नेताओं के इश्कबाज कहेंगे कि इसमें मोदी-शाह, केजरीवाल-सिसोदिया या सोनिया-राहुल
कहां से आए? मैं क्या करूं? नेता समुदाय 1947 के बाद के तमाम दंगों में, तमाम हिंसा में ‘प्रेरणा का मूल’ बनते ही रहे हैं।
आप मुझसे नहीं, अपने अपने नेताओं से यह सवाल पूछ लीजिए कि उनकी प्रेरणा इन दंगों में
कहां से आई? दिल्ली हिंसा की
प्रेरणा भी मोदी-शाह, केजरीवाल-सिसोदिया या सोनिया-राहुल से ली गई होगी, इस कथन में
इल्ज़ाम-आरोप की शैली नहीं है, बल्कि राजनीति के बदनुमा दाग, हिंसा और नेताओं का
पुराना मेलजोल, दंगों के बयां किए गए पुराने सच, बीते दौर की कहानियां वगैरह दृष्टिकोण से नजरियां यह है कि हिंसा या दंगे होते नहीं करवाए जाते हैं वाले कथन में
कुछ तो सच्चाई होगी, यूंही बरसों से यह कथन चल नहीं रहा होगा।
दंगों के पीछे कौन जिम्मेदार था, हिंसा किसने करवाई, दिल्ली के लोगों को जो जख्म
मिले हैं उसके लिए दोषी कौन था... इन सबका अंतिम फैसला आएगा उससे पहले ऐसे कई दंगे
या ऐसी कई हिंसाएं देश झेल चुका होगा। काले हिरन को किसने मारा था यह देश की
व्यवस्था तय नहीं कर पाती, तो फिर दंगों-हिंसाओं के मामले, जो दशकों से चल रहे है,
उसका निबटारा सही ढंग से और न्यायसंगत कैसे हो पाएगा? न्याय होना नहीं चाहिए, हुआ है यह दिखना भी चाहिए... यह तंज सालों से सब लिखते
आए हैं और आगे भी लिखते रहेंगे। हर ऐसे मामलों में राजनीति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से शामिल होती ही हैं। धर्म, परंपरा, जाति, मान्यताएं, भावनाएं यह सारी चीजें
हिंसा या दंगे करने के लिए समाज को, समाज के लोगों को प्रेरित ज़रूर करती है,
उक्साती ज़रूर है, किंतु उसे यह सब करने के लिए 'छूट' चाहिए। भारत
भेड़-बकरियों का देश तो है नहीं, जहां जिसको जो करना है आसानी से कर जाए। यहां बाकायदा
एक संविधान है, सेना है, अन्वेषण का ढांचा है, पुलिस है, कानून है, व्यवस्थाएं है,
सरकार है, प्रशासन है, जांच संस्थाएं है, नीतियां है, नियम है, बंदिशें भी है, सजा देने
के मंच है, गलतियों को रोकने के लिए एक ढांचा है। ऐसा तो है नहीं कि जिसने जो करना
है कर लो, आसानी से कर लो और फिर आराम से घर के ड्राइंग रूम में बैठकर टेलीविजन
देखो। आप घरेलू मामलों में भी पत्नी, पुत्र, पुत्री या दूसरे परिजनों को एक थप्पड़
मारकर भी शांति से सांसें ले नहीं सकते, तो फिर कोई भीड़ सरेआम सड़कों पर आकर सैकड़ों
लोगों को जान और माल से प्रताड़ित कैसे कर पाती होगी???
किसी एक प्रदेश की हिंसा या दंगे को एक ही साँचे में डालकर देखा जा सकता है
किंतु समझा नहीं जा सकता, हिंसा की राजनीति के बदनाम नाले का ज़िक्र होना चाहिए और
साथ में संस्कृति की लंबी-चौड़ी खाई का भी
हिंसा या दंगे।
भारत आजाद हुआ तबसे आज के दिन तक यह अभिन्न से अंग सा लगता है। किसी एक जगह या
प्रदेश की हिंसा या दंगे को एक ही साँचे में डालकर देखा ज़रूर जा सकता है, किंतु
समझा नहीं जा सकता। हिंसा, दंगों, भीड़ और राजनीति को लेकर कई शोध हुए है, संशोधन
हुए है, किताबें लिखी गई है। भीड़ के ऊपर भी किताबें है। इन शोध-संशोधन व किताबों में कई ऐसी चीजें, नजरिए और तर्क-तथ्य शामिल है, जो चौंकाते है। हमने एकाध-देढ़ महीने पहले
हिंसा की राजनीति और राजनीतिक हिंसा को लेकर एक लेख लिखा था। टाइटल था - Hinsha
ki Rajneeti : सत्ता को बुलंदी पसंद नहीं आती, बीजेपी ही कांग्रेस है और
कांग्रेस ही बीजेपी है, टूथपेस्ट वही नाम नया। दिल्ली की ताज़ा हिंसा की चर्चा हम इसी
लेख के अधूरे हिस्से को आगे ले जाने के दृष्टिकोण से ही करेंगे।
जनवरी 2020 के इसी
लेख में पत्थर गैंग सच है या महज एक अफवाह, सबटाइटल के नीचे हमने छोटी सी चर्चा की
थी। जिसमें एक पैरा के अंदर "बंदूक तक पहुंचे
हैं क्या यह पूछने पर बतानेवाले बताते हैं कि लंबा इंतज़ार ना भी करना पड़े, क्योंकि
तलवार जैसे घातक हथियार तो लहराते ही है, क्या पता बंदूकें और गोलियां भी सड़कों पर
दौड़ने लगे", यह लफ्ज़ थे। इसीको
लेकर बहुत सारे तो नहीं लेकिन कुछेक लोग अब पुछते है कि ये संयोग है या प्रयोग? अरे भाई, संयोग से यह संयोग प्रयोग में तब्दील हो गया, वर्ना प्रयोग का संयोग
या संयोग का प्रयोग, किसी प्रकार का योग नहीं है! खैर, हम अपनी बात पर लौटते हैं।
कांग्रेस के समय
दंगे हुए, भाजपा के समय भी दंगे हुए, सपा-बसपा-टीएमसी-आप... बहुत लंबी सूची है।
सबके समय दंगे हुए। मूर्खता तो नहीं किंतु देशद्रोह यही है कि हम इसे कांग्रेस का
दंगा, भाजपा का दंगा, सपा का दंगा, बसपा-टीएमसी या आप का दंगा के रूप में सोचकर देश
से गद्दारी कर जाते हैं। नेहरू का दंगा, इंदिरा का दंगा, राजीव का दंगा, मुलायम का
दंगा, लालू का दंगा, ममता का दंगा, सोनिया का दंगा, मोदी का दंगा, शाह का दंगा,
केजरीवाल का दंगा...। दंगों के नामों में फर्क है लेकिन पर्दे के पीछे की कहानियों में
कौन सा फर्क पड़ जाता है? दंगों के बारे में
शोध, संशोधन, असली कहानियां, तथ्यात्मक चीजें भी तो एक सच है न? उस पर आप खुद प्रमाणिक ढंग से आगे बढ़िएगा। हमें तो दिल्ली की ताज़ा त्रासदी के
बारे में बात करनी है। हां, एक अंत तो सोशल मीडिया पर कइयों ने लिखा ही है कि दंगे
कोई भी हो, मरती है जनता, नेता और उनके रिश्तेदार तो आराम से जिंदगी जी ही लेते
है। दंगे से देश तो नहीं बदलता, बस राजनीति अपने ढंग से स्थितियां ज़रूर बदल लेती
है।
दिलवालों की दिल्ली में जब दिल चीरकर नफरत निकली... पता नहीं दिल्ली से निकली या
दिल्ली में बाहर से आई थी... दिल्ली हिंसा का शुरुआती घटनाक्रम, कपिल मिश्रा और
ताहिर हुसैन जैसे नेताओं की भूमिका पर उठे सवाल
दिलवालों की
दिल्ली। कहते हैं कि 1984 में सिखों के खिलाफ दंगों के बाद यह दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी
थी दिल्ली में, जब दिल्ली डरावनी लगने लगी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली एक ही दिन में अचानक
से जलने लगी। वो भी तब जब अमेरिका के राष्ट्रपति अपनी पत्नी, पुत्री और दामाद समेत
दिल्ली में थे!!! मीडिया बतला रहा
था कि परिंदा भी बिना इजाज़त घुस नहीं सकता इतनी भारी सुरक्षा है अमेरिका के
राष्ट्रपति के लिए। उस स्थिति को ही सोचिए, दिल्ली के एक इलाके में दुनिया का सबसे
ताकतवर शख्स अपने परिवार समेत भारत का मेहमान बना हुआ था और दिल्ली के दूसरे इलाके
में हिंसा और हत्या का वो दौर चल रहा था, जिसमें एक ही दिन में दर्जनों नागरिकों की
गोली मारकर हत्या कर दी जाती है!!!
यहां भी पहला सवाल
यही उठा था कि यह हादसा था या सोची-समझी रणनीति? नागरिकता कानून के खिलाफ पहले से ही यहां विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे। राजनीति
की कृपा से इसी महीने हुआ दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार सांप्रदायकिता, धार्मिक
भेदभाव, उक्साना, भड़काना, डराना आदि की सीमाओं को लांध गया था। नागरिकता कानून के
विरोध में प्रदर्शन शुरू हुए उससे पहले जेएनयू हिंसा, जामिया हिंसा का दौर भी खूब
चला था। जाहिर है, देश की राजधानी होने की वजह से दिल्ली पहले से ही गर्म थी। धर्म
और राजनीति का कोकटेल यहां विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई उससे पहले ही घोला जा रहा
था, पिलाया जा रहा था। कहते हैं कि कोई भी हादसा अचानक ही नहीं होता, उसके पीछे कई
सारी चीजों का ताना-बाना होता है। फिर जब कुछ बड़ा होता है तब एक छोटी सी चिनगारी ही
काफी होती है, आग को फैलाने के लिए।
बहरहाल ताज़ा हिंसा
की बात करे तो दिल्ली के जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के पास 22 फरवरी 2020 की रात को महिलाएं
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ धरने पर बैठ गईं। धीरे-धीरे वहां महिलाओं का हुजूम
बढ़ता गया, जिसके बाद भारी संख्या में पुलिस बल की तैनाती कर दी गई। प्रदर्शन के चलते
ट्रैफिक व्यवस्था पर असर पड़ रहा था। पुलिस ने प्रदर्शकारियों से हटने की अपील की
किंतु वे नहीं माने। दिल्ली में एक जगह पर सड़क खुलवाने का मामला पहले से ही शीर्ष
अदालत में लंबित था। किसी कानून के खिलाफ लोग सड़कों पर थे। दिल्ली चुनाव में धमकियां,
भाषणों में जहर आदि को लेकर माहौल तो गर्म था ही। पुलिस तो संयम से काम ले ही रही
थी। लेकिन उस दिन बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने रोड ब्लोक किए जानें के खिलाफ एक
वीडियो पोस्ट किया। इतने तक तो ठीक था, किंतु महाशय लोगों को आह्वान करने लगे कि
दूसरे दिन सब मौजपुर चौक आ जाइए, हम सड़क खुलवाएंगे! 23 फरवरी 2020 को बीजेपी नेता कपिल मिश्रा अपने समर्थकों के साथ सड़क खाली कराने
के लिए निकले, लेकिन पुलिस ने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया। यहां गौर करने लायक
चीज़ यह भी है कि सड़क खाली कराने के लिए एक पार्टी का नेता निकल जाता है! यह काम पुलिस को करना था या फिर वो नेता पुलिस को आवेदन दे सकता था, पुलिस
कमिश्नर के आगे जाकर प्रदर्शन कर सकता था, मांग कर सकता था।
23 फरवरी वोह दिन था जब सीएए के विरोध में भीम आर्मी
ने भारत बंद का आयोजन किया था। एक रिपोर्ट के मुताबिक भीम आर्मी के समर्थक इसी दिन
कपिल मिश्रा के समर्थकों के साथ भीड़ गए थे। हाथापाई हुई, मारपीट हुई। कथित रूप से
यहां पथराव भी हुआ था। कहते हैं कि इसी दिन भीम आर्मी के समर्थकों ने हौजरानी में
जुलूस निकाला और मैक्स अस्पताल के सामने सड़क बंद करने की कोशिश की। हौजरानी वही
जगह है, जहां गांधी पार्क में कई दिनों से शांतिपूर्वक धरना चल रहा था।
नेताजी को शायद
ट्रैफिक और लोगों की परेशानी से बड़ा दुख हुआ होगा, तभी वो पुलिस के सामने जानें के
बजाय कानून-व्यवस्था का बोज खुद ही उठाकर सड़क पर निकल गए थे!!! बेसिकली यह चीज़ विवादास्पद तो थी ही। किंतु इससे ज्यादा चौंकानेवाला समय भी
आया, जब कपिल मिश्रा ने डीसीपी की मौजूदगी में पुलिस और लोगों, दोनों से कहा कि, “वह लोग अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के जानें तक का इंतज़ार कर रहे हैं और
तब तक अगर प्रदर्शनकारियों को वहां से नहीं हटाया गया तो इसके बाद वह पुलिस की भी नहीं
सुनेंगे।”
दिल्ली में ही
दूसरी सड़क खाली करवाने का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था। अदालत क्या कहती है
यह सुनने के लिए पुलिस खुद ही इंतज़ार कर रही थी, लेकिन नेताजी तो कह गए कि हम पुलिस
का भी इंतज़ार नहीं करेंगे, नहीं सुनेंगे!!! ये वही कपिल मिश्रा थे जो हालियां दिल्ली चुनाव प्रचार में बेहद ही आपत्तिजनक
और घोर सांप्रदायिक बयानों के चलते बदनाम हो चुके थे। इन्हें आयोग को प्रचार से
रोकना पड़ा था, ट्वीट हटाने के लिए आदेश देने पड़े थे! चुनाव तो खत्म हो चुके थे, लेकिन यह रूके नहीं! सरेआम वीडियो ट्वीट कर धमकी भी दे दी कि वह और उनके समर्थक डोनाल्ड ट्रंप का
दौरा खत्म हो उसीका इंतज़ार कर रहे है और फिर वह दिल्ली पुलिस की भी नहीं सुनेंगे,
तीन दिन है सड़क खाली कर दो। गजब था कि जिस वीडियो को उन्होंने ट्वीट किया था उसमें
वे उत्तर-पूर्वी दिल्ली के डीसीपी वेदप्रकाश के साथ में नजर आ रहे थे। फिर 23 फरवरी
की रात से ही जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के पास पथराव की छिटपुट घटनाएं सामने आने लगी।
24 फरवरी 2020 का
दिन था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत पहुंचे। दूसरी ओर राजधानी दिल्ली
में हिंसा बढ़ने लगीं। राजनीति ने तो चुनाव के पहले ही आग लगाई थी। अब कपिल मिश्रा
जैसे नेता भी भीड़ बनाकर चिनगारी को फूंकने लगे। फिर क्या था। भजनपुरा, गोकुलपुरी, चांदबाग, ब्रह्मपुरी समेत इसके आसपास के इलाकों में नागरिकता कानून के विरोधी और समर्थक
आमने-सामने आ गए। देखते ही देखते हिंसा ने भयानक रूप ले लिया। दर्जनों वाहनों और दुकानों
को आग के हवाले कर दिया गया। भारत ने कई कानूनो या सरकारी नीतियों का
विरोध-प्रदर्शन देखा है, किंतु यह वाकई नया ट्रेंड था, जब किसी सरकार के कानून या
नीति के संदर्भ में विरोधियों के आंदोलन का विरोध समर्थन आंदोलन के जरिए ही हो रहा
हो!!! इस गोलमेजी परिषद को लेकर अलग संस्करण में चर्चा करेंगे।
24 फरवरी 2020 की
दोपहर के बाद दंगों ने बड़ा रूप धारण कर लिया। चांदबाग इलाके में डीसीपी और एसीपी
स्तर के अधिकारियों को लोहे की ग्रील फांदकर अपनी जानें बचानी पड़ी। इसी घटना के
दौरान हेड कांस्टेबल रतनलाल की मौत हो गई। एक ही दिन में 10 नागरिकों की जानें चली
गई। पीटने की वजह से नहीं बल्कि इनमें से ज्यादातर को गोलियों से मार दिया गया था!!! दिल्ली हिंसा को देखते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने देर रात ही अधिकारियों के साथ
बैठक बुलाई। संवेदनशील इलाकों में पुलिस बल की तैनाती की गई। लेकिन सारे के सारे इंतज़ाम
