी तरह राष्ट्र-धर्म-स्वाभिमान आदि चीजों पर आधारित है, जहां तर्क-दलीलें-मुद्दे दूर दूर तक नहीं होते, उनसे निबटना आसान काम नहीं है। व्यक्तिगत रूप से लगता है कि जिनके पास संसाधन-मीडिया-संगठन-बूथ लेवल की पहुंच-विरोध करने का दशकों का अनुभव-राष्ट्रवाद और धर्म जैसे हथियार हो उनसे पार पाना नामुमकिन सा है। चमत्कार होते रहते है, लेकिन चमत्कार भी यूं ही नहीं होते यह भी एक सच है।

प्रदर्शन दो तरीकों से हो रहे थे, मीडिया को क्या ऊपर से कोई आदेश था कि एक ही तरीके को इतनी हवा दे दो कि दूसरा तरीका ऊपर उठ ही ना पाए
इन दिनों नागरिकता बिल को लेकर दो तरह के विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे। एक था हिंसात्मक और दूसरा था अहिंसक। एक गरम दल था, दूसरा नरम दल। कुछ तथ्य तो यहां तक कह गए कि शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलनों की तादाद हिंसक प्रदर्शनों से कही ज्यादा थी। समर्थन में भी प्रदर्शन हुए और विरोध में भी। वीडियो या तस्वीरें खूब चली। सब ने अपने अपने हिस्से के वीडियो या तस्वीरें देखी या दिखाई गई। वीडियो के छोटे से क्लिप के जरिए समर्थक और विरोधियों ने अपने अपने दावें ठोके। लेकिन पूरे वीडियो देखने की जेहमत किसीने नहीं उठाई। खैर, किंतु कहीं पर प्रदर्शनकारी पुलिस पर पथराव करते दिखे, कहीं पुलिस बर्बरता की सारी सीमाएँ लांधती दिखी। गजब यह रहा कि जो पुलिस यह कह रही थी कि हमने गोली नहीं चलाई वही पुलिस गोली चलाने की बात स्वीकार करने लगी। क्योंकि वीडियो तो हर तरफ से लिये गए थे।

मुझे नहीं पता कि सत्ता को इसका अंदाजा था या नहीं, किंतु असम से जो शुरु हुआ वो यूं देशभर में फैलेगा इसका अंदाजा देश के ज्यादातर लोगों को तो नहीं था। छात्रों और युवाओं ने जिस तरह से हल्ला बोला, कइयों को वो पुराना दौर याद आने लगा। हिंसाखोरों की हिंसा भी दिखी, पुलिस की बर्बरता भी सामने आई। हिंसक विरोध का कुछ दिनों का बवाल भी हुआ, वहीं शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को लंबा दौर भी चला। पुलिस को फूल देनेवाली तस्वीर ने सुर्खियां बटोरी।

इन सबके बीच मीडिया की पक्षता तथा निष्पक्षता का आकलन उतना ही स्पष्ट दिखा, जितना लोकसभा-विधानसभा चुनावों में सत्ता के पक्ष में ट्रेंड करवाने के काम को लेकर दिखता रहा है। जिस मीडिया को तमाम सरकारों के दौरान विपक्ष की भूमिका में होना होता है वो सालों से सत्ता का प्रवक्ता बना हुआ है। मीडिया को समर्थन और विरोध, दोनों को विश्लेषित करना चाहिए था। लेकिन मीडिया में सत्ता के पक्ष में काम करने की होड़ दिखाई दी। विरोधी तर्कों या आलोचनाओं को मीडिया ने देशविरोध करार दे देने का मन बना लिया। लोकसभा चुनाव हो या विधानसभाओं के चुनाव, मीडिया का सत्ता के पक्ष में खुलकर काम करना सिद्ध हो चुका सच है। जैसे सूचना-प्रसारण मंत्रालय से कोई आदेश आया हो कि यह दिखाना है, यह नहीं दिखाना है... मीडिया वैसे ही चलता रहा। अब तो लोग खुलकर कहते-लिखते है कि पहले अखबार छपता था फिर बिकता था, अब तो बिकने के बाद छपता हैं!!!

पीएम मोदी समेत बड़े बड़े नेताओं ने लोकतंत्र की विविधता को सम्मान देने के बजाय व्हाट्सएप विश्वविद्यालय वाली दलीलें देकर ऊंचे मानकों को ध्वस्त ही किया
प्रधानमंत्री मोदी अपने बयानों में भ्रामक दावे, दोमुखी बातें, झूठे तथ्य आदि को लेकर काफी आगे निकल चुके हैं। भारत के शायद एकमात्र प्रधानमंत्री, जो लाल किले से क्या संसद तक से बार-बार झूठ बोल जाते है!!! सोचिए, उनका भाषण पूरा होने के बाद गूगल पर उनके दावों को लेकर फैक्ट फाइंडिग करना सामान्य सी बात हो चुकी हैं!!! संघ के मेरे मित्र तक पीएम मोदी द्वारा झूठे और भ्रामक तथ्यों को परोसने की आदत को स्वीकार कर जाते है। (वैसे स्वीकार करने के बाद वो आलोचना नहीं करते, बल्कि सहजता से लेते है, जैसे कि अच्छा संस्कार हो।) नागरिकता बिल का विरोध हुआ और विरोध में हिंसा हुई तो पीएम सरीखा आदमी कह गया कि विरोध प्रदर्शनों में आग लगाने वाले कौन हैं वो कपड़ों से ही पता चल जाता है।

वैसे कपड़ें बदल-बदल कर, वेश और भेष बदलकर दंगे कराना या हिंसा फैलाना बीजेपी और कांग्रेस दोनों की पहचान है। पीएम को कपड़ें बदलने वाली बात पर ज्यादा स्पष्टीकरण देना चाहिए था। क्योंकि बीजेपी-संघ के लोग बुर्कों में पकड़े जाते हैं और कांग्रेसी तथा अन्य लोग तिरंगों वाले टेंटू और शर्ट के साथ!  

