दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के नतीजे के बाद फिर से वही मिथकवाली
चर्चा जोरों पर रही कि इस चुनाव ने देश को यह सिखाया, वो सिखाया, यह बताया, वोह बताया। एट द एंड...
कोई चुनाव देश को कुछ नहीं सिखाता!!! जायके में थोड़ा कड़वा है, वर्ना सच का कोई जवाब नहीं। कोई चुनाव देश को कुछ नहीं सिखाता, वो तो नेताओं और उनके दलों को सिखाता हैं। और कोई नेता या कोई
दल देश नहीं होता यह ज़रूर नोट करे। यदि चुनावों से देश सीख रहा होता तो आज इतने सारे
बागड़बिल्लों के सामने जनता को गुलाम चूहों की माफिक जीना नहीं पड़ता। नतीजें देश को कुछ
नहीं सिखाते…नतीजों से नेता सीखते
हैं, देश नहीं!!!
हिंदू-मुसलमान की राजनीति से देश विश्वगुरु बन सकता तो फिर पाकिस्तान
कबका बन गया होता। विशेष रूप से नोट करे कि यह सीख दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों
ने नहीं दी है। यह सच तो भारतीय उपमहाद्विप में आइने की तरह अरसे से साफ है। नेता यह
चीज़ सीख चुके हैं, जनता नहीं सीखी!!! तभी
तो भारतीय चुनावों में धड़ल्ले से इसी तरह की नौटंकियां चलती है। जैसे सट्टाबाजार जैसी
गंदगी को कानूनी मान्यता देने का मन देश बनाने लगा है, क्या पता सालों बाद चुनाव आयोग
को आचारसंहिता में गालियों को कानूनी और नीतियों को गैरकानूनी बनाना पड़ जाए।
दिल्ली चुनाव प्रचार... क्या 'अच्छे दिन' ऐसे ही होते हैं? बिना पाकिस्तान के ज़िक्र के मोदी सत्ता का प्रचार क्यों पूरा नहीं हो सकता? जो सत्ता भारत को विश्वगुरु बनाने का दावा करती हो वो सत्ता काम और नीतियों की
जगह बिरयानी-हिंदू-मुसलमान-गोली मारो जैसी पटरी पर अपनी रेल क्यों दौड़ाती रही?
चुनाव के दरमियान सबसे आपत्तिजनक आचरण देश की सत्ताधारी पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं
का ही रहा। ये नेता छोटे-मझोले कार्यकर्ता होते तो कोई कह सकता था कि नासमझ लोगों ने
उन्मादी आचरण करके राजधानी की चुनावी राजनीति का माहौल ख़राब किया। किंतु उन्मादी आचरण
करने वालों में यहाँ तो केंद्रीय मंत्री, सांसद और बड़े-बड़े नेता ही शामिल रहे! ये सब लोग हर सीमाओं को लांधते रहे और बड़ी चालाकी से नरेन्द्र
मोदी की दहलीज से चुप्पी का माहौल कायम रहा। लगने लगा कि इस प्रकार के दोयम दर्जे के
चुनाव प्रचार को अप्रत्यक्ष रूप से उनकी इजाज़त थी।
हर चुनावों से पहले पार्टियां मेनिफेस्टो जारी करती है। आम आदमी पार्टी ने तो अपना
मेनिफेस्टो ज़रूर जारी किया और उस पर रैलियां भी की, भाषण भी किए। किंतु दुनिया की सबसे
बड़ी पार्टी बीजेपी ने मेनिफेस्टो पर कोई बात ही नहीं की। कोई 'गद्दारों को गोली मारने' का नारा लगवा रहा था, कोई सरकार बनते ही 'शाहीन बाग को उठवाने' की घोषणा कर रहा था, कोई अपने ‘इलाके की मस्जिदों’ को गिरवाने' का संकल्प दोहरा रहा था, तो कोई ‘वो लोग आपके धरों में
घुसकर बालात्कार करेंगे’ वाले डर को दौड़ा रहा
था। बताइए, यही इनका मेनिफेस्टो था, जिसे वे लोग संकल्प पत्र कहते हैं!!!
इनसे भी बड़े कुछ महाबली नेताओं ने तो सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलनकारियों को देश-विरोधी,
आतंकी और पाकिस्तान-परस्त या पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने वाला कह डाला! चुनाव दिल्ली का था
और बात कुछ दूसरी ही हो रही थी! मोदी सत्ता का ‘खास ढंग का चुनाव प्रचार अभियान’ निर्वाचन आयोग के
समक्ष उभरे बड़े संकट से भी जुड़ा है। दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य की 70 सीटों वाली
विधानसभा का यह चुनाव बीजेपी जैसी बड़ी पार्टी, आरएसएस जैसे शक्तिशाली संगठन, प्रधानमंत्री
मोदी और गृह मंत्री अमित शाह जैसे सियासत के कथित लौह-पुरुषों के लिए इतना महत्वपूर्ण
और चुनौतीपूर्ण क्यों हो गया था यह सवाल ही अपने-आप में कई जवाबों की तरफ खींच ले जाता
है। इन सबने चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ अपनी पूरी ताकत झोंकी, अपितु ताकत का भरपूर
दुरूपयोग भी किया। ऐसा क्यों, यह सवाल भी उसी जवाबों की तरफ ले जाता है। देश की सत्ताधारी
पार्टी ने राजधानी, या यूं कहे कि एक शहर की विधानसभा में बहुमत हांसिल करने के लिए
(या फिर मैदान में डटे रहने के लिए) जिस तरह की शर्मनाक हरकतें की, उस समूची सियासी-धींगामुश्ती
को सामान्य आचरण नहीं कहा जा सकता।
इससे पहले चुनावों में जिस प्रकार से हिंदू-मुसलमान वाली कोशिशें हुई, 2020 के दिल्ली
चुनाव में बीजेपी के लोकप्रिय और प्रमुख नेताओं की हरकतें उससे भी ज्यादा अशिष्ट, उन्मादी और घौर सांप्रदायिक थी। ‘हम धर्म और जात-पात की राजनीति नहीं करते’ - वाला फिल्मी या आसमानी संवाद दागनेवाले नरेंद्र मोदी की चुप्पी
अप्रत्यक्ष सी इजाज़त ही थी! एक बीजेपी सांसद ने तो यहाँ तक कहा कि उनकी पार्टी की सरकार
बनी तो वह सरकारी ज़मीन पर बनी अपने इलाक़े की मस्जिदोंं को ढहवा देंगे! एक बड़े नेता ने अपने
प्रमुख प्रतिद्वंदी दल के शीर्ष नेता को सीधे पाकिस्तान से जोड़ दिया!
बीजेपी ने आप पार्टी को थोड़ा सा अपने पेंच में फंसाया तो आप पार्टी ने बीजेपी को, लेकिन इस चुनाव में दोनों पार्टियां आखिरकार तो अपनी-अपनी पिच
पर ही खैली। एकदूसरे को ललकार देते रहे, लेकिन दोनों एकदूसरे की पिच पर जाकर खेलने से सफलतापूर्वक बच निकले। बीजेपी के पूरे
प्रचार में कहीं भी 'आप' के लोकप्रिय कार्यों की न तो मुखर आलोचना थी, न ही स्वयं वैसे लोकलुभावन काम करने का वादा था। वहीं 'आप' ने भी न तो बीजेपी के धार्मिक कथानक की तीखी भर्त्सना की और न ही खुद के 5 साल
के कामों को सांस्कृतिक परिभाषा देने की कोई खास मशक्कत की। बीजेपी खुल कर धर्म को
सशक्त करने के लिए वोट मांग रही थी, तो 'आप' स्पष्ट रूप से व्यक्ति के रोजाना जीवन को सशक्त करने हेतु वोट
देने की अपील कर रही थी। 'आप' के पास अरविंद केजरीवाल का चेहरा था, जो 5 वर्षों के अपने कार्यकाल
में किए गये कामों की बदौलत वोट मांग रहा था, तो बीजेपी की मजबूरी थी कि वह दिल्ली में नकाबपोश बनकर उतरे। क्योंकि पिछले करीब
दो दशक में दिल्ली में उसने अपने किसी चेहरे को उभरने ही नहीं दिया। (देखे तो बीजेपी
का अमूमन हर राज्यों में यही हाल है और इसे समस्या के रूप में संघ के ही कुछ लोग देखते
है, जिसे हमने बीजेपी एंड आरएसएस आफ्टर 2014 वाले लेख में दर्ज किया
था) दोनों ही दलों का प्रचार अत्यंत आक्रामक रहा मगर अपने कथानक की सीमा में। दोनों
ही दलों ने अपने-अपने महाबली, विशेषज्ञ और कार्यकर्ताओं को दंगल में उतारा। अगर बीजेपी का प्रचार करने हेतु देशभर
से संघ परिवार के कार्यकर्ता, 250 से ज्यादा सांसद, दर्जन भर मुख्यमंत्री आदि मैदान में उतरे, तो 'आप' की मदद हेतु देश-विदेश से वॉलंटियरों का टिड्डी दल भी उतरा।
आप ने सेवाओं को प्रचार में उतारा तो बीजेपी ने उपदेशों को। जनता को सेवा और उपदेश
में से किसी एक को चुनना था। उन्होंने अपने-अपने हिसाब से चुना भी। प्रचार के अंतिम समय
तक दोनों अपनी-अपनी पिच पर खेल रहे थे। मगर न जाने क्या हुआ? महज कुछ दिनों पहले आखिरकार बीजेपी का धैर्य जवाब दे गया और फिर
शुरु हुआ दोयम दर्जे का चुनाव प्रचार। पाकिस्तान को आखिरकार मैदान में उतारना ही पड़ा! पता नहीं बीजेपी के
लिए पाकिस्तान नामके टिड को भारत के चुनावी मैदान में उतारने की स्थायी मजबूरी के पीछे
कौन सा राज है? पाकिस्तान आया तो
फिर योगी को यूपी में थोड़ी न रहना था? वो भी आये! योगी आये तो बिरयानी
आई!!! शायद पाकिस्तान मामलों के मंत्री गिरिराजसिंह से उनका पाकिस्तान मंत्रालय छीन लिया
गया है, और उनका वो काम अब हर कोई करने लगा है! गृहमंत्री तक गिरिराज सिंह
के मंत्रालय में दखल देते हैं अब तो!!! उत्तेजक भाषण और घौर सांप्रदायिकता की बातें दिल्ली की गलियों
में घूमने लगी। शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन करने वाले आपके घरों में घुस कर आपकी बहन-बेटी
से बालात्कार करेंगे – यह कहकर डर की उस संस्कृति
को नये सिरे से गढ़ा गया!
यह भी कहा गया कि ‘बीजेपी जीत गई तो सरकारी
जम़ीन पर बनी सभी मस्जिदें गिरा दी जाएंगी!’ यह नारा भी खूब चला, ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को।’ फिर तो पिस्तोल लहरानेवाला और गोली मारनेवाला कांड भी देश की राजधानी की सड़क पर
खुल्लेआम हुआ!!! एक राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री को आतंकवादी कहा गया और एक केंद्रीय मंत्री
ने इसे दोहरा कर कहा कि, ‘हां, अरविंद केजरीवाल आतंकवादी है।’ फिर उसे उचित ठहराने के तर्क भी दिए!!! अजीब मामला तो तब बना जब उसी आतंकवादी की सरकार के हैप्पीनेस
क्लास को दिखाने के लिए मैडम ट्रंप को वहीं ले गए!