तब धरे के धरे रह गए जब अगले दिन यानी 25 फरवरी को हिंसा और बढ़ गई। भजनपुरा, करावल नगर, बाबरपुर, मौजपुर, ब्रह्मपुरी, गोकुलपुरी और चांदबाग में नागरिकता कानून के विरोधी और समर्थकों के बीच जमकर पत्थरबाजी
हुई। उपद्रवियों ने एक-दूसरे पर पेट्रोल बम फेंके और सरेआम खुलकर गोलियां भी चलाई!!! पुलिस ने लोगों को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे, लेकिन पुलिस
की सारी कोशिशें नाकाम साबित हुईं। वैसे भी 24 फरवरी की शाम से ही पुलिस की
कार्यशैली पर सवाल उठने लगे थे। आरोप तो कल शाम से ही लगने लगा था कि पुलिस सड़कों
पर है, लेकिन एक्शन मोड में नहीं है, स्लीपींग मोड में है! हर हिंसा की तरह यहां भी पुलिस दर्शक बनते दिखाई दी।
एक के बाद एक मौतों
का आंकड़ा बढ़ने लगा। उसी शाम चार हिंसा प्रभावित इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया।
वहां अधिक फोर्स की तैनाती कर दी गई। महज चार दिनों में दिल्ली में 40 से भी अधिक
लोगों की जानें चली गई। यूं कहे कि चार दिनों में ही 40 से ज्यादा लोगों की हत्या कर
दी गई!!! आधिकारिक आंकड़ा 46
के आसपास था। 300 से ज्यादा लोग घायल हुए। गुमशुदा लोगों की तो कोई बात ही नहीं कर
रहा था! इन सबमें सबसे ज्यादा चौंकानेवाला यह था
कि मारे गए या घायल हुए लोगों में से आधे से ज्यादा लोगों को बंदूक की गोलियां लगी थी!!! ये वाकई नया और सक्ते में डालनेवाला ट्रेंड था, जिसमें हिंसा में इस कदर
गोलियां चली हो!!! एक रिपोर्ट के
मुताबिक खाली कारतूस, जो दिल्ली पुलिस को मिले, उसका आंकड़ा 400 के पार था। खाली
सेल मिले उतनी ही गोलियां चली होगी यह मानना तो बिलकुल बचकाना अंदाज होगा, क्योंकि
जो मिला उससे कई गुना ज्यादा गोलियां चली होगी। यानी कि तीन-चार दिनों के भीतर
दिल्ली में सरेआम सैकड़ों गोलियां चली!!! क्या ये आंकड़ा चौंकाता नहीं है? आखिरकार हालात सामान्य होने लगे।
सबसे पहले हेड कॉन्स्टेबल
रतनलाल की गोली लगने से मौत हो गई। दिल्ली की इस हिंसा में खुफिया विभाग के कर्मचारी
अंकित शर्मा की भी मौत हो गई! उन्हें कथित रूप
से उनके घर के सामने से ही खींच कर भीड़ ले गई और मार दिया! एक आईबी कर्मी की लाश देश की राजधानी दिल्ली में एक नाले में पड़ी मिली!!! इतना ही नहीं, बीएसएफ का जवान जो उन दिनों सरहद पर तैनात था, उसके घर को जला
दिया गया!!! यह अगर आपको नहीं चौंकाता, तो फिर आप एक नागरिक
से नेता बनने योग्य कैटेगरी में प्रवेश कर चुके है। अंकित की पोस्टमार्टम रिपोर्ट
से जो सामने आया वो बहुत ही ज्यादा चौंकानेवाला था। उनके शरीर के हर हिस्से में धारदार
हथियार से वार किया गया था। कथित रूप से डॉक्टरों ने बताया कि उन्होंने इतनी नृशंष
हत्या की वारदात पहले कभी नहीं देखी थी। अंकित के शरीर का कोई हिस्सा नहीं बचा था,
जहां हत्यारों ने धारदार हथियार से वार ना किये हो! उनकी आंते तक बाहर निकल आई थी! ऐसा बिल्कुल ना माने कि दिल्ली के दंगों में सिर्फ अंकित की हत्या ही इस तरीके
से की गई थी। जीटीबी अस्पताल के डॉक्टरों के मुताबिक कई लोगों को घिनौने तरीके से मार
दिया गया था। तलवारों के दर्जनों वार, चाकुओं के पच्चीस-तीस वार, जला देना, एसिड छिड़क
कर मार देना, कई कहानियां अंकित शर्मा सरीखी ही थी! हालांकि अंकित शर्मा की
जिस स्थिति में हत्या हुई और जिस तरीके से हुई, वो एक आईबी कर्मी थे, सो हत्य़ा
संदिग्ध थी। यानी कि क्या धार्मिक उन्माद के चलते उनकी हत्या हुई या किसीने मौके
का फायदा उठाया था यह तो जांच के बाद पता चल सकता है।
आईबी कर्मी की इतनी नृशंष हत्या और देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके में एक नाले से उनका शव मिलना, यह चौंकाता उससे पहले अंकित के परिवार ने इस हत्या का आरोप जिस पर लगाया उसने सबको ज्यादा सक्ते में डाल दिया। हालियां विधानसभा चुनाव जीती और नयी राजनीति का नारा लगा रही आप पार्टी की केजरीवाल सरकार के चुने हुए पार्षद ताहिर हुसैन पर आईबी कर्मी के परिजनों ने ही आरोप लगाया। ताहिर पर हत्या, हिंसा भड़काने और उपद्रवियों की मदद करने का आरोप लगा। इतना ही नहीं, ताहिर हुसैन के घर की छत से काफी मात्रा में पत्थर, पेट्रोल बम और एसिड बरामद किया गया!!! पुलिस ने पार्षद के खिलाफ हत्या व अन्य धाराओं में केस दर्ज किया।
आईबी कर्मी की इतनी नृशंष हत्या और देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके में एक नाले से उनका शव मिलना, यह चौंकाता उससे पहले अंकित के परिवार ने इस हत्या का आरोप जिस पर लगाया उसने सबको ज्यादा सक्ते में डाल दिया। हालियां विधानसभा चुनाव जीती और नयी राजनीति का नारा लगा रही आप पार्टी की केजरीवाल सरकार के चुने हुए पार्षद ताहिर हुसैन पर आईबी कर्मी के परिजनों ने ही आरोप लगाया। ताहिर पर हत्या, हिंसा भड़काने और उपद्रवियों की मदद करने का आरोप लगा। इतना ही नहीं, ताहिर हुसैन के घर की छत से काफी मात्रा में पत्थर, पेट्रोल बम और एसिड बरामद किया गया!!! पुलिस ने पार्षद के खिलाफ हत्या व अन्य धाराओं में केस दर्ज किया।
दिल्ली के दंगे ने सैकड़ों हिंदू-मुस्लिमों को अपने ही शहर में शरणार्थी बना दिया! ऊपर से राजनीतिक दलों के लठैतों का व्हाट्सएप या फेसबुक पर आग लगाने का
कार्यक्रम निरंतर जारी था! लाजमी था कि इन
लठैतों को दलों के आईटी सेल कंटेट मुहैया करवा रहे थे।
दिल्ली में जो
हिंसा हुई, फिर उसने दंगे का रूप धारण किया, इसमें उस दिन हिंसा कहां से शुरू हुई इसका
पता लगाना बिलकुल नामुमकिन है। लेकिन एक बात साफ है कि नागरिकता कानून के समर्थक
और कानून के विरोधियों, दोनों की तरफ से हिंसा हुई थी। पहले ही लिखा है कि हिंसा
कहां से शुरू हुई इसका पता लगाना बिलकुल नामुमकिन है। बस कहानियां और अपनी-अपनी
मान्यताओं के आधार पर अपने-अपने तरीके से सब लोग मानते और मनवाते है! खुलकर गोलियां चली, पेट्रोल बम फेंके गए, आगज़नी हुई, नृशंष तरीके से हत्याएं
हुई, लूंटपाट हुई। गाड़ियां, पेट्रोल पंप, दुकानें, घर, सरकारी संपत्ति, निजी
संपत्ति, मंदिर, मस्जिद सब कुछ आग में फूंक दिया गया।
दिलवालों की दिल्ली के बारे में कुछ बातें
पहले दिल्ली के
बारे में कुछ बातें कर लेते है। जैसे हमारे देश की जमीनी हकीकतें समझाने के लिए
अक्सर कहा जाता है कि यहां भारत और इंडिया, दोनों बसते है। ठीक वैसे ही दिल्ली में
है। पहले तो बाकायदा जो दो नाम है उसका ज़िक्र कर लेते है। एक है नयी दिल्ली और
दूसरी है पुरानी दिल्ली। इन दो नामों का इलाका-पहचान-संस्कृति-शैली-जिंदगी सबकुछ
अलग-अलग है। साथ ही नयी दिल्ली हो या पुरानी दिल्ली, दोनों में भी अलग-अलग दिल्ली
बसती है। नयी दिल्ली, इसमें ‘लुटियंस' वाली दिल्ली का नाम बहुत फेमस है। लोगों में नहीं, राजनीति में। कांग्रेस हो या
बीजेपी या कोई तीसरा-चौथा, हर राजनीतिक दलों में ‘लुटियंस वाला नेता’ तो होता ही है। ‘लुटियंस वाली दिल्ली’ का सही मतलब और इसकी
चौंकानेवाली कहानियां आप खुद ही पढ़ लीजिएगा।
पुरानी और नयी
दिल्ली की तरह यमुनापार वाली दिल्ली भी एक पहचान है दिल्ली की। यमुनापार में भी एक
तरफ पूर्वी दिल्ली है, जो अपेक्षाकृत नियोजित तरीक़े से बनी नजर आती है। लेकिन दूसरी
तरफ उत्तर-पूर्वी दिल्ली है, जहां बहुत कम आबादी ही प्लान करके बसाई गई है। कुकुरमुत्ते की
तरह यहां अवैध बस्तियां उभर आईं और उन्होंने सारे इलाक़े को स्लम जैसी स्थिति में पहुंचा
दिया। सारी सरकारें उत्तर-पूर्वी दिल्ली का विकास करने का वादा करती हैं, उनके वोट
बटोरती हैं। यहां धर्म की, तबक़ों की और वर्गों की राजनीति होती है, जिसका फायदा हर
राजनीतिक दल उठाता है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम तनाव या फ़साद बहुत कम
हुए हैं। 1992 में अयोध्या विवाद के बाद यहां दंगा ज़रूर हुआ था लेकिन वह सिर्फ एक
रोड तक ही केंद्रित था।
मौजपुर का वह इलाक़ा
जहां से दंगों की शुरुआत हुई, करीब 50 साल पहले बसा था। उससे पहले वहां सिर्फ खेती
होती थी। किसानों ने ज़मीन बेचनी शुरू की तो फिर यहां बिना किसी प्लान के कॉलोनियां
भी बननी शुरू हो गई। मौजपुर का इलाक़ा जाफ़राबाद से एकदम लगता हुआ इलाक़ा है। सीलमपुर
और जाफ़राबाद में मुस्लिम बहुतायत में हैं और मौजपुर तथा इसके साथ लगते घोंडा और ब्रह्यपुरी
में हिंदूओं की तादाद ज़्यादा है। दरअसल, मौजपुर में कुछ कुम्हार
रहा करते थे और अपने काम के लिए उन्होंने गधे पाले हुए थे। इसलिए इस इलाक़े को गधापुरी
कहां जाता था। यहां एक जोहड़ (तालाब) भी था जो पानी की ज़रूरतें पूरी करता था।
जोहड़ (तालाब) को ख़त्म
करके उसकी ज़मीन और आसपास की सारी सरकारी ज़मीन को कुछ लोगों ने बेच डाला। यह कोई
25 साल पहले की ही बात होगी कि यहां ज़मीन की कीमत कौड़ियों में थी। फिर वहां कबीर बस्ती
भी बनी और कर्दमपुरी भी। कबीर बस्ती में ज़्यादातर मुस्लिम आकर बसे। ये लोग मजदूर हैं।
इनमें से यूपी के अमरोहा, संभल, मुरादाबाद और अलीगढ़ से आए लोग ज़्यादा हैं। रोज़गार की तलाश
में दिल्ली आने पर उन्हें सिर छिपाने की जगह सस्ते में मिल गई और साथ ही काम करने का
ठीया भी मिल गया। घर पर सिलाई, कढ़ाई, जूते-चप्पल या फिर डेकोरेशन का छोटा-मोटा सामान बनाकर बहुत से
लोग अपना गुजारा करते रहे। धीरे-धीरे उनमें से कुछ के पास ज़्यादा पैसा आया तो फिर
मकान के हालात भी बदल गए और रहने-सहने का ढंग भी। अब कच्चे मकानों की जगह चार-पांच
मंजिला मकान बन चुके हैं, लेकिन छोटे-छोटे माचिस की डिब्बियों जैसे।
करावल नगर भी पहले
नगर न होकर पूरी तरह गांव ही था। वहां भी खेती की ज़मीन को बेचकर कॉलोनियां कटीं और
देखते ही देखते चांदबाग, मुस्तफ़ाबाद, तुखमीरपुर, सादतपुर, दयालपुर, शिव विहार और प्रगति विहार जैसी अवैध कॉलोनियां बन गईं। सीलमपुर और जाफ़राबाद की
तरह चांदबाग और मुस्तफ़ाबाद में तो घनी मुस्लिम आबादी है जबकि बाकी कॉलोनियों में हिंदू
ज़्यादा तादाद में हैं। यूपी के अलावा बिहार और बंगाल के मुस्लिम भी इन कॉलोनियों में
आए, लेकिन वे ज़्यादातर मजदूर ही हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सब्जी और फल व्यापार
पर 90 फीसदी मुस्लिमों का ही कब्जा है। बहुत से लोगों ने रिक्शा और ई-रिक्शा को किराए
पर देने का बिजनेस किया है, जिससे वे लाखों रुपये कमा रहे हैं। जींस की फ़ैक्ट्रियों
में काम करने वाले ज़्यादातर मुस्लिम हैं। जींस की सिलाई के कारीगर भी अधिकतर मुस्लिम
ही हैं। ताहिर हुसैन जैसे कई लोगों ने ज़मीन ख़रीदकर उस पर बहुत सारे कमरे बना दिए
और ग़रीब मजदूरों को किराए पर दे दिए। यह उनके लिए भारी मुनाफे वाला सौदा बना। यहां
तक कि यूपी के कई इलाक़ों के लिए जाफ़राबाद से रोजाना रात को डग्गामार बसें भी जाती
हैं, जो अपने पैतृक गांव से उनका रिश्ता अब तक जोड़े हुए हैं।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली
में कई ऐसी कॉलोनियां हैं जहां हिंदू बहुतायत में हैं, लेकिन मुस्लिम आबादी भी उपस्थिति
दर्ज कराती है। मसलन, मकान मालिक हिंदू है तो उसने अपनी दुकान किराए पर मुस्लिम को
दी हुई है। इसी तरह मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ों में भी हिंदूओं के शो रूम हैं। मसलन, चांदबाग में कारों का शो रूम एक हिंदू का ही था और काम करने वाले मुसलमान थे।
सीलमपुर, जाफ़राबाद से लेकर चांदबाग, मुस्तफ़ाबाद तक अवैध धंधों की भी भरमार है। अंडरवर्ल्ड के साथ-साथ
अवैध हथियारों का धंधा भी यहां खूब चलता है। यूपी और हरियाणा के बॉर्डर पर होने के
कारण इस इलाक़े में अवैध हथियार बड़ी ही आसानी से मिल जाते हैं। हथियार बनाने के लिए
कच्चा माल पश्चिमी यूपी के मेरठ से आता है। पश्चिमी यूपी में कोई भी आसानी से दस हजार
रुपये में पिस्तौल हासिल कर सकता है। वहीं, देसी कट्टा महज हजार-पंद्रहसौ
रुपये में आ जाता है। जाहिर है कि यहां के बहुत सारे लोगों की आमदनी एकाएक बढ़ने के
पीछे यह भी एक बड़ा कारण है। यही वजह है कि देखते ही देखते कच्चे मकानों की जगह कई मंजिलों
वाले मकान भी बन गए।
नागरिकता कानून के
बाद राजनीति की कृपा से जिस तरह की स्थितियां बनी, बंटवारा साफ नजर आने लगा था। विधानसभा
चुनावों के बयानों ने आग में घी डालने का काम किया। तभी से ही जिस तरह माहौल को गर्माया
गया, हालात असमंजस से नज़र आने लगे थे। नतीजों के बाद हालात ज्यादा बिगड़े। दंगों के
लिए दिमाग में जहर था और अगर हथियार आसानी से मिल जाएं तो फिर कोई भी भटका हुआ युवक
धार्मिक उन्माद में किसी का गला काटने या किसी की दुकान-मकान जलाने में हिचक नहीं करेगा।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में यही सब हुआ। दंगा करने वालों में सबसे ज़्यादा युवा ही थे
और इंसान से हैवान बनने में उसे कोई नहीं रोक पाया।
सरकारें-प्रशासन और पुलिसियां शैली फिर एक बार वैसी ही निकली जैसी हर दफा देखी
जाती हैं... कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं बस टांगे छोटी पड़ जाती हैं?