कर्णाटक राज्य के पर्यटन मंत्री सीटी रवि कह गए कि बहुसंख्यक भड़के तो गोधरा जैसे हालात बन जाएंगे। पीएम का आग और कपड़ें वाला बयान निहायती गैरज़िम्मेदाराना बयान था, लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके। इन्होंने सरकारी नीतियों का तार्किक व लोकतांत्रित तरीके से विरोध कर रहे लोगों को टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल तक कह डाला। पीएम फूल-टू व्हाट्सएपिये मोड़ में रहने लगे। एक अच्छा नेता अपने लोगों के बीच शालीनता के मानक को गढ़ता है, इधर मोदी इसे ध्वस्त करने में मानते है। पूर्व सेनाध्यक्ष का नेतृत्व कैसा होना चाहिए वाला उपदेश मोदी जैसे नेतृत्व को लागू नहीं होता यह अघोषित अध्यादेश हैं।

मोदी-शाह जैसे बड़े बड़े नेता सरकार के विरोध को पाकिस्तान-परस्त घोषित कर देते हैं, आतंकवादियों से जोड़ देते हैं। मोदी ने तो सदन में नोटबंदी का विरोध कर रहे विपक्ष को भी आतंकवादियों का समर्थक कह डाला था!!! पूर्व सेनाध्यक्षजी, नेतृत्व क्या ऐसा ही होना चाहिए? जब शीर्ष नेतृत्व ही स्तर को गिराने पर आमादा हो तो फिर निचले स्तर का नेतृत्व स्तर को कहां गिराएगा सोच लीजिए। फिर लठैत तो स्तर को गिराने के बाद कहीं पर दफन ही करते दिखाई देंगे। जो रोग कांग्रेस को था, वही बीमारी बीजेपी को भी हैं। यह बात और है कि बीमारी का नेतृत्व शीर्ष स्तर से हो रहा है!

क्या मोदी सत्ता की दोमुखी शैली और यू-टर्न लेने की स्थायी पहचान नागरिकता बिल के विरोध के लिए ज़िम्मेदार हैं? मुस्लिम समुदाय की अपनी चिंताएँ है किंतु गैर-मुस्लिम लोग बड़ी तादाद में सड़कों पर क्यों आए? पीएम और गृहमंत्री समेत सरकार को सफेद झूठ का सहारा क्यों लेना पड़ गया?
नागरिकता बिल को लेकर भ्रम की स्थिति तो है। पीएम कहते हैं कि विपक्ष भ्रम फैला रहा है। पीएम फिफ्टी पर्सेंट सही है, लेकिन शेष आधे बचे भ्रम के लिए उनकी शैली भी ज़िम्मेदार हैं। मोदी-1 का कार्यकाल सौ फिसदी यू-टर्न सरकार के रूप में दर्ज हो चुका हैं। मोदी-शाह और उनकी सरकार आधा सच-आधा झूठ वाली शैली लेकर चलती हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह सरकार अपने खुद के (जिनमें उनके अपने संगठन भी हैं) तंत्र को ही लोकतंत्र मानती हैं और फिर जबरन मनवाती भी हैं। सैकड़ों गैर-मुस्लिम लोग (जिनमें सैकड़ों हिंदू लोग है, किंतु लोहे की सत्ता के सामने इनकी आवाजें उठ नहीं पाती) इसी सरकार और उनके संगठनों को ही टुकड़े-टुकड़े गैंग मानते हैं। मोदी-शाह और उनकी सरकार के बारे में एक धारणा स्थापित हो चुकी हैं कि यह सरकार संविधान को मूल रूप में नहीं बल्कि अपनी मान्यताओं के रूप में गढ़ना चाहती हैं। नागरिकता बिल का गैर-मुस्लिम समुदायों ने भी जमकर विरोध किया, जिसके पीछे एक वजह यह भी है। गैर-मुस्लिम समुदाय के दिमाग में धारणा यह भी है कि मोदी सत्ता चाहे जितने भी दावे करे, उनका यह कदम दूसरी प्रस्तावित योजनाओं के लिए पहली शुरुआत है। कई हिंदू खुलकर कहते हैं कि मोदी सत्ता नागरिकता बिल के जरिए अपनी उस पुरानी मान्यताओं को, जो लोकतंत्र के अनुरूप नहीं हैं, को अंतिम रूप दे रही हैं।