बिरयानी बदनाम हुई मोदी तेरे लिए!!!
बिरयानी बदनाम हुई मोदी तेरे लिए!!! स्वादिष्ट और बेहद लोकप्रिय भोजन बिरयानी को एक धर्म विशेष
से ही नहीं जोड़ा गया, बल्कि उसे पाकिस्तानी
खाना कह कर प्रचारित किया गया!!! ऐसी तसवीर खींची गई मानो बिरयानी खाना देशद्रोह हो!!! यूपी के सीएम योगी
आदित्यनाथ ने कहा कि अरविंद केजरीवाल शाहीन बाग की महिलाओं को बिरयानी खिला रहे हैं।
एमपी के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मोटे तौर पर सांप्रदायिक और हिन्दू-मुसलमानों
की बात करने वाले नेता नहीं दिखाई देते। पर इस चुनाव में उन्होंने दिल्ली में कहा कि, ‘केजरीवाल लोगों को बिरयानी खिला रहे हैं और हमसे कह रहे हैं
कि हम कार्रवाई करें। क्यों करे हम कार्रवाई?’ देश का डंका बजानेवाली बीजेपी को दिल्ली में बिरयानी पर बाईबल-कुरान
क्यों खोलना पड़ा यह तो मोदी या अमित शाह भी नहीं समझा सकते। बिरयानी को पहले तो धर्म
विशेष से जोड़ा गया, फिर उसे देशविरोधी
तक कह दिया गया! उसके बाद योजनाबद्ध तरीके से बीजेपी के दूसरे नेता ने कह दिया कि, "आतंकवादियों को बिरयानी खिलाने के बजाय बुलेट खिलानी चाहिए।"
यानी कि जो सरकार के कानून से नाराज थे उन्हें सरेआम आतंकवादी कह दिया और उनकी हत्या
करने का उपदेश प्रचारित कर दिया।
दिल्ली चुनाव प्रचार का पूरा पैकेज योजनाबद्ध चरणों में लागू होता गया। जेएनयू में
गुंडों का हमला और फिर प्रोपेगेंडा, नागरिकता कानून और उसकी हिंसा, जामिया हिंसा और फिर शाहीन बाग। शाहीन बाग... भारतभर में यह नाम बीजेपी के नकारात्मक
प्रचार अभियान की कृपा से ही प्रसिद्ध हो गया! इतिहास हर मामलों में खुद को दोहराता ही
है। सोनिया गांधी की मंडली सोनपापड़ी की कृपा से ही नरेंद्र मोदी का नाम गुजरात के बाहर निकला था। फिर नरेंद्र मोदी की मंडली मोदियाबिंदों की कृपा से ही केजरीवाल का नाम दिल्ली
के बाहर निकला। फिर उन्हीं मोदियाबिंदों की कृपा से शाहीन बाग का नाम घर-घर तक पहुंच
गया। शाहीन बाग का मुद्दा स्वयं पीएम मोदी ने जोर-जोश से उठाया था। फिर उसी समय से
न्यूज़ चैनलों पर तथा दूसरे दिन से अख़बारों में इस बाग का बगीचा दिखने लगा। शेष भारत में
लोग शाहीन बाग नाम से अवगत होने लगे और वहां के आंदोलन को बैठे-बिठाए पब्लिसिटी मिलती
रही! जमीनी स्तर पर शाहीन बाग का असर दिल्ली के दो से तीन विधानसभा क्षेत्रों में होने
वाला था, लेकिन शाहीन बाग वाली बीजेपी की राजनीति ने इसे बहुत आगे तक
फैला दिया!
स्वयं पीएम मोदी ने कह दिया कि, “शाहीन बाग का विरोध प्रदर्शन संयोग नहीं है, एक प्रयोग है।” उन्होंने जो कुछ कहा
था उसका मतलब यह भी था कि शाहीन बाग आन्दोलन पाकिस्तान की शह पर हो रहा है और देश को
अस्थिर करने की नीति के तहत किया जा रहा है। यह वही मोदी थे जिन्होंने तीन तलाक़ क़ानून
पर कहा था कि वे अपनी मुस्लिम बहनों के लिए यह सब कर रहे हैं। लेकिन शाहीन बाग में
वही मुस्लिम बहनें बैठी रहीं, मोदी ने सुध नहीं ली बल्कि उन्हें भला-बुरा कह दिया!!! कपड़ों से ही प्रदर्शकारियों की पहचान हो जाती है वाला निहायती
गैर-जिम्मेदाराना बयान देनेवाले पीएम संयोग-प्रयोग पर भी पहुंच सकते हैं यह कोई आश्चर्य
नहीं था। लेकिन फिर नतीजे के बाद मीम चलने लगे, जिसमें मोदी शाह से पूछ रहे होते कि यह
संयोग था या प्रयोग!
पीएम ने शुरू किया तो फिर देश के गृहमंत्री ने शाहीन बाग को बड़ा मुद्दा बना दिया।
इसे पाकिस्तान-अराजकता-गैरसंवैधानिकता-देशद्रोह सब चीजों के साथ चालाकी से जोड़ा भी गया।
मोदी के मंत्री उत्तेजक और सांप्रदायिक बातें कहते रहे। खुलकर कहते रहे, सीमाएं लांधकर कहते रहे। मोदी ने किसी को नहीं रोका। यह एक तरह
से उनकी बातों का समर्थन करना ही था। केजरीवाल ने चुनावी प्रचार का शंखनाद करते हुए
कहा कि, “यदि आपको लगे कि हमने काम किया है, तो वोट देना, वर्ना मत देना।” मोदी ने तो 2019 में
भी यह नहीं कहा था!!! काम किया है तो वोट देना के इतर दिल्ली चुनाव का अंत तो वोह घरों में घुसेंगे, बालात्कार करेंगे, गोली मार दो वाले लहजे से ही हुआ!!!
गजब ने भी गजब कर दिया, क्योंकि सम्मानजनकर सींटे ले आने के लिए नीतियां-योजनाएं-विकास-काम-मोदी का नाम...
सबको छोड़कर बीजेपी ने तो दिल्ली को सीधे-सीधे डराना ही शुरू कर दिया! हमें वोट दे दो वर्ना
वो लोग आपके घरों में घुसकर आपकी बहन-बेटिंयों का बालात्कार कर देंगे!!! क्या नीतियां-योजनाएं-विकास-काम और मोदी का नाम इतना
घिस गया था कि वोट शेयर बढ़ाने के लिए इन गलियों में घूमना पड़ेगा? पीएम मोदी सदैव की तरह पाकिस्तान को कंपाने तक पहुंच गए। गुजरात
विधानसभा चुनाव 2017 वाला संस्करण ‘डार्क फेस ऑफ इंडियन
पोलिटिक्स –
गुजरात... जहां विकास
नहीं बल्कि प्रचार ही पागल हो गया’ पढ़ लीजिएगा। नरेंद्र मोदी ने तो मनमोहन सिंह तक को पाकिस्तान से जोड़कर न केवल बवाल
मचा दिया था, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह को पाकिस्तान के साथ गुप्त और संभवत: देशविरोधी बैठकें करने से जोड़ दिया था!!! फिर चुनाव खत्म हो गया तो अरुण जेटली ने लोकसभा में कह दिया
था कि हमें मनमोहनजी की देशभक्ति पर संदेह नहीं है!!! बिल्कुल वैसे जेसे दिल्ली चुनाव प्रचार में केजरीवाल को आतंकवादी
कह दिया और फिर जब केजरीवाल भारी बहुमत से जीते उसके बाद उसी आतंकवादी को ट्वीट कर
पीएम ने ही बधाई दी और गृहमंत्री ने उसी आतंकवादी से आधिकारिक मुलाकात भी कर ली!!! मोदी तो 2014 के बाद
से ऐलान कर चुके है कि चुनाव में तो कुछ बाते यूंही कह दी जाती है! अपनी वही आदत वो
यहां भी दोहरा रहे थे। अमित शाह तो चुनावी बातों को जुमला करार देने के लिए फेमस है।
यानी आप उनको चुनावी प्रचार के वचन-वायदों के बारे में पूछोगे तो मुमकिन है कि जुमला
वाला जवाब मिल जाए। बीजेपी की रणनीति यदि वोटरों को मुसलमानों और पाकिस्तान से डराने
की ही रही तो फिर मोदी का विकास और काम क्यों घिस गया ये सवाल तो है ही।
ये महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा ने यह बयान दिया था कि, “ये लोग हमारे घरों में घुसेंगे, हमारी लड़कियों को उठायेंगे
और बलात्कार करेंगे।” कुछेक मीडिया रिपोर्ट
की माने तो इसी समय के दौरान चुनाव से पहले बैठक में तय किया गया कि ब्लॉक के स्तर
पर, गाँव के स्तर पर, मुहल्ला स्तर पर और अपार्टमेंट के स्तर पर संघ के कार्यकर्ता
पंद्रह-पंद्रह और बीस-बीस लोगों की मीटिंग बुलाएँगे और इनमें “हिंदू ख़तरे में है” की बात लोगों के दिमाग़ में बैठाई जाएगी! इस्लाम खतरे में है की तर्ज पर एक दौर में जब कथित रूप से कांग्रेस
और उनके सहायक संगठनों ने मुसलमानों के वोटबेंक को अपने लोकर में रखने का बंदोबस्त किया,
ठीक उसी दौर में बीजेपी और उनके सहायक संगठनों ने हिंदू खतरे में है का नारा देकर हिंदू
वोटबेंक को सेफ करने की कोशिशें की। कह सकते है कि सांप्रदायिकता या ध्रुवीकरण के इस
राक्षस के पीछे कांग्रेस थी। छगन ने 100 किलोग्राम के काले काम किये थे तो मगन ने भी
90 किलोग्राम के किये, 10 किलोग्राम कम किये, इसी बचाव के दम पर भारत, उसका सामाजिक ताना बाना, उसका लोकतंत्र कमजोर होता चला गया। पिछली सरकारों के गुनाह नयी सरकारों के लिए आर्शीवाद
होते है के तर्ज पर पुराने गुनाहों के सामने नये गुनाह बाइजज्त बरी होते चले गए!
केजरीवाल की शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी की राजनीति के सामने डर की राजनीति का
स्केच अचानक ही तैयार नहीं हुआ था, बल्कि इसके लिए बैठकें भी हुई थी। यह कुछेक मीडिया रिपोर्ट में दर्ज किया गया है।
हिंदूओं के एक बड़े तबके को डराना, अपनी तरफ खींचना, ज़हरीले भाषण देना
यह सब यूंही नहीं हुआ होगा। बीजेपी और संघ के कई पुराने लोगों ने व्यक्तिगत रूप से यह
ज़रूर माना कि इस बार जिस तरह से बीजेपी और संघ परिवार ने प्रचार किया वैसा पहले कभी
भी देखने नहीं मिला था। क्या हिंदूओं को डराना, मुसलमानों को बहुत ही बड़े खतरे के रूप में प्रस्तुत करना – उस काम की राजनीति के खिलाफ तैयार की गई रणनीति थी? पीएम मोदी पाकिस्तान तक तो पहुंच गए, जैसा हर चुनावों में करते है। किंतु दिल्ली में अब की बार बात कश्मीर
और भारत विभाजन तक पहुंच गई! नेहरूजी को तो चुनाव में लाना ही था! सो वो भी फिर एक बार आ गए! अगर केजरीवाल आ गया तो दिल्ली भी कश्मीर हो जाएगी – यह तक कहा गया! बताइए, 2014 के बाद
देश ने इतना विकास किया है तो फिर दिल्ली में डर का व्यापार क्यों?