बहुत ही सीधी-सादी
सी बात है। प्रशासन के पास इतनी ताकत होती है, इतनी मशीनरी होती है और इतने साधन होते हैं कि अगर वो वाक़ई हिंसा रोकना चाहे
तो बहुत कुछ कर सकता है। सोचिए, महज चार दिनों में दिल्ली में 45 से भी अधिक लोगों की
जानें चली गई! यूं कहे कि चार दिनों में ही 45 से भी
अधिक लोगों की हत्या कर दी गई!!! आधिकारिक आंकड़ा 46
के आसपास था। 300 से ज्यादा लोग घायल हुए। गुमशुदा लोगों की तो कोई बात ही नहीं कर
रहा था! इन सबमें सबसे ज्यादा चौंकानेवाला यह था
कि मारे गए या घायल हुए लोगों में से आधे से ज्यादा लोगों को बंदूक की गोलियां लगी थी!!! ये वाकई नया और सक्ते में डालनेवाला ट्रेंड था, जिसमें हिंसा में इस कदर
गोलियां चली हो!!! देश की राजधानी
दिल्ली में महज तीन से चार दिनों के भीतर इतनी गोलियां चली जिसका सही-सही अंदाजा
लगा पाना मुमकिन ही नहीं है!!! क्या ये आंकड़ा
चौंकाता नहीं है? दिल्ली, यानी की देश की राजधानी में दंगों
में इस कदर गोलीबारी होना, सरेआम देश के लोगों की गोलियों से हत्या कर देना, ये बहुत
बड़े संकट के रूप में देखा जाना चाहिए था। अफसोस की ना दिल्ली की केजरीवाल सरकार इस
संकट को देखेगी, ना ही केंद्र की मोदी सरकार।
अभी जनवरी में ही
हमने एक लेख लिखा था, Hinsha ki Rajneeti वाला। पत्थर गैंग वाले पैरा की जो हमने ऊपर ही चर्चा कर ली है, सोचा नहीं था
कि यह स्थिति इतनी जल्द आएगी। दिल्ली में दंगे भड़क चुके थे, हिंसा जारी थी। दूसरी ओर
मौजपुर चौक पर ही लाउडस्पीकर से गाने बजाए जा रहे थे। लाउडस्पीकर में बज रहा था कि
जो मांगे आजादी देश में भेजो पाकिस्तान उन्हें, हिंदू भगवाधारी आएगा, भारत का अभिमान
है, मां भारती पुकारती खून से रंग भरो गोलियों के नाम की, जैसे आह्वान लाउडस्पीकर
से हो रहे थे उस दिन! पुलिस उस चौक पर तैनात
थी लेकिन उन्होंने इन गानों को बंद करवाने की कोई कोशिश नहीं की!
सोचिए, दिल्ली हाईकोर्ट
में मामला पहुंचा तो अदालत को आदेश देने पड़े थे। एफआईआर करने के आदेश की बात तो
फिलहाल नहीं है, किंतु अदालत को सरकार को कहना पड़ गया कि एंबुलेंस की व्यवस्था
कीजिए, घायलों के उपचार की व्यवस्था कीजिए, पीड़ितों को भरोसे में लीजिए, मृतकों की सम्मान
के साथ अंत्येष्टि कराइए, आश्रय के लिए इंतज़ाम कीजिए, हेल्पलाइन दुरस्त करिए,
पीड़ितों की मदद के लिए पैशेवर लोगों को ले आईए। क्या अब अदालत को एंबुलेंस की व्यवस्था
करने के निर्देश देने पड़ेंगे???!!! हेल्पलाइन, हेल्पडेस्क,
व्यवस्थाएं, एफआईआर के आदेश सब अदालतों को कहना पड़ेगा? तो फिर सरकारें और पुलिस को करना क्या होता है? अदालतें सूचित करेगी तभी सरकारें अपनी जिम्मेदारियां समझेगी?
या तो पुलिस थी ही नहीं या फिर थी तो बस मूकदर्शक बनकर खड़ी रही, चार दिनों तक
सुलगती रही देश की राजधानी दिल्ली, पुलिस को गए थे 13,200 कॉल
कुछ लोग दलील देते है कि पुलिस के
अपने लोग जख्मी हुए, कांस्टेबल मारा गया, डीसीपी और एसीपी स्तर के अधिकारियों को
लोहे की ग्रिल फांदकर भागने को मजबूर किया गया, आईबी अधिकारी की हत्या कर दी गई, ऐसे में पुलिस क्या करती? पुलिस जवानों के साथ जो हुआ वो यकीनन
दुखदायी है और हम लठैत नहीं है इसलिए हम इस दुख को समझ सकते है। लेकिन दूसरे कुछ
मामलों से बचने के लिए दागी गई यह दलील ही अपने-आप में कमजोर है। पहली बात यह कि यह सब
जब हुआ तब तक पुलिस इतना कुछ कर सकती थी कि यह सब कुछ होता ही नहीं! दूसरी
बात यह कि इतने हद तक सब कुछ हो चुका था, अपने ही डिपार्टमेंट के लोगों को पुलिस
प्रताड़ित होते या मरते देख रही थी, फिर तो पुलिस को गंभीर स्थिति का अंदाजा हो
जाना चाहिए था। फिर तो पुलिस को ‘दर्शक’ की दिर्धा से निकल जाना चाहिए
था।
गौर कीजिए। यह वही दिल्ली
पुलिस थी जिसके साथ समूची दिल्ली अभी कुछ महीनों पहले ही खड़ी हो गई थी, जब दिल्ली
पुलिस के उच्च महिलाधिकारी समेत कई अन्य कर्मियों को दिल्ली के वकीलों ने सड़क पर
ही पीट दिया था!!! दिल्ली पुलिस एक दिन के आंदोलन
के लिए भी सड़कों पर उतरी थी। तब भी उसके साथ कोई खड़ा नहीं हुआ। पुलिस की मशीनरी
जिसके लिए काम करती है वो सरकार भी खुद को दूर रखती दिखी थी। और तब इसी दिल्ली
पुलिस के साथ समूची दिल्ली खड़ी हो गई थी। लेकिन आज वही दिल्ली पुलिस उसी दिल्ली
के लोगों की मदद की लिए नहीं आई!!! आती भी कैसे? पुलिस
की मशीनरी जो चलाता है उसकी नाराजगी कौन मोड़ लेता?
फिर कोई सस्पेंड होता, तबादला होता, घर बिठाया जाता या दूसरी पारंपरिक सजाएं दी
जाती, तो फिर कौन सा नागरिक उसके साथ खड़ा रह पाता भाई?
है न? 'व्यावहारिकता'
से आगे हम अब 'जमीन'
की तरफ चल देते है।
दंगों पर हुए शोध-संशोधनों में एक ‘भाव’
उभरता है। वो यह कि अगर हिंसा के पूर्वानुमान के बावजूद एहतियाती कदम न उठाए जाएं और
दंगों को बेकाबू होने दिया जाए, तो इसका मतलब यह है कि शायद सरकार और प्रशासन दंगों
को रोकना ही नहीं चाहते। देश की राजधानी चार दिनों तक जलती रहे यह खबर चौंकाती नहीं है तो फिर आप नेता बनने लायक इंसान हो चुके है। हिंसा के दौरान की तमाम हैरान करने
वाली कहानियां धीरेधीरे सामने आ रही थी। एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक हिंसा के शुरूआती
दिन से लेकर पूरे चार दिनों तक पुलिस के पास पीड़ितों की 13,200 कॉल्स आई थीं। लेकिन पुलिस स्टेशन
के कॉल रिकॉर्ड से इन कॉल्स का जवाब दिए जानें को लेकर कुछ और ही कहानी थी। एनडीटीवी
ने कॉल रजिस्टर की समीक्षा
के आधार पर लिखा कि 23 फरवरी को पुलिस कंट्रोल रूम के पास हिंसा प्रभावित इलाकों से
700 कॉल्स आई थीं, 24 फरवरी को 3500 कॉल्स, 25
फरवरी को सबसे ज्यादा 7500 कॉल्स और 26 फरवरी को 1500 कॉल्स पुलिस को की गई थी।
एनडीटीवी ने कॉल रजिस्टर के 8 पन्नों की समीक्षा की।
उनकी रिपोर्ट के मुताबिक हर पन्ने में 9 कॉलम थे, जिसमें शिकायत के बारे में लिखा गया
था, जैसे- क्या शिकायत है, शिकायत पुलिस को कब मिली और इस पर क्या कार्रवाई की गई। इन
शिकायतों में गोलीबारी से लेकर आगज़नी और पत्थरबाजी तक का ज़िक्र था। लेकिन ज्यादातर
शिकायतों में क्या कार्रवाई की गई वाला कॉलम खाली था। शिकायत करनेवालों में महिला कॉलर
भी थी।
यमुना विहार इलाके से बीजेपी पार्षद प्रमोद गुप्ता ने
ही कहा था कि उन्होंने लगातार पुलिस को फोन किया था लेकिन पुलिस की ओर से फोन नहीं
उठाया गया। बीजेपी के ही पार्षद प्रमोद गुप्ता का बयान एनडीटीवी पर छपा है, जिसमें
वे बताते हैं कि, "पुलिस स्थिति को नियंत्रित
करने में सक्षम नहीं थी। अगर पुलिस नियंत्रित कर सकती, तो ये सब निश्चित रूप से नहीं हुआ होता।"
अगले दिन दुनिया का सबसे ताकतवर राष्ट्राध्यक्ष अपने
पुरे परिवार समेत दिल्ली में आनेवाला था, रूकनेवाला था, अलग-अलग जगहों पर जानेवाला
था। उनका कार्यक्रम पहले से ही तय था। तो फिर इन हालातों में भी दिल्ली इस खोफनाक तरीके
से जलने लगे तो सवाल पुलिस पर उठेंगे ही। हिंसा की जो शुरूआती तस्वीरें है उसको ही
देख लीजिए। तस्वीरों में एक धार्मिक इमारत जलती हुई नजर आती है, वो भी पुलिस पिकेट
से बिलुकल सटकर!!! दंगों की शुरुआती तस्वीरों में ही पुलिस के आसपास हिंसा
के द्रश्य!!! तो फिर अंदरुनी गलियों में क्या-क्या हो रहा होगा?
पुलिस किसी भी सरकार का मजबूत हाथ माना जाता है।
दिल्ली में यह हाथ केंद्र में जो सत्ता पर होता है उसीके पास होता है। पुलिस सत्ता
के लिए एक मशीनरी है। यदि सत्ता मशीनरी को कहे तभी यह मशीनरी कुछ करेगी, वर्ना
नहीं। वैसे आपको जानना होगा कि सरकार कहे तभी पुलिस करेगी ऐसा कोई नियम भारतीय
संविधान में बिल्कुल नहीं है। वैसे तो देश का क़ानून ये कहता है कि कोई भी संज्ञेय-अपराध
यदि पुलिस के सामने होता है तो उसे हरकत में आना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे ये प्रथा कम
होती जा रही है।
कुछ कहते हैं कि सीएए का विरोध महीनों से चल रहा था, हर
इलाके में हिंसा हुई, ऊपर से ट्रंप का दौरा था, ज्यादातर पुलिस उसी में लगी थी, तो ऐसे
में पुलिस जल्दी से कैसे कुछ कर पाती? दरअसल इसी सवाल में सारा भेद छुपा हुआ है। किसी कानून का
विरोध महीनों से हो रहा था तो हिंसा होने की संभावना के चलते इंटीलीजेंस मुस्तेद
होगा ही। ट्रंप जैसे राष्ट्राध्यक्ष का दौरा कोई सामान्य सा दौरा तो था नहीं। हिंसा
तो क्या, छोटे से व्यक्तिगत विरोध की संभावनाओ को भी इन हालातों में पहले से टाल
दिया जाता है और अंत समय तक इसी संबंध में एक खास टीम लगाई जाती है। लेकिन यहां तो
पूरी की पूरी मशीनरी ही फेल!!! ऐसा कैसे हो सकता है भाई?
कई इलाक़ों में लोगों ने इस बात के आरोप लगाए कि जब पथराव
और आगज़नी की घटनाएं हो रही थीं तो पुलिस कुछ नहीं कर रही थी। बीबीसी मराठी के
संवाददाता विनायक गायकवाड़ ने एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र किया है। वो 26 फरवरी की
रात थी। लगभग बारह से साढ़े बारह बजे तक का समय। उनके रिपोर्ट में दर्ज है कि वे उस
रात रिपोर्टींग के लिए जाफ़राबाद पहुंचे थे। उनके मुताबिक वहां बैरिकेड लगाया गया था
और पुलिस किसी को आगे नहीं जाने दे रही थी। पुलिस ने उनको कहा कि अपने रिस्क पर
आगे जाना है तो जाइए, हमें उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश हैं। विनायक
और उनके सह्योगी गाड़ी में थे और वे आगे निकल गए। गाड़ी से उतरे बगैर सड़क पर जायजा
ले रहे थे। उनकी रिपोर्ट में जो लिखा था वो यह था कि – "रात में करीब 12:30 बजे हम वापस जब बैरिकेड के पास लौटकर
आए तब देखा कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल का काफ़िला जा रहा था।
वो वहां का जायजा लेने आए थे। कड़ी सुरक्षा के बावजूद एक बाइक पर सवार तीन लड़के काफ़िले
के बगल से ही गुजरे। उनके हाथों में डंडे और रॉड थे। वो जय श्री राम के नारे लगा रहे
थे। वो लड़के एनएसए के काफ़िले से भी तेज़ स्पीड में थे और उनसे आगे निकल गए। किसी
पुलिसकर्मी ने उन्हें नहीं रोका।" किसी रिपोर्टर की अपनी
मर्यादाएँ और अपने शब्द होते है। अखबारों के ग्राहक यह भाषा नहीं समझ सकते, पाठक ज़रूर
समझ जाते हैं।
26 फरवरी के दिन गुजरात के स्थानिक अखबार दिव्य
भास्कर में राहुल कोटियाल का एक रिपोर्ट था। भजनपुरा चौक से करावल नगर तक का
रिपोर्ट था यह। उनके रिपोर्ट में जय श्री राम के साथ साथ मोदी मोदी के नारे
लगानेवाले दंगाइयों का भी ज़िक्र है! रिपोर्ट में वो लिखते है
कि यहां दोनों तरफ से भीड़ इक्ठ्ठा होती जा रही थी, लग रहा था कि अब हिंसा भड़केगी। वो
लिखते है कि हिंदू बहुल इलाकों में हिंसा की तैयारी सरेआम चल रही थी, उधर मुस्लिम
बहुल इलाकों में चुपके-चुपके हिंसा के इंतज़ाम हो रहे थे। यहां सीआरपीएफ जवानों का एक
दस्ता था, जो पिछले 19 घंटों से तैनात था। जवानों का दस्ता बीच में था और उनकी दोनों
तरफ दोनों समुदाय हिंसा की तैयारियों में जुटे थे। बकौल राहुल कोटियाल, एक सीआरपीएफ
जवान कह देता है कि, "हमें ही नहीं पता कि हमें यहां क्यों तैनात किया गया है? कुछ करने के आदेश तो दे
नहीं रहे। उल्टा बोल रहे है कि कुछ नहीं करना है। अगर आदेश दे तो 10 मिनटों में इन दंगाइयों
को सीधा करके घर वापस भेज देंगे।"
आईबी कर्मी अंकित शर्मा की नृशंष हत्या के मामले में
भी एक बयान था, जो पुलिसियां कार्रवाई पर सवाल उठाता है। मीडिया ने इसे क्यों
तवज्जो नहीं दी यह मुझे नहीं पता। मृतक आईबी कर्मी अंकित शर्मा की माताजी ने न्यूज़ एजेंसी
एएनआई को उनके बेटे अंकित शर्मा की हत्या के बारे में बताया था। अंकित की माताजी के
बयान का एक हिस्सा यह भी था कि, "अंकित के देर तक न लौटने
पर एफ़आईआर लिखाने की कोशिश की। लेकिन पुलिसवाले थानों के चक्कर कटवाते रहे।" बताइए, एक आईबी कर्मी था अंकित। उसके परिजन उसकी
गुमशुदगी का रिपोर्ट करवाने थाने के चक्कर काटते रहते हैं!!!
बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट है, जिसमें शिव विहार की
एक घटना का ज़िक्र है। इस रिपोर्ट में एक महिला का बयान है जिसके अनुसार उनके फोन ना
तो कोई नेता उठा रहा था और ना ही पुलिस। काफी मशक्कत के बाद आखिरकार पुलिस ने फोन
उठा लिया तो कहा, ‘‘किया है तो भुगतो। आज़ादी लो।’’
कहते हैं कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच ने हिंसा से
एक दिन पहले ही हालात बिगड़ने के इनपुट्स दे दिए थे। स्पेशल ब्रांच ने न केवल इनपुट्स
दिए थे बल्कि इसके अधिकारी हिंसा वाले इलाके में पहुंच गए थे। मगर उत्तर-पूर्वी जिला
पुलिस ने इनपुट्स को गंभीरता से नहीं लिया। अमर उजाला की रिपोर्ट की माने तो स्पेशल
ब्रांच के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दावा किया कि अपराध शाखा ने 22 फरवरी को ही हिंसा के
इनपुट्स दे दिए थे। अधिकारी ने दावा किया कि लिखित रूप से करीब 150 मैसेज दिल्ली पुलिस
व स्थानीय थाना को दिए थे, मगर किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। स्पेशल ब्रांच ने 23
फरवरी को भाजपा नेता कपिल मिश्रा के ट्वीट के बाद भी हिंसा होने के इनपुट्स दिए थे
कि सीएए विरोधी व समर्थक आमने-सामने आ गए तो हिंसा हो सकती है।
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप आनेवाले थे। दुनिया का
सबसे ताकतवर शख्स। लाजमी है कि केंद्र की तमाम एजेंसियां इन दिनों अपने टोप पीक पर
होगी। दिल्ली का खुफिया ढांचा भी इसमें शामिल होगा। नागरिकता कानून का विरोध तो
महीने भर से हो रहा था, यूं कहे कि इससे पहले। ऐसे में संभावित हिंसा तो क्या,
संभावित विरोध को लेकर भी ऐसी एजेंसियां बिलकुल अलर्ट होती है। आप खुद ही याद कर
लीजिए। देश का कोई बड़ा नेता, मसलन पीएम-सीएम-एनएसए-राष्ट्रपति देश में कही दूसरी
जगह दौरा करता है तो उस समय उसे कोई काला झंडा भी ना दिखा पाए इसके लिए तैयारियां
की जाती है। यहां तो दुनिया का सबसे ताकतवर राष्ट्राध्यक्ष दिल्ली में था और दिल्ली
खुलकर जल रही थी!!! इसे क्या महज एक गलती, एक चूक कहकर नजरअंदाज किया जा
सकता है?
तमाम दंगों के सुनी-अनसुनी कहानियों के आधार पर सिंपल
सी बात है कि पुलिस को हरक्त नहीं करने के लिए बोला जाए तभी कोई बीच सड़क पर बंदूक
लेकर निकलता है और लोगों को गोलियों से भून देता है। कमाल है न? यही कि आप अपने मूल अधिकारों के लिए आइए सड़क पर, पुलिस आपको मार-मार कर सड़क पर ही लेटा देगी! किसी नेता के खिलाफ
बेनर लेकर चले जाइए, पुलिस आपको अस्पताल के आइसीयू में शीफ्ट करवा देगी! लेकिन यही पुलिस ऐसे
मामलों में दर्शक बनी खड़ी नजर आती है! देखिए भाई, दिल्ली
की बाहर से किसान जंतर-मंतर पर आनेवाले हो तब उन्हें बाहर ही रोका जा सकता है, दंगाइयों
को नहीं। बात इतनी सी ही है न? या फिर बात यह भी
है कि स्कूल की छोटी सी बच्चियों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा सकता है जिनके
नाटक से एक छोटी मक्खी तक नहीं मरी थी, लेकिन उक्सानेवाले-भड़कानेवाले नेताओं पर
शिकायत नहीं हो सकती, जिनसे प्रेरित होकर सैकड़ों को मार दिया गया।
दंगाइयों ने देश की
राजधानी में पब्लिक स्कूलों को कब्जे में किया, लाइब्रेरी, बेंच तक जला दिए, स्कूलों
को बाकायदा लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल किया गया था !
स्कूलों को कब्जे में लेना, पुस्तकें जला देना, यह
पाकिस्तान में कई दफा होते हुए देखा है। पाकिस्तान-पाकिस्तान करते करते हालात यहां
तक पहुंचे कि हिंदुस्तान में ही विद्या के मंदिर को बंधक बना लिया गया, विद्या के
पुस्तकों को जला दिया गया!!! शिव विहार इलाके स्थित राजधानी पब्लिक सीनियर सेकेंडरी
स्कूल को दंगाइयों ने 60 घंटों से ज्यादा समय तक अपने कब्जे में किया हुआ था!!!
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक स्कूल के मालिक लगातार पुलिस
को फोन कर रहे थे लेकिन पुलिस नहीं आई। उनके मुताबिक दो बजे तक सभी बच्चे और स्टाफ
जा चुका था और करीब चार-पांच बजे दंगाइयों ने स्कूल पर हमला कर दिया। यह इलाका
करावल नगर पुलिस स्टेशन के अंतर्गत आता है। स्कूल से लगातार पुलिस स्टेशन के फोन
बजते रहे, लेकिन पुलिस नहीं पहुंची। एनडीटीवी की कॉल लॉग समीक्षा में भी यह बात साफ
हुई कि यहां से पुलिस स्टेशन को कॉल्स आई थीं, जिसमें स्कूल पर हमला करने की बात कही
गई थी। बताइए, स्कूल पर हमला होने की सूचना मिलने के बाद भी लंबे हाथ वाली पुलिस
की टांगे चल नहीं पाती तो फिर कार्रवाई पुलिस करे या पुलिस पर ही कार्रवाई होनी
चाहिए? किसी दुकान पर हमला
होना और किसी स्कूल पर हमला होना, यह दोनों मामलों में कितना बड़ा फर्क है यह तो मैट्रिक
पास आदमी भी समझ सकता है, जबकि पुलिस में भर्ती मैट्रिक पास वालो की ही होती है न?
राजधानी पब्लिक सीनीयिर सेकेंडरी स्कूल वाली घटना
केवल आगज़नी या लूटपाट तक नहीं थी, यहां तो बाकायदा स्कूल को बंधक बना लिया गया था!!! हैरान करनेवाली बात यह
है कि इस स्कूल को बाकायदा हिंसा के लिए लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल किया गया था!!! एसआईटी इसकी जांच कभी
नहीं करेगी कि राजधानी की एक स्कूल को आतंक के लिए लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल किया ही
कैसे जा सकता है? यह सब अचानक से तो हुआ
नहीं होगा, क्योंकि बाकायदा रस्सियां लटकाई गई थी, ताकि चढ़ा या उतरा जा सके!!! 50 से ज्यादा घंटों तक
स्कूलों में दंगाइयों ने डैरा डाला और यही से हिंसा को फैलाते रहे!
पहले सप्ताह तक जो जानकारी छनकर आई उस हिसाब से
दिल्ली में सबसे ज्यादा हिंसा शिव विहार इलाके में दर्ज की गई। कई घटनाएं तो ऐसी हुई
जिनकी रिपोर्ट दर्ज ही नहीं हुई। शिव विहार की डीआरपी कॉन्वेंट सीनियर सेकेंडरी स्कूल
को भी लूटा गया और फिर जलाकर राख कर दिया गया, यह बात भारत जैसे देश में सामान्य
सी बात है क्या? गजब द्रश्य यह था कि यहां
स्कूल के बगल की इमारत से रस्सियां भी लटक रही थी, जहां से दंगाई चढ़े होंगे या फिर
उतरे होंगे!!! उपद्रवियों ने स्कूल के भीतर क्लासरूम में घुसकर न सिर्फ
तोड़फोड़ की, बल्कि ब्लैकबोर्ड को भी तोड़ दिया गया! स्कूल की लाइब्रेरी तक को
जला दिया गया! इस स्कूल के ओनर धर्मेश शर्मा के मुताबिक पुलिस दो दिन बाद
यहां पहुंची!!! यहां पर फायर ब्रिगेड तो पहुंच ही नहीं पाई!!! आग ने सब कुछ जला दिया
और फिर अपने आप बुझ गई। ये दूसरा स्कूल था जिसे जलाया गया था।
कुछ ऐसा ही दृश्य दिल्ली के बृजपुरी इलाके से देखने को
मिला। दिल्ली के बृजपुरी इलाके में भी दंगाइयों ने एक स्कूल में तोड़फोड़ की और उसके
बाद स्कूल को आग के हवाले कर दिया!!! स्कूल का नाम था अरुण मॉडर्न
सीनियर सेकेंडरी स्कूल। यहां शाम चार बजे करीब 300 से 400 दंगाई घुस गए और स्कूल में
तोड़फोड़ की! इसके बाद उन्होंने लाइब्रेरी, कंप्यूटर
रूम और क्लास रूम समेत कई जगहों पर आग लगा दी!!! यहां घटना की सूचना मिलने
के बाद भी पुलिस मौके पर नहीं पहुंची!!! हां, देर रात फायर ब्रिगेड
के पहुंचने पर आग बुझाई गई।
प्रोफेशनल तरीके से रस्सी का इस्तेमाल कर स्कूल पर
कब्जा जमाना, स्कूल के बहुत ही भारी जैनरेटर को उलट देना, सारी क्लासेस से बेंच और
कुर्सियां खींचकर स्कूल के मैदान में बाकायदा इक्ठ्ठा करना और फिर इनमें आग लगा देना,
सभी क्लासेस के ब्लैकबोर्ड को तोड़ देना, लाइब्रेरी को जला देना, कंप्यूटर लेब को
पूरी तरह से तबाह कर देना... !!! ये कोई सामान्य सी घटनाएं
नहीं थी। भारत में दंगों में ऐसा कभी नहीं हुआ था। कंप्यूटर्स, लैपटॉप, एम्प्लीफ़ायर
जैसी चीजों को लूट लिया गया, क्योंकि इन चीजों का कोई मलबा नहीं मिला!!!
इमारत पर चढ़ने के लिए रस्सियां लगाइ जाए यह पैटर्न
एसआईटी को कहा से नजर आएगा भाई? हर
स्कूलों के डेस्क तोड़ दिए या जला दिए, सीसीटीवी कैमरे तोड़ दिए गए, कंप्यूटर रुम,
सीपीयू, लाइब्रेरी, ऑफिस के कागजात, दस्तावेज सबकुछ जलाकर राख कर दिया गया!!! क्या ये बहुत ही सहज है
कि देश की राजधानी दिल्ली में शिक्षा के मंदिरों पर सरेआम हमले कर दिए जाए, उन्हें जला दिया जाए!!! क्या ये सहज है कि स्कूलों से इस घटना के बारे में
सूचित किया जाए और पुलिस दो दिन बाद पहुंचे!!!
अदालत ने एफआईआर की बात
की तो पुलिस ने कहा कि यह सही वक्त नहीं है! बताइए एफआईआर दर्ज करने
में भी मुहूर्त देखा जाता है क्या? सही वक्त नहीं है यह
कहकर पुलिस ने सैकड़ों शिकायतें दर्ज की लेकिन उन पर तो बिल्कुल नहीं की जिसके लिए
अदालत ने कहा था !
एफआईआर दर्ज करने के लिए भी सही वक्त और गलत वक्त
होता है यह 2020 में दिल्ली पुलिस के द्वारा पता चला!!! दिल्ली पुलिस को क्या
कहे, क्योंकि इन दिनों अदालत ही गजब के तर्कों के साथ कुछ मामलों को लंबा खींच रही
थी। (इस मसले के लिए Judicial Controversy : शीर्ष अदालत को हिंसा का
डर क्यों? तटस्थता की दहलीज पर ‘इफ’ फॉर्मूला क्यों ज़रूरी बना? यह संस्करण देख ले) वैसे अदालत का आदेश है कि मामला
कोई भी हो, एफआईआर तुरंत होनी चाहिए। इधर दिल्ली की पुलिस अदालत को ही बतला रही थी
कि अभी अच्छा मुहूर्त नहीं है!!!
अदालत में बाकायदा
कुछेक वीडियो दिखाए गए, जिसमें सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के नेता भड़काऊ बयान दे रहे
थे। कथित आरोपियों को पुलिस ने यह कहकर बचाने की सीधी कोशिश की कि अभी "उचित समय'' नहीं है!!! दिन था 27 फरवरी 2020। मामला था शाहीन बाग में सीएए का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों
के खिलाफ द्वेषपूर्ण भाषण का। आरोपी थे केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और उनके सहयोगी
भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा। दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट को बताया कि, “उन्होंने यह फैसला लिया है कि वो विद्वेषपूर्ण भाषणों पर एफआईआर दर्ज नहीं करेंगे
क्योंकि इसका ये सही समय नहीं है। इससे शांति बहाली में कोई मदद नहीं मिलेगी और दिल्ली
के हालात सामान्य नहीं होंगे।” इसके बाद पुलिस
ने हाईकोर्ट को यह भी बताया कि, “अब तक उन्होंने 48 एफआईआर दर्ज कर ली है।” बताइए, 48 एफआईआर दर्ज हो सकती है, लेकिन दो नेताओं के खिलाफ 1 एफआईआर दर्ज
नहीं हो सकती!!! 48 शिकायतें दर्ज होने से शांति के हालात बन सकते है, लेकिन 1 शिकायत दर्ज हो
गई तो मामला कैसे बिगड़ सकता था भला? उल्टा शांति बहाली में मदद ही मिलती। कपिल मिश्रा तो खुलकर उक्साता रहा, भड़काऊ
भाषण देता रहा, लेकिन पुलिस को कपिल मिश्रा देवदूत लगा और दूसरे दानव! दिल्ली पुलिस की थ्यौरी भी कमाल की थी! इतनी कमाल की कि कांग्रेस की पूर्व निगम
पार्षद इशरत जहां की गिरफ्तारी हुई थी भड़काउपन वाले एंगल को लेकर, लेकिन अदालत ने
जिनके बारे में कहा उन पर तो पुलिस लगाम डालने को तैयार ही नहीं थी!
जज ने सत्ता दल से जुड़े नेताओं पर टिप्पणी की, उनके खिलाफ शिकायत दर्ज करवाने की बात कही, फिर आधी रात को
जज का ट्रांसफर हो गया !
वैसे हमारे यहां कांग्रेस हो या बीजेपी हो, एक कॉमन सा
रास्ता है। वो यह कि जनता को ढेरों नियमों को बतलाकर यह समझाया जाता है कि नियम नहीं तोड़े गए है!!! यहां भी इसी रास्ते पर
सरकार चल पड़ी थी। लठैतों के लिए बिल्कुल आसान है बच निकलना, यह कहकर कि कांग्रेस
के समय भी ऐसा हुआ था, वैसा हुआ था। देखा जाए तो सच है। लेकिन छगन ने किया था तो
मगन भी करेगा, यही विश्वगुरू बनने के लिए नयी सड़क है तो फिर क्या कहे? ऊपर से सरकार कोई काम
आधी रात को करे तो फिर सवाल उठेंगे ही। मोदी सत्ता के दौरान आधी रात को किए गए
कामों की लंबी सूची बन चुकी है। जैसे कि दिन में तो कोई काम हो नहीं सकता, सारे ऐसे
काम आधी रात को ही करने है!!!