मुस्लिम समुदाय की अपनी चिंताएँ है। मुझे नहीं पता कि वह चिंताएँ ठीक है या नहीं। किंतु गैर-मुस्लिम समुदाय की चिंताएँ मोदी सत्ता की मनमानी शैली को लेकर भी है। हिंसा से मुद्दे मर जाते हैं, हिंसा आंदोलनों की हत्या करती हैं। सत्ता इसीका फायदा उठाती दिखी। गोदी मीडिया में हिंसक तस्वीरें और समुदाय विशेष के चेहरे लगातार दिखाकर कुछ और ही जताने की कोशिशें होती दिखी। हिंसा हुई तो सत्ता को यह करना ही था, इसमें सत्ता का दोष दूसरे क्रम पर है, हिंसा का पहले क्रम पर। लेकिन नागरिकता आंदोलन के जितने आंकड़े उपलब्ध है, अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलनों की तादाद कहीं ज्यादा थी यह एक चौंकाने वाला सच है! मीडिया में मुसलमानों के चेहरे ज्यादा दिखे, जबकि गैरमुस्लिम समुदायों की तस्वीरें काफी कम फैली। असम से लेकर देश के 12 से भी ज्यादा राज्यों में अब तक प्रदर्शन हो रहे हैं। कहीं रातभर प्रदर्शन होते रहे, कहीं दिन में, कहीं शाम को। यह क्रम अब भी जारी है और वो भी बिना हिंसा के! लेकिन हिंसा के दृश्यों ने मुद्दों को मार डाला।

मीडिया सरकार के साथ खड़ा हैं, तभी तो वहां नागरिकता बिल के समर्थन में खुलकर कार्यक्रम चलते हैं। समर्थन में कार्यक्रम चलने चाहिए, लेकिन विरोध तथा आलोचनाओं को मीडिया प्रथम जगह मिलनी चाहिए। मीडिया को सदैव विपक्ष बने रहना चाहिए। किंतु वहां पर नागरिकता बिल के विरोधियों को पाकिस्तानी या देश के विरोधियों के रूप में पेश किया जाता हैं!!! सत्ता के पास ढेरों संसाधन होते हैं, जिससे वे स्थितियों को किसी एक रंग का दिखाने की सफल कोशिशें करती हैं।

केब हो, एनआरसी हो या एनआरपी हो, भ्रम फैलाने के लिए विपक्ष से ज्यादा सत्ता ज़िम्मेदार है। पीएम सरीखा आदमी व्हाट्सएप टाइप दलीलें देकर देश को संबोधित करने लगे तो फिर सवाल तो उठेंगे ही। इससे भी आगे यह है कि पीएम सरीखा आदमी बड़ी आसानी से सफेद झूठ बोलने के लिए प्रसिद्ध हो गया हो तो फिर अविश्वास-भ्रम आदि का होना जायज है, इसमें विपक्ष से ज्यादा सत्ता को दोष है।
डिटेंशन सेंटर वाला सफेद झूठ ही देख लीजिए। भारत की राजधानी दिल्ली में पीएम मोदी ने रैली की और रैली में देश को बताया कि डिटेंशन सेंटर अफवाहें है इसका कोई आधार नहीं है। इन्होंने तो अपने अंदाज में कहा कि, डिटेंशन सेंटर जैसी कोई चीज़ नहीं हैं। यह झूठ है, झूठ है, झूठ है। पीएम सरीखा शख्स बता रहा है तो फिर डिटेंशन सेंटर जैसी चीज़ नहीं होगी यही अंतिम सत्य होना चाहिए था। अपने भाषण की इस लाइन में तीन बार झूठ है- झूठ है- झूठ है बोला, लेकिन अंतिम नतीजा यही बाहर आया कि पीएम ने चिल्ला-चिल्ला कर झूठ को सच साबित करने का अनैतिक और गैरसांस्कृतिक भद्दा प्रयास किया था। डिटेंशन सेंटर पर पीएम मोदी का दावा और उसके विरुद्ध सामने आए ढेरों सच!!! पीएम मोदी झूठे साबित हुए। भला ऐसे में सत्ता पर लोग अविश्वास ही तो करेंगे। भ्रम फैलाने का दोष तो सत्ता पर ही आता है न।

जनवरी 2019 में ही मोदी सत्ता ने राज्य सरकारों को मॉडल डिटेंशन सेंटर का मैनुअल भेजा था। असम में डिटेंशन सेंटर्स है, जहां 900 से ज्यादा लोग डिटेन हैं। पीएम मोदी ने न केवल डिटेंशन सेटर्स को अफवाह बताया था, बल्कि चिल्ला-चिल्ला कर तीन बार झूठ है, झूठ है, झूठ है बोला। आखिर में पीएम का बयान ही झूठ है साबित हो गया!!! क्योंकि देशभर की कई जगहों में चल रहे या बनाए जा रहे डिटेंशन सेंटर के फोटो छाने लगे। मोदी ने तो विरोधियों को अर्बन नक्सल कहकर रैली में व्हाट्सएपिया भाषण ही दे दिया। असम के 6 डिटेंशन सेंटर की तस्वीरें सामने आई। मोदी सरीखे शख्स का चिल्ला-चिल्ला कर फेंका गया झूठ तब साबित हुआ जब पता चला कि मोदी सत्ता के दौरान ही संसद में डिटेंशन सेंटर को लेकर चर्चा हुई थी और तब सरकार ने ही कहा था कि हमने राज्य सरकारों को डिटेंशन सेंटर के लिए लिखा है!!!