फिर बँटवारे की भी याद दिलाई गई और कहा गया कि जैसे तब मुसलमानों ने हिंदू घरों
में घुस कर हमारी माँ-बहनों से साथ बलात्कार किया था वैसा ही दिल्ली में भी होगा! अब तो अदालत ने भी
दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच अधिकारों को स्पष्ट कर दिया है। उस आदेश को देखे
तो दिल्ली की इस प्रकार से सुरक्षा करने की जिम्मेदारी-सत्ता-अधिकार सबकुछ केंद्र के
पास है। तो फिर दिल्ली में कोई भी पार्टी सरकार बनाए, बिना केंद्र और एलजी की इजाज़त के ऐसे गुनाह कैसे हो सकते है भला? ये दायरा और उसकी सत्ता तो केंद्र के पास है। लेकिन फिर भी
केंद्र के नेता इस प्रकार के डर फैलाने में जी-जान से लगे हुए थे!
मीडिया रिपोर्ट में छपा है कि डर का व्यापार भी हुआ और साथ में गंगा जल देकर बीजेपी
को वोट देने की कस्में दिलाने की योजना की चर्चा भी मिटिंग में हुई थी! हिंदू खतरे में है
वाला व्यापार और गंगा जल वाला फैक्टर... समझना आसान है। वैसे यह योजना (गंगाजल और कस्में-वादे
वाली रणनीति) जमीन पर लागू हुई थी या नहीं इसका ठीक-ठीक पता नहीं है। किंतु मीडिया रिपोर्ट
के मुताबिक इस काम के लिए आसपास के प्रदेशों से जाति विशेष के नेताओं को भी दिल्ली
बुलाया गया और उन्हें उन्हीं जाति के लोगों के बीच में दिमाग़ बदलने का काम दिया गया।
केजरीवाल को वोट देना हिंदू धर्म को नुकसान पहुंचाएगा, शाहीन बाग देश को तोड़ने की साजिश है, मुसलमानों की आबादी लगातार बढ़ रही है, ये लोग आपके घरों में घुसेंगे और बालात्कार करेंगे, बंटवारा से लेकर हर मुमकिन जहर उगला गया!!! ये वह दौर था जब
बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा न्यूज़ चैनलों पर चीख-चीख कर बोलने लगे थे कि हिंदू
जागो, हिंदू जागो। ये सबकुछ एक साथ ही शुरू हुआ और हर तरफ तथा हर मंच
से चलाया गया।
गंगाजल और कस्में-वादे वाली रणनीति जमीन पर कितनी लागू हुई थी यह नहीं पता। किंतु
प्रमुख मीडिया रिपोर्टो के मुताबिक इस रणनीति के तहत बैठकें हुई थी। इन बैठकों में ‘हिंदू ख़तरे में है’ को दिमाग़ में बैठाने के बाद बीजेपी और संघ का कार्यकर्ता अपनी जेब से एक थैली
निकालता था। इस थैली में गंगा जल होता था। बैठक में मौजूद लोगों को ये गंगाजल अँजुरी
में दिया जाता था। पहले उन्हें हिंदू होने की क़सम खिलाई जाती थी। यानी गंगा जल लेकर
कहलवाया जाता था कि, “हम हिंदू हैं और हिंदू धर्म की रक्षा करेंगे।” इसके बाद गंगा जल लेकर ये भी कहलवाया जाता था कि वो बीजेपी को
वोट देंगे। यानी बीजेपी को वोट देने की क़सम दिलवायी जाती थी। मीडिया रिपोर्टों की माने
तो ख़ासकर दिल्ली देहात के इलाक़े में यह कराया गया था। पूर्वी दिल्ली और उत्तर पूर्वी
दिल्ली में भी क़समें दिलाई गई। मीडिया ने अपने सूत्रों से यह भी बताया कि उत्तर-पूर्वी
दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों में गंगा जल के साथ-साथ काशी विश्वनाथ मंदिर की भभूत भी
बैठक में आये लोगों के माथे पर लगाई गई और बाबा विश्वनाथ की सौगंध खिलाई गई। मीडिया
रिपोर्ट में यह भी लिखा था कि अब यह साबित करना तो असंभव है कि जिस जल को गंगा जल या
जिस राख को भभूत बताया गया वो वाक़ई में गंगा जल था या काशी विश्वनाथ का भभूत था। लेकिन
इस बहाने लोगों की धार्मिक भावनाओं का फ़ायदा उठाने की कोशिश ज़रूर की गई।
उन प्रमुख मीडिया रिपोर्ट की माने तो इतने पर ही बस नहीं किया गया। ऐसे वोटरों
की पहचान कर उनकी सूची बनाई गई। जब ये लोग वोट देने के लिए जा रहे थे तब लगातार
उनको गंगा की क़सम की याद दिलाई गई। और पोलिंग बूथ में घुसने के समय या बूथ के बाहर
जमकर जय श्री राम के नारे लगाए जाते थे। ताकि ऐसा वोटर भटकने ना पाए या आम आदमी पार्टी
के कार्यकर्ताओं के बहकावे में न आ जाए। मीडिया रिपोर्टों की माने तो जब आप पार्टी ने
इसकी शिकायत पुलिस को की तो पुलिस ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि जो लोग जय श्री
राम के नारे लगा रहे है वो किसी पार्टी के लिए वोट मांगने का प्रयास नहीं है। आप की
प्रचार रैलियों में भी बीजेपी का 15-20 कार्यकर्ताओं का ग्रुप जय श्री राम के नारे लगाकर
माहौल बनाने की कोशिश करता रहा था। यह सब चीजें वही घटनाक्रम था, जिसके चलते जय श्री राम के नारे के सामने जय बजरंगबली वाला नारा
चुनावी प्रचार में आ गया। फिर जो हुआ वो सार्वजनिक घटनाक्रम है। एक चैनल ने तो बाकायदा
केजरीवाल को पूछ लिया कि क्या आपको हनुमान चालीसा का पाठ आता है? चैनल पर हनुमान चालीसा
बोल भी दिए केजरीवाल। लेकिन श्री राम के बाद उनके परम भक्त हनुमानजी को भी चुनाव की
गंदी राजनीति में झोंकने का अधर्म क्यों इसके ऊपर चर्चा होगी भी नहीं। वैसे भी योगी आदित्यनाथ
से लेकर बीजेपी के कई दिग्गजों ने, और उसके बाद दूसरे बागड़बिल्लों ने ही हनुमानजी को
जातियों में बांटने का अधर्म किया था। वैसे उन दिनों कथित राष्ट्रवादियों और धर्मरक्षकों की चुप्पी कई सवालो का जवाब दे गई थी!
जो पार्टी खुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहती हो, जो दो-दो बार भारी बहुमत के साथ लोकसभा चुनाव जीती हो, जो बड़े बड़े काम करने के दावे किया करते हो, उन्हें चुनाव जीतने हेतु लोगों में डर फैलाने के अलावा दूसरा कोई
काम पसंद क्यों नहीं आया यह मैट्रिक पास आदमी भी समझ सकता है।
किसी दो दलों के चुनाव को भारत-पाकिस्तान से जोड़कर परोसने की
नीति को गहराई से समझे तो चुनाव प्रचार की यह शैली ही अपने आप में ‘राष्ट्रद्रोह’ है
पीएम और गृहमंत्री तक दिल्ली चुनावी प्रचार में खुलकर सांप्रदायिकता, धर्म और डर वाली राजनीति करने लगे थे! दूसरे राज्यों के सीएम तक दिल्ली में आकर यही चीजें कर रहे थे।
फिर दूसरी या तीसरी या चौथी कतार के नेता क्यों पीछे रहते? क्योंकि ऊपर से जो किया जा रहा था, शायद उनके लिए यह अप्रत्यक्ष
आदेश जैसा ही था कि आप भी ऐसा ही करिए! देश के पीएम ने शाहीन बाग को गोल-मटोल तरीके से देशद्रोह, पाकिस्तान और आतंकवाद से जोड़कर शुभ शुरुआत की तो उधर गृहमंत्री
ने शाहीन बाग को लेकर कह दिया कि, “बाबरपुर में ऐसा बटन दबाना कि करंट शाहीन बाग़ को लगे।” ये बात और है कि नतीजे आने के बाद करंट लगा क्या वाले मीम्स
अमित शाह के लिए सोशल मीडिया पर उड़ने लगे थे। “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” – यह विषेला आह्वान हुआ उसके बाद क्या क्या हुआ यह आयोग और न्यायतंत्र
सबने देखा। “शाहीन बाग़ वाले दिल्ली
में फिर मुग़लों का राज बना देंगे”, “भाजपा नहीं जीती तो शाहीन बाग़ वाले आपके घरों में घुसकर बहू-बेटियों का रेप करेंगे”, “8 फ़रवरी को भारत-पाकिस्तान का मैच होगा” – यह सब उस गिरे हुए स्तर को शान समझने की मूर्खामी के प्रमाण
थे। भारत के किसी भी प्रदेश में चुनाव हो तो उस चुनाव को भारत और पाकिस्तान के बीच की
जंग या मैच के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया ही कैसे जा सकता है? किसी दो दलों के चुनाव को भारत-पाकिस्तान से जोड़कर परोसने की
नीति को गहराई से समझे तो यही चीज़ अपने आप में ‘राष्ट्रद्रोह’ हैं।
अरे भाई... शाहीन बाग पाकिस्तान का कृत्य है, वहां विदेशी फंडिंग हो रही है, देशविरोधी काम हो रहे है तो फिर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार कर क्या रही है? या तो वहां देशविरोधी काम हो रहा है या नहीं हो रहा है। अगर हो
रहा है तो फिर दिल्ली की या केंद्र की सरकार इसे नजरअंदाज क्यों कर रहे है? और अगर वहां ऐसा कुछ नहीं है जैसा बताया जा रहा है, तो फिर सरकारें इतना प्रोपेगेंडा क्यों फैला रही है? अगर वो ‘संयोग’ है तो फिर ठीक है, सड़कें खुलवाकर उन्हें चलने दो और अगर ‘प्रयोग’ है तो फिर कुछ तो करो।
वोट से जवाब देने का आह्वान ज़रूर देखा है, लेकिन वोट से करंट भी लगता है, यह थ्यौरि अमित शाह ने गिफ्ट दी है! यह बात और है कि करंट उल्टा भी लग सकता है यह समझ लोगों ने शाह
को दी है। दिल्ली चुनाव ने नफ़रत की भाषा को ऑफिशियल किया है। जिसका कोई बेसिक ही नहीं है ऐसे मुद्दों को खड़ा करने में पीएचडी कांग्रेस ने की है, तो डबल पीएचडी बीजेपी ने भी
की है! लव जिहाद पर आधिकारिक
रूप से बीजेपी सरकार ने ही कहा है कि लव जिहाद क्या है सरकार को नहीं पता। इसी साल सुप्रीम
कोर्ट ने कह दिया कि मंदिर के नीचे कोई दूसरे धर्म का ढांचा होने का कोई सबूत नहीं है, मस्जिद किसी ढांचे को तोड़कर नहीं बनाई गई थी। ताजमहल और शिव मंदिर
वाला एंगल भी एक से ज्यादा बार खारिज हो चुका है। टूकड़े-टूकड़े गैंग पर लोकसभा में सरकार
ने ही कह दिया कि ऐसी कोई जानकारी सरकार के पास नहीं है। बस इसी प्रकार की बेशर्मी पूर्ण
तिकड़मबाजी से बीजेपी दूसरों को आतंकवादी, पाकिस्तानी, गद्दार, देशद्रोही कह देती है और फिर उसीको मंत्री या मुख्यमंत्री तक बना
देती है!!! कांग्रेस के तिकड़मों से ज्यादा आगे जाना ही अच्छे दिन होंगे ये स्टारमार्क वाली
शर्त थी क्या?
केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने 'गोली मारो' वाला बयान दिया था, वहीं, 'भारत-पाकिस्तान मैच' वाला बयान आप से बीजेपी
में शामिल हुए कपिल मिश्रा का था। रिठाला से बीजेपी उम्मीदवार मनीष चौधरी के समर्थन
में एक जनसभा में अनुराग ठाकुर ने चुनावी रैली में आए लोगों को 'गद्दारों को गोली मारो' वाला भड़काऊ नारा लगाने के लिए उकसाया था। हालांकि नारे का विवादास्पद हिस्सा उन्होंने
नहीं बोला किंतु भीड़ से बुलवाया गया। लेकिन भीड़ को आधे नारे को पूरा कैसे करना है इसका
झोल कही से तो ठाकुर ने किया ही होगा। और फिर भीड़ उस विवादास्पद नारे को पूरा करती
तब ठाकुर तालियां भी बजा देते थे।
अनुराग ठाकुर वित्त राज्य मंत्री है। रैली में अनुराग ठाकुर ने देश के गद्दारों को
गोली मारो सालों को वाला नारा गिफ्ट दिया और उसके बाद दिल्ली की सड़कों पर अहिंसक आंदोलन
के बीच जाकर सरेआम पिस्तोल लहराना, पुलिस बल के होते हुए भी गोली दागना, किसी का जख्मी होना या मौत होना, सब कुछ हुआ। और फिर पिस्तोल लहराने की वो सनक आज भी जारी है। कभी वो करते है, कभी ये, कभी कोई दूसरा-तीसरा। कायदे से देखे तो ऐसे नेताओं को मंत्रीमंडल में नहीं जेल में
होना चाहिए। लेकिन कायदे से देखे तो, फायदे से नहीं!!!
मॉडल टाउन से बीजेपी उम्मीदवार कपिल मिश्रा ने दिल्ली चुनाव की तुलना 'भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच' से की थी। उन्होंने ट्वीट किया था कि आठ फरवरी को दिल्ली की
सड़कों पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान का मुकाबला होगा। आयोग ने ट्वीट डिलीट करने को कहा, प्रचार अस्थायी रूप से रोका, एफआईआर हुई। लेकिन जब पीएम 2014 में ही घोषणा कर चुके हो कि कुछ बाते तो यूंही कह
दी जाती है,
तो फिर आयोग के योग
किसी काम के नहीं!
दिल्ली से बीजेपी के सांसद परवेश वर्मा ने बार-बार विवादित बयान दिए। दो बार चुनाव
आयोग से नोटिस मिला और दो बार प्रचार पर पाबंदी लगी। वो आपके घरों में घुसेंगे, आपकी बहन-बेटियों से बलात्कार करेंगे और उन्हें मार देंगे से
लेकर अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी बता गए। आदमी पार्टी जेहादियों का समर्थन करती है
और जेहादियों को फंडिंग करती है वाला आरोप भी मड़ दिया। बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव और
दिल्ली के सह प्रभारी तरुण चुघ कह गए कि हम नहीं जीतेंगे तो दिल्ली सीरिया बन जाएगा।
यह वहीं वर्मा साहब थे जो कह गए कि बीजेपी की सरकार आई तो एक महीने के भीतर सरकारी
ज़मीनों पर बनी मस्जिदें तोड़ दी जाएंगी। हम नहीं जीतेंगे तो दिल्ली सीरिया बन जाएगा...
फिर तो दिल्ली दिल्ली रहेगी या सीरिया ही बनेगी यह देखना होगा। लेकिन जब सीरिया
बनेगी, कोई परवेश वर्मा से नहीं पूछेगा।
2013-14 से वकील उज्ज्वल निकम के एक झूठ के कारण राजनीति में बिरयानी एक रूपक की
तरह बन गई है। गजब ही कह लीजिए कि आतंकवादी कसाब भी बीजेपी नेता की कृपा से दिल्ली
चुनाव में मैदान में उतर गया। बीजेपी नेता ने मुंबई हमले और कसाब के संदर्भ में कह दिया
कि, “आतंकवादी भारत के अंदर जगह जगह विस्फोट करते थे। उन सबको यमलोक
पुरी की यात्रा पर भेजना शुरू कर दिया हमारे सुरक्षा बलों के ज़वानों ने। कांग्रेस और
केजरीवाल इन उपद्रवियों को क्या खिलाते थे, बिरयानी। और हम क्या खिला रहे हैं गोली।” यह बयान आतंकवादी कसाब और बिरयानी वाले विवाद को लेकर था। अगर बयान देनेवाले बीजेपी
नेता को पूछा जाए कि केजरीवाल कब और किस आतंकवादी को बिरयानी खिला रहे थे तो क्या इसका
जवाब मिलेगा? तारीख, साल, केजरीवाल का राजनीति में उदय, सीएम बनने की तारीख, सत्ता पाने का समय...
सबको मिला दे तो यकीनन नहीं मिलेगा। आप खुद ही जवाब समझ जाएंगे।
मोदी से लेकर अमित शाह, मनोज तिवारी, योगी आदित्यनाथ, शिवराजसिंह, अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, तरुण चुध, परवेश शर्मा, दिलीप घोष... आप कितने-कितने
नाम लेंगे? क्योंकि 250 से ज्यादा सासंद, कई राज्यों के मुख्यमंत्री, बीजेपी पश्चिम बंगाल के लड़ाकू, बिहार-यूपी के सितारे बहुत कुछ झोंका था, जिन्होंने वही झोंका जो शीर्ष नेतृत्व ने झोंका था!
बीजेपी को सीखना था वाजपेयीजी से, सीख गई सोनिया से
बीजेपी को सीखना था वाजपेयीजी से, सीख गई सोनिया गांधी से!!! याद कीजिए वो दौर जब सोनिया ने गुजरात के चुने हुए सीएम नरेंद्र
मोदी को उसी राज्य में जाकर मौत का सौदागर कहा था। फिर क्या हुआ सबको पता है। दिल्ली
में भी चुने हुए सीएम अरविंद केजरीवाल को भाजपा के दिग्गज नेताओं ने आतकंवादी कह दिया।
फिर क्या हुआ सबको पता है। यह वही केजरीवाल थे जिन्होंने देश के चुने हुए पीएम नरेंद्र
मोदी को मानसिक रूप से अस्थिर तक कह दिया था। सोनिया और केजरीवाल की गंदगी बीजेपी को
भी अच्छी लगी। तभी तो अपने कमल को सचमुच उस किचड़ में ले गए होंगे।
दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी नेता परवेश वर्मा ने केजरीवाल को 'आतंकवादी' कहा और फिर बाद में उन्हें नक्सली भी कह दिया। फिर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर
ने भी केजरीवाल को 'आतंकवादी' कह दिया। उन्होंने तो यह भी घोषणा कर दी कि इसके सबूत भी है।
चुनाव हारने के बाद भाजपा नेता ओपी शर्मा ने अरविंद केजरीवाल को 'आतंकवादी' कहा। ओपी शर्मा ने कहा कि केजरीवाल के लिए आतंकवादी सबसे सही शब्द है, केजरीवाल भ्रष्ट व्यक्ति हैं, उन्हें आतंकियों के साथ सहानुभूति है, वो देश में पाकिस्तान आर्मी के प्रवक्ता की भूमिका निभा रहे हैं।
ओपी शर्मा जब चुनाव हारने के बाद केजरीवाल को आतंकवादी कह रहे थे, उससे पहले पीएम मोदी उस आतंकवादी को चुनाव जीतने के लिए बधाई
दे चुके थे!!! उन्हीं दिनों इस आतंकवादी के साथ अमित शाह बतौर गृहमंत्री आधिकारिक मुलाकात भी कर
रहे थे!!! आतंकवादी के साथ केंद्र सरकार का इतना प्यारा व्यवहार पहली घटना होगी! प्रकाश जावड़ेकर के
पास सबूत थे तो फिर गृहमंत्री अमित शाह को क्यों नहीं दिए यह सबूत? वर्ना मुलाकात के बदले गिरफ्तारी तो होती। यह राजनीति है, क्या
पता सालों बाद आम आदमी पार्टी से बीजेपी कही पर कोई गठबंधन भी कर ले। और तब आप और केजरीवाल
आतंकवादी नहीं रहेंगे, जैसे मुफ्ती नहीं रही
थी!!!
शिक्षा-स्वास्थ्य-नीतियां-विकास आदि की बातें मोदी-शाह और अन्य बीजेपी प्रचारकों
ने की ज़रूर। लेकिन बस उतनी ही जितना डिश को सजाते समय धनियें के पत्तें को रखते है! ताकि धनियां दिखे
भी और खाना खाए तो उस धनियें का स्वाद भी लगे! चुनाव-दर-चुनाव बीजेपी अपने ही पिछले चुनाव प्रचार को बेहतर
मानना पड़े इस प्रकार की स्थितियां पैदा कर देती है! हो सकता है कि दिल्ली के इस चुनाव प्रचार को जितना ज़हरीला माना
जा रहा है, क्या पता अगला चुनाव प्रचार दिल्ली के इस चुनाव प्रचार को बेहतर
मानने के लिए आपको बाध्य कर दे। फिलहाल तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के पुराने रिकोर्डों
को बीजेपी ने दिल्ली चुनाव में ध्वस्त ही कर दिया और नये किर्तीमान स्थापित कर दिए।
इतना ही नहीं आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल कर डिपफेक वाला फेक न्यूज़ आधिकारिक
ढंग से चलाया गया। बीजेपी भले अपने समर्थकों को प्राचीन भारत के उपदेश देती हो, लेकिन खुद बहुत ही आधुनिक है!!! जिस वाईस न्यूज़ ने इस खबर को उजागर किया उसकी माने तो मनोज
तिवारी का यह डिपफेक वीडियो 5,000 से ज्यादा व्हाट्सएप ग्रुप में फैलाया गया था। इसका
एक ही मकसद था - गलत राजनीतिक सूचना का प्रसार करना।
नायक जिस क्षेत्र में हो उस क्षेत्र को समृद्ध करने के लिए कुछ
न कुछ दे जाता हैं। मोदी सत्ता ने भारतीय राजनीति को ऐसा कुछ नहीं दिया है, जिससे भारतीय राजनीति का स्तर समृद्ध हो। कहते हैं कि बुराई किसी दूसरी बड़ी बुराई को अवश्य प्रेरित कर जाती है। छगन (कांग्रेस समेत
दूसरे दल) ने किया था, मगन भी वही कर रहा है। छगन से कम किया यही गौरव लेकर विश्वगुरु बनना है। लठैत
कहेंगे कि भारत का डंका तो बज रहा है दुनियाभर में। राजनीति में आशिकी काम आ सकती है, विश्लेषणों में या निष्पक्षता में नहीं।
एक राज्य के चुनाव को घोर ज़हरीला या घौर विषैला बनाकर हार जाने के बाद यह कह देना
कि हम अतिआक्रमक हो गए थे और इन्हीं बयानों ने हमें नुकसान पहुंचाया...! नौ सौ चूहे
मारकर बिल्ली मस्जिद को ही नहीं मंदिर को भी जाती है!