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे प्रमुख स्तंभ
न्यायतंत्र के जस्टिस को सरकार ने आधी रात को ट्रांसफर दे दिया!!! वो भी उसी दिन जब
जस्टिस साहब ने उक्सानेवाले बयानों पर कार्रवाई करने की नसीहत दी। अरे जस्टिस साहब,
जब भगवान ने ही अवतार लिया हो और वो सीधे भारत के ही पीएम बने हो तो फिर उसकी
अगुवाईवाली सरकार को नसीहत क्यों दी? खैर, ट्रांसफर झेलने वाले व्यक्ति थे दिल्ली हाईकोर्ट के
जस्टिस एस मुरलीधर। हिंसा के मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस मुरलीधर ने भड़काऊ बयानबाजी
पर कार्रवाई न करने पर पुलिस को फटकार लगाई थी।
फिर क्या था? आधी रात को जारी हुआ एक नोटिफिकेशन। तबादला हो गया। दिल्ली
से सीधे पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट। बवाल उठा तो वही पुराना... तेरा बहाना... !!! नियम के तहत हुआ है,
पहले से प्रक्रिया हो रही थी, पहले से ही कॉलेजियम ने सिफारिश की थी, प्रक्रिया का
पालन किया है, विपक्ष राजनीति कर रहा है, तबादला तो महज एक संयोग है वगैरह वगैरह।
जस्टिस साहब ने प्रयोग किया और हो गया संयोग! वो भी सोच रहे होंगे कि ये संयोग था या प्रयोग? और इन सबके बीच जो नयी
बेंच आई उसने दिल्ली पुलिस की अभी ठीक समय नहीं है वाली दलील स्वीकार कर ली!
पुलिसियां शैली पर जांच
तो होगी नहीं, दंगों की जांच के लिए एसआईटी बनी, जांच के लिए बनी एसआईटी में दोनों
डीसीपी वही थे जिनके ऊपर हाल ही में गंभीर सवाल उठ चुके थे !
पुलिस की संदिग्ध और कछुआ छाप शैली पर जांच तो कभी
होगी नहीं। बहरहाल प्रशासन ने दंगों की जांच के लिए दो एसआईटी बना दी। हमारे यहां ऐसी
स्पेशल टीमों का गठन, जांच, रिपोर्ट आदि को लेकर इतिहास दंगों से भी ज्यादा शर्मसार
करता आया है यह पहले ही नोट कर ले। इस मामले में तो जांच-वांच का विवाद तो दूर की
कौड़ी थी, गठन को लेकर ही गंभीर सवाल उठने लगे! क्योंकि सरकार ने जिन दो डीसीपी की अगुवाई में जांच कमेटि
बनाई थी, वो दोनों डीसीपी हाल ही में गंभीर सवालों के सांये में आ चुके थे। वैसे जज को
भी सरकारें इधर-उधर कर देती हो तो फिर डीसीपी कौन से खेत में उगता होगा, है न?
जो एसआईटी बनी उसमें जो विवादास्पद पुलिस अधिकारी
(डीसीपी) थे उनके नाम थे जॉय तिर्की और राजेश देव। इसी महीने चुनाव आयोग ने डीसीपी
राजेश देव पर एक्शन लिया था! मामला
था शाहीन बाग में सड़क पर सरेआम गोली चलाने का। देव ने गोली चलानेवाले उस शख्स को
आम आदमी पार्टी से जोड़ा था। चुनावी दौर था इसलिए आप पार्टी ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज
कराई और डीसीपी से इस बात के लिए आधार मांगा। फिर जो हुआ उससे तो यही लगा कि
डीसीपी देव ने तो यूंही कह दिया होगा, बिना जांच-वांच और बिना तथ्य-वथ्य के! क्योंकि डीसीपी साहब
अपने आरोपों पर कोई तथ्यात्मक ब्यौरा नहीं दे पाए! लाजमी था कि चुनावी माहौल में डीसीपी साहब का यह बयान
साफतौर पर राजनीतिक ज्यादा दिखा, जिसमें किसी एक पक्ष को बुरा दिखाने का कोण शामिल होता
दिखाई दिया।
मान भी लेते है कि कुछ तथ्य थे, किंतु तब भी
प्रारंभिक जांच को ऐसे माहौल में इस तरह सार्वजनिक किया जाना भी संदेहास्पद था, क्योंकि प्रारंभिक जांच कोई अंतिम नतीजा नहीं होता। डीसीपी राजेश देव को चुनाव आयोग
ने नोटिस जारी किया और उनकी जिम्मेदारी याद दिलाते हुए ऐसे संवेदनशील मामलों में
जिम्मेदार बनने की नसीहत भी दी!
आयोग ने सख्त टिप्पणी के साथ राजेश देव को चुनाव से ही दुर कर दिया था!!! चुनाव खत्म हो चुके है
लेकिन डीसीपी साहब अब भी अपने उस बयान को सही के करीब साबित नहीं कर पाए है! भविष्य
में सही साबित हो जाए तब बात और है, किंतु इस स्थिति में डीसीपी राजेश देव का दिल्ली
हिंसा जांच में शामिल होना विवाद तो था ही। क्योंकि सीधी सी बात थी कि इस मामले के
बाद देव का शामिल होना किसी एक पार्टी के विरुद्ध और किसी एक पार्टी के पक्ष में
काम करने की धारणा का निर्माण कर रहा था। देव ने जो किया था उससे एक 'खास किस्म की
धारणा' का निर्माण होना अतिस्वाभाविक था।
दूसरे डीसीपी जॉय ट्रिकी ने जेएनयू हिंसा में आरोपियों
के फोटो रिलीज कर कहा था कि ये वाम दलों से संबंधित हैं। उनमें एबीवीपी से जुड़ा कोई
नाम नहीं था। हालांकि उन्होंने एबीवीपी को क्लीन चिट नहीं दी थी, लेकिन
जॉय तिर्की की जांच पर विपक्ष और सिविल सोसायटी के सदस्यों ने जमकर सवाल उठाए।
क्योंकि प्रारंभिक तौर पर एबीवीपी का सीधा हाथ, उस लड़की की तस्वीर और उसकी
शिनाख्त, सब कुछ हुआ था। लेकिन किसी एक को आगे ले आना और किसी दूसरे को पीछे बिठा
देना, डीसीपी साहब की यह शैली गंभीर तो थी ही। एक मामले में प्रारंभिक जांच को
अंतिम नतीजे की तरह फैलाना और दूसरे मामले में प्रारंभिक जांच को दरकिनार कर किसी
दूसरी सड़क को नापना, पुलिसियां शैली के चलते विवाद तो होना ही था।
और फिर जब किसी बड़े दंगे की जांच के लिए बनी कमेटि में
इन्हीं दो अफसरों को ‘डाल’ दिया जाए, तो फिर तार्किक रूप से विरोध तो होना ही
था। कई स्वतंत्र वकीलों ने भी एसआईटी में इन दोनों अफसरों की हाजरी को लेकर कहा है। क्योंकि
जेएनयू और जामिया हिंसा की जांच में दोनों अधिकारियों के ऊपर सवाल तो उठ ही चुके थे।
अब वही लोग दिल्ली दंगे की जांच करने लगे तो फिर यही कहा जाएगा कि बीजेपी हो या
कांग्रेस हो, टूथपेस्ट वही है बस नाम नया है!!!
कमाल देखिए। एसआईटी बनी तो उसने सबसे पहले लोगों से
वीडियो सबूत मांगे थे। अरे भाई, जब वीडियो सबूत अदालत में पहेल ही दिखाए, अदालत ने
पुलिस को फटकार लगाई और शिकायत दर्ज करने को कहा, तो फिर जस्टिस को ही क्यों
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट भेज दिया? एसआईटी इसे ही कहते होंगे, क्योंकि एस का मतलब ही स्पेशल
होता है! यह कोई स्पेशल तरीका होगा, किसी स्पेशल जांच का!
भड़काऊ बयानों का सिलसिला
निरंतर जारी रहा, क्योंकि इससे किसीको तो फायदा
हो ही रहा होगा... हरियाणा के मंत्री ने कह दिया कि दंगे तो होते रहते हैं यह जीवन
का हिस्सा है... भड़काऊ बयानों का चुनाव कराया जाए तब फिलहाल तो मोदी सत्ता स्पष्ट
बहुमत के साथ जीतती नजर आती है
दिल्ली विधानसभा चुनाव का दौर हो या उससे पहले का समय
हो, राजनीति में भाजपा, कांग्रेस समेत सारे दल के शीर्ष नेतृत्व तक के नेता भड़काऊ तथा
घौर गैर सांप्रदायिक बयान का सिलसिला जारी रखे हुए है। दिल्ली चुनाव खत्म होने के बाद
भी यह जारी है। अगर भड़काऊ बयानों का ही चुनाव कराया जाए तो फिलहाल तो मोदी सत्ता
स्पष्ट बहुमत के साथ जीतती नजर आती है! यहां शीष से लेकर पांव तक यही हाल रहा। ठीक वैसे ही जीतती
नजर आती है जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात फैले दंगों में कांग्रेस भड़काऊ
बयानों के मामलों में जीती थी, राजीव गांधी की अगुवाई
में!
क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि जिस हिंसा में लगातार
मौतें हो रही हों उसी बीच आपत्तिजनक नारे लगे और रैलियाँ निकले! वह भी एक चुने हुए
प्रतिनिधि द्वारा, एक विधायक द्वारा। सबसे पहले तो दिल्ली चुनाव के सर्वश्रेष्ठ
बयान बहादुर कपिल मिश्रा ने चुनाव के बाद फिर एक बार अगुवाई की। आला पुलिस अधिकारी
की हाजरी में विरोध कर रहे लोगों को धमकी दी! फिर नये-नये चुने गए बीजेपी विधायक अभय वर्मा ने रैली निकाली।
लक्ष्मी नगर के मंगल बाज़ार से अपने समर्थकों के साथ मार्च किया इन्होंने। मार्च से
संबंधित एक वीडियो में साफ़ सुना जा सकता था कि इसमें नेताजी भड़काऊ नारे लगाए जा रहे
थे! पुलिस के हत्यारों को
गोली मारो ## को, जो हिंदू हित की बात
करेगा वही देश पर राज करेगा सरीखे उक्सानेवाले और भड़काऊ टाईप के नारे इनकी रैली
में लगे!
दंगे थोड़े से शांत हो ही रहे थे कि दिल्ली के सबसे
ज्यादा व्यस्त मेट्रो स्टेशन पर गोली मारो वाला हिंसक नारा सुनाई दिया! बाकायदा वीडियो किए गए
और व्हाट्सएप में बांट दिए गए!
उधर कॉलकाता में अमित शाह की रैली के दौरान ही गोली मारो वाला भड़काउ नारा सुनाई
दिया!
हरियाणा के बिजली मंत्री रणजीत सिंह चौटाला तो
निहायती आपत्तिजनक बयान देकर गौरव गैंग का सरदार बनने के लिए आगे ही आ गए। उन्होंने
दिल्ली हिंसा पर पत्रकारों से बातचीत में कहा कि, "दंगे
होते रहते हैं, यह जीवन का हिस्सा हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के समय
में भी दिल्ली में दंगे हुए थे।" विवाद हुआ तो नेताजी ने
अपने बयान का सही मतलब समझाया। बताइए उनके इतने सीधे बयान का देश गलत मतलब ही
निकाल बैठा था! नेता इस कदर लंपटता कर
सकते है, क्योंकि दंगों में उनका अपना कोई नहीं मरता, मरती है तो बस जनता।
केंद्र की सत्ताधारी
बीजेपी तो दोषी है ही, अधूरे राज्य की केजरीवाल सरकार को भी कटघरे में खड़ा होना
होगा
दिल्ली जैसे राज्य में, जहां सत्ता-अधिकारों आदि का
बंटवारा है, केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी दोषी तो है ही, लेकिन केजरीवाल सरकार को
भी कटघरे में खड़ा होना ही चाहिए। ट्विटर सम्राट पीएम मोदी का तो कोई ट्वीट ही नहीं आया था उन दिनों!!! आता भी कैसे? शिखर धवन का अंगूठा
थोड़ी न टूटा था? यहां तो लाशें बिछी थी, ह्त्याएं हुई थी। पीएमओ का ट्विटर अकाउंट ऐसी चीजों के लिए नहीं होता होगा शायद। मुमकिन है कि
कुछ दिनों बाद मन की बात रेडियो पर करके भावूक वाला थोड़ा सा जादू बिखेर दे। अमित
शाह, देश के गृहमंत्री, वो शख्स जो 26 जनवरी के पारंपरिक उत्सव (शाम के दौरान
राष्ट्रपति भवन) में हाजिर नहीं थे, किंतु उस वक्त वो दिल्ली में चुनावी सभाओं में बिजी
थे!!! देश के गृहमंत्री 29 जनवरी को बिट्रिट रिट्रीट में उपस्थित ही
नहीं रहे थे, वो तो तब भी दिल्ली में ही थे!!! लेकिन दिल्ली दंगों के दौरान वो अहमदाबाद थे, फिर दिल्ली आए, मिटिंग की, एनएसए
को उतारकर वो चले गए बंगाल में चुनावी सभाएं करने!!! देखा जाए तो जब पीएम और देश का गृहमंत्री तक चुप थे, तो फिर लंगड़ी सरकार के
मुख्यमंत्री केजरीवाल को क्या कहे?
इन्होंने (केजरीवाल ने) ट्वीट-ट्वीट किया, केंद्र को चिठ्ठियां लिखी, गृहमंत्री
से मिले लेकिन जिस दिल्ली ने दिल खोलकर इन्हें वोट दिए थे उनके लिए वे पुरे एक्शन
में नहीं दिखे। हम यह नहीं कह रहे कि उन्हें सड़क पर आकर लोगों के बीच जाकर कुछ करना
चाहिए था। हम यह कतई नहीं कह रहे। यह चीजें करने का दौर गांधी और सरदार के निधन के
साथ ही समाप्त हो चुका है। लेकिन ट्वीट के आगे भी कुछ कर सकते थे केजरीवाल। हां,
इन्होंने हिंसा के बीच प्रेसवार्ता ज़रूर की थी। शांति की अपील भी की। लोग कहते हैं कि अधूरे राज्य का सीएम इससे ज्यादा क्या कर सकता था? सच है। लेकिन जिस तरीके की लोकप्रियता है उनकी दिल्ली में,
वे कुछ प्रभावशाली लोगों का दल बनाकर ज़मीनी कदम तो उठा ही सकते थे। दिल्ली में आप
पार्टी का बड़ा संगठन है, जो अंदरूनी दिल्ली तक पहुंच रखता है। अपने इसी ढांचे से
वो जनसंपर्क कर सकते थे। नयी राजनीति के पास ऐसे ही मौके होते है जब वो खुद ज़मीन
पर उतरता है और गांधी या सरदार का दौर याद दिला सकता है। लेकिन इन्होंने ऐसा कुछ
नहीं किया!!!
एक बात और भी है।
ताहिर हुसैन का नाम आया और शिकायत दर्ज हुई तो इन्होंने ताहिर की प्राथमिक सदस्यता
छीन ली और कहा कि यदि ताहिर गुनाहगार है तो उसे दोगुनी सजा मिलनी चाहिए। अरे भाई,
कौन सी अदालत एक ही गुनाह के लिए गणित का दोगुना करके सजा देती है? ऐसा ही है तो फिर बाकी बची-खुची सजा केजरीवाल को भी तो मिलनी चाहिए। दरअसल
यहां बात राजनीति के चालाक बयानों की है, और कुछ नहीं।
यह भी सच है कि केजरीवाल ने एलजी से मिलने का प्रयास किया, पुलिस के आला
अधिकारियों से मिले, कार्यकर्ताओं को भी दौड़ाया। कुछ ज़मीनी कदम जरूर उठाए। अपन बचाव
में उनका वो तर्क कि जब सारी मशीनरी ही केंद्र के हाथ में है तो हमारी सुनता भी कौन,
इसे भी मानना पड़ेगा। क्योंकि पुलिस मौत की चीखों को भी अनसुना कर रही थी तो फिर यह
लोग ज्यादा से ज्यादा कर भी क्या सकते थे। लेकिन नयी राजनीति या राजनीति में नये
उदय का वो ताज़ा नारा जमीन पर दिखाने की ज़रूरत थी, तभी वे पीछे हटे यह भी तो सच है।
देखिए न, वो राजधाट पहुंच कर शांति की कामना कर रहे थे, लेकिन जनसंपर्क वाली बात
कही पर नहीं दिखी।
यह भी सच है कि देश में तो केजरीवाल से ज्यादा नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता है।
जैसे केजरीवाल ने कुछ नहीं किया, पीएम मोदीजी ने तो यकीनन कुछ भी नहीं किया! जबकि सत्ता और अधिकारों के मामले में सब कुछ इन्हीं के हाथ में
था! देश का गृहमंत्री तो 26 जनवरी या 29 जनवरी के राष्ट्रीय
उत्सवों को ठुकराकर दिल्ली चुनाव में था और जब दिल्ली में हिंसा हुई तो ये एकाध मिटिंग करके बंगाल को निकल लिये, चुनाव के प्रचार के लिए!