मनमोहन काल में 2009 तथा 2012 में तथा मोदी काल में 2014 तथा 2018 में राज्य सरकारों को इसके बारे में बाकायदा लिखत रूप से कहा गया था और पीएम सरीखा आदमी चिख-चिख कर देश को सफेद झूठ बता देता है कि ऐसी कोई चीज़ है ही नहीं!!! बताइए, अब भ्रम और झूठ कौन फैला रहा है? विपक्ष या सत्ता? 2 जुलाई 2019 को गृह राज्य मंत्री जी कृष्ण रेड्डी ने कहा था कि फलांनी फलांनी जगहों पर डिटेंशन सेंटर बनाए गए हैं। इधर दिसम्बर 2019 में देश का पीएम कहता है कि यह झूठ है!!! अगस्त 2019 में महाराष्ट्र में फडणवीस सरकार ने ही डिटेंशन सेंटर बनाने के लिए जमीन आवंटित करने की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसके लिए नोटिफिकेशन भी जारी हुआ था।

डिटेंशन सेंटर पर पीएम मोदी का खुल्लम-खुल्ला झूठ बोलना सामान्य सी बात है क्या? पीएम झूठ बोल देता है यह कौन से सनातन धर्म और किस लोकतंत्र की संस्कृति है? देशभर में फैले डिटेंशन सेंटर की तस्वीरें सामने आई। कुछ बन चुके थे जिसमें बंदियों को रखा भी गया था, कुछ निर्माणाधीन भी थे! फंड केंद्र सरकार से मिला था यह तथ्य भी साबित हो गया!

एनआरसी और एनपीआर को लेकर मोदी और शाह की दोमुखी बात करना भी झूठ और भ्रम फैलाना का काम ही तो कर गया। सरकार ने सदन में कुछ कहा, सदन के बाहर रैलियों में कुछ और ही कह दिया!!! मोदी सरकार की वेबसाइट पर 31 दिसम्बर 2019 तक तो यही लिखा था कि एनआरसी तैयार करने की दिशा का पहला कदम एनपीआर है। यही नहीं, सरकार भी यह चीज़ संसद में भी कह चुकी थी। लेकिन रैलियों में और मीडिया इंटरव्यू में कहा कि एनआरसी और एनपीआर, दोनों अलग-अलग है! झूठ पे झूठ मोदी-शाह ने ही बोला, फिर भ्रम और अविश्वास का दोष विपक्ष पर कैसे मड़े?

मोदी-शाह सड़कों पर कह रहे थे कि एनपीआर और एनआरसी के बीच कोई संबंध नहीं हैं। उधर एनपीआर के आधार पर ही एनआरसी होगा... यह मोदी सरकार ने बाकायदा 8 बार कहा था और वो भी संसद के भीतर!!! 8 जुलाई 2014, 15 जुलाई 2014, 22 जुलाई 2014, 23 जुलाई 2014 तथा 29 नवंबर 2014 को तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने, 28 जुलाई 2015 को केंद्रिय गृह राज्य मंत्री हरिभाई पाथीभाई चौधरी ने, 13 मई 2015 और 11 नवंबर 2016 को किरण रिजिजू ने कहा था कि, एनपीआर भारत के हर सामान्य नागरिक की नागरिकता की स्थिति को सत्यापित करके एनआरसी को बनाने की दिशा में पहला क़दम है।

सरकार बाकायदा संसद में 8 से 9 बार स्पष्ट कहती है कि एनपीआर एनआरसी के लिए पहला कदम है, यही बात सरकारी वेबसाइट में लिखी हुई हैं, बावजूद इसके मोदी और शाह रैलियों में खुल्लम-खुल्ला झूठ बोले जा रहे थे!!! ऊपर से नौ सौ चूहे मारकर बिल्लि मंदिर-मस्जिद को चली और कहने लगी कि भ्रम विपक्ष फैला रहा है! सनातन धर्म में ऐसे झूठे लोगों के लिए कौन सा सम्मान है कोई तो बता दो।

एनआरसी को लेकर भी सत्ता दोमुखी नहीं तीनमुखी बातें कर रही हैं!!! राम माधव कहते हैं कि दो साल में एनआरसी आएगी, नकवी कहते हैं कि अभी इसकी कोई चर्चा नही हुई हैं, अमित शाह कहते हैं कि एनआरसी लेकर आएंगे!!! दोमुखी बातें कांग्रेस किया करती थी, हम तो तीनमुखी बातें करते है भई!!! हो गया न विकास? ऊपर से एनआरसी, एनपीआर सबकी बातें बाकायदा-आधिकारिक रूप से हो रही है और सरकार हर स्तर पर अलग-अलग बयान दे रही हैं।

यू-टर्न सरकार का तमगा, फेंकने की आदत, चुनाव प्रचार में तो कुछ बातें यूं ही कह दी जाती हैं वाला मोदी का लहजा, वो तो जुमला था से नेगेटिव पहचान बना चुके शाह... अब डिटेंशन सेंटर और एनपीआर-एनआरसी पर दौमुंही बातें। भ्रम कहो, झूठ कहो या रायता कहो, सारी चीजें सरकार खुद ही कर रही थी।