वो पुराना जमाना था जब बिल्ली सौ चूहे मारकर जाती थी, अब बिल्ली नौ सौ चूहे मारकर भी चली जाती हैं!!! सिर्फ मस्जिद नहीं मंदिर की तरफ भी! यूं तो 2014 के बाद तमाम चुनाव प्रचार में बीजेपी सत्ता ने स्तर को गिराया ही
है। कहीं पर स्तर और मानकों को ऊंचा करने की छोटी सी कोशिश तक की गई हो ऐसा एक भी वाक़या
मौजूद नहीं है। दिल्ली विधानसभा 2020 का चुनाव प्रचार के बारे में तो (हमने ऊपर देखा
वैसे) संघ के ही पुराने लोग कह गए कि ऐसा प्रचार पहले कभी नहीं हुआ। घोर ज़हरीलापन या
घौर विषैलापन का प्रचार-प्रसार करने के बाद जब शर्मनाक हार हुई तो गृहमंत्री कम डिप्टी
प्रचारमंत्री अमित शाह ने कह दिया कि गोली मारो और भारत-पाक मैच जैसे बयानों से हमारे
नेताओं को बचना चाहिए था। न्यूज़ एजेंसी पीटीआई
ने अमित शाह के हवाले से कहा कि हो सकता है पार्टी नेताओं द्वारा दिए गए नफ़रत
भरे बयानों के कारण भाजपा को चुनावों में नुकसान उठाना पड़ा हो।
गौर से पढ़िए तो इसमें शाह अब भी ‘हो सकता है’ वाला लफ्ज़ इस्तेमाल कर एक विंडो खुली छोड़ रहे थे! दूसरी तरफ यह भी कहते
दिखे कि हमारे नेताओं को गोली मारो और भारत-पाक मैच जैसे बयान नहीं देने चाहिए थे। लेकिन
उन्होंने यह नहीं कहा कि मुझे भी बटन और करंट वाला बयान नहीं देना चाहिए था! उन्होंने दूसरों के
बारे में कह दिया कि उन्हें यह नहीं करना चाहिए था, लेकिन अपने गुनाह या गलती पर वो मनमोहनजी की आत्मा में जा घुसे! योगी और मोदी को भी
नहीं कहना चाहिए था - यह कहने की मूर्खता या हिम्मत आज की राजनीति के हिसाब से वो नहीं दिखाते यह व्यावहारिकता है। किंतु एक तरीके से वो ज़हर या विष बांटने के बाद बड़े आराम
से कहते हैं कि हमें यह नहीं करना चाहिए था! कम से कम दिल्ली में नहीं करना चाहिए था यह उनकी समझ हो सकती
है या फिर जुमला! लेकिन दूसरे कई राज्यों में उन्होंने कमोबेश ऐसा ही किया और बिहार के लिए यह शुरू
भी हो चुका है, किंतु उनका बयान सिर्फ दिल्ली को लेकर है, दूसरे प्रदेशों को लेकर नहीं! अपने बयान को उन्होंने खुद ही क्लीन चिट दे दी! जैसे कि मैंने कहा
वो रामलीला थी, दूसरों की रासलीला! यानी कि दूसरों को
नहीं देने चाहिए थे, उन्हें देने चाहिए थे!!! अमित शाह के अनुसार
ठाकुर या मिश्रा के बयान ठीक नहीं थे, लेकिन विशेष रूप से उनका बयान ठीक था!!!
बीजेपी के लिए प्रचार का यह ज़हर लाभदायी सिद्ध होता रहा है, फिलहाल तो बीजेपी नफ़रत की इस राजनीति को किनारे नहीं कर सकती
चुनाव में तो कूछ बातें यूंही कह दी जाती है। देश के पीएम का यह बयान जितना
"चौंकाता" है उतना ही "उलझाता" भी है। सब जानते है कि चुनावों में बातें यूंही नहीं कही जाती, उसके पीछे ताने और बाने, दोनों होते हैं। पहली बात यह कि हम तो चाहते है कि भारत में केंद्र का चुनाव हो या
प्रदेशों का,
नेता लोग काम-नीतियां-योजनाएं-मूल
ज़रूरतें आदि की राजनीति करे। धर्म-संप्रदाय-नफ़रत की झूठी राजनीति कभी देश को आगे नहीं ले जा सकती। चुनाव जिन कामों के लिए करवाए जाते हैं उन्हीं पर चुनाव लड़े भी जाए, यह आश एक भारतीय नागरिक के रूप में तो है ही।
भले ही श्रृंगारलेखकों के लिए नफ़रत की राजनीति के सामने काम की राजनीति जीती हो, लेकिन बीजेपी के लिए यही राजनीति जीती है। भावनात्मक तरीके से
लिखा जा सकता है कि देश में नयी राजनीति का उदय हुआ है। 2014 में जब बीजेपी जीती तब भी ऐसा ही लिखा जा रहा था, 2015 में आप जीती तब भी। इससे पहले भी बहुत दफा इसी तरह लिखा
जाता रहा है। नयी राजनीति का उदय हुआ है लिखते है, बाद में पता चलता है कि उदय तो दरअसल वेलकम मूवी वाला उदय शेट्टी है। सोशल मीडिया
पर कही पर एक लाइन दौड़ रही थी, जो कूछ यूं थी - देश का माहौल वेलकम मूवी जैसा हो गया है, केंद्र में उदय शेट्टी, यूपी में मजनू भाई, अमेरिका में आरडीएक्स सर और दिल्ली में डॉ. घुंगरू सेठ!!! नयी राजनीति इतनी सी ही हैं!
जमीनी तथ्यों को देखे तो फिलहाल तो सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद, धार्मिक प्रचार, नफ़रत, द्वेष, विषैलापन यह सबकुछ बीजेपी के लिए फायदेमंद ही साबित हो रहे है। उपरांत दिल्ली चुनाव
के बाद भी जिस तरीके से दूसरे प्रदेशों से यही स्थितियां जारी है, लगता नहीं कि नयी राजनीति का उदय हुआ है, बल्कि उदय शेट्टी ही हुआ है! हां, एक बात ज़रूर है कि मोदी सत्ता कब कौन सा यू-टर्न लेगी यह बड़े से बड़ा ज्योतिष तक
नहीं बता सकता, किंतु नये उदय की जगह
उदय शेट्टी बीजेपी के लिए आसान है।
हिंदू की जगह हिंदुत्व। यह छोटी सी लाइन कई दशकों का आइना है। राम मंदिर के ट्रस्ट
में वही अभियुक्त शामिल है, जो शीर्ष न्यायालय के हिसाब से घौर गैरकानूनी व घौर गैरसंवैधानिक कृत्य था। अमित शाह
ने दिल्ली चुनाव के बाद कुछ ज़हरीले बयानों को लेकर जो कहा उस दिन से लेकर आजतक वो सारी
चीजें पुनरावर्तित हो रही है वह सार्वजनिक है। मुसलमान तो बीजेपी को वोट देने से रहे, उन्हें हिंदू वोट के लिए हर वो प्रयोग करने ही है, जो पहले ना हुए हो।
दरअसल बीजेपी को अपनी वर्तमान लाइन का फायदा तो मिल ही रहा है। बीजेपी एंड आरएसएस
आफ्टर 2014 वाले हमारे लेख में संघ के ही पुराने लोगों के हवाले से लिखा था कि रोटी-कपड़ा-मकान
और मंदिर, सब ज़रूरी है। कभी मंदिर आगे निकला, रोटी पिछड़ी। तो कभी रोटी आगे निकली, मंदिर पिछड़ा। लेकिन मंदिर वाले संस्करण का लगभग समापन होने के
सालों पहले से ही रोटी-राष्ट्र-कपड़ा-मकान वाली नई लाइन लागू हो चुकी है। जिसका फायदा
भी फिलहाल हो रहा है। बीजेपी एंड आरएसएस आफ्टर 2014 वाले लेख में कई विभिन्न मॉडल्स
को एक करके आगे बढ़ने की नीतियां, कुछ दिक्कतें, कुछ चिंताएं शामिल थी, जिसे वे समय-समय पर उठा भी रहे है। उसी लेख में था कि 2014 में
लगा कि लाइन बदल गई, लेकिन फिर से उसी चौखट
पर जाकर खड़े हो गए। शायद इसलिए क्योंकि लाइन बदलना तो खुदकुशी करने जैसा ही लगता है।
दिल्ली चुनाव का विषेला प्रचार ठीक नहीं था यह अमित शाह ने कहा, लेकिन शायद वो भी जुमले के रूप में ही कह दिया! क्योंकि वही चीजें
आज भी जारी है। दिल्ली में भी, बिहार में भी और दूसरी जगहों से भी। बात दिल्ली चुनाव प्रचार के दिनों की करे तो, हिंदी-अंग्रेजी और गुजराती जैसे न्यूज़ पेपरों में भी छप गया है
कि दिल्ली में 20 फीसदी से भी कम वोटशेयर और 4, 3, 2 या 1 बैठक के रिपोर्ट ने बीजेपी
की नींद हराम करके रख दी थी। ‘भरपूर और जायज प्रयासों’ के बाद भी दिल्ली में भाजपा का पक्ष खड़ा नहीं हो पा रहा था।
15 जनवरी तक बीजेपी ने अनधिकृत कोलोनियां से लेकर दूसरे जायज प्रयास भी किए। केजरीवाल
की उपलब्धियों को लेकर विरोधी चुनाव प्रचार भी किया। राष्ट्रीय मुद्दें भी ले आए। किंतु
उन मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो, 21 या 22 जनवरी की बैठक में तय किया गया कि अब आखिरी
हथियार ही एकमात्र विकल्प बचा है। वो आखिरी हथियार क्या था वो उसके बाद समूचे देश ने
देखा, जिसकी बातें हमने ऊपर भी की है। अपने विश्वस्थ सूत्रों से उन मंचों
से लिखा गया कि बीजेपी ने अपना वोटशेयर बढ़ाने के लिए ही चुनाव उन विवादास्पद तरीकों से लड़ा, ताकि उसकी तुलना कांग्रेस से ना हो।
उन जगहों से लिखा गया कि आप तो पहले से ही आगे चल रही थी। बीजेपी के सामने चुनौती
यही थी कि अपनी सीटें बचाए रखे, लेकिन वो भी मुश्किल है यह आंतरिक सर्वेक्षण में सामने आया। रिपोर्ट्स की माने तो
21 या 22 जनवरी की उस बैठक का अंत रात डेढ़ बजे के आसपास हुआ था। जहां यह लिखा गया था
उन्होंने सूत्रों के आधार पर दावा किया कि वरिष्ठ बीजेपी नेता ने दावा किया था कि बीजेपी
पिछले प्रदर्शन से भी खराब करेगी। उसी रात की बैठक के बाद दिल्ली में बीजेपी ने जिस
तरीके से विवादास्पद ढंग से चुनाव प्रचार किया उसी वजह से जो बीजेपी चुनाव से बाहर दिखती थी, वह बीजेपी मुकाबले की स्थिति में दिखाई देने लगी। हालात तो
यहां तक पहुंचे कि देश के गृहमंत्री 29 जनवरी को बिट्रिट रिट्रीट में उपस्थित ही नहीं रहे, वो दिल्ली में थे, जहां उन्होंने नुक्कड़ सभाएं की। इतना ही नहीं 26 जनवरी की शाम राष्ट्रपति भवन में होनेवाले
पारंपरिक समारोह से भी शाह नदारद थे। देश के राष्ट्रीय उत्सव की जगह चुनावी प्रचार
में खुद को झोंकना ही उन्हें ज़रूरी लगा!!!