आम आदमी पार्टी का पार्षद ताहिर हुसैन और बीजेपी का नेता कपिल मिश्रा, दिल्ली
हिंसा के दो प्राथमिक खलनायक, बात इन पर तो होनी ही चाहिए
अपना कुत्ता टोमी
और दूसरों का कुत्ता कुत्ता???!!! ठीक है भाई कि यह
सही भाषा नहीं है और ना ही लेखन की सही शैली है। देखिए, भाषा के ज्ञान की ज़रूरत
बिगड़े बोल वाले गैंग को है, हमें नहीं। रही लेखन की शैली की बात, ठीक है कि ठीक नहीं है, लेकिन सीधी बात वाला नजरियां भी है। अपना कुत्ता टोमी और दूसरों का कुत्ता
कुत्ता... दरअसल इस कथन में घर के लोगों की बुराई को चद्दर के नीचे डालने की शैली पर
बात है। नोट करे कि यह सभी दलों और उनके लठैतों को लागू होता है।
कपिल मिश्रा और
ताहिर हुसैन। दो पुराने दोस्त। आम आदमी पार्टी में थे तब कपिल मिश्रा करावल नगर से ही
विधायक बने थे। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कपिल मिश्रा का ताहिर हुसैन के इसी
घर में दफ़्तर था। दिल्ली दंगे में प्राथमिक रूप से आप पार्टी का पार्षद ताहिर
हुसैन और बीजेपी का नेता कपिल मिश्रा, दोनों पर उंगलियां उठी। कपिल मिश्रा जैसे
नेताओं ने उक्साना, भड़काना जैसा काम किया। यूं कहे कि प्रेरणा बने! उधर ताहिर हुसैन तो कथित रूप से खुद ही दंगाई और हत्यारा बन बैठा!
दिल्ली की
सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन को लेकर जो चीजें सामने आई वो बेहद
ही चौंकानेवाली थी। जांच के बाद यदि ताहिर पर लगे सारे आरोप सही साबित होते है तब
तो ठीक है, लेकिन यदि सबूतों का अभाव वाली स्थितियां बनती है तब भी ताहिर हुसैन के
कथित गुनाहों को हल्के में लिया भी कैसे जा सकता है? आईबी कर्मी अंकित की नृशंष हत्या का इल्ज़ाम ताहिर हुसैन पर लगा। किसी
दूसरे-तीसरे ने इल्ज़ाम लगाया होता तो यहां हम ज़िक्र नहीं करते, किंतु यह इल्ज़ाम
अंकित के परिवार ने ही लगाया। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक सही इल्ज़ाम क्या है
यह नहीं पता, किंतु जिस प्रकार से अंकित की हत्या की गई, शायद इल्ज़ाम हत्या
के लिए भीड़ को उकसाने का हो सकता है।
मीडिया के सामने
अंकित की हत्या का जो बयान उनके परिजनों ने दिया है उसमें ताहिर का ज़िक्र नहीं है,
बल्कि 15-20 लड़कों का ज़िक्र है। ताहिर हुसैन द्वारा भीड़ को उक्साने के या हत्या
करवाने के प्रयास जैसे कुछेक बयान मीडिया रिपोर्टों में दर्ज है। अंकित की माताजी ने
जो बयान दिया है उसके अनुसार ताहिर हुसैन ने भीड़ को उक्साया था, हत्या करने के
लिए। रविंदर शर्मा के मीडिया बयान के मुताबिक, "अंकित जब ड्यूटी से लौटकर आया
तो बाहर क्या हो रहा है ये देखने गया था। वहां पथराव हो रहा था। तभी बिल्डिंग से
15-20 बंदे आए और मेरे लड़के को खींचकर ले गए। जो लोग उसे छुड़ाने गए उन पर गोलियां
चलाई गईं और पेट्रोल बम छोड़ दिया। कॉलोनी के किसी ने बताया कि आपके लड़के की लाश इधर
गिरी है। तब तक ये नहीं पता था कि मेरा ही लड़का है या कोई और है।" अंकित की माताजी ने एएनआई न्यूज़ से कहा था कि अंकित के देर तक न लौटने पर उन्होंने
एफ़आईआर लिखाने की कोशिश की, लेकिन पुलिसवाले उन्हें थानों के चक्कर कटवाते रहे। बताइए,
दंगों में एक आईबी अफसर गुम होता है और पुलिस उन्हीं के घरवालों को थाने का चक्कर
कटवाती है!!!
हालांकि ताहिर
हुसैन वाले मामले में पुलिस अधिकारी द्वारा रेस्क्यू वाला बयान उलझाता है। आईबी
अफसर की हत्या के मामले में एक तरफ पुलिस ताहिर को तलाश कर रही थी, वहीं दूसरी तरफ पुलिस
के एक अधिकारी ने दावा किया कि ताहिर अपने घर में फंसा हुआ था और पुलिस की मदद से ही
घर से बाहर आ पाया था। क्राइम ब्रांच के एडिशनल सीपी अजीत सिंगला ने पत्रकारों के
एक सवाल का जवाब इसी तरीके से दिया था। इसी घटनाक्रम के तुरंत बाद दिल्ली पुलिस प्रवक्ता
एमएस रंधावा ने बयान जारी कर कहा कि 24 फरवरी की रात कुछ लोगों ने चांदबाग में तैनात
पुलिसकर्मियों को जानकारी दी कि ताहिर हुसैन अपने घर में फंसे हुए हैं और लोगों ने
उनके घर को घेर रखा है, तब पुलिस टीम ने जांच की तो पता चला कि ये सूचना गलत है और
ताहिर अपने घर में हैं, इसके बाद 26 फरवरी को अंकित शर्मा का शव मिलने के बाद ताहिर
हुसैन पर हत्या का केस दर्ज किया गया, उसके बाद उनके घर की तलाशी ली गई, लेकिन वो फरार
हो चुके थे। यह रंधावा की सफाई थी। दोनों आला अधिकारियों की बातों में भेद मामले को
उलझाता है।
बहरहाल, ताहिर
हुसैन के घर से आतंक का लॉन्च पैड हेंडल हो रहा था, यह सनसनीखेज इल्ज़ाम लगा!!! ताहिर हुसैन ने पहले तो इससे इनकार किया। फिर वीडियो सामने आया। वायरल
वीडियो में ताहिर अपने घर की छत पर नजर आ रहा था, लाठी लिये हुए। इनकार करनेवाले
ताहिर ने आखिरकार स्वीकार कर लिया। सवाल यही से उठता है कि पहले ना फिर हा क्यों? वीडियो आने के बाद ताहिर ने स्वीकार किया कि हां, मैं ही हूं वो लाठी लिये घूम
रहा शख्स। ताहिर हुसैन पर हिंसा करनेवालों को पनाह देने का भी इल्ज़ाम लगा!
हालांकि ताहिर ने
वीडियो को लेकर कहा कि मैं तो लाठी लेकर भीड़ को भगाने का प्रयास कर रहा था। ताहिर
के मीडिया बयान के मुताबिक यह वीडियो 24 फरवरी का था, भीड़ हिंसा कर रही थी, घर
जलाने का प्रयास कर रही थी, वे पुलिस को कॉल करते रहे, पुलिस नहीं आई और वे लाठी
लेकर भीड़ से बचने की कोशिश कर रहे थे। यह ताहिर का मीडिया बयान है। उनके मुताबिक
उन्होंने बार-बार पुलिस को कॉल किए, पीसीआर से संपर्क किया, लेकिन कोई नहीं आया।
दिल्ली दंगों की जो प्राथमिक सच्चाई है उसे देखे तो यहां वो सच हो सकते है कि पुलिस
नहीं आई। क्योकि पुलिस को हजारों कॉल मिले थे, लेकिन पुलिस ज्यादातर तो कही जा ही
नहीं रही थी। लेकिन बात इतनी सी तो थी नहीं।
ताहिर के मुताबिक रात
में 9 बजे फ़ोर्स आई, फ़ोर्स के साथ ज्वाइंट कमिश्नर आलोक कुमार और डीसीपी एके सिंगला
भी थे, उन्होंने घर की पड़ोस के लोगों के सामने पूरी तलाशी ली, फिर ताहिर ने अपने परिवार
को निकाला और वहां से चला गया और फोर्स लगातार मौजूद रही। यह भी ताहिर के मीडिया
बयान का हिस्सा है। इन शोर्ट ताहिर खुद को पीड़ित बता रहे थे, आरोपी नहीं। वो आगे
कहते हैं कि वो दूसरे दिन फिर उनके घर पहुंचे थे, लेकिन स्थिति ज्यादा खराब हो रही
थी और ताहिर के अनुसार उन्हें पुलिस ने कहा इसीलिए वे वहां से चले गए। ताहिर के
मुताबिक उपद्रवियों ने उनके घर पर कब्जा कर लिया था और एसिड, बम या गोलियां वही
लोग दाग रहे थे। दिल्ली के दो-तीन स्कूलों में भी यही मंजर था, इस हिसाब से यह जांच
का विषय है। यह सब जांच में प्रत्यक्षदर्शियों से ज्यादा पता चलेगा।
बीबीसी हिंदी के
रजनीश कुमार की रिपोर्ट में आशीष त्यागी नाम के प्रत्यक्षदर्शी का दावा दर्ज है,
जिसमें बकौल आशीष रजनीश लिखते है कि ताहिर हुसैन के घर से 24 और 25 फ़रवरी को
पैट्रोल बम और पत्थर फेंके जा रहे थे, गोलीबारी भी हो रही थी, ताहिर नजर नहीं आया
लेकिन लोग कह रहे थे कि वो भी था। इसी इलाके के युनुस अलीम का बयान रजनीश की
रिपोर्ट में दर्ज है, जिसके मुताबिक ताहिर दंगों का शिकार हुए थे और उन्हें पुलिस ने ही 24 फ़रवरी को बचाकर
निकाला था। साफ है कि तमाम प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों में बहुत ही ज्यादा फर्क
मालूम पड़ता है। सुंदरलाल नामक एक प्रत्यक्षदर्शी का बयान है, जिसके मुताबिक ताहिर
हुसैन की छत से पत्थर और एसिड बरस रहे थे, हमले नीचे से भी हो रहे थे और छत से भी।
लेकिन छत से जानलेवा हथियारों से हमला हो रहा था।
कई प्रत्यक्षदर्शी
ताहिर के घर से हिंसा हो रही थी उसे ज़रूर स्वीकार करते हैं। कोई यह नहीं बता पाया कि
हिंसा में ताहिर किस तरह से शामिल था। किंतु अंकित के परिजनों ने ताहिर पर
इल्ज़ाम लगाया है यह सबसे बड़ा प्राथमिक तथ्य है। पुलिस ने इसी इल्ज़ाम के आधार पर
ताहिर हुसैन और अन्य अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या, आगज़नी और हिंसा फैलाने का मामला
दर्ज किया। पुलिस के अनुसार आईबी कर्मी के पिता की शिकायत के आधार पर प्राथमिकी
दर्ज की गई।
इससे पहले ताहिर
के घर की छत से हिंसा फैलाने का सामान मिला, जिसके चलते उसका घर सील कर दिया गया।
एक सीधा सा सवाल यह भी है कि जनता के द्वारा चुना गया एक पार्षद भाग क्यों रहा था
इल्ज़ाम लगने के बाद? वो अग्रीम जमानत
की अर्जी क्यों डाल रहा था? किसी पार्षद के
घर में हिंसा का सामान रखा जाए और उसे पता ही ना चले यह तर्क सहजता से स्वीकार नहीं किया जा सकता। वो बेकसूर है तो फिर वो कहां है उसका पता वो क्यों किसीको नहीं दे रहा
था?
उधर कपिल मिश्रा
किसी कोमेडी शो का किरदार तो है नहीं कि उसका द्वारा दिया गया उक्साने वाला बयान
कोई जोक्स सरीखा हो! ताहिर हुसैन पर जो इल्ज़ाम लगे हैं वो काफी संगीन और गंभीर है, साथ ही कपिल
मिश्रा के मामले में तो किसी इल्ज़ामात वगैरह की ज़रूरत थी ही नहीं! इस महाशय ने तो दिल्ली चुनाव प्रचार से लेकर दिल्ली हिंसा तक उसी सड़क को
नापना चालू रखा, जिस पर चलने की मनाही संस्थाएं देती रहती है! कोई अपने तरीके से प्रदर्शन कर रहा है, भले उसका प्रदर्शन आपको पसंद हो या
ना हो, लेकिन वो शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहा है और उसके सामने आप 25-50
की टोली लेकर चले जाए, पुलिस को साथ रखकर सीधी धमकी दे, तो फिर मुहब्बत होगी या
टकराव? कोई प्रदर्शन कर रहा हो और उससे थोड़ी दूर जाकर आप गोली मारने के या आजादी वाले नारे लगवा दो तो फिर यह क्या माना जाए? उक्साने पर जिन्होंने हिंसा की उन्होंने गुनाह तो किया ही है, लेकिन
उक्सानेवाले ने क्या बैकुंठ का उत्थान कर दिया है? उसने भी तो गुनाह ही किया है।
कपिल मिश्रा ने जाफ़राबाद
में महिलाओं को धमकी दी, साथ में पुलिस का डीसीपी स्तर का अधिकारी भी मौजूद था! पुलिस की हाजरी में कपिल मिश्रा ने कह दिया कि अगर तीन दिन के अंदर सड़क खाली
नहीं हुई तो कोई उसे रोक नहीं पाएगा। सड़क खुलवाने का मामला अदालत में चल ही रहा था
तो फिर अदालत का काम कोई नेता क्यों करने लगा था? ऊपर से दिल्ली पुलिस द्वारा दो सड़कों को बंद करवाने का विवाद भी जारी था इन दिनों।
ठीक है कि सड़क खुलवाकर लोगों की परेशानी कम करनी थी नेताजी को। लेकिन इसके लिए वे
पुलिस के पास या प्रशासन के दूसरे मंचों के पास जा सकते थे, वे खुद ही पुलिस बनना क्यों
पसंद करने लगे? मैट्रिक पास आदमी तक समझ सकता है कि
कपिल मिश्रा वहां पर उक्साने के लिए ही गए थे। वहां जाकर इन्होंने यह किया भी। उनकी
रैली, रैली में उनका भाषण, उनका वीडियो ट्वीट, उनकी बातें सड़क खुलवाने के लिए थी? यकीनन नहीं। वो किसी और चीजों के लिए ही थी। क्योंकि जो काम शांति से हो सकता
था इन्होंने वही काम बेढंग तरीकों से किया! बेढंग तरीके शांति के लिए नहीं आजमाए
जाते, दूसरी चीजों के लिए चलन में लाया जाता है। धरना बंद करवाना, प्रदर्शनकारियों
को हटवाना, सड़क खुलवाना नेताओं की जिम्मेदारी है, लेकिन उसके भी जायज तरीके होते
है। यहां कपिल मिश्रा तो चुनाव नतीजों के पहले से ही अलग ट्रेंड पर थे।
अमित शाह, ताहिर हुसैन या कपिल मिश्रा तो बलि के बकरे हैं, समूचा कसाईखाना तो
हर दफा किसी न किसी जगह से ऑपरेट हो ही जाता है, लोग मरते रहते हैं और उनके हमदर्द
सोते रहते हैं
हिंसा होने के बाद
कई अख़बार हिंसा के इतिहास का आंकड़ा छापने लगे, कई न्यूज़ चैनल इस पर चर्चा करने
लगे। बताने लगे कि पिछले 18 सालों में कहा पर कौन से दंगे हुए और कितने लोग मारे गए।
आम तौर पर पिछले 10 साल... पिछले 15 साल या फिर पिछले 20 साल... सालों का यह आंकड़ा
बोलना या लिखना लेखन शैली का स्थायी ट्रेंड माना जाता है। पता नहीं क्यों, यह लोग
पिछले 18 साल ही लिख रहे थे!!! 2 साल ज्यादा एड करने से उन्होंने क्यों परहेज किया यह
मैट्रिक पास आदमी भी समझ सकता है। एक गजब और हो रहा था। रोज़ शाम को टीवी डिबेट में
हिंदू-मुसलमान कराने वाले ऐंकर पूछ रहे थे कि ये आग किसने लगाई!!!