प्रशासन कश्मीर हो या शेष भारत, सभी जगहों पर सत्य-दर्शन को रोकने पर क्यों उतावला-पन दिखाता हैं? इंटरनेट कहता है कि मैं तो किसी प्रदर्शन में भाग नहीं लेता तो फिर मुझे क्यों बंद कर रहे हो?
नौकरशाह सत्ता के इशारों पर चलता हैं। एक प्रमाणित सर्वे बताता है कि दुनिया में भारत ही वो देश है जहां इंटरनेट सबसे ज्यादा बार बंद कर दिया जाता है! हमारे गुजरात में तो बीच में डेढ़-दो साल तक यही फैशन चल पड़ा था। गुजरात ही नहीं, भारत के तमाम राज्यों में यह मंजर है। कश्मीर में दुनिया का सबसे लंबा इंटरनेट बैन का रिकॉर्ड हो चला है, जो अब भी जारी है। इंटरनेट सूचना के प्रसारण और जानकारियों को साझा करने का मंच है। फेक न्यूज़-अफवाहें आदि को रोकने के लिए कुछ घंटों का बैन ठीक है, लेकिन अब तो दूसरी चीजों के हेतु बैन करने का फैशन चल पड़ा है। पहले असत्य रोकने के लिए बैन किया जाता था, किंतु अब लंबे समय का बैन इसलिए है ताकि सत्य-दर्शन ना हो पाए!!!

बेचारा इंंटरनेट तो कहता है कि मैं तो किसी प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेता फिर बार मुझे ही क्यों उठाकर बंद कर देते हो आप लोग? धारा 144 और इंटरनेट बैन, इन दोनों का आंकड़ा ज़रूरत के हिसाब से बहुत ही बड़ा है। धारा 144 लगना तो देश में बहुत ही सामान्य सी बात हो चली हैं। इंटरनेट बैन अगर एकमात्र हथियार है तो फिर ये हास्यास्पद चीज़ ही है। देखिए न, जब हिंसा नहीं होती तब सत्ता से जुड़े आईटी सेल, उनके फर्जी वेबसाइट, फर्जी व्हाट्सएप ग्रुप ही फेक न्यूज़ फैलाते रहते है और फिर किसी विवाद को सुलगाने में अपना योगदान देते रहते हैं। इनके ऊपर बैन नहीं होता, बल्कि विवाद होने के बाद जब मुद्दे का विरोध होता है तो इंटरनेट ही बैन कर दिया जाता है!!! यह कमाल की शैली हैं, जिसमें पहले तो फेक न्यूज़ फैलाओ और फिर जब उस फेक न्यूज़ को कोई काटता दिखे तो इंटरनेट ही बैन कर दो!!! यह कहकर कि कानून-व्यवस्था को ख़तरा है। उधर ख़तरा (आईटी सेल) तो बाकायदा अपनी भूमिका निभा ही चुका होता है!

छोटी सी बात पर सत्ता राजद्रोह के मामले दर्ज करने लगी, सवाल सामान्य थे लेकिन उसे राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़ने लगी, पीएम सरीखा आदमी गैंग लब्ज़ इस्तेमाल करने लगा, सिंपल से तर्क आए तो पीएम ने सवाल पूछनेवालों को आतंकी और पाकिस्तानी तक कह दिया
छोटी सी बात पर सत्ता ने राजद्रोह के मामले दर्ज करने का तो नया रिकॉर्ड ही स्थापित कर दिया। कई राज्यों में सैकड़ों लोगों के खिलाफ सीधा राजद्रोह का मामला। हो सकता है कि लोग गलत हो, किंतु उसके लिए भी एक नियत प्रक्रिया है। सत्ता ने जिस प्रकार से राजद्रोह वाले कानून का मनचाहे तरीके से इस्तेमाल किया उसे सही माने तो फिर सरकार ही अल्पमत में आ जाएगी! मोदी सत्ता ने 2014 से लेकर 2019 तक सैकड़ों ऐसे बेफिजूल के मामलों में राजद्रोह वाला हथियार उठाया, जो अदालत तक को खारिज करने पड़ गए। पत्रकार-लेखक-सामाजिक कार्यकर्ता-राजनीतिक कार्यकर्ता-पूर्व सरकारी अधिकारी... हर कोई राजद्रोह की चपेट में आता रहा। पीएम मोदी ने खुद को ही देश घोषित कर दिया!!! पीएम की आलोचना देश की आलोचना साबित की जाने लगी! लगा कि युगों के बाद हमें पीएम नहीं कोई भगवान ही मिल गया है जिसकी आलोचना भी नहीं हो सकती!!!

पीएम सरीखा आदमी ऐसे ऐसे लोगों को फॉलो करता दिखाई दिया जिन्हें गटरछाप लोग कहा जाता था!!! फिर तो मोदी-शाह ही व्हाट्सएपिया शैली में खुलकर आने लगे। नोटबंदी पर विपक्ष ने आलोचना की तो विपक्ष को आतंकियों का समर्थक कहनेवाले पहले पीएम बने मोदीजी!!! बताइए, इससे बड़ा व्हाट्सएपिया तरीका क्या हो सकता था भला? कोई आपकी नीति की आलोचना करे तो वो आतंकियों का समर्थक? किसी दूसरे मुद्दे पर आलोचना की तो पाकिस्तान से साथ जोड़ दिया, किसी तीसरे मुद्दे पर आलोचना की तो देश के स्वाभिमान के साथ! यह सब चीजें व्हाट्सएप में होती थी, जो अब सरकार के दो मुख्य लोग खुलकर करने लगे!!! लगा कि व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के दो टोपर सरकार चला रहे हो! टुकड़े-टुकड़े गैंग लब्ज़ का इस्तेमाल दोनों टोपर करने लगे, वो भी सरेआम!!! हर सवाल को राष्ट्र से जोड़ दो, हर आलोचना को देश से जोड़ दो! पाकिस्तान को पाकिस्तानी याद नहीं करते होंगे इतना तो यह दोनों टोपर करने लगे! सोचिए, इतने बड़े नेता खुलकर कहने लगे कि फलांनी फलांनी जगह पर बीजेपी नहीं जीतेगी तो पाकिस्तान में पटाखें फूटेंगे! सत्ता में आने से पहले बातें करते थे अमेरिका की, लेकिन शरीफ की पाकिस्तानी केक ने तो कमाल ही कर दिया!!!