घृणास्पद अभियान को कैसे छोड़ा जा सकता है, क्योंकि इसने न सिर्फ वोटशेयर बढ़ाया है, बल्कि सुनिश्चित भी किया है। हां, कुछ प्रदेशों में उसे हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की पुरानी व्याख्या को दोबारा गढ़ना
पड़ेगा, जिसका काम मोहन भागवत ने राष्ट्रवाद की नयी व्याख्या से शुरू
तो कर ही दिया है। इसके ही संदर्भ में हमने आरएसएस एंड बीजेपी आफ्टर 2014 वाले पुराने
लेख का समापन किया था।
नफ़रत की राजनीति या काम की राजनीति में से कौन जीता-कौन हारा यह मुझे नहीं पता। दरअसल
बीजेपी ने ना सिर्फ अपना वोटशेयर बढ़ाया, अपितु सीटें भी ज्यादा जीती। यह सब उसी विवादास्पद चुनावी प्रचार का ही नतीजा था।
गौर कीजिए तो आज भी उनके नेता उस ढंग को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। सोशल मीडिया पर
धमकियां देनेवाले उनके नेता फिर से उसी रास्ते चलने को आमादा है। नतीजे के बाद भी एक
राज्य का राज्यपाल सरीखा आदमी शाहीन बाग को आतंकवाद का दूसरा रूप बतला रहा है।
केजरीवाल मोदी का विकल्प नहीं है, वो तो कांग्रेस का
विकल्प बनके उभरे थे और आज मोदी का विकल्प नहीं बल्कि दूसरे मोदी हैं?
केजरीवाल मोदी का विकल्प नहीं उन जैसे ही हैं? – यह नजरियां बीबीसी हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार रजनीश कुमार का भी है और नवजीवन जैसे
पुराने मंच पर लिखनेवालों का भी। उधर दिल्ली चुनाव के नतीजे के बाद वेद प्रताप वैदिक
जैसे दिग्गज और अनुभवी पत्रकार ने लिखा है कि अरविंद केजरीवाल नये प्रधानमंत्री की
दस्तक है। उन्होंने 2013 में मोदी के बारे में भी यही तथ्यों और तर्कों के साथ लिखा था और
केजरीवाल के बारे में भी यही लिखा है। समय उनके तर्कों को सही भी साबित कर सकता है या
गलत भी। किसी विशेषज्ञ के आकलन को सिर्फ एक ही नजरिए से नहीं देखा जा सकता या उसे भविष्यवाणी
के रूप में ही नहीं पढ़ा जा सकता।
दोनों के बीच ढेरों फर्क है उसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन यहां बात उन दोनों के बीच
जो समानताएँ दिखती है उसकी भी है। मोदी हो, केजरीवाल हो या राहुल-प्रियंका हो, यह लोग राजनीति में हैं जहां उन्हें मूलत: देश या प्रदेश का भला ही करना होता है।
इसी काम के लिए उन्हें चुना जाता है। ऐसे में वो कुछ भला कर दे तो उन्होंने कोई उपकार
नहीं किया। यह उनका काम ही तो है। उनका काम लोगों को पसंद आए तो वे चुन लिए जाते हैं, थोड़ी-बहुत प्रशंसा भी होनी चाहिए। थोड़ी-बहुत, हद से ज्यादा नहीं।
फिलहाल तो याद रखना होगा कि केजरीवाल मोदी का विकल्प नहीं कांग्रेस का विकल्प बनकर
उभरे हैं। दिल्ली में मोदी का विकल्प शीला थी, बीजेपी का विकल्प कांग्रेस थी। लेकिन आज केजरीवाल है, आप पार्टी है। दरअसल केजरीवाल कांग्रेस के विकल्प के रूप में
उभरे हैं। बीबीसी हिंदी के रजनीश कुमार और दूसरे अनुभवी पत्रकारों के मुताबिक वो मोदी
का विकल्प नहीं बल्कि दूसरे मोदी ही हैं। यह सच है कि केजरीवाल बीजेपी और मोदी सत्ता
की उन तमाम चालों से बच निकले हैं, जो करना किसी दूसरे के लिए बिल्कुल आसान नहीं होता। यह भी सच है कि जो झाडू छह महीने
से ज्यादा नहीं चलनी थी, वो छह सालों से बीजेपी
के चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य को पटक रही है! हम इसे भी अनदेखा नहीं कर सकते कि मोदी जैसे कदावर नाम और शाह
जैसे चुनावी विशेषज्ञ को केजरीवाल ने एक बार नहीं, दो बार नहीं बल्कि तीन-तीन बार धूल चटाई है! जिस मोदी लहर को मीडिया की मदद से गढ़ा गया था उसका पहला पंक्चर
आज से 5 साल पहले ही केजरीवाल ने किया था! यह सब सच है, इससे कोई इनकार नहीं है।
यह ज़रूर है कि दिल्ली ने ‘कर्म की राजनीति’ के सामने ‘धर्म की राजनीति’ को हरा दिया है। लेकिन यह समूचे देश में होगा यह कहना कई तथ्यों
और कई तर्कों को खारिज करने का दुस्साहस है। भारतीय राजनीति में चमत्कार होते रहते हैं और उदय शेट्टी की जगह नये उदय का चमत्कार हो तब बात और है। मुझे याद है कि 2014 से
पहले दिल्ली की विधानसभा के अंदर के दृश्य शायद ही टेलीविजन पर देखे गए हो, दिल्ली के चुनावों को शायद ही पहले ऐसी कवरेज मिली हो। मोदी विरुद्ध
केजरीवाल, इसका ही नतीजा है कि अब सबकुछ आसानी से टेलीविजन पर दिखाई देता
है, जो पहले नहीं दिखता था। अब तो समूचे देश को पता है कि दिल्ली
में विधानसभा की 70 सीटें होती हैं, पहले यह बहुत कम लोगों को पता होता था।
जय श्री राम के सामने जय बजरंबगली के नारे का जमीन पर आगमन कैसे हुआ उसकी कहानी
हमने ऊपर देखी है। हिंदूओं का रामभक्त और हनुमानभक्तों के रूप में विभाजन किसी दृष्टिकोण
से हिंदू संस्कृति के लिए सही नहीं है। चलो मान लेते हैं कि आप पार्टी या केजरीवाल को
यह मजबूरी में करना पड़ा या उन्हें बाध्य किया गया था। लेकिन यह भी सच है कि बजरंगबली
का सफल इस्तेमाल केजरीवाल कर ही गए, जैसे श्री राम का बीजेपी करती आई है। हिंदुत्व के किसी प्रतीक का या नाम का चुनावी
राजनीति में सफल इस्तेमाल करने का श्रेय मोदी के बाद केजरीवाल को ही जाता है। निष्पक्षता
से लिखे तो यह अच्छी बात नहीं है। यह अनावश्यक था। लेकिन दोनों ने किया है ज़रूर। ध्यान
दीजिए कि केजरीवाल ने शाहीन बाग से दूरी बनाए रखी, नागरिकता बिल जैसे विषयों पर कोई बात ही नहीं की, जेएनयू-जामिया किसी मुद्दे को लेकर आगे नहीं आए, हिंदूओं की बात करके ना मुसलमानों को नाराज किया और ना ही मुसलमानों की बात करके हिंदूओं
की नाराजगी मोड़ी। धार्मिक राजनीति तो नहीं कि किंतु धार्मिक दृष्टिकोण से राजनीति ज़रूर
कर ली!