क्या दिल्ली का
दंगा सिर्फ कपिल मिश्रा के उक्साने वाले बयान और ताहिर हुसैन के घर की छत से हमला,
इन्हीं दो चीजों तक सीमित है? अमित शाह देश के
गृहमंत्री है, दिल्ली की कानून-व्यवस्था उनके अधीन है, इस लिहाज से उनकी
जिम्मेवारी अधिक है। बावजूद इसके वो चुनावी प्रक्रिया में ही उलझे रहे यह भी सच ही
है। किंतु अमित शाह, ताहिर हुसैन या कपिल मिश्रा तो बलि के बकरे है। समूचा
कसाईखाना तो हर दफा किसी न किसी जगह से ऑपरेट हो ही जाता है। लोग तो मरते ही रहते
हैं और उनके हमदर्द सोते रहते हैं!
शाह तो बंगाल
चुनाव में जुट गए थे, किंतु उधर मुसलमानों के मसीहा बननेवाले राहुल गांधी तो इटली
का चक्कर भी लगा लिये थे!!! केजरीवाल के बारे में तो हम कह ही चुके है कि वो थोड़े हल्के
मोदी है! उन्हें ना मुसलमान समर्थक दिखाना है खुद को और ना ही हिंदूओं का विरोधी बनना
है, सो उनकी चुप्पी कायम रही। हिंसा के बीच राजघाट पहुंचे केजरीवाल, लेकिन लोगों के
बीच नहीं गए! उनकी पार्टी के मुस्लिम विधायक पीड़ितों का हाल जानने निकले थे अपने अपने इलाकों
में, केजरीवाल ने परहेज किया! अखिलेश यादव, मायावती सब औपचारिक ढंग से बोले, जैसे कि
बोलना पड़ता है तो बोल लिये! दिनों तक चुप रहनेवाले पीएम मोदी वक्त बिता तो एक ट्वीट
करके अपना जिम्मेदारी का बोझ उतारते दिखे! कुछ वक्त बितेगा तो फिर दौरे करना का
दौर शुरू होगा, मसीहा कूदेंगे। यह सारे हमदर्द तब सो रहे थे, जब लोग मर रहे थे!
जिस दिन दंगे की
शुरुआत हुई उस शाम राहुल गांधी ने ट्वीट किया और फिर अंतर्ध्यान हो गए! कांग्रेस की बैठक हुई, राष्ट्रपति से कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल जाकर मिला।
राहुल कही पर नहीं थे!!! राहुल से ज्यादा सक्रिय तो प्रियंका गांधी रही, जिन्होंने बाक़ायदा सड़क पर उतर
कर शांति मार्च निकाला था। राहुल गांधी तो दंगों के बीच इटली भी चले गए!!! सपा और बसपा मुस्लिम वोटों के सबसे बड़े ठेकेदार माने जाते हैं, किंतु अखिलेश और
मायावती सक्रिय नहीं दिखे! दिल्ली तो ठीक है, यूपी में भी सीएए विरोध प्रदर्शनों में
पुलिस की ज्यादतियां सुर्खियां बनी थी। अखिलेश और मायावती तब भी इतने सक्रिय नहीं दिखे थे! मायावती तो ट्वीट करने में भी आलसी निकली! दंगों का तांडव रूकने को था तब जाकर
इन्हें किसीने याद दिलाया होगा, सो इन्होंने ट्वीट कर दिया।
ढेरों कहानियां है।
जैसे कि शिव विहार के मुस्लिम परिवार बताते है कि उन्होंने उस रात आम आदमी पार्टी
के अपने कई संपर्कों को फोन किया, लेकिन किसीने नहीं उठाया, किसीने उठाकर भी कुछ नहीं किया!!! यही हाल हिंदू परिवारों का भी है!!! बीजेपी
अल्पसंख्यक मोर्चा के उपाध्यक्ष के हवाले से बीबीसी हिंदी ने लिखा है कि इनका फोन
बीजेपी वालों ने भी नहीं उठाया और सब होने के बाद भी अब तक उनकी पार्टी से किसीने
उन्हें फोन नहीं किया, हाल जानने की कोशिश तक नहीं की! नागरिक वोटर बनकर
घूमता है और जब उस वोटर की ज़रूरत होती है तो उनका हमदर्द उनसे दूर चला जाता है।
यही हाल हिंदू और मुस्लिम पीड़ितों का रहा।
किसीने फोन नहीं उठाया – इससे जुड़ी सबसे भद्दी कहानी है 1984 के दंगों की। देश का राष्ट्रपति अपनी
कौम को मरते हुए देखता रहा, वो बार बार पीएमओ में फोन करता रहा, पीएम से संपर्क
बनाने की कोशिशें करता रहा, लेकिन संपर्क नहीं कर पाया!!! संपर्क हुआ तो जो कहा वो किसीने सुना तक नहीं था!!!
हर दंगों में विपक्ष
बकरा ढूंढता है। बीजेपी भी ढूंढती थी। इस दफा विपक्ष ने अमित शाह नाम का बकरा ढूंढ
लिया। विपक्ष सवाल पूछ रहा था कि अमित शाह दंगों को शांत कराने के लिए सड़क पर
क्यों नहीं उतरे? हमने तो इसी संस्करण में लिखा है कि भाई,
महात्मा गांधी और सरदार पटेल का वो दौर चला गया। उसके बाद कौन सा गृहमंत्री इन
हालातों में हिंसा के बीच सड़क पर उतरा था? एक भी नाम नहीं मिलेगा शायद। जो भी उतरे वो हिंसा का दौर खत्म होने के बाद
उतरे, बीच हिंसा में नहीं। दंगे कांग्रेस के समय हुए लेकिन उन्होंने कभी अपने
गृहमंत्री से इस्तीफ़ा नहीं लिया, लेकिन इस बार मांग लिया! बीजेपी पहले मांगती थी, इस बार नहीं दिया! टूथपेस्ट वही, नाम नया!!!
दरअसल, मंत्रियों, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से इस्तीफ़ा मांगना राजनीति का एक कर्मकांड है, जिसके
बिना राजनीतिक यज्ञ अधूरा रह जाता होगा! मुसलमानों का हमदर्द बनने की चाह
रखनेवाला कोई नेता जमीन पर सक्रिय नहीं दिखा। थोड़ा-बहुत जो कुछ हुआ, बस ट्वीट-ट्वीट
वाला हुआ। दंगा शांत होगा तो फिर सारे हमदर्द जगेंगे, जो तब सो रहे थे।
दरअसल दंगे में हैवानियत का प्रारूप (ड्राफ्ट) तो राजनीति की कृपा से दशकों पहले
ही तैयार हो चुका है, बस हर बार इसे अपग्रेड ही किया जाता है। 1984 के दंगों की कहानियां पढ़ लीजिएगा। भड़काऊ नारे, उक्साना उन दिनों भी
खुलकर हुआ था। बस तब सोशल मीडिया नहीं था। इन नारों का दूरदर्शन पर लाइव प्रसारण भी
हो रहा था उन दिनों!!! याद कीजिए राजीव गांधी जैसे कदावर नेता का वो अत्यंत ही आपत्तिजनक बयान। गुजरात
के 2002 के दंगे, मृतकों के शवों को अहमदाबाद नहीं लाने के लिए कहा गया था, लेकिन
लाये गए, शवयात्रा निकली और वही भड़काऊ नारे और उक्साना। 2002 हो, 1984 हो या उससे
पहले या उसके बीच या उसके बाद अब 2020 हो, मशीनरी को लगाया तो गया लेकिन आदेश नहीं थे!!!
हमदर्दों का सोते रहना, जिन्हें लोगों ने चुना था उनका नदारद रहना और एनएसए जैसे
ओहदे का सड़क पर उतरना, यह समाधान था या समस्या का संकेत?
अजित डोभाल का
काफ़िला और उस काफ़िले से बिलकुल सटकर दंगाइयों का निकलना, रजनीश कुमार की एक
रिपोर्ट हमने ऊपर देखी ही है। खैर, लेकिन सरकार का कोई आदमी लोगों के बीच तो था, सड़कों पर उतरा तो था। मौके पर जो पत्रकार थे वो लिखते है कि अजित डोभाल लोगों को
आश्वस्त कर रहे थे, दरवाजे खुलवाकर लोगों से बातें कर रहे थे, कभी हिंदी में बोलते,
कभी उर्दू के दो-चार लफ्जों में भी, तो कभी अपनी खुर्राटेदार अंग्रेजी में। यह सारा
द्रश्य गैर-राजनीतिक था, लेकिन अटपटा भी था।
नागरिकता कानून की
घोषणा, फिर देशभर में हिंसा, अलग-अलग राज्यों में विरोध, मौतें, धारणाएं, भ्रांतियां,
मान्यताएं, दिल्ली, शाहीन बाग, दिल्ली चुनाव का राजनीतिक जहर, अचानक से हिंसा,
हतप्रभ करनेवाली हत्याओं का दौर और फिर अजित डोभाल की नाटकीय एंट्री। अटपटा इस लिए
भी, क्योंकि अभी तक कोई एनएसए इस तरह से सड़कों पर उतरा नहीं था। जम्मू-कश्मीर की बात और है। 2002 में जब दंगे हुए तब तत्कालीन एनएसए वृजेश मिश्रा एक शब्द नहीं बोले थे, वाजपेयी गुजरात जाकर राजधर्म के पालन की बात कर आए थे। अजित डोभाल एनएसए की जो
परिभाषा है उसे नये सिरे से गढ़ रहे है या फिर ऐसा करवाया जा रहा है।
एक बात तो सिंपल
सी है कि नागरिकता कानून के बाद आज तक जो स्थितियां बनी है उसमें बीजेपी, संघ,
कांगेस, आप, सपा, बसपा, टीएमसी से लेकर तमाम मौकापरस्त नेताओं का थोड़ा-बहुत हाथ रहा
है। चाहे वो भड़काना हो, उक्साना हो, भ्रमित करना हो या इससे आगे कुछ और हो। लोगों
ने जिन्हें चुना हो, लोगों का सरौकार जिससे रहता हो, वो राजनेता सड़कों पर ना उतरे और
उनकी जगह एनएसए लोगों के बीच पहुंचे तो यह कई तरीके से अटपटा था। जब पूरी कैबिनेट दिल्ली
में बैठी हो, केंद्र और दिल्ली की सरकार के सारे प्रमुख लोग दिल्ली में हो, प्रधानमंत्री से लेकर म्युनिसिपालिटी के पार्षद तक दिल्ली में हो, तमाम
राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि दिल्ली में बसते हो, ऐसे में आम लोगों के बीच जाने का ज़िम्मा
उस व्यक्ति को सौंपा जाए, जिसका जनता-वोट और लोकतांत्रिक व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं
है। लोग पूछने लगे कि यह संयोग है या फिर कोई नया प्रयोग?
एनएसए का काम ख़ुफ़िया
एजेंसियों में तालमेल बिठाना और प्रधानमंत्री को संवेदनशील मामलों में सलाह देना होता
है। इस दफा कोई नई लकीर खींची जा रही थी। यह नये तरीके का समाधान था या फिर किसी
समस्या का संकेत, यह भी गलियारों में चर्चा का विषय बना रहा। किसी सामाजिक, धार्मिक
और राजनीतिक मसले का समाधान राजनीति ही करती है, लेकिन गृहमंत्री नहीं आए, दूसरी
कतार के कोई मंत्री नहीं आए, कोई प्रभावशाली नेताओं का गुट नहीं आया, आ गए तो एनएसए!!! वो एनएसए, जिनका जनता, वोट, जनसंपर्क अभियान, बूथ स्तर की पहुंच आदि से कोई
लेना-देना नहीं था!!! दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा करके जिन लोगों का संपर्क उनसे कभी नहीं रहा उन्ही
लोगों को समझाना-बुझाना, एनएसए का यह नया काम था!!!
जम्मू-कश्मीर में
भी डोभाल को मैदान में उतारा गया था। फिर दिल्ली में। हालांकि दोनों जगहों की
पृष्ठभूमि, स्थितियां अलग थी। 370 निष्प्रभावी करने के बाद डोभाल को उतारा जाना
इतना अटपटा नहीं था, जितना दिल्ली में इन्हें मैदान में ले आना था। खैर, एक फायदा तो
होता ही इससे। पहला, लोग आपसे सवाल पूछ रहे है और आपको जवाब नहीं देने तो आप अपना
कोई बंदा भेज दो। आगे कर देने की प्रवृत्ति! दूसरा, आपका बंदा वहां जाकर बातें करेगा,
भरोसा दिलाएगा, वचन देगा, और फिर वो बातें-भरोसा-वचन पूरे नहीं होंगे तब भी कोई
जोखिम नहीं है, क्योंकि उस बंदे को वोट मांगने दोबारा थोड़ी न जाना है वहां, उसे थोड़ी न कोई हिसाब देना है।
अजित डोभाल को
दिल्ली में उतारने पर जब सवाल पूछा गया तो इंडियन एक्सप्रेस से बीजेपी के महासचिव अनिल
जैन ने कहा कि अगर गृहमंत्री दिल्ली की गलियों में दौरा करें, तो संदेश अच्छा नहीं जाएगा। बताइए, चुना हुआ मंत्री, जिसकी जिम्मेदारी ही है
वहां जाने की, वो जाएगा तो संदेश अच्छा नहीं जाएगा!!! ... और इसी लिए
डोभाल जाएगा!!! सीमित राजनीतिक मोर्चे पर ऐसे ओहदेवाले शख्स का मैदान में आना यदि कारगर साबित
होता है तो ठीक है, लेकिन बेसिक्स को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
एक विश्लेषण यह भी
कहता है कि असल में यह मोदी सत्ता की नयी शैली है। बीजेपी का नया तरीका है। जिनका
राजनीतिक वजूद है वो सारे नेता कोने में बिठा दिए गए है, आगे वही है जो मोहरे है।
क्या डोभाल मोहरा है? पता नहीं। जाहिर
है, कोई राजनीतिक व्यक्ति सड़कों पर उतरता तो बात कैबिनेट तक पहुंचती, गृहमंत्री
शाह आगे आते तो बात बहुत हद तक आगे जाती। राजनीति ने नायाब रास्ता चुना, जहां कोई सवाल
नहीं-कोई जवाब नहीं!!! सेना और खुफिया संस्था से जुड़े लोगों का ऐसे
सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-राजनीतिक मसलों में सरकार का दूत बन कर लोगों के बीच जाना,
यह ट्रेंड चर्चा के अधीन है। साफ है, ऐसी चीजें समाधान कम रणनीति ज्यादा है और ऐसे
गंभीर हालातों में भी रणनीति हावि हो, समाधान छिटक जाए, फिर तो क्या कहने?
दिल्ली दंगों का वो खोफनाक पैटर्न, सिर्फ आईबी के कर्मी को ही नहीं अन्य कइयों को
भी उसी नृशंष तरीके से ही मार दिया गया था... दंगे और हिंसा का वो चेहरा जो पहले
कभी नहीं देखा गया
देश की राजधानी
दिल्ली में इस कदर खुलेआम बीच सड़क पर चार दिनों के भीतर इतनी सारी गोलियां चले, इतने
सारे लोग गोलियों से भून दिए जाए, एक-दो या दश-बीस नहीं पच्चीस-पचास वार करके
धारदार हथियार से लोगों का कत्ल कर दिया जाए... !!! ये कोई सामान्य
सा पैटर्न नहीं कहा जा सकता। स्कूलों पर दो दिनों तक कब्जा जमा लेना और उन्हें आतंक
के लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल करना, यह पाकिस्तान के स्पीती वैली के तालिबानियों वाला
ट्रेंड है!!!