एक कविता से इतना डर? यह देश जब से कट्टरवाद और आतंकवाद की आलोचना करता आया है तभी से जिन तर्कों के सहारे कट्टरता और आतंकवाद को बुरा माना गया... अब इसी राह पर खुद क्यों?
जब से यह देश आतंकवाद, आतंकवादी, कट्टरता, कट्टरवादी और पाकिस्तान प्रेरित आतंकियों के खिलाफ खड़ा नजर आया तब से यह देश उन कट्टरवादियों की आलोचना एक बात पर ज़रूर करता है। बात यह कि - किसी एक लेख से, किसी एक नज्म से, किसी एक पंक्ति से इन जेहादियों को इतना डर क्या है कि वे लोग लेखन या रचना को ही खत्म करना चाहते हैं? भारत ने जब जब इन पाकिस्तानी कट्टरवादियों की आलोचना की तब तब इन मुद्दों पर ज़रूर बात की गई। सवाल पूछनेवाले, लेख के जरिए आलोचना करनेवाले, रचना के जरिए अपनी बात रखनेवाले लोग पाकिस्तानी कट्टरवादियों को पसंद नहीं आए और इन कट्टरवादियों ने इन मौलिकताओं को कुचलने का काम किया। इन्हीं चीजों को लेकर बंदूक लेकर जिहाद पर निकले खटमलों को यही कहा गया कि अरे भाई, किसीके पढ़ लेने से, किसी के लेख से, किसी के सवाल से ही आप लोग डर जाते हैं तो फिर आप तो डरपोक खटमल ही हो।

भारत तो महात्मा गांधी, सरदार पटेल, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मिसाइल मैन अब्दुल कलाम साहब का देश हैं। भारतीय मुसलमान कट्टर और धर्मांध है या नहीं, है तो कितनी हद तक, यह शोधकर्ताओं को पता होगा, मुझे नहीं। किंतु पाकिस्तान के ज्यादातर कट्टरवादियों का ज़िक्र ज़रूर है। पाकिस्तान और भारत एक ही समय में आजाद हुए, लेकिन भारत आज आसमान को चिरकर चांद और मंगल पर पहुंच चुका हैं.. उधर पाकिस्तान अब भी सरहदों पर तारें काट-काट कर दिन गुजार रहा हैं!!! यह मूल अंतर क्यों है पता है? इसका उत्तर एक ही है। उत्तर यह कि, भारत एक देश है जहां धर्म बाद में आता है और राष्ट्र पहले, पाकिस्तान एक देश है जहां राष्ट्र बाद में आता है और धर्म पहले।

जब जब पाकिस्तान के कट्टरवादियों की आलोचना होती है तो मजाक में कहा जाता है कि अरे भाई आपके यहां तो बच्ची स्कूल जाती है तब भी आप डर जाते हैं, कोई शायर सवाल उठाता है तब भी आपका ताश के पत्तों का महल टूटता नजर आता है, आप तो कुएं के मेंढक हो जो अपनी मान्यताओं को दुनियाभर में थोपने की खटमल-टाइप नाकाम कोशिशें किए जा रहे हैं। जिन तर्कों के सहारे कट्टरवादियों के कपड़ें फाड़े जाते थे, आज हमारे यहां कुछ लोग विशाल हिंदुत्व को कुएं में कैद धर्म का बाड़ा बनाने पर आमादा है।

समझ नहीं आता कि सरकार को भी यह रोग क्यों लागू हो गया है? किसीकी कविता को खतरा मानकर क्यों देश को डराया जा रहा है? हजारों सालों से यह देश है, यह भूमि है और हिंदुत्व भी हैं। सनातन काल से हिंदुत्व कभी खतरे में नहीं रहा, बस इनके आने के बाद से हिंदुत्व खतरे में आने लगा हैं!!! जिन कट्टरवादियों का मजाक यह कहकर उड़ाया जाता था कि किली मौलिक लेखन में छुपे सवाल से डरनेवाले खटमल है यह तो। अब उसी राह पर सरकार खुद क्यों हैं? इन्हें सवालों से, आलोचना से डर लगता था... लेकिन अब ये लोग कह रहे हैं कि एक कविता से हिंदुत्व खतरे में आ जाएगा!!! इतने बड़े चुटकुले मत करो सरकार, आप नेनो कार थोड़ी न है कि सस्ते में बिक जाओगे?