हमने जैसे ऊपर बीजेपी की गंगागल और कस्में वाली नीति देखी, सामने कुछ रिपोर्ट ऐसे भी थे, जिसमें कहा गया था कि जब केजरीवाल के दर पर मटिया महल से विधायक रहे शोएब ईकबाल
ने मत्था टेका तो पहला आदेश मिला कि सीएए के खिलाफ बड़े आंदोलन का प्लान बंद करना पड़ेगा।
उन मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो शोएब ईकबाल बड़े आंदोलन का प्लान कर रहे थे। आदेश के
बाद यह बंद करना पड़ा।
एक दूसरा तथ्य भी देखा जाना चाहिए। सवाल है कि क्या दिल्ली के लिए सचमुच विकास
मसला है? ‘ज़रूरी है’ वाला सवाल नहीं है, ‘मसला है’ वाला नजरिया है। क्योंकि विकास तो हर प्रदेशों के लिए ज़रूरी है, लेकिन ‘ज़रूरतों’ से कम बल्कि ‘मसलों’ से चुनाव ज्यादा जीते जाते हैं यह भी तो एक सच है। हम तो बहुत
पहले से कहते आए हैं कि गुजरात-पंजाब-महाराष्ट्र और दिल्ली, यह चार प्रदेश ऐसे हैं जहां जो होना है वो तो होता ही रहेगा, कुछ भी रूक नहीं सकता।
दिल्ली में विकास की राजनीति करने के लिए कुछ ख़ास नहीं होता है। नरेंद्र मोदी
जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे और शीला दीक्षित दिल्ली में मुख्यमंत्री थीं तो उन्होंने
बड़ा दिलचस्प बयान दिया था कि शीलाजी देश की एकमात्र मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें सिर्फ़ फीते काटना होता है, राज्य में न किसानों की समस्या है, न सिंचाई की। देखा जाए तो यह सच है। दिल्ली देश की राजधानी है
और केंद्र की कवायद रहती है कि यहाँ वैश्विक स्तर का बुनियादी ढाँचा-सुविधाएँ उपलब्ध
रहें। चाहे वह क़ानून व्यवस्था का मसला हो, बिजली का मसला हो, पानी का मसला हो या
सड़क का। दिल्ली हमेशा से बिजली कटौती से मुक्त रहा है, जब बिहार जैसे राज्यों की राजधानी में 8 घंटे बिजली कटौती होती
थी। यहाँ की सड़कों व अस्पतालों पर देश के अन्य राज्यों की तुलना में प्रति कर्मचारी
या प्रति बेड कई गुना ज़्यादा ख़र्च किए जाते रहे। आशय यह कि दिल्ली में कोई भी सरकार
रहे, विकास होना ही होना है। इस मामले में भी यहाँ करने के लिए इतना
कुछ भी नहीं है।
केजरीवाल ने इससे आगे किया होगा इससे भी इनकार नहीं है। सरकारी स्कूल, मोहल्ला क्लीनिक आदि को लेकर काम बोलता है इससे भी इनकार नहीं है। पांच सालों में केजरीवाल सरकार ने अभूतपूर्व सिद्धियां हासिल की है यह भी सच है।
आप पार्टी और केजरीवाल के पास बीजेपी की तरह आर्थिक और राजनीतिक पूंजी नहीं है, खास समुदाय का वोटबैंक नहीं है, यह सारी चीजें सच है, इससे इनकार नहीं है। साथ ही, हम जैसे भारत और इंडिया, इन दो नामों से देश के जमीनी हालात को बयां करते हैं, दिल्ली में भी यही है। लुटियन्स वाली दिल्ली और दिहाड़ी-रेहड़ी-पटरीवालों
की दिल्ली। राजनीति ने इनको बहुत मथा होगा यह लाजमी है। लेकिन हमें बात दूसरी करनी
है यह दिमाग में रखे।
भारत के चुनावों में एक बात ज़रूर देखी जा सकती है कि अब सारी पार्टियां हिंदू वोट
को अपनी तरफ खींचने की मशक्कत करती दिखती है। किसी धर्म विशेष के वोट को अपने सेफ
में लोक करना नयी राजनीति है या पुरानी? अगर नयी है तो फिर कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टिकरण और बीजेपी का हिंदू तुष्टिकरण
वाला इतिहास पढ़ लीजिए। साफ है कि यह पुरानी राजनीति है। सोफ्ट हिंदुत्व या हार्ड हिंदुत्व
भी 21वीं सदी की खोज नहीं है, पुराना तरीका ही है। जो केजरीवाल 2014-15 में देश की राजनीति को बदलने निकले थे, उन्हें भी ममता-अखिलेश-लालू-राहुल-प्रियंका-मायावती, न जाने कितने-कितने
नेताओं के साथ एक मंच पर खड़ा होना पड़ा था!!! तमाम मुद्दों पर गाहे-बगाहे चिल्लानेवाले केजरीवाल आज चोइस करने
लगे हैं कि कहा बोलना है-कहा नहीं बोलना है!!! इसे परिपक्वता कहा जा सकता है। लेकिन राजनीति की यह लाइन पुरानी
ही है, जहां मुंह में कुछ और बगल में कुछ और हो। उन्होंने शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी
की राजनीति ज़रूर की है और यह आवश्यक है, ज़रूरी है, सही भी है। यह राजनीति
दूसरे प्रदेशों में नहीं चल सकती, लेकिन किसी एक प्रदेश में भी चलती रहे तो भारत के लिए अच्छी ही बात है। नेताओं को
अपने काम, अपनी नीतियां, योजनाएं,
मूल ज़रूरतें आदि पर
चुनाव लड़ने चाहिए, और अगर ऐसा कुछेक जगहों पर हो तब भी यह अच्छे दिन ही होंगे।
लेकिन देखे तो दिल्ली चुनाव के बाद मजबूरी में ही सहीं, किंतु राम बनाम हनुमान का जो दृश्य सामने आया है उसके पीछे
जितनी बीजेपी जिम्मेदार है, कुछ हद तक आप पार्टी भी जिम्मेदार है। यह धर्म की राजनीति नहीं है तो फिर क्या है? चलो मान लेते हैं कि बीजेपी ने आप को मजबूर कर दिया था, किंतु नतीजों के बाद और शपथ-ग्रहण के बाद ''हर महीने के पहले मंगलवार को सुन्दर कांड का पाठ अलग-अलग इलाक़ों
में किया जाएगा”, उनके चार्मिंग विधायक
सौरभ भारद्वाज की यह घोषणा क्या है? वो कहते हैं कि यह उनका अपना एजेंडा है। लेकिन किसी पार्टी के लोकप्रिय विधायक की
यह आधिकारिक घोषणा पर्सनल एजेंडा माने भी कैसे? सरकारें हिंदू-मुसलमान के कार्यक्रम चलाने पर आमादा हो तो फिर यह धर्म की ही राजनीति
है, बीजेपी का ही रास्ता है। बस नरम और गरम वाला फर्क ही है। जीत
के बाद केजरीवाल हनुमान मंदिर जाते हैं, क्योंकि इसे लेकर बीजेपी ने विवाद पैदा किया था। यहां तक ठीक है, लेकिन शपथ समारोह में केजरीवाल अपनी पुरानी पहचान, आम आदमी की वोह टोपी, पहनकर नहीं आते। वो तो माथे पर टिका लगाकर आते हैं! राजनेता चालाक ही होते हैं और उन्हें पता है कि उन्हें सार्वजनिक
समारोह में कैसा दिखना है और क्यों दिखना है।
मोदी का हाफ बांह का कुर्ता और केजरीवाल का हाफ बांह का क़मीज़ और मफलर, दोनों ब्रांड सरीखे हैं। मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि
यह ऐसे ही ब्रांड बन गया। नेता अपने दिखावे को लेकर काफी सजग होते हैं। मोदी ने अपनी
जमीन “उग्र विरोध नीति” से तैयार की, केजरीवाल ने भी यही
किया है। दोनों में फर्क धार्मिक कट्टरता वाले नजरिए को लेकर ज़रूर है। दूसरे भी कई सारे
फर्क ज़रूर है इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन हम बात कुछ समानताओं को लेकर कर रहे हैं, फर्क को लेकर नहीं। केजरीवाल का विरोध-आग उगलना-सीधे सीधे प्रतिपक्ष
पर वार करना, वैसा ही होता था जैसा
मोदी का हुआ करता था। फिलहाल तो मोदी ने यह लाइन पकड़कर रखी है, केजरीवाल ने छोड़ दी है। लेकिन दोनों में कॉमन चीज़ यह रही कि दोनों
ने प्रतिपक्ष के ऊपर खुलकर आरोप लगाए, लेकिन दोनों ने ही (मोदी और केजरीवाल) अपनी सरकार बनने के बाद उन आरोपों पर कोई काम
नहीं किया!!! मोदी के पास काले धन वालों की सूची हुआ करती थी, केजरीवाल के पास शीला की सूची थी। अब दोनों ने सूची खो दी है!!! भ्रष्टाचार और जनलोकपाल, इन दोनों का फायदा मोदी और केजरीवाल, दोनों ने खुलकर उठाया। किंतु आधा-पौना दशक बीत जाने के बाद, आज उन दोनों के पास सत्ता है फिर भी, दोनों में से कोई जनलोकपाल या भ्रष्टाचार को याद नहीं करते!!! केजरीवाल की पार्टी
का तो जन्म ही इसी मुद्दे पर हुआ था!
केजरीवाल न कहा था कि वो कभी राजनीति में नहीं आएंगे, आज वो तीसरी बार देश की राजधानी दिल्ली के सीएम बन चुके हैं!!! 2012 में आप पार्टी
के उदय की घोषणा करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि उनकी पार्टी में कोई हाईकमान नहीं होगा।
आज वो खुद ही केंद्र हैं!!! नये उदय की भावना को उदय शेट्टी बनाना केवल बीजेपी को ही नहीं, इन्हें भी आता है!
भाषण से पहले और बाद में भारत माता, वंदे मातरम्, इंकलाब जिंदाबाद जैसे
रूपकों का दोनों इस्तेमाल करते हैं। अपने अपने गुरु को छोड़कर अपने खुद के रास्ते पर चलना
दोनों ने पसंद किया। उस रास्ते पर चलने के बाद किसे साथ रखना है, किसे छोड़ना है, यह दोनों ने खुद ही तय किया। दोनों खुद ही अपने तरीके से बड़ा ब्रांड बने और दोनों
ने जान छिड़कने वाले अनुयायी दल को तैयार किया। मोदी पर उनके अनुयायी खूब भरोसा करते
हैं और मोदी को उन अनुयायियों पर भरोसा है, बिल्कुल यही हाल केजरीवाल को लेकर भी है। फर्क एक प्रदेश और समूचे देश का है, जो बहुत ही बड़ा फर्क ज़रूर कहा जाएगा।
आम आदमी का हुलियां अपनानेवाले केजरीवाल, जो कभी सिंपल सी वैगन आर कार में घूमा करते थे, आज बड़ी सरकारी कार है!!! केजरीवाल ने सत्ता को जीता और फिर शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी
आदि को लेकर काम किया। जनलोकपाल और विरोधियों की भ्रष्टाचार की फाइलें खो गई! मोदी ने भी सत्ता
को जीता और फिर नोटबंदी-जीएसटी-370-तीन तलाक-नागरिकता कानून को लेकर कड़े फैसले लिए, लेकिन शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी-विरोधियों की भ्रष्टाचार
की फाइलें-लोकपाल सब खो गया!
मोदी
और केजरीवाल, दोनों महत्वाकांक्षी हैं। केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को भी
इसमें शामिल कीजिएगा। मोदी अपनी पार्टी में अपने विरोधियों को पसंद नहीं करते, अपने विरोधियों को चुन-चुन कर बाहर फेंक देने के मोदी युग
के कथित किस्से जगजाहिर है। केजरीवाल के बारे में भी यही कहा जाता है। अपनी छोटी सी
राजनीतिक जिंदगी में केजरीवाल भी कथित रूप से कइयों को हटा या निपटा चुके हैं, पंख कतर चुके हैं,
कद छोटा कर चुके हैं। बीजेपी के भीतर कोई नहीं है जो मोदी से सवाल कर सके। आप पार्टी में भी कोई मौजूद नहीं है जो केजरीवाल को पूछ सके। कहा जाता है कि बीजेपी में मोदी-शाह
टिकटों का बंटवारा करते हैं, आप पार्टी में केजरीवाल-सिसोदिया। चुनावी नारों को लेकर
भी दोनों एकसरीखे हैं। सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर भी वही एकसरीखा हाल है। मोदी खुद को केंद्र में रखते हैं, केजरीवाल भी खुद को ही सेंटर बना देते हैं। केजरीवाल 8
फरवरी 2020 को मत देने के लिए पहुंचे तो अपने माता-पिता के पैर छूए और यह वीडियो सोशल
मीडिया पर डाल भी दिया!!! नरेंद्र मोदी के द्वारा अपनी माता का राजनीति में इस्तेमाल
करने के कई सारे उदाहरण सार्वजनिक है।
सुंदरकांड को लेकर उनके विधायक सौरभ, सरकारों द्वारा किए जानेवाले छठ पूजा, दुर्गा पूजा, दशहरा, उत्तरायणी आदि को सामने रखते हैं। यानी कि राजनीति जो करती आयी है, वही हम करेंगे!!! तो फिर नयी राजनीति की शुरूआत का कोण यहां कहा है?