उधर वीडियो हर तरफ
से आए। जब कपिल मिश्रा ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के डीसीपी की मौजूदगी में लोगों को
धमकी दी उसी रात को एक वीडियो सामने आया। इस वीडियो में कुछ लोग जय श्रीराम का नारा
लगाते हुए एक ट्रक में भरी ईंटें उतार रहे थे। मर्यादा पुरुषोत्त्म श्रीराम को ऐसी
भक्ति पसंद आई होगी यह सोचना ही अधर्म है। फिर मौजपुर का वो चौंकानेवाला वीडियो
आया जिसमें लाल टीशर्ट पहना हुआ एक शख्स सरेआम, बीच सड़क पर बंदूक तान रहा था,
फायरिंग कर रहा था!!! वीडियो में उस शख्स ने तो पुलिस कर्मी पर ही बंदूक तान दी थी!!! बंदूक ताननेवाले की पहचान शाहरुख के रूप में हुई। जिसके सामने बंदूक तानी गई
थी उनका नाम दीपक दहिया था। पहले रिपोर्ट आए कि उसे गिरफ्तार कर लिया गया है, फिर
एक-दो दिन बाद रिपोर्ट आई कि शाहरुख फरार है और पुलिस उसे ढूंढ रही है। फिर दिनों
बाद उसे शामली से गिरफ्तार कर लिया गया। उधर आप पार्टी का पार्षद और कथित दंगाई
ताहिर हुसैन फरार था और अग्रीम जमानत के लिए अर्जी डाल रहा था।
हिंदूओं के भी
वीडियो चल रहे थे, मुसलमानों के भी। उन दिनों सब के सब हत्यारे बन घूम रहे थे। दिल्ली
हिंसा सोची-समझी बड़ी साज़िश का हिस्सा ही रही होगी। बड़ी साज़िश इसलिए क्योंकि जिस
तरह के हथियार इस्तेमाल किए गए वह अचानक एकत्रित नहीं हो सकते। इसकी तैयारी काफ़ी दिनों
से की जा रही होगी। पत्थरों के ढेर, स्थानिक और बाहरी हमलावरों का मेल, देसी कट्टे,
कारतूसों के खोखे, बोतल बम, तेज़ाब, हमलावरों के शिकार हुए लोगों की चोटें और हमला करने के तरीक़े... सोची-समझी बड़ी
साज़िश। मुसलमानों के इलाकों पर भी हमले हुए, हिंदूओं के इलाकों पर भी। दुकानें, घर,
संपत्तियां, जिंदगी सब की बर्बाद हुई।
दंगाइयों ने
परंपरागत तरीके आजमाए, सोशल मीडिया का आधुनिक रास्ता पकड़ा और सबसे आगे बढ़कर बंदूकों का जमकर इस्तेमाल किया!!! किंतु कुछ जगहों पर हमले का जो तरीका था, जगहों को हथियाकर
लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल करने का जो पैंतरा था, यह अपने आप में चौंकानेवाला तरीका
था। शिव विहार इलाके में जिस तरह से स्कूलों पर कब्जा किया गया, चार से पांच मंजिल
की ऊंचाई से रस्सी बांधकर चढ़ा या उतरा गया, ये वाकई गजब की खबर थी!!! रस्सी के सहारे चार-पांच ऊंची मंजिल पर चढ़ना या उतरना बच्चों का खेल नहीं है, इसके
तो तालीम केंद्र होते हैं, ट्रेनिंग दी जाती है। सुरक्षा बलों को जो सिखाया जाता हैं,
पता नहीं दंगाइयों को इतनी प्रोफेशनल ट्रेनिंग किस तरह से और कहां से मिली होगी?
दंगाइयों ने पेट्रोल
बम की मार दूर तक हो इसके लिए गुलेल का इस्तेमाल किया और इन गुलेल को रेहड़ियों की
मदद से इस तरह तैयार किया गया था ताकि ये ज़्यादा दूर तक जाएँ और ज़्यादा नुक़सान
करें!!! यह सब कुछ यूंही नहीं हुआ होगा, दिनों से इसकी तैयारियां हो रही होगी। या फिर
पत्थर गैंग के पास (जिसका ज़िक्र हमने हिंसा की राजनीति वाले संस्करण में किया था)
यह सारी सामग्रियां अब उपलब्ध रहती होगी!
सवाल है कि क्या
दिल्ली का दंगा सिर्फ कपिल मिश्रा के उक्साने वाले बयान और ताहिर हुसैन के घर की
छत से हमला, इन्हीं दो चीजों तक सीमित है? दिल्ली में तीन दिनों तक जो हुआ वो अचानक से हुई हिंसा तो थी ही नहीं। दिल्ली
में तो विरोध आंदोलन महीने भर से शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे थे। मामला तो सिर्फ सड़क
खुली करवाने का था। पेंच दिल्ली पुलिस को लेकर भी था, जिन्होंने दूसरी दो सड़कें बंद
करके रखी थी।
तीन-चार दिनों के
भीतर दिल्ली में इतनी गोलियां चली, जितनी किसी दंगे में कहीं पर नहीं चली होगी!!! एक रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस को जो खाली सेल मिले उसकी संख्या ही 400 के
आसपास थी!!! खाली सेल मिले उतनी ही गोलियां चली होगी यह मानना तो बिल्कुल बचकाना अंदाज
होगा, क्योंकि जो मिला उससे कई गुना ज्यादा गोलियां चली होगी। यानी कि तीन-चार दिनों
के भीतर दिल्ली में सरेआम सैकड़ों गोलियां दागी गई!!! मरनेवाले लोगों में
भी ज्यादातर लोग गोलियों से मरे थे!!! घायल लोगों में भी
गोलियों से जख्मी होनेवाले लोगों की तादाद ज्यादा थी!!! आलम यह था कि
हिंसा खत्म होने के दिनों बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के नालों से पुलिस को लाशें मिल रही थी!!! दंगों में या हिंसा में यह पहला ऐसा ट्रेंड था जहां इस स्तर पर बंदूकों का
इस्तेमाल किया गया हो। 32 एमएम, .9 एमएम और .315 एमएम
कैलिबर की गोलियाँ जमकर चली!
बात महिलाओं को ढाल
बनाने के नये चलन को लेकर भी होनी चाहिए। यह भी नया ट्रेंड है। क्या पता पुराने
दौर से प्रेरित होकर लागू हुआ हो या फिर बिलकुल नया हो। क्या है मुझे नहीं पता।
लेकिन हिंसा में महिलाओं को आगे करने की बातें भी सामने आई!!! जिससे सुरक्षा बल महिला वाले नाजुक मुद्दे को लेकर ज्यादा नाजुक हो जाए! हिंसा ही नहीं, इससे पहले प्रदर्शनों में भी यह तरीका आजमाया जा रहा है।
शांतिपूर्ण प्रदर्शनों तक तो ठीक है, किंतु हिंसा में महिलाओं को आगे रखने की चालाकी
भी सोची-समझी रणनीति ही मान लीजिए।
दिल्ली में पुलिस
का जवान भी मारा गया, आईबी का कर्मचारी भी। एक बीएसएफ जवान का घर जला दिया गया, जो
उन दिनों सरहद पर तैनात था!!! आईबी के कर्मी को जिस तरीके से मारा गया, हाल उस एक हत्या
को लेकर ही ऐसा नहीं था। सैकड़ों लोगों को दर्जनों बार नहीं बल्कि पच्चीस-पचास वार करके
मार दिया गया था!!! कइयों को मारने के बाद ज्वलनशील पदार्थ से या एसिड से जला दिया गया, या जलाने
की कोशिशें हुई। नालों से जो लाशें मिली उन लाशों के साथ ईंट और पत्थर बांधे गए थे,
ताकि लाशें मिल ही ना पाए। लाशों को बांधकर उनके ऊपर ईंट और पत्थरों की बोरी बांध दी
गई थी जिससे वे नीचे पड़े-पड़े ही सड़ जाएं और लोगों को इनके बारे में पता न चले!!! सशक्त महिला का नारा लगानेवाले भारत की राजधानी दिल्ली में ही दंगाइयों ने कई
लड़कियों के तमाम कपड़े निकाल लिए और बिना कपड़ों के छोड़ दिया!!! बीबीसी हिंदी के साथ बातचीत में कई महिला पीड़ितों ने बताया कि उनके साथ यौन
अत्याचार भी हुआ था।
इन दिनों दिल्ली
में खुलकर फायरिंग हुई। फायरिंग के लिए देसी कट्टों का जमकर इस्तेमाल हुआ था। ध्यान
दीजिए कि यह वह दिन थे जब दिल्ली में दुनिया का सबसे ताकतवर राष्ट्राध्यक्ष परिवार
समेत मेहमान बना हुआ था। यह वह दिन थे जब प्रशासन और पुलिस के हवाले से कहा जा
रहा था कि परिंदा भी बिना इजाज़त के घुस नहीं सकता। लेकिन इन्हीं हालातों के बीच कथित
रूप से ईंटों और पत्थरों से भरे हुए ट्रक दिल्ली में घुस गए!!! इन ट्रकों में सैकड़ों की तादाद में युवा थे, जिन्हें कई लोगों ने प्रवेश करते हुए
देखा। परिंदों की बात तो छोड़िए, इंसानों को
सरेआम देसी कट्टों से भून दिया गया!!! उत्तर पूर्वी दिल्ली
के स्थानीय लोग बताते हैं कि हथियारबंद भीड़ बाहर से आई थी! भजनपुरा,
शिवविहार और चाँदबाग जैसे इलाकों में ज़बरदस्त फायरिंग हुई।
सैकड़ों हिंदू और
मुस्लिम प्रत्यक्षदर्शी, अस्पतालों में इलाज करा रहे कई घायल, मीडिया रिपोर्टर से
लेकर कई अन्य स्त्रोत पहली बात तो साफ कर देते है कि बहुत ही ज्यादा तादाद में युवा
दंगाई और हिंसा का सामान बाहर से लाया गया था। स्थानीय लोग, स्थानीय मदद तो थी ही,
लेकिन बाहरी दंगाई ज्यादा थे। कौन किसे मार रहा था, किसीको नहीं पता था!!! ना ही मारनेवालों को और ना ही मरनेवालों को!!! कुछेक पत्रकारों
ने और कुछेक प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया है कि कई दंगाई नसे में घूते थे! लोग ही नहीं, कुछ जानवरों की भी गोली लगने से मौतें हुई थी, जिनके शव इलाकों में
दुर्गंध फैला रहे थे!
हिंसा में जमकर
देसी कट्टों का इस्तेमाल हुआ, और दिल्ली में ऐसे हथियार यूपी बोर्डर से ही आए होंगे।
इतना तो बिल्कुल साफ है कि दिल्ली दंगे अचानक ही नहीं हुए थे, इसके पीछे कई दिनों से
तैयारी चल ही रही होगी। बंदूकें, तलवारें, पेट्रोल बम, एसिड, पेट्रोल, लोहे के रोड़,
बड़ी तादाद में बाहर से लाए गए दंगई... सब कुछ इक्ठ्ठा किया जा रहा था और राजधानी में
खुफिया विभाग को पता ही नहीं था!!!
इस बीच राजनीतिक
दलों के लठैतों का व्हाट्सएप या फेसबुक पर आग लगाने का कार्यक्रम निरंतर जारी था।
लाजमी था कि इन लठैतों को दलों के आईटी सेल कंटेट मुहैया करवा रहे थे। जानकारी के
मुताबिक हिंसा करनेवाले दोनों समुदायों ने (हिंदू और मुस्लिम, दोनों ने) बाकायदा
व्हाट्सएप ग्रुप बनाए, जिसमें वीडियो डालकर लोगों को भड़काया गया और भड़काऊ मैसेज फॉरवर्ड
किए गए। पथराव किस इलाके में करना है इसकी सूचना भी इन्हीं ग्रुपों से दी जा रही थी! इन ग्रुपों में फेक न्यूज़ फैलाए गए, पुरानी हिंसा के वीडियो डाले गए। खबरों के
मुताबिक इन्हीं ग्रुपों के अंदर दर्ज है कि स्थानीय लोगों ने यूपी बोर्डर से दंगाइयों को बुलाया था। बहुत हद तक मुमकिन है कि सदैव की तरह इसमें भी स्थानीय नेताओं का हाथ
हो। आप पार्टी के ताहिर हुसैन जैसे मामलों को प्राथमिक रूप से देखकर यही लगता है कि
हाथ नहीं, अब तो पूरे के पूरे नेता ही हो सकते है!!!
दिल्ली इन दिनों
दिल्ली जैसी नहीं दिखती थी, मानो जैसे बारूद के ढेर पर बैठा कोई शहर हो! हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदाय अपने-अपने इलाकों में युवा लड़कों को किसी जंग के
लिए तैनात कर रहे हो ऐसा मंजर था! दंगों में होता है वैसे यहां भी धार्मिक पहचान हो रही थी,
लोगों को पहचाना जा रहा था, गाड़ियों को पहचाना जा रहा था। प्रशासन नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी। जैसे कि सरकार ने लोगों को लड़ने और मरने के लिए छोड़ दिया था!
दंगों के दौरान सोशल मीडिया में एक सीधी बात बहुत मार्मिक ढंग से लिखी गई। लिखी
गई बात यह थी कि बीजेपी-पीडीपी एक हो सकते हैं, कांग्रेस-शिवसेना एक हो सकते हैं, बस
हिंदू और मुसलमान एक नहीं हो सकते।
यह सच है कि इन दंगों के दौरान ऐसी भी मिसालें देखने को मिली जहां हिंदूओं ने
अपने मुस्लिम पड़ोसियों को बचाया तो मुस्लिम परिवारों ने दंगों के बीच हिंदू बहन की
ड़ोली उठवाई। दंगों के ठीक बाद हिंदू परिवार के यहां बारात आई तो मुस्लिम लोगों ने इसका
स्वागत किया और चौंकन्ना होकर सुरक्षा भी दी। इन्हीं दंगों के दौरान कई ऐसे मामलें आए
जिसमें हिंदूओं ने मुसलमानों की मस्जिद को बचाया तो मुसलमानों ने हिंदूओं के मंदिरों को
सुरक्षा दी। दंगों के बीच जिंदा इंसानियत ... लेकिन दूसरी ओर दम तोड़ती इंसानियत।
लेकिन बात इंसानियत वगैरह की नहीं है। लुटियंस सिर्फ दिल्ली में नहीं है, हर राज्यों
में दिल्ली जैसा लुटियंस है, वहां एकाध पत्थर तो क्या एकाध काला झंडा लेकर भी
पहुंचो, पता चलेगा। और अगर पत्थर फेंका तो बदले में कई घरों की ईंटों से लेकर नींव
के पत्थर तक खोद डालेगी एजेंसियां! बात यही है कि
दंगे संयोग तो होते नहीं, प्रयोग होते है। तो फिर प्रयोगों के लिए लेब होगी, मटेरियल
होंगे, कारीगर होंगे, एक्सपर्ट होंगे, स्टाफ होगा, उन्हें चलाने के लिए फंड होगा,
पैसा होगा, बहुत कुछ होता होगा। और ऐसे प्रयोग दशकों से चलते है, बिना किसी परेशानी
के, बिना किसी झिझक के! क्योंकि इन
प्रयोगों में कोई नेता नहीं मरता, उनका कोई परिजन नहीं मरता, बस लोग मरते हैं।
दंगे लगभग लगभग खत्म हो चुके हैं। अब बड़े लोग बोलेंगे, बड़े हेडलाइन्स छपेंगे और
लोगों की तकलीफें छोटी होने लगेगी। बयानों, मुआवजे आदि को जगह मिलेगी और मारे गए,
जलाए गए लोगों के लिए जगह कम होती जाएगी। हमारे इस लेख का जो शीर्षक था उसके अनुसार
दंगों के लिए बीजेपी, संघ, कांग्रेस, आप, सपा, बसपा, टीएमसी जैसों को ना कोसे। ये सब
अपने लक्ष्य के प्रति बहुत ही ईमानदार होते हैं। ईमानदारी को कोसना नहीं चाहिए। बस
प्रेरित होकर अपना लेना चाहिए, है न?
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