सुरेश अंगड़ीजी, चलो ठीक है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचानेवाले तमाम को आपके कथन के मुताबिक गोली मार दी जाए, किंतु संसद या विधानसभाओं में जनसंपत्ति को नुकसान पहुंचानेवाले नेताओं को भी यह नियम लागू होगा?
रेल राज्य मंत्री सुरेश अंगड़ी कहते हैं कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचानेवालों को देखते ही गोली मार दो। मंत्रीजी से अनुरोध है कि उनका यह प्रस्ताव वे तमाम मसलों पर लागू करे, क्योंकि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने में कांग्रेस और बीजेपी, दोनों का इतिहास बदनाम है। दरअसल, देखते ही गोली मार दो वाला यह कथन सार्वजनिक संपत्ति को बचाने की चाह नहीं बल्कि अपने मुद्दों के खिलाफ आलोचना को दबाकर मार देने की सनक हैं। हिंसा ठीक नहीं हैं, लेकिन दोगलापंति भी ठीक नहीं हैं। सब मामलों में यह होना चाहिए, एक ही मामले में क्यों? जहां कांग्रेस या दूसरे दलों की गठबंधन सरकारें हैं वहां बीजेपी समर्थकों को गोली मार दो, जहां बीजेपी की सरकारें हैं वहां गैरबीजेपी समर्थकों को गोली मार दो!!! गोलियां ही तो लोकतंत्र बचाएगी, है न अंगड़ाई वाले अंगड़ीजी?

सुरेश अंगड़ी से अनुरोध यह भी है कि चलो ठीक है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचानेवाले तमाम को उपरोक्त पैरा के अनुसार गोली मार दो, लेकिन संसद या विधानसभा में जनसंपत्ति को नुकसान पहुंचानेवाले नेताओं को भी यह नियम लागू होगा? आप लोग वहां जो माईक, टेबल, कुर्सियां तोड़ते हो, पेपर फाड़ते हो वो जनता का पैसा है, किसी कांग्रेस या बीजेपी की जागिर नहीं हैं। एक देश-एक कानून के अनुसार इतना तो कर ही सकते हैं न?

यहां देश नोटबंदी के समय अर्थशास्त्री बन जाता है, जीएसटी के समय टैक्स विशेषज्ञ, धारा 370 के समय इतिहासकार, सरहदों को लेकर रक्षा विशेषज्ञ और नागरिकता संशोधन को लेकर संविधान के एक्सपर्ट। गार्डियन पढ़कर लंदन के विशेषज्ञ बनने का काम सबका है भाई। कभी कांग्रेसवाले करते थे तो आज बीजेपीवाले क्यों न करे?

बताइए... नेताजी खुद की डिग्री साबित नहीं कर पा रहें और नागरिकों को लाइन में खड़ा रखकर कह रहे हैं कि आप फलां-फलां साबित करते रहें
यहां बात केवल नागरिकता कानून की नहीं हैं, इससे पहले की भी है और इसके बाद की भी। सोचिए, नेताजी अपनी डिग्री साबित नहीं कर रहें लेकिन नागरिकों को सबकुछ साबित करने को बोल रहे हैं। सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचानेवालों के खिलाफ कानून पहले से ही है, लेकिन उसका पालन कब-कब और कितना-कितना हुआ देख लीजिएगा। तमाम बागड़बिल्लों ने जब जी चाहा कानून की धज्जियां उड़ाई, जब जी चाहा संविधान को साधारण साबित करके दिखा दिया। अदालत ने तो राम-रहीम हिंसा के बाद भी आदेश दिया था, क्या हुआ यह किसीको नहीं पता। अदालत ने तो सबरीमाला पर भी आदेश दिया था, क्या हुआ यह अदालत को भी पता है। अदालत एक मामले में कहती हैं कि हिंसा हो सकती हैं इसलिए हम आदेश नहीं दे सकते, दूसरे मामले में कहती हैं कि हिंसा हो रही हैं इसलिए हम आदेश नहीं दे सकते!!! अदालत से कभी सुनने को मिला कि यह भावनाओं का नहीं जमीन के टुकड़े का मामला है, कभी सुना दिया कि यह केवल जमीन का टूकड़ा नहीं भावनाओं का भी मसला है!!! एक बार अदालत यह भी कह दे कि दागी भरे पड़े हैं इसलिए शपथ-ग्रहण नहीं हो सकता।

कांग्रेस से जुड़े संगठन हो या बीजेपी से जुड़े संगठन, वेलंटाइन डे से लेकर विश्वविद्यालयों में चुनाव के मामले, इन संगठनों ने हिंसा के सिवा देश को कुछ नहीं दिया। हिंसा से जुड़े मामलों की तह तक जाए तो कांग्रेसी और भाजपाई मुख्यमंत्रियों तक के ऊपर ऐसे मामले दर्ज हो चुके हैं, जिसे बाद में अपनी सरकार आने के समय हटा दिया गया था। सारे नेता संसद और विधानसभाओं में जनसपंत्ति का सरेआम नुकसान पहुंचाते हैं, संसद की हिंसा को कौन देखेगा? राज्यपाल कांग्रेस के समय भी असंवैधानिक काम किया करते थे, बीजेपी के समय भी राज्यपाल लोग नहीं बदले हैं!