सुंदरकांड को लेकर उनके विधायक सौरभ, सरकारों द्वारा किए जानेवाले छठ पूजा, दुर्गा पूजा, दशहरा, उत्तरायणी आदि को सामने रखते हैं। यानी कि राजनीति जो करती आयी है, वही हम करेंगे!!! तो फिर नयी राजनीति की शुरूआत का कोण यहां कहा है?
2013 का आप पार्टी का पहला चुनाव, जब केजरीवाल मुस्लिम धर्म गुरु तौकीर रजा से मिलने बरेली गये थे। मुस्लिम वोटबेंक
को लेकर चर्चा हुई थी उन दिनों। 2014 का लोकसभा चुनाव, तब केजरीवाल की टोपी में हिंदी और उर्दू में नारे लिखे गये थे।
2015 में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने मुसलमानों से आप पार्टी
को वोट देने की अपील की थी। बीजेपी ने इसे अपने तरीके से हिंदूओं में भुनाया तो आप पार्टी
ने शाही ईमाम की इस अपील से किनारा करने की घोषणा कर दी। 2020 का दिल्ली चुनाव, केजरीवाल ने एक भी मुस्लिम इलाके में रैली नहीं की, उनके आसपास कभी कोई मुस्लिम नेता नहीं दिखाई दिया और श्री राम
के सामने हनुमानजी का आगमन हुआ, केजरीवाल ने हनुमान चालीसा भी पढ़ी!!! शाहीन बाग पर चुप्पी, जेएनयू- जामिया- सीएए- एनआरसी सब मुद्दों को लेकर चुप्पी!!! ना विरोध किया और ना ही समर्थन। चालाकी से तमाम गेंदों को बीजेपी
के पाले में डालते रहे!
ध्यान दीजिए कि कांग्रेस और राहुल गांधी ने सीएए- एनआरसी- शाहीन बाग- जेएनयू- जामिया- अयोध्या
फैसला, सभी पर सक्रियता दिखाई थी। वो सारे मुद्दे जो मुसलमानों से जुड़े थे। लेकिन दिल्ली में जहां जहां मुसलमान वोटबैंक था वहीं पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर भी
नहीं आ पाई!!! मोदी की नीतियों का सबसे मुखर विरोध तो राहुल गांधी न किया है, केजरीवाल ने नहीं। इसको इस तरह से भी समझा गया कि यदि दिल्ली
का नतीजा मोदी की नीतियों के खिलाफ होता तो वहां कांग्रेस जीतती, आप पार्टी नहीं। लेकिन एक दूसरा दृष्टिकोण भी मौजूद है, जिसमें कहा जाता हैं कि लोगों को लगता हैं कि मोदी के सामने टक्कर
केजरीवाल ले सकते हैं, राहुल गांधी नहीं। कहानी
दूसरी भी है, जिसमें खुलकर मीडिया
के सामने कहा गया कि कांग्रेस ने अपने ही वोटरों को कहा था कि हमें वोट देंगे तो वो बीजेपी
को जाएगा, झाडू को ही दे दो! इसमें सच क्या होगा, झूठ क्या होगा, वो तो जनता के दिलो-दिमाग
को पता होगा।
आप पार्टी जीती है और केजरीवाल को लेकर जितना विष फैलाया गया, गौर कीजिए तो जीतने के बाद भी केजरीवाल खुद को पीड़ित नहीं बता
रहे। 2019 के बाद मोदी भी इसी लाइन पर है। मोदी का भावुक होना, रोना-धोना, खुद को पीड़ित बताकर भावनाएं बटोरना यह सब लगभग लुप्त हो चुका है! केजरीवाल भी इसी लाइन
पर है। दिल्ली चुनाव प्रचार हो या उसके बाद का समय हो, वो उन ज़हरीले बयान को लेकर या बीजेपी नेताओं को लेकर चुप है! मोदी और बीजेपी की
हिंदू वोटरों में जिस तरीके की भावनात्मक पैंठ हैं, मुद्दों की राजनीति करने का दावा करनेवाले केजरीवाल को अहसास हो चला है कि उस भावना
को छेड़ना नहीं है!!! वो चुपके से उसके सामानांतर अपनी एक छोटी सही किंतु अलग लाइन खींचना चाहते हैं!
गौर से देखिए तो हिंदू वोटरों की जो जंग देश में वर्तमान समय में व्याप्त है, केजरीवाल खुद को मुस्लिम समर्थक की छवि के रूप में नहीं दिखाने
के लिए हर मुमकिन कोशिशें करते नजर आते हैं। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक बीजेपी केजरीवाल
की हिंदू छवि को नुकसान पहुंचाने को लेकर आमादा है, ताकि उन्हें मुस्लिम समर्थक के रूप में दिखाया जा सके। बीजेपी की यह रणनीति भांपकर
केजरीवाल को बेमन से या फिर मजबूरी में खुद को नरम हिंदुत्व वाली गलियों में घुमाना पड़ रहा होगा। मजबूरी में है या जानबूझकर यह आप तय कर लीजिए, लेकिन है तो सही।
यह कोण सही हो सकता है कि जिस तरह से बीजेपी ने अतिधर्मवाद और अतिराष्ट्रवाद को
अपनाया है, विपक्षों के लिए भी धार्मिक और राष्ट्रवादी होना ज़रूरी हो गया
है। बीजेपी के अतिधर्मवाद की जगह खुद का धार्मिक होना और अतिराष्ट्रवाद की जगह खुद
का देशभक्त होना, बीजेपी के खिलाफ यही
काट अपनाना वर्तमान समय में विपक्ष के लिए ज़रूरी हो गया है। राजनीति में धर्मवाद, राष्ट्रवाद, देशवाद लंपटों की आखिरी शरणस्थली होती है। इस हिसाब से सभी को लंपट होना पड़ रहा है।
तो फिर नयी राजनीति का दावा कहा जाकर ठहरता है?
गौर कीजिए आप पार्टी के प्रवक्ता संजय सिंह का बयान, जिन्होंने नतीजे से पहले और नतीजों के बाद केजरीवाल को 'कट्टर
देशभक्त' बताया। 'कट्टर' लफ्ज़ का इस्तेमाल करना कई चीजों की तरफ इशारा करता है। रजनीश कुमार
बीएचयू के हिन्दी विभाग के प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी को क्वोट करते हुए बड़ी दिलचस्प
बात बताते है, ''प्रेम करने वाला कट्टर
नहीं हो सकता। वो चाहे देश से प्रेम करे या अपनी प्रेमिका से। या तो वो कट्टर होगा
या प्रेमी। कट्टरता में हिंसा, प्रतिशोध और संकीर्णता की प्रधानता होती है बल्कि इसमें स्वयंभू बनने की भी मंशा
होती है।'' प्रेम में विविधता और खुलापन है, कट्टरता में संकिर्णता और खुद को ही श्रेष्ठ बताने की सनक है।
प्रोफेसर समझाते है कि जब कोई खुद को कट्टर कहता है तो दरअसल वो खुद को श्रेष्ठ भी
नहीं बताता, वो तो दूसरों को कमतर दर्शाता है!!!
स्कूल ऑफ सोशल साइंस के प्रोफ़ेसर प्रवीण झा कहते हैं, ''दोनों की (मोदी और केजरीवाल) राजनीति देखे तो, एक गहरे मोदी हैं और दूसरे थोड़े हल्के मोदी हैं।" अनुच्छेद
370 हटाने का समर्थन करनेवाले केजरीवाल पहले राजनीतिज्ञ थे यह भुलाया नहीं जा सकता! वही थे जिन्होंने
कहा था कि अगर पुलिस उनके पास होती तो वो एक घंटे में शाहीन बाग खाली करवा देते! केजरीवाल ने आज तक
मुफ्ती या अब्दुल्लाह को रिहा करने की मांग नहीं की है! जितना बीजेपी शाहीन बाग के पास रही, उतना ही आप और केजरीवाल शाहीन बाग से दूर रहे! सीएए-एनआरसी पर चल
रहे विरोध-प्रदर्शनों में आंदोलन से निकली पार्टी कही पर खुद को दिखाती ही नहीं! यह बात और है कि आनेवाला
समय बताएगा कि केजरीवाल चुनाव जीतने की मशीन बनना चाहते हैं या फिर राजनीति में कोई निर्णायक
भूमिका निभाते हैं।
दिल्ली जैसे राज्य में भी मुद्दों की राजनीति के सामने धर्म की राजनीति ने अपना परचम
थोड़ा सा भी सही, लेकिन लहराया तो है
ही। क्या आप पार्टी को बीजेपी-कांग्रेस की तरह यह समझ आ गया है कि दिल्ली के बाहर जाना
है तो मुद्दों के साथ साथ धर्म-समाज-जाति आदि के दलदल में पूरा हाथ ना सही, उंगलियां तो डालनी ही पड़ेगी। जिस तरह से मोदी विकास और धर्म, दोनों नावों में सवार है, केजरीवाल भी उसी चैप्टर को थोड़ा सा अलग तरीके से लिखना चाहते हैं।
लोहा लोहे को काटता है – आप पार्टी उसी राजनीति की छवि को अपना नहीं रही क्या? फिर तो वो मोदी का विकल्प नहीं हैं, दूसरे मोदी हैं। 2019 में मोदी केदारनाथ गए और एक विशेष नजरिये
का प्रसार किया, केजरीवाल 2020 में हनुमानजी
के मंदिर पहुंचे, उसी विशेष नजरिये
का प्रसार करने के लिए। बीजेपी ने श्री राम को अपनी प्रॉपर्टी बना लिया है, आप पार्टी भी हनुमानजी को लेकर इसी रास्ते पर है। हां, बीजेपी या मोदी सत्ता के बारे में धर्म की राजनीति को भेदभाव
और बांटनेवाली रणनीति के तौर पर देखा जाता है, केजरीवाल या आप ऐसा करती नहीं दिखती। भले आप का मकसद नफ़रत का नहीं है, लेकिन वो बीजेपी की किताब से उसी पन्ने को ले रही है, जिसे धर्म की राजनीति की चौखट पर पहुंचना कहा जाता है!
रही बात मुफ्तखोरी या फ्री वाली। यह भी ईवीएम जैसा ही हैं। जनता
के आर्शीवाद प्राप्त होंगे तो जनता मुफ्तखोर नहीं है, जनता नकारेगी तभी वो गद्दार हो जाएगी। ईवीएम एक मशीन है और उस
पर इंजीनियर लोग बात करे तो ही अच्छा। ठीक वैसे ही कल्याणकारी योजनाएं समाज और अर्थतंत्र
से जुड़ी हुई है, इस पर इसके विशेषज्ञ
बात करे वही अच्छा। नोट करे कि दो दिन गार्डियन अख़बार पढ़कर लंदन के विशेषज्ञ बनने
का चलन अभी देश में जोरों पर हैं। दूसरी बात यह भी है कि जनता नेता चुनती होगी, किंतु राजनीतिक दल अपनी जनता को चुनने में यकीन करते हैं। दिल्ली
टाइप दंगलों से ही देश विश्वगुरु बन सकता तो फिर दुनियाभर में ऐसे कई विश्वगुरु पहले
से मौजूद हैं!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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