आधार हो या ईवीएम, यह दोनों आम नागरिकों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। आप अगर आधार या ईवीएम है तभी सरकारें आपकी सुनेगी, आप नागरिक है तो जंतर-मंतर पर जाए और फैफड़े फाड़े! बाद में पुलिस आपके ऊपर अपनी लाठी फाड़ेगी। एक नागरिक कायदे से गणना करे कि उसे किन किन चीजों के लिए सरकारी कचहरियों में लाइन में खड़ा रहना पड़ता है तो यह गणना भी काफी माथापच्ची कराएगी। गजब है कि पता नहीं चलता कि आखिर हमारा पहचान-पत्र है क्या? इतने सारे कार्ड हैं, लेकिन नये-नये कार्ड को लाने का चलन रुकता नहीं! आखिर में कहा था कि आधार ही सब-कुछ है और सुरक्षित भी बताया था। नया सिम कार्ड खरीदो तब एक निजी कंपनी तक आपका डाटा आधार से ले सकती है तो फिर आप तो सरकार है। आंखें-अंगूठें-उंगली सबकुछ आधार में ले ही चुके हैं, तो फिर जो लेना है उसी डाटा-बेज से ले लो सरकार! खामखा लाइन लगाने का काम क्यों करवा रहे हो?

इंदिरा का युग हो या मोदी का दौर... सबने साबित कर दिया कि संख्याबल को यह लोग मनचाही चीजें करने का लाइसेंस मान रहे हैं, हर सरकार यह चाहती हैं कि देश में नागरिक नहीं उसके मतदाता ही रहे
धड़ल्ले से कहा जा सकता है कि कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने यही चाहा है कि इस देश में नागरिक नहीं उसके मतदाता ही रहे! मोदियाबिंदों और सोनपापड़ी, यह दोनों समुदाय ही भारत में रहे, बाकी के भारतीय कांग्रेस के हिसाब से भ्रमित हैं और बीजेपी के हिसाब से पाकिस्तानी!!! मनमोहन काल में कहा था वह मोदी काल में कहना पड़ रहा है - ठीक है कि संसद को कानून बनाने का विशेषाधिकार है, किंतु संसद को वो कानून जनता के लिए बनाने होते है और इसीलिए उन कानूनों में जनभागीदारी का होना अति-आवश्यक है। जनता के चुने प्रतिनिधि चंद पैसों के लिए, सत्ता के लिए या दूसरे प्रलोभनों व डर के नीचे कुछ भी करते जाए और यह जनता की आवाज के रूप में ही माना जाए... यह आउट ऑफ डेट थ्यौरी है।

कह सकते हैं कि लोकतंत्र के इस नये रूप में नौकरों ने मालिक तय करने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया है। इंदिरा युग हो या मोदी का दौर, भारत में फिर एक बार साबित हो गया है कि संख्याबल के दम पर सत्ता संविधान से मुंह फेर लेती हैं, विधायिका या कानून-व्यवस्था को अपनी मान्यता के आधार पर सजाती-संवारती हैं, नौकरशाही को जी-हुजुरियों की फौज में बदल देती हैं, चौथे स्तंभ को पेरों तले रोंदती हैं और लोगों को लगने लगता है कि न्यायपालिका संविधान का पालन करवाने के बदले दूसरा सब कुछ कर रही हैं। बहुमत वाले नेताओं ने देश को देश नहीं दल बना दिया है। बहुमत अर्जित करके इंदिरा और मोदी, दोनों यह मानने लगे हैं कि अल्पमत गलत है।

कुछ कड़वे सच यही है कि सरकारें आप चुनते हैं, लेकिन वो हमेशा आपकी नहीं होती हैं। सरकारें बनती तो संविधान से हैं, लेकिन वो संविधान का पूर्णत: सम्मान नहीं करती। सरकारें वोट से बनती हैं, लेकिन सत्ता बनकर वो वोटर का मजाक ही उड़ाती हैं। दरअसल, जब संसद भीड़ बनती है तभी सड़कों पर जनता की भीड़ दिखाई देने लगती है।

भीड़ द्वारा की गई हिंसा – इसे लेकर राजनीति अपने अपने हिसाब से भीड़ को बचाती या दोषी ठहराती रही। भीड़ द्वारा की गई हिंसा को लेकर विवाद ताज़ा इतिहास है। इस मसले को लेकर सत्ता से लोकतंत्र और संविधान बचाने की आवाज कभी नहीं आई। भीड़ द्वारा की गई हिंसा हिंदुस्तान के लिए नासूर बना, किंतु उसे लेकर सत्ता की तरफ से भीड़ का खुल्लम-खुल्ला बचाव करने के दृश्य देश ने देखे। अब जब भीड़ उनके खिलाफ सड़कों पर उतरी तो भीड़ द्वारा की गई हिंसा का और आंदोलन के शांतिपूर्ण तरीकों को लेकर दुहाई दी जाने लगी। आंदोलनों को लेकर सत्ता का नजरिया स्थायी हैं। कांग्रेस जब सत्ता में थी तब ऐसे प्रदर्शनों को लेकर उसके जो संवाद थे उसे लेकर नजरिया स्पष्ट है। तब कांग्रेस जो बोलती थी वैसा आज बीजेपी बोलती हैं और तब बीजेपी जैसा बोलती थी वैसा आज कांग्रेस बोलती हैं। अपना-अपना ढोल अपना-अपना ताल... टूथपेस्ट वही नाम नया। बस अब तो अदालत एक बार कह दे कि दागी भरे पड़े हुए हैं इसलिए शपथ-ग्रहण नहीं हो सकता।

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)